॥देवताओं द्वारा शिव जी के विहार स्थान पर पहूँच कर स्तुति करना॥

इतनी कथा सुनकर शौनकजी बोले-हे सूतजी! नारदजी ने शिवजी के विवाह का वर्णन सुनकर ब्रह्माजी से फिर क्या पूछा ? सूतजी ने कहा- नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा- हे पिता! मैं समस्त संसार में भ्रमण करता रहा, लेकिन शिवजी का तत्त्व भेद न जान सका। फिर विष्णुजी के कथनानुसार मैंने आपकी सेवा में पहुँचकर थोड़ा सा शिवजी का चरित्र सुना तो मन को अच्छी तरह से धैर्य प्राप्त हुआ तथा इस बात का पूरा विश्वास हो गया कि शिवजी का चरित्र संसार के लिए बहुत ही आनन्द एवं मंगलदायक है। 

इसीलिए अब मेरी इच्छा है कि आप मुझे यह बतायें कि जब शिवजी गिरजा के साथ विवाह करके कैलाश पर्वत पर सुशोभित हुए, तब उन्होंने भक्तों को सुखदायक कौन से चरित्र किये तथा हिमाचल से विदा होकर कौन-कौन से कार्य किये ? आप मुझे तारक दैत्य का वध, कार्तवीर्य की उत्पत्ति तथा त्रिपुरासुर का प्रकट होना आदि सब कथा सुनाइये, क्योंकि तीनों लोकों में आप से अधिक कोई शैव नहीं है और न कोई शिवजी के चरित्र के विषय में जानने वाला है।

यह सुनकर ब्रह्माजी अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा शिवजी के प्रेमानन्द में विभोर हो गये। कुछ देर के पश्चात् ब्रह्माजी ने कहा-हे पुत्र! मुझे विश्वास है कि तुम्हारे हृदय में शिवजी विराजमान हैं। तुम्हें अब शिवजी के अन्य चरित्रों को सुनाता हूँ।

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! जब सदाशिव गिरिजा को विवाह कर लाये, तब देवताओं का मनोरथ समझ उन्होंने ताराकासुर के वध की इच्छा की। मैं, विष्णु तथा समस्त देवता वहाँ से विदा होकर अपने घरों को गये। हमने शिवजी की कृपा का भरोसा रखा, लेकिन कोई बात प्रकट न हुई। एक दिन समस्त देवता, मुनि आदि एक स्थान पर एकत्र होकर वार्त्तालाप करके कहने लगे कि बड़े आश्चर्य का विषय है कि इतना समय व्यतीत हो गया, लेकिन अभी तक हमारा कार्य सिद्ध नहीं हुआ। 

फिर उन सबने तेज अर्थात् अग्नि से कहा कि तुम चतुरता से शिवजी के पास जाकर देखो कि वे क्या कर रहे हैं ? अग्नि देवता यह आदेश पाकर वहाँ से विदा हो, कपोत का स्वरूप धारणकर, शिवजी के निवास स्थान पर पहुँचे। फिर मैं तथा विष्णुजी सब देवताओं के साथ कैलाश पर्वत पर गये। 

जब हम लोगों ने शिवजी को वटवृक्ष के नीचे न देखा तो गणों से पूछा कि सदाशिवजी महादेव कहाँ हैं ? उस समय गणों ने यह उत्तर दिया कि वे तो बहुत समय से घर के भीतर गिरिजाजी के पास हैं, अभी तक बाहर नहीं आये। 

यह सुनकर विष्णुजी, मैं तथा देवता आदि सदाशिवजी के भवन के द्वार पर गये तथा उच्च स्वर से उन्हें पुकारा। हमारी पुकार सुनते ही शिवजी तुरन्त गिरिजा को छोड़कर बाहर आये। उस समय हमारे मन में शिवजी के प्रति अनन्त प्रेम उमड़ पड़ा तथा प्रसन्नता से हम सबके नेत्रों में अश्रु छलक आये। 

हमने कहा-हे सदाशिव! हम अब आपकी शरण में हैं, आशा है आप कृपा करके हमारे दुःख को दूर करेंगे। आपके कृपा-कटाक्ष से हमारा कार्य सुधरता है। हम आपकी महिमा कहाँ तक वर्णन करें ? आपकी महिमा नारद, शारद, शेष तथा वेद कहकर थक जाते हैं। 

आप भक्ति एवं तप के आधीन दया के सागर तथा समस्त संसार के स्वामी हैं। उसका वर्णन करने की कोई आवश्यकता नहीं। आप हमारी ओर दयादृष्टि क्यों नहीं करते? हम सब आपकी शरण में हैं। आप केवल हम भक्तों के उपकार के लिए सगुण स्वरूप धारण करते हैं। मैं तथा विष्णुजी आदि इस प्रकार स्तुति करके शिवजी के आगे मस्तक झुकाकर खड़े हो गये।

॥कपोतरूपधारी अग्नि द्वारा शिव जी का वीर्य निगलना,गिरिजा द्वारा देवताओं को शाप, अग्नि का गंगा में वीर्य छोड़ना तथा सरवन में बालक के जन्म की कथा॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! देवताओं की स्तुति को सुनकर शिवजी ने प्रसन्नता एवं हर्ष में भरकर कहा-हे देवताओ! आपलोग जिस कार्य के लिए आये हो, उसका विस्तारपूर्वक वर्णन करो। शिवजी के वचन सुनकर सब देवताओं ने हाथ जोड़कर विनती की-हे कैलाशपति! आप अपना सब विहार तथा आनन्द त्यागकर देवताओं का कार्य पूरा करिये।

शिवजी बोले-हे देवताओ । हमारा वीर्य जाता है, जिसमें शक्ति हो, वह इसे धारण कर ले। यह सुनकर विष्णु ने अग्नि को संकेत किया तथा शिवजी ने विष्णु की इच्छा जानकर उसे पृथ्वी पर डाल दिया। देवताओं की आज्ञा से अग्नि ने तुरन्त उस वीर्य को धारण कर लिया। फिर अग्नि कपोत का शरीर धारण कर अपनी चोंच से उस वीर्य को निगलकर अपने घर की ओर उड़ गये।

हे नारद! जब शिवजी बहुत देर तक न लौटे तो गिरिजा चिन्तित होकर बाहर आयीं, जहाँ देवता लोग शिवजी के पास खड़े थे। वहाँ जाकर उन्होंने इतना क्रोध प्रकट किया कि सब देवता अत्यन्त भयभीत हुए। गिरिजा ने क्रोधावेश में होंठ चबाते हुए कहा-हे देवताओ! तुमसब अपने स्वार्थ के साथी हो । तुमने अपने स्वार्थ के लिए मुझको बाँझ कर दिया। तुमने शिवजी को अपने पास बैठा रखा हैं। तुमने हमारे विहार में विघ्न उत्पन्न किया है, इसलिए तुम्हारी सब स्त्रियाँ बाँझ होंगी ।गिरिजा ने देवताओं को यह शाप देकर अग्नि से कहा-हे भाग्यहीन वह्नि ! तुम इतने दुष्ट हो कि तुमने भक्ष्य-अभक्ष्य का कुछ विचार न किया। 

अब तुम सब चीजें खाया करोगे; क्योंकि तुमने शिवजी का वीर्य खा लिया है। जिस समय गिरिजा ने अग्नि को यह शाप दिया, उस समय देवता आदि बहुत दुःखी हुए। फिर शिव एवं पार्वती अन्तःपुर में चले गये। उसी समय समस्त देवता आदि ने गर्भ धारण किया। 

तब अपने उदर को गर्भ से पूरित देख वे बहुत ही लज्जित और दुःखी हुए । सब देवता मिलकर शिवजी की शरण में गये तथा स्तुति करते हुए बोले-हे देवाधिदेव! आप हमारे ऊपर कृपा करें। अब आप हमको मुक्त करें। इस प्रकार बहुत-सी स्तुति सुनकर शिवजी फिर प्रकट हुए, जिनको देखकर देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा पुनः स्तुति करके बोले- हे गिरिजापति ! आप हमारी सहायता करें तथा हमारे दुःखों को दूर करें। हम आपके सेवक हैं। जब से हमने गर्भ धारण किया है तब से हम महादुःखी हैं। हे प्रभो ! लोक में हमारी निन्दा हो रही है।

हे नारद! देवताओं की बातें सुनकर शिवजी हँस पड़े तथा बोले- विष्णु तथा सब देवताओ! तुम तुरन्त वीर्य को मुख के मार्ग से बाहर निकाल दो, जिससे हमें प्रसन्नता प्राप्त हो। यह सुनकर देवताओं ने तुरन्त शिवजी के आदेश का पालन कर, वीर्य निकाल दिया। 

उस वीर्य का वर्ण स्वर्णवत् हो गया। इस प्रकार देवताओं को उस दुःख से छुटकारा मिला, शिव ने अनल को यह आज्ञा न दी; इससे उसको बहुत दुःख हुआ। अन्त में वह भी बहुत दुःखी होकर शिवजी की स्तुति करने लगा और बोला-हे देवताओ के देवता ! अब आपको मेरी सहायता करनी चाहिए । 

आप ही बताइये कि मैं आपके चरण छोड़कर कहाँ जाऊँ ? अब आप मुझे ऐसा उपाय बताइये जिससे मेरा यह दुःख दूर हो। यह सुनकर शिवजी बोले-हे अनल! हमारे इस वीर्य को स्त्रियों को दे दो। जिससे तुमको शन्ति मिले। तब अग्नि ने धैर्य के साथ विनय की कि हे प्रभो! आपके वीर्य के तेज को स्त्रियाँ कैसे धारण कर सकेंगीं।

