ॐ नमः शिवाय

॥ शिव जी के निर्गुण-सगुण रूप एवं रुद्रादि अवतारों का वर्णन ॥

नारदजी ने कहा-हे पिता! अब आप शिवजी के सभी अवतारों एवं उनके कार्यों का वर्णन कीजिये। जो लोग शिवजी के भक्त हैं, वे निश्चय ही धन्य हैं। यह सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे पुत्र! भगवान् सदाशिव परब्रह्म, निर्गुण, सगुण, सच्चिदानन्दरूप, सर्वव्यापक, अलख, निरंजन, ज्योतिस्वरूप तथा उपाधिरहित हैं। 

ऋषि-मुनि उनका स्मरण करके प्रणाम करते हैं तथा अपनी बुद्धि के अनुसार सब देवता उनकी स्तुति करते रहते हैं। जिन शिवजी के ऐसे अद्भुत् कार्य हैं, उनका वर्णन किसी भी प्रकार नहीं किया जा सकता। वेद का कथन है कि ऐसे निगुर्णरूप शिवजी ने सगुणरूप धारणकर, संसार में अनेक चरित्र किये तथा परमशक्ति ने भी उनके साथ अवतार लेकर भक्तों के मनोरथों को पूर्ण किया।

हे नारद! जिस समय विष्णुजी ने मुझे प्रकट किया, उस समय शिवजी उन्हें वरदान देने के लिए आये थे। तब विष्णुजी ने उनसे यह माँगा था कि आप भी कृपा करके अवतार ग्रहण करें। यह सुनकर शिवजी ने 'एवमस्तु' कहते हुए विष्णुजी से यह बात कही थी कि समयानुसार हम भी अवतार लेंगे। उस समय हमारा नाम 'रुद्र' होगा। हमारा वह रुद्रावतार देवताओं के सम्पूर्ण दुःखों को दूर करेगा तथा तुम्हें हर समय सहायता प्रदान किया करेगा। 

इतना कहकर शिवजी अन्तर्धान हो गये। तदुपरान्त रुद्र की उत्पत्ति मेरे द्वारा हुई। वे रुद्रनामधारी सदाशिव कैलाश पर्वतपर निवास करते हैं तथा अनेक प्रकार की लीलाएँ करके अपने भक्तों को आनन्द पहुँचाते हैं। वे अपनी शक्ति के साथ विहार किया करते हैं तथा सम्पूर्ण उपाधियों से रहित हैं। उन्होंने सन्तों की रक्षा की है तथा सती के साथ विवाह करके देवताओं के कष्ट को दूर किया है। 

उन्होंने हिमाचल के घर जाकर गिरिजा के साथ विवाह किया तथा अनेक प्रकार की लीलाएँ की। उन्होंने स्कन्द का अवतार लेकर तारकासुर का संहार किया तथा अन्धक, त्रिपुर एवं जलन्धर को नष्ट करके, अपने भक्तों को सुख पहुँचाया। उन्होंने अनेकों प्रकार के ऐसे चरित्र किये, जिनसे देवताओं का अहंकार नष्ट हो गया। मैं, विष्णुजी, देवता, सिद्ध, मुनि आदि संसार के सभी प्राणी, उन्हीं के सेवक हैं। रुद्र शिव के प्रथम अवतार हैं। उनका स्वरूप, नाम, चरित्र आदि सब भगवान् सदाशिव जैसे ही हैं। अब मैं तुम से शिवजी के अन्य अवतारों का वर्णन करता हूँ।

हे नारद! सर्वप्रथम तुम शिवजी के पाँच अवतारों का वर्णन सुनो। जिस समय मेरी यह इच्छा हुई कि मैं सृष्टि उत्पन्न करूँ, उस समय मैंने सर्वप्रथम भगवान् सदाशिव का ध्यान किया। तब शिवजी ने प्रसन्न होकर मुझे अपना दर्शन दिया। उस समय उनके शरीर का रंग श्वेत तथा लालिमा लिए हुए था। उनके साथ चार शिष्य भी थे। मैंने उन्हें प्रणाम करने के उपरान्त अनेकों प्रकार से उनकी स्तुति की। 

उस समय शिवजी ने कृपा करके मुझे शक्ति प्रदान की और यह आज्ञा दी कि तुम सृष्टि को उत्पन्न करो। तदुपरान्त उन्होंने 'वामदेव' का अवतार लेकर अपने चार शिष्यों के साथ मुझे दर्शन दिया। उस समय उनके शरीर का रंग लाल था। तत्पश्चात् वे पीतवर्ण से 'तत्पुरुष' अवतार के रूप में अपने चार शिष्यों सहित प्रकट हुए और उन्होंने मुझे श्रेष्ठ ज्ञान का उपदेश दिया। इसके बाद उन्होंने 'श्यामरूप' अवतार लेकर मुझे दर्शन दिये। अन्त में उनका 'ईशान' नामक अवतार हुआ। 

उस समय उनके शरीर का वर्ण श्वेत था और वे अपने साथ चार शिष्यों को लिये थे। उन्होंने मुझे ब्रह्मज्ञान तथा पवित्र योग की शिक्षा दी। शिवजी के ये पाँचों अवतार अत्यन्त पवित्र हैं और मेरी इच्छानुसार ही इनका प्राकट्य हुआ था।

हे नारद! इसके पश्चात् शिवजी ने आठ अवतार और लिये। उनके नाम शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान तथा महादेव हैं। वे जल, पृथ्वी, अग्नि, आकाश, यज्ञ, वायु, चन्द्रमा तथा सूर्य में निवास करते हैं। ये आठों अवतार भी भगवान् सदाशिव के ही रूप हैं। 

हे नारद! वाराहकल्प में 'वैवस्वत' नामक सातवें मन्वन्तर में जो मनु का अवतार होता है, वह भी शिवजी का ही स्वरूप है। शिवजी का अर्धनारीश्वर रूप में वह अवतार मेरी रक्षा के निमित्त होता है।

हे नारद! द्वापर तथा कलियुग में वेदव्यास नामक जो अवतार होता है, वह भी भगवान् सदाशिव का ही मुख्य स्वरूप है। उस समय श्रीशिवजी व्यासजी के रूप में वेद के विभाग करते हैं तथा योगशास्त्र और वेदान्त का प्रचार कर पुराणों को बनाते हैं और उन्हें अपने शिष्यों को पढ़ाते हैं। उन व्यासजी के अट्ठाईस प्रकार के रूप होते हैं।

जिनके नाम ये हैं-श्वेत, सुताह, सुहोत्र, कंकण, शाख्य, युगाक्ष, जैगीषव्य, दधिवाहन, ऋषभ, भृङ्ग, तप, अत्रि, बाल, गौतम, वेदशिरा, धेनुकर्ण, गुहबाल, शिखण्डी, जटामाली, अट्टहास, दाहक, लांगली, श्वेतत्रिशूल, दण्डी, मुण्डेश्वर, सोमसुरमा, लंककेश तथा सहिष्णु।

हे नारद! शिवजी के नन्दीश्वर अवतार की कथा इस प्रकार है-जब शिलाद मुनि ने बहुत तपस्या की, उस समय शिवजी ने उन्हें दर्शन देकर वरदान माँगने के लिये कहा। उस समय शिलाद ने उनसे यह कहा-हे प्रभो! आप मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये, जो कभी भी मृत्यु को प्राप्त न हो। 

तब शिवजी ने 'एवमस्तु' कहकर 'नन्दी' का अवतार धारण किया और शिलाद की मनोकामना पूर्ण की, इसके पश्चात् जब मुझमें तथा विष्णुजी में विवाद हुआ, उस समय भगवान् 'सदाशिव' भैरव का अवतार लेकर हमारे समीप आये और उन्होंने हमारा झगड़ा समाप्त कराया। उस समय भगवान् सदाशिव को अपना पुत्र विचारकर जब मैं उनकी निन्दा करने लगा, तब भैरवरूपधारी शिवजी ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर मेरे पाँचवें मस्तक को काट डाला। 

इसके उपरान्त उन्होंने 'वीरभद्र' नामक अवतार लेकर तीनों लोकों में इस बात को प्रसिद्ध किया कि जो लोग शिवजी के विरोधी हैं, उन्हें स्वप्न में भी आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता। वीरभद्र रूपधारी भगवान् सदाशिव ने अपनी एक सहस्त्र भुजाओं द्वारा दुष्टों को दण्ड दिया तथा संसार में अनेकों प्रकार की लीलाएँ कीं। तत्पश्चात् जब विष्णुजी ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकशिपु को मारा और अत्यन्त क्रोध तथा अहंकार किया, उस समय देवताओं की प्रार्थना पर शिवजी ने 'शरभ' नामक अवतार लेकर नृसिंह के मद को नष्ट किया।

उसी समय से शिवजी का नाम 'हर' भी हुआ, क्योंकि उन्होंने नृसिंहजी के मद को हर लिया था। तदुपरान्त जब देवासुर संग्राम हुआ और सब देवता विजयी होकर बहुत अहंकार में भर गये, उस समय शिवजी ने 'यक्ष' रूप धारण करके, उनके अभिमान को नष्ट किया अर्थात् उन्होंने यक्ष बनकर देवताओं नो से एक तिनके को तोड़ देने को कहा, लेकिन देवता उसे तोड़ने में असमर्थ हुए।

हे नारद! इसके अनन्तर शिवजी ने 'महाकाल' के दस रूप धारण किये तथा दस देवियों के स्वामी के रूप में प्रसिद्ध हुए। तदुपरान्त वे ग्यारह रुद्रों का स्वरूप रखकर कश्यप के घर में उत्पन्न हुए। वहाँ उन्होंने दिति के पुत्रों को मारकर देवताओं को सुख पहुँचाया। इसके बाद उन्होंने अत्रि का पुत्र होकर अपने ब्रह्मतेज को प्रसिद्ध किया और संसार में मर्यादा की स्थापना की। फिर उन्होंने विश्वानर के तप से प्रसन्न होकर उसके यहाँ जन्म लिया तथा कालविहार पर विजय प्राप्त की। 

इसके बाद भगवान् सदाशिव ने प्रह्लादमुनि का अवतार लेकर विष्णुजी के अहंकार को नष्ट किया तथा अवधूत बनकर इन्द्र के अभिमान को तोड़ दिया। रामचन्द्रजी के मनोरथों को पूर्ण करने के लिए उन्होंने हनुमान् के रूप में अवतार लेकर अनेक लीलाएं कीं तथा बहुत से राक्षसों को मारकर रामचन्द्र जी के सम्पूर्ण कार्य किये और लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा की।

हे नारद! जिस समय भैरव ने गिरिजा को कुदृष्टि से देखा, उस समय गिरिजा ने उन्हें यह शाप दिया-हे भैरव! तुम मुझे साधारण मनुष्यों की भाँति कुदृष्टि से देखते हो, अतः तुम मनुष्य हो जाओ। यह सुनकर भैरव ने भी गिरिजा को यह शाप दिया कि तुम भी मेरी तरह मनुष्य बनो, तब मैं वहाँ तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूँगा। इस शाप के कारण शिवजी ने पृथ्वी पर अवतार लिया। उस समय गिरिजा का नाम शारदा हुआ और शिवजी महेश होकर प्रकट हुए। 

हे नारद! महानन्दा नामक वेश्या ने शिवजी की बड़ी भक्ति की थी। तब शिवजी ने वैश्य का रूप धारणकर उसके दुःख को दूर किया। भद्रायुष नामक एक राजा ऋषभ नामक मुनि का शिष्य था, तथा शिवजी का परमभक्त था। शिवजी उसके समीप ब्राह्मण बनकर पहुँचे और उसे सम्पूर्ण कष्टों से रहित बनाया। 

इसी प्रकार आहुक नामक एक भील था, जिसकी पत्नी का नाम आहुकी था। शिवजी ने उनके लिए भी अवतार लेकर उन्हें कृतार्थ किया। तब वे दोनों दूसरे जन्म मैं नल और दमयन्ती हुए। वहाँ शिवजी ने हंस बनकर उन दोनों में मेल कराया था।

हे नारद! राजा मनु के छोटे पुत्र नाभाग ने जब अपने भाइयों से राज्य का भाग नहीं पाया, तब शिवजी ने कृष्णदर्शन नामक अवतार लेकर उसे उसका भाग दिलवा दिया। जिस समय राजा सत्यरथ लड़ाई में मारा गया और उसकी गर्भवती रानी वन में भागकर वहाँ एक पुत्र को जन्म देने के पश्चात् स्वयं भी मृत्यु को प्राप्त हो गयी और वह बालक रोता हुआ वहीं पड़ा रहा, उस समय शिवजी ने दया करके एक भिक्षुक का स्वरूप धारण किया और एक स्त्री को यह उपदेश दिया कि वह उस बालक का पालन करे। 

जब वह बालक बड़ा हो गया, तब शिवजी ने उसे उसके पिता का राज्य वापस दिला दिया। इसी प्रकार शिवजी ने इन्द्र का अवतार लेकर उपमन्यु नामक ब्राह्मण की परीक्षा ली तथा उसे सब पापों से रहित देखकर, दोनों लोकों का सुख प्रदान किया।

हे नारद! जिस समय गिरिजा ने वन में जाकर कठिन तप किया और सब देवता शिवजी की शरण में गये, उस समय शिवजी जटिल रूप धारणकर परीक्षा लेने के निमित्त गिरिजा के पास जा पहुँचे और उन्हें यह वरदान दिया कि हम तुम्हारे साथ विवाह करेंगे। 

तदुपरान्त वे नट का रूप धारणकर पर्वतराज हिमाचल के घर गये और वहाँ अनेक प्रकार की लीलाएँ कीं। उन्होंने ब्राह्मण का रूप धारणकर हिमाचल की पत्नी मैना को भी बहुत भटकाया। द्रोणचार्य के पुत्र अश्वत्थामा के रूप में भी शिवजी ने ही अवतार लिया था। उन्होंने किरात बनकर अर्जुन का दुःख दूर किया तथा वरदान देकर कौरवों को नष्ट कराया। 

उन्हीं शिवजी ने गोरखनाथ रूप लेकर योगशास्त्र को प्रसिद्ध किया तथा योगियों के धर्म को संसार में स्थित किया। उन गोरखनाथरूपी शिवजी के दो प्रधान शिष्य थे। इनमें से एक का नाम गोपीचन्द था।

हे नारद! जिस समय अधर्मी लोगों ने सब प्रकार शौच को त्यागकर धर्म को भ्रष्ट कर देना चाहा तथा संसार में अनीश्वरवाद का प्रचार किया, उस समय शिवजी ने एक ब्राह्मण के यहाँ शंकराचार्य नाम से अवतार लिया। उन्होंने अधर्म का नाश किया तथा अद्वैत एवं संन्यास मत का प्रचार किया। 

सूर्य द्वारा जो ज्योतिर्लिंग स्थापित किये गये, वे सभी शिवजी के ही अवतार हैं। शिवजी के चरित्रों का वर्णन करने तथा सुनने से बहुत सुख प्राप्त होता है। 

हे नारद! मैंन संक्षेप में तुमसे शिवजी के सब अवतारों की यह कथा कही।

॥ कैलाशवासी शिव जी का निरूपण ॥

इतनी कथा सुनकर नारदजी बोले-हे पिता! आप संसार में शिवजी के सबसे बड़े भक्त हैं। मेरी यह इच्छा है कि मैं आपके द्वारा शिवजी के अवतारों का वर्णन विस्तार सहित सुनूँ। आप मेरी इस अभिलाषा को पूर्ण कीजिए। 

नारद के मुख से यह शब्द सुनकर ब्रह्माजी प्रेम-मग्न होकर कहने लगे-हे नारद! मैं शिवजी की अन्य लीलाएँ सुनाता हूँ, ध्यान से सुनो। मुझे तथा विष्णुजी को शिवजी ने ही उत्पन्न किया है। जिस समय उन्होंने मुझे तथा विष्णुजी को उत्पन्न करके यह आज्ञा दी कि तुम दोनों संसार की उत्पत्ति तथा पालन करो, उस समय हम दोनों ने शिवजी से यह कहा-हे प्रभो! आप भी अवतार लेकर प्रलय का कार्य स्वयं करना स्वीकार करें।

यह सुनकर शिवजी ने मेरी भौंहों के बीच भाग से अपने अंशरूप में अवतार लिया। शिवजी के उस अवतार का नाम महेश हुआ और वे कैलाश पर्वत पर निवास करने लगे।

हे नारद! शिवजी तथा महेश में किसी प्रकार का अन्तर नहीं। वे पापों से रहित तथा परम दयालु हैं। वे अपने भक्तों का मनोरथ पूर्ण करते हैं तथा उनके ऊपर सदैव कृपा बनाये रखते हैं। उन्होंने ही शबरी, शबर तथा मद्र को मुक्त किया है। उन्होंने राजा भद्राक्ष के कष्टों को दूर किया। उन्होंने अपने करोड़ों पापी भक्तों को मुक्ति प्रदान की तथा भक्तों के कल्याण के निमित्त करोड़ों अवतार धारण किये। 

उन्होंने नन्द वैश्य तथा किरात को मुक्ति देकर अपना द्वारपाल बनाया तथा भिक्षुक का स्वरूप धारणकर दारुकवन में अनेक प्रकार के चरित्र किये। उन्होंने मुनियों को क्रोधित कर स्वयं को शाप दिलाया। तभी से संसार में शिवलिंग की पूजा प्रचलित हुई है। 

हे नारद! काशी के राजा की सुन्दरी नामक एक पुत्री शिवालय में झाडू दिया करती थी, इसलिए वह मुक्ति को प्राप्त हुई। शिवजी ने एक बड़े भारी चोर को अपनी कृपा से तार दिया तथा रावण को तीनों लोकों का राज्य प्रदान किया। जिस समय रावण ने ब्राह्मणों को दुःख पहुँचाना आरम्भ किया, उस समय शिवजी ने रावण से अपने तेज को ले लिया और रामचन्द्रजी को अपना बाण देकर रावण को मरवा डाला। 

उन्हीं शिवजी ने राजा श्वेत के निमित्त काल का नाश किया तथा राजा दाशार्ह को उसकी पत्नी सहित मुक्ति प्रदान कर तीनों लोकों में पंचाक्षरी मन्त्र की महिमा प्रतिष्ठित की। शिवजी ने राजा मित्रशठ पर कृपा की। वह अपने राज्य को छोड़ बैठा था सो शिवजी की दया से वह अपनी स्त्री सहित मुक्त हुआ। 

चन्द्रसेन तथा श्रीगर्भ ने त्रयोदशी के दिन प्रदोष व्रत करके शिवजी की कृपा द्वारा मुक्ति प्राप्त की और इसी व्रत द्वारा धर्मगुप्त भी मुक्त हुआ।

हे नारद! शिवजी ने राजा चन्द्रांगद को तक्षक के भय से मुक्त किया तथा उसकी पत्नी सीमन्तिनी को सोमवार का व्रत रखने के कारण मोक्ष प्रदान किया। शिवजी ने ही इन्द्र नामक ब्राह्मण को तारा तथा पिंगल को अपने समान बना लिया। सीमन्तिनी की पुत्री पद्मा तथा पुशपति को भी उन्होंने मुक्ति प्रदान की। दुर्जन नामक यवन देश का राजा अपने शरीर में मृतक भस्म लगाने पर ही मुक्ति को प्राप्त हो गया। 

भद्रसेन का पुत्र सुधर्मा तथा उसके मन्त्री का पुत्र तारक रुद्राक्ष धारण करने के प्रताप से मुक्त हो गये। शिवजी ने महानन्दा तथा उसके वंश को अग्नि में जलाने से बचाया। उन्होंने देवरथ ब्राह्मण की पुत्री शारदा पर कृपा की। विडम्ब तथा उसकी पत्नी वीचिका जो व्यभिचार के कारण भ्रष्ट हो गये थे, उन्हें शिवजी ने अपना यश सुनाकर धन्य कर दिया। 

उन्हीं शिवजी ने अनेक विचित्र चरित्र करके इन्द्र के मद को चूर्ण किया तथा बृहस्पति की बनायी हुई स्तुति को सुनकर इन्द्र को प्राणदान दिया। जिस समय चन्द्रमा अपने गुरु की पत्नी को भगा ले गया, उस समय शिवजी ने उसका अभिमान नष्ट करके बृहस्पति को उनकी पत्नी वापस दिलवा दी।

हे नारद! कैलाश पर्वत पर जो महेशजी विराजमान् हैं, वे शिवजी के पहले अवतार हैं। वे अपने गणों को साथ लिये हुए, संसार के कल्याण के निमित्त अनेक प्रकार की कथाओं का वर्णन करते हैं। वे वटवृक्ष के नीचे बैठकर कभी अपने ध्यान में मग्न हो जाते हैं और कभी समाधि द्वारा अपने ब्रह्मस्वरूप को प्रकट करते हैं। 

वे कभी राजाओं के समान आनन्दभवन मैं बैठकर विहार करते हैं और कभी धर्मचर्चा करते हुए अपने बालकों को खिलाते हैं। वे कभी तपस्वी का रूप धारणकर दिगम्बर हो जाते हैं और कभी मुण्डों की माला पहनकर अपने शरीर में भस्म रमा लेते हैं। वे कभी संसार को त्यागकर भूत-प्रेतों की उत्पत्ति करते हैं और कभी परमहंसों के समान एकान्त में निश्चल बैठे रहते हैं। कभी प्रदोषकाल में भस्म धरण करते हैं और कभी छोटे बालकों के समान विविध प्रकार के चरित्र करते हैं।

हे नारद! वहाँ कैलाश पर्वतपर स्थित होकर सनक, सनन्दन आदि शिवजी की अत्यन्त सेवा किया करते हैं। कभी मैं तथा विष्णुजी भी वहाँ पहुँचकर शिवजी की सेवा किया करते हैं। कभी-कभी शिवजी का ऐसा दरबार लगते है कि उसमें सब देवता एकत्र होते हैं। उस समय शिवजी गिरिजा सहित सिंहासन पर सुशोभित होते हैं। 

तब विष्णुजी मृदंग बजाते हैं, सरस्वती बीणा पर राग अलापती हैं, लक्ष्मीजी गीत गाती हैं, इन्द्र बाँसुरी बजाते हैं, मैं ताल देता हूँ तथा अन्य सब देवता उनकी आरती उतारते हैं। इस प्रकार सबलोग अपने-अपने भजनों को मीठे स्वरों में गाकर शिवजी को प्रसन्न करते हैं। शिवजी तथा गिरिजा का यह दूसरा रूप तीनों लोकों को अत्यन्त कल्याण करनेवाला है।

हे नारद! शिवजी अपने भक्तों की प्रसन्नता के निमित्त अनेक अवतार लेकर विभिन्न प्रकार की लीलाएँ किया करते हैं। शिवजी के करोड़ों नाम तथा करोड़ों चरित्र हैं। इसी प्रकार उनके रूपों की भी कोई गिनती नहीं है। तुम ने, शारदा ने, शेषजी ने तथा अन्य सब देवताओं ने भी शिवजी के यश का बहुत वर्णन किया, परन्तु तुम में से कोई भी उसका पार नहीं पा सका। 

शिवजी के समान सुख देनेवाला अन्य कोई नहीं है। उनकी ऐसी विचित्र लीला है कि वे स्वयं तो अपने शरीर में भस्म धारण करते हैं और अपने भक्तों को सब प्रकार के रास-रंग देते हैं। वे स्वयं हलाहल पीते हैं तथा भक्तों को पीने के लिए अमृत देते हैं। वे स्वयं मुण्डों की माला तथा साँपों की कंठी पहनते हैं, लेकिन अपने भक्तों को रत्नाभूषण देते हैं। इन सबसे भी बढ़कर उनके सम्बन्ध में विचित्र बात यह है कि अन्य सब देवता तो सेवा करने से प्रसन्न होते हैं, लेकिन वे बिना सेवा किये ही प्रसन्न हो जाते हैं। 

हे नारद! ऐसे दयालु स्वामी को त्यागकर भी जो मूर्ख मनुष्य इधर- उधर भटकते हैं, उनसे अधिक दुरभाग्य और कौन है ? वेद में लिखा है कि कैलाशवासी महेश भगवान् सदाशिव के पूर्ण अवतार हैं। वे अपने इस सगुण रूप द्वारा अनेक प्रकार की लालाएँ करते हैं तथा अपने चरित्रों द्वारा भक्तों को आनन्द प्रदान करते हैं। मनुष्य को उचित है कि वह शिवशंकर के चरणों में अपने चित्त को लगाये रहे।

॥ शिव जी के पाँच अवतारों का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब मैं तुमसे शिवजी के पाँच अवतारों की कथा का वर्णन करता हूँ। उन्होंने सर्वप्रथम मुझे सृष्टि उत्पन्न करने की शक्ति दी, तदुपरान्त ज्ञान दिया था। फिर प्रत्येक कल्प में वे मुझे उपदेश देते रहे, जिसके द्वारा मैंने सृष्टि को उत्पन्न किया। तुम उन अवतारों की कथा ध्यानपूर्वक सुनो।

हे नारद! जब श्वेतलोहित नामक उन्नीसवाँ कल्प आया, उस समय मैंने यह विचार किया कि अब सृष्टि उत्पन्न करनी चाहिए। तब मैंने शिवजी का ध्यान किया। उस समय शिवजी बालस्वरूप धारणकर श्वेतलोहित वर्ण से अपने चार शिष्यों के साथ प्रकट हुए। वे मुझपे बड़ी कृपादृष्टि से देख रहे थे। उस समय मैंने उन्हें देखकर अपने मन में यह विचार किया कि यह बालक कौन है। 

तभी भगवान् सदाशिव की कृपा से मुझे यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि यह बालक और कोई नहीं, अपितु परब्रह्म शिवजी ही हैं। उस समय मैंने उनकी स्तुति करते हुए हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा-हे प्रभो! आपके समान कृपालु और कौन है? अब आप मुझे ऐसी शक्ति दीजिये, जिससे मैं सृष्टि को उत्पन्न कर सकूँ। 

हे नाथ! आप मुझे यह वरदान भी दीजिये कि मेरे हृदय से आपकी भक्ति एक क्षण के लिए भी दूर न हो तथा सृष्टि उत्पन्न करने में मुझे किसी प्रकार का दोष न लगे। मेरी इस प्रार्थना को सुनकर शिवजी ने 'एवमस्तु' कहा। तदुपरान्त वे इस प्रकार कहने लगे-हे ब्रह्मा! तुम्हें हमारे चरणों में सच्ची प्रीति है, इसीलिए हमने प्रकट होकर तुम्हें अपना दर्शन दिया है। हमारा नाम सद्योजात है और हम योग का प्रचार करेंगे।

हे नारद! इतना कहकर शिवजी ने अपने अंग से चार लड़कों को उत्पन किया। उन सबके शरीर का रंग श्वेत था। वे शिष्य नाम से प्रसिद्ध होकर योगशास्त्र की पद्धति को प्रकट करने के हेतु शास्त्र पाठी हुए। उनके नाम इस प्रकार हैं-सनन्दन, नन्दन, विश्वनन्द तथा उपनन्द। अपने इन चार शिष्यों द्वारा शिवजी ने संसार में योगशास्त्र को प्रकट किया।

हे नारद! भगवान् शिवजी के दूसरे अवतार की कथा इस प्रकार है-जब रक्तकल्प नामक बीसवाँ कल्प आया, उस समय मेरा वर्ण लाल रंग का था। उस समय मैं लाल वस्त्र तथा लाल ही माला पहने हुए था। जब मैंने सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा से भगवान् सदाशिव का ध्यान किया, तो वे लाल वस्त्र, लाल नेत्र तथा लाल रंग के ही आभूषण धारण किये हुए एक बालक के रूप में प्रकट हुए। 

उस समय मैंने उनका नाम वामदेव जानकर स्तुति तथा प्रणाम किया और यह प्रार्थना की किहे प्रभो! आप मुझ पर ऐसी कृपा करें, जिससे मैं सृष्टि-रचना कार्य में समर्थ हो सकूँ। यह सुनकर उन बालरूपी धारी शिवजी ने 'एवमस्तु' कहा। तदुपरान्त उन्होंने अपने चार शिष्य उत्पन्न किये। जिनका रूप, वर्ण तथा वस्त्र आदि सब लाल रंग के थे। उनके नाम-विरज, विवाह, विशोक तथा विश्वभावन हुए। तदुपरान्त शिवजी ने अपने उन चारों शिष्यों सहित योग की स्थापना की।

हे नारद! तीसरे अवतार की कथा इस प्रकार है कि जब पीतवासा नामक इक्कीसवाँ कल्प आया, तब मैंने सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा से शिवजी का ध्यान किया। उस समय शिवजी पीतवस्त्र, पीत अलंकार तथा पीतवर्ण धारण किये हुए मेरे सम्मुख प्रकट हुए। जब मैंने ध्यान धरकर उन्हें पहचाना तब शिव-गायत्री का जप करके उनकी बहुत प्रकार से स्तुति की और उनसे यह प्रार्थना की आप मुझे सृष्टि उत्पन्न करने की सामर्थ्य प्रदान करें। 

तब उन तत्पुरुष नामक शिवजी ने 'एवमस्तु' कहकर अपने शरीर से चार शिष्य उत्पन्न किये, जो पीले रंग के वस्त्र आभूषण आदि धारण किये हुए थे और जिनके शरीर का रंग भी पीला था। उनके द्वारा शिवजी ने सम्पूर्ण संसार में योगशास्त्र को उत्पन्न किया।

हे नारद! चौथे अवतार की कथा इस प्रकार है कि जब पीतवासा कल्प को एक दिव्यसहस्त्र वर्ष व्यतीत हो गये तथा परिव्रत नामक कल्प आया, उस समय मैंने सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा से शिवजी का ध्यान किया। तब वे काले वस्त्र, काले यज्ञोपवीत, काले मुकुट तथा काले भस्म को धारण किये हुए बालकरूप में प्रकट हुए। 

जब मैंने ध्यान धरकर उन्हें पहचाना तो यह ज्ञात हुआ कि ये अघोर अवतार हैं। उस समय मैंने उनकी स्तुति करते हुए दण्डवत् की और यह कहा-हे प्रभो! आप मुझे सृष्टि उत्पन्न करने की शक्ति प्रदान कीजिये। उस समय उन अघोर अवतार शिवजी ने मुझसे 'तथास्तु' कहकर यह उत्तर दिया-हे ब्रह्मा! हमारा यह स्वरूप कष्टों को दूर करेगा तथा हमारा मन्त्र तुम्हारे सम्पूर्ण कार्यों को सिद्ध करेगा।

इतना कहकर उन्होंने अपनी भुजा से चार शिष्य उत्पन्न किये जो स्वरूप में उन्हीं के समान थे। तब उन्होंने अघोर योग को संसार में प्रसिद्ध किया, जिसमें सब जीवों को एक जैसा कहा गया है।

हे नारद! पाँचवें अवतार की कथा इस प्रकार है कि जब विश्वरूप नामक तेईसवाँ कल्प आया, तब मैंने सृष्टि उत्पन्न करने के हेतु शिवजी का ध्यान किया। मेरी प्रार्थना पर सर्वप्रथम विश्वरूपा भवानी प्रकट हुईं। उनके समस्त वस्त्राभूषण श्वेत थे तथा उनके शरीर का रंग भी श्वेत था। फिर उसी प्रकार के वस्त्र, आभूषण एवं वर्ण से युक्त होकर भगवान् सदाशिव भी प्रकट हुए। 

उस समय मैंने ध्यान धरकर यह जाना कि इनका नाम ईशान है। मैंने उन्हें दण्डवत्-प्रणाम करने के उपरान्त यह प्रार्थना की कि आप कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे सम्पूर्ण सृष्टि की पुनः वृद्धि हो। यह सुनकर ईशानरूप शिवजी ने अपनी शक्ति विश्वरूपासहित चार पुत्रों को उत्पन्न किया। उनके शरीर का रंग तथा वस्त्र आदि भी श्वेत ही थे। 

उन चारों के नाम इस प्रकार हैं- जटी, मुण्डी, शिखण्डी तथा अर्द्धमुण्डी। ईशानरूप शिवजी ने अपने इन शिष्यों द्वारा योगशास्त्र को प्रकट किया। उस धर्म द्वारा मनुष्य आवागमन से छूटकर निर्भय हो जाते हैं। 

हे नारद! इसी प्रकार पाँचों कल्पों में शिवजी ने पाँच अवतार धारण किये। ये सभी अवतार भक्तों को आनन्द देनेवाले हैं तथा इनकी कथा सुनने से दोनों लोकों में सुख प्राप्त होता है ।

॥ शिव जी आठ अवतारों का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब मैं तुमसे शिवजी के आठ अवतारों का वर्णन करता हूँ। जिस प्रकार सूत के डोरे में मणि और रत्न पिरोये रहते हैं, उसी प्रकार यह सम्पूर्ण संसार इन आठ अवतारों में स्थित है। उनके नाम इस प्रकार हैं-शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान तथा महादेव। ये आठों अवतार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, यज्ञभूमि, सूर्व तथा चन्द्रमा में स्थित रहते हैं अर्थात् ये शर्वरूप होकर पृथ्वी का भार अपने ऊपर लिए हुए हैं और सम्पूर्ण संसार को प्रसन्नता प्रदान करते हैं। 

भवरूप होकर जल में रहते हैं और सम्पूर्ण प्राणियों के कष्टों को दूर करते हैं। रुद्र रूप होकर अग्नि में निवास करते हैं और प्रकाश द्वारा सब लोगों को आनन्द प्रदान करते हैं। उग्र रूप होकर वायु में निवास करते हैं, जिससे सब प्राणी जीवित रहते हैं। भीम रूप होकर आकाश में जाकर निवास करते हैं और सम्पूर्ण संसार को अपने में समेटे रहते हैं। 

पशुपति रूप होकर क्षेत्रज्ञ हैं, जिससे सब लोगों को सुख मिलता है। ईशान रूप होकर वे सूर्य में स्थित रहते हैं, जिससे पृथ्वी तथा आकाश सब प्रकाशित बने हैं। महादेव होकर उन्होंने चन्द्रमा में अपना निवास बनाया है और सम्पूर्ण जीवों का पालन करते हैं।

हे नारद! शिवजी के यह आठ मुख्य रूप हैं। इस प्रकार शिवजी सबमें प्रकट हैं। शिवजी का पूजन करने से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का पालन-पोषण हो जाता है। जिस प्रकार माता-पिता को अपने बालक पर प्रीति होती है, उसी प्रकार मनुष्य को चाहिए कि संसार के समस्त प्राणियों पर प्रेम रखे। ऐसा आचरण करने वाले व्यक्ति के ऊपर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। 

सब जीवों में शिवजी का ही स्वरूप जानकर, सब पर स्नेह रखना चाहिए। जो मनुष्य अपनी भलाई चाहता हो उसे उचित है कि वह शिवजी के इन आठों स्वरूपों की सेवा किया करे। इन स्वरूपों के चरित्रों की कथा सुनने तथा सुनाने से भी आनन्द की वृद्धि होती है।

इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब मैं अर्द्धनारीश्वर अवतार का वर्णन करता हूँ। जब मैंने सृष्टि को उत्पन्न करना आरम्भ किया, तो मैंने उसका पालन भी माता के समान किया, परन्तु वह किसी भी प्रकार वृद्धि को प्राप्त नहीं हुई। उस समय मैं अत्यन्त चिन्तित होकर यह विचार करने लगा कि अब मैं कहाँ जाऊँ और किसकी सहायता लूँ ? 

उस समय मुझे चिन्तित देखकर यह आकाशवाणी हुई कि हे ब्रह्मा! तुम मैथुनी सृष्टि उत्पन्न करो, वह सृष्टि वृद्धि को प्राप्त होगी। उस आकाशवाणी को सुनकर मेरे भी मन में ऐसी इच्छा हुई कि मैं ऐसी ही सृष्टि उत्पन्न करूँ। परन्तु उसमें मुझे सफलता नहीं मिली। तब मैंन यह विचार किया कि बिना शिवजी की सहायता से मेरा मनोरथ सफल न होगा। इसलिए मैंने तपस्या करनी आरम्भ की। 

मेरे उस तप से प्रसन होकर शिवजी अर्धांगीस्वरूप धारणकर मेरे पास आये। उन्हें देखकर मैंन बड़ी स्तुति की तथा अपनी अभिलाषा कह सुनायी। उस समय शिवजी ने यह कहा-हे ब्रह्मा! हम तुम्हें वरदान देते हैं कि तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। इतना कहकर उन्होंने अपने शरीर को शक्ति से अलग कर लिया, तब शिव और शक्ति के दोनों अलग-अलग रूप दिखाई दिये। 

इस चरित्र को देखकर मुझे और भी अधिक प्रसन्नता हुई। तब मैंने आकाशवाणी का वृत्तान्त सुनाते हुए शक्ति से यह प्रार्थना की आप दक्ष के घर अवतार लें और शिवजी भी अवतार लेकर आपके साथ विवाह करें। मेरी इस प्रार्थना को सुनकर शक्ति ने 'एवमस्तु' कहा; तदुपरान्त उन्होंने अपनी भौंहों के बीच से अन्य शक्तियाँ उत्पन्न कीं और शिवजी की ओर देखने लगीं। 

उस समय शिवजी ने हँसकर यह कहा कि, ब्रह्मा ने हमारी प्रसन्नता के निमित्त बहुत तप किया है, तुम इनके मनोरथ पूर्ण करो। यह सुनकर शक्ति ने मेरी अभिलाषाओं को पूर्ण किया। तदुपरान्त वे मुझे वरदान देकर अन्तर्धान हो गये। हे नारद! इस प्रकार शिवजी से वरदान पाकर मैंने मैथुनी सृष्टि को उत्पन्न किया है। इस अवतार की कथा सब प्रकार की अभिलाषाओं को पूर्ण करनेवाली है।

॥ व्यास अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! इस समय वाराह कल्प वीत रहा है। इसमें वैवस्वत नामक मनु का राज्य है। यह मेरा प्रपौत्र है। इसके कल्प के प्रत्येक द्वापरयुग में वेदव्यास का अवतार होता है। व्यासजी संसारी जीवों की बुद्धि को मन्द देखकर पुराणों का निर्माण करते हैं, जिनसे उन्हें वेद का अर्थ भली-भांति समझ में आ जाय, इतने पर भी संसारी मनुष्य मूर्ख बने रहते हैं। 

कलियुग की इस मूर्खता को देखकर ही शिवजी व्यासजी की प्रार्थना पर अवतार लेते हैं और उनके मत को प्रसिद्ध करते हैं। अब मैं तुमसे व्यासजी के चरित्र का वर्णन करता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो। 

हे नारद! पहिले द्वापर के पहिले मन्वन्तर में मैंने व्यास के रूप में अवतार लिया तथा वेद को ऋक्, यजुः, साम तथा अथर्व-इन चार विभागों में बाँटा और उनकी शाखाओं को बढ़ाया। तदुपरान्त मैंने पुराणों का निर्माण किया; क्योंकि कलियुग के कारण संसारी जीवों की बुद्धि नष्ट हो गयी थी। 

मैंने वेद की रीतियों को पुराणों में इस प्रकार कहा कि जिससे सबलोग उसे सुगमतापूर्वक समझ सकें और प्रसन्न हों। जिस प्रकार कोई वैद्य रोगी को कड़वी औषधि न देकर मीठी औषधि द्वारा रोग को दूर करने का उपाय करता है, वही कार्य मैंने भी किया। यद्यपि मैंने अनेक प्रकार के प्रयल किये, परन्तु व्यासमत प्रसिद्ध नहीं हुआ और न किसी ने पुराणों को ही पढ़ा। 

तब मैंने अत्यन्त चिन्तित होकर शिवजी का स्मरण करते हुए उनसे यह प्रार्थना की कि। हे प्रभो! द्वापर व्यतीत होकर कलियुग आ रहा है, परन्तु कोई भी आदमी पुराणों को नहीं छूता और मेरे मत को भी नहीं मानता, इसलिए आपको उचित है कि अब आप दया करके मेरी सहायता करें और मेरे मत को दृढ़ करें।

हे नारद! मेरी प्रार्थना सुनकर शिवजी ने प्रसन्न हो, कलियुग के प्रारम्भ में, एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। वह ब्राह्मण हिमालय पर्वत के एक भाग छागलागिरि में रहता था। उस समय शिवजी का नाम श्वेत रखा गया। जिस समय वे उत्पन्न हुए, उस समय सब लोग जय-जयकार करने लगे। 

आकाश से पुष्प-वर्षा होने लगी। सब लोगों ने प्रसन्न होकर शिवजी की बड़ी स्तुति की। तब शिवजी ने संसार पर दया करने के हेतु अगमयोग को प्रकट किया। उस समय श्वेत, श्वेतशिष्य, श्वेताश्व तथा श्वेतलोहित नामक उनके चार बड़े प्रसिद्ध शिष्य हुए। वे सब आश्रमधर्म को जाननेवाले, योगाभ्यासी तथा पाप- रहित थे। 

शिवजी ने उन्हें योग की क्रीड़ाएँ सिखायीं और उनके द्वारा संसार में योग को प्रकट किया। तदुपरान्त सभी संसारी जीवों ने प्रयत्नपूर्वक योग को अपनाया और वेद-पुराण के मत को स्वीकार किया। इस प्रकार शिवजी ने श्वेतरूप धारणकर व्यासरूप हो मुझको प्रसन्नता प्रदान की।

हे नारद! दूसरे सत्य नामक द्वापर युग में प्रजापति ने व्यासजी का अवतार लिया और वेद के भाग किये। तदुपरान्त उन्होंने पुराणों की भी रचना की, लेकिन संसार में किसी ने भी उनके मत को स्वीकार न किया। उस समय उन्होंने दुःखी होकर शिवजी का ध्यान किया तब शिवजी ने सुतार नाम से पृथ्वी पर अवतार लिया और व्यासजी के मत को प्रसिद्ध कर योगशास्त्र का प्रचार किया। उनके दुन्दुभि, सत्यरूप, ऋचीक तथा केतुमान् नामक चार शिष्य थे। इस प्रकार उन्होंने अपने शिष्यों सहित व्यासजी के धर्म की स्थापनाकर, सभी संसारी जीवों को आनन्द पहुँचाया।

