शिवजी का काशीजी में पहुँचकर विश्वनाथ शिवलिंग का पूजन करना 

इतनी कथा सुनाकर श्रीसूतजी ने कहा-हे शौनकादि ऋषियो! जब ब्रह्माजी यह वृत्तान्त कह चुके तो नारदजी ने सन्देह से युक्त होकर कहा-हे पिता! आपने अन्धकासुर की कथा मुझे सुनायी, अब मुझे उसमें कुछ सन्देह उत्पन्न हुआ है आप उसे दूर करने की कृपा करें।

हे ब्रह्मन्! आप मुझे यह बतावें कि शिवजी कैलाश छोड़कर मन्दराचल को कब गये? नारद के मुख ये यह शब्द सुनकर ब्रह्माजी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा-हे नारद! प्राचीन काल में एक दिन श्रीशिवजी श्रीगिरिजाजी तथा अपने गणों के साथ काशीपुरी गये। उस समय मैं, विष्णु, इन्द्र आदि सभी देवता ऋषि-मुनि तथा सिद्धजन आदि भी अपने परिवार एवं गणों सहित शिवजी की सेवा करने के लिए वहाँ जा पहुँचे। वहाँ सबके पहुँच जाने पर, शिवजी की जो सभा विराजमान हुई, उसकी सुन्दरता का किसी भी प्रकार वर्णन नहीं किया जा सकता।

हे नारद! सर्वप्रथम हमलोगों ने मणिकर्णिका में स्नान किया, तदुपरान्त भगवान् विश्वनाथ का पूजनकर उनकी अनेक प्रकार से स्तुति-प्रशंसा की। तत्पश्चात् शिवजी के गणों ने भी बहुत प्रकार से पूजा-स्तुति की। कैलाशपति शिवजी ने भी जब हमलोगों के साथ भगवान् विश्वनाथ की पूजा की, उस समय काशीपति विश्वनाथ ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपनी दोनों भुजाएँ फैलाकर गिरिजापति से भेंट करते हुए कहा-हे कैलाशपति, चन्द्रभाल! हम और आप एक ही स्वरूप हैं। 

आपमें और मुझमें किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। मैं यहाँ पर मूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित हूँ और आप संसार का उपकार करने के हेतु सगुण रूप धारणकर, गिरिजा के साथ कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। आपने यह बड़ी कृपा की, जो आप सब देवताओं के साथ यहाँ पधारे।

हे नारद! काशीवासी भगवान् विश्वनाथ के मुख से यह वचन सुनकर, कैलाशपति शिवजी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा-हे काशीपति! वास्तव में मुझमें और आपमें किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं है। आप मुझे कैलाश पर्वत पर जाने की आज्ञा दीजिये, क्योंकि मैं यहाँ केवल आपके दर्शनों के निमित्त ही आया था। 

यह सुनकर श्रीविश्वनाथजी ने हँसकर कहा-हे कैलाशपति! मेरी इच्छा है कि अब आप देवताओं तथा मुनीश्वरों के साथ कुछ दिनों तक इसी काशी नगरी को अपनी राजधानी बनाकर, गिरिजा एवं गणों सहित यहीं निवास करें तथा आर्यावर्त भरतखण्ड पर अनुग्रह करके संसार के मनुष्यों को कृतार्थ करें। जिस प्रकार आप कैलाश पर्वत को प्रिय समझते हैं, उसी प्रकार इस स्थान को भी प्रिय जानकर, यहीं स्थित हों। 

इस काशीपुरी में जो मनुष्य रहें आप उन्हें मोक्ष प्रदान किया करें। हे कैलाशपति! तीनों लोक आपकी आज्ञा में रहते हैं। आप सबसे श्रेष्ठ और सबके स्वामी हैं। ब्रह्मा तथा विष्णु भी आपके आधीन हैं। आपही उनकी रक्षा करते हैं और आपकी सेवा करके ही उन्होंने अत्यन्त उच्चपद को प्राप्त किया है। 

ब्रह्मा सृष्टि को उत्पन्न करते हैं और विष्णु उसका पालन करते हैं। इन दोनों की आज्ञा पाकर देवराज इन्द्र राज्य किया करते हैं। आप संसार का उपकार करने के निमित्त इन सबके ऊपर अपनी कृपा बनाये रहें।

हे नारद! काशीपति भगवान् विश्वनाथजी के ऐसे वचन सुनकर कैलाशपति शिवजी ने कहा-हे देवताओं के स्वामी! यद्यपि मुझे कैलाश पर्वत अत्यन्त प्रिय है, क्योंकि वहाँ मेरे भक्त निवास करते हैं, फिर भी मैं काशी को उससे भी अधिक प्रिय जानकर आपकी आज्ञानुसार यहीं निवास करूँगा। कैलाशपति शिवजी के मुख से यह वचन सुनकर भगवान् विश्वनाथ अन्तर्धान हो गये तथा कैलाशपति शिवजी भगवान् विश्वनाथ के उसी स्थान पर अपने पूर्णांश द्वारा गुप्त होकर निवास करने लगे। इस प्रकार काशी परम सिद्धपीठ के रूप में प्रसिद्ध हुई। भगवान् कैलाशपति के साथ गिरिजाजी भी वहीं निवास करने लगीं।

हे नारद! उस काशीपुरी की महिमा ऐसी है कि जो मनुष्य वहाँ मरता है उसे श्री शिवजी तारकमन्त्र देकर मुक्ति प्रदान करने की कृपा करते मिलती है। वह काशी तीनों लोकों में सबसे श्रेष्ठ, सबसे पवित्र तथा प्रज्ञानक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है। अब मैं तुम्हें वह कथा सुनाता हूँ, जिस प्रकार भगवान् विश्वनाथ की आज्ञा पाकर गिरिजापति शिवजी ने काशी में राज्य किया और मनुष्यों के कष्टों को दूर किया। 

जब शिवजी ने काशी को अपनी राजधानी बनायी, तो भगवती गिरिजा भी वहीं रहकर अन्नपूर्णेश्वरी देवी के नाम से प्रसिद्ध हुईं। उन्हीं की कृपा से काशी में कोई जीव भूखा नहीं रहता है। वे अपनी प्रजा के सम्पूर्ण मनोरथों को पूरा करती हैं।

हे नारद! यह कथा मैं तुम्हें पहिले सुना चुका हूँ कि शिवजी ने अपने अंश से एक मूर्ति को उत्पन्न किया था, जिसका नाम भैरव था। उन भैरव ने मेरे पाँचवें मस्तक को त्रिशूल द्वारा काट डाला था, क्योंकि मैंने उस मुख से शिवजी की निन्दा की थी। मेरा मस्तक काट डालने के कारण भैरव को ब्रह्महत्या का पाप लगा। उसे दूर करने के हेतु वे संसार में भ्रमण कर रहे थे। जब वे सब स्थानों में भ्रमण करते हुए काशीपुरी में पहुँचे तो उनकी हत्या का पाप तुरन्त नष्ट हो गया।

जिस स्थान पर मेरा मस्तक गिरा था उस स्थान पर शिवजी ने बड़ा नृत्य किया था, वह स्थान एक पवित्र तीर्थ के रूप में कपालमोचन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह तीर्थ सम्पूर्ण पापों को नष्ट करनेवाला है। 

हे नारद! तुम्हें यह जान लेना चाहिए कि भैरव और कोई नहीं, अपितु शिवजी के ही एक स्वरूप हैं। काशी में निवास करने पर शिवजी ने भैरव को कोटिपाल का पद दिया और यह कहा कि हे भैरव! तुम्हारा सम्पूर्ण पाप अब नष्ट हो चुका है। अब तुम यहीं हमारे पास रहकर काशीजी की रक्षा किया करो तथा पापियों को दंड देते हुए, सब प्रजा को कृतार्थ करते रहो।

॥शिवजी का आनन्द वन में पहुँचना॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! एक दिन भगवान् गिरिजापति अपने गणों को साथ लेकर गिरिजाजी सहित नन्दी पर सवार हो, आनन्दवन देखने के लिए चले। आनन्दवन में पहुँचकर उन्होंने गिरिजा से उस क्षेत्र की अत्यन्त प्रशंसा की। वहाँ मन्दार, कनेर, केतकी, अनार, चमेली, कुन्द, मौलश्री, मालती, जुही, कमल आदि अनेक प्रकार के सुगन्धित पुष्प खिले हुए थे। श्रेष्ठ ताल-तमाल आदि के वृक्षों पर पक्षी बैठे हुए मधुर-स्वरों में गान करते थे तथा तीनों प्रकार की वायु हर समय चलती रहती थी। वहाँ ऋषि, मुनि, सिद्धजन आदि नदी किनारे बैठकर अपने यम, नियम आदि का स्वच्छन्दतापूर्वक पालन किया करते थे। इस प्रकार वहाँ सर्वत्र आनन्द ही आनन्द था।

हे नारद! उस उत्तम वन को देखकर भगवान् गिरिजापति ने अत्यन्त प्रसन्न होकर माली को बुलाया और उसे पारितोषिक आदि देकर कृतार्थ कर दिया। तदुपरान्त वे वन के भीतर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने गिरिजा से कहा-हे प्रिये! जिस प्रकार तुम हमें अत्यन्त प्रिय हो, उसी प्रकार यह काशी तथा आनन्दवन भी हमें अत्यन्त पसन्द है। जो व्यक्ति यहाँ आकर मृत्यु प्राप्त करता है, उसे हम मोक्ष प्रदान करते हैं। यहाँ के रहनेवाले सदैव प्रसन्न रहते हैं और हम उनके ऊपर अपनी विशेष कृपा बनाये रहते हैं।

हे नारद! यह कहकर शिवजी गिरिजा के साथ कुछ आगे चले तो उन्होंने यह देखा कि हरिकेशजी एक अशोक वृक्ष के नीचे बैठे हुए अत्यन्त प्रेमपूर्वक तपस्या कर रहे हैं और अपने मुख से विश्वनाथ का उच्चारण कर रहे हैं। उनके शरीर में केवल हड्डियाँ और नसें ही दिखाई दे रही थीं। सिंह, सर्प आदि भयानक जीव आपने स्वाभाविक हिंसक भाव को त्यागकर उनकी रक्षा करने के लिए, उन्हें चारों ओर से घेरे खड़े थे। 

हरिकेश की यह दशा देखकर गिरिजा ने अत्यन्त दयालु होकर शिवजी से कहा-हे प्रभो! यह आपका परम भक्त है और आपके भरोसे पर ही जीवित है, अतः यह जो भी वर माँगे, उसे देने की कृपा करें। आप इसके मस्तक पर अपना करकमल रखिये, जिससे यह चैतन्य हो जायेगा।

हे नारद! गिरिजा के यह वचन सुनकर शिवजी ने बैल से उतरकर हरिकेश के शरीर को स्पर्श किया और उसे अपनी कृपा द्वारा कृतार्थ कर दिया। उस स्पर्श को पाते ही हरिकेश ने अपने नेत्र खोल दिये। उस समय उन्होंने यह देखा कि करोड़ों सूर्य की प्रभा के समान प्रकाशवान्, अपने शरीर पर भस्म रमाये हुए, पंचमुख, त्रिनेत्र, दसभुजाधारी भगवान् सदाशिव, जिनके मस्तक पर चन्द्रमा विराजमान है और वामभाग में गिरिजाजी सुशोभित हैं, उनके नेत्रों के सम्मुख खड़े हुए हैं। 

भगवान् सदाशिव के उस स्वरूप को देखकर यक्षपति हरिकेश अपने मन में अत्यन्त प्रसन्न हुए। तब वे शिवजी को प्रणाम करके उनकी स्तुति करते हुए बोले-हे प्रभो! आपने जो मेरे शरीर का स्पर्श किया, उससे मैं पूर्ण स्वस्थ हो चुका हूँ और मेरे सम्पूर्ण कष्ट पल भर में ही नष्ट हो गये हैं। हे नाथ! मैं आपकी शरण में आया हूँ सो आप मेरे ऊपर कृपा कीजिये।

हे नारद! हरिकेश की इस प्रार्थना को सुनकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हो, उसके बिना माँगे ही वरदान देने लगे। वे बोले-हे हरिकेश! तुम हमारे परम भक्त हो, अतः तुम्हें सब प्रकार का आनन्द प्राप्त होगा। यह काशीपुरी हमें अत्यन्त प्रिय है, अतः हम यह चाहते हैं कि तुम इसकी रक्षा का भार स्वीकार करो। तुम शत्रुओं को दंड देना और हमारे भक्तों को पालन करना। दंडधर और दंडकर होने के कारण तुम दंडपाणि के नाम से संसार में प्रसिद्ध होगे। 

हम तुम्हें संभ्रम तथा उद्भम नामक दो गण, तुम्हारी आज्ञा का पालन करने के निमित्त देते हैं। वे तुम्हारी आज्ञा पाकर पापियों को भली-भाँति दंड दिया करेंगे। हम तुम्हें यह भी आज्ञा देते हैं कि काशी में हमारे भक्तों के अतिरिक्त और किसी को मत रहने दो। तुम इस नगरी में रहनेवालों को अन्न देनेवाले, प्राण देनेवाले, ज्ञान देनेवाले तथा हमारी आज्ञा से मुक्ति प्रदान करनेवाले भी होगे। 

जो मनुष्य तुम्हारी सेवा करके हमारी पूजा करेगा, वह मुक्ति को प्राप्त होगा। जिस मनुष्य को मोक्ष की अभिलाषा हो, उसे उचित है कि वह सर्व प्रथम तुम्हारी पूजा करे, तदुपरान्त इसी स्थान पर आकर हमारी सेवा करे। तुम हमारे गणों में सर्वश्रेष्ठ हो। इतना कहकर शिवजी पार्वती सहित, अपने स्थान को चले गये।

हे नारद! उसी दिन से दंडपाणि अथवा दंडविनायक काशी निवासियों को आनन्द प्रदान करते हुए वहाँ स्थित रहते हैं। वे दुष्टों के लिए अत्यन्त भयानक हैं तथा शिव-भक्तों के सम्पूर्ण दुःख दूर करनेवाले हैं। संभ्रम तथा उद्मम नामक उनके दोनों गण शिवजी के शत्रुओं को दंड तथा शिक्षा देते हैं। वे दंडपाणि शिवजी की इच्छानुसार ही सब कार्य करते हैं। 

वीरभद्र ने दंडपाणि का आदर नहीं किया, इसलिए उन्हें अप्रसन्न होकर दूसरे स्थान पर रहना पड़ा, अर्थात् दंडपाणि की सेवा न करने के कारण वीरभद्र को काशीवास प्राप्त न हो सका। अगस्त्य मुनि भी इसी कारण काशी में न रह सके। उनको भी दंडपाणि की सेवा न करने के कारण काशी त्याग देनी पड़ी।

हे नारद! धनंजय नामक एक वैश्य बहुत धनवान था। वह शिवजी की सेवा में कुछ भी ध्यान नहीं देता था, इसी प्रकार उसकी माता भी शिवजी के प्रति प्रेम नहीं रखती थी। जब धनंजय की माता मर गयी तो धनंजय उसकी हड्डियों को काशी में ले आया। यद्यपि उसे शिवजी से प्रेम नहीं था, फिर भी वह अपनी माता की मुक्ति की कामना करता था। यह देखकर दंडपाणि ने शिवजी की इच्छा से यह चरित्र किया कि धनंजय की माता की हड्डियों को उनके एक गण ने देख लिया, जिसके कारण वे तुरन्त ही अदृश्य हो गयीं। 

इस प्रकार जब वे हड्डियाँ गुप्त हो गयीं, तब धनंजय निरुपाय हो, अपने घर लौट आया। काशी में पहुँचकर जो मनुष्य दंडपाणि की सेवा नही करता, उसे बड़े-बड़े कष्ट उठाने पड़ते हैं और वह अधिक समय तक नहीं रहने पाता। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को उचित है कि यदि वह काशी में रहने की इच्छा रखे तो दंडपाणि की पूजा अवश्य करे और शिवजी की भक्ति द्वारा मुक्तिपद प्राप्त करे।

॥रत्नमद्रमुनि नामक यक्ष की शिवभक्ति द्वारा मुक्ति॥

नारदजी ने कहा-हे पिता! हरिकेश का आदि से अन्त तक सम्पूर्ण वृत्तान्त आप मुझे सुनाने की कृपा करें। ब्रह्माजी बोले-हे नारद! किसी समय में रत्नभद्रमुनि नामक यक्षपति गन्धमादन पर्वत पर रहा करता था। उसका परिवार बहुत बड़ा था तथा सभी सुख-सामग्रियाँ उसके घर में उपस्थित थीं। वह सब यक्षों का राजा था। वह परमसुन्दर तथा महातेजस्वी था। वह शिवजी की भक्ति में सदैव संलग्न रहता था। उसकी पत्नी परम पवित्र, परम पतिव्रता थी । रत्नभद्र भी उससे बहुत स्नेह करता था। दोनों पति-पत्नी संसार की भलाई के निमित्त शुभ-कार्य करते थे और उससे शिवजी को प्रसन्न रखते थे। वे साधु-संतों को शिवजी के समान समझकर, उनकी सब प्रकार से सेवा किया करते थे। वे प्रतिदिन पार्थिव-पूजन करते, भस्म लगाते, रुद्राक्ष की माला धारण करते तथा शिवजी का भजन करते रहते थे।

हे नारद! उनके पूर्णभद्र नामक एक पुत्र था। वह भी अपने माता-पिता के समान गुणी एवं शिवभक्त था। माता-पिता उसकी सेवा एवं शुभ-कर्मों से सदैव प्रसन्न रहा करते थे। जब रत्नभद्रमुनि और उसकी पत्नी को मृत्यु प्राप्त हुई, तो वे दोनों मुक्त होकर शिवपुरी में जा पहुँचे। पूर्णभद्र ने उनका यथाविधि दाह संस्कार किया। फिर वह अपनी चतुरंगिणी सेना सहित आनन्दपूर्वक राज्य करने लगा। 

हे नारद! भाग्यवश पूर्णभद्र के कोई सन्तान नहीं हुई। तब एक दिन उसने अपने मन में यह विचार किया कि पुत्र दोनों लोकों में आनन्द प्रदान करनेवाला होता है, गृहस्थाश्रम की शोभा उसी से है। वही अपने माता-पिता को स्वर्ग में पहुँचाता है और वही दुःख सागर में डूबे हुए माता-पिता को नाव के समान होता है। बिना पुत्र के किसी भी उपाय द्वारा वंश नहीं चलता। जब तक पुत्र की प्राप्ति न हो, तब तक मेरा जीवन व्यर्थ है।

हे नारद! इस प्रकार पुत्र की चिन्ता में पड़ने से उसका सम्पूर्ण आनन्द दुःख में बदल गया और उसे सभी पदार्थ अशुभ तथा व्यर्थ से प्रतीत होने लगे। पूर्णभद्र की पत्नी कनककन्दला पतिव्रता, शिवभक्ता तथा परम धर्मात्मा थी। 

एक दिन पूर्णभद्र ने उसे अपने समीप बुलाकर कहा-हे प्रिये! घर में संसार की सम्पूर्ण वस्तुएँ उपस्थित हैं परन्तु पुत्र के बिना वे सब मुझे अच्छी नहीं लगतीं। में क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और किस प्रकार अपने दुःख को दूर करूँ, यह समझ में नहीं आता। उस समय उसकी स्त्री ने धैर्य बंधाते हुए यह कहा-हे स्वामी! आप बुद्धिमान होकर भी इस प्रकार दुःख क्यों कर रहे हैं ? उपाय करने से कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं रहती। मैं आपको एक उपाय बताती हूँ। जो लोग भगवान् सदाशिव के भक्त हैं, उन्हें संसार में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं रहती। आप अपने मनोरथ को पूर्ण करने के निमित्त श्रीशिवजी की शरण में जाइये। 

शिवजी की भक्ति द्वारा ही विष्णुजी ने संसार के पालनकर्त्ता का पद प्राप्त किया है। शिवजी की भक्ति से ही इन्द्र आदि दिक्पाल तथा शिलादि मुनि ने, जिसका नाम मृत्युंजय और नन्दीश्वर प्रसिद्ध है, तथा श्वेतकेतु, उपमन्यु आदि ने उच्च पद प्राप्त किया है। इस प्रकार जिसने भी शिवजी की सेवा की, उसी ने अपनी मनोभिलाषा को सब प्रकार से प्राप्त किया। हे स्वामी! वेद और पुराण कहते हैं कि शिवजी अपने भक्तों पर शीघ्र ही प्रसन होकर उन्हें इच्छित वरदान देते हैं। आप भी निश्चयपूर्वक उन्हीं श्रीशिवजी की शरण में जायँ।

हे नारद! अपनी पत्नी की बात सुनकर पूर्णभद्र अत्यन्त आनन्दित हुआ। तब वह शिवभक्ति में संलग्न हो, शिवजी के समीप काशीपुरी में जा पहुँचा। वह नादविद्या में अत्यन्त प्रवीण था। उसने भली-भाँति गाना गाकर शिवजी को प्रसन्न किया। उसने इक्कीस मूच्टना, पाँच सौ इक्यावन तानें तथा अनेक शाखाओं से युक्त बारह श्रुतिवेद शिवजी को सुनाये। उसके गायन को सुनकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले- पूर्णभद्र! हम तुम पर बहुत प्रसन्न हैं, अब तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वरदान हमसे माँग लो। यह सुनकर पूर्णभद्र शिवजी के चरणों का ध्यान धरकर, उनकी स्तुति प्रशंसा करने लगा।

पूर्णभद्र द्वारा शिव जी की स्तुति एवं वर प्राप्ति ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! जब पूर्णभद्र की स्तुति सुनकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने उससे वरदान माँगने के लिए कहा, उस समय पूर्णभद्र ने प्रार्थना करते हुए यह कहा-हे प्रभो! यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो आप मुझे सन्तान दीजिये। शिवजी यह सुनकर 'एवमस्तु' कहने के उपरान्त अन्तर्धान हो गये। तब पूर्णभद्र भी प्रसन्न होकर अपने घर लौट आया और अपनी स्त्री से वर पाने का सब हाल कह सुनाया। 

कुछ समय बाद पूर्णभद्र की पत्नी गर्भवती हुई और उचित अवसर आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। उस बालक का नाम हरिकेश रखा गया। जब बालक की आयु आठ वर्ष की हुई, तभी से उसने अपना मन शिवजी के चरणों में लगा दिया। वह बालकों के साथ खेलते हुए मिट्टी का शिवलिंग बनाकर, उत्तमोत्तम पुष्पों द्वारा उसका पूजन करता और अपने साथी अन्य बालकों से भी पूजन कराता। वह स्वयं शिव नाम का उच्चारण करता और दूसरों से भी कराता। शिव-चरित्र के अतिरिक्त अन्य किसी बात पर वह ध्यान ही नहीं देता था। 

वह शिवजी के पूजन में तथा उसके पाँव शिवतीर्थों की यात्रा में लगे रहे। इस प्रकार वह रात-दिन शिवजी का ही ध्यान करता, उन्हीं को देखता और उन्हीं के यश का गान किया करता था। वह अपने शरीर में भस्म लगाये रहता और रुद्राक्ष की माला पहने, हर समय शिव-नाम का जप किया करता था। 