हे नारद! अग्नि के मुख से ऐसे वचन सुनकर, तुमने शिवजी की आज्ञा से उत्तर दिया-हे वह्नि! जो स्त्रियाँ माघ मास में अग्नि में तपती हों, उनके शरीर में तुम इस तेज को बाँट दो। अग्नि यह सुनकर प्रसन्न हो प्रातः काल उठ, नदी किनारे अग्नि जलाकर बैठ गये। उस समय अनेक स्त्रियाँ नदी में स्नान करने के लिए उस स्थान पर आयीं। क्योंकि सर्दी ने उनको बहुत दुःख दिया था, इसलिए जलती हुई अग्नि देखकर उनकी इच्छा आग तापने की हुई अरुन्धती ने इस रहस्य को समझ कर स्त्रियों को आग तापने से मना किया। 

फिर भी अरुन्धती की बात को किसी ने न माना। वे सब आग के पास बैठकर तापने लगीं। तब वह वीर्य धीरे-धीरे निकलकर रोम के मार्ग से स्त्रियों के शरीर में प्रवेश करने लगा, जिससे अग्नि का बोझ हल्का हुआ। तब अग्नि अत्यन्त प्रसन्न होकर तेज को दूर हुआ देख, प्रसन्न हुआ तथा वे स्त्रियाँ तुरन्त गर्भवती हुईं। 

तब वे दुःखी होकर अपने घर लौट गयीं। यह दशा देखकर ऋषीश्वरों ने उन पर इतना क्रोध किया कि वे सब पक्षियों की भाँति उड़ने लगीं। उन्होंने अपनी यह अवस्था देख, अत्यन्त दुःखी हो वीर्य को हिमगिरि के ऊपर छोड़ दिया। वहाँ उस वीर्य का तेज स्वर्ण के समान झलकने लगा। 

फिर उन्होंने उसे उठाकर गंगा नदी में डाल दिया। जैसे ही वह वीर्य नदी में पड़ा, वैसे ही नदी काँप कर, बहना छोड़, स्थिर हो गयी तथा शिवजी के वीर्य को न सहकर दुःखी हो, बड़े जोर से नाद करने लगी। फिर गंगा ने उस वीर्य को अपनी लहरों के द्वारा किनारे पर फेंक दिया। 

उस स्थान पर सरपत के बोझ पड़े हुए थे। वह वीर्य वहीं जाकर रुक गया तथा एक बालक स्वरूप में प्रकट हुआ। उस समय आकाश से जय-जय का घोष हुआ। उस लड़के का स्वरूप अत्यन्त सुन्दर था। मुख, नाक एवं हाथ बहुत ही सुडौल तथा वर्ण जलती हुई अग्नि के समान था। नख परम सुन्दर थे, चरण ऐसे थे जिनको देखकर करोड़ों कामदेव लज्जित हो जायँ। 

उसी समय गिरिजा के दोनों स्तनों से दुग्ध की धारा बहने लगी, जिसको देख शिव तथा गिरिजा को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। तब गिरिजा ने शिवजी से पूछा-हे नाथ! हमारे स्तनों से दूध क्यों निकला है ? उस समय शिवजी ने मुस्कुराकर कोई उत्तर न दिया।

॥ विश्वामित्र द्वारा बालक का संस्कार ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! उस समय समस्त देवता, सिद्ध मुनि एवं गण आदि एकत्र होकर, बड़ा आनन्द मनाते हुए तथा पुष्पों की वृष्टि करते हुए कैलाश पर पहुँचे। गंधर्वों ने प्रसन्न होकर आनन्द के बाजे बजाये। इसी प्रकार बड़ी धूमधाम से उत्सव मनाया गया। तीनों लोकों में सबको बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। उसी समय गाधिपुत्र विश्वामित्र जो प्रसिद्ध ब्राह्मण हैं, तुरन्त वहाँ आ उपस्थित हुए। 

उन्होंने उस लड़के की स्तुति कर, आदर किया। तब वह बालक विश्वामित्र की बनायी हुई स्तुति सुनकर प्रसन्न होकर कहने लगा-हे मुने! तुम हमारा संस्कार करो। तुम्हीं आज से हमारे पुरोहित हुए। तुम तीनों लोकों में सम्मान के योग्य होगे ।यह सुनकर विश्वामित्र ने कुछ सोचकर विनयपूर्वक कहा-मैं ब्राह्मण के घर उत्पन्न नहीं हुआ हूँ, जो आपका संस्कार करूँ।

मैं तो गाधि नामक क्षत्रिय से उत्पन्न हूँ तथा मेरा नाम विश्वामित्र है। संस्कार आदि कार्य करना ब्राह्मण का धर्म है, इनके अतिरिक्त यदि अन्य कोई करावे तो वह दुःख पाता है। अब आप अपने विषय में बताइये कि आप इस प्रकार बालक रूप धारण किये हुए कौन हैं ? आपके माता-पिता कौन हैं ? वे दोनों आपको इस प्रकार अकेला छोड़कर कहाँ चले गये ? मैं आपको यहाँ अकेला देख रहा हूँ। 

आपका तेज अद्भुत है। आप ब्रह्मचारी हैं या गृहस्थ हैं अथवा तीनों देवताओं में से कोई हैं ? आप ब्रह्म हैं, जो बालरूप से प्रकट हुये है ? मैंन आज तक ऐसा बालक नहीं देखा। आप तो उत्पन्न होते ही बातें  करके आनन्द प्रदान करते हैं तथा अपने संस्कार के लिए मुझे आज्ञा देते हैं। कृपा करके मुझे सब कुछ स्पष्ट बतला दीजिये।

हे नारद! विश्वामित्र के ऐसे वचन सुनकर उस बालक ने हँसते हुए कहा-हे विश्वामित्र! हम गिरिजा एवं शिव के पुत्र हैं तथा दैत्यों को मारकर तीनों लोकों को आनन्द प्रदान करने वाले हैं। यह कहकर उस बालक ने अपना प्रताप विस्तारपूर्वक कह सुनाया और कहा हे ऋषि ! तुम ब्रह्मर्षि होकर सब ब्राह्मणों से प्रतिष्ठा प्राप्त करोगे; यहाँ तक कि ब्रह्मा के पुत्र वशिष्ठ भी तुमको ब्रह्मर्षि कहेंगे। यह हमारा वर है। 

अब तुम शिव और गिरिजा की लीला को अपार समझकर हमारे संस्कार के विषय में विचार एवं विलम्ब न करो। यह सुनकर विश्वामित्र ने तुरन्त आज्ञा मानकर संस्कार किया। तब शिवजी के पुत्र ने विश्वामित्र को वर दिया और अपना पुरोहित बनाया। उसी समय अग्नि ने भी वहाँ पहुँचकर तथा शिवजी के पुत्र को देखकर आनन्द प्राप्त किया। 

फिर उस बालक को प्रणाम किया। विश्वामित्र ने जो बातें पूछीं, उनका ठीक-ठीक उत्तर उस बालक ने दिया। फिर उसने अपनी सब कथा अग्नि से कही। अग्नि तथा विश्वामित्र उस लड़के में पूर्ण बल एवं प्रताप देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। तदुपरान्त अग्नि ने उसे गोद में उठा, छाती से लगा लिया और उसका मुख चूमा। फिर अत्यन्त प्रेम के साथ उस लड़के को अपना पुत्र माना तथा अपने बहुत से शस्त्र उसे दिये।

हे नारद! शिवजी के पुत्र ने दोनों को वहाँ से विदा किया तथा स्वयं अग्नि की दी शक्ति हाथ में ले श्वेतगिरि पर चढ़कर अत्यन्त भयानक शब्द से नाद किया। उस शब्द को सुनकर ऐसा प्रतीत होता था जैसे प्रलय होना चाहता हो। फिर उसने देवताओं के मनोरथ पूर्ण करने के लिए अपनी शक्ति पर्वत के शिखर पर मारी जिससे तीनों लोकों में हाहाकार मच गया और पर्वत फटकर गिर पड़ा। 

उस समय महाबलवान् दस परम् राक्षस कालवश हुए, जो पहिले वहाँ रहते थे तथा उन्हें मारने को दौड़े थे। फिर देवता और मुनि चिन्तित होकर कहने लगे कि यह क्या हुआ, किसी की समझ में कुछ न आया। तब इन्द्रादि देवता उसे देखने के लिए चले। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि वही लड़का पर्वत पर खड़ा है। 

उस समय उस पर्वत ने अपना रूप मनुष्यों के समान बनाकर इन्द्र से भेंट की तथा हाथ जोड़कर यह कहा-हे इन्द्र! आप तीनों लोकों के देवता हैं। इस समय मुझको महान् दुःख प्राप्त हुआ है। इस बालक ने मुझको शक्ति से मारकर ऐसा भयानक शब्द किया है कि सब जीवों को दुःख पहुँचा, धरती काँप उठी तथा सब पर्वत, वन, नदी भी काँप उठे हैं। असंख्य जीव मर गये, यह सब इसी बालक ने किया है, जो सामने खड़ा है। नहीं मालूम कि यह कौन है तथा किसका पुत्र है ? इसने व्यर्थ ही मुझे इतना दुःख दिया है। 

हे इन्द्र! आप शीघ्र ही इसका वध कर डालें नहीं तो यह प्रलय ही कर डालेगा । इन्द्र ने यह सुनकर उस लड़के पर बहुत क्रोध किया तथा कुछ भेद न समझकर उस बालक को मार डालने की इच्छा की। लेकिन शिवजी की लीला अपार है। इन्द्र ने आक्रमण कर अपना वज्र उस लड़के की दाहिनी कोख में मारा जिससे उस स्थान से एक मनुष्य उत्पन्न हुआ, जो बल एवं पराक्रम में उसी के बराबर था। उसका नाम शारव रखा।