हे नारद! तीसरे द्वापर युग में शुक्र ने व्यासजी का अवतार लिया और वेदों के विभाग कर पुराणों का निर्माण किया। जब उन्हें भी सिद्धि प्राप्त न हुई, तब शिवजी ने उनकी प्रार्थना पर दमन नामक अवतार लिया और व्यासजी के मत को संसार में प्रसिद्ध किया। 

उनके विशोक, विकेश, व्यास तथा सुप्रकाश नामक चार शिष्य थे। उन शिव के दमन अवतार ने योगाभ्यास की रीतियों को अपने शिष्यों द्वारा संसार में प्रचलित कराया तथा पुराणों के मत को स्थिर कर के लोगों को मुक्ति का मार्ग दिखाया।

हे नारद! चौथे द्वापर युग में बृहस्पति ने व्यासजी का अवतार लेकर वेद के विभाग किए तथा पुराणों को प्रसिद्ध किया। परन्तु कलियुग के कारण उनकी अभिलाषा पूरी नहीं हुई। तब उन्होंने शिवजी का स्मरण एवं ध्यान किया जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने सुहोत्र नाम से पृथ्वी पर अवतार लिया और व्यासजी के मनोरथों को पूरा किया। 

उस समय उनके सुमुख, दुर्मुख, दुर्मद तथा दुरतिक्रम नामक चार शिष्य हुए। उन्होंने अपने शिष्यों को योगाभ्यास की शिक्षा दी और उनके द्वारा व्यासजी के मत को संसार में प्रसिद्ध कराया।

हे नारद! पाँचवें द्वापरयुग में सविता देवता ने व्यासजी का अवतार लिया और वेद के विभाग करके, पुराणों का निर्माण किया। जब उनका मत प्रसिद्ध नहीं हुआ, तब शिवजी ने उनकी प्रार्थना पर कनक नाम से पृथ्वी पर अवतार लिया। 

उस समय सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत्कुमार नामक उनके चार शिष्य थे। इन शिष्यों को प्रभु, विभु, निर्मम तथा निरहंकृति भी कहा जाता है। इन शिष्यों को योगाभ्यास का उपदेश करके शिवजी ने व्यासमत का प्रचार किया तथा संसार में पुराणों की प्रतिष्ठा बढ़ायी।

हे नारद! छठे द्वापर युग में मनु ने व्यास का अवतार लिया तथा उन्होंने अपना नाम महत् रखा। उन्होंने अन्य व्यासों की अपेक्षा और अधिक श्रेष्ठ पुराणों का निर्माण किया। परन्तु जब उनके मत को कलियुग के संसारी जीवों ने स्वीकार नहीं किया, तब उन्हें भी शिवजी की सहायता लेने के लिए बाध्य होना पड़ा। उस समय शिवजी ने लोकाक्ष नाम से पृथ्वी पर अवतार लिया। 

उनके शिष्यों के नाम सुधामा, विरुज, शंख तथा अम्बुज थे। उन्होंने योगशास्त्र को प्रसिद्ध कर, अपने शिष्यों द्वारा व्यासजी ने पौराणिक मत का प्रचार किया और लोगों को मुक्ति का सरल मार्ग दिखाया।

हे नारद! सातवें द्वापर युग में शतक्रतु ने व्यास का अवतार लिया तथा वेद के विभाग करके पुराणों को बनाया। किन्तु, किसी ने भी उनके मत को स्वीकार नहीं किया। यह देखकर व्यासजी ने भगवान् सदाशिवजी का स्मरण किया। तब शिवजी जैगीषव्य नाम धारणकर पृथ्वी पर अवतरित हुए। उनके शिष्यों के नाम सारस्वत, पराहन, मेघनाद तथा सुवाहन थे। 

अपने उन शिष्यों के साथ जैगीषव्य अवतार ने योगशास्त्र को प्रकट किया तथा संसार में पुराण का धर्म प्रतिष्ठित किया। जैगीषव्य के समान व्रत का पालन करनेवाला कोई नहीं हुआ। जिस समय शिवजी काशीपुरी को त्यागकर मन्दराचल पर्वत पर चले गये थे, उस समय जैगीषव्य ने यह प्रण किया था कि जब तक शिवजी पुनः यहाँ लौटकर नहीं आजायेंगे, तब तक मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा। अपने इस प्रण का निर्वाह भी उन्होंने पूरा किया। जैगीषव्य का चरित्र पढ़ने और सुनने में अत्यन्त आनन्द प्रदान करनेवाला है ।

॥ ब्रह्मा द्वारा राजा दिवोदास की वर प्राप्ति का वर्णन ॥

इतनी कथा सुनकर नारदजी ने कहा-हे पिता! शिवजी के काशी छोड़ने का क्या कारण था? यह सुनकर ब्रह्माजी ने आदि से अन्त तक की सब कथा नारदजी को कह सुनायी। जिस प्रकार काशी में अकाल पड़ा तथा राजा दिवोदास ने वर प्राप्त किया, उसके पश्चात् गणपति की कथा तथा विष्णुजी का चरित्र सुनाया। जिस प्रकार विष्णुजी ने बौद्धमत का प्रचारकर सबको धर्मभ्रष्ट किया तथा राजा दिवोदास ने विष्णुजी की आज्ञा का पालनकर, काशी छोड़ गोमती तट पर निवास किया, वह सब कथा भी सुनायी। 

इसके उपरान्त ब्रह्माजी ने वह वृत्तान्त कहा, जिस प्रकार कि शिवजी के गण राजा दिवोदास को शिवलोक ले गये थे। विष्णुजी का गरुड़जी द्वारा शिवजी के पास सन्देश भेजना तथा शिवजी के काशी-आगमन की कथा को कहकर, उस चरित्र का वर्णन किया जिस प्रकार कि शिवजी रश्च पर आरूढ़ हुए थे तथा उन्होंने गुहा में जाकर जैगीषव्य को दर्शन दिया था। 

इसके उपरान्त ज्येष्ठेश्वर शिवलिंग की स्थापना, ज्येष्ठादेवी का प्रकट होना, हिमाचल का काशी में आकर शिवालय का निर्माण कराना तथा शिवजी के काशी में निवास करने की कथा को आदि से अन्त तक कह सुनाया। ब्रह्माजी द्वारा इस सब वृत्तान्त को सुनकर नारदजी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई।

॥ शिवजी के अट्ठाईस अवतारों का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब मैं शिवजी के अट्ठाईसों अवतारों का वर्णन करता हूँ। सात अवतारों के विषय में तो मैं तुम्हें बता ही चुका हूँ। आठवें अवतार की कथा इस प्रकार है कि जब आठवाँ द्वापर युग आया तब उसमें वशिष्ठ मुनि ने व्यासजी का अवतार लेकर, वेद के चार विभाग किये तथा पुराणों का निर्माण किया। जब उनका प्रचार नहीं हुआ तब उन्होंने शिवजी की प्रार्थना की। 

उस समय शिवजी ने दधि-वाहन नामक अवतार लेकर व्यासमत को प्रकट किया। दधि-वाहन के कपिल, आसुरि, पंचशिव तथा शाल्वल नामक चार शिष्य थे। उन्होंने अपने इन शिष्यों द्वारा व्यासमत को प्रसिद्ध किया तथा योगाभ्यास को फैलाया।

हे नारद! नवें द्वापरयुग में सारस्वत मुनि ने व्यासजी का अवतार लिया तथा वेद के विभाग कर, पुराणों को बनाया। जब उन्हें अपने मत का प्रचार करने में सफलता प्राप्त न हुई, तब उन्होंने शिवजी का ध्यान किया, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने ऋषभ नाम से पृथ्वी पर अवतार लिया। 

उस समय उनके पाराशर, गर्ग, भार्गव तथा आंगिरस नामक चार शिष्य थे। उन्होंने योगाभ्यास द्वारा व्यासजी के मत का प्रचार किया तथा निवृत्ति धर्म का उपदेश करके संसार का कल्याण किया। ऋषभजी के चरित्र अत्यन्त पवित्र तथा प्रसिद्ध हैं। जो मनुष्य उन चरित्रों को पढ़ता एवं सुनता है, वह स्वयं भी शिवरूप हो जाता है। 

उन्होंने भद्रायुष को महान् सुख प्रदान किया था तथा केवल एक दिन की सेवा से प्रसन्न होकर ही मुद्र नामक ब्राह्मण तथा कंकाली को मुक्त कर दिया था। 

हे नारद! दसवें द्वापरयुग में त्रिधारा ने व्यासजी का अवतार लिया और वेद को चार विभागों में विभाजित कर, पुराणों का निर्माण किया। जब उनके मत का प्रचार नहीं हुआ, तब उन्होंने शिवजी की उपासना की। उस समय शिवजी ने हिमाचल पर्वत के भृगुश्रृंग नामक एक भाग में भृगु नाम से अवतार लिया। उनके निरमित्र, जगत्बोधन, गुप्तश्रृंग तथा तपोधन नामक चार शिष्य हुए। उन्होंने अपने शिष्यों की सहायता से व्यासजी के मत का प्रचार किया तथा संसार में पुराणों की प्रतिष्ठा को बढ़ाया।

हे नारद! ग्यारहवें द्वापरयुग में त्रिवृत्त ने व्यासजी का जन्म लिया और वेद के विभाग करके, पुराणों का निर्माण किया। तुदपरान्त उन्होंने शिवजी का ध्यान धरकर यह वरदान माँगा कि संसार में मेरे मत का प्रचार करने के लिए आप अवतार ग्रहण करें। उनकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर शिवजी ने गंगाजी के द्वारा तप नामक अवतार लिया। 

उनके लम्बोदार, लम्बाक्ष, लम्बकेश तथा प्रलम्ब नामक चार शिष्य हुए। तब उन्होंने अपने शिष्यों के द्वारा व्यासजी के मत को स्थापित किया एवं संसार में योगाभ्यास का प्रचार किया ।

हे नारद! बारहवें द्वापरयुग में भारद्वाज ने व्यासजी का अवतार लिया और वेदों के विभाग करके पुराणों का निर्माण किया। जब उन्हें अपने मत को फैलाने में सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने शिवजी का ध्यान किया। शिवजी ने प्रसन्न होकर अत्रि नाम से पृथ्वी पर अवतार लिया और हेमकिंचक में विराजमान हुए। उनके सरोज, सम्बुद्धि, साधु तथा शर्व नामक चार शिष्य थे। उन्होंने व्यासजी के मत को प्रसिद्ध करके संसार में योगाभ्यास को फैलाया तथा पुराणों के मत का प्रचार किया।

हे नारद! तेरहवें द्वापरयुग में धर्म ने व्यासजी का अवतार लिया और वेद के विभाग करके पुराण बनाये । जब उनको अपना मत फैलाने में सफलता प्राप्त नहीं हुई तो उन्होंने शिवजी का ध्यान किया, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने गन्धमादन पर्वत पर बालखिल्य के आश्रम में बालि नाम से अवतार लिया। उनके सुधामा, कश्यप, वशिष्ठ तथा विरजी नामक चार शिष्य हुए। इन शिष्यों के द्वारा उन्होंने व्यासजी के मत का प्रचार किया। 

हे नारद! चौदहवें द्वापरयुग में रक्ष ने जिन्हें बभ्रु भी कहा जाता है, व्यासजी का अवतार लिया और वेद के विभाग करके पुराणों को बनाया। जब उनके मत को किसी ने स्वीकार नहीं किया तो उन्होंने शिवजी की प्रार्थना करते हुए सहायता माँगी। उस समय शिवजी ने अंगिरस के कुल में गौतम नाम से जन्म लिया । उनके अत्रि, देवसत्व, अबल तथा सहिष्णु नामक चार शिष्य हुए। उनके द्वारा शिवजी ने व्यासमत का प्रचार किया और संसार में पुराणों का सम्मान बढ़ाया।

हे नारद! पन्द्रहवें द्वापर युग में त्रव्यारुणि ने वेदव्यास का अवतार लिया और वेद के चार भाग करके पुराणों को प्रकट किया। जब उनके मत का प्रचार नहीं हुआ, तब उन्होंने शिवजी से सहायता माँगी। उस समय भगवान् शिवशंकर ने हिमालय पर्वत के पीछे तथा गंगा के तट पर वेदस्वर नाम से पृथ्वी पर अवतार लिया उनके गुण, गुणवाह, कुशरीर तथा कुनेत्र नामक चार शिष्य हुए। तब उन्होंने अपने शिष्यों की सहायता से व्यासजी के मत को स्थापित किया और योगाभ्यास का उपदेश करके पुराणों के मत का प्रचार किया।

हे नारद! सोलहवें द्वापरयुग में धनंजय ने व्यासजी का जन्म लिया तथा वेद के विभाग करके पुराणों को बनाया। जब उनके मत की वृद्धि नहीं हुई, तब उन्होंने भी शिवजी का ध्यान धरकर सहायता माँगी। उस समय शिवजी ने गोकर्ण नामक वन में, जो बाद में अघहरक्षेत्र नाम से पुकारा जाने लगा, गोकर्ण नामक अवतार ग्रहण किया। उनकी सेवा करने से सम्पूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं। उस समय उनके कश्यप, उशना, च्यवन तथा ब्रह्मपति नामक चार शिष्य थे। उन्होंने अपने शिष्यों को योगाभ्यास का उपदेश किया। तदुपरान्त उनके द्वारा संसार में व्यास के मत को फैलाया।

हे नारद! सत्रहवें द्वापरयुग में कृतंजय ने व्यासजी का जन्म लिया और वेद के चार विभाग करके पुराणों को प्रकट किया। जब उन्हें अपने मत के प्रचार में सफलता नहीं मिली, तब उन्होंने शिवजी की प्रार्थना करके यह कहा-हे प्रभो! आप अवतार लेकर मेरी सहायता कीजिए। तब उनकी प्रार्थना को सुनकर शिवजी ने हिमालय पर्वत के शिखर पर महालय नामक अवतार लिया। उन्हें गुहावासी कहकर भी पुकारा जाता है। उनके, उतथ्य, वामदेव, महायोग तथा महाबल नामक चार शिष्य हुए। तब उन्होंने अपने शिष्यों को योगाभ्यास का उपदेश कर, उनके द्वारा संसार में व्यासजी के मत का प्रचार कराया।

॥ व्यास द्वारा वेद के विभाग कर, पुराणों की रचना का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अठारहवें द्वापरयुग में ऋतंजय ने व्यासजी का जन्म लिया और वेद के विभागकर पुराणों को प्रकट किया। उस समय शिवजी ने हिमालय के शिखंड नामक एक शिखर पर, जिसे सिद्धक्षेत्र भी कहा जाता है, अवतार लिया। उस समय उनका नाम शिखण्डी था। उनके वाचश्रव, ऋचीक, शावास्य तथा रजनीश्वर नामक चार शिष्य हुए। तब उन्होंने अपने शिष्यों को योगाभ्यास का उपदेश करके व्यासजी के मत का प्रचार कराया तथा संसार में पुराणों की महिमा बढ़ायी ।

हे नारद! उन्नीसवें द्वापरयुग में भरद्वाज ने व्यासजी का जन्म लिया और वेद के चार विभाग कर, पुराणों को प्रकट किया। उस समय शिवजी ने हिमालय पर्वत पर जटामाली नामक अवतार लिया तथा अपने चार शिष्यों के द्वारा व्यासजी के मनोरथ को पूर्ण किया। उस समय उनके शिष्यों के नाम-रण्य, कौशल्य, लोकाक्षी तथा युध्म थे। शिवजी ने उन्हें योगाभ्यास का उपदेश करके, संसार में पुराणों के मत को स्थापित किया।

हे नारद! बीसवें द्वापरयुग में गौतम ने व्यासजी का जन्म लिया तथा वेद के विभाग करके पुराणों को बनाया। उस समय शिवजी ने हिमालय पर्वत के पीछे अट्टहास नामक स्थान पर इसी अर्थात् अट्टहास नाम से ही अवतार ग्रहण किया। उनके शिष्यों के नाम श्रीमन्त, बर्बरी, बुद्धि, ऋग्बन्धु तथा किष्किन्धरा थे। उन्होंने अपने इन शिष्यों की सहायता से पौराणिक मत का प्रचार किया तथा व्यासजी की मनोकामना पूर्ण की।

हे नारद! इक्कीसवें द्वापरयुग में व्यासजी ने वेद के विभाग कर पुराणों को बनाया । तदुपरान्त शिवजी का स्मरणकर, उनसे अपने मत का प्रचार करने के लिए सहायता की माँग की। उस समय शिवजी ने दारुक नामक अवतार लेकर व्यासजी का मनोरथ सिद्ध किया। जिस वन में उनका जन्म हुआ था, वह वन संसार में दारुकवन के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। उनके प्लक्ष, दाल्यायन, केतुभानु तथा गौतम नामक चार शिष्य हुए। उनकी सहायता से शिवजी ने संसार में व्यास के मत का प्रचार किया।

हे नारद! बाईसवें द्वापरयुग में शुष्मालय मुनि ने व्यासजी का जन्म लिया और शिवजी का ध्यान धारकर, वेद के चार भाग किये तथा पुराणों की रचना की। परन्तु जब उन्हें अपने कार्य में सफलता नहीं मिली तथा भगवान आशुतोष से सहायता की याचना की, उस समय शिवजी ने लांगली नाम से काशी में अवतार लिया। उनके भल्लनि, मधुपुंग, श्वेत तथा गुप्तकान्त नामक चार शिष्य हुए तथा उन्होंने इन शिष्यों की सहायता से संसार में व्यासजी के मत को प्रसिद्ध किया।

हे नारद! तेईसवें द्वापरयुग में तृणविन्दु ने व्यासजी का जन्म लिया और उन्होंने वेद के विभाग करके पुराणों की रचना की। अपने मत को सिद्ध होते न देखकर, जब उन्होंने शिवजी से सहायता माँगी तो शिवजी ने कालिञ्ज नामक पर्वत पर महाकाय सुतश्वेत नामक अवतार लिया। उस समय उनके शिष्यों के नाम औषधि, वृहदक्ष, देवल तथा कव्य थे। शिवजी ने इन शिष्यों की सहायता से व्यासजी के मत को प्रसिद्ध किया।

हे नारद! चौबीसवें द्वापरयुग में कुक्षि, जिन्हें वाल्मीकि भी कहा जाता है, ने व्यासजी का जन्म लिया। उन्होंने वेद के विभाग करके पुराणों को प्रकट किया। जब उन्हें अपने मत को फैलाने में सफलता नहीं मिली तो उन्होंने शिवजी की स्तुति करते हुए उनसे सहायता की याचना की। उस समय शिवजी ने नैमिष नामक वन में शूली नामक अवतार ग्रहण किया और व्यासजी की मनोकामना को पूर्ण किया। उनके शिष्यों के नाम शालिहोत्र सहजहोत्र, युवनाश्व तथा अहिर्बुध्न थे। इन्हीं व्यासजी ने श्रीरामचन्द्रजी के लीला-चरित्रों का भी वर्णन किया है।

हे नारद! पच्चीसवें द्वापरयुग में ब्रह्मसप्त ने व्यासजी का जन्म लिया और शिवजी का तप करके, उनसे अपने मत का प्रचार करने में सहायता करने की प्रार्थना की। उन्होंने वेद के विभाग करके पुराणों को बनाया था, परन्तु जब उनके मत को संसारी लोगों ने स्वीकार नहीं किया, तो वे अत्यन्त निराश हुए। उस समय शिवजी ने दण्डीमुण्डी नामक अवतार ग्रहण किया। उनके शिष्यों के नाम बहुल, कुण्डकर्ण, कुम्भाण्ड तथा प्रभात थे। इन्हीं की सहायता से उन्होंने संसार में पुराणों की प्रतिष्ठा करायी तथा संसारी मनुष्यों को योगमार्ग का उपदेश दिया। इन पच्चीसवें व्यासजी के पुत्र का ही नाम उपमन्यु था । उसने बाल्यावस्था से ही शिवजी की बड़ी भक्ति की थी।

हे नारद! छब्बीसवें द्वापरयुग में पाराशर ने व्यासजी का जन्म लिया। वे मेरे पौत्र तथा वैशम्पायन के पिता थे। उनके समान शिवजी का परमभक्त अन्य कोई नहीं हुआ। उन्होंने वेद के चार विभाग करके, अठारह पुराणों का निर्माण किया। जब उनके मत का प्रचार संसार में नहीं हुआ, तब उन्होंने भगवान् सदाशिव से सहायता की याचना की। उस समय शिवजी ने दयालु होकर उनकी मनोकामना पूर्ण करने के हेतु सहिष्णु नाम से अवतार लिया और भद्रनाट नामक नगर में प्रतिष्ठित हुए। उनके शिष्यों के नाम उलूक, विद्युत, सम्बल तथा अश्वलायन थे। इन सब शिष्यों ने शिवजी की आज्ञा से व्यासजी की सहायता की और उनके मत को संसार में प्रचलित किया।

हे नारद! सत्ताईसवें द्वापरयुग में ज्ञानकर्ण ने व्यासजी का जन्म लिया तथा वेद के विभाग करके पुराणों की रचना की। फिर अपने मत को प्रचलित होते हुए न देखकर उन्होंने शिवजी की स्तुति की। उस समय शिवजी ने प्रभासक्षेत्र में सौम्यकर्म नाम से अवतार लिया। उनके शिष्यों के नाम अक्षपाद, सुमुनिकुमार, उलूक तथा वत्स थे। सौम्यकर्मरूपी शिवजी के अवतार ने योगशास्त्र को प्रकटकर, पुराण के मत को प्रचलित किया तथा अद्वैत धर्म को दृढ़ किया।

जब व्यासजी ने यह देखा कि अब कोई भी मनुष्य उसके मत का विरोधी नहीं है तो उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर शिवजी की स्तुति की। तदुपरान्त संसारभर में व्यासजी और उनके शिष्यों का यश फैल गया। 

हे नारद! इस प्रकार द्वापरयुग में जो शिवजी के सत्ताईस अवतार हुए, उसका वर्णन मैंने तुमसे किया। अब तुम उस अवतार के बारे में सुनो, जिसे शिवजी ने कलियुग के प्रारम्भ में लिया था। हे पुत्र! शिवजी के इन अवतारों की कथाओं को जो मनुष्य मन लगाकर सुनता अथवा दूसरों को सुनाता है, वह दोनों लोकों में सब प्रकार का आनन्द प्राप्त करता है।

॥ अट्ठाईसवें द्वापर युग में विष्णु जी द्वारा व्यास अवतार लेने का वृत्तान्त ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अट्ठाईसवें द्वापरयुग में देवताओं द्वारा प्रार्थना किये जाने पर विष्णुजी ने व्यास का अवतार लिया तथा वेद के विभागकर, पुराणों को प्रकट किया। परन्तु जब उनका मत प्रसिद्ध न हुआ, तब उन्होंने शिवजी की स्तुति करते हुए यह माँग की कि 'हे महादेव ! आप मुझे इस कार्य में सहायता प्रदान करें तथा मेरे मत का प्रचार सहायक हों। उस समय शिवजी ने व्यासजी की प्रार्थना पर अवतार लिया और उनके मत का प्रचार करने में सहायक बने।

इस वृत्तान्त को सुनकर नारदजी बोले-हे पिता! मेरी यह इच्छा है कि आप इस कथा को विस्तारपूर्वक सुनायें। ब्रह्माजी बोले-अच्छा, मैं इसे विस्तारपूर्वक कहता हूँ। इस वृत्तान्त में शिवजी एवं विष्णुजी के लीला चरित्रों का वर्णन है। 

हे नारद! पूर्वकाल में जब देवासुर-संग्राम हुआ था, उस समय बहुत से दैत्य मारे गये थे। अवसर पाकर वे सब दैत्य पुनः पृथ्वी पर उत्पन्न हुए और कुसंगति में पड़कर कुमार्ग पर चलने लगे। वे विपरीत बातें करते हुए अपने अहंकार में भरकर अनेक प्रकार के कुकर्म करने लगे। वे इस प्रकार इन्द्रियों के वशीभूत हुए कि उनमें भी परस्पर शत्रुता फैल गयी।

उस समय देवताओं ने संसार में अनाचार बढ़ता हुआ देखकर विष्णुजी की सेवा में पहुँच, अपने दुःख का वर्णन किया तथा उनसे वह कष्ट दूर करने की प्रार्थना की। उस समय भगवान् विष्णुजी ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए पाराशर के पुत्र के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया। संसार में वे कृष्णद्वैपायन के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी माता का नाम सत्यवती था।

हे नारद! उन कृष्णद्वैपायन, व्यासरूप विष्णुजी ने वेद के चार विभाग करके उनकी शाखाओं को फैलाया तथा पुराणों का निर्माण किया; संसार में उनका प्रचार किसी भी प्रकार न हो सका। यह देखकर व्यासजी सब देवताओं तथा ऋषि-मुनियों सहित कमलापति विष्णुजी की शरण में गये और उनसे प्रार्थना करते हुए कहने लगे-हे प्रभो! मेरे पुराणों का संसार में कुछ भी आदर नहीं हो रहा है, आप मेरे मत का प्रचार करने में सहायक हों। 

उस समय विष्णुजी ने उन्हें सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा-हे व्यासजी तथा ऋषि-मुनियो! तुम निश्चिन्त होकर अपने घर जाओ। हम पृथ्वी पर कृष्णरूप में अवतार लेकर, तुम्हारे दुःख को दूर करेंगे। भगवान् विष्णुजी के ऐसे वचन सुनकर सबलोग अपने-अपने घर लौट आये। तदुपरान्त विष्णुजी ने यदुवंशी वसुदेव के घर कृष्णरूप में अवतार लिया। उनका स्मरण करने मात्र से ही मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं।

हे नारद! वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ से शेषजी ने बलभद्र के रूप में अवतार लिया। सब देवता तथा मुनि आदि उन बलभद्रजी की सेवा करते हैं। श्रीकृष्णजी ने ब्रज में पहुँचकर जो चरित्र किये, तुम उन्हें सुनो। उन्होंने यशोदा तथा नन्द को अपनी बाल लीलाओं द्वारा अत्यन्त प्रसन्नता प्रदान की तथा गोपियों को भी बहुत मोहित किया। पूतना आदि को, जिन्हें कंस ने भेजा था, श्रीकृष्णजी ने मार डाला। बड़े-बड़े योगियों को अपनी तपस्या द्वारा जो फल प्राप्त नहीं होता, उसे ब्रजवासियों ने सहज ही पा लिया।

हे नारद! जब श्रीकृष्णजी बारह वर्ष के हुए, तब वे बलभद्रजी के साथ मथुरा चले आये। वहाँ उन्होंने कंस को, उसके सभी साथियों सहित मारकर नष्ट कर दिया तथा युदवशियों को बहुत सुख पहुँचाया। उन्होंने अनेक दैत्यों तथा शत्रुओं को मारकर, अपने भक्तों की प्राण-रक्षा की तथा जरासन्ध के बल एवं अहंकार का नाश किया।

श्रीकृष्णजी के वंश की संख्या का वर्णन नहीं किया जा सकता। उनकी सोलहसहस्त्र, एक सौ आठ रानियाँ थीं। उनसे दस-दस पुत्र उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार श्रीकृष्णजी ने गृहस्थाश्रम के महत्त्व का प्रतिपादन किया था। जब वे छोटे थे, तब उन्होंने अपनी कनिष्ठिका उँगली पर गोवर्द्धन पर्वत को उठा लिया था । 

हे नारद! महाभारत के युद्ध में उन्होंने अनेक प्रकार से पृथ्वी का भार उतारा। जब उन्होंने यदुवंशियों में अभिमान बढ़ता हुआ देखा, तब ब्राह्मण से शाप दिलवाकर उन्हें भी नष्ट करा दिया। इस प्रकार अपने लोक में जाने से पूर्व वे अपने कुल का नाश करा गये। उन्होंने अपने मित्र उद्धव को अद्वैत ज्ञान का उपदेश किया तथा उन्हें बदरीवन में भेजकर मुक्त कर दिया। जिस व्याध ने उनके पाँव में बाण मारा था, उसको निर्वाण पद दिया तथा अपने सारथी दारुक को मुक्ति देकर वे अपने लोक चले गए। 

हे नारद! श्रीकृष्णजी का चरित्र हमने तुम्हें संक्षेप में सुनाया है। इसके सुनने तथा सुनाने से मुक्ति प्राप्त होती है ।

हे नारद! इस प्रकार श्रीकृष्णजी ने पृथ्वी पर धर्म को फिर स्थित किया,परन्तु उससे व्यासजी को विशेष प्रसन्नता न हुई; क्योंकि संसार में उनका निवृत्तिमार्ग प्रसिद्ध नहीं हुआ था। अतः उन्हें दिन-रात यही सोच बना रहता था कि किसी प्रकार हमारा मत संसार में फैले। अपनी मनोभिलाषा की पूर्ति के हेतु एक दिन उन्होंने भगवान् सदाशिव का ध्यान किया तथा उनसे यह प्रार्थना की कि हे कृपासिन्धो! मैंने वेद के आशय को पुराणों में प्रकट किया है, कलियुग के प्रभाव के कारण उन्हें कोई नहीं मानता। मेरी यह प्रार्थना है कि अब आप स्वयं अवतार लेकर, मेरे मत की वृद्धि करें तथा निवृत्तिमार्ग को दृढ़ बनायें।

हे नारद! व्यासजी की यह प्रार्थना सुनकर शिवजी ने ब्रह्मचारी का स्वरूप धारण किया। तदुपरान्त उन्होंने अपनी योगमाया द्वारा सम्पूर्ण संसार को मोहित कर लिया। फिर वे उसी शरीर से श्मशान में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने यह देखा कि एक मुर्दा पड़ा हुआ है, तो वे योगमाया द्वारा उसके शव में प्रवेश कर गये और पर्वत की कन्दरा में जाकर स्थित हुए। 

जब मुझे तथा विष्णुजी को यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ, तब हम दोनों उनकी सेवा में जा पहुँचे और उनके प्रकार से उनकी स्तुति करने लगे। भगवान् सदाशिव के उस अवतार का नाम लाकुलीश था। जिस स्थान पर शिवजी विराजमान हुए थे, उसे सिद्धक्षेत्र अथवा कायाचत्वर कहते हैं। लाकुलीश शिवने उशिक, गर्ग, मित्र तथा रुन्ध नामक अपने चार शिष्य बनाये और उनके द्वारा संसार में व्यासजी के मत को प्रकट किया। उस समय सबलोगों का दुःख नष्ट हो गया तथा तीनों लोकों में आनन्द की वृद्धि हुई।

हे नारद! अब मैं तुम्हें इस सब वृत्तान्त का सार सुनाता हूँ, जिससे तुम्हें यह ज्ञात हो जायगा कि व्यासजी का अवतार किस प्रकार होता है? प्रत्येक द्वापर के अन्त में विष्णुजी स्वयं अवतार लेकर, वेद के विभाग करते हैं तथा प्रत्येक कलियुग के आदि में शिवजी अवतार लेकर उनके मत की स्थापना करते हैं। विष्णुजी प्रत्येक युग में चार शिष्यों द्वारा वेद, योग तथा आश्रमों को प्रकट करते हैं और शिवलिंग का पूजन करके भस्म धारण करते हैं। 

हे पुत्र! हमने यह कथा विष्णुजी से सुनी थी। दधिवाहन अवतार से लेकर लाकुलीश अवतार तक शिवजी के अट्ठाईस अवतार हैं तथा उनके कुल अवतारों की संख्या बयालीस है। जो प्राणी इस कथा को सुनता अथवा पढ़ता है, वह भी मुक्ति को प्राप्त हो जाता है।

॥ नन्दिकेश्वर अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब मैं तुमसे नन्दिकेश्वर अवतार का वृत्तान्त कहता हूँ। शिलाद नामक मुनि शिवजी के परम भक्त थे। शिवजी की कृपा से वे महाधनी तथा ऐश्वर्यवान् हुए, उनके कोई पुत्र नहीं था; इसलिए उन्होंने इन्द्र की अत्यन्त कठिन उपासना की। उनकी साध ना से प्रसन्न होकर इन्द्र ने उनके पास जाकर कहा-हे शिलाद! हम तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हैं, तुम वर माँगो। 

यह सुनकर शिलाद मुनि ने प्रणाम करने के उपरान्त हाथ जोड़कर कहा-हे देवराज! आप मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिए जो माता के गर्भ से उत्पन्न न हो तथा सदैव अमर बना रहे। उस समय इन्द्र ने कहा-हे शिलाद! हम ऐसा पुत्र नहीं दे सकते; हम तो तुम्हें केवल ऐसा पुत्र दे सकते हैं जो माता के गर्भ से उत्पन्न हो और जिसकी समय पाकर मृत्यु हो जाय।

हे नारद! इन्द्र के इन वचनों को सुनकर अपने हठ पर दृढ़ रहते हुए मुनि ने उत्तर दिया कि मुझे तो ऐसे ही पुत्र की आवश्यकता है, यदि आप दे सकते हों तो दें, अन्यथा रहने दें। तब इन्द्र उनसे यह कहकर अपने लोक को चले गये कि ऐसा पुत्र तुम्हें शिवजी द्वारा ही प्राप्त हो सकता है, क्योंकि उन्होंने काल को जीत लिया है और वे स्वयं मृत्यु के वश में नहीं हैं। 

इतना कहकर जब इन्द्र चले गये तब शिलाद मुनि शिवजी का ध्यान धरकर तपस्या करने लगे। वे निरन्तर एक दिव्य सहस्त्र वर्षों तक उग्र तपस्या करते रहे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी अत्यन्त सुन्दर स्वरूप धारणकर, उनके पास पहुँचे। जैसे ही शिवजी ने उनके शरीर से अपने हाथ का स्पर्श कराया, वैसे ही वे पुनः पूर्व की भाँति हृष्ट-पुष्ट हो गये। 

तदुपरान्त शिवजी ने उनसे पूछा-हे शिलाद! तुम क्या चाहते हो ? तुम जो माँगोगे हम वही देंगे। यह सुनकर शिलाद ने बहुत स्तुति एवं प्रार्थना करते हुए कहा-हे प्रभु! मैं एक ऐसा पुत्र चाहता हूँ, जो माता के गर्भ के बिना उत्पन्न हो और कभी भी मृत्यु को प्राप्त न हो।

हे नारद! शिलाद के ऐसे वचन सुनकर शिवजी ने कहा-हे शिलाद! संसार में उत्पन्न होनेवाला कोई भी जीव ऐसा नहीं है, जो मृत्यु के हाथ से बाकी बच रहे। केवल हमीं मृत्युञ्जय तथा बिना माता के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए अब हम स्वयं ही तुम्हारे पुत्र होंगे। उस समय, हमारा नाम नन्दी होगा। ब्रह्मा ने भी हमारे पृथ्वी पर अवतार से के लिए पहिले तपस्या की थी। 

तब हमने उन्हें यह वर दिया था कि समय हम पृथ्वी पर जन्म लेंगे। इस प्रकार हमारे अवतार लेने पर ब्रह्मा की इच्छा भी पूर्ण हो जायगी और तुम्हारी अभिलाषा भी तृत होगी। अब तक हम संसार के पिता थे, परन्तु अब तुम हमारे पिता होओगे। इतना कहकर शिवजी अन्तर्धान हो गये। उस समय शिलाद अत्यन्त प्रसन्न हो, अपने घर लौट आये। कुछ समय पश्चात् शिलाद ने सब सामग्री एकत्र कर, एक यज्ञ किया। 

उसी यज्ञकुण्ड के बीच से प्रलयकाल की अग्नि के समान देदीप्यमान् शिवजी की उत्पत्ति हुई। उनका स्वरूप ऐसा था कि उसे देखने से तीनों लोक मोहित हो जाते थे। उनके हाथों में शूल, शंख, गदा और असि तथा कानों में कुण्डल विराजमान थे। वे देखने में बालक के समान प्रतीत होते थे। उस समय आकाश में पुष्प-वर्षा होने लगी, किन्नर आदि नृत्य गायन करने लगे, देवता स्तुति करने में संलग्न हुए। उस समय सबने यह पहचाना कि भगवान् सदाशिव का अवतार हुआ है।

 ॥ शिलदि मुनि के यहाँ नन्दी के जन्म का वृत्तान्त ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! उस बालक को देखकर शिलाद मुनि ने कहा-हे बालक! तुमने उत्पन्न होकर मुझे अत्यन्त आनन्द प्रदान किया है, अतः तुम्हारा नाम नन्दी होगा। तुम साक्षात् शिव के स्वरूप हो, मैं तुम से अपनी भक्ति माँगता हूँ। इतना कहकर शिलाद मुनि ने उनकी बहुत स्तुति की। तदुपरान्त जब सब देवता विदा होकर अपने घर चले गए, तब शिलाद मुनि भी नन्दी को साथ ले यज्ञ स्थल से उठकर अपने निवास-स्थान को चल दिये। उसी बीच नन्दी ने यह चरित्र किया कि उन्होंने अपनी पहली देह को छोड़कर मनुष्य का शरीर धारण कर लिया।

हे नारद! शिलाद मुनि के घर आकर नन्दी बालकों के समान क्रीड़ा करने लगे। जब उनकी अवस्था दस वर्ष की हुई, तब एक दिन शिवजी की आज्ञा से मित्रा तथा वरुण नामक दो मुनि शिलाद के समीप पहुँचकर यह कहने लगे-हे शिलाद मुनि! यह बालक सम्पूर्ण विद्याओं का निधान होगा और इसकी आयु बहुत कम है। इतना कहकर जब वे दोनों मुनि चले गये, तब शिलाद अत्यन्त दुःखी हो, नन्दी से लिपटकर रोने लगे तथा मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। 

उस समय नन्दी ने शिलाद मुनि को मनुष्यों की भाँति समझाते हुए यह कहा-हे पिता! आप इस प्रकार व्याकुल न हों। हम शिवजी की सेवा करके काल को जीत लेंगे। और आपकी चिन्ता को दूर करेंगे। इतना कहकर नन्दी रुद्रजप करने लगे। उस जप के प्रभाव से शिवजी गिरिजा सहित नन्दी के समीप आये और उन्हें सम्बोधित करते हुए इस प्रकार कहने लगे-हे नन्दी! तुम्हें मृत्यु का कोई भय नहीं है। तुम साक्षात् मृत्युञ्जय हो और तीनों लोकों में तुम्हें कुछ भी भय नहीं है।

इतना कहकर शिवजी ने नन्दी के शरीर से अपने शरीर का स्पर्श करा दिया। तदुपरान्त उन्होंने गिरिजा एवं सब गणों की ओर देखते हुए यह कहा-हे प्रियजनो! यह नन्दीश्वर मृत्यु से रहित होकर मेरे समान ही बलवान् होगा तथा मेरे पास रहकर मुझे बहुत प्रिय होगा। इतना कहकर शिवजी ने अपनी माला नन्दी के कण्ठ में पहना दी। तब नन्दी उसी समय तीन नेत्र तथा दसभुजाधारी शिवजी के समान स्वरूपवान् हो गये। उस समय शिवजी ने नन्दी का हाथ पकड़कर अपनी जटा के ऊपर से थोड़ा-सा पानी छोड़ दिया। उस पानी से अनेक नदियाँ बहने लगीं।

हे नारद! उन नदियों के नाम जटोदक, त्रिस्त्रोता, वृषध्वनि, स्वर्णोदक तथा जटक हुए। उस स्थान पर नन्दीश्वर ने जो शिवलिंग स्थापित किया था, वह भुवनेश्वर के नाम से विख्यात हुआ और वह स्थान भी सरमद नामक तीर्थ के रूप में अत्यन्त पूज्य हुआ। जो मनुष्य उन नदियों में स्नान करके भुवनेश्वर शिवलिंग का पूजन करता है, उसे मुक्ति प्राप्त होती है। 

इस चरित्र के उपरान्त शिवजी ने गिरिजा से यह कहा-हे प्रिये! अब हम नन्दीश्वर का अभिषेक करेंगे तथा इसे अपने सब गणों का स्वामी बनायेंगे। गिरिजा ने शिवजी के इस कथन को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया। तदुपरान्त शिवजी ने अपने सब गणों को पास बुलाया।

उन गणों ने हाथ जोड़कर शिवजी की स्तुति करते हुए इस प्रकार कहा-हे प्रभो! आप हमें क्या आज्ञा देते हैं ? यदि आप कहें तो हम समुद्र को सुखा दें अथवा मृत्यु को नष्ट कर दें। यदि आपकी इच्छा हो तो हम सभी दानवों तथा दैत्यों को जलाकर भस्म कर डालें एवं अग्नि को ही पकड़कर यहाँ ले आवें। हे नाथ! यदि आप किसी के ऊपर प्रसन्न हों तो वैसा कहें ? आपकी आज्ञा पाकर हम उसकी हर प्रकार की सेवा करने के लिए तैयार हैं।

हे नारद! गणों की यह बात सुनकर शिवजी ने उत्तर दिया-हे गणो! यह नन्दीश्वर हमारा प्रिय पुत्र तथा तुम सबका अधिपति है। तुम सबलोग मिलकर इसका अभिषेक करो तो हमें प्रसन्नता प्राप्त होगी। शिवजी की यह आज्ञा सुनते ही उन सब गणों ने अत्यन्त प्रसन्न होकर शिवजी तथा नन्दीश्वर का जय-जयकार किया। उसी समय मैं, विष्णुजी तथा अन्य सब देवता भी वहाँ जा पहुँचे और शिवजी की स्तुति करते हुए यह कहने लगे कि हे प्रभो! आपने नन्दीश्वर के ऊपर जो कृपा की है, वह सर्वथा प्रशंसनीय है। यह नन्दीश्वर साक्षात् आपके ही स्वरूप हैं। हम सब इन्हें प्रणाम करते हैं।

इतना कहकर हमलोगों ने नन्दीश्वर का अभिषेक किया। तदुपरान्त शिवजी की इच्छा जानकर मैंने मरुत की कन्या सुयशा के साथ नन्दी का विवाह करा दिया। उस विवाह में बड़ा उत्सव मनाया गया। तदुपरान्त नन्दीश्वर अपनी पत्नी सहित सिंहासन पर विराजमान हुए और सबलोग उन्हें भेंटे देने लगे। लक्ष्मीजी ने नन्दीश्वर को मुकुट आदि भूषण दिये, गिरिजा ने अपने कण्ठ का हार दिया, विष्णुजी ने रथ की ध्वजा दी तथा मैंने स्वर्णहार पहनाया। 

इसी प्रकार जब अन्य सबलोग भी नन्दी को भेंट दे चुके, तब शिवजी उन्हें परिवार सहित अपनी पुरी को ले गये। तब से वे वहीं रहकर शिव-गिरिजा का ध्यान किया करते हैं और उन्हीं की सेवा में संलग्न रहते हैं। हे नारद! इस तैंतालीसवें शिव-अवतार की कथा को जो व्यक्ति मन लगाकर पढ़ता, सुनता अथवा किसी दूसरे को सुनाता है, वह इस लोक में सुख पाकर, अन्त में शिवजी के समीप कैलाश पर्वत पर जा पहुँचता है।

॥ भैरव अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब हम भैरव अवतार की कथा कहते हैं। एक दिन कुम्भज मुनि ने स्कन्दजी के पास जाकर यह कहा-हे स्कन्दजी! आप मुझे भैरव का चरित्र सुनाने की कृपा करें। हे स्कन्दजी! एक भैरव की गणना तो भूतों में है, जिनके अधीन समस्त योगिनीगण हैं, दूसरे जो संसार को भयानक दिखाई दे, उसे भी भैरव कहते हैं; आप मुझे यह बताइये कि वे भैरव कौन से हैं, जिन्हें शिवजी का अवतार कहा जाता है तथा यह भी बताइये कि उन्होंने किस कार्य के निमित्त जन्म लिया ?