हे नारद! उसकी इस अवस्था को देखकर पूर्णभद्र ने एक दिन यह कहा-हे पुत्र! तुम शिवजी की कठिन तपस्या द्वारा मेरे घर में उत्पन्न हुए हो, अतः तुमको उचित है कि तपस्वियों के मार्ग को छोड़कर गृहस्थ बनो। मेरे घर में सब प्रकार के रत्न तथा सुख के साधन उपस्थित हैं, अतः उनमें अपना मन लगाकर, राजनीति को सीखो; जिससे भविष्य में प्रजा का भली-भाँति पालन कर सको। तुमने जिस मार्ग को अपनाया है, वह दरिद्रियों का मार्ग है।

हे नारद! पिता की इस आज्ञा का पालन करने में असमर्थ होने के कारण, हरिकेश अपने घर को छोड़कर भाग गया। जिस समय वह अपने नगर से बाहर निकलकर आया तो उसे दिशाभ्रम हो गया। उस समय वह अत्यन्त पछताकर इस प्रकार सोचने लगा कि अब मैं कहाँ जाऊँ ? मुझे यह दुःख अपने पूर्व जन्मों के पापों से ही प्राप्त हुआ है। हाँ, एक बार मैंने अपने पिता के समीप आये हुए संत लोगों से यह अवश्य सुना था कि जिनको माता-पिता छोड़ देते हैं अथवा जिनका कोई सहायक नहीं होता तथा जो लोग अधर्मी, भयभीत, दुःखी तथा शरणहीन होते हैं, उन्हें शिवजी सहायता प्रदान करते हैं और ऐसे अनाथ मनुष्यों को शिवजी की पुरी काशी में जाकर निवास करना चाहिए ।

हे नारद! इस विचार के आते ही वह लोगों से काशी का मार्ग पूछता हुआ वहाँ जा पहुँचा। काशी में पहुँचकर उसने सर्वप्रथम मणिकर्णिका में स्नान किया, तदुपरान्त भगवान् विश्वनाथ की पूजा की। इसके पश्चात् वह आनन्दवन में जाकर दृढ़तापूर्वक कठिन तपस्या करने लगा। वहाँ कुछ समय बाद गिरिजा सहित शिवजी ने पहुँचकर उसे जो वरदान दिया, उसका वर्णन पहिले किया जा चुका है। 

शिवजी की भक्ति द्वारा हरिकेश ने अपने सम्पूर्ण कुल को तार दिया और उसके माता-पिता भी काशीवासी हो गये। हे नारद! शिव-भक्तों की महिमा वास्तव में ऐसी ही है। वे अकेले ही मुक्त नहीं होते, अपितु अपने कुलभर को मुक्त कर देते हैं।

विन्ध्यवासिनी देवी द्वारा दुर्ग नामक दैत्य का वध ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! इस प्रकार शिवजी जब काशी में राज्य कर रहे थे, उसी समय दुर्ग नामक एक महाबलवान् दैत्य देवताओं को अत्यन्त दुःख पहुँचाने लगा। उसे यह वरदान प्राप्त था कि वह किसी भी पुरुष के हाथ से नहीं मरेगा। उस वरदान के कारण उसने तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया और सम्पूर्ण धर्म-कर्मों को नष्ट कर डाला। उस दैत्य के अत्याचारों से दुःखी होकर मैं, विष्णुजी तथा अन्य देवता ऋषि-मुनियों को साथ ले, शिवजी की शरण में गये और उनसे अपने कष्ट का सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। 

उस समाचार को सुनकर शिवजी ने भगवती गिरिजा को यह आज्ञा दी कि तुम उस दैत्य का वध कर डालो। भगवती गिरिजा ने शिवजी की आज्ञा सुनकर विन्ध्यवासिनी का स्वरूप धारणकर उस दुर्ग नामक दैत्य को मार डाला। तभी से वे 'दुर्गा' के नाम से प्रसिद्ध हुई। उस दैत्य के मारे जाने से देवताओं को अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ।

हे नारद! इस प्रकार शिवजी ने बहुत दिनों तक काशी में राज्य किया। जब राजा दिवोदास ने उन्हें कष्ट पहुँचाया, तब उन्होंने काशी को छोड़ दिया और मन्दराचल पर्वत पर अपनी राजधानी बनाकर रहने लगे। इस कथा को सुनकर नारदजी ने अत्यन्त आश्चर्य में भरकर ब्रह्माजी से पूछा-हे पिता! वह राजा दिवोदास कौन था, जिसने शिवजी को काशी से छुड़ा दिया था ? तुदपरान्त शिवजी ने किस उपाय द्वारा काशी को फिर प्राप्त किया, वह कथा भी आप मुझे सुनाने की कृपा करें। 

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! पहिले पद्मकल्प में स्वायंभुव मन्वन्तर के मनु के वंश में दिवोदास नामक एक राजा उत्पन्न हुआ। वह राजा अपने नाम के अनुरूप ही क्षात्रधर्म में अत्यन्त दृढ़ परम ज्ञानी और शिवजी का भक्त था। उसने अपना राज्य छोड़कर, काशीपुरी में जा, अत्यन्त तप किया उसके राज्य त्याग देने से संसार में बहुत अकाल पड़ा, जिसके कारण सब मनुष्य अत्यन्त दुःखी हुए। राजा न होने के कारण सब जगह चोरियाँ होने लगीं, धर्म भ्रष्ट हो गया, यज्ञ-कर्म नष्ट हो गये, सर्वत्र दुःख का साम्राज्य छा गया तथा सबलोग पापाचरण करने लगे।

हे नारद! उस समय देवताओं ने मेरे पास आकर यह कहा-हे ब्रह्मन्! राजा न होने के कारण संसार की दशा अत्यन्त खराब हो रही है। आप शीघ्र ही कोई उपाय कीजिए। यह सुनकर मैं देवताओं को साथ ले काशीपुरी में जा पहुँचा और जिस स्थान पर राजा दिवोदास तप कर रहा था, वहाँ पहुँचकर उससे बोला-हे राजन् तुम अपना राज्य फिर से सम्भालो। जब तुम पुनः शासन कर उठोगे, तब तुम्हारे राज्य में वर्षा होगी, जिससे प्रजा को दुःखों से मुक्ति मिलेगी। 

उस समय बासुकि नामक नाग अपनी अनंग-मोहिनी नामक कन्या का विवाह तुम्हारे साथ कर देगा। वह कन्या अत्यन्त पतिव्रता तथा धर्मव्रत-धारिणी होगी। उसके द्वारा तुम अत्यन्त आनन्द प्राप्त करोगे।

यह सुनकर राजा दिवोदास ने मुझसे कहा-हे प्रभो! मैं केवल उसी शर्त पर राज्य करने के लिए तैयार हूँ कि अब से सभी देवता आकाश में स्थित रहें और नाग आदि पाताल में जाकर निवास करें। पृथ्वी पर मनुष्यों के अतिरिक्त और कोई नहीं रहे।

हे नारद! राजा दिवोदास की इस शर्त को मैंने अपने अहंकार में भरकर स्वीकार कर लिया। मुझे परिणाम का ध्यान नहीं रहा। राजा की शर्त के कारण हम तीनों देवताओं तथा इन्द्र आदि को पृथ्वी छोड़ देनी पड़ी। इसके पश्चात् जब मैं शिवजी के समीप पहुँचा, उस समय शिवजी ने मुझसे यह कहा-हे ब्रह्मा! मन्दराचल पर्वत तपस्या कर रहा है। हम उसे वरदान देने जा रहे हैं, सो तुम भी हमारे साथ वहाँ चलो।

हे नारद! शिवजी की आज्ञा सुनकर मैं उनके साथ चल दिया। अब हमलोग वहाँ पहुँचे और शिवजी ने अपने भक्त से वरदान माँगने के लिए कहा, उस समय मन्दराचल पर्वत ने शिवजी से यह प्रार्थना की हे प्रभो! मैं काशी के समान होना चाहता हूँ। आप कृपा करके मेरे ऊपर निवास करें। मेरी यह अभिलाषा है कि आप गिरिजाजी तथा अन्य गणों सहित कुशद्वीप को पवित्र करें। 

मन्दराचल की यह प्रार्थना सुनकर शिवजी को अत्यन्त आश्चर्य हुआ। उस समय मैंने शिवजी से यह कहा-हे प्रभो! मैंने आपकी माया में मोहित होकर राजा दिवोदास को वरदान दे दिया है कि अब से सभी देवता पृथ्वी पर वास न करके, आकाश में रहेंगे; इसलिए आप भी मन्दराचल की इस प्रार्थना को स्वीकार कर लें। मेरे यह वचन सुनकर शिवजी ने अपना लिंग काशी में स्थित कर दिया और मन्दराचल को इच्छित वरदान दे अपने गणों सहित वहीं निवास करने लगे।

हे नारद! इस प्रकार शिवजी लिंग रूप होकर काशी में रहे। उस लिंग का नाम 'अविमुक्त' प्रसिद्ध हुआ। उस लिंग का ध्यान करने से समस्त कार्य पूर्ण होते हैं। इस प्रकार शिवजी काशी को त्यागकर, मन्दरगिरि पर चले गये और विष्णुजी भी अपना धाम त्यागकर उसी पर्वत पर सुशोभित हुए। गिरिजा, गणपति, सूर्य आदि देवता तथा ऋषि-मुनि भी अपने-अपने स्थान को छोड़कर वहीं विराजमान हुए। शेषजी आदि सभी नाग पाताल लोक को गये। 

उस समय जो देवता, नाग आदि पृथ्वी को छोड़कर आकाश पाताल को गये थे, उन्हें अपने मन में दुःख तो बहुत हुआ, परन्तु मेरे वरदान के कारण सभी विवश थे। जब हम सबलोग पृथ्वी से हट गये, तब राजा दिवोदास काशी को अपनी राजधानी बनाकर, राज्य करने लगा। उसने अपनी विद्या तथा बल द्वारा ऐसे नियम प्रचलित किये कि उसके राज्य में कोई भी व्यक्ति, किसी भी प्रकार का कुकर्म नहीं कर पाता था। 

देवताओं ने अपने गुरु बृहस्पति के समीप जाकर उनकी स्तुति करते हुए यह प्रार्थना की-हे प्रभो! आप हमें कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे राजा दिवोदास को कोई पाप लग जाय और वह अपने राज्य से निराश होकर प्रताप-हीन हो जाय। वेद कहते हैं कि पृथ्वी पर वास पाना परम दुर्लभ है। यदि किसी को पृथ्वी पर वास मिल जाय तो उसे परमपद प्राप्त होने में कोई सन्देह नहीं रहता। 

विशेष कर काशी में, जहाँ साक्षात् भगवान् सदाशिव रहते हैं, मृत्यु होने से मुक्ति की प्राप्ति होती है। जिसने काशी-वास त्यागा, उसने मानो अपना सर्वस्व नष्ट कर लिया। काशी का चांडाल भी अन्य स्थान के राजाओं से अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि अन्य स्थानों में आवागमन का भय बना रहता है और काशी में वह भय कहीं ढूँढ़े भी नहीं मिलता ।

देवताओं की यह प्रार्थना सुनकर बृहस्पतिजी ने कहा-हे देवताओ! जब तक कोई राजा अपने धर्म को नहीं त्याग देता, तब तक उसका राज्य नष्ट नहीं हो सकता। राजा दिवोदास परम धार्मिक है। जब तक वह धर्म को नहीं छोड़ेगा, तब तक तुम्हें वह स्थान प्राप्त नहीं होगा। तुम कोई ऐसा उपाय करो, जिससे राजा का धर्म नष्ट हो जाय। नल, दधीचि, शंख, ययाति, रावण तथा बाणासुर आदि बड़े-बड़े तेजस्वी, धर्मात्मा योद्धा भी तुमलोगों को दुःख पहुँचाकर सुखी नहीं हुए, फिर मुनष्य तो किस गिनती में है ? 

अब तुम यह करो कि अग्नि को बुलाकर यह आज्ञा दो कि वह पृथ्वी से अपना अंश खींच ले। जब पृथ्वी पर अग्नि का निवास नहीं रहेगा, तो वहाँ के सब कार्य नष्ट हो जायेंगे। उस समय राजा दिवोदास का राज्य भी स्वतः समाप्त हो जायगा।

हे नारद! बृहस्पति द्वारा बताये गये इस उपाय को सुनकर, देवता प्रसन्न हो गये। तदुपरान्त इन्द्र ने अग्नि को बुलाकर सब वृत्तान्त कह सुनाया। अग्नि ने इन्द्र की आज्ञा का पालन करते हुए, अपने प्रत्यक्ष, जलगत तथा उदरगत-इन तीनों प्रकार के रूपों को पृथ्वी से खींच लिया। अग्नि के इस प्रकार लोप होते ही पृथ्वी निवासी सभी जीव अत्यन्त दुःखी हो गये। उस समय सम्पूर्ण प्रजा एकत्र होकर राजा के पास गयी और उनसे अपने दुःख का हाल कहने लगी।

उस समाचार को सुनकर राजा दिवोदास को यह विश्वास हो गया कि इस प्रकार देवताओं ने मेरे साथ शत्रुता की है। अपनी प्रजा को यह आश्वासन देकर विदा किया कि तुमलोग किसी प्रकार की चिन्ता मत करो, मैं अपनी शक्ति द्वारा तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दूंगा।

हे नारद! प्रजा के चले जाने पर राजा ने अपने मन में यह विचार किया कि आज तो देवताओं ने अग्नि को बुला लिया है, कल को वे किसी दूसरे को बुला लेंगे। ऐसी अवस्था में प्रजा को और अधिक कष्ट उठाना पड़ेगा। इसलिए मुझे उचित है कि देवताओं से किसी प्रकार की सहायता न लेकर मैं अपने बल पर ही राज्य करूँ। यह निश्चयकर उसने उन सब देवताओं को भी, जो पृथ्वी के प्राणियों के लिए आवश्यक कार्यों को करने के लिए नियुक्त थे, अपने यहाँ से विदा कर दिया।

तदुपरान्त उसने स्वयं ही अग्नि का स्वरूप धारणकर अपनी प्रजा के कष्ट को दूर किया। इस प्रकार वह स्वयं वायु, जल, चन्द्रमा तथा सूर्य बनकर प्रजा को लाभ पहुँचाने लगा। जिस वस्तु द्वारा प्रजा का उपकार होता था, वह उसी का रूप धारणकर सबका दुःख दूर किया करता था। उसके इस पराक्रम को देखकर सभी देवता अत्यन्त लज्जित हुए और उनका कोई उपाय काम नहीं आया।

राजा दिवोदास द्वारा व्यथित होकर ब्रह्मादि देवताओं का शिवजी के पास पहुँचना ॥

इतनी कथा सुनकर नारदजी ने कहा-हे पिता! राजा दिवोदास से पूर्व ऐसा कोई राजा नहीं हुआ, जिसके ऊपर देवताओं की युक्ति भी निष्फल हो गयी हो। अतः मेरी यह इच्छा है कि ऐसे प्रतापी राजा का वृत्तान्त आप मुझे विस्तारपूर्वक सुनावें। मैं यह जानना चाहता हूँ कि जिस राजा ने अपनी प्रजा को दुःखी नहीं होने दिया, उसके ऊपर देवताओं ने फिर कोई युक्ति चलाई अथवा लज्जित होकर बैठे रहे।

इतनी कथा सुनाकर सूतजी बोले-हे ऋषियो! जब ब्रह्माजी ने नारद के मुख से यह वचन सुने तो अत्यन्त प्रसन्न होकर इस प्रकार कहा-हे नारद! तुम परम धन्य हो, क्योंकि तुम शिवजी के चरित्ररूपी कथामृत को बारम्बार पीकर भी तृप्त नहीं होते हो। भला, संसार में ऐसा कौन है, जो भगवान् सदाशिव को कष्ट पहुँचा सके ? अब मैं तुमसे सम्पूर्ण वृत्तान्त कहता हूँ, उसे तुम मन लगाकर सुनो। 

राजा दिवोदास शिवजी का परम भक्त था। जब उसने यह देखा कि काशीजी शिवजी को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, तो उसने स्वयं भी काशी में ही रहना स्वीकार किया। वह काशी में रहकर अत्यन्त नम्रता-पूर्वक प्रजा का पालन करता था, इसलिए उसके सम्मुख देवताओं की कुछ भी नहीं चलती थी। वह किसी भी प्राणी को दुःख नहीं देता था, यद्यपि युद्ध के समय वह सिंह के समान महान् पराक्रम का प्रदर्शन करता था। सभी देवता उसकी आज्ञा का पालन करते थे। उसकी सभा में गन्धर्व और विद्याधर नृत्य करते थे।

हे नारद! उस राजा दिवोदास ने सूर्य बनकर शत्रुओं को भस्म किया तथा चन्द्रमारूप होकर अपने मित्रों को सुख पहुँचाया। युद्ध-क्षेत्र में वह अपने धनुष द्वारा शत्रओं पर विजय प्राप्त करता रहा, इसलिए लोग उसे इन्द्र भी कहते थे। धर्म-अधर्म का उचित विचार कर दंड देने के कारण उसे धर्मराज कहा गया। वह अपराधियों को दंड देता था तथा धर्मात्मा एवं सज्जनों को आनन्द प्रदान करता था। 

उसने याचकों को धन देकर कुबेर का पद प्राप्त किया तथा सबका पालन करने के कारण शिवजी का पद पाया। सबको भाग्य का फल देने के कारण ग्रह तथा उपग्रह के रूप में उसे माना गया। सम्पूर्ण कला-कौशलों में वह अत्यन्त प्रवीण था, इसलिए उसे विश्वकर्मा की उपाधि दी गयी। सुन्दरता में वह अश्विनीकुमार से भी अधिक सुन्दर था तथा गान-विद्या में उसने विद्याधरों को भी पराजित किया था।

हे नारद! उसने यक्षों को अनेक प्रकार के अधिकार सौप तथा नागों को भी विभिन्न प्रकार के उच्च पदों पर प्रतिष्ठित किया। राजा दिवोदास के प्रताप से प्रभावित होकर इन्द्र ने अपना ऐरावत हाथी तथा सूर्य ने उच्चैःश्रवा घोड़ा उसे दे दिया। राजा दिवोदास की सेना के योद्धा कभी किसी से हारते नहीं थे। उस राजा के शासन काल में पृथ्वी का राज्य आकाश से भी अधिक बढ़ गया। 

आकाश पर केवल एक ही इन्द्र का साम्राज्य है और वे अपने वज्र द्वारा पर्वतों के पंख काटते हैं, परन्तु पृथ्वी पर राजा दिवोदास ने अनेक शत्रुओं के मस्तकों को चूर्ण कर दिया था और वह गोत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। आकाश में केवल एक ही चन्द्रमा है और वह पन्द्रह दिन के अन्तर से घटता बढ़ता है, परन्तु पृथ्वी पर क्षीण होने वाला कोई भी नहीं था।

हे नारद! आकाश पर केवल एक ही प्रकार के नवग्रह प्रसिद्ध हैं, लेकिन पृथ्वी पर सभी गृहों में नवग्रह विद्यमान रहते थे। आकाश में केवल एक ही सुवर्णगर्भ अर्थात् ब्रह्मा हैं, लेकिन पृथ्वी पर सभी भवन सुवर्णगर्भ अर्थात् स्वर्ण से भरे हुए थे।

हे नारद! इस प्रकार राजा दिवोदास के राज्य में सभी आनन्द वर्तमान थे। कोई भी मनुष्य धर्मशास्त्र के विरुद्ध आचरण नहीं करता था। वहाँ की सभी स्त्रियाँ भी परम पतिव्रता थीं। उसके राज्य में कोई भी मनुष्य धनहीन, हिंसक अधर्मी, व्यभिचारी, निर्लज्ज, चुगलखोर, शीलरहित तथा असत्यवादी न था, अपने-अपने धर्म पर सब दृढ़ रहते थे। सभी बालक अपने माता-पिता की सेवा करते थे तथा सभी छोटे भाई निष्कपट भाव से अपने बड़े भाई की सेवा करते थे। सभी सेवक अपने स्वामी की सेवा करना परमधर्म समझते थे और विपत्ति पड़ने पर भी वे अपने स्वामी को नहीं छोड़ते थे।

हे नारद! उस राजा के राज्य में स्थान-स्थान पर ब्रह्मभोज हुआ करते थे। राजा और प्रजा के सभी लोग ब्राह्मणों की सेवा करना अपना परम धर्म समझते थे। कुंआ, बावली, तालाब, फुलवारियाँ, उद्यान आदि चारों ओर पाये जाते थे। शिवभक्ति के अतिरिक्त किसी को अन्य कोई कार्य न था। सब स्त्री-पुरुष वेद की आज्ञा का पालन करते थे और उसी के अनुसार आचरण भी करते थे। वे सब शरीर से हृष्ट पुष्ट तथा आर्थिक दृष्टि से भी सम्पन्न थे। किसी को स्त्री, पुत्र, धन, वस्त्र, आभूषण आदि का कष्ट नहीं था। राजा दिवोदास उन सबमें अधिक धनी था। वह अपनी प्रजा का पुत्र के समान पालन करता था।

हे नारद! जिसके हृदय में रात-दिन भगवान् सदाशिव का निवास रहे, उसे आनन्द के अतिरिक्त किसी भी प्रकार का कष्ट प्राप्त नहीं हो सकता। देवताओं ने उसके राज्य में बहुत कुछ ढूँढ़ने पर भी कोई दोष नहीं पाया, तब वे थककर बैठ गये। राजा दिवोदास राजनीति तथा धर्म का महान् ज्ञाता था। वह सबका मित्र था तथा तीनों प्रकार की शक्तियाँ और सब प्रकार के गुणों को धारण करके, चारों उपायों का समयानुसार भली-भाँति प्रयोग किया करता था।

हे नारद! जब देवता सब उपाय करके थक गये तथा राजा को किसी भी प्रकार नुकसान नहीं पहुँचा सके, तब वे इन्द्र को साथ लेकर मेरे पास आये और अपने दुःख का वर्णन करते हुए मुझसे इस प्रकार बोले-हे ब्रह्मन्! आप हमें वह उपाय बताने की कृपा कीजिये, जिसके द्वारा राजा दिवोदास को किसी प्रकार से पाप लग जाय और वह पृथ्वी के राज्य से वंचित हो जाय। जब तक हमें पृथ्वी नहीं मिलेगी, तब तक हमारा कष्ट दूर नहीं होगा। 

पृथ्वी का पद स्वर्ग से भी अधिक है। पृथ्वी में भी तीर्थों का पद ऊंचा है और सब तीर्थों में काशी का पद सर्वोत्तम है। काशी सेवन किए बिना सहज ही मुक्ति प्राप्ति नहीं होती। आप कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे हमलोग पुनः काशीवास प्राप्त कर सकें ?