शारव ने उत्पन्न होते ही बड़ा भयानक शब्द किया। तब इन्द्र ने यह देख क्रोधित होकर, उसकी बायीं कोख में फिर अपना वज्र मार दिया। उससे एक दूसरा मनुष्य उत्पन्न हुआ, उसे भी शारव कहते हैं। दूसरा शारव भी उत्पन्न होकर घोर नाद करने लगा। इन्द्र ने क्रोधित होकर अपना वज्र फिर मारा, उसका कोई फल न निकला तथा एक व्यक्ति और प्रकट होकर खड़ा हो गया, उसे नैगमेय कहते हैं। वे तीनों पहिले बालक के सहायक हो गये । वे चारों प्रलय की अग्नि के समान प्रकट हुए। तब उस बालक ने अपने तीनों गणों सहित इन्द्र के ऊपर आक्रमण कर दिया।

हे नारद! इस प्रकार उनके आक्रमण से, रुद्र का प्रलय करनेवाला तेज उनमें देखकर इन्द्र निर्बल होकर काँप उठे तथा हाथ जोड़कर उनकी शरण में आये। इन्द्र ने अपने सब शस्त्र फेंककर दंडवत् की। इन्द्र के साथ जो सेना थी, उसने भी उनका आदर सम्मान किया। तब उस बालक ने इन्द्र की यह दशा देखकर इन्द्र को ढाढ़स बंधाया तथा निर्भय किया। 

तब सब देवताओं सहित इन्द्र ने हाथ जोड़कर उसकी स्तुति की-आप बालक नहीं, बालक के रूप में ब्रह्म हैं। हमने आपके प्रताप को नहीं पहिचाना, इसी कारण अहंकार से हमारी यह दशा हुई। कृपा करके हमारे सब अपराध क्षमा कर दीजिये और हमको अपनी शरण में ले लीजिये। 

आपने किसी भक्त पर प्रसन्न होकर ही अवतार लिया है। आप सच-सच बताएँ कि आप कौन हैं, किसके पुत्र हैं तथा कहाँ उत्पन्न हुए हैं ? इन्द्र के ऐसे वचन सुनकर बालक ने कहा-हे इन्द्र ! अब तुम शीघ्रतापूर्वक यहाँ से जाओ और प्रसन्नतापूर्वक अपना राज्यकार्य करो। यह कहकर उसने इन्द्र को वहाँ से विदा किया तथा कुछ भी भेद न बताया। इस प्रकार वहाँ से विदा होकर, इन्द्र अपने राज्य में जा पहुँचे ।

॥ छः माताओं द्वारा बालक का पालन तथा स्कन्द को विमान पर बैठा कर विष्णु आदि का कैलाश में ले जाना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! वही स्त्रियाँ, जिनके विषय में हम पहिले बना चुके हैं उसी समय स्नान करने के लिए उस नदी के किनारे पर जा पहुंचीं। वे उस बालक को देख, निकट जा पहुँचीं तथा बालक को अत्यन्त सुन्दर पाकर प्रत्येक स्त्री का मन उसको लेने के लिए चाहने लगा। तब सब ने उसे उठा लेने की इच्छा की और बोलीं कि यह बालक मेरा है, मैं इसे लूँगी, यह मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ है। यों कहती हुईं सब परस्पर झगड़ने लगीं। 

तब बालक ने सबके स्तनों से दूध पीकर उनके झगड़े को दूर किया। इस प्रकार वे सब माता के समान हो गयीं। पार्वतीनन्दन, सैनानी, पावकभू स्कन्द, गंगासुत, सरजन्मा, षण्मुख, आदि बालक के नाम पड़े। इसके पश्चात् उन स्त्रियों ने बालक को अपने घर ले जाकर बड़ा उत्सव किया। बालक के जन्म का महीना कार्तिक तथा छठ तिथि थी, इस प्रकार शुभ लग्न एवं शुभ मुहूर्त में उसने जन्म लिया था।

हे नारद! एक दिन ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्र आदि सब देवता इन्द्र की सभा में विराजमान थे। तुमने उचित समय जानकर शिवजी का ध्यान करने के पश्चात् स्कन्द के जन्म का वृत्तान्त वर्णन किया। उसे सुनकर देवता बोले-ज्ञात होता है कि शिवजी ने हम पर कृपा करके अपने लड़के को उत्पन्न किया है। अब हमारे सब कार्य पूरे हो गये। 

इस प्रकार बातें हो ही रही थीं कि स्कन्द अपने साथियों के साथ खेलते-खेलते उस स्थान पर आ पहुँचे। मुनियों और देवताओं ने ऐसे तेजस्वी बालक को देखकर पूछा- यह कौन है तथा किसका लड़का है ?फिर सबने यही कहा-इसको बुलाकर पूछना चाहिए क्योंकि इस सुन्दर स्वरूप को देखकर नेत्र नहीं थकते ।

तब उन्होंने उसी समय लड़के को बुलाकर पूछा कि तुम कौन हो ? स्कन्द ने उत्तर दिया- हम लड़के के रूप में शिवजी हैं। वही शिवजी, जिनका तुम सदैव ध्यान धरते हो तथा जो लोक के हित चाहनेवाले हैं। हमको लोक गुरु कहते हैं। यह सुनकर विष्णुजी ने कुछ सोचकर कहा-यदि तुम शिवजी हो तो हमको विश्वास दिलाने के लिए अपना स्वरूप दिखलाओ।

स्कन्द ने यह सुनकर अपने भयानक शरीर में विरारूप प्रस्तुत किया, जिसमें करोड़ों ब्रह्माण्ड, इन्द्र, उपेन्द्र आदि वृद्मामान थे। उस समय समस्त सभा उसके रोम-रोम में ब्रह्माण्ड देखकर काँप उठी । विष्णुजी तथा मैंने घबराकर 'शरण-शरण' पुकारी तथा कहा- वास्तव में आप शिवजी का रूप हैं, अब आप अपना वही रूप धारण कर लीजिये । यह सुनकर स्कन्द ने तुरन्त अपना पहिलेवाला रूप धारण कर लिया ।

हे नारद! विष्णुजी ने हाथ जोड़कर स्कन्द की स्तुति की और बोले-हे षण्मुख ! हे शिव-गिरिजा के पुत्र! अब तुम हम पर कृपा करो। तुम तो अनादि, निर्गुण तथा सगुण स्वरूप हो। इस समय तुमने स्कन्द अवतार धारण किया है। इस प्रकार विष्णुजी ने स्तुति की, इसके उपरान्त विष्णुजी तथा मैं स्कन्द को विमान पर चढ़ाकर, देवताओं सहित शिवजी के मन्दिर की ओर चले। 

उस समय प्रत्येक के मुख से जय-जयकार का शब्द निकल रहा था । सब लोग आनन्द मनाते हुए कैलाश में जा पहुँचे। हमने स्कन्द को शिवजी के पास ले जाकर खड़ा किया। उसे देखकर शिवजी एवं गिरिजा को अपार आनन्द प्राप्त हुआ। गिरिजा के स्तनों से दूध निकल पड़ा तथा वही दशा हो गयी, जैसी कि पुत्र की उत्पत्ति के समय होती है। जब शिवजी ने पूछा कि यह किसका पुत्र है। तब हे नारद! तुमने यह समझकर कि शिवजी यह चरित्र लीला के निमित्त करते हैं, उत्तर देकर, आदि से अन्त तक सब वृत्तान्त कह सुनाया। 

उसे सुनकर शिवजी ने बड़े लाड़ प्यार से लड़के को लिया तथा गिरिजा ने गोद में लेकर दुग्ध पान कराया । इस प्रकार शिवजी तथा गिरिजा दोनों अत्यन्त प्रसन्न हुए । हम सबने शिवजी एवं गिरिजा की पूजा की। सर्व प्रथम विष्णुजी ने स्कन्द का नीराजन किया, फिर लक्ष्मी नै तथा फिर मैंने अपनी स्त्री सहित किया। इसके पश्चात् इन्द्र ने शची सहित किया। इस प्रकार समस्त देवता बराबर स्कन्द का नीराजन करते गये। 

उस समय बड़ा उत्सव हुआ। मुनीश्वर अपना मनोरथ पूर्ण होते देख जय-जयकार करने लगे। स्कन्द शिवजी की गोद में खेलने लगे। वे वासुकि नाग का गला अपने दोनों हाथों से जोर से पकड़, उसके साथ खेलते थे और वासुकि नाग स्कन्द के चरणों पर लोटता था। शिवजी ने स्कन्दजी का यह चरित्र तथा क्रीड़ा देखकर, हँसकर गिरिजा की ओर देखा। यह देख गिरिजा भी हँसने लगीं ।

॥ शिव गिरिजा का आनन्दित होना तथा देवताओं का स्कन्द को सेनापति बनाना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! सब देवता विनती करते हुए शिवजी से बोले-हे सबके स्वामी, सबके दुःख दूर करने वाले ! देवताओं के लिए तो आपकी केवल कृपा कटाक्ष ही बहुत है। हम आपकी शरण में आये हैं, आप हम पर दया कीजिये और हमको अपना सेवक जानकर कृपा की दृष्टि रखिये। आपका ध्यान विष्णु, ब्रह्मा तथा सनकादिक भी करते हैं; वे आपको प्राप्त नहीं कर पाते। हमारा यह सौभाग्य है कि हम इस कैलाश पर्वत पर आपके प्रत्यक्ष दर्शन कर रहे हैं। 