हे नारद! कुम्भज मुनि की प्रार्थना सुनकर स्कन्दजी ने उत्तर दिया-हे मुनि! भैरव भगवान् सदाशिव के पूर्ण रूप हैं। वे न तो भूत हैं और न भयानक ही। उनकी महिमा को ब्रह्मा तथा विष्णु भी नहीं जान पाते। अब तुम भैरव का वृत्तान्त सुनो। एक समय की बात है कि सब देवता तथा मुनि आदि एकत्र होकर यह विचार करने लगे कि इस सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी कौन है?

बहुत समय सोचने-विचारने के बाद भी जब कोई ठीक विचार न हो सका, तब उन्होंने यह निश्चित किया कि हमलोग सुमेरु पर्वत पर चलकर ब्रह्माजी से यह बात पूछें तो वे सबका मूल कारण बता देंगे। यह निश्चय कर सबलोग ब्रह्माजी के पास जा पहुँचे।

इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! उन सब देवताओं ने मेरे पास आकर यह कहा-हे विधाता! आप हमें यह बताने की कृपा करें कि सम्पूर्ण लोकों का स्वामी कौन है ? जो दोषों से रहित, निर्गुण, सगुण, अविनाशी, सबके मन की जाननेवाला विश्वम्भर तथा सब संसार को उत्पन्न करने वाला हो, उसका नाम आप हमे बतायें ? 

देवताओ की यह बात सुनकर मैंने उन्हें उत्तर दिया-हे देवताओ! तुम जिसे जानना चाहते हो, वह मैं ही हूँ। मेरे ब्रह्मा, स्वयम्भू, धाता, अज, परमेष्ठी आदि अनेक नाम हैं। अतः इन नामों को सुनकर तुम स्वयं समझ सकते हो कि परब्रह्म मेरे अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है।

इतनी कथा सुनाकर स्कन्दजी ने कुम्भज मुनि से कहा-हे कुम्भज! शिवजी की माया ऐसी बलवान् है कि उसके वशीभूत होकर ब्रह्मा स्वयं को परब्रह्म कहने लगे। जिस समय वह वार्तालाप हो रहा था, उसी समय विष्णुजी चतुर्भुज स्वरूप धारण किये हुए, पीताम्बर ओढ़े, उत्तमोत्तम वस्त्रालंकारों से सुसज्जित तथा क्रोध से लाल नेत्र किये वहाँ प्रकट हो गये। 

उन्होंने सब देवताओं को सम्बोधित करते हुए यह कहा-हे देवताओ! तुम इस ब्रह्मा की मूर्खता को देखो, यह ऐसी उल्टी बातें कर रहा है। देवताओं से इतना कहकर विष्णुजी ब्रह्मा से बोले-हे ब्रह्मा! तुम वेद तथा पुराणों के विरुद्ध ऐसे मिथ्या वचन क्यों कह रहे हो ? तुम्हारा जन्म हमारे नाभि-कमल से हुआ है और तुम्हारी महिमा हमारे अधीन है। पृथ्वी का भार उतारने के लिए हमीं समय-समय पर अवतार लेते हैं। इसलिए हमीं निर्गुण, परमज्योति, परमात्मा तथा परब्रह्म हैं। तुम अपने नाम पर मिथ्या गर्व मत करो तथा सबलोगों के सामने सच्ची बात कहो। 

हे कुम्भज! इस प्रकार ब्रह्मा तथा विष्णु ने परस्पर बहुत विवाद किया तथा शिवजी को कुछ भी न जानकर स्वयं को ब्रह्म ठहराया।

 ॥ ब्रह्मा तथा विष्णु के विवाह की कथा ॥

स्कन्दजी बोले-हे कुम्भज! अन्त में यह निश्चय हुआ कि वेद जिसे पर ब्रह्म कह दे, उसी को सबका स्वामी स्वीकार किया जाय। ब्रह्मा, विष्णुजी तथा सब देवताओं ने वेदों को बुलाकर अत्यन्त नम्रतापूर्वक यह कहा-हे वेद! तुम्हारे वचनों पर सबको पूर्ण विश्वास है, अतः तुम हमें यह बताओ कि परब्रह्म कौन है? यह सुनकर वेदों ने उत्तर दिया-हे देवताओ! जब तुम हमीं पर अपना निर्णय छोड़ रहे हो तो हम सत्य बात ही कहेंगे। उसे सुनकर तुम्हारा संशय नष्ट हो जायेगा। 

इस प्रकार सब देवताओं को सम्बोधित करने के उपरान्त सबसे पहले ऋग्वेद ने कहा-हे देवताओ! जहाँ तक सम्पूर्ण जीवधारी स्थित हैं और करोड़ों ब्रह्माण्ड दृष्टिगत होते हैं तथा जिन्हें हम वेद परमतत्त्व कहते हैं, वहाँ तक सन्तों के मत से भी यह निश्चित है कि भगवान् सदाशिव ही परब्रह्म हैं, क्योंकि वे महाप्रलय में भी नष्ट नहीं होते हैं।

हे कम्भज! इतना कहकर जब ऋग्वेद चुप हो गया, तब यजुर्वेद ने इस प्रकार कहा-हे देवताओ! सृष्टि के सम्पूर्ण जीव यज्ञ द्वारा जिनका सेवन करते हैं तथा योगीजन जिनका ध्यान अपने हृदय में धरते हैं, परन्तु जिनकी इच्छा के बिना उनका दर्शन प्राप्त नहीं कर पाते, जो परमानन्दस्वरूप हैं और जिन्हें हम नेति-नेति कहकर पुकारते हैं, वे परब्रह्म सदाशिव ही हैं।

हे कुम्भज! वेदों के यह वचन सुनकर दोनों देवता बहुत हँसे, तदुपरान्त उन्होंने शिवजी की माया से मोहित होकर इस प्रकार कहा-शिव योगियों का स्वामी, जटाधारी, विष भक्षण करनेवाला, नग्न शरीर, बैल पर चढ़नेवाला है। जिस शिव का संग करने से ही सबको ग्लानि होती है, भला वह परब्रह्म किस प्रकार हो सकता है ? इतना कहकर दोनों देवता हँसने लगे।

हे कुम्भज! उस समय प्रणव ने दोनों देवताओं को सम्बोधित करके इस प्रकार कहा-हे सृष्टि उत्पन्नकर्ता ब्रह्मा तथा हे पालनकर्त्ता विष्णु! तुम हमारी बात मन लगाकर सुनो। तुम्हें अपने मुख से ऐसे उल्टे वचन नहीं कहने चाहिएँ। तुम्हें वेद के मत का खण्डन करना उचित नहीं है। वेदों ने यह सत्य ही कहा है कि परब्रह्म शिवजी की रूपरेखा को नहीं जाना जा सकता। 

वे तीनों लोकों में अनेक प्रकार की लीलाएँ करते हैं। उन्होंने तुम्हारी प्रार्थना पर ही स्वरूप धारण किया है। वे तीनों लोकों के हृदय की बात को जानने वाले हैं। वे ब्रह्मा की प्रार्थना पर उनकी भौंहों के बीच में उत्पन्न हुए हैं। अब हम तुमसे शिवजी के मूल-चरित्रों का वर्णन करते हैं, जिससे तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट न हो और तुम्हें परब्रह्म शिवजी का श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त हो।

हे देवताओ! जिस समय कोई भी जीव न था, यहाँ तक कि यह संसार, प्रकृति, पुरुष, ब्रह्मा तथा विष्णु आदि भी नहीं थे, उस समय एकमात्र अद्वितीय, परब्रह्म, मायारहित, निर्गुण भगवान् सदाशिव ही वर्तमान थे। जिनको वेद नेति-नेति कहकर पुकारते हैं तथा फिर भी जिनके भेद को नहीं जान पाते। ऐसे निर्गुण स्वरूप शिवजी सृष्टि में सर्वत्र विराजमान हैं। हर शिवजी के पूर्णांश से उत्पन्न हुए हैं। तुम दोनों को उनकी सब प्रकार से सेवा करनी चाहिए। 

शिवलोक में जिन शिवजी का निवास रहता है, वे ही अन्यत्र हर तथा रुद्र नाम से प्रतिष्ठित हैं। वे शक्ति सहित अवतार ग्रहण करते हैं तथा कैलाश पर्वत पर स्थित रहते हैं। वे मृत्यु को अपने आधीन रखते हैं तथा अनेक प्रकार की लीलाएँ करके सदैव स्वाधीन रहते हैं। उनके चरित्र को आज तक कोई नहीं जान पाया है। उनकी जो इच्छा होती है, संसार में वही कार्य होता है। वेद, पुराण तथा शास्त्र भी उन्हें आज तक नहीं जान पाये। तुम सब उन्हीं की माया द्वारा भ्रमित होकर पशुओं के समान इधर-उधर भटक रहे हो । 

हे दवताओ! वे लीलामय शिवजी अपनी इच्छा के अनुसार अनेक स्वरूप धारण करते हैं। कभी वे योगी बन जाते हैं, कभी भोगी। वे कभी जटाएँ रख लेते हैं और कभी परमहंसगति का प्रदर्शन करते हुए, स्वयं में ही देखकर ध्यानमग्न हो जाते हैं, अनेक प्रकार के भोग भोगते हैं और कभी शक्तिसहित सिंहासन पर बैठकर प्रजा का पालन करते हैं। सब देवता तथा दैत्य उन्हें प्रसन्न करके अपने मनोरथ को प्राप्त करते हैं। 

इस प्रकार अनेक बातें प्रणव ने सुनायीं, परन्तु उन दोनों के मन में मोह के कारण कुछ बोध न हुआ। उस समय शिवजी ने यह विचार किया कि अब मुझे इनका मोह नष्ट कर देना चाहिये।

॥ शिवजी द्वारा ज्योतिषः स्वरूप में प्रकट होने का वृत्तान्त ॥

स्कन्दजी बोले-हे कुम्भज! इतने में दोनों देवताओं के मध्य एक ज्योति प्रकट हुई, जिसके प्रकाश से समस्त पृथ्वी तथा आकाश पूर्ण हो गया। उसमें से एक सुन्दर आकार उत्पन्न हुआ, जिसे देखकर ब्रह्मा ने अपने पाँचवें मुख से यह कहा-हे विष्णुजी! हमारे-तुम्हारे बीच में यह कैसी आश्चर्यजनक ज्योति प्रकट हुई है, जिसमें किसी मनुष्य का आकार दिखाई पड़ता है।

ब्रह्मा यह कह ही रहे थे कि उन्हें ब्रह्मस्वरूप इस प्रकार का प्रतीत हुआ कि एक मनुष्य नीललोहित वर्ण, चन्द्रभाल, त्रिशूल हाथ में लिये तथा सर्पों के भूषण धारण किये हुए खड़ा है। तब ब्रह्मा उस से इस प्रकार बोले कि तुम तो वही हो, जो हमारी भौहों के बीच से उत्पन्न हुए थे। तुम्हारे रोने के कारण ही हमने तुम्हारा नाम रुद्र रखा था। अब तुमको उचित है कि तुम हमारी शरण में आओ। हम तुम्हारी हर प्रकार से रक्षा करेंगे।

जब ब्रह्माजी ने मोह के वशीभूत होकर यह कहा, तब ब्रह्मा का ऐसा गर्व देखकर शिवजी ने महाक्रोध किया तथा ऐसे एक मनुष्य को उत्पन किया जो भक्तों को आनन्द करनेवाला, शत्रुओं के लिए अत्यन्त भयंकर था। उसके मस्तक पर चन्दमा था, तीनों नेत्र लाल थे तथा शरीर में सर्प लिपटे हुए थे। 

इस प्रकार उन्होंने हर प्रकार अपने समान ही अपनी लीला के लिए उसे प्रकट किया। तब उस उत्पन्न हुए मनुष्य ने हाथ जोड़कर शिवजी से यह निवेदन किया-हे शिवजी! अब आप मेरा नाम रख दीजिये तथा मुझे आज्ञा दीजिये कि अब मैं कया करूँ ?

यह सुनकर शिवजी बोले-तुम काल के समान ही प्रतीत होते हो, इसलिए तुम्हारा नाम कालराज होगा तथा तुम विश्व के भरण की शक्ति रखते हो इसलिए तुम्हारा नाम भैरव भी होगा। तुमसे काल भी भयभीत होगा, इसलिए तुम्हारा नाम कालभैरव भी है। 

तुम गणों के दुःखों को दूर करनेवाले हो, इसलिए लोग तुम्हें अमरादिक कहकर भी पुकारेंगे। तुम भक्तों के पापों का भक्षण करोगे, इसलिए तुम्हारा नाम पापभक्षण भी होगा। तुम सब भक्तों के मनोरथ पूर्ण करोगे। अब तुम अपना काम सुनो, मैं तुम्हें बताता हूँ।


हे कुम्भज! इतना कहकर शिवजी ने भैरव को यह आज्ञा दी कि हे भैरव! पद्मसुत जो ब्रह्मा है, यह हमारा महाशत्रु है, तुम इसको भलीप्रकार शिक्षा दो। इसके अतिरिक्त और भी जो संसार में इस तरह मेरे विरोधी हैं, उनको उचित दंड दो। मुझे अपनी मुक्तिनगरी अर्थात् काशी प्राण के समान प्रिय है। मैं तुम्हें उसका स्वामी बनाता हूँ। काशी में तुम्हारी दुहाई फिरेगी और तुम वहाँ का राज्य करोगे। 

तुम्हारा कर्त्तव्य है कि काशी में जो मनुष्य पाप करें तुम उनको उपदेश करो। जो कोई काशी में शुभ या अशुभ कर्म करते हैं, उनको चित्रगुप्त नहीं लिखते और वहाँ यमराज की आज्ञा नहीं चलती। यह सुनकर कालभैरव प्रसन्न हुए तथा मन में सोचने लगे कि ब्रह्मा को क्या दंड देना चाहिए। फिर उन्होंने यह सोचा कि ब्रह्मा ने पाँचवें मुख से शिवजी की निन्दा कर उनको पुत्र बनाया है, इसलिए मेरे विचार से तो यही उचित है कि अब मैं उनका पाँचवाँ सिर काट डालूँ। 

यह सोचकर भैरव अत्यन्त क्रोधित हुए और उनका स्वरूप महाभयानक हो गया। फिर उन्होंने अपनी बायीं उँगली के नख से ब्रह्मा का पाँचवाँ मुख काट लिया। उस समय चारों ओर हाहाकार मच गया। देवता एवं मुनि आदि सब भयभीत होकर काँपने लगे। विष्णुजी भी यह देखकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे। ब्रह्माजी भी अपनी यह दशा देखकर महादुःखी हुए, वे शतरुद्री का जप करने लगे तथा शिवजी की शरण में गये‌। 

उस समय शिवजी ने कहा-हे विष्णु एवं हे ब्रह्मा! तुमलोग किसी प्रकार का भय मत करो, तुम दोनों ही सृष्टि को उत्पन्न करनेवाले तथा उसके पालनेवाले हो और हम प्रलय करनेवाले हैं। हम और तुम देवताओं में कोई भेद नहीं है, लेकिन ब्रह्मा ने अपने जिस मुख से हमारी निन्दा की, हमने केवल उसी को दंड दिया है। यह चरित्र कर हमने तुम्हारा मोह दूर कर दिया है।

हे कुम्भज! इसके पश्चात् शिवजी ने भैरव से कहा-हे भैरव! तुम जो कुछ भी काम करो, वह सोचकर ही करना, क्योंकि ब्रह्मा चाहे कैसा भी भ्रष्ट हो गया हो, परन्तु उसका वध करना महापाप है। तुमको ब्रह्मा का पाँचवाँ सिर काट डालने के कारण दोष लग गया है। तुम उसको दूर करो। 

यद्यपि तुमको पाप-पुण्य कुछ नहीं है, फिर भी वेद के अनुसार सब कार्य करना चाहिए जिससे कि अन्य मनुष्य भी उसका अनुसरण करें। तुम ब्रह्मा के सिर को हाथ में लिये, भिक्षाटन करते हुए सब लोकों की परिक्रमा करो। शिवजी ने इतना कहकर एक स्त्री प्रकट की, जिसका आकार बहुत बड़ा था। उसका नाम उन्होंने ब्रह्महत्या रखा। वह महाभयंकर थी। उसका रूप भय प्रदान करनेवाला था। 

उसका शरीर रक्तमय तथा वह रक्त ही वस्त्र पहिने थी और सब शरीर में रुधिर लगाये हुए थी। वह आकाश तक सिर उठाये हाथ में खप्पर लिये हुए थी, जिसमें से रक्तपान करती जाती थी। उस प्रलयकाल के मेघ के समान महाभयंकर ब्रह्महत्या को शिवजी ने प्रकट करके उससे कहा कि काशी हमारी नगरी है, वहाँ जब तक भैरव लौटकर न आवें तब तक इनको न छोड़ना। चाहे कोई करोड़ों उपाय करे, काशी के अतिरिक्त तुम्हारी तीनों लोकों में गति होगी। 

शिवजी यह कहकर अन्तर्धान हो गये तब भैरव भी शिवजी की आज्ञा स्वीकार कर, ब्रह्मा का सिर लिये हुए भिक्षाटन करते रहे । वह उच्चस्वर में सबको अपने पापों के विषय में बताते थे।

॥ भैरव को ब्रह्महत्या लगने की कथा ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! शिवजी की आज्ञानुसार ब्रह्महत्या भैरव के पीछे-पीछे घनघोर शब्द करती हुई चली। भैरव समस्त संसार में भ्रमण करते फिरे। जो-जो तीर्थ सातों द्वीपों में थे, वे सब भैरव ने अकेले ही किये। उनके साथ में ब्रह्महत्या के अतिरिक्त और कोई नहीं था। जब वे पाताल लोक में गये तब भी उस स्त्री ब्रह्महत्या का साथ न छूटा। फिर उन्होंने ऊपर के लोकों में भी भ्रमण किया, लेकिन वह सदैव उनके साथ रही। 

इसी प्रकार भैरव समस्त ब्रह्माण्ड में घूमते रहे। जहाँ भैरव ब्रह्मा का सिर लेकर जाते थे, वहाँ के निवासी अन्न-धन से परिपूर्ण हो जाते थे। अन्त में भैरव अत्यन्त दुःखी होकर, यह सोचकर नारायण लोक को चले कि वहाँ जाने से पापमुक्त हो जायेंगे। उस समय विष्णुजी ने भैरव को आते देख लक्ष्मी से कहा-हे लक्ष्मी देखो, परब्रह्म शिवजी यहाँ आ रहे हैं। धरती धन्य है। यह हम पर कृपा करके ही यहाँ आ रहे हैं।

थोड़ी देर में जब भैरव निकट आये तो विष्णुजी ने समस्त सभा सहित उठकर भैरव की स्तुति करके हुए कहा-हे सदाशिव! आप तो सब पापों को दूर करनेवाले, भक्तों को आनन्द प्रदान करनेवाले तथा अविनाशी हैं। आप यह क्या चरित्र तथा लीला कर रहे हैं ? आप कृपाकर हमें यह बतायें कि आपके हाथ में जो सिर है, उसे लेकर भ्रमण करने का क्या कारण है ? आप संसार के महाराजाधिराज हैं, फिर इस प्रकार आपका भिक्षा माँगना आश्चर्यजनक है।

हे नारद! विष्णुजी की यह बात सुनकर भैरव ने कहा-हे विष्णो! हम ब्रह्मा का सिर काटकर पापी हुए हैं उस पाप से मुक्ति पाने के लिए ही हम संसार का भ्रमण कर रहे हैं। यह सुनकर विष्णुजी बोले-हे प्रभो! मुझसे तीनों लोकों को मोहित करनेवाली माया को आप दूर रखिये। आपको पुण्य तथा पाप से कोई मतलब नहीं। आपके नाम जपने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं। 

जब आप प्रलय में देवताओं, दैत्यों मुनीश्वरों तथा वर्णाश्रम आदि को नष्ट करते हैं, तब आपको कोई पाप क्यों नही लगता ? उस समय तो आप ब्रह्मा का अभाव ही कर देते हैं। तब केवल एक सिर के काटने से ही आपको पाप कैसे लग सकता है? आप के गले में अन्य कल्पों के ब्रह्माओं के सिर पड़े हुए हैं। 

आपको उनकी ब्रह्महत्या क्यों नहीं लगती ? फिर आप अपने को पापी क्यों ठहराते हैं ? आपकी लीला विचित्र है, उसको देवता तथा मुनि कोई नहीं जानता। जो मनुष्य एक बार आपका ध्यान करता है, उसके दुःख तथा ब्रह्महत्या आदि पाप नष्ट हो जाते हैं। 

यदि शत्रु भी आपके शिवशंकर शशिशेखर आदि नाम ले तो वह भी आवागमन से मुक्ति पाकर कैलाश में वास करता है, क्योंकि आपका नाम शुभ है। इस प्रकार हाथ में सिर लेकर आपका भ्रमण करना उचित नहीं। हमारे बड़े भाग्य हैं कि आज आप हमारे लोक में विराजमान हुए तथा आपकी दृष्टि अमृत के समान गुणवान् है, जिसको देखने मात्र से ही फिर आवगमन का भय नहीं रहता है।

इस प्रकार विष्णुजी सदाशिवजी के गुणों का वर्णन कर रहे थे, तभी भैरव ने भिक्षा माँगी। लक्ष्मी ने उन्हें भिक्षा देकर प्रणाम किया। तदुपरान्त भैरव भिक्षा लेकर आगे बढ़े और उनके पीछे-पीछे ब्रह्महत्या भी चली।

॥ भैरव का ब्रह्महत्या से मुक्ति पाने का वृत्तान्त ॥

स्कन्दजी बोले-हे कुम्भज! विष्णुजी ने ब्रह्महत्या को इस प्रकार भैरव के पीछे जाते हुए देखकर कहा-हे ब्रह्महत्या! तू भैरव का पीछा छोड़ दे और तुझे जो वर चाहिए, वह हमसे माँग ले। विष्णुजी के ऐसे वचन सुनकर ब्रह्महत्या ने हँसकर कहा कि मैं शिवजी की आज्ञानुसार ही भैरव के पीछे पीछे फिर कर अपने को शुद्ध करती फिरती हूँ। मैं भैरव को किसी प्रकार का दुःख नहीं देती। जो कोई भैरव का नाम लेता है, मैं तुरन्त उसका घर त्यागकर भाग जाती हूँ। 

ब्रह्महत्या यह कह उसी प्रकार भैरव के पीछे-पीछे चलने लगी। उस समय भैरव ने विष्णुजी के ऐसे स्नेह को देखकर कहा-हे विष्णु! तुम्हारी जो इच्छा हो, हम से वह वर माँग लो। हमको यह चाण्डाल हत्या कोई दुःख नहीं दे सकती। हम स्वयं ही यह चरित्र संसार के लिए कर रहे हैं।

यह सुनकर विष्णुजी बोले-हे प्रभो! हमको तो यही सबसे बड़ा वर मिला है कि आप हमारे लोक को आये। हमारी इच्छा है कि हम प्रतिदिन आपके चरणकमलों का ध्यान किया करें तथा हमको प्रतिदिन आपका दर्शनलाभ प्राप्त हो। विष्णुजी की ऐसी इच्छा जानकर भैरव ने कहा-हे विष्णु! हमने तुमको यही वर दिया। अब तुम भी देवताओं तथा मुनीश्वरों को वर दिया करो और आनन्दपूर्वक तीनों लोकों के स्वामी बनकर बैठे रहो। 

भैरव ने विष्णुजी को यह वरदान देकर तीनों लोकों की परिक्रमा की तथा काशी की ओर चले। जब भैरव काशी के समीप पहुँचे तथा ब्रह्महत्या अत्यन्त भयभीत होकर चिल्लाने लगी। जब भैरव वहाँ बैठे गये, तब वह हाहाकार करके पृथ्वी के नीचे चली गयी। उस समय भैरव के हाथ से ब्रह्मा का सिर धरती पर गिर पड़ा। यह देखकर भैरव अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा सब देवताओं एवं मुनीश्वरों ने जय-जयकार किया। तब भैरव प्रसन्न होकर नाचने लगे।

हे कुम्भज! काशी की महिमा परमश्रेष्ठ है। हम उसकी महिमा कहाँ तक वर्णन करें? सब सर्वश्रेष्ठ कपालमोचन तीर्थ है। हे कुम्भज! भैरव का अवतार मार्गशीर्ष की कृष्णाष्टमी को हुआ था। जो कोई उस दिन व्रत करते हैं, उसके जन्मभर के पाप नष्ट हो जाते हैं। उस दिन जागरण का भी यही फल मिलता है। 

यदि कोई भैरव के निकट जाकर काशी व्रत को करे तो उसके समस्त पाप दूर हो जाते हैं, जो कोई अष्टमी, चतुर्दशी तथा रविवार को भैरव-तीर्थ की यात्रा करेगा, उसे सब पापों से मुक्ति मिलेगी। जो कोई भैरव की आठ परिक्रमा करे तो उसको तीनों प्रकार के पाप नहीं लगेंगे। भैरव का यह व्रत सब व्रतों का राजा तथा चारों फलों को प्रदान करनेवाला है। इस व्रत के करने से भैरव अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। भैरव चरित्र के सुनने से भी मुक्ति तथा आनन्द मिलता है।

॥ वीरभद्र अवतार की कथा ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! इससे पूर्व हम वीरभद्र अवतार का विस्तारपूर्वक वर्णन कर चुके हैं। अब हम तुम्हें वही फिर संक्षेप में सुनाते हैं। हमारे पुत्र दक्षप्रजापति ने अपनी बुद्धिहीनता के कारण शिवजी के साथ बैर बढ़ाकर उनकी निन्दा की, लेकिन शिवजी ने उसके ऐसे अज्ञानपूर्ण वचनों का कोई विचार न किया। इतने में जब वह यज्ञ करने लगा, तब समस्त देवता तथा मैं भी, अपने परिवारों सहित उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए गया। यद्यपि वहाँ बड़ी धूमधाम थी, परन्तु शिवजी के बिना कोई शोभा न थी।

उस समय दधीचि मुनि ने सबको समझाकर यह आग्रह किया कि तुम सबलोग जाकर शिवजी को यहाँ ले आओ, परन्तु उनकी बात किसी को भी उचित न लगी। यहाँ तक कि विष्णुजी तथा मैंने भी शिवजी को भुला दिया। अन्त में, दधीचि मुनि यह कहकर कि यह यज्ञ बिना शिवजी के किसी प्रकार भी पूर्ण न होगा, बाहर चले गये। इस बात को दक्ष प्रजापति उत्तम न समझकर, हम सब की सहायता से यज्ञ करने लगे। 

संयोग से सती अपने पिता के घर में यज्ञ होने का समाचार सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुईं तथा यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए शिवजी से हठ करके आज्ञा प्राप्त कर, दक्ष के घर गयीं। वहाँ पहुँचकर शिवजी की अत्यन्त अप्रतिष्ठा देखकर, उन्होंने क्रोधित होकर यह कहा-हे दक्ष, ब्रह्मा, विष्णु, सब देवता तथा मुनि आदि! क्या तुम सबकी बुद्धि नष्ट हो गयी है, जो तुम सबने शिवजी के बिना यज्ञ करना चाहा है? तुम सबको इसका फल अवश्य मिलेगा। यह कहकर सती योग धारणकर वहीं जल गयी।

हे नारद! इस प्रकार सती को जलती हुई देखकर चारों ओर हाहाकार मच गया तथा सब लोग व्यथित हो गये। शिवजी ने अत्यन्त क्रोधित हो, अपनी एक जटा उखाड़कर शिला पर दे मारी। उस समय नदियाँ तथा पर्वतों सहित तीनों लोक काँप उठे। उस जटा के प्रथम भाग से एक चतुर्भुजस्वरूप, त्रिनेत्र, हाथ में अत्यन्त भयानक त्रिशूल लिये हुए वीरभद्र नामक गण उत्पन्न हुआ। 

वह शिवजी के सम्मुख आकर खड़ा हो गया। फिर उसने अपने रोमों से अपने सामान असंख्य गणों को उत्पन्न किया। वे सब अट्टहास करते थे। जटा के दूसरे भाग से श्रीमहाकाली महाभयानक रूप धारण किये हुए, अपने साथ करोड़ों योगिनियों को लिये हुए, भंयकर शब्द करती हुई प्रकट हुई। 

इसके पश्चात् वीरभद्र तथा काली ने हाथ जोड़कर शिवजी से पूछा-हे शिव जी! अब हमें आज्ञा दीजिये कि हम क्या करें? तब शिवजी ने अत्यन्त कुपित होकर उन्हें यह आज्ञा दी कि तुम दोनों दक्ष के यहाँ पहुँचकर उसके यज्ञ को विध्वंस कर, सबको प्राणदंड दो। शिवजी की ऐसी आज्ञा पाकर वीरभद्र तथा काली अपनी-अपनी सेनाओं सहित चले। उनके चलने से चारों ओर भीषण शब्द होता था। 

हे नारद! इस प्रकार वीरभद्र के सेनासहित आगमन का समाचार जब दक्ष की पत्नी वीरनी ने सुना, जिसने कि सती का अत्यन्त आदर किया था, तो उसने सबको समझाकर यह कहा कि अब शिवजी महाकुपित हुए हैं, इसलिए किसी की कुशल नहीं है। वीरनी यह बात सबसे कह ही रही थी कि शिवजी की सेना वहाँ पहुँच गयी। राजा दक्ष उस स्थान पर यज्ञ कर रहे थे, जहाँ हिमालय पर्वत के स्वर्णशिखर हैं तथा जहाँ मायापुरी के निकट गंगा प्रवाहित हो रही है। 

उस देश का नाम कनखल है। वीरभद्र ने वहाँ पहुँचकर प्रलय की अग्नि के समान प्रचण्ड होकर सबलोगों को सुनाते हुए ऊँचे स्वर से कहा-हम शिवजी की आज्ञा से यहाँ आये हैं, और तुममें से किसी को जीवित नहीं छोड़ेंगे।

॥ वीरभद्र द्वारा यज्ञ को नष्ट करने की कथा ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! वीरभद्र ने यह कहकर यज्ञस्थल को जलाकर भस्म कर दिया तथा गणों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही अकाल प्रलय करो। उस समय वीरभद्र की आज्ञा सुनकर गणों ने क्रोधित होकर, यज्ञ में उपस्थित देवता तथा मनुष्यों के दाढ़ी-मूँछ तथा केश आदि सब उखाड़ डाले और सबको शस्त्रों से मारा। वीरभद्र का यह कृत्य देखकर दिक्पालों ने कुछ देर तक उनका सामना किया, परन्तु वे सब कुछ ही देर में परास्त हो गये। 

यह दशा देखकर सब देवता भाग खड़े हुए तथा उनका कोई भी उपाय सफल न हुआ। शिवजी के गण महाभंयकर अट्टहास करके यज्ञ को नष्ट करने लगे। यह देखकर अत्रि मुनि भागकर विष्णुजी के चरणों में गिर पड़े और बोले-हे विष्णुजी! आप हमारी रक्षा करें, हम आपकी शरण में आये हैं। हम देवताओं तथा मुनि आदि के दुःखों का किस प्रकार वर्णन करें ? आप इन शिव के गणों से उनकी रक्षा कीजिये। 

दक्षप्रजापति भी विष्णुजी से यही विनती कर उनके चरणों पर गिर पड़े और स्तुति करते हुए बोले-हे विष्णुजी! आप ऐसी कृपा करें कि जिससे यह गण नष्ट हो जायँ। इन गणों ने आकर हमारा यज्ञ नष्ट कर डाला है। ऐसा निवदेन कर दक्ष विष्णुजी के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़ा हुआ।

हे नारद! इस प्रकार देवताओं तथा दक्ष की विनती सुनकर विष्णुजी गणों पर क्रोधित होकर, उनसे लड़ने के लिए खड़े हुए। विष्णुजी द्वारा स्मरण करते ही सब शस्त्र चले आये। तब विष्णुजी रथ पर आरूढ़ होकर रथ पर चले। उस समय विष्णुजी गणों के सम्मुख खड़े होकर प्रज्ज्वलित अग्नि के समान दिखाई पड़ रहे थे। उन्होंने गणों को अपने तीक्ष्ण बाणों से व्यथित करके, युद्धभूमि से भगा दिया। 

यह देखकर श्रीमहाकाली महाकुपित होकर भंयकर शब्द करती हुई विष्णुजी के समीप चलीं। काली की सेना भी विष्णुजी के ऊपर चढ़ आयी तथा विष्णुजी को चारों ओर से घेर लिया। क्षेत्रपाल भी अपनी समस्त सेना सहित विष्णुजी से लड़ने के लिए चले। भैरव भी विष्णुजी के समीप आ पहुँचे। इस प्रकार इन तीनों ने विष्णुजी से बड़ा युद्ध किया। उस युद्ध में विष्णुजी की बहुत-सी सेना मर गयी। अन्त में, विष्णुजी ने सबको परास्त कर, अपना तेज इतना बढ़ाया कि कोई उनसे युद्ध न कर सके। भैरव, काली तथा क्षेत्रपाल विष्णुजी की सेना के अन्दर इस प्रकार घुस गये, जिस प्रकार राहू चन्द्रमा को घेर लेता है। 

तब विष्णुजी ने अपना धनुष हाथ में लेकर तीखे बाण चलाये तथा इसके साथ ही अपना शंख बजा दिया। उस समय जो देवता वीरभद्र के भय से भाग गये थे, वे सब पुनः विष्णुजी के समीप आ गये। दोनों ओर से पुनः घोर युद्ध हुआ। युद्ध में काली, भैरव तथा क्षेत्रपाल ने देवताओं तथा विष्णुजी की बहुत सी सेना को नष्ट कर डाला। विष्णुजी ने भी योगमाया से समस्त बाणों को अभिमन्त्रित कर चलाया तथा योगमाया द्वारा शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुए अपने समान अनेक पार्षद् प्रकट किये, जिन्होंने गणों को मारकर बहुत भय उत्पन्न किया ।

हे नारद! विष्णुजी की ऐसी योगमाया को देखकर, वीरभद्र ने अत्यन्त क्रोधित होकर अपना त्रिशूल चलाया, जिससे विष्णुजी की सब योगमाया नष्ट हो गयी तथा वे स्वयं अकेले ही रह गये। तब वीरभद्र ने विष्णुजी के मस्तक पर अपनी गदा का प्रहार किया। विष्णुजी उस प्रहार को न सहकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय दोनों ओर की सेनाओं में हाहाकार मच गया।

थोड़ी देर बाद विष्णुजी ने पुनः उठकर अपना चक्र हाथ में लिया, जो प्रलय काल के असंख्य सूर्यों के समान प्रकाशयुक्त था। उसको देखकर सब गण आश्चर्यचकित हो, विष्णुजी के सम्मुख न ठहर सके। तब वीरभद्र ने शिवजी का ध्यान किया, जिससे उनके चक्र को रोक देने की शक्ति प्राप्ति हुई। उस बल से वीरभद्र ने उस शस्त्र को नहीं चलने दिया।

॥ विष्णु जी द्वारा चक्र न चलने का वृत्तान्त ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! विष्णुजी के हाथ से वह चक्र न चल सका, जिसके चलने से प्रलय हो जाती है। विष्णुजी भी पर्वत के समान खड़े रह गये। तब विष्णुजी ने मंत्र पढ़ा, जिसके पढ़ने से शरीर तो हिल सका, परन्तु चक्र को चलने की शक्ति फिर भी नहीं मिली। 

उस समय मैंने विष्णुजी को इस प्रकार समझाया-हे विष्णुजी! जो कुछ होना है, वही होगा। आप व्यर्थ ही हठ क्यों करते हैं? क्या दधिचि मुनि का वचन कभी टल सकता है? अब आप इस पक्ष को शिवजी की इच्छा समझकर ही छोड़ दीजिए और अपने घर को चलिये। मेरे समझाने पर विष्णुजी अपने धाम को चले गये। तब वीरभद्र अनेक प्रकार के उपद्रव करते हुए यज्ञ के समीप पहुँचे। 

सर्वप्रथम उन्होंने यज्ञ का स्थान फूंक दिया। समस्त यज्ञ के पात्र गंगाजी में फेंक दिये तथा जल डाल कर सब यज्ञकुण्ड बुझा दिये। उस समय यज्ञ हिरण का रूप धारणकर वहाँ से भाग चला। इस बात को जान कर वीरभद्र तुरन्त उसे आकाश से पकड़कर ले आये तथा उसका सिर काट डाला। उन्होंने धर्मराज, दक्षप्रजापति तथा कश्यप के मस्तक पर लात मारी। इसी प्रकार अनेक उपद्रव कर सबको यथाशक्ति प्रतिफल दिया। 

तदुपरान्त वे उसी चिताभूमि में प्रलय करनेवाले रुद्र के समान विराजमान हुए। उस समय मैंने तथा विष्णुजी आदि ने शिवजी के निकट जाकर यह विनय की कि हे प्रभो! आपके गण वीरभद्र ने यज्ञ को विध्वंस कर, सबको व्याकुल कर दिया है। दक्षप्रजापति ने वास्तव में ही बहुत निर्बुद्धिता का काम किया, जो आपको अवधूत समझकर यज्ञ में नहीं बुलाया। आपने जो सबको दंड दिया सो सब इसी योग्य थे। 

लेकिन अब आप हमारे अपराधों पर ध्यान न करके, हमें क्षमा कीजिये। आप कृपा करके यज्ञ को पूरा करें तथा ऐसा उपाय करें कि जिससे दक्ष भी जीवित हो सके। हे शिवजी! ऐसा करके आप सबको आनन्द प्रदान कीजिए। यदि आप इस प्रकार दण्ड न देते तो धर्म नष्ट होकर पाप फैल जाता और आपकी महिमा को भूल जाने से मनुष्य वेदविहीन हो जाते। 

हे नारद! शिवजी यह प्रार्थना सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। तब उन्होंने वीरभद्र के पास पहुँचकर दयादृष्टि से देखा। उस समय वीरभद्र शिवजी के चरणों पर गिर पड़े तथा यह विनती की कि आप जो मुझे आज्ञा देंगे, मैं उसी का पालन करूँगा। 

तब शिवजी बोले हे वीरभद्र! अब तुम सब गण क्रोध को शान्त करो, क्योंकि सबलोग अपना-अपना दंड प्राप्त कर चुके हैं। यह कहकर शिवजी ने वहाँ से सब गणों को विदा किया तथा सबकी ओर कृपा से दृष्टिपात किया, जिससे सब अंग पहिले जैसे ही हो गये। जो उस युद्ध में मारे गये थे, वे सभी सोते हुए मनुष्यों के समान उठ खड़े हुए। फिर शिवजी ने भृगु के बकरे की दाढ़ी जमायी तथा दक्ष के शरीर पर बकरे का सिर रखकर उसको जीवित किया। 

उस समय दक्ष ने बकरे के स्वर में शिवजी की स्तुति की। तदुपरान्त शिवजी ने प्रसन्न होकर यज्ञ के पूर्ण करने के लिए आज्ञा दी। इस प्रकार शिवजी की आज्ञा द्वारा यज्ञ पूर्ण हुआ। सब को यज्ञ भाग देकर, शिवजी को भी पूर्ण भाग दिया गया। श्री महादेव यज्ञ पूर्ण करके अपने समस्त गणों सहित कैलाश पर्वत को लौट गये। विष्णुजी, मैं तथा समस्त देवता भी अपने-अपने लोक को चले गये। 

हे नारद! मैंने अपनी बद्धि के अनुसार वीरभद्र के अवतार को कथा तुम्हें कह सुनायी। यह चरित्र बहुत ही पवित्र है। जो इसको पढ़ेगा या सुनेगा वह इस लोक में प्रसन्न रहकर, अन्त में शिवपद को प्राप्त करेगा।

 ॥ शरभ अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब हम तुम्हें शरभ अवतार का वर्णन सुनाता हूं। पूर्व समय में दिति के दो पुत्र कनककशिपु तथा कनकाक्ष नामक उत्पन हुए, जो देवताओं के बड़े शत्रु थे। संसार में केवल उन्हीं की आज्ञा चलती थी। उन्होंने देवताओं को बड़ा दुःख पहुँचाया और अधिक पापों के कारण संसार में बड़े उपद्रव उठने लगे। 

उनमें से जो छोटा भाई कनकाक्ष था, उसको तो विष्णुजी ने वाराह अवतार लेकर मार डाला। कनककशिपु के चार पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें सबसे छोटा पुत्र प्रह्लाद था। वह बड़ा सत्यवादी, तपस्वी, धर्मनिष्ठ, आत्मज्ञानी तथा विष्णुजी का परम भक्त हुआ। उसने उत्पन्न होते ही विष्णुजी की पूजा की। विष्णुजी के अतिरिक्त उसने संसार में अन्य किसी वस्तु को नहीं देखा। 