हे नारद! देवताओं की प्रार्थना सुनकर मैंने उनसे कहा-हे देवताओ! दिवोदास अत्यन्त धर्मात्मा है। वह अपने तप के कारण ही देवताओं को दुःख देकर अभी तक बचा हुआ है। तुमने जो कष्ट उठाया है, वही कष्ट मुझे भी है; क्योंकि मुझे प्रयाग में रहना अत्यन्त प्रिय था; लेकिन उस राजा को वरदान देने के कारण अब मेरा भी प्रयाग में रहना असम्भव हो गया है। 

अब तुम सबलोग मेरे साथ विष्णुजी के पास चलो। वे ही इस समय हमारी सहायता करेंगे। यह कहकर मैं सब देवताओं को अपने साथ लेकर श्रीविष्णुजी के समीप जा पहुँचा और उनकी स्तुति करने के उपरान्त इस प्रकार बोला-हे विष्णुजी! आप कोई ऐसा उपाय किजिये, जिससे मुझे तथा सब देवताओं को आनन्द प्राप्त हो।

हमारी प्रार्थना सुनकर विष्णुजी ने यह उत्तर दिया-हे ब्रह्मन्! राजा दिवोदास परम धार्मिक है। यद्यपि मैं स्वयं भी यह चाहता हूँ कि दिवोदास के हाथ से पृथ्वी का शासन छीन लिया जाय; क्योंकि उसके कारण मैं अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय वृन्दावन में नहीं जा सकता हूँ। लेकिन उस पर मेरा कोई वश नहीं चलता है। भगवान् सदाशिव भी काशी छूट जाने के कारण बहुत दुःखी हैं। वे अपना दुःख मुझसे कई बार कह चुके हैं, परन्तु बिना किसी अपराध के वे भी दिवोदास के राज्य में कोई विघ्न नहीं डाल सकते।

हे ब्रह्मन्! राजा दिवोदास के ऊपर देवताओं की कोई भी युक्ति नहीं चल सकती। इसका कारण यही है कि वह उस काशी की सेवा करता है, जो साक्षात् शिवजी का ही एक स्वरूप है। अब तुम्हीं कहो कि उसके राज्य का नाश किस प्रकार किया जाय ? हाँ, यदि स्वयं शिवजी ही हम पर कोई कृपा करें तो हमारी मनोकामना पूर्ण हो सकती है। 

अब यही उचित है कि हम सबलोग शिवजी के पास चलें और उन्हें अपना दुःख कह सुनायें। हे नारद! इस प्रकार निश्चय करके विष्णुजी तथा मैं एवं अन्य सब देवताओं सहित शिवजी के समीप जा पहुँचे। वहाँ हमने भगवान् सदाशिव की बहुत प्रकार से स्तुति करते हुए यह कहा-हे महाप्रभु! आप हमारी रक्षा करने की कृपा करें।

दिवोदास को राज्य -भ्रष्ट करने हेतु शिवजी द्वारा योगिनियों को काशी जी भेजना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! हम देवताओं की स्तुति सुनकर शिवजी ने कहा-हे ब्रह्मा, हे विष्णु तथा अन्य सब देवताओ! तुमलोग हमारे पास किसलिए आये हो? तुम हमें अपने दुःख का कारण सुनाओ। भगवान् सदाशिव के मुख से यह वचन सुनकर देवताओं ने कुछ सोच-विचार करके यह उत्तर दिया-हे प्रभो! राजा दिवोदास धर्म पर आरूढ़ होकर तथा सब प्रकार के पापों को त्यागकर, पृथ्वी पर शासन कर रहा है और उसके राज्य में सबलोग सुखी हैं। 

यद्यपि वह आपका भक्त है और हम सब देवताओं की सेवा में भी संलग्न रहता है, परन्तु उसने हठपूर्वक किसी भी देवता अथवा नाग आदि को पृथ्वी पर नहीं रहने दिया है। आपको यह उचित है कि किसी उपाय द्वारा आप राजा दिवोदास को राज्य से पदच्युत करने का प्रयत्न करें। राजा दिवोदास के राज्य-त्याग के पश्चात् ही हमलोग काशी को प्राप्त कर सकेंगे, अन्यथा नहीं। इतना कहकर सब देवता चुप हो गये।

हे नारद! देवताओं की यह प्रार्थना सुनकर शिवजी ने कहा-हे देवताओ! राजा दिवोदास हमारा परम भक्त है। वह काशी का, जो हमारे दूसरे शरीर के समान है, रक्षक है। काशी के रक्षक को किसी प्रकार का दुःख प्राप्त नहीं हो सकता। इतना कहकर शिवजी चुप हो गये, परन्तु उसी समय काशी का स्मरण आ जाने के कारण, उनकी आंखें आंसुओं से भर गयीं। 

कुछ देर तक वे काशी के प्रेम में ऐसे मग्न रहे कि उनकी अवस्था मच्छित के समान हो गयी। जब वे चैतन्य हुए तो उन्होंने काशी की स्तुति करते हुए इस प्रकार कहा-हे आनन्दायिनी काशी! अब तू मुझे कब प्राप्त होगी? यदि तू मुझे शीघ्र ही प्राप्त नहीं हुई, तो मेरा जीवन कठिन हो जायगा। इतना कहकर, काशी के प्रेम में मग्न हो, शिवजी मूर्छित हो गये। 

हे नारद! शिवजी की यह दशा देखकर गिरिजा ने उन्हें चैतन्य करते हुए कहा-हे प्रभो! आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। संयोग और वियोग सब आपकी ही लीला है। आपकी कोप दृष्टि से प्रलय हो जाता है। आप पूर्ण स्वाधीन हैं। यदि आप काशी में पहुँचेंगे तो राजा दिवोदास आपको किसी भी प्रकार नहीं रोक सकेगा। काशी के निवासी यमराज से भी भय नहीं खाते। पापियों की मुक्तिदायिनी होने के कारण वह मुझे भी अत्यन्त प्रिय है। आप ऐसा उपाय कीजिये, जिससे हमें काशी पुनः प्राप्त हो सके तथा सबको शान्ति मिले।

हे नारद! गिरिजा के यह वचन सुनकर शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा-हे गिरिजे! तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो, परन्तु काशी मुझे तुमसे भी अधिक प्रिय है। इस समय तुम्हारे अमृत के समान वचन सुनकर मेरे हृदय को कुछ शान्ति प्राप्त हुई है, लेकिन तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि मैं राजा दिवोदास का अत्यन्त आदर तथा सम्मान करता हूँ। उसने ब्रह्माजी से आज्ञा लेकर ही काशी का राज्य प्राप्त किया है। उसने वरदान माँगते समय ब्रह्माजी से यह स्पष्ट कहा था कि यदि देवता आदि पृथ्वी पर न रहें, तभी मैं राज्य को स्वीकार कर सकता हूँ, अन्यथा नहीं। 

तब मुझे ब्रह्माजी के वचन का पालन करने हेतु काशी छोड़ देनी पड़ी। राजा दिवोदास उस समय से मेरी पुरी की भली-भाँति रक्षा कर रहा है, इसलिए मुझे वह अत्यन्त प्रिय है। भला ऐसी दशा में, मैं उसका राज्य किस प्रकार छीन सकता हूँ? तुम्हें यह बात भी अच्छी तरह जान लेनी चाहिए कि जो लोग धर्मात्मा होते हैं, मैं उनकी सदैव रक्षा किया करता हूँ। यदि कोई उन्हें कष्ट पहुँचाने का प्रयल करता भी है, तो स्वयं ही दुःख उठाता है। इसीलिए मैं ऐसा उपाय सोच रहा हूँ जिससे मुझे काशी पुनः प्राप्त हो सकती है।

हे नारद! इस प्रकार शिवजी चिन्ता कर ही रहे थे कि उसी समय अचानक ही उन्होंने अपने सामने खड़ी हुई योगिनियों को देखा। तब शिवजी ने उन्हें आपने पास बुलाकर बहुत आदर से बैठाया। फिर यह आज्ञा दी-हे योगिनीगण! तुम सब काशीपुरी में जाओ और वहाँ जाकर राजा दिवोदास के धर्म-कार्यों में कुछ ऐसा विघ्न डालो कि जिसके कारण वह काशी छोड़कर हटने को तैयार हो जाय। ऐसा उपाय जब सफल हो जायगा, तब मैं भी पुनः काशी में रहकर आनन्द प्राप्त करूँगा। 

इस प्रकार आज्ञा देकर शिवजी ने योगिनियों को काशी में भेज दिया और आपने स्वयं समय की राह देखने के लिए वहीं स्थित रहे। उन योगिनियों ने काशी में पहुँचकर अपना स्वरूप बदल लिया। फिर वे तपस्विनियों के समान वेष धारणकर चारों ओर फैल गयीं। उनमें से कोई मालिन बनी, कोई दाई, कोई रसोई बनानेवाली, कोई गानेवाली, कोई बाजा बजानेवाली, कोई मूर्ति बनानेवाली, कोई सामुद्रिक जाननेवाली और कोई पुत्र देनेवाली। 

इस प्रकार उन्होंने अनेक युक्तियाँ कीं, लेकिन राजा दिवोदास के नगर का कोई भी मनुष्य अपने धर्म को त्यागकर, पाप-कर्म में प्रवृत्त नहीं हुआ। तब वे सब एकत्र होकर आपस में यह कहने लगीं कि हम मन्दराचल पर्वत पर जाकर शिवजी को किस प्रकार अपना मुँह दिखावें? वे चौंसठ योगिनियाँ मणिकर्णिका के आगे स्थित हो गयीं और लज्जा के कारण शिवजी के पास नहीं पहुँचीं । हे नारद! जो मनुष्य उन योगिनियों को प्रणाम करता है, उसे किसी प्रकार का दुःख नहीं होता।

योगिनियों के न लौटने पर ब्रह्मा को काशी जी में भेजना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! योगिनियों के लौटने में जब विलम्ब हुआ, तब शिवजी ने चिन्तित होकर सूर्य को यह आज्ञा दी! हे सूर्य! अब तुम काशी में जाकर यह समाचार लाओ कि योगिनीगण अब तक क्यों नहीं लौटी हैं? इसके साथ ही तुम किसी उपाय द्वारा राजा दिवोदास को धर्म-भ्रष्ट करने का भी प्रयत्न करना, जिससे वह राज्य-हीन हो जाय; लेकिन यह ध्यान रखना कि राजा दिवोदास परम धार्मिक है, उसकी किसी प्रकार अप्रतिष्ठा नहीं होने पाये। 

हे सूर्य! तुम त्रिभुवन में श्रेष्ठ हो तथा तुम्हारा नाम 'जगच्चक्षु' प्रसिद्ध है। तुम अपनी बुद्धिमानी से राजा दिवोदास को धर्म-मार्ग से हटाकर यहाँ लौट आओ।

हे नारद! भगवान् सदाशिव की आज्ञा पाकर सूर्य भी अपने स्वरूप को बदलकर काशी में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने भिखारी, ज्योतिषी दरिद्री, योगी, जटाधारी, परमहंस, दिगम्बर, छली तथा मतिहीन आदि अनेक प्रकार के रूप धारण किये। कहीं उन्होंने इन्द्रजाल को फैलाया, कहीं ब्रह्मज्ञान को प्रकट किया, कहीं वेद के विरुद्ध प्रचार किया, कहीं मीमांसा शास्त्र की व्याख्या की, कहीं ब्राह्मण बने, कहीं राजकुमार हुए, कहीं सर्व ज्ञाता बने और कहीं अपने को तत्वज्ञानी के रूप में प्रकट किया तो भी वे राजा दिवोदास के राज्य में किसी को भी अधर्मी न बना सके। 

इस प्रकार जब एक वर्ष बीत गया और उनके किये कुछ न हो सका, तो उन्होंने मन में विचार किया कि मेरा यहाँ आकर कुछ भी वश नहीं चल सका। अब यदि मैं विफल-मनोरथ होकर शिवजी के पास लौटूंगा तो वे मुझे अपने क्रोध से भस्म कर डालेंगे। उस समय ब्रह्मा और विष्णु भी मुझे नहीं बचा सकेंगे। इसलिए मुझे उचित है कि मैं शिवजी की आज्ञा-उल्लंघन के पाप से बचने लिए यहीं काशी में रह जाऊँ। काशी शिवजी का ही स्वरूप है और इसके सेवन का बड़ा धर्म कहा गया है। इसलिए मुझे सब ओर से अपना मन हटाकर, यहीं निवास करना चाहिए।

हे नारद! इसके उपरान्त सूर्य ने यह विचार किया कि शिवजी की आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म था, उसे पालन करने में असमर्थ रहने के कारण मुझे पाप लग सकता है। इसलिए यही उचित है कि मैं यहाँ से लौटकर नहीं जाऊँ। धर्म के विपरीत अर्थ और काम का सेवन नहीं करना चाहिए। कुछ लोग यह कहते हैं कि अर्थ रक्षा करना धर्म है, वह उचित नहीं है; क्योंकि राजा हरिश्चन्द्र, कुश तथा ययाति ने धर्म को न छोड़ते हुए, अपने शरीर को त्याग देना स्वीकार किया, जिसके कारण उन्हें मोक्षपद प्राप्त हुआ। इसके साथ ही राजा बलि, विरोचन तथा प्रह्लाद ने भी धर्म की रक्षा के लिए दुःख उठाये। अतः सबको त्यागकर, धर्म की रक्षा करना ही उचित है। काशी-सेवन करने से बढ़कर और कोई धर्म नहीं है।

हे नारद! इस प्रकार निश्चय करके सूर्य ने बारह शरीर धारण किये और उन सब शरीरों द्वारा वहीं काशी में स्थित हो गये। वे बारहों सूर्य सेवा करने पर मनुष्यों की सम्पूर्ण मनोकामनाओं को सिद्ध करते हैं। उसके नाम इस प्रकार हैं- पहिले सूर्य 'लोलार्क' नाम से अस्सी-संगम पर स्थित हैं, वह स्थान सब तीर्थों का शिरोमणि माना जाता है। दूसरे सूर्य 'उत्तरार्क' नाम से उस स्थान पर स्थित हैं, जहाँ पहिले राजा प्रियव्रत ने स्त्री का शरीर पाकर तपस्या की थी और शिव-गिरिजा से वरदान पाकर, अन्त में गिरिजा की सखी बन गये थे। 

उसी स्थान पर एक बकरी ने राजकन्या के रूप में जर लेकर मुक्ति प्राप्त की थी। वे भी अपने भक्तों को उत्तम फल प्रदान करनेवाले हैं। तीसरे सूर्य 'आदित्य' नाम से साम्बपुर में उपस्थित हैं, वहाँ साम्ब का कुष्ठरोग दूर हुआ था। पाँचवें सूर्य 'मयूषादित्य' नामक हैं, जो शिवजी तथा गिरिजा की सेवा द्वारा शिवजी के दाहिने नेत्र बनकर प्रतिष्ठित हुए। उनकी गणना आठ वसुओं में से एक वसु के रूप में की जाती है। छठे सूर्य 'खखोलादित्य' ने नाम से प्रसिद्ध हैं। 

जिस समय कद्दू और विनता में विवाद हुआ था, तथा उसमें विनता हारकर कद्दू की सेविका बनी थी, उस समय अपनी माता की दुरवस्था को देखकर गरुड़ को अत्यन्त कष्ट हुआ था। तब गरुड़ अमृत लेने के लिए देवलोक में गये और वहाँ देवताओं पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् अमृत लेकर अपनी माता विनता के पास चल दिये। कश्यप के पुत्र गरुड़ जिस समय अमृत लेकर लौट रहे थे, उसी समय मार्ग में विष्णुजी ने उन्हें रोककर बड़ा भारी युद्ध किया। उस युद्ध में विष्णुजी गरुड़ को नहीं जीत सके। 

तब उन्होंने छल करके गरुड़ से यह वरदान माँगा कि तुम हमें अमृत दे दो और हमारे वाहन भी हो जाओ। तब गरुड़ ने विष्णुजी की बात स्वीकार कर उन्हें अमृत दे दिया और उनके वाहन भी बन गये। उस समय विनता ने युद्धस्थल पर खखोलादित्य सूर्य की स्थापना की थी, जिनकी उपासना से विनता की लज्जा दूर हुई। वे खखोलादित्य अपने भक्तों की सम्पूर्ण मनोकामनाओं को पूरा करनेवाले हैं।

हे नारद! सातवें 'अरुण' नामक सूर्य शिवजी से उत्तर दिशा की ओर विराजमान हैं। वे विनता के पुत्र अरुण नाम से प्रसिद्ध हुए थे। उनकी सेवा करने से भी सम्पूर्ण कष्ट दूर होते हैं। आठवें 'बृहदादित्य' नामक सूर्य विशालाक्षी देवी के दक्षिण ओर स्थित हैं। उनकी सेवा करके अल्पायु हारीत नामक मुनि युवा हो गये थे। वे सम्पूर्ण रोगों को दूर करनेवाले तथा आनन्द प्रदान करनेवाले हैं। नवें सूर्य का नाम 'केशवादित्य' है। उन्होंने विष्णुजी से उपदेश प्राप्त किया था। एक दिन जब सूर्य ने यह देखा कि विष्णुजी पादोदक तीर्थ पर शिवलिंग की पूजा कर रहे हैं, तो उन्होंने उनके पास जाकर यह पूछा कि हे विष्णुजी! आप तो सब से अधिक श्रेष्ठ हैं, फिर आप यहाँ किनकी पूजा कर रहे हैं? 

उस समय विष्णुजी ने उन्हें यह उत्तर दिया-हे सूर्य! भगवान् सदाशिव हमसे बड़े हैं, अतः हम यहाँ पर उन्हीं का पूजन कर रहे हैं। तुम भी शिवलिंग का पूजन करो, तो तुमको उच्चपद की प्राप्ति होगी। यह सुनकर सूर्य उसी दिन से शिवलिंग का पूजन करने लगे और विष्णुजी को अपना गुरु जानकर वहीं स्थित हो गये। दसवें 'विमलादित्य' नामक सूर्य को हरिकेश ने वन में स्थापित किया था। प्रबाहु का पुत्र, जो उच्चदेश का निवासी था, दुर्भाग्यवश कोढ़ी हो गया; तब वह अपने स्त्री-पुरुष, घर-बार आदि को छोड़ कर काशी में चला आया और इन्हीं विमलादित्य सूर्य की पूजा करके अच्छा हो गया। तभी से वे सूर्य कुष्ट-रोग को दूर करने में विशेष प्रसिद्ध हैं।

हे नारद! ग्यारहवें सूर्य का नाम 'कनकादित्य' है। वे भगवान् विश्वनाथ के दक्षिण की ओर स्थित हैं। वे प्रतिदिन गंगा की स्तुति किया करते हैं, इसी से उनका मुख गंगा की ओर है। बारहवें 'यमादित्य' नामक सूर्य उस स्थान पर स्थित हैं, जहाँ बैठकर यमराज ने कठिन तपस्या की थी। उनके दर्शन से यमपुर में नहीं जाना पड़ता। उनकी स्थापना स्वयं यमराज ने की थी। जो मनुष्य चतुदशी के दिन भरणी नक्षत्र में, उस स्थान में जाकर श्राद्ध करते हैं, उन्हें गया में श्राद्ध करने के समान फल प्राप्त होता है। 

हे नारद! काशी में स्थित बारहों सूर्यों का वर्णन सुनने से रोग तथा पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इनकी सेवा करता है, वह अत्यन्त आनन्द प्राप्त करता है तथा उस पर शिवजी भी प्रसन्न होते हैं। यह बारहों सूर्य शिवजी के परम भक्त हैं तथा शिवजी के मुख्य सेवक के रूप में स्मरण किये जाते हैं। 

हे नारद! इसके अतिरिक्त पाँचों देवता भी शिवजी के अनन्य सेवक हैं। जो मनुष्य शिव-भक्ति को त्यागकर किसी अन्य देवता की पूजा करता है तथा जो यह समझता है कि अन्य देवता शिवजी से भिन्न हैं, वह पशु के समान महामूर्ख है। वेद का कथन है कि शिवजी सबमें सन्निहित हैं। वे परब्रह्म, निर्गुण, आनन्दस्वरूप तथा सबको प्रसन्नता प्रदान करनेवाले हैं। अतः एकमात्र उन्हीं का पूजन श्रेयस्कर है।

  सूर्य के न लौटने पर ब्रह्मा को काशी जी में भेजना ॥

इतनी कथा सुनकर नारदजी ने कहा-हे पिता! अब आप मुझे यह बताइये कि जब ये बारहों सूर्य अपना स्वरूप धारण करके काशी में स्थित हो गये, तदुपरान्त क्या हुआ ? 

ब्रह्माजी बोले-हे पुत्र! जब सूर्य काशी में रह गये और शिवजी के पास लौटकर नहीं पहुँचे, उस समय शिवजी अत्यन्त व्याकुल होकर इस प्रकार कहने लगे-ये सूर्य भी अब तक लौटकर नहीं आये। इस भाँति शिवजी बहुत समय तक काशी का स्मरण कर व्याकुल होते रहे। तदुपरान्त उन्होंने यह विचार किया कि वेदज्ञ ब्रह्मा वहाँ जाकर सब समाचार ला सकते हैं। 

यह निश्चय करने के उपरान्त उन्होंने मुझसे यह कहा-हे ब्रह्मन्! हमने योगिनीगण तथा सूर्य को काशी में भेजा था, लेकिन वे लोग अभी तक लौटकर नहीं आये। पता नहीं, इसका क्या कारण है ? काशी हमारे हृदय में बसी हुई है। यद्यपि हमारे मस्तक पर चन्द्रमा विराजमान है, फिर भी काशी का वियोगरूपी दाह हमारे हृदय से नहीं जाता है। अब तुम स्वयं काशी में जाओ। वहाँ जाने से तुम्हें अत्यन्त पुण्य प्राप्त होगा और हमारा भी शोक दूर होगा।

हे नारद! शिवजी की यह आज्ञा सुनकर मैं हंस पर चढ़कर काशीपुरी चल दिया। वहाँ पहुँचकर मैंने एक दुर्बल ब्राह्मण का रूप बनाया और राजा दिवोदास के पास जा पहुँचा। राजा दिवोदास मुझे देखते ही अपने आसन से उठ खड़ा हुआ। तत्पश्चात् उसने मेरा बहुत स्वागत सम्मान करते हुए तथा उचित आसन पर बैठाते हुए पूछा कि हे प्रभो! आपके आगमन का कारण क्या है ?