इस समय आपने जो शिशु के समान अपना रूप बनाया है, हम सबको उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्राप्त होती है। आपकी गति आपके सिवाय और कोई नहीं जानता। देवताओं ने इसी प्रकार अत्यन्त नम्रता से उनकी बहुत स्तुति की। फिर विष्णुजी ने विनय करते हुए कहा- हे शिवजी! हमें आनन्द पहुँचाने एवं तारक दैत्य का वध करने के लिए अब आप स्कन्द को आज्ञा दीजिये, क्योंकि ये इसी निमित्त अवतरित हुए हैं ।

हे नारद! विष्णु के ऐसे वचन सुनकर शिवजी ने हँसकर कहा- हे विष्णु ! हमने तो इसी निमित्त गिरिजा से विवाह किया था। अब तुम जाकर अपना-अपना काम करो। इसके पश्चात् शिवजी एवं गिरिजा ने स्कन्द को अच्छी तरह से प्यार किया तथा अत्यन्त प्रसन्न हुए । फिर देवताओं ने स्कन्द के लिए शिव की आज्ञा लेकर, कैलाश पर्वत के निकट त्वष्टापुर में एक बहुत ही उत्तम मन्दिर की स्थापना की। 

वह मन्दिर इतना सुन्दर था कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उस मन्दिर में प्रत्येक स्थान को अच्छी-अच्छी सामग्रियों से सज्जित किया गया था । इस प्रकार के मन्दिर के पूरी तरह तैयार हो जाने पर विष्णुजी ने मुझ समेत सब मुनियों को बुलाकर उस मन्दिर में स्कन्द का अभिषेक किया तथा सिंहासन पर बैठाया। 

विष्णु तथा हम सबों ने स्कन्द को विश्व का एवं अपना स्वामी मानकर राजतिलक किया और अनेक भेटें दीं। उनकी अच्छी प्रकार से सेवा कर, अनेक प्रकार के शस्त्र भी भेंट किये। उसी समय शिव एवं गिरिजा भी वहाँ उपस्थित हुए। वे देवताओं की ऐसी सभा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उन्होंने अपनी समस्त सेना स्कन्द को दे दी। 

गिरिजा ने सब वस्त्रों पर पहनने का एक ऐसा कवच दिया, जो युद्ध में शत्रुओं के सब प्रकार के प्रहारों से रक्षा करे। विष्णु ने स्कन्द को वैजयन्ती माला देकर एक पुष्पहार अपने हाथ से बनाकर उनके कण्ठ में डाला। वरुण ने एक बकरा भेंट दिया। उस समय चारों ओर आनन्द ही आनन्द दिखाई देता था । मैं, विष्णु तथा सब देवता प्रसन्न होकर स्कन्द की स्तुति करने लगे ।

॥ नारद एवं ब्रह्मा द्वारा स्कन्द की स्तुति॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! ऐसे समय में एक नारद नाम के ब्राह्मण का, जो अजामेध करता था, यज्ञ में बलि देने के लिए एक बकरे की आवश्यकता हुई। तब स्कन्द का बकरा जो वरुण ने भेंट किया था, वह स्कन्द की इच्छा जानकर नारद ब्राह्मण की ओर भाग गया। नारद ने उस बकरे को यज्ञ के लिए सब प्रकार योग्य जानकर पकड़ लिया तथा यज्ञ की अन्य सब सामग्री एकत्र की। संयोगवश नारद किसी कार्य से किसी दूसरे गाँव में गया। तब बकरा ब्राह्मण के जाने के पश्चात् मंच उखाड़कर, अपने घर भाग गया। 

फिर वह सातों द्वीप तथा पृथ्वी को जीतकर, पृथ्वी के नीचे चला और शेषलोक के पश्चात् उसने पाताल लोक को भी जीत लिया । इसके पश्चात् वह फिर ऊपर के लोक को चला। प्रथम वह गले में रस्सी बाँधे हुए स्वर्गलोक को गया, फिर आकाश पर भी उसने विजय प्राप्त की। फिर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर विजय प्राप्त कर वह विष्णुपुरी में जा पहुँचा। जब नारद ब्राह्मण उस गाँव से घर लौटे तो उसने देखा कि वहाँ बकरा नहीं है केवल रस्सी ही बंधी हुई है। उस समय आश्चर्यचकित होकर उसने सब से पूछा तब सब ने यह उत्तर दिया कि हमने उसे जाते हुए नहीं देखा, न जाने वह बकरा था या क्या था; 

क्योंकि उसके शरीर में तेज दिखाई पड़ता था, मानो वह अग्नि का रूप हो। नारद ब्राह्मण बकरे के इस प्रकार चले जाने से अत्यन्त चिन्तित हुआ। फिर उसने विद्वान् पंडितों को बुलाकर आदि से अन्त तक सब वृत्तान्त कह सुनाया तथा पूछा कि आप लोगों की क्या राय है ? मेरा तो सब परिश्रम व्यर्थ हो गया। 

अब मैं क्या करूँ ? स्कन्द का यह चरित्र जानकर सब ब्राह्मण कहने लगे-ब्राह्मण ! तारक दैत्य के वध के लिए स्कन्द ने अवतार लिया है और उनको देवताओं ने अपने-अपने शस्त्र दिये हैं।अब यही उचित है कि आप उन्हीं के पास जाकर अपना सब वृत्तान्त कहो ।

हे नारद ! विद्वान ब्राह्मणों के ऐसे वचन सुनकर नारद ब्राह्मण वहाँ से चल कर स्कन्द के द्वार पर पहुँचा तथा द्वारपालों से कहा कि तुम स्कन्द से कहो कि नारद नामक एक ब्राह्मण द्वार पर खड़ा है। द्वारपाल ने पूछा-तुम्हारा क्या मनोरथ है ? तब नारद ने द्वारपाल को सब वृत्तान्त सुनाया। उसे सुनकर द्वारपाल स्कन्द के पास जा पहुँचा और विनती की कि हे स्वामी ! द्वार पर नारद नामक एक ब्राह्मण हठ से आपके दर्शनों के निमित्त खड़ा हुआ है। 

तब स्कन्द ने हँसकर उत्तर दिया- नारद हमारा परम भक्त है, तुम उसे तुरन्त भीतर ले आओ। नारद ने भीतर जाकर स्कन्द को प्रणाम किया, वेद के अनुसार स्तुति की तथा यह विनय की कि जो बकरा में यज्ञ के लिए लाया था, वह वहाँ से भाग गया है। बड़े आश्चर्य की बात है कि आपके राज्य में रहकर इस प्रकार यज्ञ अधूरा रह जाय । आप मेरे इस दुःख का निवारण कीजिये। 

हे नारद! ब्राह्मण के यह वचन सुनकर स्कन्द ने अपने गण वीरबाहु को बुलाया तथा कहा कि तुम तुरन्त नारद के बकरे को ढूँढ़ कर दो। जहाँ कहीं भी तुमको वह बकरा मिले, उसे पकड़कर तुरन्त यहाँ ले आओ। स्कन्द की आज्ञा पाकर वीरबाहु अपनी सेना सहित बकरे की खोज में, उसी समय वहाँ से चला । उसने उस बकरे को तीनों भुवनों तथा नीचे के लोकों में बृहुँन के पश्चात् विष्णुलोक में उत्पात मचाते हुए देखा। वीरबाहु उसके सींगों को पकड़कर घसीट लाया तथा स्कन्द को सौंप दिया। 

स्कन्द उस बकरे को देखकर हँसे और उस पर आरूढ़ हुए फिर उन्होंने अपने वाहन के बल को दिखलाने के लिए उसको इतना बल दिया कि वह मन के समान गति से अनायास तीनों भुवनों में फिरा तथा एक मुहूर्त भर में तीनों लोकों में घूमकर लौट आया। जब स्कन्द लौटकर घर पहुँचे तो प्रसन्न होकर, उससे उतर कर भीतर गये। 

तब नारद ब्राह्मण ने स्कन्द से कहा- हे महाराज ! अब मेरे यज्ञ का समय आ गया है, सो आप बकरे को दे दीजिये।

हे नारद! ब्राह्मण नारद के इस प्रकार के वचन सुनकर स्कन्द ने कहा-हे ब्राह्मण! यह बकरा बलि के योग्य नहीं है, क्योंकि यह हमारा वाहन है। तुम जो फल यज्ञ करके प्राप्त करना चाहते हो, हम वह तुमको बिना यज्ञ के ही देते हैं। नारद ब्राह्मण यह सुन, हाथ जोड़कर स्तुति करने लगा तथा स्कन्दजी का यशगान करता हुआ अपने घर लौट गया। 

तब देवताओं तथा मुनियों आदि ने स्कन्द की स्तुति करने के पश्चात् निवेदन किया - स्वामी ! हमारे ऊपर जो अनेक कष्ट हैं, आप उनको दूर कीजिये । स्कन्द ने हँसकर उत्तर दिया-हे देवताओ! तुमको जिसने इतना दुःख पहुँचाया है, हम अपने गणों सहित जाकर उसका वध करेंगे तथा एक निमेष में ही दैत्यों की सेना नष्ट कर डालेंगे। तुमने शिवजी की जो सेवा की है, उसका फल हम तुम्हें अवश्य देंगे। 

अब तक जो कुछ भी हुआ है, उसे तुम शिवजी की लीला ही समझो। शिवजी अपने भक्तों को सदैव आनन्द प्रदान करते हैं, दुष्टों के लिए वे बहुत भयानक हैं। इस प्रकार स्कन्द के मुख से शिवजी की लीला का वर्णन सुनकर देवता लोग अत्यन्त प्रसन्न हो, जय-जयकार करने लगे।