वह विष्णुजी के अष्टाक्षर मन्त्र का नित्यप्रति आनन्द से पाठ करता था। प्रह्लाद गुरु के यहाँ भी विष्णुजी का अष्टाक्षर मन्त्र जपा करता था। गुरु जो राजनीति आदि विषय पढ़ाते, प्रह्लाद उसे न पढ़ता। एक दिन कनककशिपु ने परीक्षा लेने के लिए प्रह्लाद को अपने पास बुलाकर अध्ययन का हाल पूछा और कहा-हे पुत्र! तुमने अब तक जो गुरु से पढ़ा हो, वह हमें सुनाओ।

हे नारद! पिता के ऐसे वचन सुनकर प्रह्लाद ने उत्तर दिया-हे पिता मैंने उन विष्णुजी का नाम पढ़ा है, जिनकी सेवा से दोनों लोकों में आनन्द प्राप्त होता है। संसार में उन वैकुण्ठवासी विष्णुजी के समान और कोई नहीं है। 

कनककशिपु ने प्रह्लाद के ऐसे वचन सुनकर उसको अपनी गोद से फेंक दिया और यह कहा-हे प्रह्लाद! विष्णु कौन है, जिसके चरणों की प्रीति तुम्हें उत्पन्न हुई है ? संसार में मुझसे बड़ा और कौन है ?‌ पिता के ऐसे वचन सुनकर प्रह्लाद बिलकुल भयभीत नहीं हुआ। उसने ऊंचे शब्दों से विष्णुजी का नाम लेते हुए कहा-हे पिता! मुझ पर उपकार करनेवाले वहीं हैं। यह कहकर प्रह्लाद विष्णुजी के चरणों में और भी‌ अपनी भक्ति का उपदेश देकर, उनके हृदय में भक्ति भावना उत्पन्न करने लगा।

हे नारद! वह धर्म बहुत बड़ा आनन्द प्रदान करनेवाला है, जिसमें अपने स्वामी के चरणों की सेवा न छूटे। निदान, अपने पुत्र की ऐसी भगवत्भक्ति देखकर कनककशिपु ने दैत्यों को बुलाकर प्रह्लाद को मार डालने की आज्ञा दी और उनसे कहा-यह बालक हमारा शत्रु होकर, हमारे विरोधियों की सेवा करता है, इसलिए इसका तुरन्त वध कर दिया जाय। दैत्यों ने कनककशिपु की यह आज्ञा सुनकर प्रह्लाद को अनेक प्रकार से मारने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु प्रह्लाद के शरीर में एक भी घाव न लगा। लगता भी कैसे, भगवान विष्णुजी तो पहिले से ही उसकी रक्षा करने के लिए तैयार थे। 

इस प्रकार विष्णुजी ने प्रह्लाद की रक्षा की। जब कनककशिपु ने प्रह्लाद के न मरने का समाचार सुना, तब वह बहुत क्रोधित हुआ। उसने प्रह्लाद को अपने पास बुलाया और बोला-हे पुत्र! तू मुझे बता कि तेरा स्वामी कौन है और वह कहाँ है ? मैं तेरा वध करता हूँ। यदि वह वास्तव में तेरा स्वामी है तो मुझ से तेरी रक्षा करे। यह कहकर वह अपना खड्ग लेकर प्रह्लाद का सिर काटने को तैयार हो गया, परन्तु प्रह्लाद को किसी प्रकार का भय न हुआ। उसने दृढ़ता से यह उत्तर दिया कि मेरा स्वामी सब जगह वर्तमान है तथा सब में विद्यमान है। उसके सिवा मुझे कोई नहीं मार सकता। स्वामी अपने भक्तों की सदैव रक्षा करता है।

हे नारद! प्रह्लाद के ऐसे वचन सुनकर कनककशिपु ने कहा-हे पुत्र! अगर यह बात सत्य है तो फिर वह इस खम्बे में क्यों नहीं दिखाई देता। इतना कहकर उसने खम्भे पर तलवार चलायी। तलवार के लगते ही खम्भे में से अत्यन्त भंयकर शब्द हुआ और भक्तों के पालक विष्णुजी नरहरि रूप होकर उसी खम्भे से प्रकट हो गये। उन्होंने ब्रह्माजी का वर स्थिर रखकर, कनककशिपु का उदर चीर डाला। 

इसके पश्चात् नरहरि ने बड़ा भयानक शब्द किया जो तीनों लोकों में गूँज गया। उससे तीनों लोक भयभीत हुए, पृथ्वी काँप उठी, पर्वत जलने लगे तथा दिग्गज अपने स्थान पर स्थित न रह सके।

हे नारद। नरहरि का ऐसा भयंकररूप देखकर देवता वहाँ न ठहर सके और कुछ दूर भाग गये । उस समय विष्णुजी, मैं तथा बड़े-बड़े देवता दूर से ही उनकी स्तुति करने लगे। फिर मैंने प्रह्लाद से कहा-हे प्रह्लाद तुम नरहरि को शान्त करके सब लोगों के दुःख दूर करो। प्रह्लाद मेरी बात को मानकर नरहरि के पास गये, परन्तु तब भी उनका क्रोध शान्त न हुआ, वरन् वे और भी जोर से चिल्लाने लगे। तब इन्द्र आदि समस्त देवता वहाँ से भागकर शिवजी की शरण में गये। मैं, इन्द्र तथा दिगपाल आदि देवताओं ने शिवजी की स्तुति करके उनसे यह निवेदन किया कि हम सब आपकी शरण में आये हैं। आप ऐसा उपाय कीजिये, जिससे नरहरि का क्रोध शान्त हो।

हे प्रभो! इसी प्रकर का क्रोध दक्ष के यज्ञ को विध्वंस करने के लिए वीरभद्र ने किया था, उसको आप ही ने दूर किया था। हमको आपके अतिरिक्त कोई दूसरा इस क्रोधाग्नि को शान्त करनेवाला दिखाई नही देता।

 ॥ शिव जी की आज्ञा से वीरभद्र का नृसिंह अवतार के क्रोध को शांत करने की कथा ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! हमलोगों की ऐसी स्तुति सुनकर शिवजी ने प्रसन्न होकर, नरहरि का क्रोध शान्त करने के लिए अपने गण वीरभद्र का स्मरण किया। तब वे शिवजी से हाथ जोड़कर बोले-हे सदाशिव! मुझे क्या आज्ञा है? तब शिवजी ने कहा-हे वीरभद्र! तुम जाकर नरहरि का क्रोध शान्त करो। तुम उनको नम्रता के साथ समझाने का प्रयत्न करना। यदि उनकी क्रोधाग्नि तुम्हारे समझाने से शान्त हो तो कुछ हमारी शक्ति का प्रदर्शन करके दिखा देना। 

यदि उनका तेज अधिक हो तो तुम भी उसे अपने प्रचण्ड तेज से दूर करना तथा उनके क्रोध का निवारण करना। फिर इसी प्रकार नरहरि के शरीर को अपने में मिलाकर हमारे पास ले आना। वीरभद्र शिवजी का यह आदेश सुनकर शान्तरूप बन गये तथा नरहरि के पास जाकर पिता के समान उन्हें उपदेश के वचन कहने लगे। वे बोले-हे विष्णुजी! तुमने नरहरि का अवतार संसार की रक्षा के हेतु लिया है, तुम प्रलय होने का उपाय मत करो। शिवजी की यही आज्ञा है। तुम्हें यही उचित है कि अब इस रूप को दूर कर दो।

हे नारद! वीरभद्र के ऐसे वचन सुनकर नरहरि ने अग्नि के समान प्रदीप्त हो, अत्यन्त क्रोध से उत्तर दिया-हे वीरभद्र! तुम यहाँ से तुरन्त अपने घर को चले जाओ। तुम मेरी इच्छा के विरुद्ध वचन कहकर मेरा क्रोध क्यों बढ़ाते हो ? इस समय मैं नहीं जानता हूँ कि मुझको निवृत्त करनेवाला कौन है। मेरे अधीन तीनों लोक हैं। सबका स्वामी, स्वाधीन, सृष्टिकर्ता, पालनकर्त्ता, तथा प्रलयकर्ता भी मैं ही हूँ। भला, वह कौन है जो मुझको उपदेश देता है? 

यह सुनकर वीरभद्र ने कहा-हे विष्णुजी! तुम उस प्रलय करने वाले को चलकर क्यों नहीं देखते, जिसके हाथ में पिनाक तथा त्रिशूल है। तुम्हारे यह वचन बहुत ही अनुचित हैं। इससे तुमको निश्चय ही बहुत दुःख प्राप्त होगा। तुम शिवजी की महिमा तथा प्रताप को नहीं जानते, जो उनको अन्य देवताओं के समान समझकर ऐसा गर्व करते हो। उन्हीं शिवजी ने मुझको तुम्हारा अंहकार दूर करने के लिए भेजा है। तुम केवल एक दैत्य का वध करके इतना अंहकार करते हो?  

तुम व्यर्थ उपद्रव न करो। यह बात तुम्हारे लिए बुरी है। यदि तुम शिवजी को अपना बनाया हुआ तथा अपने अधीन कहते हो तो मुझे यह निश्चय हुआ है कि तुम संसार को उत्पन्न तथा पालन करनेवाले नहीं हो। तुम स्वाधीन तथा मुक्ति प्रदान करनेवाले भी नहीं हो, क्योंकि तुम शिवजी की आज्ञा से ही अवतार लेते हो। जिस समय तुमने कमठ अवतार लिया था, उस समय की बात क्या तुम नहीं जानते कि शिवजी ने तुम्हारे सिर को जला कर अपने हार में पिरो लिया था ? 

जब तुमने वाराह अवतार लिया, तब शिवजी ने तुम्हारे दाँतों को उखाड़कर, अपने त्रिशूल का तुम्हारे ऊपर प्रहार किया तथा तुम्हारा अहंकार नष्ट कर दिया। शिवजी ने भैरव अवतार लेकर तुम्हारे पुत्र ब्रह्मा का सिर काटा, जिससे अब तब बह्मा के पाँचवाँ सिर नहीं है। क्या तुम यह सब बातें भूल गये ? तुम दक्षप्रजापति के यज्ञ का स्मरण करो, जहाँ मैंने क्षणभर में उसका सिर काट डाला था। मैं तथा तुमसे लेकर तृण पर्यन्त सब शिवजी की शक्ति के अधीन हैं। 

तुम्हारा यह सब प्रताप तथा बल शिवजी की कृपा से ही है। वे शिवजी ही निष्पाप तथा तीनों लोकों के उत्पन्न करनेवाले हैं। तुम व्यर्थ ही इतना गर्व करते हो। यदि शिवजी तुम पर क्रोधित होंगे तो तुम्हारी रक्षा करनेवाला कोई भी उत्पन्न न होगा।

हे नारद! वीरभद्र के ऐसे वचन सुनकर नृसिंह ने क्रोधित होकर चाहा कि वीरभद्र को पकड़ लें, परन्तु वीरभद्र ने उनका आशय जानकर अपना शरीर आकाश में छिपा लिया। उस समय उनका तेज प्रज्ज्वलित अग्नि के समान प्रतीत हुआ, जिसकी उपमा सूर्य, वह्नि तथा विद्युत् से भी नहीं दी जा सकती। 

इसे देखकर शिवजी ऐसे अद्भुत् रूप में प्रकट हुए कि उनका आधा शरीर सिंह का, दो पंख तथा चोंच, सहस्त्र भुजाएँ, शीश में जटा, मस्तक में चन्द्रमा, महाभयंकर दाँत तथा वज्र के समान नख थे। वे ही मानो उनके शस्त्र थे। वे दाँतों से ओठ काट रहे थे। उनका ऐसा स्वरूप देखकर विष्णुजी का अंहकार दूर हो गया तथा वे निस्तेज हो गए। 

शरभ ने बल करके अपना शरीर हिलाया तथा अपनी भुजाओं से नरहरि की दोनों भुजाएँ पकड़ लीं। फिर आकाश से पृथ्वी पर डालकर, पुनः पृथ्वी पर उतरकर पकड़ लिया। इसी प्रकार बार-बार उड़कर नरहरि को निर्बल कर दिया। उस समय समस्त देवता एवं मुनि स्तुति करने लगे। इस भाँति नरहरि का अहंकार दूर हो गया। 

तदुपरान्त उन्होंने शिवजी के एक सौ आठ नामों का वर्णन कर, उनकी स्तुति की और कहा-हे शरभेश्वर! जब मेरे अन्दर इस प्रकार क्रोध उत्पन्न हो, उस समय आप इसी प्रकार मेरा अहंकार दूर किया कीजिये। यह कहकर नरहरि अपना शरीर त्यागकर अन्तर्धान हो गये। उस समय मैंने देवताओं तथा मुनीश्वरों सहित शरभेश्वर शिवजी की बड़ी सेवा करके स्तुति की। तब शरभेश्वर शिवजी बोले-हे देवताओ! तुम यह बात भली प्रकार समझ लो कि मैं तथा विष्णु भिन्न नहीं हैं, वरन् एक ही स्वरूप हैं। 

हे नारद! शिवजी ने यह कहकर नरहरि का सिर तथा चर्म उठा लिया। उन्होंने सिर को तो अपनी माला का सुमेरू बनाया तथा चर्म ओढ़ लिया। फिर वे सबके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये। तदुपरान्त देवता आदि भी अपने-अपने मनोरथ प्राप्तकर, वहाँ से अपने-अपने घर चले गये। 

हे नारद! जो इस चरित्र को सुनता तथा पाठ करता है, उसे दोनों लोकों में आनन्द प्राप्त होता है।

  ॥ यक्षावतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब मैं तुम्हें यज्ञावतार के विषय में बताता हूँ, जिसने तुरन्त ही सब देवताओं का मद दूर कर दिया था। जब देवता तथा दैत्य समुद्र-मन्थन के समय परस्पर लड़े और उसमें दैत्य देवताओं से पराजित हो गये, तब देवता अपने अहंकार में भरकर शिवजी को भूल, स्वयं को पृथ्वी, आकाश तथा पाताल का स्वामी समझने लगा। वे सब एकत्र होकर गर्व की बातें करने लगे। सब देवता अहंकार में भरकर अपनी-अपनी वीर्यता बखान करने लगे। उस समय शिवजी ने देवताओं का ऐसा अहंकार देखकर, एक विचित्र चरित्र किया अर्थात् उन्होंने यज्ञरूप से देवताओं के पास जाकर सबसे कुशल पूछी। 

उन देवताओं में से कोई भी यह न जान सका कि ये शिवजी हैं। फिर शिवजी ने उनसे यह कहा तुम सब इस स्थान पर बैठे हुए क्या कर रहे हो ? मालूम होता है, तुम सब अहंकार में भरे हुए हो? यह सुनकर देवताओं ने उत्तर दिया कि क्या तुमने नहीं सुना कि यहाँ देवासुर युद्ध हुआ था? हमने उसमें दैत्यों को मारकर विजय प्राप्त की है। 

यह सुनकर यज्ञस्वरूप शिवजी बोले-हे विष्णु आदि देवताओ! तुम ऐसी बात मत कहो। तुमसे बड़ा भी और कोई है। तुम इस प्रकार अहंकार की बातें मत करो, क्योंकि तुमसे भी बड़ा जो पुरुष है, वह सबसे बलवान् तथा तेजस्वी है। वह‌ जो कुछ चाहता है, वही करता है। यदि तुमको इस बात का विश्वास न हो तो तुम सब मिलकर इस एक तिनके को काटकर दिखाओ। 

इतना कहकर यज्ञरूप शिवजी ने एक तिनका देवताओं के ऊपर फेंक दिया। तब सब देवताओं ने अपने-अपने शस्त्र का प्रयोग उस तिनके पर किया, परन्तु वह तिनका हिला तक नहीं, अपने स्थान पर जैसे पड़ा था, वैसे ही पड़ा रहा। यह देखकर इन्द्र ने अत्यन्त क्रोधित होकर अपना वज्र उस तिनके पर चलाया, परन्तु वह भी निष्फल रहा। 

तदुपरान्त विष्णुजी ने क्रोधित हो, अपना चक्र तिनके पर मारा, परन्तु वह भी असफल रहा। उस समय सब देवता अत्यन्त लज्जित हुए। इतने में यह आकाशवाणी हुई कि हे देवताओ! तुम अपने मन में किसी बात का संशय मत करो। तुम सबने अहंकार के वशीभूत होकर अपने स्वामी को नहीं पहिचाना। उन्होंने तुम्हारा अहंकार दूर कर दिया। फिर कभी ऐसा अहंकार मत करना। तुम्हारे सम्मुख यह जो खड़े हुए हैं, वे यज्ञरूपी सदाशिवजी ही हैं।

हे नारद! इस प्रकार आकाशवाणी सुनकर सब देवता यज्ञेश्वर महादेव के चरणों पर गिर पड़े तथा अनेक प्रकार से प्रणाम कर, अहंकार से मुक्त हुए। तदुपरान्त उन सबने यह निश्चय किया कि संसार में शिवजी के समान बलशाली और कोई नहीं है। 

फिर सब देवता आदि शिवजी की स्तुति करते हुए बोले-हे सदाशिवजी! हम सब आपकी शरण में हैं। अब हमारा अहंकार दूर हो गया। यह सुनकर शिवजी ने प्रसन्न होकर ॐकार का उच्चारण किया। इसके पश्चात् सब लोग अपने-अपने घर चले गये। 

हे नारद! यह यक्षेश्वर शिवजी का चरित्र अत्यन्त पवित्र है। इसे पढ़ने तथा सुनने से अत्यन्त सुख प्राप्त होता है। अब मैं तुमको शिवजी के दस महाकाल अवतारों के विषय में बताऊँगा, ध्यानपूर्वक सुनो। हे नारद! शिवजी का पहिला रूप महाकाल है। महाकाली इस अवतार की शक्ति हैं। शिवजी का दूसरा अवतार तार नामक है, जिनकी शक्ति का नाम तारा है। 

तीसरा अवतार बलि है जिनकी शक्ति का नाम भुवनेश्वरी है। चौथा विघ्नेशअवतार है, जो सोलह क्लेश दूर करनेवाले हैं। उनकी शक्ति का नाम विद्या है। पाँचवाँ भैरव अवतार है, जिनकी शक्ति को भैरवी कहते हैं। छठा छिन्नमस्तक अवतार है, जिनकी शक्ति का नाम छिन्नमस्ता है; जो अत्यन्त तेजस्विनी हैं। सातवाँ धूमावत् अवतार है, जिनकी शक्ति को धूमावती कहते हैं। आठवाँ बगलामुख अवतार है, जिनकी शक्ति का नाम बगलामुखी है। नवाँ मातंग अवतार है, जिनकी शक्ति मातंगी कहलाती हैं। दसवाँ कमल अवतार है, जिनकी शक्ति को कमला कहते हैं।

इन दसों अवतारों के पूजन तथा दसों शक्तियों की सेवा से सब मनोरथ सफल होते हैं। इस प्रकार शिवजी के सत्तावन अवतार पूर्ण हुए।

॥ ग्यारह रुद्रावतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब मैं तुम्हें ग्यारह रुद्रों का, जो कि शिवजी के अवतार हैं, वृत्तान्त सुनाता हूँ। वे अवतार अत्यन्त शक्तिशाली तथा सुख प्रदान करनेवाले हैं। उनके चरित्र सुनने से वीर्यता तथा सुख में वृद्धि होती है। पूर्वकाल में दैत्यों ने अत्यन्त बलशाली होकर देवताओं को महान् कष्ट पहुँचाया। तदुपरान्त देवताओं ने अपने पिता कश्यप के सम्मुख जा, हाथ जोड़कर अपना दुःख कहा। 

कश्यप ने उसे सुनकर शिवजी का स्मरण करके सब देवताओं से यह कहा कि शिवजी की इच्छा शुभ है। अब तुम सबलोग अपने-अपने घरों में जाकर शिवजी का ध्यान करो, हम भी तुम्हारी भलाई के लिए अपनी पत्नी सहित शिवजी का तप करेंगे। इस प्रकार कश्यप ने देवताओं को समझाकर वहाँ से विदा किया और स्वयं अपनी पत्नी सहित शिवजी का तप करने लगे। तब शिवजी कश्यप के उस कठिन तप को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उनके समीप जाकर प्रकट हो गये। 

कश्यप ने जब शिवजी को अपने सम्मुख देखा तो वे उनकी स्तुति करने लगे तथा अपनी स्त्री सहित उनके चरणों में गिरकर बोले-हे शिवजी! यद्यपि जो वर मैं आपसे माँगना चाहता हूँ, वह अनुचित है, परन्तु फिर भी मैं ढिठाई से माँगता हूँ। आप कृपाकर मेरे घर अवतरित होकर मेरे पुत्र बनें तथा देवताओं के साथ मित्रता करके दैत्यों का विनाश करें। यह कहकर कश्यपजी चुप हो गये।

शिवजी ने कश्यप के ऐसे वचन सुनकर कहा-अच्छा, यही होगा। तुम्हारी इच्छा पूरी होगी। तदुपरान्त वे वहाँ से अन्तर्धान हो गये। फिर उन्होंने कश्यप के हृदय में वास किया। कश्यप ने शिवजी की ऐसी कृपा देखकर, अपना तेज अपनी स्त्री सुरभी में स्थित कर दिया, जिससे सुरभी अत्यन्त प्रकाशित हुई। तब सब देवताओं ने कश्यप के स्थान पर पहुँचकर गर्भस्थित शिवजी की स्तुति की, फिर वे अपने-अपने स्थानों को लौट गये। 

समय पाकर शिवजी अपने ग्यारह रूप धारण करके सुरभी के गर्भ से उत्पन्न हुए। सुरभी को उससे किसी प्रकार की पीड़ा नहीं हुई। उस समय सब देवताओं को महान् आनन्द प्राप्त हुआ। तब मैंने तथा देवताओं ने एक साथ आकर ग्यारह रूपधारी रुद्र के दर्शन किए तथा प्रेमपूर्वक उनकी स्तुति की। 

हम सबने कहा-हे प्रभो! आप सब दैत्यों को परास्त कर, हम सबको प्रसन्नता प्रदान करें। तदुपरान्त हमने कश्यप से उनका जातकर्म कराया तथा उनके कपाली, पिंगल, भीम, नीललोहित, शस्त्रभृत्, अभय, अजपाद, अहिर्बुध्न, शम्भु, भव तथा विरूपाक्ष से ग्यारह नाम रखे। उस समय बड़ा उत्सव मनाया गया। वे ग्यारह रूद्र उत्पन्न होते ही अत्यन्त बलवान् दिखाई दिये।

हे नारद! यह कोई आश्चर्य की बात नहीं; क्योंकि वे सब शिवजी के ही रूप थे, तदुपरान्त वे माता-पिता की आज्ञा पाकर, देवताओं के साथ चले और देवताओं की सेना एकत्र करने के पश्चात् उन्होंने दैत्यों पर आक्रमण कर दिया। परन्तु देवता दैत्यों के सम्मुख फिर भी न ठहर सके और वे सब युद्धस्थल से भागकर रुद्र के सम्मुख आये तथा उनसे युद्ध का सब वृत्तान्त कहा।

रुद्र ने उसे सुनकर कहा कि तुम किसी प्रकार का भय मत करो। हम पलभर में सब दैत्यों को नष्ट कर डालेंगे। यह कहकर रुद्रों ने दैत्यों का सामना किया। दैत्य रुद्र के तेज के सम्मुख ठहर न सके। देवताओं को इस प्रकार विजय प्राप्त होने से बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपने पुराने लोक को पाकर अत्यन्त आनन्दित हुए। 

हे नारद! ग्यारहों रुद्र इसी प्रकार सदैव देवताओं के साथ रहकर उनकी सहायता करते रहे। हमने तुम्हें यह रुद्र-चरित्र सुनाया है, जिसके सुनने मात्र से ही महापापी मनुष्य भी पापमुक्त हो जाता है।

॥ दुर्वासा अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे पुत्र! जिस प्रकार शिवजी ने अत्रि मुनि के पुत्र होकर अवतार लिया, अब उस कथा का वर्णन मैं तुमसे करता हूँ। मेरे पुत्र अत्रि मेरी आज्ञा पाकर अपनी स्त्री सहित ऋष्यमूक पर्वत पर जाकर विन्ध्या के तट पर बैठे। वे शिव के समान पुत्र की इच्छा से तप करने लगे। इस प्रकार के कठिन तप से एक प्रज्ज्वलित अग्नि उत्पन्न होकर समस्त संसार को जलाने लगी। 

तब तीनों देवता मुनीश्वरों के साथ अत्रि के पास पहुँचे। अत्रि ने उन सबको अपने सम्मुख अपने मुख्य वाहनों सहित मुस्कराते हुए खड़े देखा। तब उन्होंने दण्डवत् कर यह विनय की कि आप तीनों देवता आये, अब मैं आप में से किसकी सेवा करूँ ? मैंने तो एक ही देवता की, जो सबका स्वामी है पूजा की थी, फिर आप तीनों देवता एक ही साथ ही क्यों आये ? 

मैं इससे अत्यन्त चिन्तित हूँ, आप मुझे इसका कारण बताइये। यह सुनकर तीनों देवता बोले-हे अत्रि! तुमने ईश्वर का बहुत तप किया है तथा यह स्पष्ट है कि हम तीनों देवता एक ही रूप हैं। इस से तुम्हारे तीन पुत्र हम तीनों के अंश से उत्पन्न होंगे।

हे नारद! इस प्रकार अत्रि को वर देकर वे तीनों देवता अपने-अपने स्थान को चले गये। अत्रि भी इच्छानुसार वर पाकर अत्यन्त प्रसन्न हो, अपने घर लौट गये। नित्य समय पर तीनों देवताओं के अंश से अत्रि के तीन पुत्र उत्पन्न हुए। ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा, विष्णुजी के अंश के दत्त तथा शिवजी के अंश से दुर्वासा ने जन्म लिया। 

हे नारद! यहाँ पर मैं तुम्हें दुर्वासा के विषय में बताता हूँ। शिवजी ने दुर्वासा का शरीर धारणकर, अनेक चरित्र किये। उन्होंने ब्रह्मतेज धारणकर, सबका आदर किया तथा अनेक के धर्म की परीक्षा ली। उनका प्रथम चरित्र यह है कि एक सूर्यवंशी राजा अम्बरीष विष्णुजी का परम भक्त तथा दृढ़व्रती था। एक दिन उसने एकादशी का व्रत करके द्वादशी में पारण करने की इच्छा की। उसी समय दुर्वासा उनके पास जा पहुँचे।

दुर्वासा अम्बरीष की केवल परीक्षा लेने की ही इच्छा से वहाँ गये थे। अम्बरीष ने दुर्वासा को देखकर, उनका अत्यन्त आदर-सत्कार किया तथा भोजन करने का निमन्त्रण दिया। दुर्वासा अम्बरीष का यह निवदेन स्वीकार कर, अपने शिष्यों सहित नदीतट पर स्नान के लिए चले गये। वहाँ उन्होंने अम्बरीष की परीक्षा लेने के लिए जानबूझकर विलम्ब किया। राजा अम्बरीष दुर्वासा की राह देखते रहे। इतने में द्वादशी समाप्त होने लगी। 

उस समय राजा अम्बरीष ने पारण में विघ्न उपस्थित होते देख, अत्यन्त खेद के साथ ब्राह्मणों से पूछा तो ब्राह्मणों ने वेद के अनुसार अम्बरीष को आज्ञा दी कि आप पारण करें। अम्बरीष ने ब्राह्मणों का आदेश प्राकर व्रत का पारण कर लिया। दुर्वासा राजा अम्बरीष के व्रतपालन करने का हाल जानकर अत्यन्त क्रोधित हुए। उन्होंने राजा के पास आकर यह बोले कि राजा की भक्ति की परीक्षा लें। ऐसा विचार कर दुर्वासा अत्यन्त क्रोधित होकर राजा अम्बरीष को शाप देने लगे। विष्णुजी के चक्र ने दुर्वासा की यह इच्छा जान ली और वह अपना तेज बढ़ाकर दुर्वासा की ओर चला।यह देखकर दुर्वासा भागने लगे। वे सब देशों तथा सब देवताओं के लोकों में सुदर्शन चक्र से भागकर, एक वर्ष तक तीनों लोकों में फिरते रहे। 

अन्त में राजा की शरण में अपने पीछे चक्र को लगाये पहुँचे। उन्होंने सोचा था कि यदि राजा वास्तव में ब्रह्मभक्त होगा तो अपने मन में लज्जित होकर मेरा दुःख दूर करेगा और यदि विष्णुजी की पूरी भक्ति नहीं रखता होगा तो अपना व्रत छोड़ देगा। वे सब देशों तथा सब देवताओं के लोकों में फिर कर राजा अम्बरीष के पास लौट आये और बोले-हे राजन्! हम तुम्हारी शरण में आये हैं। 

हे नारद! मूर्ख यह नहीं जानते कि दुर्वासा तो स्वयं शिवजी का अवतार थे, उनको कोई दुःख कष्ट कैसे हो सकता है ? राजा ने दुर्वासा को ऐसी स्थिति में देखकर, लज्जापूर्वक चक्र से कहा कि अब तुम दूर हो जाओ और ब्राह्मण को छोड़ दो। यह सुनकर चक्र दुर्वासा के पीछे से हट गया। तब राजा ने दुर्वासा को भोजन कराकर, स्वयं भी भोजन किया।

हे नारद! उस समय दुर्वासा ने अत्यन्त तृप्त तथा प्रसन्न होकर राजा को आशीर्वाद दिया और यह कहा-हे राजन्! तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करना। हमने केवल तुम्हारी परीक्षा के लिए ही यह चरित्र किया है। इतना कहकर दुर्वासा अत्यन्त प्रसन्न हो, वहाँ से चले गये। जब विष्णुजी दशरथ के पुत्र रामचन्द्ररूप में अवतरित हुए, उस समय भी दुर्वासा ने ऐसा ही चरित्र किया था। 

इसी प्रकार श्रीकृष्णजी की परीक्षा लेकर उनको अपने रथ का खींचनेवाला बनाया तथा उनकी ब्रह्मभक्ति को देखकर उन्हें वज्ज्ञांग कर दिया। फिर उन्होंने द्रौपदी की परीक्षा लेकर पांडवों को सन्तुष्ट किया।

॥ दुर्वासा द्वारा राम-कृष्ण की परीक्षा लेने का वृत्तान्त ॥

इतनी कथा सुनकर नारदजी ने कहा-हे पिता! अब मेरी यह इच्छा है कि जिस प्रकार दुर्वासा ने श्रीरामचन्द्र तथा श्रीकृष्ण की परीक्षा लेकर उन्हें वरदान दिया, वह सब वृतान्त आप सुनावें। 

ब्रह्माजी बोले-हे पुत्र! जब श्रीरामचन्द्र ने देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए राजा दशरथ के घर में अवतार लिया, तब मैंने एक दिन काल के द्वारा उनके पास यह समाचार भेजा कि अब आप अपने लोक में आकर हम देवताओं को आनन्द प्रदान करने की कृपा करें।‌ तब काल एक मुनि के स्वरूप में रामचन्द्रजी के पास जाकर बैठ गया और अवसर देखकर विनती की-हे महाराज! मुझे आपसे कुछ निवेदन करना है। मुझे कोई दूसरा मनुष्य न जान सके। हमारे आपके इस वार्तालाप में यदि कोई आ जाय तो वह चाहे कोई भी क्यों न हो, आपको उसका परित्याग करना होगा।

रामचन्द्रजी ने काल की इस बात को मानकर लक्ष्मण को द्वार पर खड़े होने का आदेश दिया, जिससे कि कोई वहाँ न आने पावे। फिर वे काल से बोले कि तुम कौन हो, कहाँ से आये हो, तथा क्या कहना चाहते हो? उस समय काल ने उत्तर दिया-हे प्रभो! ब्रह्मा ने आपके लिए यह सन्देश भेजा है कि अब आप वैकुण्ठ में लौट आये।

उन दोनों में यह वार्ता हो ही रही थी कि उसी समय दुर्वासा परीक्षा के लिए वहाँ द्वार पर आये और लक्ष्मण से बोले-हे लक्ष्मण! तुम रामचन्द्रजी को हमारे आने का तुरन्त समाचार दो। यह देखकर लक्ष्मण अत्यन्त चिन्तित हुए। वे सोचने लगे कि मैं भैया के पास जाता हूँ तो वे मेरा त्याग कर देंगे और यदि नहीं जाता हूँ तो ये मुझे श्राप दे देगें। ऐसी दशा में उन्होंने यह निश्चय किया कि दुर्वासा को क्रोधित करना ठीक नहीं।

श्रीरामचन्द्रजी का वियोग अत्यन्त दुःखदायी है, लेकिन दुर्वासा की आज्ञा का पालन करना परमोत्तम है। अपने मन में ऐसा विचारकर, लक्ष्मण ने रामचन्द्रजी के समीप जाकर दुर्वासा का सन्देश कहा। उस समय काल लक्ष्मण को देखते ही अन्तर्धान हो गया। तब रामचन्द्रजी ने अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण कर लक्ष्मण से कहा-हे भाई लक्ष्मण! इस समय हमारे साथ बहुत बरा धोखा हो गया। उसने मुझसे जो वचन लिया था, उसे तो तुम जानते ही हो, इसलिए अब उसे पूरा करो।

हे नारद! लक्ष्मण से यह कहकर रामचन्द्रजी विलाप करने लगे। लक्ष्मण भी उस समय मूर्छित हो गये। तब दुर्वासा ने अन्दर जाकर सबको समझाया और ऐसी लीलाकर वहाँ से विदा हो, अपने स्थान को लौट गये। लक्ष्मण ने भी रामचन्द्रजी से विदा होकर सरयू के तट पर योगमार्ग द्वारा अपना शरीर छोड़ दिया। 

हे नारद! अब तुमसे श्रीकृष्णजी का चरित्र वर्णन करते हैं, जिस प्रकार दुर्वासा ने उनकी परीक्षा ली थी। श्रीकृष्णजी बड़े प्रसिद्ध ब्रह्मभक्त थे। ऐसे ब्रह्मभक्त कृष्णजी की परीक्षा लेने के लिए दुर्वासा एक दिन उनके घर आये। कृष्णजी ने अत्यन्त नम्रता, आदर, मान तथा शील से दुर्वासा का स्वागत किया तथा उत्तमोत्तम भोजन कराये। 

तब दुर्वासा ने परीक्षा लेने के लिए उनसे यह कहा-हे श्रीकृष्णजी! हम रथ पर चढ़ना चाहते हैं तथा यह भी चाहते हैं कि तुम तथा तुम्हारी स्त्री रुक्मिणी उस रथ को खींच कर चलावें। ऐसा करने पर हम तुम्हें तुम्हारी इच्छानुसार वर देकर प्रसन्न करेंगे। श्रीकृष्णजी ने दुर्वासा के इस आदेश को प्रसन्नता से स्वीकार कर लिया और उनकी इच्छानुसार उन्हें रथ पर बैठाकर, आज्ञापालन किया। तब दुर्वासा ने प्रसन्न होकर श्रीकृष्णजी से कहा कि तुम हमारी आज्ञा से पारस लो और उसे सारे शरीर में लगा लो। तुम्हारा कोई अंग खुला न रहे। श्रीकृष्णजी ने यही किया। तब दुर्वासाजी ने प्रसन्न होकर, उन्हें यह वर दिया कि जहाँ-जहाँ तुम्हारे शरीर मैं पारस लगी है, वहाँ-वहाँ तुम्हारे शरीर को कोई शस्त्र-वेध न कर सकेगा। इसके पश्चात् दुर्वासा वहाँ से अन्तर्धान हो गये तथा श्रीकृष्णजी प्रसन्न एवं पापों से रहित होकर जीवन व्यतीत करने लगे।

हे नारद! एक दिन द्रौपदी अपनी सखियों सहित गंगा-स्नान करने गयीं और वहाँ स्नान करने लगीं। उनसे पहले कुछ दूरी पर पूर्व की ओर दुर्वासा भी स्नान कर रहे थे। उसी समय उनकी कोपीन नदी में छूट गयी। लज्जा से दुर्वासा जल से बाहर नहीं निकल सके। द्रौपदी ने यह दशा जानकर अपना आँचल फाड़कर दुर्वासा की ओर बहा दिया। 

दुर्वासा उसको पहनकर पानी से बाहर आये तथा प्रसन्न होकर द्रौपदी से बोले-हे द्रौपदी! तुमने इस समय हमारी लज्जा रखी है, तुमको इसका फल अवश्य मिलेगा। सब देवता इस बात के साक्षी हैं कि तुम्हारी लज्जा सदैव बनी रहेगी। इतना कहकर दुर्वासा वहाँ से अन्तर्धान हो गये। 

हे नारद! अब तुम दुर्वासा का एक और चरित्र सुनो। एक दिन दुर्वासा सरोवर में स्नान करने के लिए गये तथा अपना स्वरूप अत्यन्त मैला-कुचैला बनाया। संयोग से उस दिन गन्धर्वों की तीन पुत्रियाँ भी स्नान के लिए वहीं गयी थीं। उन तीनों के नाम क्रमशः रत्नाढ्या, रत्नचूड़ा तथा घृतपर्णी थे। उन्होंने दुर्वासा को इस दशा में देखकर अनेक दुर्वचन कहे और यह कहा कि ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर हमारे लिए यह सुन्दर पति भेजा है। दुर्वासा ने यह सुनकर उनको शाप दिया और सबको अपना ब्रह्मतेज दिखाते हुए कहा कि तुम चण्डाली होकर बड़ा कष्ट पाओगी। जब वे उनकी शरण में पहुंचीं तो कहा कि तुम मलमास व्रत करके पुनः पहले की तरह हो जाओगी। यह कहकर दुर्वासा वहाँ से अन्तर्धान हो गये। हे नारद! इस प्रकार उनहत्त रखें अवतार की कथा पूर्ण हुई।

॥ गृहपति अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब मैं तुमको गृहपति अवतार के विषय में बताता हूँ। नर्मदा नदी के तट पर नर्मपुर नामक नगर में, विश्वामित्र मुनि ब्रह्मचारी शिवजी के अनन्य भक्त रहते थे। उन्होने गृहस्थाश्रम को ही सर्वश्रेष्ठ समझकर, चक्षुष्मति नामक कन्या के साथ अपना विवाह किया। वे अपनी पत्नी के साथ नित्य-प्रति शिवजी का पूजन करते थे। बहुत समय बीत जाने पर भी उनके कोई पुत्र उत्पन्न न हुआ। 

तब एक दिन उसकी पत्नी ने हाथ जोड़कर यह विनय की हे स्वामी! मैंने आपके साथ आठों प्रकार के भोग भोगकर, सदैव निश्चित बिहार किया है, परन्तु मेरी एक इच्छा है, जिसकी कि अभिलाषा सभी गृहस्थ करते हैं। अपनी पत्नी की ऐसी बातें सुनकर विश्वामित्र बोले-हे देवि! तुम्हारी जो इच्छा हो, हमसे वह वर ले लो। तब स्त्री ने प्रसन्न हो कहा-हे नाथ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे शिवजी के समान पुत्र दीजिए। यह सुनकर विश्वामित्र ने शिवजी का ध्यान करके कहा-तेरी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी। यह कोई कठिन बात नहीं है। 

इतना कहकर विश्वामित्र तपस्या के लिए काशी में आये। उन्होंने मणिकर्णिका में स्नान कर विश्वनाथ की पूजा की तथा यथाविधि सब देवताओं का पूजन किया। फिर उन्होंने अपने मन में यह सोचा कि काशी में ऐसा कौन-सा शिव लिंग है, जो शीघ्र ही सिद्धि प्रदान करे? तदुपरान्त वे वीरेश्वर को सन्तान-दाता जानकर, चन्द्रकूप के जल में स्नानकर, ईश्वर का ध्यान करने लगे। बारह मास के पश्चात् एक मास में केवल एक तरकारी खाकर, एक मास में तिल चबाकर, एक मास में केवल पंचगव्य से कालक्षेप करते रहे तथा एक मास में चन्द्रायण किया। इस प्रकार उन्होंने बारह मास व्यतीत किये। जब तेहरवें महीने स्नान कर, प्रातःकाल वे वीरेश्वर के निकट पहुँचे तो वीरेश्वर के बीच में से एक आठ वर्ष का अत्यन्त सुन्दर बालक प्रकट हुआ। 

उसका अतिसुन्दर गौर शरीर था। वह श्वेत भस्म लगाये, सुन्दर केश, जो जटा के धारण किये हुए थे। यह सब अंगों सहित अत्यन्त उत्तम वेद पाठ करता विश्वामित्र की ओर देखता हुआ खड़ा हो गया।

हे नारद! विश्वामित्र ने उस बालक को देखकर दोनों हाथ जोड़कर स्तुति की। तब उस बालक ने कहा-हे मुनि! तुम अपनी इच्छानुसार कोई वर माँगो। यह सुन विश्वामित्र बोले-हे शिवजी! आपसे कौन सी बात छिपी हुई नहीं है ? मेरी केवल यही विनती है कि आप मेरी इच्छा पूर्ण करें। विश्वामित्र के यह वचन सुनकर शिवजी बोले-हे विश्वामित्र! तुम्हारी इच्छा शीघ्र ही पूरी होगी। यह कहकर वह बालक वहाँ से अन्तर्धान हो गया। तब विश्वामित्र ने प्रसन्नतापूर्वक घर में आकर अपनी स्त्री से सब वृतान्त कह सुनाया। उन्होंने अपनी स्त्री को शिवजी द्वारा दिये गये वरदान का भी वर्णन किया। 

इस समाचार को सुनकर संसारी मनुष्य विश्वामित्र के पास गये तथा उनकी स्तुति करने लगे। तदुपरान्त सभी ने चक्षुष्मती के भाग्य की सराहना की। फिर वे वहाँ से अपने-अपने स्थान को लौट गये।

॥ शिवजी के वरदान द्वारा चक्षुष्मती के गर्भ धारण की कथा ॥

ब्रह्मा जी बोले-हे नारद! शिवजी के वरदान से चक्षुष्मती के गर्भ रहा। विश्वामित्र ने गर्भ की रक्षा, आरोग्य तथा पालन के लिए पाँचवें तथा आठवें मास में बहुत दान किया। दसवें मास में, शुभ लग्न में, उनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। तब दोनों ने मिलकर प्रसन्न हो, बड़ा उत्सव मनाया। आकाश से फूलों की वर्षा हुई, सारा मन्दिर सुगन्ध से भर गया। मैं स्वयं देवताओं सहित वहाँ गया। विष्णुजी भी लक्ष्मीसहित वहाँ पधारे। शिवजी भी गौरी को अपने साथ ले, गणोंसहित वहाँ उपस्थित हुए। उस समय शिवजी के आदेश के अनुसार मैंने उस बालक के जात-कर्म किये। ऋषि-मुनि वेद-पाठ करने लगे।मैंने बहुत सोचकर उस बालक का नाम गृहपति रखा। 