उस समय मैंने राजा को यह उत्तर दिया-हे राजन्! मैं तुम्हारी नगरी में बहुत दिनों से रहता हूँ और तुमको भली-भाँति जानता हूँ। तुम्हारे समान धर्मात्मा राजा संसार में कोई और नहीं है। तुम्हारी प्रजा, सन्तान, भाई-बन्धु आदि तो अच्छी तरह है? हे नृपश्रेष्ठ! अच्छा, अब मैं तुम्हें अपने आगमन का कारण बताता हूँ। हे राजन्। मेरे पास शुद्ध धन तथा देवता आदि सभी उपस्थित हैं। मैं तुम्हारी काशीपुरी में यज्ञ करना चाहता हूँ। तुम्हारी इस राजधानी से अधिक उत्तम तीर्थ अन्य कोई नहीं है। वेदों का भी यही कहना है कि काशी शिवजी का दूसरा स्वरूप है।

हे राजन्! तुम शिवजी की प्रसन्नता के निमित्त काशी का पालन करते हो, इसीलिए तुम्हारे ऊपर किसी की कोई युक्ति नहीं चल पाती। तुम अन्य देवताओं को शिवजी के समान मत समझना। शिवजी सबसे श्रेष्ठ और सबका मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं। हे राजन्! जो ब्राह्मण पराये हित-चिन्तक होते हैं, वह इसी प्रकार का उपदेश दिया करते हैं। इसीलिए मैंने भी तुम्हें यह उपदेश दिया है। इन बातों पर ध्यान देने से तुम्हारी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होंगी। अब तुम मुझे यज्ञ में सहायता प्रदान करो।

हे नारद! इतना कहकर जब मैं चुप हो गया, तब राजा ने हाथ जोड़कर मुझसे इस प्रकार कहा-हे ब्राह्मण! आप यहाँ आनन्दपूर्वक यज्ञ करें और जिस वस्तु की इच्छा हो, वह मुझसे ले लें। मैं सब प्रकार से आपका सेवक हूँ तथा मेरे घर में जो भी सामग्री है, वह सब आपके लिए ही है। वेद में प्रजा का पालन राजा का सबसे बड़ा धर्म कहा गया है। जिस देश में प्रजा दुःखी होती है, वहाँ वज्र से भी अधिक प्रभाव रखनेवाली तीक्ष्ण अग्नि उत्पन्न होती है। वह अग्नि सबको भस्म कर डालती है। 

हे विप्र! मेरा यह नियम है कि मैं सभी ब्राह्मणों का चरण-सेवक हूँ। उन्हीं की कृपा से मेरे सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होते हैं। जब मुझे स्नान करने की इच्छा होती है तब मैं ब्राह्मण के चरण धोकर, उस जल को अपने शरीर पर डाल लेता हूँ, और जब मैं ब्रह्मभोज करता हूँ, उस समय उसे सौ यज्ञों से कम नहीं समझता। मेरी रात-दिन यही अभिलाषा बनी रहती है कि कोई अतिथि मेरे घर पधारे और मुझे अपनी सेवा करने का अवसर प्रदान करे। आप प्रसन्नतापूर्वक यहाँ यज्ञ कीजिये। मैं आपकी सब प्रकार से सेवा करूँगा।

हे नारद! यह सुनकर मैं प्रसन्न होकर 'हरिसर' नामक स्थान पर जा पहुँचा। वहाँ मैंने राजा दिवोदास की सहायता से दस अश्वमेध यज्ञ किये। तब से वह स्थान 'दशाश्वमेध तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गंगा के समीप होने के कारण वह स्थान और अधिक पवित्र माना गया। तदुपरान्त मैंने वहाँ शिवलिङ्ग की स्थापना की और स्वयं भी वहीं स्थित हो गया। यद्यपि मैंने अनेक प्रयत्न किये, लेकिन उस राजा में किसी भी प्रकार का दोष निकालने में मुझे सफलता नहीं मिली। 

काशी को सर्वगुणसम्पन्न जानकर, मैंने शिवजी के पास लौटना उचित नहीं समझा। यद्यपि मैंने शिवजी की अवज्ञा की थी, तो भी मुझे इसलिए भय नहीं था; क्योंकि मैं यह जानता था कि जो व्यक्ति काशी का सेवन करता है, उसके ऊपर शिवजी कभी क्रोध नहीं करते। वहाँ शिवजी के भक्त स्वच्छन्द विचरण करते हैं। बड़े-बड़े पापियों के पाप भी काशी में आकर नष्ट हो जाते हैं। वहाँ अन्य किसी देवता की आज्ञा नहीं चलती। 

वहाँ का कोई भी प्राणी यमराज से भयभीत नहीं होता। पापियों को तो काशी में रहकर जो आनन्द मिलता है, वह वैकुण्ठ में भी कभी प्राप्त नहीं होता। जो मनुष्य काशी में शिवलिङ्ग की स्थापना करता है, वह अपने मन में किसी भी बड़े पाप से नहीं डरता। यही जानकर मैंने अपने स्थान पर शिवलिङ्ग की स्थापना की थी। जिस लिङ्ग को मैंने वहाँ स्थापित किया था उसका नाम 'ब्रह्मेश्वर' है। 

वह लिङ्ग सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करनेवाला तथा सम्पूर्ण चिन्ताओं को दूर करनेवाला है। हे नारद। जो मनुष्य इस कथा को सुनता है अथवा किसी दूसरे को सुनाता है, उसके भी सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं।

 ॥ ब्रह्मा के न लौटने पर शंकुकर्ण आदि गणों को काशीजी में भेजना ॥

इतनी कथा सुनकर नारदजी ने कहा-हे पिता! जब आप भी काशीपुरी में स्थित हो गये, तब भगवान् सदाशिव ने क्या किया, वह वृत्तान्त आप मुझे सुनाने की कृपा करें ?

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! शिवजी निर्गुण ब्रह्म होते हुए भी अपने भक्तों की प्रसन्नता के निमित्त मनुष्य के समान लीला-चरित्रों को किया करते हैं। जब मेरे आने मे अधिक विलम्ब हुआ, उस समय शिवजी अत्यन्त चिन्तित होकर विलाप करने लगे। काशीपुरी की याद करके उनके नेत्रों से आँसू बह निकले और वे इस प्रकार कहने लगे कि कैसा आश्चर्य है कि जिसे भी हम काशी में भेजते हैं, वह वहीं रह जाता है। इस प्रकार बहुत कुछ सोच विचार करने के उपरान्त शिवजी ने अपने मुख्य गणों को पास बुलाया।

हे नारद! उन गणों में कुछ के नाम इस प्रकार-शंकुकर्ण, महाकाल, घण्टाकर्ण, महोदर, सोमनन्द, नन्दसेन, सुरतदर्भ, चण्डकेश, विन्दक, छाग, कपर्दी, पिंगलाक्ष, वीरभद्र, किरात, चतुररत्न, निकुंभ, तेजाक्ष, भारभूत, लांगल, सुखादि, दुखादि-आदि। ये गण शिवजी को अत्यन्त प्रिय हैं। जब ये लोग आ गये, तब शिवजी ने इन सबको आज्ञा दी कि तुम सब काशी में जाकर हमारे कार्य को सिद्ध करो। जिस प्रकार हमें स्कन्द, गणपति, शाख, विशाख, नैगमेयी, नन्दी तथा भृङ्गीप्रिय हैं, उसी प्रकार तुम सब भी मुझे अत्यन्त प्रिय हो। तुम्हें देखकर काल भी भयभीत हो जाता है। तुम सब कार्य करने में अत्यन्त कुशल हो। 

काशी में जाकर शीघ्र ही हमारा काम बनाओ। देखो, तुमसे पूर्व योगिनी, सूर्य तथा ब्रह्माजी को भी हमने काशी में भेजा था; लेकिन उन्होंने लौटकर हमें कोई समाचार नहीं दिया और वे स्वयं वहीं पर स्थित हो गये। इसलिए तुम वहाँ पहुँचकर बहुत सावधानी से कार्य करना और हमारी आज्ञा का भली-भाँति पालन करना। सबसे पहिले तुम में से दो गण काशी जायँ और वहाँ का समाचार लेकर लौटें, तदुपरान्त आवश्यकतानुसार और लोग जायें।

हे नारद! शिवजी की यह आज्ञा पाकर उनमें से शंकुकर्ण तथा महाकाल नामक दो गण काशीजी को चल दिये। इन्द्रजाल की माया से गुप्त होकर वे दोनों शीघ्र ही काशी में जा पहुँचे, जिस समय वे वहाँ पहुँचे तो उस पुरी की शोभा को देखकर उनका भी मन लौटने को न हुआ। फलस्वरूप सूर्य आदि की भाँति वे भी वहीं रह गये। उन्होंने भी वहाँ शिवलिङ्ग की स्थापना की। शिवजी की अवज्ञा करने का पाप, काशीनिवास करने के कारण उन्हें भी नहीं लगा। 

हे नारद! सच बात तो यह है कि जो लोग एकबार काशी को प्राप्त करके, फिर उसे किसी प्रकार छोड़ देते हैं, वे मानो हाथ में आयी हुई मुक्ति को त्याग देते हैं। उन गणों को न लौटते देखकर शिवजी ने दो गण और भेजे, लेकिन वे भी पहिले गणों की ही भाँति शिवलिङ्ग स्थापित करके काशी में ही रह गये और लौटकर शिवजी के पास नहीं पहुँचे। उस समय शिवजी को अत्यन्त चिन्ता हुई।

हे नारद! इस अद्भुत गति को देखकर शिवजी ने चिन्ता करते हुए, अपने मन में यह विचार किया कि वास्तव में काशी परम मनोहर है, वहाँ मैं जिसे भी भेजता हूँ, वही लौटकर नहीं आता। यद्यपि अब मैं यह भली- भाँति जान गया हूँ कि जिसे भी काशी में भेजा जायेगा, वही वहाँ स्थित हो जायगा, तो भी मैं और गणों को भेजने में नहीं चूकूँगा; क्योंकि चन्द्रमा और सूर्य ग्रहण लगने पर भी अपने कार्य को नहीं छोड़ते। पर्वजन्म के कार्यों को ही इस जन्म में संस्कार कहकर पुकारा जाता है। 

उस संस्कार को दूर करने के लिए उपाय करना ही श्रेष्ठ कहा गया है। संस्कार के बल से भोजन बनाने आदि के सब उपकरण उपस्थित हो सकते हैं और भोजन भी तैयार होकर आ सकता है, परन्तु जब तक उपाय द्वारा उसे हाथ के आश्रय से मुँह में नहीं डाला जाता, तब तक क्षुधा की निवृत्ति नहीं होती । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को उचित है कि वह उपाय से अपना मुँह कभी न मोड़े।

हे नारद! यह निश्चय करके शिवजी ने पाँच गणों को और भेजा, लेकिन वे भी काशी में पहुँचकर फिर वहाँ से लौटकर नहीं आये। उन्होंने भी शिवलिङ्ग स्थापित करके काशी में रहना स्वीकार कर लिया। जब शिवजी ने उन्हें भी काशी में स्थित होते हुए अनुमाना, उस समय अपने मन में यह विचार किया कि यह भी अच्छी ही बात है कि हमारे गण काशी में जा-जाकर स्थित हो रहे हैं। हमारे गणों को वहाँ रहना हमारे रहने के समान ही है। जब ये सबलोग वहाँ पहुँच जायेंगे, तब पीछे से हम भी वहीं निवास करेंगे। यह विचारकर सदाशिवजी ने कण्डू आदि चार गण और भेजे। वे भी शिवलिंग स्थापित करके काशी में ठहर गये। 

उन चारों गणों ने जो चार शिवलिङ्ग स्थापित किये थे, उनकी महिमा संसार में प्रसिद्ध है। वे समस्त पापों को नष्ट करनेवाले तथा अपने भक्तों को सम्पूर्ण आनन्द प्रदान करनेवाले हैं। इसके उपरान्त शिवजी ने तारक आदि बाईस गणों को और भेजा। वे सब जब काशी में पहुँचे तो उन्होंने अनेक उपायों द्वारा राजा दिवोदास को धर्म-भ्रष्ट करना चाहा; लेकिन उन्हें किसी भी प्रकार अपने कार्य में सफलता प्राप्त नहीं हुई। तब उन्होंने एकत्र होकर परस्पर इस प्रकार विचार किया कि हमें सहस्त्रों बार धिक्कार है, जो हम शिवजी के गण होते हुए उनके कार्य को पूरा नहीं कर सके।

हे नारद! उन गणों ने आपस में विचार करने के उपरान्त यह कहा कि हम शिवजी का आदेश पालन नहीं कर सके, इससे यह प्रतीत होता है मानो हम उनके शत्रु हों, इस अवज्ञा के कारण हम सबको नरक प्राप्त होगा। करोड़ों शुभ-कार्य किये जाने पर भी उन्हें आनन्द प्राप्त नहीं होता, जो लोग भगवान् सदाशिव की आज्ञा पालन करने में असमर्थ रहते हैं, उन्हें दुःख-रूप समझना चाहिए। 

इस प्रकार वार्तालाप करते हुए जब शिव-गणों ने भगवान् सदाशिव का ध्यान किया तो उन्हें श्रेष्ठ बुद्धि की प्राप्ति हुई। वे सब गण भी राजा से छिपकर, काशी में स्थित हो गये। उन्होंने भी अपने-अपने नाम से शिवलिङ्गों की स्थापना की। उन लिगों की सेवा करके सबलोग अपने-अपने मनोरथ को प्राप्त करते हैं।

हे नारद! उन लिङ्गों में 'कपर्देश्वर' लिङ्ग की महिमा सर्वप्रसिद्ध है। उसी स्थान पर विमलोदक नामक सरोवर है, जिसका जल स्पर्श करने से मनुष्य शिव के समान हो जाता है। उस कुण्ड का इतिहास भी अत्यन्त आनन्ददायक है। संक्षेप में वह इतिहास इस प्रकार है कि त्रेतायुग में एक वाल्मीकि नामक व्यक्ति परम शैव तथा जितेन्द्रिय थे। वे प्रतिदिन उसी कुण्ड में स्नान करते और उसीके तट पर बैठकर तपस्या करते थे। एक दिन उन्होंने एक भयानक पिशाच को देखा। ऋषि ने उसे दुःखी देखकर दुःख का कारण पूछा, तदुपरान्त उसे कुण्ड के भीतर ले जाकर शिललिङ्ग के दर्शन कराये और उसी में स्नान भी करा दिया। 

फिर उसके सम्पूर्ण शरीर में उन्होंने भस्म भी लगा दी। इन सब क्रियाओं के कारण वह पिशाच पाप-मुक्त हो, सुन्दर शरीर धारणकर, शिवपुरी को चला गया। उसी समय से उस कुण्ड का नाम 'पिशाचमोचन' भी प्रसिद्ध हुआ है। वहाँ एक शिवभक्त को भोजन कराने से एक करोड़ ब्रह्मभोज का फल प्राप्त होता है। इस कपर्देश्वर शिवलिङ्ग के अतिरिक्त गणों द्वारा स्थापित किये हुए लिङ्ग भी वहाँ अत्यन्त प्रतिष्ठित हैं। 

उन सबकी सेवा भी आनन्द प्रदान करनेवाली है। जो लोग उन शिवलिगों की पूजा करते हैं, वे अपने सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त करते हैं। हे नारद! जो लोग इस कथा को सुनते तथा पढ़ते हैं, उन्हें कभी दुःख प्राप्त नहीं होता और भूत-पिशाचों का भय सदा के लिए छूट जाता है। यह कथा निःसंदेह महान् आनन्द देनेवाली है।

 ॥ गणों के न लौटने पर गणपति को काशीजी भेजना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! इस प्रकार अपने गणों के न लौटने पर शिवजी अत्यन्त चिन्तित हुए और विचार करने लगे कि अब वहाँ किसे भेजा जाय। राजा दिवोदास ने मुझे अत्यन्त दुःख पहुँचाया है, जो मुझे मेरा काशीवास छुड़ा दिया। अब इस समय मुझे अपना कोई भी मित्र दिखाई नहीं देता। इस प्रकार चिन्ता करने के उपरान्त शिवजी ने काशी का स्मरण किया और कहा-जो लोग काशी में निवास करते हैं वे मानो हमारे ही उदर में स्थित हैं। उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं रहता। जिस प्रकार हव्य को यज्ञ में जलते समय कोई भय नहीं होता, उसी प्रकार काशी में रहनेवाले पापियों को भी किसी की चिन्ता नहीं रहती है। 

जो लोग वहाँ रहकर हमारी कथा को सुनते हैं और अपने मुख पर शिव-काशी शब्द लाते हैं, वे उच्च गति को प्राप्त करते हैं। काशी का विस्तार पाँच कोस का है। वह हमारे शरीर के ही समान है। जो लोग काशी का सेवन करते हैं, उन्हें अत्यन्त आनन्द प्राप्त होता है। वे किसी भी प्रकार हमारे शत्रु तथा पापी नहीं हैं। जो लोग शुद्ध हृदय से हमारी भक्ति करते हैं, उन्हें काशी की महिमा भली-भाँति विदित है। यही कारण है कि हमारे गणों ने काशी में पहुँचकर, वहीं अपना निवास बना लिया, अन्यथा वे हमें छोड़कर कहीं भी नहीं रह सकते हैं। निश्चय ही उनके भाग्य बहुत उत्तम हैं। अब हमें कुछ और लोगों को भी वहाँ भेज देना चाहिए।

हे नारद! यह विचार करके शिवजी ने गणपति को बुलाया। फिर उन्हें आदर-प्यार सहित अपनी गोद में बैठाकर इस प्रकार कहा-हे गणपति! काशी का राजा दिवोदास मुझे बहुत दुःख पहुँचा रहा है, क्योंकि उसके कारण मेरा काशीवास छूट गया है। उसके इस व्यवहार से देवता भी अत्यन्त दुःखी हैं। जब तक वह वहाँ राज्य कर रहा है, तब तक मैं काशी नहीं जा सकता। 

जिन्हें मैंने उस राजा को धर्म से पतित करने के लिए भेजे थे, वे सब भी वहीं जाकर रह गये तथा अभी तक किसी ने भी लौटकर कोई समाचार नहीं दिया है। मेरे जितने भी गण हैं, वे सब युद्ध में तो प्रवीण हैं; लेकिन उनमें तुम्हारे जैसा बुद्धिमान् कोई नहीं है। तुम्हारे भाई स्कन्द ने भी अनेक बार अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया है, लेकिन तुम प्रत्येक कार्य बुद्धि के बल से करते हो। अतः मेरी यह इच्छा है कि अब तुम स्वयं काशी में जाओ और मेरे कार्य को पूरा करो। तुम काशी में जाकर स्थित हो जाना तथा छिपे रहकर सब गणों सहित राजा को दुःख पहुँचाना, जिससे मेरा मनोरथ सिद्ध हो सके‌।

हे नारद! इतना कहकर शिवजी तथा गिरिजाजी ने गणपति को आशीर्वाद दिया। तब वे अनेक प्रकार के उपाय सोचते हुए, काशीपुर में जा पहुँचे। वहाँ वे ज्योतिषी, ब्राह्मण का स्वरूप धारणकर, नगर में घूमने लगे। जब काशीवासियों ने उन्हें देखा तो वे सब उनका बहुत आदर-सत्कार करने लगे। इस प्रकार कुछ दिनों में जब सब काशीवासी उनसे परिचित हो गये तथा आदर-सम्मान करने लगे, तब उन्होंने यह युक्ति निकाली कि वे स्वयं सब लोगों के अन्तःकारण में प्रवेश करके, उन्हें बुरे स्वप्न दिखाने लगे। 

इस प्रकार रात्रि में तो वे लोगों को स्वप्न दिखाते और सबेरा होते ही उनके पास जाकर स्वप्न का फल बताते थे। जितने भी दुस्स्वन हो सकते थे, वे उन सबको गणेशजी ने काशीवासियों को दिखाया तथा उनका फल भी प्रत्यक्ष प्रकट कर दिया। इस प्रकार लोग भयभीत होकर काशी छोड़कर भागने लगे। गणपति ने किसी के ग्रहों को बुरा बताया तो किसी के भाग्य को खोटा कहा। वे कभी किसी के घर में घुस जाते और अनेक प्रकार की माया करके स्त्रियों के हृदय में सन्देह उत्पन्न किया करते थे। इसी प्रकार की बातें देख-सुनकर सब स्त्री-पुरुष गणेशजी पर विश्वास करने लगे और उन पर प्रेम भी रखने लगे। यहाँ तक कि राजा दिवोदास की पत्नी भी गणेशजी की भक्त बन गयी।

हे नारद! काशी की स्त्रियाँ गणेशजी की प्रशंसा करती हुई परस्पर इस प्रकार कहती थीं कि जैसा ब्राह्मण यह है, वैसा हमने आज तक कहीं नहीं देखा है। यह जो कुछ भी कहता है, वह कभी मिथ्या नहीं होता। यह ब्राह्मण परम बुद्धिमान् तथा शीलवान है। यह थोड़ा सा जल पीकर ही प्रसन्न हो जाता है। इसके सभी कार्य अत्यन्त श्रेष्ठ हैं। यह पवित्र, विचारशील, उदार तथा दयालु है। यह ज्योतिष विद्या को भली-भाँति जानता है और सभी श्रेष्ठ गुणों की खान के समान है। इस प्रकार की बातें करके वे उन्हें अपने घरों में ठहरातीं और बहुत प्रकार से आदर-सत्कार करती थीं।

हे नारद! एक दिन राजा दिवोदास की पत्नी लीलावती ने उचित अवसर जानकर अपने पति से यह कहा-हे स्वामिन्! इन दिनों काशीपुरी में एक ब्राह्मण आया हुआ है। वह सम्पूर्ण विद्याओं की खान है। हे पति! वह ब्राह्मण दर्शन करने के योग्य है। मेरी यह इच्छा है कि आप भी उसका दर्शन प्राप्त करें। रानी के मुख से यह शब्द सुनकर राजा ने प्रसन्न होकर कहा-हे प्रिये! मैं अवश्य ही ऐसे ब्राह्मण का दर्शन प्राप्त करना चाहूँगा। तुम उसे शीघ्र ही यहाँ बुलाओ। 

यह सुनकर रानी ने अपनी एक सखी को भेजकर गणेशजी को बुला लिया। जिस समय गणेशजी राजा के समीप पहुँचे, उस समय राजा को ऐसा अनुभव हुआ मानो साक्षात् ब्रह्मतेज ही शरीर धारण किये चला आया हो। राजा ने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा गणपति ने भी वेदमन्त्रों द्वारा उसे आशीर्वाद दिया। दोनों ओर से कुशल-प्रश्न होने के बाद वार्तालाप प्रारम्भ हुआ। दोनों ही धर्मज्ञ तथा बुद्धिमान् थे। 

गणेशजी से परिचय प्राप्त करके राजा को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। जब गणेशजी विदा होकर चले गये, उस समय राजा ने रानी की प्रशंसा करते हुए कहा-हे प्रिये! तुमने इस ब्राह्मण के सम्बन्ध में जो प्रशंसा की थी, वास्तव में वह सर्वथा सत्य थी। यह ब्राह्मण निश्चय ही त्रिकालदर्शी है। अब मैं प्रातःकाल इस ब्राह्मण को फिर बुलाकर अपने भविष्य के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न करूँगा।