॥ स्कन्द को सेनापति बनाकर देवताओं द्वारा तारक को युद्ध का सन्देश भेजना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! स्कन्द के मुख से यह वचन सुनकर विष्णुजी ने देवताओं सहित कहा- हे स्कन्द ! आप शिवजी के पुत्र अर्थात् शिवजी हैं। आप असुरों के वन के लिए दावाग्नि के समान हैं। इसी प्रकार सबने स्तुति की। उस समय गिरिजा, गंगा, बलि तथा मुनि-पत्नियाँ आदि स्कन्द की माताएँ अपने पुत्र की इतनी शक्ति देखकर परस्पर लड़ने लगीं और वे सब उनको अपना-अपना पुत्र कहने लगीं। 

हे नारद! तब तुमने उन सबको जाकर समझाया। तुम्हीं ने शिवजी की इच्छानुसार स्कन्द के जन्म का ठीक-ठीक वर्णन किया तथा कहा कि ये शिवजी एवं गिरिजा के ही पुत्र हैं। इन्होंने देवताओं के मनोरथ पूर्ण करने के लिए ही अवतार लिया है। 

यह सुनकर गिरिजा के सिवाय सब अत्यन्त दुःखी हुई। तब स्कन्द ने प्रसन्न होकर गंगा से कहा-हे माता ! तुम तो संसार की माता हो तथा शिवजी की स्त्री हो। मैं तुम्हारा पुत्र सदैव कहलाऊँगा। उसी प्रकार स्कन्द ने सबको समझा दिया। तत्पश्चात् स्कन्द ने विष्णुजी तथा ब्रह्माजी से कहा- हम दैत्यों का क्षणभर में नाश कर देंगे, तुम लोग किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। 

तुम सब लोग तत्पर होकर शिवजी की सेवा करो। जो भी कार्य या उत्सव करो, उसमें प्रसन्न होकर शिवजी का जय-जयकार करते रहो। यह आज्ञा पाकर समस्त देवता आदि एक साथ शिवजी का जय-जयकार करने लगे।

हे नारद! इसके पश्चात् समस्त देवता आदि सेना सहित सज्जित होकर स्कन्द के साथ चले। शिवजी, गिरिजा एवं गणों के साथ कैलाश को चले गये। उस समय तारक ने यह सुनकर तथा देवताओं के सब उपाय का परिणाम जान कर, बड़े क्रोध से देवताओं पर आक्रमण किया तथा उनका सामना करने के लिए चतुरंगिणी सेना सजाकर, करोड़ों सैनिकों को अपने साथ लेकर चला। उस समय युद्ध के बाजे बजने लगे। 

हे नारद! उस समय तुमने तारक के पास जाकर यह कहा- हे असुरराज! अब तुम्हारे लिए बड़ी विपत्ति आ पहुँची है, क्योंकि देवता आदि ने शिवजी की सेवा एवं भक्ति करके तुम्हें मार डालने का उपाय किया है। तुमने तारक को सब वृत्तान्त आदि से अन्त तक कह सुनाया कि शिवजी को कल्पवृक्ष के समान समझो। वे सबको समान दृष्टि से देखते हैं तथा भक्ति एवं सेवा के आधीन रहते हैं। 

इसलिए, अब तुमको यही उचित है कि तुम भी कोई उपाय करो, तदुपरान्त देवताओं के साथ युद्ध करो। यदि तुम विजय प्राप्त करना चाहते हो तो हमारा कहना मानो। यदि तुम हमारी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारा इसी समय अवश्य ही नाश हो जाएगा। हे नारद! मृत्यु के वशीभूत होकर तारकासुर ने तुम्हारी इन बातों पर कोई ध्यान न दिया तथा हँसकर बोला- हे नारद ! तुम विष्णुजी के पास जाकर कह दो कि तुम जिस प्रकार भी वीरतापूर्वक युद्ध कर सकते हो करो, उसमें किसी प्रकार की कोई कमी न करना। 

तुम इस दूधपीते बच्चे को अपना अगुआ बनाकर लड़ाई करना चाहते हो, इससे मालूम होता है कि तुम इस युक्ति द्वारा अपनी मृत्यु चाहते हो । हमने तुम्हारी वीर्यता कई बार देखी है। तुम दूसरों पर भरोसा करते हो, दूसरे के बल से विजय नहीं मिलती। एक मुचुकुन्द के बल से भी तुमने चाहा था कि हम पर प्रबल हो सको, सो हमने उसकी भी वीरता देख ली और सब देवताओं को उसके साथ ही बन्दी बना लिया। 

अब तुम इस छोटे से लड़के को साथ लेकर हमसे युद्ध किरना चाहते हो, सो मैं तुम को दिक्पति सहित मारकर त्रिभुवन पर निष्कंटक राज्य करूँगा ।

हे नारद! तारकासुर के ऐसे गर्वपूर्ण वाक्य सुनकर तुमने क्रोधित होकर उत्तर दिया- हे तारक ! अहंकार सदैव दुःखदायी होता है। तुमने जिस मुचुकुन्द का वर्णन किया, वह शिवजी का परम भक्त है। शिवजी उसके सहायक हैं। जिसके ऊपर शिवजी कृपा करते हैं, वह देवताओं, मुनीश्वरों तथा मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली होता है। तुम जिसको दूध-पीता बालक समझते हो, वह तो प्रलयकारी शिव का ही स्वरूप है। 

तब तारक ने क्रोधित होकर तुमसे फिर कहा-हे नारद! तुम वीरों के बल के विषय में क्या जानते हो ? तुम तारक के मुख से यह वचन सुनकर तुरन्त ही उसकी सभा से उठकर मेरे यहाँ चले आये तथा विष्णुजी और मुझसे यह सब बातें कहीं। तुमने यह भी कहा कि यह बालक तारकासुर पर अवश्य विजय प्राप्त करेगा तथा मेरा यह वचन सत्य है कि शिवजी का यह लड़का तीनों लोकों में निर्भय है। 

हे नारद! तुम्हारे इस वचन को सुनकर हम सब अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा युद्ध की इच्छा से शिवजी का ध्यान कर उठ खड़े हुए। स्कन्द को सेनापति बनाकर इन्द्र के हाथी पर चढ़ाया तथा सब लोकपाल एकत्र हो गये। रणभेरी, दुन्दुभी, मृदंग, वीणा, बीन आदि युद्ध के बाजे बजने लगे तथा नृत्य-गायन होने लगा। 

स्कन्द इन्द्र को हाथी सौंपकर, स्वयं विमान पर सवार हुए। तब चारों ओर से शिवजी के पुत्र का जय-जयकार हुआ। वरुण, इन्द्र, अनल, यमराज, कुबेर, ईशान आदि आठों दिक्पति अपनी सेना सहित युद्ध के लिए तत्पर हो गये। विष्णुजी ने शिवजी का ध्यान कर आनन्द प्राप्त किया। उनकी सेना का वर्णन करना कठिन है क्योंकि वे त्रिभुवन के स्वामी हैं। 

इसके पश्चात् पूरी सेना त्रिभुवनपति को सबसे आगे करके चली तथा स्कन्द पर्वत से नीचे उतरकर, अन्तवेद में स्थित हुई। फिर, उसके मध्य भाग को जो 'हरविनया' के नाम से प्रसिद्ध है, युद्धस्थल निश्चित कर तारकासुर को युद्ध का सन्देश भेजा गया।

॥ तारकासुर का विमान पर चढ़कर युद्धक्षेत्र में आना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! तारकासुर भी एक अच्छे विमान में छत्र-चैवर के साथ आरूढ़ होकर अपनी विशाल सेना सहित रणभूमि में आ पहुँचा। इस प्रकार दोनों सेनाएँ अन्तवेद में आ पहुँचीं। दोनों ओर से गढ़ी बनायी गयी। पहली पंक्ति हाथियों की, दूसरी घोड़ों की, तीसरी रथों की तथा चौथी प्यादों की-इस प्रकार क्रम से सेना सजायी गयी। दोनों ओर के वीर साँग, शूल, परशु, पाश, कृपाण, भिण्डपाल, तोमर, मुग्दर, चक्र, भुशुण्डी, नारा आदि अस्त्र-शस्त्र लेकर युद्धस्थल में अपनी वीरता दिखलाने के लिए आ पहुँचे। 

तभी दोनों ओर वीरों के बड़े वेग से युद्ध-रचना की। फिर देवता तथा दैत्यों का घोर युद्ध आरम्भ हुआ। दोनों ओर की चतुरंगिणी सेना नष्ट हुई। यहाँ तक कि थोड़ी सी देर में ही यह युद्धस्थल सैनिकों के मृत-शरीरों से भरकर भयानक हो गया। अनेक वीर पृथ्वी पर गिरकर 'मार-मार' शब्द का उच्चारण करते थे। कोई तलवार से घायल, कोई मुग्दर तथा कोई गदा से मूच्छित था। रक्त की नदी बह चली । भूत, प्रेत, पिशाच आदि ने रक्त पीकर तृप्ति प्राप्त की। वैतालों ने आकर हाथियों के सिर उछाले। 

इसी प्रकार धीरे-धीरे देवता एवं दैत्य मरे; कुछ समय के पश्चात् युद्ध भूमि प्रलय के समान दिखाई देने लगी। तारक स्वयं इन्द्र से युद्ध करने लगा। अग्नि संहृद परस्पर युद्ध करने लगे। यमराज के साथ जुम्भ ने युद्ध किया, निऋति के साथ सम्बल, तथा पवन के साथ पवमान, धनपति के साथ बृहतसेन, उशना के साथ धननाद, सूर्य के साथ सुनाई तथा चन्द्रमा के साथ सुलग द्वन्द्वयुद्ध करने लगे। 

इन सब ने घोर युद्ध किया। दोनों दल अपनी-अपनी विजय की इच्छा करते थे; कोई भी परास्त न हुआ। उस समय युद्धस्थल अग्नि से जले हुए वृक्षों के समान भयानक दिखाई देता था।