इसके पश्चात् सब अपने-अपने स्थान को लौट गये। विश्वामित्र ने चौथे मास निष्क्रमण की रीति की तथा छठे मास अन्नप्राशन किया। बाहरवें मास उसका चूड़ाकर्म हुआ। उसके बाद कान छेदे गये। पाँचवें वर्ष दीक्षा हुई। फिर वह बालक वेद पढ़ने लगा। फिर विश्वामित्र ने उसे गुरु से मन्त्र दिलवाकर सब विद्याएँ सिखायीं। 

हे नारद! नवें वर्ष तुम वहाँ गये। विश्वामित्र ने प्रसन्न होकर तुम्हारी बड़ी सेवा की। तुमने बालक का हाथ देखा और बोले-हे विश्वामित्र! तुम्हारे पुत्र के सब अंग अत्यन्त शुभ हैं, किन्तु एक लक्षण बुरा है। इसका बारहवाँ वर्ष अरिष्ट है। तुमको उसकी रक्षा का कोई उपाय करना चाहिए। 

हे नारद! तुम तो उनसे यह कहकर वहाँ से चले गये, परन्तु गृहपति के माता-पिता अति दुःखी होकर रोने लगे। माता-पिता की यह दशा देखकर गृहपति बोले-आप इतने दुःखी क्यों होते हैं ? एक तो आपके प्रभाव से मुझे मारने की शक्ति काल में भी नहीं हैं। दूसरे शिवजी जब तक मेरे रक्षक हैं, तब तक कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। माता-पिता गृहपति के ऐसे अमृतमय वचन सुनकर आनन्दित हुए। 

वे कहने लगे-हे पुत्र! तुम जाकर शिवजी की सेवा करो। शिवजी की सेवा करके तथा उन्हें प्रसन्न करके बहुत से मनुष्यों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है। शिवजी भक्तों का भय दूर करनेवाले हैं। उनके समान अपने भक्तों को आनन्द प्रदान करनेवाला और कोई नहीं है। इसलिए तुम शिवजी की शरण में जाओ। 

गृहपति माता-पिता की यह आज्ञा सुनकर काशी जा पहुंचा। वहाँ उसने मणिकर्णिका में स्नान किया तथा विश्वनाथजी की पूजा कर, अपने को धन्य समझा। फिर वह शिवजी के लिंग की स्थापना कर, तप में प्रवृत हुआ। वह गंगा से आठ सौ घड़े पानी लाकर शिवजी को स्नान कराता तथा नित्यप्रति एक सौ आठ श्वेतकमलों की माला शिवजी को पहनाता था। 

एक दिन इन्द्र ने कहा-हे गृहपति! हम इन्द्र हैं। हम तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हुए हैं। हमसे इच्छानुसार कोई वर माँगो। तब गृहपति ने मधुर वाणी से उत्तर दिया कि मुझे आपसे कुछ माँगने की इच्छा नहीं है। मैं तो शिवजी को वर देनेवाला जानता हूँ। बालक के यह वचन सुनकर इन्द्ररूपी शिवजी ने हँसकर कहा-हे बालक! शिवजी हमसे भिन्न नहीं हैं। तब गृहपति ने उत्तर दिया कि तुम यहाँ से दूर हट जाओ। तुम किस योग्य हो? मुझे शिवजी के अतिरिक्त किसी देवता से वर माँगने की कोई इच्छा नहीं है।

हे नारद! इन्द्र ने ऐसे वचन सुनकर, अपना वज्र उठाकर गृहपति को बहुत डराया। गृहपति उस वज्र की ज्वाला को देखकर मूच्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसने शिवजी का स्मरण किया। तब शिवजी तुरन्त अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुए और उसे अपने हाथ से उठाकर बैठाया। वे बोले-हे गृहपति! तुम्हारा कल्याण हो। गृहपति ने यह शब्द सुन, उठकर देखा कि शिवजी सम्मुख खड़े हुए हैं जिनके बाएँ भाग में श्रीभवानी संपूर्ण सृष्टि की जननी विराजमान हैं तथा शिवजी महागौरस्वरूप, सम्पूर्ण शरीर में भस्म लगाये हुए हैं तत्पश्चात् शिवजी बोले-हे गृहपति! तुम इन्द्र से बहुत डर गये थे, लेकिन अब किसी प्रकार का भय मत करो। हमने स्वयं इन्द्र का स्वरूप धारणकर यह चरित्र किया था। अब तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। 

हम तुमको वर देते है कि तुम देवताओं में पवित्र होकर तीनों लोकों में भ्रमण किया करोगे तथा सबकी मानसी गति जानकर तीनों रूप से संसार के कार्य करोगे। तुपने जो हमारे लिंग की स्थापना की है, उसकी सेवा करनेवालों को कभी कोई दुःख न होगा। शिवजी ने यह कहकर गृहपति के माता-पिता को बुलाकर, उन सब को दिक्पति कर दिया। इसके पश्चात् शिवजी वहाँ से अन्तर्धान हो गये और गृहपति द्वारा स्थापित लिंग में समा गये। गृहपति की पुरा का नाम चक्षुष्मती हुआ, जो बहुत ही तेजपूर्ण है। 

वहाँ के सब निवासी नित्य बलि-वैश्वदेव यज्ञ करते हैं। गृहपति अपने गणों सहित चक्षुष्मती नामक अपनी पुरी में निवास करते हैं तथा अपने माता-पिता एवं सम्पूर्ण परिवार सहित उसी देश में भ्रमण करते हैं। वहाँ सबको हर प्रकार के सुख प्राप्त हैं, किसी को कोई दुःख नहीं है। जो जीव अग्नि में प्रवेश करते हैं तथा जो अग्नि की पूजा आदि करते हैं, वे उसी देश में जाकर विहार करते हैं। जो लकड़ी आदि देकर किसी का शीत दूर करते हैं, वे सब उसी लोक में जाकर आनन्द प्राप्त करते हैं।

हे नारद! गृहपति की सेवा सबको करनी चाहिए। शिवजी का यह अवतार बहुत ही शीघ्र वर देनेवाला है। अग्नि शिवजी का तेज है, जो विश्वामित्र के पुत्ररूप में प्रकट हुई। इस अन्धकारपूर्ण संसार में अग्नि के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु चमकनेवाली तथा प्रकाशवान् नहीं है। इसके बिना तीनों लोकों का निर्वाह नहीं हो सकता। अग्नि पर ही तीनों लोकों का आनन्द निर्भर है। जो कोई गृहपति के इस चरित्र को पढ़ेगा या सुनेगा, वह दोनों लोकों में अत्यन्त आनन्द प्राप्त करेगा।

 ॥ वृषेश्वर अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब मैं तुमको शिवजी के वृषेश्वर अवतार के विषय में बताता हूँ। एकबार देवता तथा दैत्यों ने मिलकर समुद्रमन्थन किया तथा विष्णुजी की युक्ति के अनुसार सब रत्न समुद्र से निकाल लिये। विष्णुजी ने लक्ष्मी, कौस्तुभमणि तथा शाङ्गी नामक धनुष लिये। सूर्य ने उच्चैःश्रवा घोड़ा प्राप्त किया। इन्द्र ने कल्पवृक्ष तथा ऐरावत हाथी लिया। दैत्यों ने मद्य लिया। शिवजी ने कालकूट विष तथा चन्द्रमा प्राप्त किया। इसके पश्चात् जब धन्वन्तरि अपने हाथ में अमृत लिये निकले, तो वह अमृत दैत्यों ने छीन लिया। 

उस समय सब देवताओं ने विष्णुजी से पुकार की, तब विष्णुजी ने स्त्री का रूप धारणकर अपनी माया से देवताओं को यह अमृत पिला दिया। धन्वन्तरि वैद्य आरोग्य की रक्षा करनेवाला तथा वैद्यक-विद्या में बहुत प्रवीण हुए।जो स्त्री-रत्न थीं, उन्हें दैत्यों ने उनकी लड़कियों सहित ले जाकर पाताल में रखा। तदुपरान्त उन्होंने देवताओं से भली-भाँति युद्ध किया। परन्तु देवताओं से परास्त होकर, वे सब उनके भय से पाताल में जाकर रहने लगे। 

फिर विष्णुजी उनका पीछा करते हुए उनके लोक में जा पहुँचे तथा वहाँ उन स्त्रियों को देखकर मोहित हो गये और उन्हीं के साथ विहार करके, वहीं रह गये। इस प्रकार वहाँ पर विष्णुजी के बहुत से पुत्र उत्पन्न हुए। बड़े होकर वे बालक पाताल से निकल कर सब देवताओं आदि को दुःख पहुँचाने लगे। जब देवताओं के कहने से मैंने सब देवताओं को साथ लेकर, शिवजी के पास जाकर स्तुति की और उनसे यह प्रार्थना कि की हे प्रभो! विष्णुजी ने पाताल में जाकर अनेक स्त्रियों से विहार कर, बहुत से लड़के उत्पन्न किये हैं। वे वहीं रह भी गये हैं तथा अपने लोक को लौटकर नहीं आते हैं। और विष्णुजी के वे सब लड़के अत्यन्त बलशाली होकर चारों ओर उपद्रव मचाते फिरते हैं।

हे नारद! शिवजी ने देवताओं की ऐसी करुण-पुकार सुनकर, अपना स्वरूप बैल का बनाया और घोर नाद किया। फिर वे तुरन्त ही वहाँ जा पहुँचे जहाँ विष्णुजी निवास कर रहे थे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने ऐसा महाघोर शब्द किया कि उसे सुनकर वह पूरा नगर काँप उठा। यह देखकर विष्णुजी ने अत्यन्त क्रोधित होकर अपने लड़कों को शिवजी से युद्ध करने की आज्ञा दी। अपने पिता की आज्ञा पाकर जब वे लड़के शिवजी के अवतार के सम्मुख आये, तो वृषेश्वर अवतार ने अपने तीक्ष्ण सींगों द्वारा उन सबको मार डाला। 

तब विष्णुजी ने अपने लड़कों की मृत्यु का समाचार सुनकर अत्यन्त क्रोधित हो, वृषेश्वर का सामना किया तथा उनके ऊपर उत्तमोत्तम शस्त्र चलाये। तब वृषेश्वर ने कुपित हो, भयानक शब्द कर, अपने नख तथा सींगों द्वारा विष्णुजी को भी विकल कर दिया। तब विष्णुजी ने अंहकार त्याग, वृषरूप शिवजी को पहिचान, करुणस्वर में उनकी स्तुति करते हुए कहा-हे शिवजी! आप मेरा अपराध क्षमा करें। 

शिवजी विष्णु के ऐसे वचन सुनकर बोले-हे विष्णु! अब तुम शीघ्र ही इन स्त्रियों को छोड़कर अपने लोक को चले जाओ और भविष्य में फिर कभी ऐसा मत करना अत्यन्त लज्जित होकर कर! हमारा चक्र तो यहाँ पर रखा हुआ है। शिवजी ने उत्तर दिया। इस चक्र को यहीं रखा रहने दो। हम तुम्हें ऐसा ही एक दूसरा चक्र देंगे। शिवजी ने उसी समय एक चक्र बनाकर विष्णुजी को दिया और कहा कि तुम इसी समय यहाँ से चले जाओ। 

तब विष्णुजी ने शिवजी की आज्ञा पाकर, देवताओं के पास अलग जाकर कहा-हे देवताओ! यहाँ जो स्त्रियाँ अमृत से उत्पन्न स्थित हैं, वे सब प्रकार से आनन्द प्रदान करनेवाली हैं। जो इनसे भोग करता है, वही इनका स्वामी है। यह सुनकर देवताओं ने उन स्त्रियों के पास जाने की इच्छा की। लेकिन शिवजी ने उनकी वह इच्छा समझकर तुरन्त ही शाप दिया कि जो कोई उस स्थान पर, शान्त मुनीश्वरों तथा मद्यप दैत्यों के अतिरिक्त आवेगा, वह तुरन्त मर जायेगा। 

शिवजी के ऐसे वचन सुनकर सब देवता भयभीत हो, अपने-अपने घरों को चले गये। फिर शिवजी, विष्णुजी तथा अन्य सब देवता भी अपने लोकों को गये।हे नारद! जो इस चरित्र को सुनेगा अथवा पाठ करेगा, वह सदैव आनन्द प्राप्त करेगा।

॥ पिप्पलाद अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब मैं तुम्हें पिप्पलाद अवतार के विषय में बताता हूँ। एकबार तीनों लोकों में प्रसिद्ध मुनि दधीचि ने, जिन्होंने इन्द्र को युद्ध में परास्त किया था, विष्णुजी तथा अन्य सब देवताओं को शाप दिया तथा उनकी स्त्री सुवर्चा ने भी सब देवताओं को श्रापित करने में कोई संकोच नहीं किया। उन्हीं के पिप्पलाद नामक एक बालक उत्पन्न हुआ,जिसे शिवजी का अवतार कहते हैं। 

इतनी कथा सुनकर नारदजी बोले-हे पिता! आप सबसे पहले मुझे देवताओं को सुवर्चा द्वारा श्रापित करने का वृत्तान्त सुनाइये। इसके पश्चात् पिप्पलाद के अवतार का वर्णन कीजिये। ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! जिस समय इन्द्र वृत्रासुर से परास्त होकर देवताओं सहित हमारी शरण में आये, उस समय हमने देवताओं से यह कहा कि तुम सबलोग दधीचि के पास जाकर, उनसे उनकी अस्थि माँगो। तथा उन हड्डियों द्वारा एक वज्र बनाकर उसी वज्र से वृत्रासुर का वध करो, तुम्हारी सहायता शिवजी करेंगे। 

देवताओं ने यह सुनकर दधीचि के पास जाकर हड्डियाँ माँगी। दधीचि ने तुरन्त ही अपनी हड्डियाँ दे दीं तथा स्वयं शिवलोक को पधारे। तब देवताओं ने उन्हीं हड्डियों से विश्वकर्मा के द्वारा वज्र बनवाया तथा इन्द्र ने उसी वज्र से वृत्रासुर का बध किया। वृत्रासुर के वध से सब लोग प्रसन्न हुए। जब यह हाल दधीचि की स्त्री सुवर्चा को ज्ञात हुआ तो उसने अत्यन्त चिन्तित हो, अपने पातिव्रतधर्म का तेज दिखलाया और देवताओं को पुत्रहीन होने का श्राप दिया। 

तदुपरान्त जब सुवर्चा ने सती होने की इच्छा की, उसी समय आकाशवाणी ने उन्हें रोक दिया। तब आकाशवाणी की आज्ञानुसार सुवर्चा ने पीपल की जड़ में बैठकर अपने को स्थिर किया। इतने में ही उसी वृक्ष के नीचे एक बालक उत्पन्न हुआ। वह बालक शिवजी का अवतार था। उस बालक के चारों ओर कान्ति फैली हुई थी। उस बालक को देखकर सुवर्चा अपने सब दुःखों को भूल गयी। 

फिर वह उस बालक को शिवजी का अवतार समझ, स्तुति करती हुई बोली-हे प्रभो! आप मेरे शोक को दूर करें। आप पीपल के वृक्ष के नीचे निवास करें तथा सदैव प्रसन्न रहें। अब आप मुझे यह आज्ञा दें कि मैं भी अपने पति के पास उनके लोक को चली जाऊँ और वहीं पति के साथ रहकर, आपका ध्यान किया करूँ।

हे नारद! यह कहकर सुवर्चा प्रसन्नतापूर्वक सती हो गयी तथा शिवलोक में पहुँचकर दधीचि सहित सदाशिवजी की सेवा में तत्पर रही। शिवजी पीपल के वृक्ष के नीचे उत्पन्न हुए थे, इसलिए मैंने उनका पिप्पलाद नाम रख दिया। तब सब मिल कर पिप्पलाद की स्तुति करने लगे। फिर हम सब पिप्पलाद की आज्ञा पाकर अपने-अपने लोक को चले गये। पिप्पलाद उसी पीपल की जड़ में बैठकर तपस्या करते रहे। एक दिन पिप्पलाद मुनि पुष्पभद्रा नदी के तट पर जा रहे थे। मार्ग में उन्होंने एक स्त्री को देखा। 

तब उन्होंने यह इच्छा की कि हम इसके साथ अपना विवाह कर गृहस्थाश्रम ग्रहण करें। इसी इच्छा से उस स्त्री के माता-पिता के घर संसारी रीति से गये। वह लड़की राजा अनरण्य की पुत्री थी। अनरण्य ने पिप्पलाद का बड़ा सम्मान किया। जब पिप्पलाद ने उनसे उस कन्या को माँगा, तब राजा अनरण्य पिप्पलाद को दुर्बल देखकर चुप हो रहा उसने कोई उत्तर नहीं दिया। 

यह देखकर पिप्लाद अनरण्य राजा से कहा-हे राजन्। यदि तुम अपनी कन्या मुझे नहीं देते, तो मैं तुम्हें भस्म किये देता हूं, जब राजा ने पिप्पलाद का ऐसा तेज देखा तब उसने रोते-पीटते हुए बोला तब लड़की का विवाह पिप्पलाद के साथ कर दिया। पिप्पलाद वहाँ से स्त्री को साथ ले अपने स्थान को लौट आये। अनरण्य की पुत्री ने पातिव्रत धर्म का पूरी तरह पालन किया। शिवजी के अंश से पिप्पलाद तथा गिरजा के अंश से पद्मा अर्थात् राजा अनरण्य की पुत्री उत्पन्न हुई थी।

एक दिन पिप्पलाद की स्त्री ने अपने को भली-भाँति श्रृंगारित किया तथा पिप्पलाद से आज्ञा लेने के पश्चात गंगा के स्नान के लिए चली। धर्मराज ने मार्ग में राजा का स्वरूप रख उसकी परीक्षा लेनी चाही। वे पद्मा से बोले-हे सुन्दरी! तुम्हारा पति तो वृद्ध, कुरूप एवं अशोभनीय है, तुम उसका त्यागकर हमारे पास आकर विहार करो। मुनि को स्त्री होकर भला क्या आनन्द पाओगी।

यह कहकर उन्होंने पद्मा का हाथ पकड़ना चाहा; परन्तु उसी समय पद्मा ने अत्यन्त क्रोधित होकर यह कहा- अरे दुष्ट! दूर हो, मुझे स्पर्श करने की धृष्टता मत करना। तूने मुझे कुदृष्टि से देखा है, इसलिए तेरा तेज नष्ट हो जायगा।

हे नारद! पद्मा द्वारा यह शाप सुनकर धर्मराज का तेज उसी समय मलिन हो गया। तब वे राजा का शरीर त्याग, असली रूप रखकर, विनय करके बोले-हे माता! मैं धर्मराज हूँ, मैंने यह कृत्य आपकी परीक्षा लेने के लिए किया था। अब आप मुझपर कृपा करें, क्योंकि आप जगन्माता है। उस समय प‌द्मा ने धर्मराज को पहिचान कर कहा-हे धर्मराज! सत्ययुग में तुम पूर्णरूप से रहोगे, तुमको किसी प्रकार का कष्ट न होगा, परन्तु त्रेता में तुम्हारा एक पैर, द्वापर में दो पैर तथा कलियुग में तीसरा पाँव कट जायगा, क्योंकि मेरा वचन व्यर्थ नहीं होता।

धर्मराज ने पद्मा का यह शाप सुन, प्रसन्न होकर कहा-हे माता! आपने मुझको नरकगामी होने से बचा लिया। अब मैं प्रसन्न होकर आपको वर देता हूँ कि आपके पति युवा होकर अत्यन्त सुन्दर हो जायँ। वे अत्यन्त कला-कुशल, विद्वान तथा बड़े अद्भुत चरित्र करनेवाले होंगे। आपके दस पुत्र अत्यन्त बुद्धिमान् उत्पन्न होंगे।

धर्मराज यह कहकर वहाँ से अपने लोक को चले गये। प‌द्मा भी अपने स्थान को लौट आयी। इस प्रकार पिप्पलाद अवतार ने अनेक मनुष्यों को संसार-सागर से डूबते हुए बचाया तथा जब संसारी मनुष्यों को शनिश्चर की दशा तथा दृष्टि से दुःखी देखा तो उन्हें यह वर दिया कि आज से शिवजी के भक्तों को तथा जन्म से सोलह वर्ष तक के बालकों को शनिश्चर दुःखी नहीं कर सकेगा। 

शनिश्चर का अशुभ फल पिप्पलाद के नाम के स्मरण मात्र से ही नष्ट हो जाता है। पिप्पलाद तथा कौशिक मुनि के स्मरण से शनिश्चर का अशुभ फल नहीं होता। हे नारद! पिप्पलाद संसार भर का आनन्द प्रदान करनेवाले हैं तथा पद्मा भी गिरिजा का अवतार हैं। उनके स्मरण से सन्तान-वृद्धि होती है। पिप्पलाद का यह आख्यान अत्यन्त पवित्र है। इसके पढ़नेवाले तथा सुननेवाले को दोनों लोकों में सब कुछ मिलता है।

॥ महेश अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! एक दिन शिवजी तथा गिरिजा दोनों संसारी जीवों के समान विहार करने की सम्मति कर, भैरव को द्वार पर बिठा, स्वयं अन्तःपुर में गये। एक दिन गिरिजा मतवाली के समान घर से बाहर निकलीं, तब भैरव ने गिरिजा को कुदृष्टि से देखा और बाहर जाने से रोक दिया। 

यह देखकर गिरिजा ने अत्यन्त क्रोधित होकर शिवजी की इच्छानुसार भैरव को यह शाप दिया-हे भैरव! तू मेरा पुत्र होकर मुझे कुदृष्टि से देखता है तथा माता-पुत्र का भाव छोड़, मनुष्य के समान कुमार्गी होना चाहता है, इसलिए तू मृत्युलोक में जाकर मनुष्य का शरीर धारण करेगा तभी तू ऐसे पाप से छूटेगा। 

यह सुनकर भैरव अत्यन्त दुःखी हुए। फिर उन्होंने भी अपनी लीला प्रदर्शित करने के लिए गिरिजा को यह शाप दिया कि जो दशा हमारी हो, वही दशा तुम्हारी भी होगी। शिवजी दोनों की बातें सुनकर बाहर निकल आये और हँसते हुए दोनों को समझाया। 

उस समय भैरव ने शिवजी से विनय की-हे पिता! पृथ्वी पर भी मैं आपका पुत्र होकर उत्पन्न होऊँ। इसीलिए शिवजी के साथ उनके सब पुत्रों को भी अवतार लेना पड़ा।

॥ अवधूत पति अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! मैं तुम्हें अवधूतपति अवतार की कथा सुनाता हूँ। एक दिन इन्द्र ने सदाशिवजी के दर्शनों की इच्छा से सब देवताओं को एकत्र किया तथा यह विचार किया कि हम सब देशों के राजा-महाराजा हैं। हमको बहुत-सी सामग्री सहित शिवजी से भेंट करनी चाहिए। इस प्रकार निश्चय कर उन्होंने अनेक प्रकार की सामग्री एकत्र की। उस समय ग्यारहों रुद्र, बारहों सूर्य, आठों बसु, तेहर विश्वेदेव, समस्त मरुद्गण, सब दिक्पति, देवता तथा मुनीश्वर भली प्रकार सजकर, बड़ी धूमधाम से एकत्र होकर, बृहस्पति को साथ लेकर शिवजी से मिलन के लिए चले। 

सभी प्रेम में मग्न थे, कोई गाता, कोई बजाता तथा कोई हँसता हुआ चला आ रहा था। जब वे सब कैलाश पर्वत के निकट पहुँचे, तो शिवजी ने इन्द्र का ऐसा गर्व देखकर लीला के निमित्त अपना भयंकर रूप धारण किया। इन्द्र ने उन अवधूत को देखकर प्रणाम किया और पूछा-हे परमहंस! आप कौन हैं तथा कहाँ से आये हैं? प्रतीत होता है कि आप इसी समय शिवजी के पास से आ रहे हैं। कृपा करके आप हमें बताइये कि शिवजी इस समय कहाँ हैं तथा क्या कर रहे हैं ? वे कहीं चले तो नहीं गये ? अवधूत ने इन्द्र के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। 

तब इन्द्र ने पुनः उनसे पूछा कि कृपा करके आप यह बतला दीजिये कि शिवजी कहाँ हैं ? इसी प्रकार इन्द्र ने अवधूत से कई बार शिवजी के विषय में पूछा, परन्तु अवधूत ने इन्द्र को कोई उत्तर न दिया। तब इन्द्र ने क्रोधित होकर अपना वज्र उठाते हुए कहा-अरे दुष्ट अवधूत! तू हमको कोई उत्तर नहीं देता। मैं तुझको अभी अपने वज्र से मार देता हूँ। देखूंगा तेरा कौन रक्षक है ? यह कहकर इन्द्र ने अवधूत पर वज्र चलाया। वह व्रज उनके कण्ठ में लगा जिससे श्याम रंग का चिन्ह पड़ गया, परन्तु वज्र भी उसी समय जलकर भस्म हो गया। यह देखकर देवताओं की सेना में हाहाकार मच गया। 

तदुपरान्त शिवजी में क्रोध की ज्वाला इतनी बढ़ी कि सब देवता उस ज्चाला से जलने लगे। इन्द्र ऐसी लीला देखकर काँप उठे। उन्होंने तुरन्त ही अपने गुरु का स्मरण किया। जब बृहस्पति ने शिवजी का ध्यान किया तथा शिवजी को पहिचाना तब उनकी स्तुति करके इन्द्र से यह कहा-हे इन्द्र! यह अवधूत नहीं, अपितु स्वयं सदाशिवजी हैं। इतना कहकर बृहस्पति ने शिवजी का अत्यन्त आदर किया तथा कहा कि आप सबके स्वामी हैं। 

तब इन्द्र आदि सब देवताओं ने भी प्रेम के साथ शिवजी की स्तुति की। शिवजी यह स्तुति सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले-हे इन्द्र तथा अन्य देवताओ! हम तुम्हारी यह स्तुति सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए हैं। अब तुम हमसे अपनी इच्छानुसार वर माँगो। यह सुनकर बृहस्पति अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उन्होंने शिवजी से यह वर माँगा कि हे शिवजी! इन्द्र आपका सेवक है, आप इसकी रक्षा कीजिए।

हे नारद! बृहस्पति के ऐसे वचन सुनकर शिवजी ने कहा-बृहस्पति हम कृपा करके इस ज्वाला को यहाँ से इतनी दूर फेंक देंगे कि इसका प्रभाव इन्द्र पर कुछ न होगा। तुमने आज इन्द्र को जीवनदान दिया है, इससे तुम्हारा नाम जीवन होगा। शिवजी ने यह कहकर; उस क्रोधाग्नि को गंगा में फेंक दिया, जिससे जालन्धर दैत्य उत्पन्न हुआ। 

हे नारद! अवधूत शिवजी यह चरित्र कर, वहाँ से अन्तर्धान हो गये। उस समय देवताओं को बहुत आनन्द प्राप्त हुआ। फिर सब लोग प्रसन्न होकर अपने-अपने स्थान को लौट गये। जो मनुष्य इस अवधूतेश्वर अवतार के चरित्र का पाठ करेगा या सुनेगा, वह दोनों लोकों में अत्यन्त आनन्द प्राप्त करेगा।

॥ हनुमान अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! तुम्हें हनुमान नाम के शिवजी के अवतार की कथा सुनाता हूँ। उन्होंने वानर जाति में शरीर धारणकर, रामचन्द्रजी से बड़ा स्नेह किया। कपिदेव महावीर हनुमानजी शिवजी के ही अवतार हैं। एकबार शिवजी ने जब मोहिनीरूप को देखा तो केवल रामचन्द्रजी के कार्य के लिए यह लीला की कि वे मोहित होकर उस मोहिनीरूप से लिपट गए। उस समय शिवजी का वीर्य पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस वीर्य को नग नामक मुनि ने शिवजी के संकेत से इस इच्छा से रख लिया कि उसके द्वारा रामचन्द्रजी का कार्य सिद्ध होगा। 

तदुपरान्त अन्जनी के गर्भ से हनुमानजी उत्पन्न हुए। उनके इस प्रकार कपि-अवतार लेने का कारण यह था कि चार मास तक रामचन्द्रजी ने वन में शिवजी का बड़ा तप किया था, तब शिवजी ने उनकी परीक्षा लेने के पश्चात्, अपने गणों सहित अवतार लिया। सब देवताओं ने भी शिवजी की आज्ञा पाकर बन्दर तथा रोछ का शरीर धारण किया। जब रामचन्द्रजी ने रावण को अत्यन्त बलशाली समझकर शिवजी की बड़ी स्तुति की, तब शिवजी ने प्रसन्न होकर अन्जनी के गर्भ से अवतार लिया था। उन्होंने सूर्य को ही निगल लिया। 

इसे देखकर ही देवताओं ने यह अनुभव किया कि वे शिवजी के ही अवतार हैं। उन्होंने रामचन्द्रजी का सन्देश उनकी पत्नी सीता के पास लंका में पहुँचाया, रावण की अशोक-वाटिका को उजाड़ा, लंका को जलाकर भस्म किया तथा समुद्र में सेतु बाँधा । जिस समय लक्ष्मण शक्ति के प्रहार से मुर्छित हुए तथा उनकी दशा देखकर रामचन्द्रजी को अत्यन्त दुःख हुआ हनुमान ने औषधि लाकर लक्ष्मण को जीवित किया तथा रामचन्द्रजी का दुःख दूर किया। तब उन्होंने भक्तिभाव की रीति को अपना कर, भक्ति को संसार में प्रसिद्ध किया। इसलिए वे रामदूत के नाम से प्रसिद्ध हुए।

हे नारद! शिवजी ने रामचन्द्र के कार्य पूर्ण करने के लिए ही हनुमान का अवतार लिया था। उन्होंने रावण की भुजा उखाड़कर राम तथा लक्ष्मण को बहुत हर्षित किया। उनकी उपासना से असंख्य पापियों ने मुक्ति प्राप्त की है। यही दशा विष्णुजी की भी है। उन्होंने कृष्णरूप धारणकर अर्जुन नामक पाण्डव का सारथी बनकर रथ हाँका। 

इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी बोले-हे नारद! सनकादिक हमारे चार पुत्र परम शैव हैं। वे तीनों लोकों में सदाशिवजी की मूर्ति हृदय में धारणकर, भ्रमण करते रहते हैं। एक दिन वे विष्णुलोक में पहुँचे तथा वैकुण्ठ को देखकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक यह इच्छा की कि हम विष्णुजी के दर्शन करें। ऐसा विचार कर वे छः ड्योढ़ियाँ पारकर, भीतर चले गये; परन्तु सातवीं ड्योढ़ी पर जय एवं विजय नाम के विष्णुजी के गणों ने उन्हें रोक दिया और किसी भी प्रकार भीतर नहीं जाने दिया। 

तब सनकादिक ने क्रोधित होकर शिवजी की प्रेरणा से उन गणों को यह शाप दिया कि तुम दोनों अब यहाँ न रहोगे। तुमने हमको विष्णुजी के मन्दिर में जाने से रोका है। तुम्हारा यह कर्म राक्षसों के समान है, इसलिए तुम दोनों राक्षस होओगे। इतने में विष्णुजी भी भीतर से निकल आये। उन्होंने सनकादिक की बड़ी स्तुति की। तदुपरान्त वे विष्णुजी को प्रसन्नकर, आज्ञा पाकर हमारे लोक को चले आये। सनकादिक के शाप से वे दोनों गण दिति के पुत्र होकर, कनककशिपु तथा कनकाक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे ऐसे बलशाली थे कि उन्होंने तुरन्त ही तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। 

तब देवताओं की इच्छा के अनुसार विष्णुजी ने वाराहरूप धारणकर कनकाक्ष को मारा तथा नृसिंह अवतार लेकर कनककशिपु का उदर चीर डाला। उन दोनों गणों को तीन जन्म तक राक्षस होने का शाप था, इसलिए फिर उन्होंने कुम्भकर्ण तथा रावण का जन्म लेकर शिवजी की बड़ी भक्ति की। इसके पश्चात् उसने तुम्हारे उपदेश से मोहित होकर, कैलाश को जड़ से उखाड़ लिया। यह देखकर शिवजी ने रावण को शाप देते हुए यह कहा कि हमारे समान ही कोई मनुष्य उत्पन्न होकर तेरे अंहकार को दूर करेगा‌।

हे नारद! शिवजी के शाप के कारण ही दोनों राक्षसों ने कुमार्ग पकड़ा तथा संसार में अनेक उपद्रव किये। तब देवता आदि दुःखी होकर विष्णुजी के पास गये और रावण का सब वृत्तान्त उनसे कहा। 

तब विष्णुजी बोले-हे देवताओ! रावण शिवजी का परमभक्त है, उस पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर सकता, लेकिन हम शिवजी की आज्ञा लेकर मनुष्य का शरीर धारण करेंगे और शिवजी की उपासना कर उन्हीं से बाण प्राप्त करके रावण का वध करेंगे। यह कहकर देवताओं को विदा किया तथा स्वयं मनुष्य रूप धारण करने की इच्छा की। इस प्रकार उन्होंने अयोध्यापति दशरथ के यहाँ अवतार लिया। 

रामचन्द्रजी का विवाह जनक की पुत्री सीता के साथ हुआ था। फिर रामचन्द्रजी राजा दशरथ की आज्ञा से राज्य त्याग कर, देवताओं के कार्य के लिए वन में गए। वहाँ से सीता को रावण हर ले गया जिससे रामचन्द्रजी को बहुत दुःख हुआ। तब रामचन्द्रजी ने अगस्त्यमुनि से उपदेश ग्रहणकर, शिवजी की आराधना की। शिवजी ने प्रसन्न होकर, रावण के वध की आज्ञा दी तथा रामचन्द्रजी को अपना धनुष-बाण दिया। उस धनुष बाण द्वारा रामचन्द्रजी ने रावण का वध करके सीता को पुनः प्राप्त किया।

॥ रामावतार की कथा ॥

नारदजी ने कहा-हे पिता! रामचन्द्रजी के चरित्र का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।ब्रह्माजी बोले-हे नारद! विष्णुजी ने देवताओं के कार्य के लिए पूर्णांश से यह अवतार धारण किया था। उन्होंने अनेक बाल-चरित्र किये, जिन्हें देखकर उनके माता-पिता अत्यन्त आनन्दित हुए। उन्होंने फिर विश्वामित्र के साथ जाकर, उनके यज्ञ की रक्षा की तथा सुबाहु को सेना सहित मारा डाला। 

उन्होंने विश्वामित्र के साथ जनकपुर में जाकर राजा जनक की इच्छानुसार स्वयं तथा अपने तीनों भाइयों का विवाह किया। इसके पश्चात् जब राजा दशरथ अपने तथा पुत्र-वधु सहित अयोध्या को लौटे, उस समय के आनन्द का वर्णन नहीं किया जा सकता। देवताओं ने अपने कार्य की सिद्धि के लिए अनेक उपाय करके भरत की माता कैकेयी को रामचन्द्रजी के विरुद्ध भड़का दिया। 

जिसके परिणाम स्वरूप कैकेयी ने रामचन्द्र जी को दशरथ से कहकर वनवास दिलवाया। आयोध्या से वन को जाते समय रामचन्द्रजी सर्वप्रथम चित्रकूट को गये। वहाँ उन्होंने मत्तगयन्द शिवजी की पूजा की। उस मूर्ति को मैंने ही वहाँ स्थापित किया था। वही शिवजी चित्रकूट के रक्षक हैं। जो मनुष्य चित्रकूट में जाकर उनकी पूजा न करे, उसको वहाँ जाने का कोई फल नहीं मिलता। 

भरत अयोध्या वासियों सहित रामचन्द्रजी के पास पहुँचे। उन्होंने हाथ जोड़कर बड़ी भक्ति के साथ रामचन्द्रजी से लौटने की विनती की, परन्तु रामचन्द्रजी ने उनकी बात न मानकर तथा अपनी पादुका देकर, उन्हें विदा कर दिया। कुछ दिनों के पश्चात् वहाँ से वे दण्डक वन को गये, जहाँ ऋषि-मुनि निवास करते हैं। मार्ग में उन्होंने विराध को, जो सीता को उठाकर उड़ा था, मार डाला। फिर वे कुम्भज मुनि के पास पहुँचे। 

वहाँ अगस्त्य मुनि से उपदेश पाकर सीता तथा लक्ष्मण सहित पंचवटी को गये। शूर्पणखा ने आकर उनसे विवाह की इच्छा प्रकट की। जब रामचन्द्रजी और लक्ष्मण ने उसकी इच्छा पूरी न की, तब वह यह कहकर कि अब तुम अपने किये का फल पाओगे, सीता को डराने लगी। तब लक्ष्मण ने क्रोधित होकर, उसके नाक-कान काट लिये। 

हे नारद शूर्पणखा वहाँ से रोती-पीटती अपने भाई दूषण के पास गयी तथा उसे सब वृत्तान्त कह सुनाया। अपनी बहिन की यह दशा देखकर खर तथा दूषण, शूर्पणखा को आगे कर, रामचन्द्रजी से उसके अपमान का बदला लेने के लिये, युद्ध करने गये। उस समय रामचन्द्रजी ने सीताजी को लक्ष्मण की सुरक्षा में रखकर अकेले ही शूर्पणखा के अतिरिक्त समस्त राक्षसों को मार डाला। 

शूर्पणखा यह दशा देखकर वहाँ से रोती हुई रावण के पास पहुँची और आदि से अन्त तक सब वृत्तान्त कह सुनाया। रावण ने शूर्पणखा के मुख से रामचन्द्रजी की वीर्यता का समाचार सुन, क्रोधित होकर मारीच को सीता के हरण के लिए कहा। रावण का मामा मारीच, विचित्र मृग का स्वरूप धारणकर, सीता के सामने पहुँचा। उस समय रामचन्द्र सीता के हठ तथा मृग के छल में आकर, मृग का वध करने के लिए, उसके पीछे-पीछे चल दिये। 

जब बहुत देर होने पर भी लक्ष्मण ने रामचन्द्रजी को लौटते न देखा तो वे सीता को वहीं अकेली छोड़ रामचन्द्रजी की खोज में चले। इस प्रकार रामचन्द्रजी और लक्ष्मण के चले जाने के पश्चात् रावण ने अवसर देखकर, सीता को उठा लिया और लंका को भागा। मार्ग में सीता को रोते देख जटायु ने रावण से युद्ध किया, परन्तु रावण ने जटायु के पंख काट डाले। 

इधर जब रामचन्द्रजी तथा लक्ष्मण लौटे, तो वहाँ सीता को न पाकर मूच्छित हो, पृथ्वी पर गिर पड़े तथा रोते हुए पूरे वन में सीता को ढूँढ़ने लगे। आगे चलकर उन्हें जटायु से सब हाल मालूम हुआ। जटायु ने रामचन्द्रजी को सब हाल बताकर, अपना शरीर त्याग दिया। तब रामचन्द्रजी ने स्वयं अपने हाथ से जटायु का दाह-संस्कार किया।

॥ रामचन्द्र तथा अगस्त्य मुनि के सम्वाद की कथा ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! तत्पश्चात् राम-लक्ष्मण ने अगस्त्य मुनि को देखकर दोनों हाथ जोड़, सिर नवाकर प्रणाम किया। उस समय मुनि ने राम-लक्ष्मण को अत्यन्त दुःखी देखकर इस प्रकार कहा-हे राम! तुम स्त्री के लिए इतना दुःख क्यों करते हो ? 

स्त्री किसी की नहीं होती। केवल जीव ही सब इन्द्रियों से परे है। उसका कोई आकार भी नहीं है, तो भी वह सब में विद्यमान है। बात को न समझकर, बुद्धि के विरुद्ध सब कार्य कर रहे हो। केवल यही सोचकर संतोष करो कि यह शरीर नाशवान् है, आत्मा कभी नहीं मरता। ब्रह्म एक ही है, दो नहीं, फिर कौन स्त्री तथा कौन पुरुष है ? 

इसलिए हे रामचन्द्र! तुम सीता के वियोग का दुःख दूर करो। व्यर्थ ही मोह के वश में पड़ने से कोई लाभ न होगा। तुम शिवजी का स्मरण कर, अपने दुःख को दूर करो। 

हे नारद! अगस्त्यमुनि के ऐसे वचन सुनकर रामचन्द्रजी बोले-हे मुनीश्वर! आपने अभी यह कहा है कि आत्मा शरीर से भिन्न है तथा शरीर जड़ है, उसको कोई दुःख नहीं हो सकता तब आप मुझे यह बता दीजिए कि दुःख किसको होता है? मुझे इस समय सीता के वियोग का दाह है, वही मेरे शरीर को जला रहा है। जो बात शरीर में हम प्रतिदिन देखते हैं, उसके लिए आप क्या कहते हैं ? 