हे नारद! प्रातःकाल होते ही राजा दिवोदास ने गणेशजी को फिर बुला भेजा और उन्हें रत्न आदि की बहुमूल्य भेंट देकर इस प्रकार कहने लगा-हे विप्रश्रेष्ठ! मैंने अपने देश का धर्मपूर्वक राज्य किया है और अपनी प्रजा को पुत्र के समान पाला है। अपने धर्म के कारण मैंने अनेक प्रकार के सांसारिक भोग भी प्राप्त किये हैं तथा बहुत प्रकार के दान भी दिये हैं। ब्राह्मणों से अधिक श्रेष्ठ मैं देवताओं को भी नहीं मानता। देवताओं ने मुझे पदच्युत करने के लिए अनेक जघन्य कार्य किये, लेकिन ब्राह्मणों का सेवक होने के कारण वे मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सके। मैंने अब तक अपने धर्म को एक पल के लिए भी नहीं छोड़ा है। 

इसलिए मेरी लोक में कभी निन्दा नहीं हुई है। मेरे हृदय में किसी प्रकार की अभिलाषा शेष नहीं रही है और न किसी वस्तु की इच्छा होती है। मेरा हृदय त्यागवृत्ति की ओर झुकता चला जा रहा है। न जाने मुझे यह क्या हो गया है, सो नहीं कह सकता। अब आप भली-भाँति विचार करके, मुझे इस सबका कारण बताने की कृपा करें।

हे नारद! राजा के इन वचनों को सुनकर ब्राह्मणरूपधारी गणेशजी ने उत्तर दिया-हे राजन्! तुमने जब मुझसे यह बात पूछी ही है, तो मैं इसका अवश्य उत्तर दूँगा। राजनीति तथा वेद का कथन है कि राजाओं के सम्मुख बिना पूछे कोई बात नहीं कहनी चाहिए, अब मैं तुम्हें यह बताता हूँ कि तुम्हारे मन न लगने का कारण क्या है ? हे नृपश्रेष्ठ! तुम वास्तव में बड़े भाग्यशाली हो, क्योंकि ब्राह्मणों के चरण कमलों में तुम्हारा अगाध प्रेम है। तुम्हारा शरीर यश, कीर्ति एवं विद्या से अलंकृत है। तुम्हारा तेज अग्नि के समान है और सत्यपालन में तुम साक्षात् धर्मराज के तुल्य हो।

हे राजन्! तुम ऊँचाई में हिमाचल पर्वत के समान और राजाओं में मनु के समान हो। इसके साथ ही पवित्रता में गंगा के समान, मुक्ति देने में काशी के समान, दाह दूर करने में मेघ के समान, संहार करने में शिव के समान, पालन करने में विष्णुजी के समान, यज्ञ करने में ब्रह्माजी के समान, वाचालता में सरस्वती के समान तथा सुन्दरता में कामदेव के समान हो। लक्ष्मी तुम्हारे हाथ में निवास करती है। तुम्हारे मुख को देखकर जो लक्षण प्रतीत होते हैं, वह हमने तुमसे कहे हैं। 

अब तुम हमारी एक बात और सुनो। वह बात यह है कि आज से अठारहवें दिन उत्तर दिशा से एक ब्राह्मण तुम्हारे पास आयेगा। वह तुम्हें जिस बात का उपदेश करे, तुम उसे सत्य समझना और उसी के अनुसार आचरण भी करना। उसकी आज्ञा मानने से तुम्हारे सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होंगे। इतना कहकर ब्राह्मणरूपधारी गणपति अपने स्थान को लौट आये।

हे नारद! राजा दिवोदास गणपति द्वारा कहे हुए इन वचनों को अत्यन्त गुप्त रखकर समय की प्रतीक्षा करने लगा। इस प्रकार गणपति भी अपने पिता की आज्ञा का पालन करके अत्यन्त प्रसन्न हुए। तदुपरान्त वे अनेक स्वरूप धारणकर काशी में स्थित हो गये। जिस समय काशीपुरी राजा दिवोदास के आधीन न थी, उस समय भी गणेशजी वहाँ अनेक स्थानों पर विराजमान थे। उन्हीं सब स्थानों पर जाकर वे पुनः प्रतिष्ठित हो गये। वे सभी स्थान सिद्धक्षेत्र हैं। 

जिस समय विष्णुजी ने आकर राजा दिवोदास को काशी से भगाया और शिवजी ने मन्दारचल पर्वत से उतरकर पुनः काशी को बसाया, उस समय सर्वप्रथम शिवजी ने गणेशजी की ही प्रशंसा की थी। तदुपरान्त गणेशजी सर्वप्रथम होकर वहीं सुख से निवास करने लगे। शिवजी ने अपनी काशीपुरी की रक्षा के निमित्त चारों ओर योगिनियों को स्थापित किया था। फिर उन्होंने सात ओर गणों को, आठवीं ओर ब्रह्मा को तथा सब ओर रक्षा करने के हेतु विष्णुजी को स्थापित किया। 

यह सभी गण तथा देवता अपने-अपने भक्तों को अत्यन्त आनन्द प्रदान करनेवाले हैं। शिवजी का यह चरित्र दोनों लोकों में प्रशंसनीय तथा सम्पूर्ण मनोकामनाओं को पूरा करनेवाला है। जो लोग इस चरित्र को ध्यानपूर्वक सुनते हैं, वे दोनों लोकों में आनन्द प्राप्त करते हैं।

 ॥ गणेशजी के न लौटने पर विष्णु जी को काशीजी में भेजना ॥

इतनी कथा सुनकर नारदजी ने कहा-हे पिता! राजा दिवोदास ने अपना राज्य किस प्रकार छोड़ा तथा शिवजी मन्दराचल पर्वत से उतरकर किस प्रकार काशीजी में पहुँचे और वहाँ उन्होंने क्या-क्या चरित्र किये, यह सब आप मुझे विस्तारपूर्वक सुनाने की कृपा करें।

ब्रह्माजी बोले-हे पुत्र! जब शिवजी ने यह देखा कि गणेशजी भी काशी से लौटकर नहीं आये तो उन्हें अत्यन्त चिन्ता हुई। फिर उन्होंने विष्णुजी की ओर देखते हुए यह कहा-हे विष्णुजी! तुम सम्पूर्ण संसार को आनन्द प्रदान करनेवाले तथा सबका पालन करनेवाले हो। हम तुम्हें अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय समझते हैं। देखो, अब तक हमने बहुत से लोगों को काशी भेजा, लेकिन वे सबके सब वहीं स्थित हो गये। न तो उन्होंने हमारा काम ही पूरा किया और न लौटकर ही आये। पता नहीं उन्हें किस विपत्ति ने घेर लिया। 

हम तुमसे यह कहते हैं कि अब तुम्हीं जाकर हमारे कार्य को पूर्ण करो। तुम अन्य लोगों के समान वहीं मत रह जाना। अब तुम वह उपाय करो, जिससे हमारा यह कार्य भी सिद्ध हो जाय। तुम स्वयं ही बुद्धिमान हो, अतः तुम्हें अधिक क्या समझाया जाय ?

हे नारद! भगवान् सदाशिव के मुख से निकले हुए इन वचनों को सुनकर विष्णुजी ने कहा-हे प्रभो! आप परब्रह्म हैं। हमारा तो यह विश्वास है कि सम्पूर्ण यश और अपयशों को दिलानेवाले आप ही हैं। आप यदि किसी को कोई सेवा करने की आज्ञा देते हैं तो उसको सौभाग्य ही समझना चाहिए। सब लोग अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार अनेक उपाय करते हैं, लेकिन उनकी सिद्धि आपके ही हाथ में रहती है। 

सभी सांसारिक कार्य आपकी कृपा के बिना निष्फल हैं। आप ही सब कर्मों के साक्षी तथा सबको जीवन-दान देनेवाले हैं। सम्पूर्ण मन्त्र आपके ही अधीन रहते हैं तथा आपकी कृपा से ही सब कार्यों की पूर्ति होती है। आपकी शुभ दृष्टि द्वारा ही जीव को आनन्द प्राप्त होता है। आपकी प्रदक्षिणा करके यदि किसी कार्य को किया जाय तो वह अवश्य ही सफल होता है। अब यदि आप स्वयं आज्ञा देकर इस कार्य को करने के लिए भेज रहे हैं तो मैं भी अपनी माया के बल द्वारा इसे पूर्ण करूँगा। मुझे मुहूर्त देखने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जिस समय आपने मुझे आज्ञा दी, वह समय ही मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ है। मैं अब शीघ्र ही काशी में पहुँचता हूँ और आप विश्वास रखें कि प्राण चले जाने पर भी मैं इस कार्य को पूर्ण करूँगा ।

हे नारद! इतना कहकर विष्णुजी ने शिवजी को बारम्बार प्रणाम किया। तदुपरान्त वे उनकी स्तुति करते हुए काशीपुरी चल दिये। जिस समय वे काशी में पहुँचे तो वहाँ की सुन्दरता देखकर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उन्होंने मस्तक नवाकर सर्वप्रथम काशी को प्रणाम किया, फिर उस स्थान को गये, जहाँ गंगा तथा वरुणा नदी परस्पर मिली हैं। उन्होंने वहाँ हाथ-पाँव धोकर आचमन किया तथा स्नान करके शिवजी का पूजन किया। 

जिस स्थान पर उन्होंने स्नान किया था, वह स्थान उसी दिन से पादोदक तीर्थ के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ। वहाँ जो व्यक्ति भगवान् विष्णुजी की पूजा करते हैं, उन्हें सम्पूर्ण पापों से मुक्ति प्राप्त होती है। विष्णुजी ने वहाँ आदिकेशव नामक अपने स्वरूप का भी पूजन किया। जिस स्थान पर वह मूर्ति प्रतिष्ठित है, उसे श्वेतद्वीप कहकर पुकारा जाता है। वहीं क्षीरोदधि आदि अनेक तीर्थ और भी हैं। 

वहाँ स्नान करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। उस तीर्थ से दक्षिण की ओर चक्रतीर्थ, गदातीर्थ, पद्मतीर्थ, रमातीर्थ, गरुड़तीर्थ, नारदतीर्थ तथा प्रह्लादतीर्थ आदि अनेक तीर्थ हैं। उन सबमें स्नान करने से मनोकामना की प्राप्ति होती है और मुनच्य समस्त पापों से छूटकर मुक्ति-पद को प्राप्त करता है ।

 ॥  विष्णुजी का काशीजी में पहुँचकर बौद्ध मत फैलाना ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! विष्णुजी अपनी आदिकेशव मूर्ति में प्रविष्ट होकर काशी में स्थापित हुए और कुछ अंशों में निकलकर शिवजी के कार्य में प्रवृत्त हुए। यह सुनकर नारदजी बोले-हे पिता! विष्णुजी कुछ अंश से क्यों निकले और कहाँ गये, यह आप मुझे सुनाने की कृपा करें। 

ब्रह्माजी ने उत्तर दिया-हे नारद! जिस कारण से विष्णुजी का सम्पूर्ण अंश उस आदि केशव मूर्ति से बाहर नहीं निकला, वह यह है कि जब पूर्वजन्म के पुण्य उदय होते हैं, तभी काशी का वास मिलता है। जिस प्राणी पर शिवजी की कृपा नहीं होती, वह काशी में नहीं रह पाता। जो मनुष्य काशी में नहीं रहते, उनके जन्म को व्यर्थ समझना चाहिए। संसार के सभी तीर्थसेवकों के समान काशी की सेवा किया करते हैं। काशी परमश्रेष्ठ और तीनों लोकों से न्यारी है। काशी में मृत्यु होने पर स्वर्ग से भी अधिक आनन्द प्राप्त होता है।

हे नारद! यही कारण था कि विष्णुजी अपने पूर्ण अंश से आदिकेशव रूप धारणकर काशी में स्थित हुए और अपने छोटे से अंश से उस मूर्ति से निकलकर, काशी में भ्रमण करने लगे। गरुड़ और लक्ष्मी भी उनकी मूर्ति से कुछ दूर उत्तर की ओर स्थित हुईं। जिस स्थान पर गरुड़ तथा लक्ष्मी स्थित हुईं, उसे धर्मक्षेत्र कहा जाता है। उसके दर्शन से अत्यन्त आनन्द प्राप्त होता है। 

विष्णुजी ने अपना स्वरूप इस प्रकार का धारण किया जो तीनों लोकों को मोहित करनेवाला था। उन्होंने श्रेष्ठ वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो, अपने को पुण्यकीर्ति नाम से प्रसिद्ध किया। गरुड़ भी उनके शिष्य बनकर विनयकीर्ति के नाम से प्रसिद्ध हुए। लक्ष्मीजी भी मनुष्यों के समान स्वरूप धारणकर गोमोक्ष नाम से विख्यात हुईं। सब लोग इन तीनों के सुन्दर स्वरूप को देखकर मोहित होने लगे। फिर विष्णुजी विभिन प्रकार के चरित्रों द्वारा काशीवासियों को मोहित करने लगे।

हे नारद! जिस समय काशीवासी झुण्ड के झुण्ड विष्णुजी का दर्शन करने के लिए आते, उस समय विष्णुजी और गरुड़जी, गुरु-शिष्य की भाँति आपस में इस प्रकार वार्तालाप करने लगते थे। शिष्य गरुड़जी, जिन्होंन अपना नाम विनयकीर्ति रख छोड़ा था, पुण्यकीर्ति नामक विष्णुजी की स्तुति करते हुए कहते-हे गुरुजी! आप उस धर्म का वर्णन करने की कृपा कीजिये, जिससे संसार को आनन्द प्राप्त हो। 

गरुड़ की बात को सुनकर विष्णुजी मन ही मन मुस्कुराकर तथा उच्च-स्वर से सब लोगों को सुनाकर इस प्रकार उत्तर देते-हे शिष्य! यह सृष्टि अनादि है, पुरातन काल से यह इसी प्रकार चली आती है। इसे उत्पन्न करनेवाला कोई नहीं है। यह स्वयं ही प्रकट होती है और स्वयं ही नष्ट हो जाती है। ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सभी जीव बारम्बार जन्म लेते हैं और बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं। आत्मा को ही ईश्वर समझना चाहिए। आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई किसी का स्वामी नहीं है। ब्रह्मा आदि बड़े देवताओं को भी काल ने नहीं छोड़ा। इस बात पर जो विश्वास रखता है, उसी को बुद्धिमान् समझना चाहिए। 

हे शिष्य! संसार में न कोई बड़ा है और न कोई छोटा। न कोई सुखी है और न कोई दुःखी आहार-विहार में सब एक समान हैं। अच्छा-बुरा भी कोई नहीं है। किसी को न तो पाप लगता है और न कोई निष्पाप रहता है। भोजन सब को तृप्त करता है और पानी सबकी प्यास बुझाता है। मृत्यु का भय ऐसा है जो देवताओं को भी लगा रहता है। ब्रह्मा और विष्णुजी भी उससे भयभीत रहते हैं। जितने भी शरीरधारी हैं, वे सब विद्या, बुद्धि और ज्ञान के कारण एक से हैं। संसार में मनुष्य को केवल एक ही बात का ध्यान रखना चाहिए और वह बात यह है कि किसी भी जीव को दुःख देना पाप है। प्राणियों पर दया करने के समान अन्य कोई धर्म नहीं है।

हे शिष्य! दान चार प्रकार के होते हैं-रोगी को औषध देना, भयभीत का भय छुड़ाना, भूखे को भोजन कराना तथा विद्यार्थी को विद्यादान देना। औषध और मन्त्र के प्रभाव से धन एकत्र करना चाहिए और उससे अपने शरीर का पालन करना चाहिए। सुख को स्वर्ग और दुःख को नरक समझना चाहिए। वेद में प्रवृत्ति और निवृत्ति नामक जो दो प्रकार की मान्यताएँ हैं, उनका ठीक आशय यही है कि जीव-हिंसा प्रवृत्ति और जीवों पर दया निवृत्ति हो। 

वेदान्त का यह वचन है कि प्रत्यक्ष से बढ़कर प्रमाण योग्य और कोई बात नहीं है। तुम अपने मन में विचार करके स्वयं देखो कि जो लोग यज्ञ में जीवों को बलिदान करके उन्हें मार डालते हैं और स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से अग्नि में तिल, घी आदि को जलाते हैं, भला इस सब से बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा ? यह तो बिलकुल व्यर्थ की बातें हैं।

हे नारद! इस प्रकार पुण्यकीर्ति नामक विष्णु ने धर्म के विपरीत बहुत सी बातें कहीं। उन बातों को सुनकर काशी-निवासी मोहित हो गये और पुराने धर्म से उनका चित्त उचटने लगा। जिस प्रकार विष्णुजी ने पुरुषों को मोहित किया, उसी प्रकार लक्ष्मीजी ने भी स्त्रियों को बौद्धधर्म का उपदेश करके उन्हें उल्टी बातें सिखा दीं तथा उन्हें अपने अधीन कर लिया। उन्होंने स्त्रियों को केवल शरीरपालन करने की शिक्षा दी तथा अपने उपदेश से पातिव्रत धर्म को व्यर्थ सिद्ध कर दिया। उन्होंने वर्णाश्रम धर्म को समाप्त कर देनेवाले अनेक उपदेश किये। 

हे नारद! उनके उपदेश का सारांश यह था कि वेद जिसे आनन्दस्वरूप ब्रह्म कहते हैं, वह अन्यत्र नहीं है, अपितु उसका तात्पर्य यह है कि जब तक इस शरीर की इन्द्रियाँ शिथिल नहीं होतीं, तब तक खूब आनन्द उपभोग करना चाहिए। परोपकार के लिए इस प्रकार तैयार रहना चाहिए कि यदि कोई मनुष्य अपना शरीर माँगे तो उसे भी दान कर देना चाहिये। उसकी उत्पत्ति पर भी धिक्कार है। कौए, कुत्ते, सियार, कीड़े आदि इसे अपना भक्ष्य बनाते हैं। यह एक न एक दिन अवश्य ही जल जाता है। 

तब इसे रखने से भी क्या लाभ ? यदि अन्य जीवों को इसके द्वारा कोई लाभ पहुँच सके तो वह उत्तम है। यदि सम्पूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करनेवाला ब्रह्माजी को माना जाय तो सबलोग आपस में भाई के समान हैं। फिर उन्होंने परस्पर विवाह करके अधर्म क्यों किया है ? इससे सिद्ध होता है कि इस सृष्टि को उत्पन्न करनेवाला ब्रह्मा नहीं है। इस संबन्ध में वेद जो कहते हैं, वह मिथ्या है। वेदों के कहने पर कभी नहीं चलना चाहिए।

जिन चार वर्णों का वर्णन किया जाता है, यदि उन पर विचार किया जाय तो वह भी मिथ्या प्रतीत होता है; क्योंकि यह शरीर पंचतत्त्वों से उत्पन्न होता है और उसी में मिल जाता है। इस प्रकार जब सभी लोग पंच-तत्त्वों से उत्पन्न हुए हैं, तब उनमें अलग-अलग वर्ण किस प्रकार हो सकते हैं ? जाति के विचार को झूठा समझना चाहिए और यह जानना चाहिए कि सब मनुष्य परस्पर एक समान हैं।

हे नारद! इस प्रकार बहुत सी बातें करके लक्ष्मी ने स्त्रियों के पातिव्रत धर्म को छुड़ा दिया। विष्णुजी और लक्ष्मी के इन उपदेशों का काशी की प्रजा पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि सब लोग अपने धर्म को त्यागकर अपनी इच्छानुसार भोग-विलास करने लगे। सब पुरुष स्त्रियों के कहने में चल उठे। स्त्रियाँ जो कहतीं उसी के अनुसार वे आचरण करते थे। इस प्रकार धर्म-विरुद्ध आचरण करने से सब ओर पाप फैल गया। 

उस समय राजा दिवोदास ने ब्राह्मणरूपी गणपति का स्मरण कर, राज्य-कार्य से अपना हाथ खींच लिया। अपनी प्रजा की ऐसी दशा देखकर, उनकी बात को सत्य समझकर वह इस प्रतीक्षा में रहने लगा कि कब दूसरा ब्राह्माण आवे और मेरे मन के दुःख को दूर करे। इसी चिन्ता में वह दिन-रात निमग्न रहता था।

 ॥ राजा दिवोदास का ब्राह्मण रूपी विष्णु से वार्त्तालाप ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! जब अठारहवाँ दिन आया तो राजा दिवोदास नित्यकर्म से निवृत्त होकर गणपतिजी द्वारा बताये गये ब्राह्मण की बाट देखने लगा। उसी दिन मध्याह्नकाल में विष्णुजी ब्राह्मण का स्वरूप बनाये हुए, अन्य कई ब्राह्मणों को अपने साथ लिये, अग्नि के समान तेज धारणकर, उसके पास जा पहुँचे। राजा ने जब दूर से उन्हें आते हुए देखा तो यह समझकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ कि वही उपदेश करनेवाले ब्राह्मण चले आ रहे हैं। राजा ने अगवानी कर उन्हें प्रणाम किया। तुदपरान्त उन्हें अपने अन्तःपुर में ले जाकर पूजन, भजन तथा सेवन के उपरान्त अत्यन्त सम्मानपूर्वक श्रेष्ठ आसन पर बैठाया एवं उत्तमोत्तम वस्तुएँ भेंट दे-देकर उनकी अनेक प्रकार से स्तुति प्रशंसा करते हुए इस प्रकार कहने लगा। 

राजा बोला-हे महात्मन्! मैं कुछ दिनों से बहुत दुःखी रहा करता हूँ। इस दुःख का कारण मेरी समझ में नहीं आता। आप मुझे कोई ऐसा उपाय बताइये, जिसके करने से मेरे मन का दुःख दूर हो और आनन्द की प्राप्ति हो। इसी चिन्ता में मुझे एक मास का समय व्यतीत हो गया है, लेकिन मेरा कष्ट कुछ भी दूर नहीं हुआ है। इतना कहकर राजा दिवोदास ने अपने राज्य-पालन, प्रताप, ब्राह्मणों की सेवा आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया। 

फिर कहा-हे प्रभो! मुझे अपने दुःख का कारण यह जान पड़ता है कि मैंने अपने तपोबल के गर्व में भरकर सभी देवताओं को तृण के समान समझा है। अब मेरी यह दशा है कि मैंने जिन भोगों को आनन्दपूर्वक भोगा, वे ही मुझे रोग के समान प्रतीत होते हैं। वैसे तो यह नियम है कि यदि मनुष्य एक कल्पतक भी जीवित रहे, तो भी भोगों से तृप्त नहीं होता, लेकिन मेरी अभी से यह दशा हो गयी है कि मुझे राज्य चलाना चक्की चलाने के समान भारस्वरूप लगता है। 

आप कृपा करके कोई ऐसा उपदेश कीजिये, जिससे मैं इस आवागमन के चक्कर से छूटजाऊँ। मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप जो भी उपदेश मुझे करेंगे, उसे मैं श्रद्धापूर्वक अवश्य स्वीकार करूँगा। मुझे आपके दर्शनों से अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ है। अब आप मुझे वास्तविक आनन्द प्रदान करने की कृपा करें।