हे नारद! युद्धभूमि का ऐसा दृश्य देखकर तारकासुर ने बड़े वेग से इन्द्र के ऊपर आक्रमण किया तथा उनके हृदय में साँग मारी । साँग के आघात से इन्द्र हाथी से धरती पर गिर पड़े। इसी प्रकार दिक्पति भी दैत्यों से पराजित होकर भाग चले। कोई भी युद्ध में दैत्यों के सम्मुख खड़ा न रह सका। इस प्रकार देवताओं की पराजय देखकर मुचकुन्द ने सोचा कि अब मुझे देवताओं की सहायता करनी चाहिए। 

मैं शिवजी का उपासक हूँ और वह मेरे सहायक हैं। यह सोचकर मुचकुन्द तारक दैत्य के सम्मुख आया। फिर बड़ी देर तक वे युद्ध करते रहे, दोनों में से कोई किसी को परास्त न कर सका । अन्त में कोई उपाय न देख मुचकुन्द ने तलवार हाथ में लेकर तारक दैत्य के हृदय पर प्रहार किया। यह देख तारक ने हँसकर कहा-हे मुचकुन्द! तुम मनुष्य हो, मुझे तुम्हारे साथ युद्ध करने मैं लज्जा आती है। मुझे बड़ा खेद है कि तुमने मेरे ऊपर जिस शस्त्र का प्रहार किया, उसका मुझ पर कोई प्रभाव न पड़ा। 

तब मुचकुन्द ने उत्तर दिया-हे असुरराज ! मैं अब शिवजी की कृपा से तुझको जीवित नहीं छोडूंगा। ऐसा कौन सा दैत्य है जो मेरे सम्मुख खड़ा होकर मेरे प्रहार को सह सके ? यह कहकर मुचकुन्द ने तारक के ऊपर एक और असि मारी। अभी वह असि तारक के लगी तक न थी कि उसने तुरन्त साँग मारकर मुचकुन्द को घायल कर पृथ्वी पर गिरा दिया। यह देख मुचकुन्द ने पृथ्वी से उठ, अत्यन्त क्रोधित हो, तारक के वध का विचार कर, अपने धनुष को हाथ में लिया और ब्रह्मास्त्र चलाया ।

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! यह देखकर तुमने मुचकुन्द को मना किया और समझाया कि यह तुम्हारे हाथ से नहीं मरेगा। इसकी मृत्यु मनुष्य के हाथ से नहीं है। इसको तो केवल स्कन्द ही मारेंगे। जहाँ अपका कोई वश न चले, वहाँ शान्त रहना ही उत्तम है। यह कहकर तुम सब देवताओं सहित स्कन्दजी की सेवा में पहुँचे तथा उनकी स्तुति एवं पूजा करने लगे। देवताओं को ऐसा करते देख, दैत्यों ने अत्यन्त क्रोधित होकर, घोर नाद के साथ बाणों की वर्षा की। तब वीरभद्र क्रोधावेष में भरकर युद्ध भूमि में आ उपस्थित हुए ।

॥ वीरभद्र एवं तारकासुर की सेनाओं के युद्ध का वर्णन॥

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! वीरभद्र अपने गणों को साथ लिये हुए युद्ध करने लगे । दोनों ओर से बड़े जोर से आक्रमण हुआ और नाना प्रकार के शस्त्र प्रयोग में लाये गये । वीरभद्र ने क्रोधित होकर त्रिशूल हाथ में लिया तथा उसको तारक के शरीर में मारकर, उसे धरती पर गिरा दिया । तारक उस आक्रमण से अचेत हो गया। कुछ समय पश्चात् जब उसे चेत हुआ, तब उसने वीरभद्र पर साँग से आक्रमण किया । 

वीरभद्र ने तारक पर पुनः त्रिशूल का वार किया। जब बहुत देर तक दोनों में से कोई परास्त न हुआ तो हे नारद! तुमने वीरभद्र से जाकर यह कहा-हे वीरभद्र!आप हमारी बात मानकर लड़ाई बन्द कर दो। तारक की मृत्यु आपके हाथों नहीं होगी। जब शिवजी स्वयं उसके साथ युद्ध करेंगे तभी इसकी मृत्यु होगी। 

वीरभद्र ने यह सुनकर तुम से क्रोधित होकर कहा- हे नारद! तुम युद्ध तथा वीरता की बात क्या जानो ? तुम केवल तप करना ही जानते हो। मैं तुमको वीरों के विषय में बताता हूँ कि उनके चार धर्म होते हैं। जो स्वामी के बिना युद्ध करते हैं तथा अपने प्राणों का मोह न करके, भलीभाँति लड़ते हैं वे प्रथम प्रकार के वीर हैं। जो स्वामी के साथ रणभूमि में संसार की लज्जा से मर जाते हैं, वे दूसरे प्रकार के हैं, उनको शूर कहते हैं। तीसरे जो अपने स्वामी के साथ युद्धस्थल त्यागकर भाग जाते हैं, उन्हें क्रूर कहते हैं। चौथे वे हैं जो निकम्मे होकर घर में बैठे रहते हैं तथा उनका स्वामी युद्ध क्षेत्र में मारा जाता है। 

वे कायर हैं, उनको कहीं भी सुख नहीं मिलता। मैं सत्य कहता हूँ कि यदि शिवजी इस समय मेरे पास आकर मुझको तारक के वध से रोकें तब तो असमर्थता है, नहीं तो आज मैं तारक को पृथ्वी से नष्ट कर दूँगा । यह कहकर वीरभद्र ने तारक के ऊपर अपने त्रिशूल का वार किया। दोनों फिर परस्पर युद्ध करने लगे। दोनों ओर की सेनाएँ भी आपस में भिड़ गयीं। इस बार दैत्यों को देवताओं ने बड़ी वीरता से परास्त किया तथा दैत्य अपनी बहुत-सी सेना मरी हुई देख, युद्धस्थल से भाग चले।

हे नारद! युद्ध भूमि की यह दशा देखकर तारक महाक्रोधित हुआ। वह एक करोड़ हाथ निकालकर, हाथी पर सवार हो, देवताओं के पकड़ने को उनकी सेना के भीतर घुस गया तथा उसने असंख्य देवताओं को मार डाला। उसने अपने हाथी को छोड़ दिया, जिसे देखकर सब हाथी भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। इस प्रकार तारक ने देवताओं पर विजय प्राप्त की। उस समय तारक का तेज कोई न सह सका और सब लोग बड़े दुःखी हुए। 

उनके हाथी ने सब हाथी आदि को मार डाला। यह दशा देखकर विष्णुजी से न रहा गया। उन्होंने तुरन्त चक्र उठाकर तारक के साथ युद्ध कर, देवताओं को आनन्दित किया। विष्णुजी तथा तारक में घोर युद्ध हुआ, जिसमें दोनों ओर से अनेक लोग मारे गये। तारक ने अपने तीक्ष्ण बाणों की वर्षा से देवताओं को फिर भयभीत कर दिया। 

तब विष्णुजी ने देवताओं को इस प्रकार भयभीत देखकर, क्रोधित हो, तारक के ऊपर अपना चक्र चलाया। उस समय पृथ्वी काँप उठी; चक्र को तारक के शरीर पर जमने का कोई स्थान नहीं मिला। तारक ने अपने गुरु का स्मरण कर उन्हें प्रणाम किया तथा अनेक प्रकार की माया दिखलाई, अनेक राक्षस हाथियों के समान चिग्घाड़ते हुए उत्पन्न हुए । 

तारक की यह माया कोई न जान पाया। अतः वे युद्धस्थल से भाग कर स्कन्द के पास जा पहुँचे तथा विनय के साथ भयभीत हो इस प्रकार बोले- हे स्वामी ! हम आपकी शरण में आये हैं। आप अब शीघ्र ही तारक का वध कीजिये क्योंकि आपका अवतार इसी निमित्त हुआ है। आपके बिना और कोई तारक को नहीं मार सकता है ।

हे नारद ! देवताओं को इस प्रकार भयभीत देखकर स्कन्द ने हँसकर कहा-हे देतवाओ! मुझको अपना पराया कुछ भी नहीं पता है। मैं तो अभी लड़का हूँ। अभी तक मैं इस बात की परीक्षा करता रहा कि मैं किसके साथ युद्ध करूँ, यद्यपि मैं धनुर्विद्या बिल्कुल नहीं जानता।

हे नारद ! तुमने स्कन्द के ऐसे वचन सुनकर कहा- हे महाराज ! आप तो शिव से उत्पन्न हुए हैं। सृष्टि के रक्षक देवताओं को आप ही से सुख की प्राप्ति होगी। आप बालक, युवा या वृद्ध नहीं हैं। तारक ने देवताओं को जीतकर उन्हें बड़े-बड़े दुःख पहुँचाये हैं, इसलिए अब आपको तारक का वध शीघ्र कर डालना चाहिए।

स्कन्द पहिले तो हँसे, बाद में क्रोधित हुए। तब वे विमान छोड़ अपनी शक्ति सहित तारक की ओर पैदल ही दौड़ पड़े। यह देखकर तारक ने हँसकर इस प्रकार कहा कि देवताओं ने इस बालक की आशा पर ही अपने बल को नष्ट कर दिया है। वास्तव में यह सब बुद्धिहीन हैं। मुझको निश्चय है कि मैं समस्त देवताओं को पारकर नष्ट कर डालूँगा। 