मैं आपसे पूछता हूँ कि दुःख-सुख का भोगनेवाला कोई है भी या नहीं? यह सुनकर अगस्त्यजी बोले-हे रामचन्द्र! शिवजी की माया अपार है। उसका नाम प्रकृति है। उसी से सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति हुई है। उस प्रकृति का स्वामी शिवजी को ही समझो। पुरानी वासना ही संसार का क्षेत्रज्ञ है। चार प्रकार का अन्तःकरण उससे प्रकाशित होता है। जीव अपने कर्मों का फल प्राप्त करता है तथा उन्हें भोगता है। सब दुःख-सुख अपने कर्मानुसार ही होते हैं। 

माया के बन्धन से दुःख-सुख हैं। जो माया से भिन्न है, वही संसार पर प्रबल है। यह सुनकर रामचन्द्रजी ने कहा-हे मुनीश्वर! आपने जो कुछ कहा, वह सब उचित है; परन्तु फिर भी हमारा दुःख किसी भी प्रकार दूर नहीं होता। जिस प्रकार मद्य बड़े-बड़े बुद्धिमानों को मस्त कर देता है, उसी प्रकार भाग्य के भोग भी अत्यन्त दुःखदायी हैं। सब लोग उसी भाग्य के वश में हैं। 

उसपर किसी का वश नहीं चलता। सब दुःख-सुख भी उसी से होते हैं। हमने भाग्य को सर्वोपरि शिवजी के समान समझ लिया है, वही मुझे इस समय दुःख दे रहा है। अब मेरी इच्छा है कि जिसने मेरी स्त्री का हरण किया है, मैं उसका वध कर डालूँ। मैं सूर्यवंशी राजा दशरथ का पुत्र हूँ। यदि शीघ्र ही उसका वध न करूँ तो मेरा जीवन निष्फल है। जब तक मैं सीता का हरणकर्त्ता का वध नहीं करूँगा, तब तक अग्नि शान्त नहीं होगी।

यह रामचन्द्रजी के इन अहंकारपूर्ण वचनों को सुनकर अगस्त्य मुनि ने यह जान लिया कि उनका उपदेश निष्फल गया है। तब उन्होंने अपने मन में कुछ क्रोध करके फिर इस प्रकार कहा-हे राम! तुम जो शब्द कह रहे हो, सो तुम्हारा कोई दोष नहीं है। यह शिवजी की माया के कारण ही है। क्योंकि सब देवता, मुनि आदि उसी माया में भटककर सुख-दुःख प्राप्त करते हैं। तुम अपनी स्त्री को प्राप्त करने के हेतु रावण का वध करना चाहते हो, परन्तु रावण अत्यन्त बलवान तथा शक्तिशाली दैत्यों का स्वामी है। 

भला, तुम उसकी लंका में पहुँचकर अपनी सीता को किस प्रकार प्राप्त कर सकोगे? शिवजी की कृपा से वह सम्पूर्ण संसार का राजा बना हुआ है। तुम अपनी और अपने शत्रु की शक्ति की तुलना नहीं करते हो। रावण का दुर्ग स्वर्ण से बना हुआ है। कोई भी देवता और दैत्य उसे नहीं जीत सकता। जिस रावण के पास करोड़ों चतुरंगिनी सेनाएँ विद्यमान हैं, तुम उसे जीतना चाहते हो । इतना कहकर अगस्त्य मुनि चुप रह गये।

॥ रामचन्द्र जी द्वारा अगस्त्य मुनि की स्तुति ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अगस्त्यजी के मुख से ऐसे वचन सुन रामचन्द्रजी अपने नेत्रों में आँसू भरकर, उनके चरणों पर गिर पड़े तथा ठंडी श्वासें लेते हुए विलाप करने लगे। तदुपरान्त उन्होंने हाथ जोड़कर मुनि से इस प्रकार कहा-हे मुने! इस समय मैं दुःख-सागर में डूब रहा हूँ। उपदेश, ज्ञान तथा बुद्धि का इस समय मेरे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। आप सर्वप्रथम मुझे यह उपाय बताइये, जिसके द्वारा मैं सीता को प्राप्त कर सकूँ। तदुपरान्त आप मुझे जो भी शिक्षा देंगे, मैं उसे स्वीकार करूँगा। हे नाथ। आप मुझे अपना सेवक जानकर क्रोध न करें।

हे नारद! रामचन्द्रजी के ऐसे वचन सुनकर अगस्त्य मुनि ने शिवजी की माया को धन्य कहते हुए तथा भगवान् सदाशिव की स्तुति करते हुए यह उत्तर दिया-हे रामचन्द्रजी! यदि तुम अपनी मनोकामना पूर्ण करना चाहते हो, तो शिवजी की शरण में जाओ और उनकी प्रसन्नता के निमित्त कठिन तप करो। तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर शिवजी रावण का पक्ष लेना छोड़ देंगे। 

अगस्त्य ऋषि के वचन सुनकर रामचन्द्रजी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा-हे प्रभो! आप संसार में समुद्र मथनेवाले तथा इल्वल के शत्रु के नाम से प्रसिद्ध हैं। आप कृपा करके मुझे शिवजी के मन्त्र की दीक्षा दीजिए।

हे नारद! यह सुनकर अगस्त्यजी ने शिव-पूजन की युक्ति बताते हुए इस प्रकार कहा-हे रामचन्द्रजी! सर्वप्रथम मैं शिव-पूजा की तिथि एवं वार का वर्णन करता हूँ। अष्टमी अथवा चतुर्दशी शिवजी की तिथि के नाम से प्रसिद्ध हैं एवं एकादशी विष्णुजी की तिथि कहलाती है। शुक्लपक्ष में इन में से किसी भी तिथि में शिवजी का पूजन आरम्भ करे। शिव-पूजन का संकल्प करके अपने शरीर को श्वेत वस्त्रों से भूषित करे तथा भस्म लगावे। हे रामचन्द्र! भस्म लगाये बिना शिवजी प्रसन्न नहीं होते और सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती है। 

हे राम! जब भस्म तथा रुद्राक्ष धारण कर चुके, तब व्रत रखकर सर्वप्रथम इस प्रकार ध्यान करे। शिवजी गौर शरीर, सम्पूर्ण अंगों में भस्म रमाये हैं, जिनके वामाङ्ग में गिरिजा विराजमान हैं, जो पाँच मुख, तीन नेत्र, चार भुजा तथा लाल रंग के जटा-जूट एवं सम्पूर्ण आभूषणों को धारण किये हुए हैं; जो जनेऊ के बदले सर्पों को लपेटे हैं तथा हाथ में डमरू एवं त्रिशूल को लिये हुए हैं; जो बाघम्बर ओढ़े हैं तथा निर्भयता को धारण किये हुए हैं, जो करोड़ों सूर्यों के समान परम प्रकाशवान् तथा करोड़ों चन्द्रमाओं के समान शीतल हैं, उन्हें मेरा साष्टांग प्रणाम है। इस प्रकार ध्यान धरकर, शिवजी का पूजन करे तथा शिव-सहस्त्रनाम का पाठ करे।

हे नारद! इतना कहकर अगस्त्यजी ने रामचन्द्रजी को वेद में लिखित सहस्त्रनाम को बताया। फिर वे इस प्रकार बोले-हे रामचन्द्र! यदि कोई भय उत्पन्न हो तो तुम उससे डरना नहीं; क्योंकि शिवजी सदैव तुम्हारे रक्षक बने रहेंगे। तत्पश्चात् वे तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर, तुम्हें अपना पाशुपत नाम अस्त्र देंगे। उसके द्वारा तुम अपने शत्रु को मारकर, सीता को प्राप्त कर सकोगे। जो प्राणी शिवजी की शरण में आता है, उसे सब प्रकार के आनन्द प्राप्त होते हैं। इस प्रकार अगस्त्यजी ने उन सब लोगों का वृत्तान्त संक्षेप में कह सुनाया, जिन्होंने शिवजी की सेवा करके अपने-अपने मनोरथ प्राप्त किये थे।

॥ रामचन्द्र जी द्वारा गोदावरी तट पर शिवलिंग की स्थापना का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अगस्त्यजी से उपदेश प्राप्त करने के उपरान्त रामचन्द्रजी रामगिरि पर्वत पर आकर गोमती नदी के तट पर बैठे। फिर वे शिवलिंग की स्थापनाकर, भस्म रुद्राक्ष को धारणकर शिवजी का ध्यान करने लगे। उन्होंने भगवान् सदाशिवजी की मूर्ति को अपने हृदय-कमल में स्थापित किया। रामचन्द्रजी ने शिवजी के जिस स्वरूप का ध्यान किया था, उसका वर्णन इस प्रकार है-जिनकी कान्ति करोड़ों सूर्य के समान सुन्दर है, जिनमें करोड़ों चन्द्रमाओं के समान शीतलता है, जिनके पाँच मुख तथा तीन नेत्र हैं, जिनकी चार भुजाएँ हैं तथा जिनके मस्तक पर चन्द्रमा विराजमान है, जो बाघम्बर ओढ़े तथा सर्पों का जनेऊ पहने हैं, जिनके कण्ठ में हलाहल की श्यामता है, जिनके दोनों चरण कमल के समान कोमल तथा सुन्दर हैं, जो अपने गौर शरीर पर भस्म रमाये हैं तथा अत्यन्त दयालु, अनादि, अप्रमेय, अविनाशी, अद्वितीय, विद्या, हर्ष, सत्य तथा धर्म के साक्षात् स्वरूप हैं, वे शिवजी अपने भक्तों पर अत्यन्त दया करें।

हे नारद! शिवजी के ऐसे स्वरूप का ध्यान धरकर रामचन्द्रजी शिवसहस्त्रनाम का जाप करने लगे। उन्होंने वन के पुष्प तथा कन्द-मूल खाकर चार मास व्यतीत कर दिये। उस समय शिवजी ने रामचन्द्रजी की परीक्षा लेनी चाही तथा जिस प्रकार समुद्र प्रलय काल आने पर अपनी मर्यादा को त्याग देता है और उस समय जैसा भयानक शब्द होता है, उसी के समान एक घोर शब्द उस स्थान पर हुआ जहाँ रामचन्द्रजी बैठे हुए शिवजी का ध्यान कर रहे थे। 

उस शब्द को सुनकर रामचन्द्रजी ने चारों ओर देखा परन्तु उन्हें कोई भी दिखाई न दिया। ठीक उसी समय चारों ओर वन में अग्नि की ज्वाला फैल गयी। रामचन्द्रजी ने उस दृश्य को देखकर अपने नेत्र बंद कर यह अनुमान किया कि संभवतः यह किसी दैत्य की माया है। तदुपरान्त वे अपने हाथों में धनुष-बाण लेकर अपने वाणों द्वारा उस ज्वाला को बुझाने का प्रयत्न करने लगे। उनके पास जितने भी अस्त्र-शस्त्र थे, वे सब उस अग्नि की भेंट हो गये, परन्तु अपना कोई भी प्रभाव नहीं दिखा सके। उसी समय रामचन्द्रजी का धनुष भी उनके हाथ से छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और देखते-देखते जलकर भस्म हो गया। यह दृश्य देखकर रामचन्द्रजी मूलित हो, पृथ्वी पर गिर पड़े।

हे नारद! चैतन्य प्राप्त होने पर रामचन्द्रजी ने जब शिवजी का ध्यान किया तो उनके नेत्र खुल गये और वह अग्नि भी अदृश्य हो गयी। उस समय उन्होंने यह देखा कि अपने मुख्य लक्षणों से युक्त भगवान् सदाशिव परमतेजस्वी रूप में, नन्दी पर सवार हो, इनके सामने खड़े हुए हैं। उस स्वरूप को देखकर रामचन्द्रजी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। तदुपरान्त उन्होंने विष्णुजी को लक्ष्मी सहित रुद्राध्यायी का पाठ करते हुए गरुड़ पर सवार हो आते हुए देखा। 

फिर उन्होंने ब्रह्माणी सहित मुझे भी रुद्रसूक्त का पाठ करते हुए, हंस पर आरूढ़ हो, वहाँ आते देखा। तदुपरान्त उन्होंने स्तुति पाठ करते हुए एवं सम्पूर्ण मुनियों को शिवजी की स्तुति करते हुए देखा। इसके बाद उन्होंने यह देखा कि सम्पूर्ण दिक्पाल भी अपने मुख्य देखा। इन्द्र पत्नियों सहित शिवश्रुति का पाठ करते हुए वहाँ चले आ रहे हैं। फिर उन्होंने गंगा आदि प्रसिद्ध नदियों सहित वेदमंत्र का पाठ करते हुए समुद्र को भी वहाँ आते देखा। इसी प्रकार सम्पूर्ण देवताओं तथा शेष आदि नागों को अपनी स्त्रियों सहित शिवजी की स्तुति का गायन करते हुए वहाँ आते हुए देखा।

हे नारद! नन्दीगण तथा गणेशजी भी अपने वाहनों पर सवार होकर वहाँ जा पहुँचे। उस देव-सभा को देखकर रामचन्द्रजी को आनन्द प्राप्त हुआ, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। रामचन्द्रजी ने शिवजी के ऐसे चरित्र को देखकर, सम्पूर्ण सभासहित स्तुति की।

॥ रामचन्द्र जी द्वारा शिव जी की स्तुति एवं पूजा ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! तब रामचन्द्रजी ने शिवजी को अनेक बार प्रणाम करने के उपरान्त इस प्रकार कहा-हे भगवान् सदाशिवजी! आपके चरण-कमलों में मेरा प्रणाम है। अब मुझे यह आशा है कि आपकी कृपा से मेरे सम्पूर्ण कार्य संपन्न होंगे। इस प्रकार कहकर वे भगवान् सदाशिवजी के नाम का जप करने लगे। उस समय शिवजी ने अपनी लीला द्वारा एक सोने के रथ को प्रकट किया। शिवजी बैल से उतर कर, उस रथ पर आरूढ़ हुए। 

उस समय सबलोग जय जयकार करने लगे। विष्णुजी तथा मैं भी शिवजी की स्तुति करने में प्रवृत्त हुए। उस समय शिवजी ने रामचन्द्रजी को मस्तक झुकाए देखकर, उन्हें अत्यन्त प्रेमपूर्वक अपने रथ पर बैठा लिया तथा जिस धनुष द्वारा वे प्रलय करते हैं, उसे रामचन्द्रजी को प्रदान कर दिया। 

इसके उपरान्त उन्होंने यह कहा-हे रामचन्द्रजी! यह बाण प्रलय करनेवाला है। तुम इसका प्रयोग तभी करना, जब तुम्हें अपने प्राणों पर किसी प्रकार का सन्देह हो। यदि तुमने किसी अन्य समय पाशुपत-अस्त्र प्रयोग कर दिया तो यह निश्चय रखना कि संसार में प्रलय हो जाएगी।

हे नारद! रामचन्द्रजी से इस प्रकार कहकर, शिवजी ने देवताओं को सम्बोधित करते हुए कहा-हे देवताओ! रामचन्द्रजी मेरे अनन्य सेवक हैं। इनका शत्रु रावण अत्यन्त बलवान् है, अतः हमारी आज्ञा स्वीकारकर तुम बानर तथा रीछ आदि बनकर, इनकी सहायता करना। शिवजी की इस आज्ञा को सब देवताओं ने स्वीकार किया। तदुपरान्त विष्णुजी ने नारायणास्त्र, मैंने ब्रह्मदंड तथा इन्द्र ने अग्निबाण रामचन्द्रजी को दिये। 

उस समय रामचन्द्रजी ने शिवजी की प्रार्थना करते हुए कहा-हे प्रभो! समुद्र का विस्तार सौ योजन का है, मनुष्य द्वारा उसे पार करना अत्यन्त कठिन है। यदि किसी प्रकार उसे पार करके लंका में पहुँचा भी जाय, तो उसमें प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है। इसके अतिरिक्त लंका के रक्षक बड़े बलवान् दैत्य हैं, उन्हें जीतना अत्यन्त दुष्कर कार्य प्रतीत होता है। क्योंकि वे सब आपके सेवक हैं। इधर हम संख्या में केवल दो हैं तथा सब प्रकार से साधनहीन हैं। ऐसी स्थिति में हम उनपर किस प्रकार विजय प्राप्त कर सकेंगे ?

हे नारद! रामचन्द्रजी की यह विनय सुनकर शिवजी ने उत्तर दिया-हे रामचन्द्रजी! तुम कुछ चिन्ता मत करो; क्योंकि हम तुम्हारी सदैव सहायता करते रहेंगे। लंका के राक्षस धर्म के विरुद्ध हो गये हैं, अतः उनके मरने का समय समीप आ पहुँचा है। तुम्हारी विजय निश्चित है। इस सम्बन्ध में हम तुम्हें एक बात और भी बतला दें कि किष्किंधा नगरी में सब देवताओं ने बन्दर का रूप धरकर, जन्म ग्रहण किया है। उनकी सहायता द्वारा तुम समुद्र पर सेतु बाँधकर, लंकापुरी में आसानी से जा पहुँचोगे तथा रावण का वध करके, सीता को प्राप्त कर लोगे।

शिवजी के श्रीमुख से ऐसे वचन सुनकर रामचन्द्रजी ने कहा-हे प्रभो! आपकी कृपा से यह सब कार्य तो हो जायेंगे, परन्तु मेरी यह इच्छा है कि आप अपने अंश द्वारा किसी को उत्पन्न करके, मेरे साथ अवश्य भेजें, जिससे मेरे सभी कार्य सम्पन्न हो जायँ तथा मुझे अपनी सिद्धि में पूरा भरोसा बना रहे।

यह सुनकर शिवजी बोले-हे रामचन्द्रजी! रुद्र के अंश द्वारा हनुमान का अवतार हो चुका है। हनुमान तुम्हारे साथ रहकर सभी कार्यों में सहयोग प्रदान करेंगे। उनके साथ रहने से तुम्हें कुछ भी श्रम नहीं उठाना पड़ेगा। 

॥ शिवजी द्वारा रामचन्द्र जी को ज्ञानोपदेश ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद। इतना कहकर शिवजी ने रामचन्द्रजी को तत्त्वज्ञान का उपदेश किया, तदुपरान्त वे अन्तर्धान हो गये। तब रामचन्द्रजी ने अगस्त्य मुनि के समीप पहुँचकर, उनसे सब हाल कहा। अगस्त्यजी उस वृत्तान्त को सुनकर, प्रसन्न हो, रामचन्द्रजी से इस प्रकार बोले-हे रामचन्द्र! अब तुम्हारे सभी कार्य सिद्ध हो जायेंगे, क्योंकि जिसपर शिवजी प्रसन्न होते हैं, उसका दुःख अवश्य नष्ट हो जाता है। 

अगस्त्यजी की इस बात को स्वीकार कर, रामचन्द्रजी लक्ष्मण के साथ ऋष्यमूक पर्वत की ओर चले। वहाँ शिवजी के कथनानुसार उनकी हनुमानजी से भेंट हुई। हनुमानजी ने रामचन्द्रजी के सभी कार्यों में सहायता प्रदान की, जिसके परिणामस्वरूप रावण का संहार हुआ तथा रामचन्द्रजी ने सीता को पुनः प्राप्त किया।

इतनी कथा सुनकर नारदजी ने कहा-हे पिता! मेरी यह अभिलाषा है कि मैं हनुमानजी का सम्पूर्ण वृत्तान्त विस्तारपूर्वक सुनूँ। ब्रह्माजी बोले-हे नारद! सात द्वीपों में पहिले द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीप के नौ खण्ड हैं। उन नौ खण्डों में से जिस खण्ड का नाम किम्पुरूष है, वहाँ केसरी नामक एक बानरों के राजा निवास करते थे। वे शिवजी के परमभक्त, सत्यवादी तथा निष्पाप थे। उनकी षोडशवर्षीया पत्नी का नाम अंजनी था। वह बड़ी पतिव्रता थी। 

एक दिन की बात है कि वह सोलह श्रृंगार किये तथा उत्तमोत्तम वस्त्राभूषणों को धारण किये हुए, पर्वत के एक शिखर पर खड़ी हुई थी। उसी समय उनचास पवनों में से समीर नामक एक वायु, जिसका नाम प्रभंजन भी था; वहाँ आ पहुँचा। अन्जनी के स्वरूप को देखते ही वह मोहित हो गया। तब वह काम से पीड़ित हो, सूक्ष्मरूप धारण कर, उसके शरीर में प्रवेश कर गया।

अन्जनी को जब अपना शरीर कुछ भारी मालूम हुआ तो उसने यह विचार किया मेरे पति के अतिरिक्त यह कौनसा अन्य मनुष्य है जो मेरे शरीर को स्पर्श कर रहा है। जब उसे कुछ ज्ञात न हुआ तो वह उस अज्ञात व्यक्ति को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार बोली-हे देवता! तुम कौन हो, जो मेरे शरीर का इस प्रकार स्पर्श कर रहे हो? तुम निष्पाप होकर मेरे सम्मुख प्रकट होओ तथा मुझे अपना शरीर दिखाओ।

हे नारद! अन्जनी के इस कथन को सुनकर प्रभंजन अत्यन्त भयभीत हो, अपना वास्तविक स्वरूप धारणकर उसके सम्मुख आ खड़ा हुआ और इस प्रकार कहने लगा-हे अन्जनी! मैं काम के वशीभूत हो, तुम्हारे शरीर में प्रवेश कर गया। मैं इन्द्र का भाई प्रभंजन नामक देवता हूँ। मेरे स्पर्श से किसी को कुछ भी पाप नहीं लगता। मैंने सच्चिदानंद ब्रह्म के समान तुम्हें यहाँ आकर अपना दर्शन दिया है। तुम किसी प्रकार का सन्देह मत करो। 

भगवान् सदाशिवजी की इच्छा अत्यन्त बलवान् है। मैं तुमसे यह प्रार्थना करता हूँ कि तुम मेरे अपराध पर ध्यान न दो; क्योंकि मेरे स्पर्श के कारण तुम्हें किसी प्रकार का पाप नहीं लगेगा। हे देवि! यह भी स्पष्ट है कि देवताओं की इच्छा फल दिये बिना नहीं रहती। तुम्हारे गर्भ से शिवजी के अंश द्वारा एक अत्यन्त बलवान् पुत्र जन्म लेगा। वह शिवजी के ही समान तेजस्वी, वेगशाली तथा शत्रुओं का संहार करनेवाला होगा। वह रामचन्द्रजी और सीता का सेवक बनकर तुम्हें अत्यन्त आनन्द प्रदान करेगा।

हे नारद! इतना कहकर पवन देवता अन्तर्धान हो गये। इस घटना के कुछ समय पश्चात् अन्जनी के गर्भ से तथा पवन देवता के आशीर्वाद से शिवजी अपने सम्पूर्ण अंशसहित स्थित हुए। दस महीने बाद अन्जनी के गर्भ से एक पुत्र ने जन्म लिया। वह बालक परम तेजस्वी तथा स्वरूपवान् था। उस समय देवता आकाश में आकर दुन्दुभी बजाने लगे।

॥ अञ्जनी द्वारा अपने पुत्र को पर्वत से गिरा देने का वृत्तान्त ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जिस समय उस बालक ने जन्म लिया तो एक अघटित घटना घटी। वह यह थी कि जब अन्जनी ने यह देखा कि पवन देवता के कथानानुसार उस बालक में शिवजी का मुख्य कोई लक्ष्ण नहीं है और उसका स्वरूप भी बानर के समान है, तो उसने अत्यन्त दुःखी होकर उस बालक को पर्वत के एक शिखर से नीचे फेंक दिया। परन्तु ज्यों ही वह बालक उस पर्वत पर गिरा, त्यों ही पर्वत खण्ड-खण्ड होकर, पाताल में धँस गया। 

वह बालक जिस समय पृथ्वी पर गिरा तो उसके कुछ देर बाद उसके नेत्र आकाश की ओर जा टिके। जब उसकी दृष्टि उगते हुए सूर्य पर पड़ी तो उसने समझा कि कोई पका हुआ फल है, मुझे इसे खा लेना चाहिए। इस विचार के आते ही वह बालक सूर्य को निगलने के लिए आकाश की ओर बड़े वेग से चला। ठीक उसी समय, जब वह बालक सूर्य को निगलने के लिए आगे बढ़ रहा था, राहू देवता भी सूर्य को निगलने के लिए उसी ओर जा रहे थे। 

राहू को देखते ही यह समझा कि यह व्यक्ति मेरा प्रतिद्वन्द्वी है और इस फल को स्वयं खा जाना चाहता है। तब वह सूर्य के रथ को रोक कर, राहू की ओर अपना मुख फैला कर दौड़ पड़ा। राहू उसे देखते ही तुरन्त भाग गया। 

हे नारद! उस शब्द के कारण देवलोक में हलचल मच गयी तथा सब देवता अत्यन्त आश्चर्य चकित हो, थर-थर काँपने लगे। इन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़ वज्र को हाथ में लेकर उसकी ओर चल पड़े। वह बालक सूर्य को निगलने के लिए अपना मुँह फैला ही रहा था कि उसी समय इन्द्र को वहाँ आते हुए देखकर उसे अत्यन्त क्रोध आया। तब वह अपना मुख फैलाकर पहले इन्द्र को ही निगल जाने के लिए बढ़ा। यह देखकर, इन्द्र ने क्रुद्ध हो अपने वज्र द्वारा उस बालक को घायल कर दिया, जिसके कारण वह बालक पृथ्वी पर गिरा पड़ा।

हे नारद! शिवजी ने यह चरित्र केवल इसीलिए किया था, जिससे लोक में वज्र की प्रतिष्ठा नष्ट न हो। जब प्रभंजन ने अपने पुत्र को इस प्रकार पृथ्वी पर पड़ा हुआ देखा, तो वह उसे मरा हुआ जानकर, अत्यन्त विलाप करने लगा। उस समय भगवान् सदाशिव ने आकाशवाणी द्वारा उसे सान्त्वना देते हुए कहा-हे प्रभंजन्! तुम इतने व्याकुल मत होओ। हम तुम्हें एक उपाय बतलाते हैं, जिसे करने से तुम देवताओं से अपना बदला ले सकोगे और वे तुम्हारी शरण में स्वयं आ पहुँचेंगे। वह उपाय यह है कि तुम सब ओर से अपने अंश को खींच लो अर्थात् वायु का बहना बन्द कर दो।

हे नारद! इस आकाशवाणी को सुनकर प्रभंजन ने तीनों लोकों से अपने अंश को खींच लिया और स्वयं शिवजी के समीप जाकर आनन्द से बैठ गया। उस समय वायु के स्थिर हो जाने से सब देवताओं के उदर फूल गये तथा सभी प्राणी श्वास के अभाव में व्याकुल होने लगे। तब मैं उन सबको साथ लेकर विष्णुजी के समीप क्षीरसमुद्र में जा पहुँचा और उनसे कहा-हे प्रभो ! शिवजी से प्रेरणा पाकर वायु ने ऐसा उपद्रव मचाया है कि उससे सम्पूर्ण संसार व्याकुल हो गया है। अब हम सब लोगों को शिवजी की शरण में पहुँचकर उनसे रक्षा करने की प्रार्थना करनी चाहिए।

हे नारद! विष्णुजी हमारी इस बात से सहमत हुए। तब हम सब देवता उन्हें साथ लेकर शिवजी के समीप जा पहुँचे और उन्हें सब हाल सुनाकर, नतमस्तक हो, खड़े हो गए। शिवजी ने हमलोगों की प्रार्थना सुनकर यह कहा-हे देवताओ! यह बालक मेरे अंश से उत्पन्न हुआ है और पवन का पुत्र है। इन्द्र ने अपनी मूर्खता में भर उसके ऊपर अपने वज्र का प्रहार किया, यह उचित नहीं है। अब तुम्हें यह चाहिए कि सर्वप्रथम वायु देवता की प्रसन्नता के हेतु कोई उपाय करो। 

जब तक वायु प्रसन्न नहीं होंगे, तब तक तुम्हारा मनोरथ सिद्ध नहीं होगा। शिवजी की इस आज्ञा को सुनकर सब देवताओं ने वायु से क्षमा माँगी तथा उसे प्रसन्न किया। तदुपरान्त सब लोग शिवजी को साथ लेकर उस बालक के समीप जा पहुँचे। शिवजी की कृपादृष्टि पड़ते ही वह बालक चैतन्य होकर उठ खड़ा हुआ। प्रभंजन का दुःख भी दूर हो गया।

॥ विष्णु द्वारा हनुमान को वर देने की कथा ॥

ब्रह्माजी ने कह -हे नारद! सर्वप्रथम विष्णुजी ने पवन की ओर देखते हुए यह वर दिया कि तुम्हारा पुत्र अत्यन्त शक्तिशाली होकर, इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं का कार्य करेगा तथा सब के दुःखों को दूर करेगा। 

तदुपरान्त मैंने कहा-हे प्रभंजन! यह तीनों लोकों में निर्भय होगा तथा सबके दण्ड से बचा रहेगा। फिर सूर्य ने कहा-हे वायु! तुम्हारे इस पुत्र के शरीर पर भविष्य में वज्र भी अपना कोई प्रभाव नहीं दिखा सकेगा। हमारा वज्र लगने के कारण इसकी हनु अर्थात् ठुड्डी पर चोट लगी है, इसका नाम हनुमान होगा। सभी देवताओं ने कहा- इसे हमारे शस्त्रों से कोई भय नहीं होगा।

हे नारद! इस प्रकार सब देवताओं ने उसे वरदान दिया, उस समय ऋषि-मुनियों ने आशीर्वाद देते हुए कहा-हे पवन! तुम्हारा यह पुत्र ऊर्ध्वरता होगा। रामदूत के नाम से प्रसिद्ध होकर, सबके दुःख को दूर करेगा।

मुनियों के ऐसे वचन सुनकर विष्णुजी ने, मैंने तथा अन्य सब लोगों ने हनुमान को अपने हृदय से लगा लिया। सभी ने पवन-पुत्र की अत्यन्त प्रशंसा की तथा स्तुति करते हुए जय जयकार किया। 

उस समय शिवजी ने सब लोगों को सम्बोधित करते हुए यह कहा-हे देवताओ तथा ऋषियो! रामचन्द्रजी का कार्य करने के लिए हमने यह बानर का अवतार लिया है। 

शिवजी पवन से बोले-हे वायु! हम तुम्हारे पुत्र की हर समय रक्षा करेंगे। इतना कहकर शिवजी तथा अन्य सब देवता अन्तर्धान हो गये।

॥ पवन का हनुमान को गोद में लेकर अञ्जनी के पास पहुँचना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! सब देवताओं के अन्तर्धान हो जाने पर वायु हनुमान को गोद में उठाकर अन्जनी के पास ले गया तथा उन्हें अन्जनी की गोद में देकर, सब वृत्तान्त कह सुनाया। उस समय अन्जनी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर हनुमान को अपने स्तनों से दूध पिलाया तथा केशरी ने भी अत्यन्त आनन्द मनाया। उनकी बाल लीलाओं को देखकर अंजनी तथा केसरी अत्यन्त प्रसन्न रहा करते थे। 

कुछ दिनों में ही हनुमान इतने बलिष्ठ हुए कि वे कभी पृथ्वी से उड़कर आकाश में चले जाते और कभी वायु तथा सूर्य के पास जाकर खेला करते थे। कभी वे आकाश गंगा में स्थान कर, उसमें अपनी पूँछ को इस प्रकार फटकारते थे कि वह पृथ्वी पर आ जाती थी। उनके ऐसे चरित्रों को देखकर देवता तथा मुनि अत्यन्त आश्चर्य किया करते थे।

हे नारद! एक दिन हनुमान मुनियों के आश्रम में गये, लेकिन उन्हें कोई पहिचान न सका। उस समय सब ऋषि-मुनि उनके पराक्रम को देखकर यह विचार करने लगे कि भला यह अपार बलशाली बालक किसका पुत्र है ? जब इसकी अभी से यह दशा है तो आगे चलकर यह न जाने क्या करेगा ? उन ऋषि-मुनियों ने परस्पर यह निश्चय किया कि हम इसे ऐसा शाप दें जिसके कारण यह अपना बल भूल जाये और हमें किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचा सके।

अतः मुनियों ने हनुमान को यहा शाप दिया-हे मूर्ख बानर-पुत्र! तुझे अपनी शक्ति पर इतना अहंकार है कि तू उचित-अनुचित का कोई विचार नहीं करता। हम तुझे यह शाप देते हैं कि तू अपने बल को भूल जायगा और जब तक कोई तुझे याद नहीं दिलायेगा, तब तक तेरी सामर्थ्य प्रकट न हुआ करेगी।

हे नारद! मुनियों के इस शाप पर हनुमान ने कोई विचार नहीं किया। परन्तु तभी यह आकशवाणी हुई-हे मुनियो! तुमने हनुमान को ऐसा शाप देकर अच्छा नहीं किया। यह साक्षात् शिवजी के अवतार हैं और रामचन्द्रजी का कार्य करने के निमित्त प्रकट हुए हैं। अब बताओ कि विष्णुजी के कार्य को कौन कर सकेगा ? तुम्हें उचित है कि अपने इस शाप का शीघ्र खण्डन करो, अन्यथा तीनों लोक दुःखी हो जायेंगे।

हे नारद! इस आकाशवाणी को सुनकर मुनियों ने हनुमानजी के वास्तविक रूप को पहिचाना। तब उन्होंने उनकी बहुत प्रार्थना करते हुए यह कहा-हे शिवजी के अवतार हनुमानजी! आप हमारे अपराध को क्षमा करें। अब हम अपने शाप को इस प्रकार खण्डन करते हैं कि जब तक आपकी भेंट रामचन्द्रजी से न होगी, तब तक आप अपने बल को भूले रहेंगे। अब आप सूर्य के पास जाकर विद्या सीखें। इससे आपका तथा आपके द्वारा सम्पूर्ण संसार का कल्याण होगा।

हे नारद! मुनियों की यह बात सुनकर हनुमान अपने माता-पिता के समीप लौट आये और उन्हें सब हाल कह सुनाया। तदुपरान्त वे उनसे आज्ञा प्राप्तकर, सूर्य के समीप जा, विद्या पढ़ने लगे। कुछ दिनों में जब वे सम्पूर्ण विद्याओं में पारंगत हो गये। तब उन्होंने सूर्य से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए कहा। उस समय सूर्य ने उन्हें शिवजी का अवतार जानकर स्तुति करते हुए इस प्रकार कहा-हे हनुमान! मैं आपके मुख्यस्वरूप को जानता हूँ। मैं यह चाहता हूँ कि आप पम्पापुर में जाकर रहें। 

वहाँ बालि तथा सुग्रीव नामक दो भाई रहते हैं। उनमें सुग्रीव मेरा पुत्र है। आपको उचित है कि आप पम्पापुर में रहकर सुग्रीव का पक्ष लें। वहीं आपकी भेंट रामचन्द्रजी से हो जायेगी। मुझे यही गुरुदक्षिणा चाहिए और यही आप मुझे देने की कृपा करें। सूर्य के मुख से यह वचन सुनकर हनुमान 'एवमस्तु' कह कर अपने माता-पिता के पास लौट आये और उन्हें सब वृत्तान्त कर सुनाया। 

अंजनी एवं केशरी ने कहा-अब तुम अपने गुरु की आज्ञा पालन करने के निमित्त पम्पापुर में जाकर रहो; क्योंकि जिस कार्य के लिए तुम्हारा अवतार हुआ है, वही कार्य करना तुम्हें सब प्रकार से उचित है। माता-पिता के ऐसे वचन सुनकर हनुमान को अत्यन्त प्रसन्नता हुई।

॥ माता-पिता से आज्ञा पाकर हनुमान का पम्पापुर को प्रस्थान ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! माता-पिता की आज्ञा पा, उन्हें प्रणाम करने के उपरान्त हनुमान पम्पापुर को चल दिये। कुछ देर बाद वे पम्पापुर में पहुँचे। वहाँ जाकर जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि सुग्रीव अपने घरेलू-विवाद के कारण ऋष्यमूक पर्वत पर जाकर रहने लगे हैं, तो वे वहीं चले गये तथा सुग्रीव के साथ रहने लगे। जिस समय सीता के वियोग से दुःखी रामचन्द्र और लक्ष्मण उस पर्वत के समीप पहुँचे, तब वे अगवानी करके उन दोनों को सुग्रीव के पास ले आये और उनमें मित्रता स्थापित करायी। 

तदुपरान्त उन्होंने रामचन्द्रजी के हाथों से बालि का वध कराया। फिर सीता को ढूँढने के लिए समुद्र को लाँध कर लंका में पहुँचे। सब दैत्यों को मारकर, अक्षयकुमार का संहार किया तथा लंकापुरी को इस प्रकार जलाया कि उसमें विष्णुभक्तों के घर तो जलने से बच गये, परन्तु राक्षसों के सब घर भस्म हो गये। तदुपरान्त रावण के अहंकार को नष्ट करके, वे अपने साथी वानरों के समीप आ पहुँचे और उन्हें सब हाल कह सुनाया। 

हे नारद! हनुमान के ऐसे पराक्रम को देखकर रामचन्द्रजी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा-हे हनुमान तुम शिवजी के अवतार तथा हमारे परमहितैषी हो। सुग्रीव आदि सभी वानरों ने उन्हें शिवजी का अवतार जानकर प्रणाम किया। जब हनुमानजी ने यह देखा कि रामचन्द्रजी हमें शिवजी का अवतार समझकर आज्ञा देने में संकोच करेंगे तो उन्होंने ऐसी माया की कि सब लोगों यह बात भूल गये कि हनुमान शिवजी के अवतार हैं। केवल इतना ही ध्यान रहा कि ये अत्यन्त बलवान् हैं। 

तदुपरान्त रामचन्द्रजी ने हनुमान को अपने हृदय से लगा लिया और उनकी अत्यन्त प्रशंसा करते हुए कहा-हे कपि! हमें तुम्हारा बड़ा भरोसा है। इसके पश्चात् रामचन्द्रजी ने लंका जाने की तैयारी की और अपनी सेना सहित समुद्र तट पर जा पहुँचे। जिस समय सबलोग समुद्र के विस्तार को देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर यह विचार करने लगे कि इसे किस प्रकार पार किया जा सकेगा, उस समय हनुमानजी ने सबके देखते-देखते ही समुद्र पर सेतु बाँधकर तैयार कर दिया। 

तब रामचन्द्रजी ने उस स्थान पर शिवलिंग की स्थापना की, जिसका नाम रामेश्वर रखा। उसी सेतु-मार्ग द्वारा रामचन्द्रजी अपनी सम्पूर्णसेना सहित समुद्र को पारकर रावण की लंका में जा पहुँचे।

हे नारद! राम और रावण में घोर युद्ध हुआ। उसमें हनुमानजी ने अकेले ही बहुत-सी दैत्य-सेना को मार गिराया तथा रामचन्द्रजी की सेना की रक्षा की। जिस समय मेघनाद द्वारा शक्ति का प्रहार किये जाने पर लक्ष्मण घायल हुए, उस समय सुषेण नामक वैद्य ने यह बताया था कि यदि रात भर में ही औषधि नहीं आयी तो लक्ष्मण के प्राण नहीं बचेंगे। 

उस समय हनुमान सब दैत्यों को जीतकर औषधि के पर्वत को रात ही रात में उठा लाये और लक्ष्मण को जीवित कर दिया। उन्होंने रामचन्द्रजी की इस प्रकार सहायता की कि रावण का सम्पूर्ण तेज नष्ट हो गया। जिस समय अहिरावण राम तथा लक्ष्मण को पकड़कर पातालपुरी में ले गया उस समय रामचन्द्रजी द्वारा स्मरण किये जाने पर हनुमान ने पातालपुरी में पहुँचकर, अहिरावण की भुजा उखाड़ी और रामचन्द्र तथा लक्ष्मण की प्राण-रक्षा की। 

रावण को जीतकर रामचन्द्रजी जब सीता को लेकर अयोध्या लौटे तो उस समय हनुमानजी भी उनके साथ अयोध्या जा पहुँचे और जब तक रामचन्द्रजी इस लोक में रहे, तब तक उनकी सेवा में संलग्न रहे। इस प्रकार हनुमानजी ने अनेक चरित्र करके दैत्यों का वध किया तथा भक्तों को आनन्द पहुँचाया। इस चरित्र को जो कोई सुनता है, उसे दोनों लोकों में अत्यन्त आनन्द प्राप्त होता है।

॥ वेश्यानाथ अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब तुम वेश्यानाथ अवतार का वृत्तान्त सुनो। प्रसिद्ध नन्दीग्राम में महानन्दा नामक एक वेश्या रहती थी। वह शिवजी की भक्ति में अत्यन्त चतुर थी। प्रतिदिन भस्म लगाती, आभूषणों के स्थान पर रुद्राक्ष पहनती तथा शिवजी के यश का वर्णन किया करती थी। उसके घर में एक बन्दर तथा एक कुत्ता पले हुए थे। वह उन दोनों को भी रुदाक्ष पहनाती थी।

हे नारद! कुछ समय बीतने पर शिवजी उस वेश्या की सेवा में अत्यन प्रसन्न हुए। तब वे उसकी परीक्षा लेने के निमित्त वेश्यानाथ का स्वरूप धारण कर, मस्तक पर त्रिपुण्ड लगा कर, आभूषणों के बदले रुद्राक्ष पहन, जयशिव-जयशिव उच्चारण करते हुए, उस महानन्दा नामक वेश्या के घर जा पहुँचे। महानन्दा ने उन वेश्यानाथरूपी शिवजी को अत्यन्त सम्मानपूर्वक अपने घर में ठहराया। तदुपरान्त उसने शिवजी के हाथ में जड़ाऊ कंकण देखकर, उन्हें प्राप्त करने की इच्छा से यह कहा-तुम्हारे हाथ के कंकण स्त्रियों के पहनने योग्य हैं; तुम इन्हें मुझे दो।

यह सुनकर वेश्यानाथ ने उत्तर दिया-तुम हमें इन कंकणों का क्या मूल्य दोगी?महानन्दा बोली-हमारे कुल में व्यभिचार को पाप नहीं माना जाता, अपितु उसे कुल-धर्म कहा गया है। यदि तुम यह कंकण मुझे दे दोगे तो मैं तीन रात तक तुम्हारी स्त्री बन कर, तुम्हारे साथ विहार करूँगी। 

महानन्दा की बात सुनकर वेश्यनाथ ने हँसते हुए कहा-हे महानन्दा! हमें तुम्हारी यह बात स्वीकार है, तुम इस कंकण को ले लो। हे नारद! महानन्दा ने यह बात स्वीकार कर ली। तब वेश्यानाथ ने उसे अपना कंकण दे दिया। तदुपरान्त उन्होंने एक रत्नजटित स्वर्णलिंग महानन्दा को और देते हुए कहा-हे महानन्दा! अब तुम तीन दिन के लिए हमारी स्त्री हो चुकी, हम तुम्हें यह स्वर्णलिंग देते हैं। तुम उनकी भली-भाँति रक्षा करना। यह स्वर्णलिंग हमें प्राणों से अधिक प्रिय है। यदि किसी प्रकार खो गया अथवा नष्ट हो गया तो हमारे प्राण शरीर को छोड़ देंगे।

महानन्दा ने इस बात को स्वीकार कर, उस स्वर्णलिंग को ले लिया और अपने शिवालय में यत्नपूर्वक स्थापित कर दिया। तदुपरान्त वह श्रृंगार करके आधी रात तक शिवजी के साथ वार्तालाप करती रही। उस समय शिवजी ने यह चरित्र किया कि अचानक ही अग्नि उत्पन्न होकर उस शिवमन्दिर को जलाने लगी। वायु ने भी अत्यन्त वेग से चल कर उस अग्नि को बढ़ाने में सहयोग दिया। 