हे प्रभो! मुझे यह भी अनुभव होता है कि देवताओं से विरोध करके आज तक किसी ने आनन्द प्राप्त नहीं किया है। राजा बलि, त्रिपुर, वृत्रासुर, उपव्रत, दधीचि तथा सहस्त्रबाहु आदि की कथाएँ इसका प्रमाण हैं। परन्तु मुझे देवताओं के विरोध का इसलिए कोई भय नहीं है कि मैंने ब्राह्मणों की सेवा करके अत्यन्त सम्मान पाया है। जिस प्रशंसा को देवताओं ने यज्ञ, जप, तप, आदि द्वारा प्राप्त किया है, उसी प्रशंसा को मैंने ब्राह्मणों की सेवा द्वारा सहज ही प्राप्त कर लिया है। ब्राह्मणों का कृपापात्र होने के कारण मैं देवताओं से किसी भी प्रकार कम नहीं हूँ। अब मेरी यह इच्छा है कि आप मुझे उचित उपदेश देकर आवागमन से छुड़ा दें।

हे नारद! राजा दिवोदास की बातें सुनकर ब्राह्मणरूपी विष्णुजी ने उसकी बहुत प्रशंसा करते हुए कहा-हे राजन्! हमें जो कुछ कहना था, उसे तुम स्वयं ही कह चुके हो। तुम्हारा कथन पूर्णतया सत्य है। हम तुम्हारे प्रताप को अच्छी तरह जानते हैं। तुम्हारे समान न तो कोई राजा हुआ है और न होगा ही। तुमने देवताओं के साथ भी कोई शत्रुता नहीं की है; क्योंकि तुमने अपनी प्रजा का पालन इस श्रेष्ठ प्रकार से किया है कि उससे देवता भी अत्यन्त आनन्दित हैं। परन्तु हमें तुम्हारा एक ही पाप मालूम होता है। तुमने शिवजी को काशीजी से दूर कर दिया, यह तुमसे बड़ा भारी पाप हो गया है। यदि इस पाप को तुम किसी प्रकार नष्ट कर दो तो, तुम्हारे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जायेंगे। 

इसका केवल एक ही उपाय है, वह हम तुम्हें बताते हैं। वेद का कथन है कि जो मनुष्य शिवलिंग की पुजा करता है, उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य के शरीर में रोम हैं, उतने पाप एक शिवलिंग की स्थापना करने से नष्ट हो जाते हैं। विशेष करके काशी में शिवलिंग की स्थापना करनेवाले को किसी पाप से स्वप्न में भी भयभीत नहीं होना चाहिए। जो प्राणी काशी में शिवजी का एक भी लिंग स्थापित कर दे, उसके सम्बन्ध में यह समझना चाहिए, मानो उसने बहुत से देशों में शिवलिंग स्थापित किये हैं। इसलिए तुम्हें यह उचित है कि तुम भी काशीजी में शिवलिंग की स्थापना करो। इससे तीनों लोकों में तुम्हारा यश फैलेगा और तुम अपने सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त करोगे।

हे नारद! इतना कहकर विष्णुजी कुछ देर के लिए चुप हो गये। फिर कुछ मन्त्रों का पाठ करके, राजा के शरीर को अपने हाथ से स्पर्श करते हुए इस प्रकार बोले-हे राजन्! हमने ज्ञानदृष्टि से जो कुछ देखा है, अब उसे तुम्हें बताते हैं। तुम अत्यन्त ज्ञानी तथा सर्वगुणसम्पन्न हो। जिस मनुष्य को धन अथवा देश प्राप्त करने की इच्छा हो, उसे प्रातःकाल प्रतिदिन तुम्हारा नाम लेना चाहिए। तुम्हारे पास आकर हमें भी बहुत आनन्द प्राप्त हुआ है। इतना कहकर ब्राह्मण वेषधारी विष्णुजी बारम्बार हँसने तथा मस्तक हिलाने लगे।

तदुपरान्त मन ही मन गुनगुनाते हुए बोले-इस राजा के बड़े भाग्य हैं। यह अब निश्चय ही मोक्ष को प्राप्त करेगा क्योंकि ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु आदि देवता और ऋषि-मुनि जिन शिवजी का हर समय ध्यान करते हैं, वे शिवजी स्वयं प्रतिदिन इस राजा का स्मरण करते हैं। तीनों लोकों में इसके समान भाग्यशाली अन्य कोई नहीं है।

हे नारद! इस प्रकार मन ही मन गुनगुनाने के पश्चात विष्णुजी ने राजा से फिर कहा-हे राजन्! तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। तुम इसी शरीर से परमपद को प्राप्त करोगे। जिस समय तुम शिवजी का लिंग स्थापित करोगे, उस समय तुम आवागमन के बन्धन से मुक्त हो जाओगे। आज के सातवें दिन शिवजी के गण तुम्हें लेने के लिए आयेंगे। तुम भले ही इस लाभ को किसी अन्य पुण्य का फल समझो, परन्तु हम तो इसे काशी-सेवन का ही माहात्म्य समझते हैं। 

काशी में निवास करने के कारण ही तुमने इस उच्चपद को प्राप्त किया है। तुम्हारे दर्शन का बड़ा फल है। उनकी बात सुनकर राजा दिवोदास अत्यन्त प्रसन्न हुआ और हाथ जोड़कर कहने लगा-हे प्रभो! आपने मुझे भवसागर से पार उतार दिया। अब यदि मैं आपको कुछ भेंट करूँ तो वह सब इस उपकार के देखते हुए अत्यन्त तुच्छ होगा। राजा के ऐसे वचन सुनकर विष्णुजी उसे आशीर्वाद देने के उपरान्त विदा हो गये और अपने काशी के स्थान में स्थित हुए। 

तदुपरान्त उन्होंने गरुड़ को शिवजी के समीप भेजा और उनके आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। फिर अग्निबिन्दु ब्राह्मण पर कृपा करके, उन्होंने उस देश का राज्य उसे दे दिया और स्वयं पंचनद के ऊपर बैठकर, प्रेमपूर्वक शिवजी का ध्यान करने लगे।

॥ विष्णु जी के उपदेश से दिवोदास का राज्य-त्याग ॥

इतनी कथा सुनकर नारदजी ने कहा-हे पिता! आप मुझे यह सम्पूर्ण वृत्तान्त विस्तारपूर्वक सुनाइये। ब्रह्माजी बोले-हे नारद! सुनो, ब्राह्मणरूपी विष्णुजी से उपदेश प्राप्तकर राजा दिवोदास ने अपने सेवकों द्वारा सभी राजा, प्रजा, मन्त्री मण्डलेश्वर, पारिवारिक-जन, पुरोहित, सेनापति, वेदपाठी, यज्ञ करानेवाले तथा राजकुमारों को बुलाया। तदुपरान्त उसने अपने बड़े पुत्र रिपुंजय एवं सब स्त्रियों को भी बुलाया। जब सब लोग आ गये, तब राजा ने ब्राह्मण वेषधारी विष्णुजी की कही हुई सब बातों को सुनाकर, उनसे इस प्रकार कहा-हे स्वजनो! अब हम इस पृथ्वी पर सात दिन तक और हैं, तदुपरान्त शिवलोक को चले जायेंगे। इसलिए आप मेरे बड़े पुत्र रिपुंजय को राज्यपद पर आसीन कर दीजिये और मुझे अपनी सेवा से निवृत्त कीजिये।

हे नारद! राजा दिवोदास की यह बात सुनकर सब लोगों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ, परन्तु भय के कारण किसी ने कुछ नहीं पूछा। तदुपरान्त राजा ने सम्पूर्ण सामग्री एकत्र करवाकर, शुभ-लग्न में अपने पुत्र रिपुंजय का अभिषेक कर दिया। इसके पश्चात् राजा ने गंगा के पश्चिम की ओर एक विशाल शिवमन्दिर का निर्माण कराया। उसने अन्य देशों को जीतकर जितना धन एकत्र किया था और जो धन श्रेष्ठ रीति-नीति द्वारा संग्रह हुआ, उस धन को शिवालय बनवाने में व्यय कर दिया। फिर उसने उस मन्दिर में नरेश्वर नामक शिवलिंग की स्थापना की। उसका स्मरण करने पात्र से ही सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। शिवलिंग स्थापना करने पर राजा के हृदय में प्रसन्नता भर गयी और उसका मुख सूर्य की भाँति चमकने लगा। सम्पूर्ण सामग्री एकत्र करके शिवलिंग की षोडषोपचार विधि से पूजा की। उस पूजन के कारण राजा के हृदय में जो थोड़ा बहुत दुःख अथवा विरक्ति का भाव बच गया था, वह भी नष्ट हो गया। उसने काशी में स्थापित अन्य शिवलिंगों की भी पूजा की। पूजन और प्रणाम करने के उपरान्त वह एक स्थान पर ध्यानमग्न होकर बैठ गया।

हे नारद! विष्णुजी के बताये अनुसार जब सातवाँ दिन आया उस दिन एक अत्यन्त श्रेष्ठ विमान आकाश से उतरकर उस स्थान पर आ पहुँचा, जहाँ राजा दिवोदास बैठा हुआ था। उस विमान में चारों ओर शिवजी के गण बैठे हुए थे। उन सब गणों की चार-चार भुजाएँ थीं और उनके शरीर से निकलने वाला सूर्य के समान प्रकाश सब ओर फैल रहा था। वे सब अपने हाथ में त्रिशूल लिये हुए थे। देखने में साक्षात् शिवजी के समान ही प्रतीत होते थे। ऐसा प्रतीत होता था कि सम्पूर्ण संसार की सुन्दरता उस विमान में हो।

हे नारद! उन शिवगणों ने विमान से उतरकर राजा के शरीर को स्पर्श किया, जिसके कारण उसका शरीर दिव्य हो गया और शिवगणों के समान ही उसके शरीर में भी वे ही सब चिह्न प्रकट हो गये। तदुपरान्त वह विमान पर बैठकर समस्त गणों के साथ शिवजी के लोक को चला गया। इस प्रकार वह शिवगणों में गिना गया और उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई। जिस स्थान से शिवजी के गण राजा को विमान में बैठाकर शिवलोक ले गये थे, वह स्थान भूपश्री के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ। 

जिस लिंग की राजा दिवोदास ने स्थापना की थी, वह दिवोदासेश्वर के नाम से भी प्रसिद्ध है। उस शिवलिंग की पूजा करने से आवागमन का भय नष्ट हो जाता है तथा मनुष्यों को अपनी सम्पूर्ण मनोकामनाएँ प्राप्त होती हैं। हे नारद! जो कोई इस कथा को सुनता अथवा दूसरे को सुनाता है, उसे भी इस लोक में सब प्रकार के आनन्द प्राप्त होते हैं तथा परलोक में शुभगति मिलती है। 

 ॥ गरुड़ द्वारा सन्देश पाकर शिव-गिरिजा का प्रसन्न होना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! विष्णुजी की आज्ञानुसार गरुड़ शिवजी के समीप पहुँचे। उस समय शिवजी ने उनसे पूछा-हे गरुड़! तुम कहाँ से आ रहे हो ? गरुड़ बोले-हे प्रभो! आप सब कुछ जानते हुए भी संसारी रीति के अनुसार जो यह बात मुझसे पूछ रहे हैं, वह भी आपकी लीला ही है। इतना कहकर गरुड़ ने योगिनीगण, गणेशजी, ब्रह्मा एवं विष्णुजी की सब कथा शिवजी को कह सुनायी और बताया कि इस समय मुझे विष्णुजी ने आपके पास भेजा है।

हे नारद! गरुड़ की बात सुनकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा गिरिजा भी आनन्दमग्न हो गयीं। शिवजी के सब गण परम प्रसन्न हुए। तदुपरान्त शिवजी ने गरुड़ से इस प्रकार कहा-हे गरुड़! तुम हमारे परम हितैषी हो। अब तुम्हारी जो इच्छा हो, वह हमसे वर माँग लो। श्रीशिवजी के श्रीमुख से ऐसे वचन सुनकर गरुड़ ने कहा- हे प्रभो! मैंने आपके चरणों के दर्शन प्राप्त किये, इससे बढ़कर अन्य किसी भी वस्तु की मुझे इच्छा नहीं है। जब आप मुझपर इतने प्रसन्न हैं तो मुझे यह निश्चय हो गया है कि मैं आपकी माया के बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर चुका हूँ। मेरे लिए यही सबसे बड़ा वरदान है।हे स्वामी! यदि आप प्रसन्न होकर मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मैं आपसे यही माँगता हूँ कि मुझे आपके चरणकमलों की भक्ति प्राप्त हो।

हे नारद! गरुड़ के ऐसे श्रेष्ठ वचन सुनकर शिवजी ने 'एंवमस्तु' कहते हुए, उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। तदुपरान्त शिवजी ने सब लोगों को बुलाकर काशी चलने की तैयारी की। उस समय मन्दराचल पर्वत अत्यन्त दुखी होकर शिवजी के चरणों पर गिर पड़ा और हाथ जोड़कर कहने लगा-हे प्रभो! आप मुझे इस प्रकार त्यागकर मत जाइये। मन्दराचल की प्रार्थना सुनकर शिवजी ने उत्तर दिया-हे पर्वतश्रेष्ठ! तुम अपने मन में चिन्ता मत करो। हम तुमसे अत्यन्त स्नेह करते हैं और यह विश्वास दिलाते हैं कि तुम्हें कभी क्षणभर के लिए भी नहीं भूलेंगे तथा लिंगरूप होकर यहाँ सदैव स्थित रहेंगे।

इस प्रकार बहुत कुछ समझा-बुझाकर शिवजी ने मन्दराचल के हृदय का दुःख दूर किया और लिंगरूप धारण कर अपने एक अंश से स्थित हो गये। तदुपरान्त शुभ लग्न का विचार‌ कर शिवजी, गिरिजा तथा अन्य गणों सहित काशीपुरी को चले। चलने के पूर्व शिवजी ने गरुड़ को यह आज्ञा दी कि तुम आगे जाकर विष्णुजी को हमारे आगमन का समाचार दो। गरुड़ वहाँ से चलकर सीधे विष्णुजी से समीप जा पहुँचे। जिस समय विष्णुजी अग्निविन्दु को उपदेश दे रहे थे, उसी समय गरुड़ ने पहुँचकर उनके चरण कमलों में अपना मस्तक झुकाया‌

॥ गरुड़ द्वारा विष्णुजी को शिवजी के आगमन का सन्देश देना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! विष्णुजी को प्रणाम करने के उपरान्त गरुड़ ने उन्हें यह शुभ समाचार दिया कि शिवजी, गिरिजाजी तथा अन्य गणों सहित यहाँ पधार रहे हैं। इस सन्देश को सुनकर विष्णुजी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उसी समय उन्होंने यह देखा कि शिवजी अपनी सेना सहित काशीपुरी में प्रवेश कर रहे हैं। उनकी भुजाएँ सहस्त्रों सूर्यों के समान चमक रही थीं, जिनसे चारों ओर प्रकाश फैल रहा था। अनेक प्रकार के बाजे बज रहे थे तथा जय-जयकार का शब्द हो रहा था। विष्णुजी ने उस दृश्य को देखकर 'जय शिव, जय शिव' शब्द का उच्चारण किया। 

तदुपरान्त अग्निविन्दु से यह कहा कि तुम हमारे चक्र को स्पर्श कर लो, इससे तुम्हें मुक्ति प्राप्त हो जायगी। विष्णुजी की आज्ञानुसार अग्निविन्दु ने जब चक्र का स्पर्श किया तो उसे मुक्ति प्राप्त हुई। तत्पश्चात् विष्णुजी ने गरुड़ को भेजकर ब्रह्मा को बुलाया, साथ ही योगिनीगण, सूर्य तथा गणेश को भी ले आने की आज्ञा दी। कुछ देर में जब ये सब लोग आ गये, उस समय विष्णुजी प्रसन्नतापूर्वक शिवजी की अगवानी करने के लिए चले।

हे नारद! जिस समय शिवजी ने काशीपुरी में प्रवेश किया, उसी समय विष्णुजी, ब्रह्मा, गणपति आदि ने उनके समीप पहुँचकर दण्डवत्-प्रणाम किया। शिवजी ने उन सबको आशीर्वाद देकर प्रसन्न किया तथा गणपति का मस्तक छूःकर उन्हें अपने आसन पर बैठा लिया। उस समय शिवजी की इच्छानुसार योगिनीगण मंगलगान करने लगीं तथा बारहों सूर्य स्तुतिगान करने लगे। शिवजी ने विष्णुजी को आसन पर बायीं ओर तथा मुझे दाहिनी ओर बैठाया। और गणों की ओर कृपा-दृष्टि करके, उन्हें भी प्रसन्नता प्रदान की। फिर योगिनीगण एवं सूर्य को बैठने की आज्ञा देकर हर्षित किया।

हे नारद! उस समय मैंने शिवजी को प्रसन्न देखकर यह कहा-हे प्रभो! मैं आपकी सेवा नहीं कर सका, इस अपराध के लिए मुझे क्षमा प्रदान करें। आपकी यह काशीपुरी है ही ऐसी कि इसमें आने के बाद मेरा मन किसी भी प्रकार लौटने को न हुआ। मेरे मुख से यह शब्द सुनकर शिवजी बोले-हे ब्रह्मन्! तुम अपने मन में किसी प्रकार का भय मत करो। मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हैं। तुमने अश्वमेध यज्ञ किये हैं, इसलिए तुम्हारे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गये हैं। इस सबके साथ ही तुमने काशीपुरी मैं हमारे लिंग की स्थापना भी की है, इससे तुम्हारा यश और भी अधिक बढ़ गया है। जो मनुष्य काशी में एक भी लिंग की स्थापना करता है, उसके सहस्त्रों पाप नष्ट हो जाते हैं। फिर भी ब्राह्मण कभी भी दंड के योग्य नहीं है। जो लोग ब्रह्मणों को दंड देते हैं, उनका सम्पूर्ण सुख-वैभव थोड़े ही दिनों में नष्ट हो जाता है।

हे नारद! इस प्रकार मुझे सान्त्वना देकर, शिवजी ने योगिनी, सूर्य तथा गणों की लज्जा को भी दूर कर दिया। तदुपरान्त उन्होंने विष्णुजी की ओर देखा, परन्तु मुख से कुछ नहीं कहा। उस अवसर पर शिवजी तथा विष्णुजी मन ही मन अत्यन्त प्रसन्न हुए। सभा में उपस्थित सभी लोग शिवजी की जय-जयकार करने लगे। शिवजी और गिरिजा ने भी अत्यन्त प्रसन्न होकर सब लोगों की ओर कृपादृष्टि से देखा। जब यह आनन्द हो रहा था, उसी समय गोलोक से पाँच गौ आकार शिवजी के सम्मुख खड़ी हो गयीं। 

हे नारद! तुम्हें यह बात जान लेनी चाहिए कि गोलोक शिवजी को अत्यन्त प्रिय है और उस लोक की सेवा करने का भार उन्होंने विष्णुजी को सौंपा है। उस लोक का नाम सुनने मात्र से ही सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। जो पाँच गौ शिवजी के सम्मुख आकर खड़ी हुई थीं, उनके नाम इस प्रकार थे 1-सनन्द, 2-सुमना, 3-शिवा, 4-सुरभि तथा 5-कपिला। शिवजी ने उन गौओं की और प्रसन्नतापूर्वक देखा, तो उनके थनों से दूध टपक कर पृथ्वी पर गिरने लगा। 

जिस स्थान पर उनके थनों से दूध टपका, वह कुण्ड-रूप हो गया और कपिलाहृद् के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उस कुण्ड में स्नान करने से कोई पाप नहीं रहता। तदुपरान्त शिवजी की आज्ञा से सब देवताओं ने उस कुण्ड में स्नान एवं तर्पण किया। फिर सबलोग शिवजी से इस प्रकार बोले-हे प्रभो! इस कुण्ड में स्नान करके हम सब अत्यन्त प्रसन्न हुए हैं। हमारी यह इच्छा है कि इस स्थान की महिमा अत्यन्त महान् हो।

हे नारद! देवताओ की यह प्रार्थना सुनकर शिवजी ने उत्तर दिया-हे देवताओं! हम आशीर्वाद देते हैं कि यह तीर्थ अत्यन्त महान् होगा। जो मनुष्य इस कुण्ड में तर्पण श्राद्ध आदि करेगा, उसे गया में श्राद्ध करने से भी अधिक फल की प्राप्ति होगी। इस तीर्थ को सबलोग शिवगया तीर्थ कहकर पुकारेंगे तथा हमारे वृषभध्वज नाम का स्मरण करने से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाया करेंगे। काशी के भीतर चारों युगों में दूध, दही, घृत तथा मक्खन वर्तमान रहेंगे। 

हम सबलोग यहाँ अंशरूप से सदैव स्थित रहेंगे तथा अपने भक्तों को वर प्रदान किया करेंगे। यहाँ किसी की किसी भी दशा में, किसी भी कारण मृत्यु क्यों न हो, वह अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त करेगा। जिस समय शिवजी काशी को यह वर दे रहे थे, उसी समय नन्दीश्वरगण वहाँ आ पहुँचे और दोनों हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक शिवजी की स्तुति करने लगे।

 ॥ शिवजी का काशी में पहुँचने के हेतु तैयार होना ॥

नन्दीश्वर ने कहा-हे प्रभो! मैंने आपकी आज्ञानुसार आठ बैलों का रथ सजाया है। उन सभी बैलों के कंठ में घंटे बँधे हुए हैं। उनके साथ ही आठ घोड़े भी, जो वस्त्रालंकारों से अलंकृत हैं, रथ में जुत रहे हैं। सूर्य, चन्द्रमा, पवन, गंगा, सरस्वती, ब्रह्मा आदि सब अपने-अपने स्थान पर सुशोभित हैं। आप कृपा करके उस रथ पर विराजमान हों।

इस प्रकार कहकर नन्दीश्वर चुप हो गये। उस समय मैं, विष्णुजी तथा अन्य सब देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए। शिवजी ने भी प्रसन्न होकर हम सबको पहिले तो भक्ति का वरदान दिया, फिर चलने की तैयारी की। उस समय देवमाताओं ने शिवजी का नीराजन किया तथा अनेक प्रकार के मंगल मनाये। सब लोगों के कंठ से शिवजी का जय-जयकार गूँज उठा, एवं अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे। तदुपरान्त विष्णुजी ने शिवजी को हाथ पकड़कर आसन से उठाया और उन्हें रथ की ओर ले चले। 

हे नारद! उस समय की शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता। शिवजी के गण अपने-अपने डमरू बजाने लगे। उसका शब्द सम्पूर्ण दिशाओं में भर गया। तदुपरान्त तीनों लोकों के निवासी उस स्थान पर आ पहुँचे। हम उनका संक्षेप में वर्णन करते हैं। तैंतीस करोड़ इन्द्र आदि देवता, दो करोड़ तुरंगगण, एक करोड़ भैरवदल, नौ करोड़ चामुण्डादल तथा वीरभद्र की सेना, आठ करोड़ बालखिल्य ऋषि, छियासी सहस्त्र ब्रह्मज्ञानी मुनि, सात करोड़ गणेशजी के गण, जिनका स्वरूप गणेशजी के ही समान था, असंख्य गृहस्थ ब्राह्मण, आठ करोड़ पाताल के निवासी नाग आदि, तीन करोड़ शिवजी के गण, दो-दो करोड़ दनु तथा दिति की सन्तानें अर्थात् दानव और दैत्य, आठ करोड़ गन्धर्व, पचास लाख राक्षस तथा यक्ष, आठ सहस्त्र पंखधारी तथा पंखहीन पर्वत, छः अयुत गरुड़, एक अयुत विद्याधर, साठ सहस्त्र ईश्वर, तीन सौ वंशपति, आठ लाख शरीर धारण किये वनौषधियाँ, सात उत्तम उत्तम रत्न लिए हुए समुद्र, तीन सहस्त्र तथा पाँच अयुत नदियाँ एवं आठों दिक्पाल उस स्थान पर आ पहुँचे।