ऐसा कहकर तारक हाथ में शक्ति लिये हुए स्कन्द से युद्ध करने के लिए चला। वह देवताओं से बोला-हे देवताओ ! तुमने इस बालक को युद्धस्थल में अगुआ बनाया है। अब मैं तुमको इसका फल देता हूँ। तुम सब जिसकी आशा पर निर्भर करते हो, वह मेरे भय से यहाँ से भाग जायेगा । छोटा भाई (विष्णु) तो छल में अद्वितीय एवं माया दिखाने में विख्यात है। इसने बलि के साथ वामन रूप में बड़ा छल किया तथा मधुकैटभ का शीश छल करके काट डाला । 

फिर अमृत बाँटने के समय भी मोहनी रूप में इसने छल किया । इसने वेद के विरुद्ध स्त्रियों को मार डाला तथा बालि के वध में भी रामचन्द्र रूप में इसने धर्म का कुछ विचार नहीं किया। रावण को जो ब्राह्मण जाति का था और जिसको मारना वेद में निषिद्ध है, इसी ने मार डाला तथा अपनी स्त्री सीता को निष्पाप त्याग दिया इसने कृष्ण रूप में पर-स्त्रियों के साथ भोग करके वेद की रीति को त्याग दिया और अनुचित रीति से विवाह कर, कलियुग की चाल चलकर बड़ा अधर्म किया। इसी प्रकार बुद्धि रूप में सब वेदों की निन्दा करके इस विष्णु ने कुछ भी विचार नहीं किया। मुझे आश्चर्य है कि ऐसे मनुष्य के बल पर तुम देवताओं ने युद्ध करने का प्रयत्न किया है ।

हे नारद! इसके पश्चात् तारक इन्द्र की निन्दा करते हुए बोला- हे देवताओ! इन्द्र तो बहुत ही बुरा एवं अनाचारी है। उसने अपने पिता के लड़के को दिति के गर्भ से गिरा दिया तथा केवल सांसारिक आनन्द के निमित्त ऐसे कार्य करते हुए धर्म का ज्ञान विचार न किया। इसने गौतम की स्त्री से भोग किया तथा व्रत नामक ब्राह्मण का वध कर डाला। सांसारिक आनन्द के निमित्त इसने कौन-कौन से अधर्म नहीं किये ? 

इस समय भी इसने इस छोटे से लड़के को युद्धभूमि में अगुआ बनाया है, जो अभी मेरे हाथों से मारा जायेगा । यह पाप भी इसी पर पड़ेगा अन्यथा यह लड़का भाग जायेगा । इस प्रकार देवताओं से उनकी निन्दा करते हुए तारक फिर स्कन्द से बोला- हे बालक! तुम व्यर्थ अहंकार मत करो। यहाँ तुम्हारी कुछ न चलेगी। जो मनुष्य ब्राह्मण का अपमान करता है। उसके धन, धर्म, बल आदि कुछ शेष नहीं रहते । यह कहकर उसने अपनी साँग उठायी ।

हे नारद! इस प्रकार कहते हुए तारक की शक्ति क्षीण हो गयी, क्योंकि बड़ों की निन्दा तथा उनके कर्म कहने में तुरन्त ही शक्ति क्षीण हो जाती है। हे नारद ! होता वही है, जो सदाशिव की इच्छा होती है। संसार में ऐसा कौन है, जिसकी बुद्धि शिवजी की माया के सम्मुख ठीक रह सकती है ? निदान तारक ने अपने चुने हुए श्रेष्ठ वीरों को सेनाध्यक्ष बनाकर, सेना को पीछे रखा तथा वह स्वयं स्कन्द तथा इन्द्र के सम्मुख आ गया।

॥स्कन्द द्वारा शक्ति प्रहार से तारकासुर का वध॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद ! जब इन्द्र ने तारक को ऐसी शक्ति दिखाते हुए देखा तो क्रोधित होकर अपने वज्र द्वारा उसको पृथ्वी पर गिरा दिया; तारक ने तुरन्त ही धरती से उठकर इन्द्र को साँग मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया। यह देखकर देवतओं की सेना में बड़ा हाहाकार मचा । तारक ने इन्द्र को पृथ्वी पर पड़ा हुआ देख, उनके पेट को अपनी लात से दबाया और उनके हाथ से वज्र छीन लिया। फिर उसने उसी वज्र से इन्द्र पर आक्रमण किया। इन्द्र की यह दशा देख स्कन्द को क्रोध हो आया तथा उन्होंने अपना त्रिशूल उठाकर तारक पर मारा । 

तारक उस त्रिशूल की ताड़ना न सहकर,धरती से उठकर आकाश में खड़ा हो गया। फिर उसने स्कन्द पर आक्रमण किया। उसके प्रहार से स्कन्द घायल होकर धरती पर गिर पड़े। उन्होंने पुनः त्रिशूल अपने हाथ में ले लिया। वह त्रिशूल विद्युत् भाँति चमक उठा तथा सब दिशाएँ प्रकाश में पूर्ण हो गयीं। तब तारक पुनः साँग लेकर स्कन्द के सम्मुख आ खड़ा हुआ । उस समय देवताओं ने हर्ष ध्वनि की। 

फिर तारक तथा स्कन्द परस्पर युद्ध करने लगे । उस समय घोर युद्ध हुआ। दोनों मस्तक, कण्ठ, कटि, जंघा, पीठ तथा हृदय में शस्त्र मारते थे। दोनों ओर की सेनाएँ ऐसा भयंकर युद्ध देखकर आश्चर्य में पड़ गयीं। उस समय देवताओं की आशा टूट गयी और वे निराश होकर सोचने लगे कि स्कन्द तारक को नहीं मार सकेंगे। उसी समय यह आकाशवाणी हुई कि हे देवताओ ! स्कन्द अभी तारक का वध करेंगे।

हे नारद ! इस आकाशवाणी के पश्चात् ही स्कन्द ने अपनी साँग तारक की भुजाओं में मारी; तारक ने उस पर कुछ ध्यान न देकर अपनी साँग से स्कन्द को घायल कर पृथ्वी पर गिरा दिया। स्कन्द ने सचेत होकर पुनः तारक पर वार किया। इसी प्रकार दोनों युद्ध करने लगे । इस समय देवता चिन्तित होने लगे, सूर्य का प्रकाश क्षीण हुआ, वायु थम गयी, नदी-पर्वत तथा वनों से भयानक शब्द होने लगा, पृथ्वी काँपने लगी-जैसे भूकम्प आ गया है, तथा अग्नि-देवता शान्त हो गये। हिमगिरि, मेरु, श्वेतकोट, उदयाचल, अस्ताचल, मलयगिरि, कैलाश, गन्धमादन, मैनाक, विन्ध्याचल, महेंद्र, मन्दर तथा हिमाचल आदि पर्वत भी चिन्तित एवं दुःखी थे। 

तब सबको इस प्रकार चिन्तित तथा दुःखी देखकर स्कन्द बोले- हे पर्वतो ! तुम कोई चिन्ता मत करो। इसी प्रकार स्कन्द ने सब देवताओं को सान्त्वना देकर शिव-गिरिजा का ध्यान किया तथा तारक का वध करने को साँग अपने हाथ में उठायी। उस साँग में श्रीगिरिजा-शंकर ने असंख्य-तेज एवं बल डाल दिया । स्कन्द ने क्रोधित होकर साँग तारक के हृदय में मारी । तब तारक उसके आधात से निर्जीव होकर भूमि पर गिर पड़ा । तारक के शरीर में शिवजी का जो तेज था, वह स्कन्द के शरीर में प्रवेश कर गया। 

तारक की समस्त सेना यह देखकर भागकर पाताल को चली गयी । इसी प्रकार दैत्यों का पूरी तरह से वध हुआ, जिससे देवताओं को अपार प्रसन्नता हुई। उस समय सब देवता, मुनि एवं गण अति प्रसन्न होकर स्कन्द की स्तुति करने लगे। गन्धर्व, किन्नर, अप्सरा आदि गाने-बजाने लगे । अनेक प्रकार के बाजे बजे तथा सब ने बहुत स्तुति करने के पश्चात् स्कन्द से यह प्रार्थना की कि हे प्रभो ! हम सबकी प्रीति आप के चरणों में दिन-दिन बढ़े, हम आपसे यही वरदान माँगते हैं। 

देवताओं तथा पर्वतों की ऐसी स्तुति सुनकर स्कन्द ने कहा- हमने तुम्हारी स्तुति से प्रसन्न होकर तारक का वध किया है, भविष्य में भी हम तुम्हारे दुःखों में हर तरह से सहायता करेंगे ।इसके पश्चात् स्कन्द पर्वतों से बोले- हे पर्वतो ! तुम सब प्रतिष्ठा के योग्य हो, समस्त मुनि और तपस्वी तुम्हारी सेवा करेंगे । तुम्हारे देखने मात्र से ही मनुष्यों के कष्ट दूर होंगे। 

जो तीर्थ, मन्दिर तथा तपोभूमि तुम पर स्थित होगी, वह सब आनन्द एवं सुखदायक होगी । जो पर्वत हमारी माता के समान उत्पत्ति स्थान हैं वह तपस्वियों को श्रेष्ठ फल देकर सब पर्वतों का अधिपति होगा, अन्य पर्वत भी शिवलिंग के समान पापों को नष्ट किया करेंगे। स्कन्द के इस वरदान को सुनकर चारों ओर से 'धन्य-धन्य' तथा जय-जयकार का शब्द गूंजने लगा।

॥ क्रौञ्च की प्रार्थना पर स्कन्द द्वारा बाणासुर वध एवं शिवलिंग की स्थापना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब मैं तुम्हें उन दैत्यों का वृत्तान्त सुनाता हूँ जो भागकर पाताल में छिप गये थे । उन दैत्यों में से एक वाण नामक दैत्यों का स्वामी युद्धक्षेत्र से भाग गया था, वह वहाँ से क्रौञ्च द्वीप में जाकर नाना प्रकार के उपद्रव करने लगा। उसने क्रौञ्च के सिर में अपना एक पैर इस प्रकार मारा कि वह पर्वत घबरा कर स्कन्द के पास आया और यह कहने लगा कि इस समय आप ने तारक का वध करके तो संसार को दुःखों से मुक्त कर दिया है, केवल मैं ही अकेला सृष्टि भर में दुःखी हूँ। 