परिणामस्वरूप वह शिवलिंग, जो वेश्यानाथ ने महानन्दा को सौंपा था, जलकर भस्म हो गया। यद्यपि यह आश्चर्य रहा कि कुत्ता और बन्दर, जो कि शिवालय में बैठे थे, उस अग्नि की लपटों से किसी प्रकार जीवित बच गये।

हे नारद! यह दृश्य देखकर वेश्यानाथ तथा महानन्दा अत्यन्त दुःखी हुए। उस समय वेश्यानाथ ने अपने नेत्रों में जल भरकर इस प्रकार कहा-हे महानन्दा! हमने पहिले ही तुमसे कहा था कि यदि यह मूर्ति किसी प्रकार खो गयी अथवा नष्ट हो गयी तो हमारे प्राण बचने कठिन हैं। अब जब हमारे स्वामी ही अग्नि में जल कर भस्म हो गये तो हमारा जीवित रहना भी व्यर्थ है। 

इस समय यदि ब्रह्मा और विष्णुजी भी हमें मना करेंगे तो हम अपने प्राण त्यागे बिना न रहेंगे। वेश्यानाथ के इस हठ को देखकर महानन्दा अत्यन्त लज्जित तथा व्याकुल हुई। तब उसने रोते-पीटते हुए एक चिता तैयार करायी। वेश्यनाथ बस चिता में अग्नि जलाकर सबके देखते-देखते बैठ गये। 

उस समय महानन्दा ने सब लोगों को बुलाकर इस प्रकार कहा-हे महानुभावो! मैं तीन दिन के लिए इस व्यक्ति की स्त्री बनी थी और मैंने इससे कंकण लेकर यह प्रतिज्ञा की थी कि तीन दिन तक मैं तुम्हें अपना पति समझेंगी। आज दूसरे ही दिन मेरा पति अग्नि में जला जा रहा है, इसलिए मैं भी अपने धर्म को स्थिर रखने के लिए, इसके साथ सती होकर अपने प्राण त्याग दूँगी। आपलोग किसी प्रकार की चिन्ता न करें।

हे नारद! महानन्दा की बात सुनकर उसके भाई-बन्धुओं ने बहुत मना किया, लेकिन वह किसी प्रकार नहीं मानी। तदुपरान्त अपने सब धन ब्राह्मणों को दान कर दिया और शिवजी का स्मरण करके उस चिता की तीन परिक्रमा कीं। फिर जैसे ही उसने यह चाहा कि मैं चिता में प्रवेश करूँ उसी समय शिवजी अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होकर, उसके सम्मुख खड़े हो गये। इस चमत्कार को देखकर महानन्दा को अत्यन्त आश्चर्य हुआ। 

उस समय शिवजी ने उसका हाथ पकड़ कर हँसते हुए यह कहा-हे महानन्दा! तुम्हारे ऐसे भक्ति भाव तथा धार्मिकता को देखकर हम अत्यन्त प्रसन्न हैं। अब तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर हमसे माँग लो। यह सुनकर महानन्दा ने उत्तर दिया-हे प्रभो! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मुझे अपने चरणों की भक्ति प्रदान कीजिये तथा मुझे कुल-परिवार सहित मोक्ष प्रदान कर, अपने लोक में स्थान दीजिये। 

महानन्दा के ऐसे भक्तिपूर्ण वचनों को सुनकर शिवजी ने अपने गणों का स्मरण किया। वे उसी समय विमान लेकर आ पहुँचे। तब शिवजी ने महानन्दा को उसके सम्पूर्ण परिवार सहित विमान पर बैठाया और बड़ी धूमधाम से उसे अपने लोक में भेज दिया। 

यह पवित्र कथा सम्पूर्ण पापों को दूर करने वाली तथा दोनों लोकों में आनन्द प्रदान करनेवाली है। यह सब प्रकार की चिन्ताओं को दूरकर, पाठक की सम्पूर्ण मनोभिलाषाओं को पूर्ण करती है।

 ॥ द्विजेश अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब मैं द्विजेश अवतार की कथा का वर्णन करता हूँ। जिस प्रकार शिवजी ने राजा भद्रायुष की रक्षा के हेतु ऋषभ अवतार धारण किया था। उसी राजा भ्रदायुष की परीक्षा लेने के हेतु शिवजी ने दूसरी बार द्विजेश अवतार ग्रहण किया था। शिवजी अंहकार को नष्ट करनेवाले तथा अपने भक्तों को मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। वे अनेक प्रकार के स्वरूप धारण कर भक्तों का पालन करते हैं तथा शत्रुओं का संहार करते हैं। तीनों लोकों में शिवजी के समान श्रेष्ठ अन्य कोई नहीं है। सभी वेद तथा पुराण शिवजी को सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी कहकर पुकारते हैं।

हे नारद! राजा भद्रायुष शिवजी का अनन्य भक्त था। ऋषभ अवतार की कृपा से उसने स्वयं को वन्दी से छुड़ाया तथा शत्रुओं को जीत कर पुनः अपना राज्य प्राप्त किया। उसका विवाह राजा चन्द्रांगद की पुत्री कीर्त्तिमालिनी के साथ हुआ था। एक दिन वह अपनी पत्नी सहित शिकार खेलने के हेतु वन में गया। वहाँ वह वसंतऋतु पर्यन्त ठहरकर, रुचिपूर्वक विहार करता रहा। उस समय शिवजी ने उसकी परीक्षा लेनी चाही। तब शिवजी ने यह चरित्र किया कि वे स्वयं एक ब्राह्मण बन गये तथा गिरजा को ब्राह्मणी बना लिया। 

तदुपरान्त वे उसी वन में जाकर स्थित हो गये, जहाँ राजा भद्रायुष अपनी पत्नी सहित ठहरा हुआ था। फिर उन्होंने एक माया का सिंह उत्पन्न किया, जो घोर गर्जना करके उन दोनों को खाने के लिए दौड़ा। उस समय वे ब्राह्मण तथा ब्राह्मणीरूपी शिव-गिरिजा उस सिंह के भय से भागते हुए राजा भद्रायुष के समीप जा पहुँचे और प्रार्थना करते हुए इस प्रकार कहने लगे-हे राजन्! देखो, यह सिंह हम दोनों को खाना चाहता है। तुम इससे हमारी रक्षा करो। उनकी प्रार्थना सुनकर राजा भद्रायुष ने अपना धनुष उठाया। वह अपना धनुष ठीक चढ़ाने भी न पाया था कि उसी समय सिंह ने आकर ब्राह्मणी को पकड़ लिया और उसे सबके देखते-देखते ही खा गया। यद्यपि राजा ने उसके ऊपर अपने बहुत से बाण चलाये, लेकिन सिंह को उनसे किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचा।

हे नारद ! उस समय ब्राह्मणरूपी शिवजी ने संसारी रीति के अनुसार अपनी पत्नी की मृत्यु का शोक मनाते हुए राजा भद्रायुष से इस प्रकार कहा- "हे राजन् ! तुझे सहस्त्रों बार धिक्कार है। तेरा तेज आज कुछ भी प्रभाव नहीं दिखा सका। जब तू अपने कुल-धर्म का पालन नहीं कर सकता, तो तेरा मनुष्य जन्म लेना व्यर्थ है। इस प्रकार की अनेक बातें ब्राह्मणरूपधारी शिवजी ने राजा भद्रायुष से कहीं, जिन्हें सुनकर वह अत्यन्त लज्जित तथा व्याकुल हुआ। तब वह अपने मन में यह सोचने लगा कि वास्तव में मुझसे यह बहुत बड़ा अधर्म हुआ, जो मैं इस ब्राह्मण की स्त्री की रक्षा करने में असमर्थ रहा हूँ। इस पाप से मुक्ति पाने के हेतु अब यदि मुझे अपने प्राण भी दे देने पड़ें तो भी उचित है। मुझे इस ब्राह्मण की प्रसन्नता के हेतु कोई न कोई उपाय अवश्य करना चाहिए ।

हे नारद! इस प्रकार अपने मन में सोचकर राजा भद्रायुष ने ब्राह्मण वेषधारी शिवजी के चरणों में गिरकर यह प्रार्थना की-हे प्रभो! अब आप मुझ पर कृपा करके जो चाहें, वह ले लीजिए। मैं अपना सम्पूर्ण राज्य तथा स्त्री आपके अर्पण करता हूँ और स्वयं भी आपकी सेवा करने के हेतु प्रस्तुत हूँ। यह सुनकर शिवजी ने उत्तर दिया-हे राजन्! जब मेरी स्त्री ही नहीं रही, तो मैं तुम्हारा राज्य लेकर क्या करूँगा ? अब मैं यह चाहता हूँ कि तुम मुझे अपनी स्त्री दे दो, जिससे मेरे हृदय का दुःख दूर हो। 

ब्राह्मण के ऐसे वचन सुनकर राजा ने कहा-हे ब्राह्मण! क्या तुम्हारे गुरु ने यही उपदेश किया है? क्या तुमने परायी स्त्रियों के साथ भोग करनेवालों की दुद्रशा को अपनी आँखों से नहीं देखा है ? यह सुनकर ब्राह्मण ने उत्तर दिया-हे राजन्! हम में इतनी सामर्थ्य है कि ब्राह्मण का वध करने से जो पाप लगता है, उसे भी हम दूर कर सकते हैं, फिर परायी-स्त्री के साथ भोग करना तो इतना बड़ा पाप भी नहीं है। 

हे नारद! यह सुनकर राजा ने अपने मन में अत्यन्त भयभीत हो, यह विचार किया कि संसार में ब्राह्मण की रक्षा न करने के समान बड़ा पाप  कोई नहीं है, स्त्री का दान कर देने के उपरान्त मैं स्वयं भी अभि अय कोई नहीं है हो जाऊँगा, क्योंकि उसके बिना मेरा जीना व्यर्थ है। इस प्रकार निश्चय करके राजा भद्रायुष ने अपनी पत्नी ब्राह्मणरूपी शिवजी इस धाक कर दी। उसने अग्नि प्रज्ज्वलित कर, प्रदक्षिणा करने के उपरान, जैसे ही यह चाहा कि मैं अग्नि में जल कर भस्म हो जाऊँ, वैसे ही शिवजी अपने मुख्य लक्ष्णों सहित उसके सम्मुख प्रकट हो गये। उन्हें देखकर राजा भद्रायुष को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उस समय आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी। 

राजा भद्रायुष ने प्रसन्न होकर शिवजी की बड़ी स्तुति की। शिवजी ने राजा से इस प्रकार कहा-हे राजन्! हमने तुम्हारी परीक्षा के निमित्त ही ब्राह्मण का स्वरूप धारण किया था। जिस स्त्री को सिंह ने खाया है, वे गिरिजा हैं। अब तुम्हें कोई सन्देह नहीं करना चाहिए। तुम हमारे परम भक्त हो, तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर हमसे माँग लो।

हे नारद! राजा भद्रायुष ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा-हे प्रभो! यदि आप मुझपर प्रसन्न ही हैं तो मैं यह वर माँगता हूँ कि आप मुझे सम्पूर्ण कुल सहित अपना गण बना लें; जिससे मैं सदैव आपकी सेवा में प्रवृत्त रहूँ। इसके साथ ही आप यह भी कृपा करें कि मैं इसी शरीर से आपके लोक में पहुँच जाऊँ। 

जब राजा भद्रायुष इस प्रकार कह चुका, तब रानी ने यह प्रार्थना की-हे प्रभो! मैं यह चाहती हूँ कि मेरे माता-पिता भी आपकी सेवा में अवश्य पहुँचें। यह सुनकर शिवजी उन दोनों को इच्छित वरदान देकर अन्तर्धान हो गये। तब राजा भद्रायुष अपनी राजधानी लौट आया। वहाँ बहुत दिनों तक आनन्दपूर्वक राज्य करने के उपरान्त वह अपनी पत्नी, माता-पिता, पुत्र तथा सास-श्वसुर सहित शिवलोक में चला गया। 

इस चरित्र को जो कोई पढ़ता अथवा सुनता है, उसे भी शिवलोक प्राप्त होता है।

॥ जितनाथ अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब मैं तुम्हें जितनाथ अवतार का वृत्तान सुनाता हूँ। अर्बुदाचल पर्वत पर एक भील अपनी पत्नी सहित निवास करता था। वह शिवजी का परमभक्त था। एक दिन वह भील अपनी स्त्री को घर में छोड़कर आजीविका के निमित्त कहीं बाहर चला गया। उसी दिन संध्या को शिवजी भी परीक्षा लेने के हेतु एक यती का स्वरूप धारणकर, उसके घर जा पहुँचे। भील भी कुछ देर बाद घर लौट आया और यती को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। 

उसने प्रणाम आदि करने के उपरान्त यती का पूजन किया और यह कहा कि आप मुझे कोई सेवा बताने की कृपा करें। उस समय यतीरूप शिवजी बोले-हे भील! हम यहाँ रात भर रहना चाहते हैं। प्रातःकाल अपने घर चले जायेंगे। यह सुनकर भील ने उत्तर दिया-हे यती! हमारा घर बहुत छोटा है, उसमें दो मनुष्यों के अतिरिक्त तीसरा नहीं रह सकता। ऐसी स्थिति में, मैं आपको किस प्रकार आश्रय दूँ ?

भील का यह उत्तर सुन यती लौट कर जाने लगे। तब भील की स्त्री ने भील से यह कहा-हे पति! तुम यती के ठहरने के लिए स्थान दो, अन्यथा हमें बहुत पाप लगेगा। मैं यह उचित समझती हूँ कि तुम दोनों घर में भीतर रहो और मैं बाहर बनी रहूँगी। यह सुनकर भील बोला-हे प्रिये! तुम ठीक कहती हो। साथ ही स्त्री का घर से बाहर रहना भी ठीक नहीं है। इसलिए मैं यह चाहता हूँ कि तुम और यती घर के भीतर रहो।

हे नारद! यह निश्चय कर भील ने अपनी स्त्री तथा यती को घर के भीतर ठहरा दिया और स्वयं शस्त्र बाँध कर रात भर, घर के बाहर चारों ओर पहरा देता रहा। उस समय शिवजी ने यह लीला की कि एक महाभयानक सिंह अपने साथ अन्य कई सिंहों को लेकर भील के पास आ पहुँचा। भील ने उनमें से बहुत से सिहों को अपने बाणों द्वारा मार डाला, परन्तु अन्त में, अन्य सिहों ने उसे मारकर खा लिया। केवल इसकी हड्डियाँ ही वहाँ पड़ी रहीं। प्रातः काल होने पर यती तथा भीलनी ने जब भील की यह दशा देखी। 

उस समय भीलनी ने यती को सान्त्वना देते हुए कहा-हे यती! तुम अपने मन में कुछ खेद मत करो। मेरे पति परम धन्य हैं, जिन्होंने ऐसी मृत्यु प्राप्त की है। अब मैं भी अपने पातिव्रत धर्म का पालन करके, इनके साथ सती हो जाऊँगी।

हे नारद! इस प्रकार कह कर भीलनी ने चिता बनायी। तदुपरान्त वह अपने पति की हड्डियों को लेकर उस चिता की अग्नि में बैठ गयी। उस समय शिवजी भीलनी से इस प्रकार कहने लगे-हे भीलनी! अब तेरी जो इच्छा हो, वह वर हम से माँग ले। शिवजी के दर्शन प्राप्त कर तथा उनके मुख से यह वचन सुनकर, भीलनी आनन्दमन हो हर्श मूच्छित सी हो गयी। 

उस समय उसके मुख से कोई शब्द नहीं निकला। तब शिवजी दुबारा इस प्रकार बोले-हे भीलनी! हमारा यती का यह स्वरूप हंस रूप धारण कर, तुम दोनों की पुनः भेंट करायेगा। तुम दोनों पति-पत्नी दूसरा शरीर धारण कर, अत्यन्त आनन्द प्राप्त करोगे। तुम्हारा पति मगध देश में जन्म लेकर, राजा वीरसेन के पुत्र नल के नाम से प्रसिद्ध होगा और सम्पूर्ण पृथ्वी का स्वामी बनेगा। तुम भी विदर्भ देश के राजा भीम की पुत्री दमयन्ती के रूप में जन्म लोगी।

हे नारद! इतना कहकर शिवजी सब देवताओं सहित अन्तर्धान हो गये। तदुपरान्त भील ने राजा नल का जन्म लिया और भीलनी दमयन्ती बनकर प्रकट हुई। यतीरूप शिवजी ने हंस का स्वरूप धारणकर, उन दोनों का परस्पर विवाह करा दिया। नल और दमयन्ती दोनों ही बड़े शिवभक्त थे। इन दोनों द्वारा राजा इन्द्रसेन की उत्पति हुई। राजा इन्द्रसेन का पुत्र चन्द्रांगद शिवजी का परमभक्त हुआ। 

चन्द्रांगद की पत्नी का नाम सीमन्तिनी था। वह अपने पति से भी अधिक शिवजी की भक्त थी। शिवजी का यह यती अवतार परम पवित्र है। हंस अवतार की कथा भी आनन्द प्रदान करने वाली है।

॥ कृष्ण दर्शन अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब मैं कृष्णदर्शन अवतार का वर्णन करता हूँ। सूर्य के पुत्र मनु के इक्ष्वाकु आदि दस पुत्र उत्पन्न हुए । मनु के नवें पुत्र का नाम वाह्रीक था। जब वह अपने गुरु के घर विद्या पढ़ने के लिये गया, उस बीच में इक्ष्वाकु आदि उसके अन्य नौ भाइयों ने पिता से अलग होकर, उनके धन को आपस में बाँट लिया। उन्होंने वाह्रीक का कोई भी हिस्सा उस धन में नहीं रखा। जब वाह्रीक विद्या पढकर घर लौटा और उसने सब भाइयों को अपना-अपना भाग लिये हुए देखा तो यह पूछा कि मेरे हिस्से में क्या आया है? 

उस समय भाइयों ने उसे यह उत्तर दिया-हे वाह्नीक! जिस समय हम सबलोग भाग कर रहे थे, उस समय तुम्हारा ध्यान हमें नहीं रहा था; इसलिए अब तुम्हें पिता के धन में से कोई भाग नहीं मिल सकता। यदि तुम चाहो तो पिता को अपने भाग में ले लो।

यह सुनकर वाह्नीक अत्यन्त आश्चर्यचकित हो, अपने पिता के पास पहुँचा और यह कहने लगा-हे पिता! भाइयों ने मुझे कोई भाग नहीं दिया है तथा कहा है कि मैं अपने भाग में आपको ले लूँ।

हे नारद! वाह्नीक की बात सुनकर मनु ने आश्चर्य में भरकर कहा-हे पुत्र! तुम्हारे भाइयों के वचन उचित नहीं हैं। मैं कोई ऐसी वस्तु नहीं हूँ, जो तुम्हारे खाने-पीने के काम आ सकु। तुम्हारे भाइयों ने तुम्हारे साथ छल किया है। लेकिन जब तुम मुझे स्वीकार कर ही रहे हो, तो भगवान् सदाशिव का ध्यान धरकर मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूँ। वह उपाय यह है कि अंगिरस नामक मुनि एक भारी यज्ञ कर रहे हैं। उन्हें छः दिन से यज्ञ की युक्ति भूल गयी है, जिसके कारण उनका यज्ञ पूरा नहीं हो पा रहा है। तुम वहाँ जाकर उन्हें उपदेश करो। तुम्हारे उपदेश से उनका यज्ञ पूरा जायगा। तब जो धन यज्ञ करने से शेष बचेगा, उसे वे तुम्हें दे देंगे। 

हे नारद! मनु के ऐसे वचन सुनकर वाह्नीक ने उसी प्रकार आचरण किया तथा अंगिरस मुनि के यज्ञ को दो सूक्त पढ़कर पूर्ण करा दिया। तब अंगिरस मुनि यज्ञ का बचा हुआ सब धन वाह्रीक को देकर, स्वयं वैकुण्ठलोक को चले गये। जब वाह्रीक उस धन को उठाने लगा, उस समय शिवजी ने यह चरित्र किया कि वे अत्यन्त सुन्दर स्वरूप धारणकर कृष्ण-दर्शन के नाम से प्रसिद्ध हो, वाह्नीक की परीक्षा लेने के लिए उसके समीप आ पहुँचे और इस प्रकार कहने लगे-अरे तुम कौन बुद्धिहीन मनुष्य हो, जो हमारे धन को इस प्रकार ले रहे हो? हमारे विरुद्ध आचरण करने पर तुम्हारा कल्याण न होगा। 

शिवजी के ऐसे वचन सुनकर वाह्रीक ने कहा-हे महानुभाव! मैं अपने पिता की आज्ञा से यहाँ आया हूँ। अंगिरस मुनि ने वैकुण्ठ जाते समय यज्ञ से बचे हुए इस धन को मुझे दिया है। वाह्नीक के ऐसे वचन सुनकर कृष्ण-दर्शन-रूप शिवजी ने उत्तर दिया-वाह्नीक! तुम्हारे पिता अत्यन्त धर्मवान् हैं, तुम उनके पास जाकर पूछो कि वह धन किसे लेना चाहिए। वे जो बात कहेंगे, उसे हम भी स्वीकार कर लेंगे।

हे नारद! यह सुनकर वाह्नीक मनु के पास आया और उनसे इस प्रकार बोला-हे पिता! अंगिरस मुनि तो मुझे धन देकर वैकुण्ठलोक को चले गये, परन्तु उत्तर दिशा से आया हुआ एक मनुष्य मुझे वह धन नहीं लेने उसका कहना है कि यह मेरा धन है। तुम इसे नहीं ले जा सकते। उसके पूछने पर मैंने अपना नाम बताया तो उसने यह कहा कि तुम अपने पिता के पास जाकर पूछो। इस सम्बन्ध में वे जो कहेंगे, मैं उसे स्वीकार कर लूँगा। 

मैं आपसे यह पूछने आया हूँ कि अब मुझे क्या करना चाहिए?यह सुनकर मनु ने आश्चर्य में भरकर शिवजी का ध्यान किया तो उन्हें यह जान पड़ा कि कृष्ण-दर्शन रूप में शिवजी हैं। तब उन्होंने वाह्रीक से कहा हे पुत्र! जो व्यक्ति तुम्हें धन लेने से रोक रहा है, वह अन्य कोई नहीं; अपति साक्षात् सदाशिव हैं। यज्ञ की जो सामग्री शेष बच जाती है, उस पर भगवान् सदाशिव का ही अधिकार होता है। इस समय वे तुम्हारे ऊपर कृपा करके, तुम्हें दर्शन देने के लिए पधारे हैं। तुम्हें उचित है कि तुम उनके पास जाओ और अपनी सेवा द्वारा उन्हें प्रसन्न करो। मैं भी तुम्हारे साथ चलकर उन परमप्रभु के दर्शन करूँगा। 

हे नारद। इस प्रकार वाह्नीक को समझाकर, मनु उसे साथ लेकर शिवजी के समीप जा पहुँचे। उस समय वाह्रीक ने हाथ जोड़कर विनय करते हुए कृष्ण-दर्शन से इस प्रकार कहा-हे प्रभो! मेरे पिता ने आपको पहिचान लिया है। आप साक्षात् भगवान् सदाशिव हैं। इसी प्रकार वाह्नीक के पिता श्राद्धदेव मनु ने भी हाथ जोड़कर कृष्ण-दर्शन रूप शिवजी की बहुत प्रार्थना की। उसी समय मैं तथा विष्णुजी सब देवताओं सहित उस स्थान पर जा पहुँचे तथा भगवान् सदाशिव के उस स्वरूप को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो, स्तुति करने लगे।

तब कृष्ण-दर्शन रूपी शिवजी ने वाह्नीक से इस प्रकार कहा-हे वाह्नीक! तुम्हारी सत्यता को देखकर हम अत्यन्त प्रसन्न हुए हैं। अब हम तुम्हें सम्पूर्ण, धन अपनी ओर से देते हैं। तुम इसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करो। हम तुम्हें यह भी वरदान देते हैं कि तुम अपने पितासहित मुक्ति को प्राप्त करोगे।इतना कहकर शिवजी अन्तर्धान हो गये। 

तदुपरान्त सब देवता भी वाह्नीक को आशीर्वाद देकर अपने-अपने लोक को चले गये। शिवजी के आशीर्वाद से वाह्रीक चक्रवती राजा हुआ। अन्त में, वह अपने पितासहित शिवपुरी को गया और वहाँ उसकी गणना शिवजी के गणों में हुई। इस चरित्र को जो कोई सुनता अथवा सुनाता है, उसे भी दोनों लोकों में आनन्द की प्राप्ति होती है।

॥ भिक्षुनाथ अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब मैं भिक्षुनाथ अवतार का वृत्तान्त सुनाता हूँ। पूर्व काल में सत्यरथ नामक एक राजा शिवजी का परम भक्त हुआ। वह विदर्भ देश में राज्य करता था। एक दिन शाल्व नामक राजा नै सत्यरथ पर चढ़ाई करके उसके नगर को घेर लिया। उस समय दोनों राजाओं में घोर युद्ध हुआ, जिसमें सत्यरथ पराजित होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसकी रानी रात्रि के समय किसी प्रकार घर से बाहर निकल भागी। मार्ग में चलते-चलते जब वह थक गयी, तब एक तालाब के समीप वृक्ष के नीचे बैठ गयी। उसी दिन शुभलग्न में उसने एक पुत्र को जन्म दिया। कुछ देर बाद जब उसे बड़ी जोर से प्यास लगी, तो वह उस तालाब के तट पर पानी पीने के लिए जा पहुँची। वहाँ उसने एक घूँट भी पानी नहीं पिया था कि तभी एक ग्राह ने उसे पकड़ कर, जल के भीतर खींच लिया। 

हे नारद! उस समय शिवजी को उस नवजात शिशु पर बड़ी दया आयी। तभी उन्होंने ऐसी लीला की कि एक ब्राह्मण की स्त्री घूमती उस बालक के समीप आ पहुँची। उस स्त्री के साथ एक वर्ष की आयु का एक और भी बालक था। जब उसने उस स्थान पर उस बालक को पड़ा हुआ देखा तो अत्यन्त आश्चर्य में भरकर अपने मन में यह विचार किया कि भला यह किसका बालक है? इस प्रकार विचार करने के उपरान्त जब उसने इधर-उधर बहुत दृष्टि दौड़ायी पर कोई भी स्त्री-पुरुष दिखाई नहीं दिया, तब उसने निश्चय किया कि मुझे इस बालक का अपने पुत्र के समान पालन करना चाहिए। जब तक इसके कुल का हाल ज्ञात न हो जाय, तब तक इसे हाथ लगाना उचित नहीं है।

हे नारद! ब्राह्मणी को ऐसी चिन्ता में पड़े देखकर शिवजी एक भिक्षुक का रूप बनाकर वहाँ प्रकट हो गये और उस ब्राह्मणी से बोले-हे ब्राह्मणी! तुम अपने मन में किसी प्रकार का सन्देह मत करो। इसका पालन करने से तुम्हें सब प्रकार का आनन्द प्राप्त होगा। यह सुनकर उस स्त्री ने प्रसन्न होकर कहा-हे महानुभाव! मैं यह चाहती हूँ कि आप मुझे इसके जन्म तथा कर्म का वृत्तान्त विस्तारपूर्वक सुना देने की कृपा करें।

हे नारद! ब्राह्मणी के ऐसे वचन सुनकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले-हे ब्राह्मणी! यह विदर्भ देश के राजा सत्यरथ का पुत्र है। इसके पिता को राजा शाल्व ने युद्ध में मार डाला। तब इसकी माता वन में भाग कर चली आयी। इस बालक को जन्म देने के उपरान्त जब वह पानी पीने के लिए तालाब पर गयी, तब एक ग्राह ने उसे पकड़ कर पानी में खींच लिया और खा गया। अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण ही इसे ऐसा दुःख भोगना पड़ा है। 

अब तुम इसका प्रसन्नता पूर्वक पालन करो। शिवजी के मुख से ऐसे वचन सुनकर उस ब्राह्मणी ने अत्यन्त आश्चर्य में भरकर कहा-हे प्रभो! आप मुझे इस बालक के पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनाने की कृपा करें। मैं तथा मेरा यह बालक भी अत्यन्त दरिद्र हैं, इसका कारण क्या है ? कृपा करके यह भी बताइये ?

हे नारद! ब्राह्मणी की बात सुनकर शिवजी ने उत्तर दिया-हे ब्राह्मणी! पूर्व जन्म में इस बालक का पिता माण्डव्य देश का राजा था, जो कि दक्षिण दिशा में बसा हुआ है। वह हमारा परम भक्त था तथा सदैव प्रदोष व्रत धारण किया करता था। एक दिन वह राजा प्रदोष व्रत किये हुए शिवजी का पूजन कर रहा था। उसी समय उसे नगर के बीच में बड़ा कोलहाल सुनायी दिया। राजा उस शब्द को सुनकर हमारा पूजन त्याग, बीच में ही उठकर चल दिया। उधर से मन्त्री उस शत्रु को पकड़ कर अपने साथ ला रहा था, जिसने नगर में आकर उपद्रव मचा दिया था। 

राजा के समीप आकर मन्त्री ने सम्पूर्ण वृत्तान्त कहा तथा शत्रु को उसके सामने उपस्थित कर दिया। उस समय राजा ने अत्यन्त क्रोध में भर कर उस मनुष्य का सिर अपने हाथ से काट डाला। तदुपरान्त वह उसी अवस्था में लौटकर हमारा पूजन त्याग, भोजन करने बैठ गये। उसके पुत्र ने भी धर्म का पालन नहीं किया। इसीलिए इस जन्म में वह राजा विदर्भ देश का राजा बनकर शाल्व के हाथों से मारा गया है। तुम्हारे सामने जो बालक पृथ्वी पर पड़ा हुआ है, यह उसी का पुत्र है। इसकी माता का, जिसे कि ग्राह ने खा लिया है, वृत्तान्त यह है कि पूर्व जन्म में वह सत्यरथ की रानी थी। 

वहाँ उसने अपनी सौत को धोखा देकर मार डाला था। तुम्हारे पुत्र का यह वृत्तान्त है कि यह अपने पिछले जन्म में ब्राह्मण था। वहाँ इसने अपना सम्पूर्ण जीवन दान लेते ही बिताया, परन्तु किसी को अपनी ओर से कुछ नहीं दिया। इस कारण यह इस जन्म में दरिद्र हुआ है। अब शिवजी के पूजन से कल्याण होगा।

हे नारद! इतना कहकर शिवजी ने उस ब्राह्मणी को अपने मुख्य स्वरूप से दर्शन दिया, जिससे वह अत्यन्त प्रसन्न होकर स्तुति करने लगी। तदुपरान्त जब शिवजी अन्तर्धान हो गये, तब वह बालक को उठाकर तथा अपने बालक को साथ लेकर चक्र नामक एक गाँव में आयी और वहीं रहकर उन दोनों बालकों का पालन-पोषण करने लगी। जब वे दोनों बालक कुछ बड़े हुए तो शाण्डिल्य मुनि से शिक्षा प्राप्तकर, शिवजी की भक्ति करने लगे। 

एक दिन जब वे दोनों महानदी में स्नान करके, शिवजी का बाना धारण किए हुए अपने घर को लौट रहे थे, उसी समय शिवजी ने उन दोनों को अपना भक्त जानकर कृपापूर्वक यह लीला की कि उन्हें मार्ग में धन से भरा हुआ एक घड़ा प्राप्त हुआ। उस घड़े को उठाकर वे दोनों अपने माता के घर ले आये और उसे सब हाल कह सुनाया।

हे नारद! जब उन दोनों को शिवजी का व्रत करते हुए एक वर्ष व्यतीत हो गया, तब शिवजी ने यह लीला की कि एक दिन उन दोनों ने वन में एक गन्धर्व की कन्या को देखा। राजा के पुत्र ने उसके समीप पहुँचकर वार्तालाप करने के उपरान्त उसके साथ अपना विवाह कर लिया। तत्पश्चात् जब वे दोनों बालक बड़े हुए तो शिवजी की कृपा से राजपुत्र ने अपने राज्य को पुनः प्राप्त कर लिया। 

उस समय उनका नाम संसार में धर्मगुप्त प्रसिद्ध हुआ। वह ब्राह्मणी भी राजमाता बनकर आनन्दपूर्वक अपना समय व्यतीत करने लगी। ब्राह्मण के पुत्र का नाम शुचिव्रत हुआ। उसे धर्मगुप्त ने अपना मंत्री बना लिया। शिवजी के अवतार की यह कथा अत्यन्त पवित्र तथा दोनों लोकों में आनन्द प्रदान करनेवाली है। भिक्षुनाथ नामक शिवजी के अवतार का स्मरण करने से मनुष्यों के सब प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं।

॥ निर्जरेश्वर अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब मैं निर्जरेश्वर अवतार का वृत्तान्त कहता हूँ। प्रसिद्ध तपस्वी व्याघ्रपाद मुनि के घर एक बालक उत्पन्न हुआ। उसका नाम उपमन्यु रखा गया। भाग्यवश मुनि को दरिद्रता ने  आ घेरा , जिसके कारण वह बालक अपनी माता के घर जाकर रहने लगा। एक दिन संयोग से उसे थोड़ा-सा दूध पीने के लिए मिला। उसे पीकर उपमन्यु की यह इच्छा हुई कि हम कुछ और दूध पियें। वह हठ करके अपनी माता से बार-बार दूध माँगने लगा। उसने जौ कूटकर इन्हें पानी में घोल दिया और उपमन्यु को यह कह, वह पानी पीने के लिए दिया कि वह दूध है। 

उपमन्यु ने उस जौ के पानी को पीकर अपनी माता से कहा-यह तो दूध नहीं है। तू मेरे पीने के लिए दूध ला दे। इस प्रकार रो-रोकर अनेक बार अपनी माता से दूध माँगा। तब उसकी माता ने पिछले जन्म में शिवजी के नाम पर कुछ दान नहीं दिया, इसलिए मुझे इस जन्म में धन नहीं मिला है। तू इतने से ही अनुमान कर ले कि हमलोग वन में रहते हैं और दोनों समय खाने के लिए भोजन भी कठिनाई से प्राप्त कर पाते हैं।

हे नारद! माता के यह वचन सुनकर उपमन्यु को अपने पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण श्रेष्ठ बुद्धि प्राप्त हुई। तब उसने अपनी माता से यह कहा-हे माता! मैं शिवजी की तपस्या करके उन्हें अपने ऊपर प्रसन्न करूंगा और वरदान में क्षीरसमुद्र को माँग लूँगा।

इतना कहकर उपमन्यु अपनी माता से आज्ञा लेकर हिमालय पर्वत पर जा पहुँचा। वहाँ वह पंचाक्षर मन्त्र का जप करते हुए, वन के फल-फूलों द्वारा शिवजी का पूजन, ध्यान एवं तप करने लगा। उस समय तीनों लोक इसकी तपस्या की अग्नि से जलने लगे। तब मैं देवताओं की विनती सुनकर शिवजी के पास गया और प्रार्थना करने के उपरान्त उन्हें सब वृत्तान्त कह सुनाया। 

उस समय शिवजी ने हँसकर यह उत्तर दिया-हे ब्रह्मन्! उपमन्यु दूध के लिए ऐसा उग्र तप कर रहा है, अतः हम उसे वर देने के लिए अवश्य जायेंगे। हे नारद! शिवजी की आज्ञा सुनकर जब में अपने लोक को लौट आया, तब शिवजी उपमन्यु की परीक्षा लेने के लिए इन्द्र का स्वरूप धारणकर उसके समीप जा पहुँचे। उन्होंने गिरिजा का स्वरूप शची जैसी बनाया, नन्दी को ऐरावत् हाथी का स्वरूप प्रदान किया तथा गणों को देवताओं के रूप में परिवर्तितकर अपने साथ ले लिया। 

इस प्रकार वे उपमन्यु के पास जाकर कहने लगे-हे उपमन्यु! तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर हमसे माँग लो। यह सुनकर जब उपमन्यु ने अपने नेत्र खोलकर उन्हें देखा तो यह समझा कि मेरे सामने इन्द्र खड़े हुए हैं। उसने हाथ जोड़कर यह कहा-हे देवराज इन्द्र! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप कृपा करके मुझे शिवजी का तप करने की शक्ति प्रदान करें। मैं शिवजी के अतिरिक्त अन्य किसी से वर नहीं मागूँगा। 

उपमन्यु के मुख से यह वचन सुनकर इन्द्ररूप शिवजी ने उत्तर दिया-हे मुनि- पुत्र! हम सब देवताओं के राजा इन्द्र हैं। तू हमारी पूजा कर और जो चाहे, वह वरदान माँग ले। शिवजी दक्ष प्रजापति के शाप के कारण भूत-स्वरूप हैं तथा परम अशुभ वेषधारी हैं। इसीलिए अब उनका कोई वचन सत्य नहीं होता। भला, ऐसे देवता की पूजा करने से तुझे क्या लाभ हो सकेगा ?