हे नारद! ये सब शिवजी को देखकर अत्यन्त प्रसनन हुए तथा विविध प्रकार से उनकी सेवा करने लगे। उन सबको सेवा करते हुए देखकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन सबकी ओर कृपादृष्टि से देखकर आशीर्वाद प्रदान करने लगे। इसके उपरान्त शिवजी उस रथ पर आरूढ़ हुए। गिरिजा को उन्होंने अपने वामभाग में बैठाया। जिस समय शिवजी गिरिजा सहित रथ पर बैठे, उस समय इन्द्र आदि देवताओं ने उनकी बहुत प्रकार से स्तुति की। तदुपरान्त शिवजी काशी के भीतर प्रविष्ट हुए। अपने शरीर काशी को देखकर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई और अपने मुख से 'जयकाशी, जय आनन्दवन' आदि शब्दों का उच्चारण करने लगे। स्नेह की अधिकता के कारण उनका कण्ठ गद्गद हो गया। 

उस समय शिवजी के परमभक्त जैगीषव्य ने पर्वत की कन्दरा से निकलकर शिवजी के दर्शन किये। शिवजी ने भी उन्हें अपने समीप बुलाकर प्रसन्न किया। तदुपरान्त शिवजी काशीनिवासी ब्राह्मणों का सत्कार करते हुए वरुणा नदी के समीप पहुँचे। वहाँ हिमाचल के बनाये हुए दो मन्दिरों को देखकर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई। फिर उन्होंने विश्वकर्मा को बुलाकर अपना भवन बनाने के लिए आज्ञा दी। उसे सुनकर विश्वकर्मा ने तीनों लोकों से सामग्री एकत्र करके, एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण किया। 

शिवजी ने अपने पुत्रों एवं गिरिजा, एवं गनों के साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक उसमें प्रवेश किया। फिर उन्होंने सबलोगों का आदर-सत्कार करके विदा कर दिया और आपने गिरिजा तथा परिवार सहित वहीं निवास करने लगे। हे नारद! शिवजी और काशी का यह आख्यान सम्पूर्ण पापों को नष्ट करनेवाला है। इसको पढ़ने तथा सुनने से दोनों लोकों में सुख की प्राप्ति होती है।

॥ शिव जी का काशी आगमन पर जैगीषव्य मुनि द्वारा स्तुति करना ॥

इतनी कथा सुनकर नारदजी ने कहा-हे पिता! जब शिवजी अपने भवन में आये, उस समय वे मार्ग में कहीं रुके भी थे अथवा नहीं ? जो मनुष्य, योगी, ब्राह्मण आदि उनके दर्शनों के निमित्त आये, उन सबके चरित्रों को भी आप कहें। 

यह सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे नारद! काशी में आकर सर्वप्रथम शिवजी अपने भक्त जैगीषव्य के घर पर गये। वे मुनि एकान्त-निवास करते हुए शिवजी के ध्यान में दिन-रात संलग्न रहते थे। जिन दिनों शिवजी काशी को त्यागकर मन्दराचल पर्वत पर गये थे, उस समय जैगीषव्य मुनि ने यह प्रतिज्ञा की थी कि जब शिवजी फिर यहाँ लौटकर आ जायेंगे, तभी मैं अन्न-जल ग्रहण करूँगा। यह निश्चय करके वे एक कन्दरा में जा छिपे और शिवजी का स्मरण एवं ध्यान करने लगे। 

अट्ठासी सहस्त्र वर्षों तक उन्होंने न तो पानी पिया और न भोजन किया। इसे या तो मुनि का योगबल समझना चाहिए अथवा यह समझना चाहिए कि उनके ऊपर शिवजी की कृपा थी। शिवजी के अतिरिक्त उन मुनि की महिमा को और कोई नहीं जान सकता। अपने इस भक्त के कारण ही शिवजी ने काशी में पुनः लौटने के लिए अनेक उपाय किये थे, क्योंकि शिवजी भक्तवत्सल हैं। उन्होंने अपने भक्त के प्रण की रक्षा के निमित्त ही राजा दिवोदास जैसे धर्मात्मा की हानि को स्वीकार कर लिया था। 

हे नारद! जैगीषव्य मुनि की कुटी में शिवजी के जाने का वृत्तान्त इस प्रकार है कि जब शिवजी उनके स्थान के समीप पहुँचे, उस समय उन्होंने नन्दीश्वर गण को यह आज्ञा दी-हे नन्दी! इस स्थान पर एक गड्ढा है, जिसके भीतर हमारा भक्त जैगीषव्य रहता है। उसने हमारे दर्शनों के निमित्त बहुत कष्ट उठाये हैं तथा उसके शरीर पर चर्म तथा हड्डियों के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचा है। जब से हमने काशी को त्यागा था, तभी से वह अन्न-जल त्यागकर हमारे लौटने की राह देख रहा है। जब तक हम उसे अपना दर्शन नहीं देंगे, तब तक हमें आनन्द नहीं मिलेगा। तुम इस कमल को लेकर उस गुफा के भीतर चले जाओ और मुनि के शरीर से इसका स्पर्श करा देना। कमल का स्पर्श पाते ही जैगीषव्य का शरीर पूर्ववत् हो जायगा। तब तुम उनको अपने साथ लेकर यहाँ चले आना।
हे नारद! शिवजी की आज्ञा पाकर नन्दीश्वर ने ऐसा ही किया और वे जैगीषव्य को शिवजी के समीप ले आये। जिस समय मुनि ने शिवजी के दर्शन प्राप्त किये, उस समय इतना हर्ष हुआ कि वे आनन्द के कारण मूर्छित हो गये। तदुपरान्त जब उन्हें चैतन्यता प्राप्त हुई तो उन्होंने स्वनिर्मित स्तुतिद्वारा शिवजी की बहुत प्रकार से प्रार्थना की और यह कहा-प्रभो! मैं तीनों लोकों में आपको सबसे श्रेष्ठ समझकर, आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरे ऊपर कृपा करें। शिवजी ने इस स्तुति को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा-हे मुनि! हम तुम्हारे ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हैं। अब तुम चाहो, वह वरदान हम से माँग लो। 

यह सुनकर जैगीषव्य बोले-हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे मस्तक पर अपना हाथ रख दीजिए तथा यह वरदान दीजिए कि मैं आपके चरण-कमलों से कभी भी दूर न रहूँ। इसके अतिरिक्त मेरी यह अभिलाषा भी पूर्ण कीजिए कि मैंने जो आपका लिंग स्थापित किया है, उसमें आप गणपति तथा स्कन्द सहित निवास करें। 

जैगीषव्य की प्रार्थना सुनकर शिवजी ने उत्तर दिया-हे मुनि! तुम जो चाहते हो, वही होगा। इसके अतिरिक्त हम तुम्हें यह भी वर देते हैं कि तुम योगसिद्धि को प्राप्त होकर, निर्वाणपद को प्राप्त करोगे। तुम योगशास्त्र के आचार्य होकर सबको उसका उपदेश करोगे और सबके सन्देहों को नष्ट करोगे। जिस प्रकार भृङ्गी, सोम तथा नन्दीश्वर हमारे गण हैं, उसी प्रकार तुम भी हमारे एक गण होगे।
हे नारद! इतना कहकर शिवजी ने जैगीषव्य के मस्तक पर हाथ फेरा, तदुपरान्त इस प्रकार कहा-हे जैगीषव्य! तुम जरामृत्यु से रहित होओगे। यद्यपि संसार में अनेकों संयम-नियम हैं, तुम्हारे समान नियमों का पालन करनेवाला और कोई नहीं है। तुम हमारा दर्शन किये बिना कभी पानी भी नहीं पीते थे। जो मनुष्य हमारा दर्शन किये बिना भोजन कर लेता है, उसके समान पापी और किसी को नहीं समझना चाहिए। तुम हर समय हमारे समीप रहा करोगे। तुम्हें मोक्षपद की प्राप्ति होगी। तीनों लोकों में किसी भी भक्त के साथ तुम्हारी समानता नहीं की जायेगी। 

तुमने हमारे जिस लिंग की स्थापना की है, वह 'जगीषव्येश्वर' नाम से प्रसिद्ध होगा। जो मनुष्य उस लिंग की तीन वर्षों तक सेवा करेगा, उसे योगसिद्धि प्राप्त होगी। उस लिंग के दर्शन तथा पूजन से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाया करेंगे और वह परम सिद्धि को प्रदान करनेवाला होगा। हमारी आज्ञानुसार इस क्षेत्र का नाम 'ज्येष्ठेश्वर' होगा। यहाँ पर आने से सब प्रकार की प्रसन्नता प्राप्त होगी। यदि यहाँ पर किसी एक शिवभक्त को भोजन कराया जाये तो उसका फल एक करोड़ गुना होगा।

हे जैगीषव्य! तुम्हारे स्थापित किये हुए लिंग में हम पूर्णरूप से सदैव स्थित रहेंगे, कलियुग में यह लिंग सब की दृष्टि से छिपा रहेगा। जो लोग योगसाधन करनेवाले होंगे, वे ही इसके दर्शन प्राप्त कर सकेंगे। तुमने जिस स्तुति को बनाया है, वह सम्पूर्ण स्तुतियों की शिरोमणि होगी और उसे पढ़ने से सब लोगों के मनोरथ पूर्ण होंगे। इस स्तुति के पढ़ने तथा सुनने पर लोक में ऐसा कोई कार्य नहीं रह जायगा, जो सिद्ध न हो सके। 

शिवजी के श्रीमुख से यह वचन सुनकर जैगीषव्य मुनि उनके चरण-कमलों पर गिर पड़े। तब शिवजी ने उन्हें उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। मैंने तथा विष्णुजी ने भी मुनि को अपने कण्ठ से लगाया। शिवजी की इस दयालुता को देखकर सब लोग आनन्द में भरकर जय-जयकार करने लगे। तदुपरान्त जब शिवजी आगे बढ़ने को हुए, उसी समय ब्राह्मणों ने वहाँ आकर शिवजी की स्तुति की।

॥ शिव जी के दर्शनार्थ ब्राह्मणों का आगमन ॥

नारदजी ने कहा-हे पिता! ब्राह्मणों तथा शिवजी में जो वार्तालाप हुआ, अब आप उसका वर्णन करने की कृपा कीजिये और यह भी बताइये कि वे ब्राह्मण संख्या में कितने थे? यह सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जिस समय शिवजी काशी को छोड़कर मन्दराचल पर्वत पर चले गये, उस समय काशी के ब्राह्मणों ने अत्यन्त दुःखी होकर क्षेत्रसंन्यास ले लिया था। वे दिन-रात शिवजी का स्मरण करते और उन्हीं की प्रीति में मग्न रहते थे। वे अपने दण्ड द्वारा पृथ्वी को खोदकर वृक्षों की मूल को निकालते और उसीको खाकर अपना जीवन-निर्वाह करते थे। 

जिस स्थान से वे जड़ों को खोदते थे, वह स्थान कुछ समय बाद एक कुण्ड के रूप में परिवर्तित होकर और 'पुष्करिणी' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तब उसी स्थान पर उन ब्राह्मणों ने एक शिवलिंग की स्थापना की, जिसके दर्शन से सम्पूर्ण मनोरथ सफल होते हैं।

हे नारद! वे ब्राह्मण प्रतिदिन शिवलिंग की उपासना करते, रुद्राक्ष की माला पहनते और शरीर में भस्म लगाते थे। वे शतरुद्री का जप करके शिवजी का पूजन किया करते थे तथा उन्हीं के स्मरण के अतिरिक्त अन्य किसी से कुछ प्रयोजन नहीं रखते थे। उन्होंने अपने-अपने स्थान पर अनेक शिवलिंगों की स्थापना की थी। जब उन ब्राह्मणों ने यह शुभ समाचार सुना कि शिवजी अपने परिवारसहित काशी में पधार रहे हैं, तो वे अत्यन्त प्रसन्न होकर, शिवजी का दर्शन करने के लिए आये। 

उनकी संख्या इस प्रकार थी-दंडाघाट से पाँच सहस्त्र, मन्दाकिनी तीर्थ से दस सहस्त्र, हंसक्षेत्र से तीन सौ, ऋणमोचन तीर्थ से बारह सहस्त्र, दुर्वासा तीर्थ से भी बारह सहस्त्र, कपालमोचन तीर्थ से सोलह सहस्त्र, ऐरावत हृद से तीन सौ, मदनकुण्ड से दो सौ, गन्धर्वाप्सरस तीर्थ से नौ सौ, बृहस्पति तीर्थ से तीन सौ नब्बे, वैतरणी से एक सौ पचास, ध्रुव तीर्थ से छह सौ, पितृकुण्ड से एक सौ, उर्वशी हृद से एक सौ, पृथूदक तीर्थ से तेरह सौ, यक्षिणी हृद से इकतीस सौ, पिशाचमोचन कुण्ड से सोलह सौ, मानसर से तीन सौ, वासुकि हृद से एक अयुत, सीता हृद से आठ सौ, गौतम हृद से नौ सौ, दुर्गतिहर से ग्यारह सौ तथा गंगा के तट से पाँच सौ पचपन ब्राह्मण आये।

हे नारद! ये सब ब्राह्मण अपने हाथों में मांगलिक वस्तुएँ लिये हुए थे। ये सब जय-जयकार करते हुए आये और शिवजी के दर्शन प्राप्तकर अत्यन्त आनन्द को प्राप्त हो गये। उन ब्राह्मणों ने शंकरसूत्र पढ़कर शिवजी की अत्यन्त स्तुति की तथा दंडवत्-प्रणाम करके अनेक आशीर्वाद दिये। जिस समय शिवजी ने उनकी कुशलक्षेम पूछी, उस समय ब्राह्मणों ने यह उत्तर दिया-हे प्रभो! आप काशी छोड़कर चले गये तो हम सबलोगों को अत्यन्त दुःख हुआ था और यहाँ रहकर आपका ध्यान धरते हुए आपके पुनः लौटने की प्रतीक्षा करते रहे। हे नाथ! इस काशी को तीनों लोकों से न्यारी कहा गया है। जो मनुष्य काशी में निवास करते हैं, वे परम धन्य हैं। इस प्रकार ब्राह्मणों ने काशी की अत्यन्त प्रशंसा की ।

इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! सच बात तो यह है कि शिवजी और काशी में कोई अन्तर नहीं है। काशी शिवजी का ही स्वरूप है। जो मनुष्य काशी में निवास करके शिवजी का भजन करता है, उस जैसा भाग्यवान् अन्य कोई नहीं है। ब्राह्मणों के मुख से काशी की प्रशंसा सुनकर शिवजी ने इस प्रकार कहा-हे ब्राह्मणो! तुम सब परमधन्य हो, क्योंकि तुमने काशी-सेवन द्वारा हमें अपने वश में कर लिया है। काशी के प्रति भक्ति रखने के कारण तुम सब जीवन्मुक्त हो गये हो। जो लोग काशी के भक्त हैं, वे हमारे भी भक्त हैं और जो लोग दोनों के भक्त हैं, उनकी तो समानता कोई कर ही नहीं सकता है।

हे ब्राह्मणो! तुम दोनों प्रकार से हमारे भक्त हो। हमारी कृपा से तुम सदैव निर्भय हो। काशी में हमारे अतिरिक्त यमराज की आज्ञा भी नहीं चल सकती। काशीवासियों से हम कभी दूर नहीं रहते हैं। जो लोग काशी में क्षेत्रसंन्यास लेते हैं, वे हमें अत्यन्त प्रिय हैं। अब तुम हमसे जो भी वरदान चाहो, उसे माँग लो। भगवान् विश्वनाथ के मुख से ऐसे अमृतमय वचन सुनकर, वे सभी ब्राह्मण अत्यन्त प्रसन्न हुए और बारम्बार स्तुति करते हुए, अपने दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगे-हे प्रभो! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो हम यही वरदान माँगते हैं कि आप काशी को छोड़कर कहीं न जायँ। 

काशी में ब्राह्मणों का शाप किसी पर फलदायक न हो। यहाँ मरनेवालों को सायुज्यमुक्ति प्राप्त हुआ करे तथा यहाँ के निवासियों का आपके चरणों में अत्यन्त प्रेम बना रहे। हे स्वामी! हमलोगों ने यहाँ आपके जो लिंग स्थापित किये हैं, उनमें आप शक्ति सहित निवास किया करें। 

ब्राह्मणों की यह प्रार्थना सुनकर, शिवजी ने 'एवमस्तु' कहा; तदुपरान्त अपनी दयादृष्टि द्वारा सबके दुःख को दूरकर, प्रेमपूर्वक विदा किया। तब सब ब्राह्मण शिवजी से विदा होकर, अपने-अपने स्थान को लौट गये और भगवान् विश्वनाथ का ध्यान धरते हुए उन्हीं की पूजा में संलग्न हुए।

॥ शिव जी द्वारा विश्वकर्मा को शिवपुरी की रचना के हेतु आज्ञा प्रदान करना ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! काशी में स्थित होने के उपरान्त शिवजी ने विश्वकर्मा को बुलाकर यह आज्ञा दी कि तुम पहिले की ही भाँति शिवनगरी की रचना शीघ्र करो। तुम स्थान-स्थान पर उत्तमोत्तम शिवालय बनाओ और हमारे गणों के रहने के लिए अनेक मन्दिरों की रचना करो। गिरिजा तथा उनके पुत्रों के लिए अत्यन्त सुन्दर भवनों का निर्माण करो तथा देवताओं के लिये भी योग्य स्थानों की रचना करो। अन्त में, हमारे भवन को इस प्रकार सजाओ कि तीनों लोकों में उसके समान सुन्दर अन्य कोई भवन न हो।

हे नारद! शिवजी की यह आज्ञा पाकर विश्वकर्मा ने अनेक सुन्दर भवनों का निर्माण किया। जिस देवता का जहाँ निवास था, वहाँ उसने नूतन मन्दिरों की रचना की। उसने गणपति का मन्दिर इतना सुन्दर बनाया कि उसकी चित्रकारी तथा पच्चीकारी को देखकर अत्यन्त आश्चर्य होता था। 

श्रीविश्वनाथजी का मन्दिर असंख्य रत्नों, मणियों, बहुमूल्य वस्तुओं तथा अनेक प्रकार की प्रस्तर शिलाओं से सुशोभित था। तीनों लोकों की सम्पूर्ण निधियाँ उसमें विराजमान थीं। उस भवन की प्रशंसा करने में मैं भी असमर्थ हूँ।

इतनी कथा सुनकर नारदजी ने कहा-हे पिता! आप श्रीविश्वनाथजी के मन्दिर का विस्तारपूर्वक वर्णन करने की कृपा करें। 

ब्रह्माजी बोले-हे पुत्र! विश्वनाथजी के मन्दिर की दीवारें स्वर्ण से बनी हुई थीं और उनमें अनेक प्रकार के बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे। उन्हें यदि स्पर्श किया जाता तो विचित्र प्रकार का मुधर-शब्द होता था। प्रज्ज्वलित अग्नि तथा सूर्य के समान चमकदार थीं। उस मन्दिर में बारह सहस्त्र खम्भे थे और इक्यासी सहस्त्र भूधर थे। 

उसके सम्मुख चौदहों भुवनों की सुन्दरता लज्जित होती थी। खम्भों में पद्मराग तथा मरकत-मणि की अनेकों पुतलियाँ बनी हुई थीं, जिनके हाथों में रत्नों के दीपक दिन-रात जला करते थे। उत्तम श्वेत पत्थरों पर रत्नों द्वारा बेलबूटों की चित्रकारी की गई थी। समुद्र में जितने भी प्रकार के रत्न थे, उन सबको गणों ने एकत्र किया था और नागों के कोष में जितनी उत्तमोत्तम मणियाँ थीं, वे सब भी वहाँ से लाकर उस मन्दिर में लगाई गई थीं। शिवजी के परमभक्त रावण ने अपने यहाँ से बहुत-सा सोना उस मन्दिर को बनाने के लिए भेजा था। इसी प्रकार अन्य जितने भी शिव-भक्त दैत्य आदि थे, उन सबों ने भी रत्न आदि भेजे थे।

हे नारद! हमने जो मन्दिर का यह वर्णन किया है, उसे केवल संसारी रीति के अनुसार ही समझना चाहिए, अन्यथा शिवजी को किसी वस्तु की क्या आवश्यकता पड़ी है? वे यदि चाहें तो रत्नों के अनेक वृक्ष उत्पन्न कर सकते हैं। भगवान् विश्वनाथ का वह मन्दिर अनुपन तथा परम मनोहर था।

यह कथा सुनकर नारदजी ने आश्चर्ययुक्त हो, ब्रह्माजी से पूछा-हे पिता! आप मुझसे यह कथा विस्तारपूर्वक कहिये। ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जिन दिनों शिवजी काशी में अपने मन्दिर का निर्माण करा रहे थे, उन्हीं दिनों की बात है कि गिरिजा की माता मैना अपने घर में बैठी हुई सखियों से यह बातें कर रही थी कि बहुत समय से मुझे गिरिजा का कोई समाचार नहीं मिला है, इसलिए मैं अत्यन्त व्याकुल रहती हूँ।

मैं यह निश्चयपूर्वक जानती हूँ कि गिरिजा को जो सुख यहाँ मिलता था, वह वहाँ हरगिज नहीं होगा, क्योंकि गिरिजा के पति के पास भस्म और बूढ़े बैल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जब हिमाचल ने मैना की यह बात सुनी तो उन्होंने भी चिन्तित होकर यह कहा-हे प्रिये! तुम्हारा कथन सत्य है। जब से गिरिजा गई है, तब से मैं भी उसकी याद में अत्यन्त दुःखी रहता हूँ। हमलोगों को उचित है कि अब हम गिरिजा को देखने के लिये चलें। 

मैना को अपने पति की यह बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। तदुपरान्त उन्हें देने के लिए अपने साथ दो करोड़ तुला मोती, सौ तुला हीरे, ग्यारह लाख तुला पन्ना, सोलह सहस्त्र तुला इन्द्रनीलमणि, नौ करोड़ तुला पद्मराग तथा विद्रुम आदि रत्न साथ लिये। इसके अतिरिक्त उत्तमोत्तम वस्त्र, आभूषण आदि थे।