हे नारद! इन्द्ररूपी शिवजी के मुख से यह वचन सुनकर उपमन्यु ने अत्यन्त क्रोध में भरकर इस प्रकार कहा-हे इन्द्र! क्या तुम्हारी बुद्धि कुण्ठिन हो गयी है, जो तुम शिवजी को नहीं पहिचान पाते? शिवजी तीनों गुणों से परे शुद्ध, पवित्र, निर्गुण, सगुण, परबह्म तथा सबके स्वामी हैं। मैंने तुम्हारे द्वारा शिवजी की निन्दा सुनी है, इसीलिए मुझे भी अत्यन्त पाप लगेगा। अब मुझे उचित है कि मैं तुम्हें भी नष्ट कर डालूँ और स्वयं भी मर जाऊँ।

इतना कहकर उपमन्यु ने भस्म लेकर मन्त्र पढ़ा और स्वयं सब प्रकार से पवित्र हो, उस भस्म को इन्द्ररूपी शिवजी पर छोड़ दिया, तदुपरान्त यह इच्छा प्रकट की उसी भस्म के द्वारा मैं स्वयं भी जल कर भस्म हो जाऊँ, उपमन्यु की ऐसी निष्ठा देखकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। उसी समय शिवजी के संकेत को समझ कर नन्दी ने उस भस्मास्त्र को अपने हाथ में पकड़ लिया। जिससे प्रकट होने वाली प्रज्ज्वलित अग्नि शान्त हो गयी।

हे नारद! इस चरित्र को करने के उपरान्त शिवजी अपने मुख्य रूप से उपमन्यु के सम्मुख प्रकट हो गये। उस समय सब देवता भी उस स्थान पर जा पहुँचे तथा शिवजी की स्तुति करने लगे। उपमन्यु ने जब शिवजी को सम्मुख खड़ा देखा, तो चरणों में गिर उन्हें प्रणाम किया तथा बहुत प्रकार से स्तुति करते हुए अपने अपराध की क्षमा माँगी। उस समय शिवजी ने उपमन्यु को अपने समीप बुलाकर, उसके सम्पूर्ण शरीर पर हाथ फेरा। 

फिर अपने पास बैठा कर कृपादृष्टि से देखते हुए इस प्रकार कहा-हे उपमन्यु! हम तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हैं। आज से गिरिजा तुम्हारी माता और हम तुम्हारे पिता होंगे। तुम सदैव युवा बने रहोगे तथा किसी प्रकार का पाप तुम्हें कभी नहीं लगेगा। तुम्हारे ऊपर मृत्यु का कोई वश नहीं चलेगा। तुम्हें दूध, दही, घृत तथा शहद के अनेक समुद्र प्राप्त होंगे। 

हमारे भक्तों में तुम्हारा स्थान अत्यन्त ऊँचा होगा। इतना कहकर शिवजी अन्तर्धान हो गये। तब उपमन्यु भी अपने आश्रम को लौट आये। हे नारद ! इस चरित्र को जो कोई पढ़ता तथा सुनता है, वह भी सदैव आनन्दित रहता है।

॥ जटाधारी अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब मैं तुमसे जटाधारी अवतार का वर्णन करता हूँ। जब गिरिजा माता-पिता से आज्ञा लेकर भगवान् सदाशिव को पतिरूप में प्राप्त करने की अभिलाषा से तपस्या करने के लिए वन में पहुँची, उस समय शिवजी ने सप्तऋषियों को गिरिजा की परीक्षा लेने के निमित्त उनके समीप भेजा। परन्तु गिरिजा उनके धोखे में किसी प्रकार नहीं आयी तथा दृढतापूर्वक तपस्या में संलग्न बनी रही। 

उस समय शिवजी स्वयं गिरिजा को देखने की इच्छा से जटाधारी ब्राह्मण का स्वरूप बनाकर उनके पास पहुँचे। वहाँ बहुत वार्तालाप एवं विवाद के उपरान्त भी जब वे गिरिजा को अपने दृढ़ निश्चय से नहीं डिगा सके, तो उन्होंने प्रसन्न होकर गिरिजा को अपने मुख्य स्वरूप का दर्शन कराया तथा कहा-हे गिरिजे! तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो। 

मैंने तुम्हारी परीक्षा लेने के निमित्त ही यह सब चरित्र किया था। तुम मेरे साथ कैलाश पर्वत पर चलो और मुझे प्रसन्नता प्रदान करो। यह सुनकर गिरिजा ने यह उत्तर दिया-हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो आप मेरे पति बनकर मेरे साथ विवाह करना स्वीकार करें।

गिरिजा की यह अभिलाषा जानकर शिवजी एवमस्तु कहकर अन्तर्धान हो गये। हे नारद! जटाधारी अवतार का यह चरित्र भी आनन्द-मंगल को बढ़ाने वाले तथा कीर्ति बढ़ानेवाला है।

॥ नर्तकनट एवं द्विजी अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब मैं तुम्हें नर्तकनट अवतार का वृत्तान्त सुनाता हूँ। गिरिजा को वर देने के पश्चात् शिवजी एक दिन नर्तकनट का स्वरूप धारणकर हिमाचल के घर गये। वहाँ हिमाचल तथा मैना को प्रसन्न कर, उन्होंने भिक्षा के बदले गिरिजा को माँगा। पहिले तो हिमाचल ने उनके ऊपर क्रोध किया, जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि यह शिवजी हैं तो उन्होंने गिरिजा का विवाह उनके साथ करना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार शिवजी ने बड़ी लीलाएँ करके गिरिजा के साथ विवाह किया। नर्तकनट अवतार का चरित्र भी भक्तों को आनन्द प्रदान करनेवाला है।

हे नारद! जब मैना ने यह जान लिया कि शिवजी सबसे श्रेष्ठ तथा सबके स्वामी हैं, तब उन्होंने शिवजी के साथ अपनी कन्या का विवाह कर देना उचित समझा। उस समय देवताओं ने परस्पर यह सम्मति की कि मैना तथा हिमाचल की श्रेष्ठ बुद्धि को किसी प्रकार नष्ट कर देना चाहिए। इस प्रकार का निश्चय करके सब देवता पहिले तो मेरे पास आये, तदुपरान्त मेरी आज्ञा से शिवजी के पास जाकर यह कहने लगे-हे प्रभो! यदि हिमाचल आपको सदाशिव समझकर गिरिजा का विवाह करेगा, तो वह इसी शरीर से आपके लोक को प्राप्त हो जायेगा। 

उस समय रत्न आदि अद्भुत वस्तुएँ कहाँ से प्राप्त होंगी? ऐसी स्थिति में आप कोई ऐसा उपाय कीजिए, जिससे उसका यह दिव्यज्ञान नष्ट हो जाय। देवताओं की यह प्रार्थना सुनकर शिवजी विष्णुजी ब्राह्मण का स्वरूप धारणकर हिमाचल के पास गये और उनसे इस प्रकार कहने लगे-हे राजन्! तुम राजा होकर शिव जैसे अवधूत के साथ अपनी पुत्री का विवाह करने के लिए क्यों आतुर हो रहे हो ? तुम्हें ऐसा करना कदापि उचित नहीं है। 

शिवजी अशुभ वेषधारी तथा अमंगलों के घर हैं। तब उन्होंने उनकी बात मानकर, शिवजी के साथ अपनी पुत्री का विवाह न करना ही उचित समझा। इस चरित्र को करने के उपरान्त शिवजी कैलाश पर्वत पर लौट आये। फिर वहाँ से उन्होंने सप्तर्षियों को हिमाचल के पास समझाने-बुझाने के लिए भेजा। 

तब सप्तर्षियों ने आकर हिमाचल तथा मैना को बहुत समझाया-बुझाया और गिरिजा का विवाह शिवजी के साथ करा दिया। द्विजावतार की यह कथा सुनने तथा सुनाने से दोनों लोकों में आनन्द प्रदान करनेवाली है।

 ॥ अश्वत्थामा अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब तुम अश्वत्थामा अवतार की कथा सुनो। ब्राह्मणों में परमश्रेष्ठ द्रोणाचार्य को कौरवों ने अपना गुरु मानकर, उनसे धनुर्विद्या प्राप्त की थी। उन्हीं द्रोणाचार्य ने कठिन तपस्या द्वारा शिवजी को प्रसन्न किया। तब शिवजी ने द्रोणाचार्य के समीप पहुँचकर यह कहा-हे द्रोणाचार्य! हम तुम्हारे तप से अत्यन्त प्रसन्न हुए हैं, तुम जो चाहो, वह वरदान हम से माँग लो।

यह सुनकर द्रोणाचार्य ने शिवजी की स्तुति करते हुए कहा-हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो यह वरदान दीजिये कि मुझे आपके अंश से एक पुत्र की प्राप्ति हो। वह बालक मुझ सहित कौरवों को आनन्द प्रदान करनेवाला, अत्यन्त बलवान् तथा मृत्यु को जीतनेवाला हो। द्रोणाचार्य की प्रार्थना सुनकर शिवजी उन्हें इच्छित वरदान देकर अन्तर्धान हो गये। 

तब उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न हो, अपनी स्त्री के समीप जाकर सब समाचार कह सुनाया। कुछ समय पश्चात् शिवजी की कृपा और उन्हीं के अंश द्वारा, द्रोणाचार्य की पत्नी के गर्भ से एक बालक ने जन्म लिया। उसका नाम अश्वत्थामा रखा गया।

हे नारद! अश्वत्थामा ने द्रोणाचार्य की आज्ञा पाकर कौरवों का पक्ष लिया था। विष्णुजी की प्रेरणा से अर्जुन ने शिवजी का तप किया और शिवजी द्वारा पाशुपत-अस्त्र प्राप्त किया। इतने पर भी अश्वत्थामा ने अपना तेज ऐसा प्रदर्शित किया कि कोई भी उसका कुछ न बिगाड़ सका। जब उसने पाण्डवों के पुत्रों का वध कर डाला, उस समय अर्जुन ने जब रथ पर चढ़कर अश्वत्थामा का पीछा किया था, तब अश्वत्थामा अपने मन में कुछ भी भयभीत न होकर, युद्ध करने के लिए सामने खड़ा हो गया। 

उसने अर्जुन के ऊपर अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। उस समय अर्जुन ने अत्यन्त दुःखी होकर श्रीकृष्णजी से यह कहा-हे श्रीकृष्णजी अश्वत्त्थामा द्वारा छोड़े गये ब्रह्मास्त्र की ज्वाला हम सब को भस्म करती हुई सामने चली आ रही है, आप इससे हमारी रक्षा करने का उपाय करें।

हे नारद! अर्जुन की प्रार्थना सुनकर श्रीकृष्णजी अर्जुन से इस प्रकार बोले-हे अर्जुन! तुम इस अस्त्र का प्रभाव समाप्त करने के लिए शिवजी द्वारा दिये गये पाशुपत-अस्त्र का प्रयोग करो। उसके बिना इस अस्त्र की ज्वाला किसी प्रकार शान्त नहीं होगी। यह सुनकर अर्जुन ने पाशुपत-अस्त्र का प्रयोग करके ब्रह्मास्त्र को निष्फल कर दिया। इस दृश्य को देखकर अश्वत्थामा ने यह विचार करके कि संसार में पाण्डवों का वंश ही न रहे, अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में जो बालक स्थित था, उसका वध करने के निमित्त पुनः अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। 

उस समय उत्तरा अत्यन्त व्याकुल होकर श्रीकृष्णजी की शरण में गयी। श्रीकृष्णजी ने अपने चक्र द्वारा उत्तरा के गर्भ की रक्षा की। 

हे नारद! अश्वत्थामा अवतार का यह चरित्र अत्यन्त पवित्र है और सम्पूर्ण संसार को आनन्द प्रदान करनेवाला है। अश्वत्थामा अजर-अमर है। वे इस समय भी गंगा के तट पर वास करते हैं तथा सबकी दृष्टि से छिपे रहते हैं। उनकी कथा सुनने तथा सुनाने से अत्यन्त पुण्य होता है तथा सम्पूर्ण मनोकामनाओं की प्राप्ति होती है।

॥ किरातेश्वर अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब तुम किरातेश्वर अवतार का वृत्तान्त सुनो। पूर्वकाल में चन्द्रवंश में ययाति नामक एक राजा हुए। उनके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें पुरु नामक सबसे छोटा पुत्र शर्मिष्ठा नामक रानी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। पुरु ने राज्य पाकर धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन किया। उसी के कुल में शान्तनु नामक राजा उत्पन्न हुआ। 

उस राजा की गंगा तथा सरस्वती नामक दो स्त्रियाँ थीं। गंगा से जिस पुत्र की उत्पति हुई, उसका नाम भीष्म था, भीष्म बड़ा, तपस्वी, जितेन्द्रिय तथा सत्यवादी था। शान्तनु की दूसरी रानी सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद तथा विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें से चित्रांगद को चित्रांगद नाम के ही एक गन्धर्व ने मार डाला, जिसके कारण विचित्रवीर्य राज्य का स्वामी हुआ‌।

हे नारद! विचित्रवीर्य की दो रानियाँ थीं। वह उन्हीं के साथ भोग-विलास किया करता था, जिसके कारण उसे राजयक्ष्मा रोग हो गया। अनेक उपाय करने पर भी राजा का वह रोग दूर न हो सका और एक दिन उसकी निःसन्तान अवस्था में ही मृत्यु हो गयी। इस प्रकार राजा शान्तनु का वंश नष्ट हो गया। व्यासजी ने विचित्रवीर्य की दोनों रानियों के गर्भ से सन्तान की उत्पत्ति की। इनमें बड़ी रानी के गर्भ से घृतराष्ट्र उत्पन्न हुए, जो जन्म से ही अन्धे थे। छोटी रानी के गर्भ से पाण्डू का जन्म हुआ, तीसरी बार राजा की दासी जब व्यासजी के समीप पहुँची तो उसके गर्भ से विदुर नामक विष्णुभक्त का जन्म हुआ। 

इन तीनों बालकों को देखकर सत्यवती अत्यन्त प्रसन्न हुई। व्यासजी द्वारा उत्पन्न तीनों बालक अत्यन्त प्रतापी तथा धर्मात्मा हुए । धृतराष्ट्र का विवाह सुवल की कन्या गान्धारी के साथ हुआ था, तथा राजा शूरसेन की पुत्री वसुदेव की बहिन कुन्ती के साथ पाण्डु का विवाह हुआ। पाण्डु की दूसरी रानी का नाम माद्री था। वह मद्रदेश के राजा की पुत्री थी।

हे नारद! धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र उत्पन्न हुए तथा पाण्डु के युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव- ये पाँच पुत्र उत्पन्न हुए, इनमें से पहिले तीन पुत्र कुन्ती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे तथा नकुल और सहदेव ने माद्री के गर्भ से जन्म लिया था। राजा देवक की पुत्री पारशवी का विवाह विदुर के साथ हुआ था। उसने भी अनेक धर्मात्मा पुत्रों को जन्म दिया। 

इन सब राजपुत्रों में भीम अत्यन्त बलवान् था और वह अपने बल के कारण अनेक प्रकार के उपद्रव मचाया करता था। दुर्योधन को भीम का स्वभाव अच्छा नहीं लगता था और वह सदा इस घात में लगा रहता था कि किसी उपाय से भीम को मार डाला जाय। इस प्रकार आरम्भ से ही धृतराष्ट्र के पुत्र कौरवों तथा पाण्डु के पुत्र पाण्डवों में शत्रुता हो गयी। 

तदुपरान्त एक दिन मन्त्री के उपदेश से धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को वारणावत में लाक्षाभवन के भीतर जलाने के लिए भेजा, परन्तु शिवजी की कृपा एवं विदुर की सम्मति से वे जीवित बच गये। वहाँ से पाण्डव दक्षिण देश की ओर चले। मार्ग में भीम ने हिडंब नामक दैत्य को मारा। फिर व्यासजी का उपदेश पाकर सब पाण्डव चक्रपुर में रहने लगे। द्रौपदी के स्वयंवर का समाचार सुनकर वे अपनी माता कुन्तीसहित राजा द्रुपद के यहाँ गये। वहाँ अर्जुन ने मत्स्य वेधने के उपरान्त द्रौपदी को जीता और सभी पाण्डवों के साथ द्रौपदी का विवाह हुआ। 

हे नारद! पाण्डवों की वीर्यता का समाचार सुनकर, राजा धृतराष्ट्र ने उन्हें अपने पास बुला लिया और आधा राज्य देकर खाण्डवप्रस्थ में रहने की आज्ञा प्रदान की। तदुपरान्त अर्जुन तीर्थाटन करते हुए द्वारका में पहुँचे। वहाँ उन्होंने श्रीकृष्णजी की सम्मति से सुभद्रा का हरण किया तथा उसके साथ अपना विवाह कर लिया। इसी सुभद्रा के गर्भ से अभिमन्यु का जन्म हुआ था।

हे नारद! अब मैं दूसरे प्रकार से अर्जुन के बल का वर्णन करता हूँ, पूर्व समय में श्वेतकी नामक एक राजा शिवजी का परमभक्त था। शिवजी ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि को यह आज्ञा दी कि तुम जाकर राजा श्वेतकी का यज्ञ करा दो। शिवजी की आज्ञानुसार दुर्वासा ने उस राजा का यज्ञ कराया। वह यज्ञ ऐसा था कि बारह वर्षों तक निरन्तर घृत की धार यज्ञ की अग्नि में गिरती रही। उसके कारण अग्नि अत्यन्त तृप्त हो, अजीर्ण के कारण निस्तेज हो गई।

उस समय अग्नि ने मेरे पास आकर यह प्रार्थना की कि मैं अत्यन्त व्याकुल हूँ, आप मेरे अजीर्ण को दूर करने का कोई उपाय कीजिए। तब मेरी आज्ञा से अर्जुन तथा कृष्ण ने अग्नि को अपनी शरण में लेकर उसे खाण्डव वन जलाने की आज्ञा दी। उस वन में मय नामक एक दानव रहता था। उस दानव को अर्जुन ने श्रीकृष्ण की आज्ञा मानकर, वन से भाग जाने दिया। उस उपकार के कारण मयदानव ने पाण्डवों के लिए एक ऐसी सभा का निर्माण किया, जिसमें जल तथा थल का कोई भी भेद ज्ञात नहीं होता था। 

जब दुर्योधन उस सभा को देखने के लिए आया तो उसकी बुद्धि भ्रम में पड़ गयी, जिसके कारण दुर्योधन अत्यन्त लज्जित हो गया और उसके हृदय में पाण्डवों का पुराना द्वेष फिर उभर आया।

हे नारद! उस शत्रुता के कारण दुर्योधन ने जुआ खेलकर पाण्डवों के सम्पूर्ण राज्य तथा धन को जीत लिया। यहाँ तक की उनकी पत्नी द्रौपदी तक को जुए में जीत लिया। तदुपरान्त दुर्योधन ने पाण्डवों को राजच्युत करके, बारह वर्ष के लिए अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। उस स्थिति में सूर्य ने द्रौपदी को एक ऐसा बर्तन दिया। जिसके द्वारा प्राप्त होनेवाले भोजन से पाण्डव अपना समय यापन करते थें।

॥ पाण्डवों के द्वैतवन में जाने की कथा ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! द्वैतवन में जाकर पाण्डवों ने अनेक प्रकार की विपत्तियाँ उठायीं। उनके पास भोजन के निमित्त सूर्य का दिया हुआ वही पात्र था। उस पात्र में यह गुण था कि जब तक द्रौपदी भोजन नहीं कर लेती थी, तब तक उसके भीतर की भोजन-सामग्री समाप्त नहीं होती थी। दुर्योधन को किसी प्रकार इस बात का पता चल गया। तब उसने यह चाहा कि पाण्डवों को किसी मुनि द्वारा शाप दिला देना चाहिए।  

वह दुर्वासा के पास पहुँचकर उनकी बड़ी सेवा की और वरदान माँगने की आज्ञा प्राप्त की। दुर्योधन ने उनसे यह कहा-हे प्रभो! मैं पाण्डवों का नाश चाहता हूँ। यह सुनकर दुर्वासा ऋषि ने दुर्योधन को बहुत धिक्कार देते हुए इस प्रकार कहा-हे दुर्योधन! ऐसा कभी नहीं हो सकता। फिर भी, तुमने हमारी सेवा की है, इसलिए हम तुम्हारी प्रसन्नता के निमित्त कुछ उपाय करेंगे।

हे नारद! दुर्योधन से इस प्रकार कहकर दुर्वासा ऋषि अपने साथ दस सहस्त्र शिष्यों को लिये हुए, पाण्डवों के पास उस समय पहुँचे, जिस समय द्रौपदी भोजन कर चुकी थी। पाण्डवों ने मुनि की यथाविधि पूजा की। उस समय दुर्वासा ने उनसे कहा-हे पाण्डवो! हम तुमसे भोजन प्राप्त करना चाहते हैं। मुनि के यह वचन सुनकर यद्यपि पाण्डव अपने मन में बड़े हताश हुए, फिर भी उन्होंने स्वीकार कर लिया। तब मुनि अपने शिष्यों सहित स्नान करने के लिए नदी तट पर चले गये। 

इधर पाण्डवों ने सोचा कि मुनि के लौटने तक भोजन तैयार हो पाना कठिन है, इससे अच्छा है कि हम सबलोग मुनि के आने से पूर्व ही मर जायँ, अन्यथा मुनि हमें शाप देकर नष्ट कर डालेंगे। जिस समय पाण्डव इस प्रकार विचार कर रहे थे, उसी समय यह आकाशवाणी हुई कि हे पाण्डवो! तुम किसी प्रकार की चिन्ता न करके, श्रीकृष्णजी का स्मरण करो। तुम्हारा संकट दूर हो जायेगा।

हे नारद! इस आकाशवाणी को सुनकर द्रौपदीसहित सभी पाण्डवों ने श्रीकृष्णचन्द्रजी का स्मरण किया। तब श्रीकृष्णजी शीघ्र ही उनके पास आ पहुँचे। उन्होंने सूर्य के दिये हुए पात्र को द्रौपदी से माँगा और उस पात्र में साग की एक पत्ती चिपकी हुई देखकर, उसे खा लिया। श्रीकृष्णजी द्वारा उस पत्ती के खाते ही उधर दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों सहित ही तृप्त हो गये। तदुपरान्त वे पाण्डवों के पास न आकर, नदी-तट से ही अपने आश्रम को चले गये। इस समाचार को सुनकर पाण्डवों को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और वे सब श्रीकृष्णजी की स्तुति करने लगे। 

उस समय श्रीकृष्णजी मैं उन्हें धैर्य बंधाते हुए कहा-हे पाण्डवो! अब हम मथुरा को छोड़, द्वारिकापुरी बसाकर उसमें रह रहे हैं। हम तुमसे यह कहते है कि तुम भगवान् सदाशिव की सेवा किया करो। शिवजी की सेवा किये बिना संकट दूर नहीं होगा।

हे नारद! पाण्डवों से इस प्रकार कहकर, श्रीकृष्णजी अन्तर्धान हो गये। तदुपरान्त पाण्डवों ने एक भील को दुर्योधन के आचरणों की देखरेख के लिए इन्द्रप्रस्थ भेजा। उस भील ने वहाँ का सब हाल पाण्डवों को आ सुनाया। तब दुर्योधन के प्रताप तथा वैभव का समाचार पाकर पाण्डवों को अत्यन्त दुःख हुआ। उसी समय पाण्डवों के सम्मुख श्री व्यासजी आ पहुँचे। वे अपने मुख से शिव-नाम का उच्चारण कर रहे थे। 

व्यासजी को देखकर पाण्डवों ने उनका अत्यन्त सम्मान किया और पूजन आदि करके उन्हें श्रेष्ठ आसन पर बैठाया। फिर इस प्रकार कहा-हे प्रभो! वन में आकर हमलोगों ने बहुत दुःख उठाया है। आज आपकी बड़ी कृपा हुई जो यहाँ पधारकर हमें दर्शन दिये।हे नाथ! आप हमारा उद्धार करें तथा ऐसा उपदेश दें, जिससे हम अपने राज्य को पुनः प्राप्त कर लें।

हे नारद! पाण्डवों की प्रार्थना सुनकर व्यासजी ने कहा- हे पाण्डवो! तुम परमधन्य हो। तुम्हारे ऊपर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न होंगे और वे तुम्हारे सभी कष्टों को दूर कर देंगे। भगवान् सदाशिव सबके स्वामी हैं तथा देवता, मुनि उनकी सेवा किया करते हैं। हम तुम्हें यह उपदेश देते हैं कि तुम विश्वास एवं प्रेमपूर्वक भगवान् सदाशिव की पूजा करो।

हे नारद! व्यासजी के वचन सुनकर पाण्डवों ने पूछा-हे प्रभो! हम सबलोग मिलकर शिवजी का पूजन करें अथवा हममें से कोई एक व्यक्ति करे? उस समय व्यासजी ने शिवजी का ध्यान धरकर यह उत्तर दिया-तुम में से केवल अर्जुन को ही पूजा करनी चाहिए। केवल उसी की सेवा से शिवजी तुम सबके ऊपर प्रसन्न होंगे। 

इतना व्यासजी ने शिव-पूजन की सम्पूर्ण विधि अर्जुन को बतला दी तथा यह कहा-क्षत्रिय को शिव एवं इन्द्र का पूजा एवं सेवा करनी चाहिए। तदुपरान्त शिवजी के मंत्र का जप करो। तुम गंगा तट पर इन्द्रलोक नामक स्थान में पहुँचकर,शिवजी का ध्यान करो। यह कहकर व्यासजी ने अर्जुन को इन्द्र का मंत्र दिया तथा शिवपूजन की विधि एवं दृष्टि बन्ध होने की विद्या प्रदान की। इतना करके व्यासजी अन्तर्धान हो गये।

॥ व्यास जी द्वारा अर्जुन को उपदेश की कथा ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! व्यासजी के चले जाने के उपरान्त सभी भाइयों ने अर्जुन को अत्यन्त तेजस्वी रूप में देखा। तदुपरान्त उन्होंने आशीर्वाद देते हुए अर्जुन को तपस्या करने के हेतु विदा किया। वे सबको प्रणाम आदि करके शुभ-मुहूर्त में शिवजी का तप करने के लिए चल दिये और गंगाजी के तट पर इन्द्रकील नामक स्थान के निकट पहुँचकर अशोक-वन में स्थित हुए। वहाँ सर्वप्रथम वेदी बनाकर, उन्होंने गुरु की अराधना की। तदुपरान्त आसन पर बैठकर पंचसूत्र पार्थिव का विधिपूर्वक निर्माण किया। फिर वे पार्थिव-पूजन के मंत्र का जप करने लगे।

हे नारद! तपस्या के प्रभाव से जब अर्जुन के मस्तक से प्रकाश निकलने लगा, उस समय उस वन में रहनेवाले इन्द्र के सेवकों ने इन्द्र के पास जाकर यह प्रार्थना की कि हे प्रभो! अशोक-वन में न जाने ऐसा कौन-सा तपस्वी तप कर रहा है, जिसके मस्तक से उत्पन्न हुई अग्नि के कारण हम सब जलने से कुछ ही बच गये हैं। सेवकों की बात सुनकर जब इन्द्र ने ध्यान धरकर विचार किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि यह कार्य हमारे पुत्र अर्जुन का है। उस समय अर्जुन को दुःखी देखकर इन्द्र को भी बहुत शोक हुआ। 

तदुपरान्त वे वृद्ध ब्राह्मण का स्वरूप धारणकर, हाथ में लाठी लिये हुए, अर्जुन के समीप जाकर खड़े हो गये। जब अर्जुन ने उन ब्राह्मणरूपी इन्द्र को अपने सामने खड़ा हुआ देखा, तो उनका हर प्रकार से स्वागत-सम्मान किया। उस समय इन्द्र ने अर्जुन से पूछा-हे क्षत्रिय-पुत्र! तुम ऐसा कठोर तप किसलिए कर रहे हो ?

हे नारद! ब्राह्मणरूपी इन्द्र के वचन सुनकर अर्जुन ने उन्हें सब हाल सुनाया। तब इन्द्र ने यह उत्तर दिया-हे अर्जुन! तुम्हारा तप करना व्यर्थ है। सांसारिक सुख तो थोड़े दिन तक रहते हैं, मनुष्य को इन सुखों के मोह में न पकड़कर, मुक्ति का विचार करना चाहिए। मुक्ति देना इन्द्र के वश की बात नहीं है। जो देवता मुक्ति प्रदान कर सके, तुम्हें तो उसी की आराधना करनी उचित है। 

यह सुनकर अर्जुन ने उत्तर दिया-हे ब्राह्मण! आपको इन बातों से क्या प्रयोजन? हम व्यासजी की आज्ञानुसार अपना कार्य कर रहे हैं, आप हमें उसके विपरीत उपदेश करने की कृपा न करें। इन्द्र ने जब अर्जुन की ऐसी दृढ़ता देखी तो उन्हें अर्जुन के ऊपर बहुत प्रेम हुआ। उस समय उन्होंने अपने वास्तविक-रूप में दर्शन दिये तथा यह कहा-हे पुत्र! हमने ब्राह्मण बनकर तुम्हारी परीक्षा ली थी। शिवजी मुक्ति-भुक्ति को प्रदान करनेवाले हैं। उन्हीं की कृपा से हमने, ब्रह्माजी ने तथा विष्णुजी ने उच्चपद को प्राप्त किया है। तुम आज से हमारे मन्त्र को त्यागकर, शिवजी के मंत्र का जप करो तथा पार्थिव-पूजन करके उन्हीं का ध्यान धरो। तुम्हारी पूजा में किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित नहीं होगा तथा शिवजी प्रसन्न होकर तुम्हें वर प्रदान करेंगे।

हे नारद! इतना कहकर तथा आशीर्वाद देकर इन्द्र अपने लोक को चले गये। तब अर्जुन ने स्नान एवं अगंन्यास करके शिवजी का ध्यान किया। तत्पश्चात् वे पार्थिव-पूजन करके एक पाँव से सूर्य के सम्मुख खड़े हो गये और शिव-मंत्र का जप करने लगे। उनके तप को देखकर ऋषि-मुनि भी आश्चर्यचकित हो उठे। 

जब अर्जुन को कुछ समय इसी प्रकार तपस्या करते व्यतीत हो गया, तब ऋषि-मुनियों ने कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान् सदाशिव से यह प्रार्थना की-हे प्रभो! अर्जुन आपकी कठोर आराधना कर रहा है। हमारी यह इच्छा है कि आप उसके पास पहुँचकर, वर प्रदान करने की कृपा करें। शिवजी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह उत्तर दिया-हे ऋषियो! आपलोग अपने-अपने स्थान को जायँ, हम अर्जुन के कार्य को पूरा करेंगे।

॥ अर्जुन के तप से प्रसन्न होकर शिव जी का भीलपति रूप धारण कर उनके समीप पहुँचने का वृत्तान्त ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! ऋषि-मुनियों को विदा करने के उपरान्त शिवजी ने यह इच्छा की कि हम अर्जुन के समीप पहुँचकर, उसे वर प्रदान करें। उस समय एक घटना घटी कि दुर्योधन ने जब यह सुना कि अर्जुन राज्यप्राप्ति के हेतु तपस्या कर रहे हैं, तो उसने सुर नामक एक दैत्य को अर्जुन का संहार करने के लिए भेजा। यह दैत्य भैंसे का स्वरूप धारणकर, अर्जुन के समीप जा पहुँचा। अर्जुन ने जब उसे दूर से ही अपनी ओर आते देखा, तो मन में यह जान लिया कि निश्चय ही मेरा कोई शत्रु है और इसे दुयोधन ने यहाँ भेजा होगा। यह निश्चय कर अर्जुन ने उसे मारने के लिए अपना धनुष-बाण उठा लिया।

हे नारद! जिस समय अर्जुन उस भैंसे को मारने की तैयारी कर रहे थे, उसी समय शिवजी भीलपति का स्वरूप धारणकर, अपने गणों सहित अर्जुन की परीक्षा लेने तथा वरदान देने के लिए वहाँ आ पहुँचे। वे हाथ में धनुषबाण लिये हुए थे। जिस समय उस भैंसेरूपी दैत्य ने यह इच्छा की कि मैं अर्जुन को अपने सींगों पर उठाकर मार डालूँ, उसी समय भीलपतिरूपी शिवजी ने उसकी पूँछ पर अपने बाण का ऐसा प्रहार किया कि वह बाण शरीर में होता हुआ, उसके मुख-मार्ग से बाहर निकल गया, जिसके कारण उस दैत्य की तत्काल ही मृत्यु हो गयी। 

जिस समय भीलपति ने उस दैत्य के ऊपर अपने बाण का प्रहार किया था, उसी समय अर्जुन ने भी उसके ऊपर अपना बाण चलाया था। अतः जब उन्होंने दैत्य को पृथ्वी पर गिरते हुए देखा तो अपने मन में यह विचार किया कि यह दैत्य मेरे ही बाण से मरा है। वे अपने बाण को लेने के लिए शिव का नाम उच्चारण करते हुए, उस दैत्य के समीप जा पहुँचे। उसी समय शिवजी का एक गण भी अपने स्वामी का बाण लेने के लिए वहाँ पहुँच गया।

हे नारद! उस गण को देखकर अर्जुन ने कहा-यह दैत्य हमारे बाण से मरा है। इसको मारनेवाला बाण हमारा है और उसे प्राप्त करने का अधिकार भी हमीं को है। तब गण ने यह उत्तर दिया-इस राक्षस को हमारे स्वामी भीलपति ने मारा है। इस प्रकार कुछ देर तक दोनों में बहुत विवाद हुआ, लेकिन अर्जुन ने बाण स्वयं उठा लिया। उस समय शिवजी के गण ने इस प्रकार कहा-तुम तपस्विायों का रूप धरकर ऐसा छल किसलिए करते हो? एक बाण के लिए तुम्हारा इस प्रकार लोभ करना उचित नहीं है।

यह सुनकर अर्जुन बोले-अरे मूर्ख! तू यह क्या कह रहा है? यह बाण मेरे मुख्य चिन्हों से युक्त है। तू इसे देख ले और व्यर्थ ही विवाद मत कर। तब गण ने यह उत्तर दिया-अरे मूर्ख! तू सच्चा तपस्वी नहीं है, क्योंकि तप करनेवाला कभी झूठ नहीं बोलता। मेरा स्वामी परम-तेजस्वी है और यह बाण उन्हीं का है। यह तेरे पास कभी नहीं रह सकता। मेरे स्वामी ने तेरे प्राण बचाने के हेतु अपने इस बाण द्वारा तेरे शत्रु का व संहार किया है और तू उनके उपकार को भूलकर ऐसी बातें कर रहा है?

हे नारद! उस गण के मुख से ऐसे कठोर वचन सुनकर अर्जुन ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहा-अरे नीच! तू बड़ा अहंकारी प्रतीत होता है, जो हमसे ऐसे कठोर वचन कह रहा है। हमें क्या आवश्यकता पड़ी है जो हम तेरे स्वामी के पास जाकर बाण माँगें ? यदि उसे चाहिए तो वह हमसे बाण माँग ले, अन्यथा तू और तेरे स्वामी में से कोई भी हमारे साथ युद्ध कर ले, उस स्थिति में जो जीतेगा उसी को वह बाण मिल जायेगा। तू शीघ्र ही अपने स्वामी को हमारे पास बुला ला। अर्जुन के ऐसे वचन सुनकर वह गण आश्चर्यचकित हो, शिवजी के समीप जा पहुँचा और उन्हें सब समाचार कह सुनाया। उस समय शिवजी ने यह विचार किया कि हमें अर्जुन के तेज तथा शक्ति की परीक्षा लेनी चाहिए। वे अपने गणों सहित अर्जुन के समीप जा पहुँचे।

॥ अर्जुन पर शिव जी की कृपा ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! शिवजी की असंख्य सेना को देखकर भी अर्जुन अपने मन में तनिक भी भयभीत नहीं हुए। वे अपने धनुषबाण लेकर उनके सामने युद्ध करने के लिए जा खड़े हुए। उस समय किरातरूपधारी शिवजी ने सर्वप्रथम संसारी-रीति के अनुसार अर्जुन के पास अपना दूत भेजा और यह कहलवाया कि हे तपस्वी! तुम हमारी सेना को अपनी आँखों से देखकर परिणाम का विचार कर लो और हमारा बाण हमें लौटा दो। 

जब दूत ने यह समाचार अर्जुन को दिया तो अर्जुन ने निर्भय होकर यह उत्तर दिया-हे दूत! तू अपने स्वामी से जाकर यह कह दे कि यदि हम भयभीत होकर तुम्हें बाण लौटा देंगे तो हमारे कुल मैं दाग लग जायेगा। तू अपने स्वामी से जाकर कह दो कि हम युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हैं। वह भी मैदान में आकर हमारी शक्ति को देख लें। 

हे नारद! अर्जुन की बात सुनकर दूत ने शिवजी के पास पहुँचकर,सब समाचार कह सुनाया। तब भीलपति शिवजी अपनी सेनासहित अर्जुन के साथ युद्ध करने को तैयार हुए। जिस समय उन्होंने युद्ध आरम्भ करने के लिए अपना शंख बजाया, उस समय अर्जुन भी शिवजी का ध्यान घरकर, युद्ध करने के लिए सामने आ पहुँचा। तब शिवजी के गणों ने अपने स्वामी की आज्ञानुसार ऐसी बाण-वर्षा की कि अर्जुन पहिले तो कुछ व्याकुल हुए फिर शिवजी का ध्यान धरकर उन सब बाणों को काट डाला। 

तदुपरान्त उन्होंने अपनी बाण-वर्षा द्वारा किरातरूपी शिवजी की सम्पूर्ण सेना के पाँव उखाड़ दिये। केवल शिवजी ही जहाँ के तहाँ खड़े रहे। तब उन दोनों में घोर युद्ध होने लगा। उस युद्ध को देखकर सम्पूर्ण सृष्टि में हाहाकार मच गया। पृथ्वी काँपने लगी तथा सभी देवता दुःखी हो गये। उस युद्ध में किरातरूपधारी शिवजी अर्जुन को पकड़कर आकाश की ओर ले गये। वहाँ उन्होंने अर्जुन को दोनों पाँव पकड़कर चारों ओर घुमाया तो भी अर्जुन ने किसी प्रकार अपनी हार नहीं मानी। अन्त में, शिवजी ने भक्ति के वशीभूत हो, अर्जुन के ऊपर कृपा करके अपने मुख्य रूप को प्रकट कर दिया।

हे नारद! जिस समय अर्जुन ने यह देखा कि वे जिस स्वरूप का ध्यान किया करते थे, वही स्वरूप नेत्रों के सम्मुख खड़ा है, तो अपने मन में लज्जित होकर पश्चाताप करने लगे तत्पश्चात् उन्होंने शिवजी को प्रणाम करके यह स्तुति की-हे प्रभो! मुझ से अज्ञानावस्था में जो अपराध बन पड़ा है, उसे आप क्षमा करने की कृपा करें।

इतना कहकर जब अर्जुन शिवजी के चरणों पर गिर पड़े, उस समय शिवजी ने उन्हें कृपापूर्वक उठाकर, अपने हृदय से लगा लिया और इस प्रकार कहा-हे अर्जुन! तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। तुम हमारे परमभक्त हो। हमने यह चरित्र तुम्हारी परीक्षा लेने के निमित्त किया था। अब तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर हमसे माँग लो।

यह सुनकर अर्जुन ने शिवजी की अत्यन्त प्रार्थना करते हुए कहा-हे प्रभो! आप अन्तर्यामी तथा सम्पूर्ण मनोकामानाओं को पूरा करनेवाले हैं। अब यदि आप पूछ ही रहे हैं तो आपसे यह माँगता हूँ कि आप मुझे दोनों लोकों की ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करने की कृपा करें। इतना कहकर अर्जुन हाथ जोड़कर खड़े हो गये। 

हे नारद। अर्जुन की यह प्रार्थना सुनकर शिवजी ने उन्हें अपना पाशुपत अस्त्र देते हुए कहा-हे अर्जुन! अब तुम्हारे सभी दुःख दूर हो जायेंगे। हमने तुम्हें अपना भक्त जानकर, यह अस्त्र प्रदान किया है। इसके कारण तुम किसी से भी नहीं हारोगे और सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे। अपने भाइयों सहित पुनः राज्य को प्राप्त करोगे और तुम्हारे सभी संकटों को हम नष्ट करते रहेंगे।

इतना कहकर शिवजी ने अर्जुन के शरीर पर अपना हाथ फिराया तदुपरान्त अनेक आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये। उस समय अर्जुन भी अत्यन्त प्रसन्न हो, पाशुपत-अस्त्र को लेकर, वहाँ से अपने स्थान को लौट आये तथा अपने भाइयों को सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। जब बारह वर्ष की अवधि समाप्त हो गयी, तब पाण्डवों ने नगर में पहुँचकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। 

शिवजी की कृपा से उन्होंने, सम्पूर्ण कौरवों का संहार किया तथा युधिष्ठिर ने राज्यसिंहासन को प्राप्त किया। हे नारद! किरातेश्वर शिव अवतार के इस चरित्र को जो मनुष्य पढ़ता अथवा सुनता है, वह भी अपने सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्तकर, शिव लोक में स्थान पाता है।

॥ द्वादश ज्योतिर्लिंग का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब मैं द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों का वर्णन करता हूँ। जो लोग प्रातःकाल उनका नाम लेते हैं, उन्हें सम्पूर्ण सुख प्राप्त होते हैं। शिवजी के ये बारह अवतार भक्तों के कल्याण के निमित्त पृथ्वी पर हुए थे। फिर ये ज्योतिर्लिङ्ग के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन ज्योतिर्लिङ्गों के नाम इस प्रकार हैं- १-सोमनाथ,२-मल्लिकार्जुन,३-महाकाल,४-ॐकारनाथ,५-केदारनाथ, ६-भीमशंकर,७-विश्वेश्वर,८-त्र्यम्बक,९-बैजनाथ अथवा वैद्यनाथ, १०-नागेश, ११-रामरेवर तथा १२-घुश्मेश्वर ।

हे नारद! इन बारहों अवतारों की अपार महिमा है। अब तुम इन ज्योतिर्लिंगों का वृत्तान्त सुनो-पहिले सोमनाथ सौराष्ट्र नगर में रहते हैं। दक्षप्रजापति के शाप के कारण जब चन्द्रमा का प्रकाश क्षीण हो गया, तब उसने सोमनाथ शिवलिंग की स्थापना की थी। उसके स्मरण, ध्यान एवं पूजन से सब प्रकार के दुःख तथा शोक नष्ट हो जाते हैं। वहीं पर चन्द्रकुण्ड नामक एक कुण्ड है, जहां स्नान करने से सम्पूर्ण पापों को नष्ट हो जाता है । दूसरे मल्लिकार्जुन श्रीनगर में प्रतिष्ठित हैं। शिवजी अपने पुत्र स्कन्द को लेने के लिए उस स्थान पर पहुँचे थे और वहीं ज्योर्तिलिङ्ग होकर स्थित हो गये थे। उस ज्योतिर्लिङ्ग के पूजन, दर्शन तथा सेवन से अनेक प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं।

हे नारद! तीसरे महाकाल उज्जयिनी में विराजमान हैं। उन्होंने दूषण नामक दैत्य को भस्म करके अपने भक्तों की रक्षा की थी और उसी स्थान पर ज्योतिर्लिङ्ग बनकर प्रतिष्ठित हो गये। उनका दर्शन, सेवन तथा पूजन भी दोनों लोकों में आनन्द प्रदान करनेवाला है ।

हे नारद! चौथे ॐकारनाथ विन्ध्याचल पर्वत पर प्रतिष्ठित हैं। वे भुक्ति तथा मुक्ति को प्रदान करनेवाले हैं। उनके दर्शन से बड़े-बड़े पाप भी नष्ट हो जाते हैं।

हे नारद! पाँचवें केदारेश्वर नरनारायण रूप से हिमालय पर्वत के केदार नामक स्थान में विराजमान हैं। वे भरतखण्ड के स्वामी हैं। उनकी सेवा करने पर सभी सांसारिक सुखों की प्राप्ति होती है तथा अपवित्र से अपवित्र प्राणी भी उनके दर्शन पाकर पवित्र हो जाता है।

हे नारद। छठे भीमशंकर भीमाद्रि पर्वत पर विराजमान हैं। उन्होंने अपने भक्तों की रक्षा के निमिन्त भीम नामक दैत्य का संहार किया था। उनका सेवन, पूजन तथा दर्शन सम्पूर्ण आनन्द-मंगलों को देनेवाला है ।

हे नारद। सातवें विश्वेश्वर काशी में विराजमान हैं। वे भुक्ति-मुक्ति आदि सम्पूर्ण वस्तुओं को प्रदान करते हैं। उनका दर्शन एवं पूजन करने से परमपद प्राप्त होता है। उनकी पुरी काशी में निवास करनेवाला कोई भी प्राणी नरकगामी नहीं होता। वे अपने भक्तों की सम्पूर्ण मनोकामनाओं को पूरी करते हैं।

हे नारद ! आठवें त्र्यम्बक गौतमी नदी के तटपर विराजमान हैं। उन्होंने गौतम के पाप को नष्ट करने के निमित्त अवतार लिया था। उनके दर्शनों से सब प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। 

हे नारद! नवें वैद्यनाथ चिताभूमि में विराजमान हैं। उन्होंने रावण के निमित्त अवतार ग्रहण किया था। उनके दर्शन एवं पूजन से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं तथा तीनों लोकों का ऐश्वर्य प्राप्त होता है। उनकी महिमा अनन्त है।

हे नारद! दसवें नागेशजी दारुकवन में विराजमान हैं। वे अपने भक्तों का पालन करके दुष्टों को दण्ड प्रदान करते हैं।

हे नारद! ग्यारहवें रामेश्वर सेतुबन्ध में विराजमान हैं। उन्होंने रामचन्द्रजी को सुख प्रदान किया था तथा उनकी प्रीति के कारण वहीं स्थिति हुए। जो कोई रामेश्वर शिवलिङ्ग को गंगाजल से स्नान कराता है, उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं।

हे नारद! बारहवें घुश्मेश्वर ज्योर्तिलिङ्ग की कथा इस प्रकार है-दक्षिण दिशा में देवगिरि के समीप एक ग्राम में सुधमा नामक एक ब्राह्मण रहता था। उस ब्राह्मण की दो पत्नियाँ थीं। उनमें दूसरी स्त्री का नाम घुश्मा था। शिवजी की सेवा करने के कारण उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई, लेकिन पहिली स्त्री ने सौतियाडाह के कारण उस बालक को मार डाला। यह देखकर शिवजी उस स्थान पर प्रकट हुए और उन्होंने मरे हुए बालक को जीवित कर दिया। इस प्रकार उन्होंने अपनी सेविका घुश्मा को आनन्द प्रदान किया। जो व्यक्ति घुश्मेश्वर शिवलिङ्ग का दर्शन अथवा पूजन करता है, उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं।

हे नारद! शिवजी के ज्योतिर्लिङ्गों की सेवा करके मनुष्य सब प्रकार के मनोरथों को प्राप्त कर सकता है। इनका दर्शन, सेवन तथा पूजन दोनों लोकों में आनन्द प्रदान करनेवाला है। जो इस चरित्र को सुनता, पढ़ता, अथवा दूसरों को सुनाता है, उसे भी सब प्रकार का सुख प्राप्त होता है तथा उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं।

॥ इति श्री शिवपुराणे ब्रह्मानारदसम्वादे भाषायां शतरुद्रखण्डनाम सप्तम खण्ड  समाप्तः  ॥ ७ ॥