हे नारद! गिरिजा को देने के लिए यह सब सामग्री अपने साथ लेकर हिमाचल अत्यन्त अहंकार में भरकर मन्दराचल पर्वत पर जा पहुँचे। जब वहाँ उन्होंने यह सुना कि शिवजी काशी में चले गये हैं, तब वे काशी में भी जा पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने यह देखा कि विश्वनाथजी का मन्दिर असंख्य रत्नों से अलंकृत है। उसमें सोने के कलश तथा मणियों की पताकायें विद्यमान हैं। उस भवन को देखकर हिमाचल का सम्पूर्ण अहंकार नष्ट हो गया। तब उन्होंने मन ही मन यह विचार किया कि इससे बढ़कर मूल्यवान् तथा सुन्दर भवन तीनों लोकों में अन्यत्र नहीं है।

हे नारद! जिस समय हिमाचल उस मन्दिर के बारे में यह विचार कर रहे थे कि यह किसका है, उसी समय उन्हें एक मनुष्य समीप आता हुआ दिखाई दिया। शिवजी ने उस व्यक्ति को विदेशों से आनेवाले अतिथियों की सेवाभार सौंपा था। हिमाचल ने उसे अपने पास बुलाकर पूछा-हे भाई! यह नगर किसका है और इस मन्दिर में कौन रहता है ? तब उस शिवभक्त ने यह उत्तर दिया-हे यात्री! इस स्थान का नाम शिवपुरी है और यह मन्दिर भगवान् विश्वनाथजी का है। 

भगवान् विश्वनाथजी को मन्दराचल पर्वत से यहाँ आये हुए अभी केवल छः दिन ही बीते हैं। उन दिनों वे गिरिजा के साथ ज्येष्ठेश्वर में रह रहे हैं। सम्भवतः तुम कोई परदेशी यात्री हो, जो उन्हें नहीं जानते। तीनों लोकों के सम्पूर्ण प्राणी उन्हीं शिवजी के सेवक हैं। इतना कहकर उसने हिमाचल को काशीपुरी का सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। 

जब हिमाचल ने शिवजी को इस प्रकार धन से परिपूर्ण देखा, तो उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उस समय उन्होंने उस मनुष्य को तो धन आदि देकर विदा कर दिया और स्वयं अपने मन में यह निश्चय किया कि अब मुझे यह उचित है कि जो धन मैं अपने साथ लेकर आया हूँ, उसके द्वारा यहाँ एक शिवालय का निर्माण कर दूँ। मेरे पास इतनी सामग्री नहीं है, जो शिवजी की भेंट के योग्य हो सके। अब तक मैं भूला हुआ था और शिवजी को दरिद्र समझता था। आज मुझे यह मालूम हुआ कि शिवजी तो कुबेर के भी कुबेर हैं।

हे नारद! हिमाचल ने यह निश्चय करके अपने सेवकों को बुलाया और उन्हें यह आज्ञा दी कि तुम रातभर में ही एक शिवालय का निर्माण कराओ। जो लोग काशी में शिवालय बनाते हैं, उन्हें लोकों में आनन्द प्राप्त होता है और उनके सभी अपराधों को भगवान् सदाशिव क्षमा कर देते हैं। हिमाचल की यह आज्ञा सुनकर सेवकों ने रातभर में ही एक सुन्दर शिवालय का निर्माण करा दिया। तब हिमाचल ने चन्द्रकान्तमणि द्वारा एक शिवलिंग का निर्माण कराया और उस मन्दिर में उसकी स्थापना की। 

तदुपरान्त उन्होंने अपने नाम और गोत्र आदि से अंकित एक पट्टिका उस शिवालय में लगा दी। इतना करने के उपरान्त वे पंचनद में स्नान वेस सब करके, कामराज शिवजी की पूजा में प्रवृत्त हुए। उनके पास जो कुछ धन शेष रह गया था, उसे उन्होंने इधर-उधर फेंक दिया। रत्न भी स्वयं ही एकत्र होकर एक शिवलिंग के रूप में परिवर्तित हो गये। इस प्रकार एक लिंग तो हिमाचल ने स्थापित किया और दूसरा रत्नों द्वारा अपने आप बन गया। वे दोनों शिवलिंग पचनदहृद तथा हरव्रता के तटपर प्रतिष्ठित हुए। 

हे नारद! हिमाचल द्वारा स्थापित कामराज शिवलिंग का माहात्म्य संसार में विख्यात है। उस मन्दिर का निर्माण कराने के पश्चात् हिमाचल शिवजी से बिना मिले ही, अपने घर को लौट गये। इस कथा को जो कोई सुनता और पढ़ता है, उसे दोनों लोकों में आनन्द की प्राप्ति होती है ।

॥ हण्डन-मुण्डन नामक गणों द्वारा नूतन शिवालयों को देखने का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! प्रातःकाल होने पर जब हण्डन तथा मुण्डन नामक शिवजी के दो गणों ने दो नये शिवलिंग देखे तो उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर शिवजी के पास जा, उन्हें सब समाचार कह सुनाया। वे बोले-हे प्रभो! वरुणा नदी के तट पर किसी धनवान् व्यक्ति ने आपके दो शिवलिंग स्थापित किये हैं। कल सन्ध्या तक उस स्थान पर कोई मन्दिर नहीं था, इस समय हम जब वहाँ गये तो हमने उसे देखा है।

यह सुनकर शिवजी गिरिजा सहित रथ पर चढ़कर वरुणा नदी के तट पर जा पहुँचे और उन्होंने हिमाचल द्वारा बनवाये हुए उस सुन्दर शिवालय को देखा। यद्यपि वह मन्दिर एक ही रात्रि में बना था, किन्तु इतना सुन्दर था कि उसके समान शिवालय काशीपुरी में दूसरा न था। जब वे गिरिजा सहित उस शिवालय के भीतर पहुँचे तो वहाँ चन्द्रकान्तमणि द्वारा निर्मित शिवलिंग को देखकर उन्हें यह इच्छा उत्पन्न हुई कि हम इस मन्दिर के बनवाने वाले के नाम से परिचित हों।

इतने ही में उनकी दृष्टि उस पट्टिका पर जा पड़ी, जो हिमाचल ने लगवाई थी। उसे पढ़कर शिवजी गिरिजा से बोले-हे प्रिये! देखो यह शिवालय तुम्हारे पिता ने बनवाया है। वे तुम्हें देखने के लिये यहाँ पधारे होंगे, परन्तु भेंट का उत्तम अवसर न पाकर, बिना मिले ही इस शिवलिंग की स्थापना करके चले गये। तुम्हारे पिता परम धन्य हैं।

हे नारद! शिवजी के मुख से यह वचन सुनकर गिरिजा ने अत्यन्त प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा-हे प्रभो! मेरे पिता ने इस लिंग को वरुणा के तट पर स्थापित किया है, अतः मेरी यह अभिलाषा है, कि आप इसमें रात-दिन पूर्णांश से स्थित रहें तथा यह लिंग गिरीश्वर के नाम से प्रसिद्ध हो। जो मनुष्य इस लिंग की पूजा करे, वे दोनों लोकों में आनन्द प्राप्त करे तथा उनकी सभी मनोभिलाषाएँ पूर्ण हों। गिरिजा की यह प्रार्थना सुनकर शिवजी ने 'एवमस्तु' कहा। 

तदुपरान्त वे वहाँ से चलकर, इधर-उधर भ्रमण करते हुए कामराज के पास पहुँचे । वहाँ कामराज से उत्तर की ओर उन्होंने एक अन्य शिवलिंग को देखा। गिरिजा ने उसे देखकर शिवजी से कहा-हे स्वामिन्! इस लिंग का प्रकाश आकाश तक फैला हुआ है और यह एकदम नवीन दिखाई देता है। आप कृपा करके इसकी उत्पत्ति एवं प्रभाव का मुझसे वर्णन करें। 

यह सुनकर शिवजी ने उत्तर दिया-हे गिरिजे! तुम्हारे पिता हिमाचल यहाँ अपने साथ बहुत से रत्न आदि लेकर आये थे। हमारा लिंग स्थापित करने के पश्चात् उनके पास जो धन बच रहा, उसे वे यहीं फेंक गये; उनके पुण्य के प्रताप से वे फेंके हुए रत्न आदि एकत्र होकर शिवलिंग के रूप में परिवर्तित हो गये हैं। इस शिवलिंग का नाम रत्नेश्वर होगा, क्योंकि यह रत्नों द्वारा निर्मित है। 

हे प्रिये! हमारे अथवा तुम्हारे लिये जो मनुष्य भक्तिपूर्वक किसी धन का संकल्प करता है, तो उसे उसका फल भी उसी प्रकार प्राप्त होता है। अब तुम्हें यह उचित है कि तुम्हारे पिता जिस स्वर्ण को यहाँ छोड़ गये हैं, वह अभी तक यहाँ इधर-उधर फैला हुआ है। उसी के द्वारा तुम इस लिंग का शिवालय बनवाओ, क्योंकि शिवालय बनवा देने से जो कर्म अपूर्ण रह जाते हैं, वे भी पूर्णता को प्राप्त होते हैं, लिंग की स्थापना से प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति होती है, और कलश चढ़ाने से भी वैसा ही फल मिलता है। ध्वजा स्थापित करने का यह फल होता है कि ध्वजा में जितने पर्व होते हैं, उतने कल्प पर्यन्त ध्वजा स्थापित करनेवाला मनुष्य कैलाश में निवास करता है तथा वायु के चलने पर जितनी बार उस ध्वजा का वस्त्र हिलता है, उतने वर्षों तक वह शिवलोक में वास करता है।

हे नारद! शिवजी के मुख से यह वचन सुनकर गिरिजा ने गणों को बुलाकर रलेश्वर शिवलिंग का मन्दिर बनवाने की आज्ञा दी। तब सोम एवं नन्दी आदि गणों ने हिमाचल द्वारा फेंके गये स्वर्ण से एक सुन्दर शिवालय बनवा दिया। उस शिवालय को देखकर शिवजी एवं गिरिजा को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और उन्होंने गणों को अनेक वरदान दिये। 

तदुपरान्त गिरिजा के कहने पर शिवजी ने रत्नेश्वर शिवलिंग को यह वर दिया कि जो प्राणी इस लिंग की पूजा करेगा, उसे सम्पूर्ण शिवलिंगों के पूजन का फल प्राप्त हो जायगा तथा यह लिंग अनादि रूप से प्रसिद्ध होगा। 

हे नारद! उस रलेश्वर शिवलिंग के सम्मुख नृत्य करके एक नर्तकी ने मुक्ति प्राप्त की। भगवान् सदाशिव एवं भगवती गिरिजा के उन चरित्रों का स्मरण करने से आनन्द प्राप्त होता है।

  शिवजी का काशी-भ्रमण एवं उनके अभिषेक का वृत्तान्त

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! जबतक शिवजी का मुख्य भवन बनकर तैयार नहीं हो गया, तब तक शिवजी काशी में अनेक स्थानों पर भ्रमण करते रहे। विराजपीठ नामक प्रसिद्ध स्थान पर शिवजी ने अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक समय तक निवास किया। उन्होंने वहाँ पर स्थित त्रिलोचन नामक शिवलिंग की महिमा का बहुत वर्णन किया। 

एक दिन वे विष्णुजी से काशी की महिमा तथा काशी में स्थित शिवलिंगों की स्तुति का वर्णन कर रहे थे, उसी समय नन्दीश्वर ने उनके पास पहुँचकर यह प्रार्थना की कि हे प्रभो! आपका मन्दिर बनकर तैयार हो चुका है और मैं रथ सजाकर ले आया हूँ; अब आप कृपा करके अपने भवन को चलिये। ब्रह्मा तथा इन्द्र आदि सब देवता द्वार पर खड़े हुए हैं और सबकी यह इच्छा है कि आप वहाँ चलकर सुशोभित हों।

हे नारद! नन्दीश्वर की बात सुनकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हो, अपने भवन के लिये चल दिए। उस समय चारों दिशायें वेदधुनि से गूंज उठीं तथा सुन्दर बाजे बजने लगे। आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी। उस समय पृथ्वी पर कोई भी ऐसा प्राणी नहीं था, जो आनन्दमग्न न हो। जब शिवजी अपने भवन में पहुँच गये तब मैंने, विष्णुजी ने तथा अन्य देवताओं ने शिवजी का अभिषेक किया। 

उस समय सम्पूर्ण तीर्थों का जल छोड़ा गया और सब लोगों ने भेंट दे-देकर शिवजी तथा गिरिजा की आरती उतारी। विष्णुजी ने एक बार मुख की, चार बार चरणों की दो बार नाभि की तथा सात बार सर्वांग की आरती उतारी, क्योंकि शिवजी की आरती चौदह बार उतारी जाती है। 

इनके अनन्तर मैंने, विष्णुजी ने तथा अन्य सब देवताओं ने एक-एक स्तुति बनाकर पढ़ी और शिवजी से यह प्रार्थना की कि आप हमलोगों पर प्रसन्न होकर हमारा पालन करें।

शिवजी द्वारा मुक्ति-मंडप की महिमा का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! हम देवताओं की स्तुति सुनकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने सब लोगों को इच्छित वरदान दिये। तदुपरान्त उन्होंने मुझे तथा विष्णुजी को अपने समीप बैठाकर यह कहा कि तुम्हारे समान हमारा प्रिय अन्य कोई नहीं है। अब तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर हमसे माँग लो। 

यह सुनकर विष्णुजी ने प्रणाम करते हुए कहा-हे प्रभो ! हम यही चाहते हैं कि हमारे हृदय में आपकी भक्ति का सदैव निवास रहे। शिवजी ने यह सुनकर 'एवमस्तु' कहा, तदुपरान्त उन्होंने काशी की महिमा वर्णन की। फिर मुक्तिमंडप की वह कथा सुनाई, जहाँ महानन्द नामक ब्राह्मण को मुक्ति प्राप्त हुई थी। उस स्थान का दूसरा नाम कुक्कुट मंडप भी है।

सूतजी बोले-हे ऋषियो! यह वृत्तान्त सुनकर नारदजी ने ब्रह्माजी से कहा-हे पिता! उस स्थान का नाम कुक्कुट मंडप किस प्रकार हुआ और महानन्द ने वहाँ किस प्रकार मुक्ति पाई, यह कथा आप मुझे सुनाने की कृपा करें।

यह सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जब शिवजी ने कुक्कुट मंडप का नाम लिया उस समय विष्णुजी ने उनकी प्रार्थना करते हुए यह कहा-हे प्रभो! मुझे बताइये कि कुक्कुट मंडप तीनों लोकों में सुखदायक किस प्रकार होगा ? 

उस समय शिवजी ने उत्तर दिया-हे विष्णो! आगे जब द्वापरयुग आयेगा, उस समय यहाँ महानन्द नामक एक ब्राह्मण उत्पन्न होगा। वह ब्राह्मण ऋग्वेद का पंडित होगा और किसी से दान आदि न लेगा। कुछ समय पश्चात् जब वह तरुणावस्था को प्राप्त होगा और उसके पिता की मृत्यु हो जायगी, तब वह कामदेव के वशीभूत हो, एक अन्य जाति की स्त्री को अपने घर में रखकर उसके साथ भोग-विलास करेगा और वेद के प्राचीन मार्ग को त्याग देगा। 

वह उस स्त्री के अधीन होकर मद्य आदि का पान करेगा। वह विष्णु-भक्तों को धनवान् देखकर स्वयं भी वैष्णव बन जायेगा तथा शिव-भक्तों की निन्दा करेगा। फिर कुछ दिन बाद वह शिव-भक्त बनकर वैष्णवों की निन्दा करना आरम्भ करेगा।

हे विष्णो! वह अपने मस्तक में तिलक लगायेगा, श्वेत-वस्त्रों को धारण करेगा तथा कण्ठ में माला पहनकर धूर्ता का प्रदर्शन करेगा। वह देखने में तो निर्मल और सज्जन होगा, परन्तु हृदय का अत्यन्त मलिन और दुर्जन रहेगा। कुछ दिन पश्चात् एक पर्वत निवासी तीर्थ-स्थान करने के लिये यहाँ आयेगा। 

उसके पास दान करने के लिए बहुत धन होगा। वह चक्रतीर्थ में स्नान करके यह बात कहेगा कि मैं जाति का चाण्डाल हूँ, परन्तु धनवान् हूँ। मैं अपने धन को दान में देना चाहता हूँ। यदि कोई मेरा दान लेने के लिये तैयार हो तो वह मेरे समीप आये। उसकी बात सुनकर सबलोग उस महानन्द नामक धूर्त ब्राह्मण की ओर उँगली उठाकर यह उत्तर देंगे कि तुम्हारा दान यह व्यक्ति ले सकता है। 

तब चाण्डाल महानन्द के पास जाकर दान ग्रहण करने के लिये प्रार्थना करेगा। उस समय महानन्द उसे यह उत्तर देगा कि तुम अपने साथ जितना धन लाये हो, यदि वह सबका सब मुझे देना स्वीकार करो तथा अन्य किसी को उस धन में से कुछ भी न दो, तो मैं तुम्हारा दान लेने को तैयार हूँ। 

यह सुनकर वह चाण्डाल उत्तर देगा कि मेरे पास जो भी धन है, वह शिवजी की प्रसन्ता के निमित्त है। इस काशी में रहने वाले नीच व्यक्ति भी शिवजी के अंश हैं; मैं तुम्हें शिवजी के समान जानकर अपना सम्पूर्ण धन देना स्वीकार करता हूँ।

हे विष्णो! यह कहकर वह चाण्डाल महानन्द को दान देकर अपने घर को लौट आयेगा। उस समय से सबलोग महानन्द को चाण्डाल मानने लगेंगे। उस लज्जा के कारण महानन्द बहुत दिनों तक अपने घर में छिपा रहेगा, तदुपरान्त अपनी स्त्री को साथ लेकर काशी छोड़, कीलक देश को चल देगा। जिस समय वह मार्ग में जा रहा होगा, उस समय जंगल में एक ठगों का झुण्ड उसे पकड़ लेगा और उसका सर्वस्व छीनकर यह कहेगा कि अब हम तुम्हें जान से मारने वाले हैं।

तुम जिसका स्मरण करना चाहो, कर लो। ठगों के यह वचन सुनकर महानन्द को श्रेष्ठ-बुद्धि की प्राप्ति होगी। उस समय वह विचार करेगा कि मैंने इस धन को लेकर अपने धर्म को भी खो दिया और आज मृत्यु के समय काशीपुरी को भी खो बैठा हूँ। इस प्रकार चिन्ता करते हुए वह अपने वंश का स्मरण करेगा। 

तदुपरान्त ठग उसे मार डालेंगे। महानन्द को मारने के पश्चात् वे चारों ठग काशी का महात्य सुनकर यहाँ आयेंगे और मुक्ति-मण्डप के समीप स्थित होकर, प्रतिदिन गंगा-स्नान तथा शिव-कथा श्रवण करने के कारण निर्मल हो जायेंगे। उस समय मेरी कृपा से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी। तभी से इस स्थान का नाम कुक्कुट मण्डप पड़ जायेगा।

शिवजी का श्रृङ्गार-मंडप में विराजमान होना ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! शिवजी से यह कथा सुनकर विष्णुजी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उसी समय बड़े जोर से घण्टा बजने का शब्द सुनाई दिया। उस शब्द को सुनकर शिवजी ने नन्दीश्वर को यह आज्ञा दी कि तुम जाकर अभी यह पता लगाओ कि यह घण्टे का शब्द कहाँ से आ रहा है ? 

जो लोग घण्टा बजाते हैं वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं और मैं उनकी सम्पूर्ण मनोकामनाओं को सिद्ध करता हूँ। यह सुनकर नन्दीश्वर उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ वह घंटा बज रहा था। तदुपरान्त उन्होंने लौटकर शिवजी से यह कहा कि हे प्रभो! आपके श्रृंगार-मंडप में उत्सव हो रहा है और वहाँ बैठे हुए आपके भक्त घण्टा बजा रहे हैं। 

यह सुनकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हो, सम्पूर्ण सभासहित उस स्थान पर जा पहुँचे। वह स्थान रंगमंडप था जो संसार में श्रृंगारमंडप के नाम से विख्यात है। वहाँ जाकर शिवजी गिरिजासहित पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ गये।

हे नारद! उस समय शिवजी ने अपना दाहिना हाथ उठाकर विष्णुजी के द्वारा सब लोगों को यह सूचित किया कि विश्वनाथ नामक हमारा यह लिंग परम ज्योतिस्वरूप तथा सम्पूर्ण आनन्द मंगलों को प्रदान करनेवाला है। इसे अविमुक्त तथा मुक्तिद भी कहा जाता है। 

विश्वेश्वर के समान तीनों लोकों में अन्य कोई लिंग नहीं है। तीनों लोकों में विश्वेश्वर लिंग, मणिकर्णिका तथा काशीपुरी-ये तीन वस्तुएँ ही साररूप हैं। इतना कहकर मणिकर्णिका तथा काशीपुरी-ये तीन वस्तुएँ ही साररूप हैं। इतना कहकर शिवजी तथा गिरिजा ने स्वयं उस विश्वेश्वरलिंग का पूजन किया। 

तदुपरान्त वीरभद्र और गणपति ने उसकी पूजा की। इस प्रकार सब लोगों ने उस लिंग का पूजन किया। उस समय बड़ा आनन्द और उत्सव हुआ। आकाश से पुष्प-वर्षा होने लगी और ऋषि-मुनि वेद-मन्त्रों द्वारा स्तुति करने लगे। उस समय वेद और पुराण शरीर धारणकर वहाँ आये। उन्होंने शिव तथा गिरिजा की बहुत प्रकार से विनती की। 

तदुपरान्त विष्णु आदि सब देवताओं ने भी उनकी बहुत प्रार्थना की। उस समय शिवजी और गिरिजा ने अत्यन्त प्रसन्न होकर सबलोगों की ओर अपनी कृपादृष्टि से देखा, जिसके कारण सभी के मनोरथ पूर्ण हो गये। तदुपरान्त शिवजी गिरिजा तथा अपने पुत्रों सहित सबके देखते-देखते अन्तर्धान होकर विश्वनाथ लिंग में प्रविष्ट हो गये।
हे नारद! शिवजी के उस चरित्र को कोई भी प्राणी नहीं जान सका। इस प्रकार शिवजी लिंगरूप होकर काशी में स्थित रहे और शरीर से कैलाश में जाकर निवास करने लगे। इस आश्चर्य को देखकर सबलोगों को बड़ा कौतूहल हुआ। 

तदुपरान्त अन्य सब देवता भी अपने-अपने अंश को काशी में स्थापित करके अपने-अपने लोक को चले गये। शिव और गिरिजा का यह चरित्र सम्पूर्ण मनोकामनाओं को सिद्ध करनेवाला है। 

जो मनुष्य इसे पढ़ता, सुनता अथवा दूसरों को सुनाता है, उसके हृदय में शिवजी की प्रीति उत्पन्न होती है और भगवान् सदाशिव गिरिजा सहित उसके ऊपर अत्यन्त कृपा रखते हैं। 

॥इति श्री शिवपुराणे ब्रह्मानारदसम्वादे भाषायां षष्ठखण्ड समाप्तः॥ 6 ॥