उसने अपना सब वृत्तान्त आदि से अन्त तक स्कन्द को सुनाते हुए कहा-हे प्रभो! मुझको जिसने दुःख दिया है, उसके साथ आठ कोटि दैत्य हैं। यदि मैं आपकी शरण में मनुष्य रूप धारण करके न आता, तो न जाने वह क्या करता। आपके सिवाय अब मेरा इस संसार में कौन रक्षक है? स्कन्द ने दैत्यराज की यह कथा तथा उसका उत्पात सुनकर, उसको मार डालने का विचार किया। 

तब उन्होंने साँग हाथ में लेकर शिवगिरिजा का ध्यान किया और वह साँग क्रोध में भरकर उस दैत्य की ओर चलायी। उस साँग के चलने से दशों दिशाओं में प्रकाश फैल गया। साँग ने क्षणभर में ही दैत्यों को, उनके अधिपति सहित जलाकर भस्म कर दिया। इस प्रकार उन सब को समाप्त करके, वह साँग फिर स्कन्द के पास लौट आयी।

हे नारद! इस प्रकार उन दैत्यों को नष्ट करके स्कन्द ने पर्वत से कहा कि अब तुम अपने घर को लौट जाओ और किसी प्रकार की चिन्ता मत करो; क्योंकि हमने उस दैत्य को सेना सहित मारकर नष्ट कर दिया है। यह सुनकर क्रौञ्च ने स्कन्द की बड़ी स्तुति की तथा अपने घर को लौट गया। फिर देवताओं ने खूब उत्सव किये। तदुपरान्त स्कन्द ने उसी स्थान पर तीन शिवलिंगों की स्थापना की। 

उन तीनों के नाम यह रखे-पहिला प्रतिज्ञेश्वर हुआ-जो कोई उसकी पूजा करेगा, उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे। इसी प्रकार दूसरे का नाम कपालेश्वर तथा तीसरे का कुमारेश्वर रखा। इन शिवलिंगों के लिये यह वरदान भी दिया कि इनकी पूजा से दोनों लोकों में सुख प्राप्त होगा। 

इसके पश्चात् उसी स्थान के निकट स्कन्द ने एक जयस्तम्भ स्थापित कर, एक और शिवलिंग स्तम्भेश्वर की भी स्थापना की, जिनकी पूजा करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त देवताओं तथा मुनीश्वरों ने एक और शिवलिंग की स्थापना की, जिसका नाम रामेश्वर रखा गया । उसकी पूजा से प्रजा की सब कामनाएँ सिद्ध होती हैं ।

॥ शेषजी की प्रार्थना पर स्कन्द द्वारा प्रलंबासुर का वध ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जिस समय सब देवता तथा दैत्य लड़ाई में व्यस्त थे तथा दैत्य स्कन्दजी का तेज न सहकर चारों ओर भागे, उनमें से वाण दैत्य का वृतान्त तो हम कह चुके हैं, अब हम प्रलम्ब नामक दैत्य के विषय में और बताते हैं। वह दैत्य शेषजी के घर में जाकर दस कोटि सेना सहित बड़ा उपद्रव मचाने लगा। उसने अनेक मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। शेषजी के पुत्र ने प्रलम्ब का सामना किया, अन्त में उसने पराजय स्वीकार कर ली। 

तदुपरान्त शेषजी के पुत्र कुमुद ने स्कन्द की शरण में आकर स्तुति की तथा प्रलम्ब के उपद्रवों की कथा विस्तारपूर्वक कह सुनायी। उसने विनय की कि हे स्वामी! आप उसको मारकर हमारे कष्टों को दूर कीजिये। मेरे कहने पर शेषजी ने उस दैत्य को नष्ट करने के लिए स्कन्द से विनती की। स्कन्द ने यह सुनकर अपनी शक्ति को उठा लिया तथा शिवजी एवं गिरजा का ध्यान कर दैत्य की ओर फेंक दिया। 

उस शक्ति के प्रकाश से सम्पूर्ण संसार प्रकाशित हो गया तब उसने सातों पाताल लाँघ कर शीघ्र ही दस करोड़ दैत्यों को प्रलम्ब सहित मार कर भस्म कर दिया। वह शक्ति उन सब का नाश करके, फिर उसी प्रकार स्कन्द के हाथ में आ गयी। तब स्कन्द ने कुमुद से कहा कि हमने अपनी शक्ति द्वारा प्रलम्ब का नाश कर दिया, अब तुम निर्भय हो कर अपने घर को जाओ। 

शेषजी स्वयं तो स्कन्द की सेवा में तत्पर रहे तथा कुमुद उनका आदेश पाकर वहाँ से लौट गये। तब देवताओं ने विविध प्रकार उत्सव किये। मैंने तथा समस्त देवताओं ने स्कन्द की स्तुति करते हुए कहा-हे महाराज! आप तो अभी केवल सात दिन के बालक हैं तो भी दैत्यों का नाश करते हैं यह बड़ा आश्चर्य है। स्कन्द ने देवताओं सहित जिस स्थान पर युद्ध का विचार किया था, वह स्थान सप्ततीर्थ के नाम से बड़ा तीर्थ प्रसिद्ध हुआ तथा जिस मार्ग से कुमुदनाग धरती को फोड़कर पाताल में गया था, वह सिद्धकूल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

जो वहाँ स्नान करते हैं, उनके सब क्लेश मिट जाते हैं तथा अन्त में वे कैलाश पर्वत में स्थान प्राप्त करते हैं। स्कन्दजी के चरित्र अत्यन्त पवित्र हैं, उनके सुनने-सुनाने से मोक्ष प्राप्त होती है।

॥ देवताओं सहित स्कन्द का कैलाश पर्वत पर पहुँचना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! स्कन्द ने इसी प्रकार के अनेक चरित्रों से संसार को सुख प्रदान किया। कुछ समय बाद देवताओं ने स्कन्द से कहा-हे देव! आप कैलाश पर्वत पर चलकर रहिये क्योंकि अब सब ने अपना मनोरथ प्राप्त कर लिया है। स्कन्दजी ने इस बात को मान लिया तथा विष्णुजी और मुझको शुभ मुहूर्त देखने की आज्ञा दी। मैंने मुहूर्त देखकर देवताओं सहित स्कन्द से विनती की कि अब शुभ-मुहूर्त आ गया है। 

यह सुनकर स्कन्द प्रसन्न हो, अपने माता-पिता का ध्यान धर, कैलाश पर्वत को चले। उस समय चारों ओर से 'जयशिव-जयगिरजा', का शब्द सुनाई देने लगा। स्कन्द एक उत्तम विमान पर आरूढ़ होकर अपनी स्तुति सुनते हुए चले । उनके पीछे इन्द्र ऐरावत हाथी पर छत्र लेकर सवार हुए। 

सब दिक्पाल, सूर्य, चन्द्रमा सहित आगे-आगे जय-जयकार करते हुए चले । सबने शिवजी के पास पहुँचकर, उन्हें दूर से ही नम्रतापूर्वक खड़े होकर प्रणाम किया। स्कन्द ने शिव के निकट जाकर दंडवत् की। तब शिवजी ने उन्हें गोद में लेकर उनको हृदय से लगाया। गिरिजा अपने पुत्र के आगमन का समाचार सुनका अपनी सखियों सहित मन्दिर से बाहर निकल आयीं। 

उन्होंने तुरन्त ही अपने पुत्र को गोद में उठा लिया। शिव-पार्वती की यह लीला देखकर, सब देवता आदि अपने-अपने हाथ जोड़, सिर झुका, बड़ी स्तुति करते हुए बोले-हे प्रभो! आपने शिशु रूप से प्रकट होकर तारक का वध किया एवं वाण तथा प्रलम्ब भी अपनी समस्त सेना सहित मारे गये। इसी प्रकार उन्होंने गिरिजा एंव स्कन्द की अलग-अलग भी स्तुति की। फिर वे प्रणाम कर चुप हो गये।

हे नारद! शिवजी ने अपनी दयादृष्टि से सबको देखते हुए कहा-मैंने केवल तुम्हारे लिए हर सगुण अवतार लेकर विवाह किया है। यह स्कन्द मुझे बहुत प्रिय है। इसने तारक का वध किया है। अब तुम अपने-अपने घरों में जाकर प्रसन्नतापूर्वक रहो। हम इसी प्रकार सदैव तुम्हारे आन्नद को चाहते रहेंगे, क्योंकि हम सदैव भक्ति के अधीन रहते हैं। 

तुम सब हमारा स्मरण करना नहीं भूलना। यह कहकर शिवजी ने सबको विदा किया। फिर स्कन्द के कुशलपूर्वक लौट आने के कारण उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत दान दिया तथा बहुत उत्सव किया। यह देखकर भैरव आदि गण बहुत प्रसन्न हुए। देवता आदि सब अपने-अपने घरों में पहुँचकर आनन्द के बाजे बजाने लगे तथा अपने-अपने कार्य में पूर्ववत् संलग्न हो गये। 

हे नारद! हमने स्कन्द का वृत्तान्त जितना कि हमें मालूम है, यह कह सुनाया। यह चरित्र सब दुःखों को दूर करनेवाला तथा आनन्ददायक है। इसके सुनने से सब दुःख तथा विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। इस चरित्र को सुनने तथा सुनानेवाले भी परलोक में शुभगति को प्राप्त करते हैं। 

इसके सुनने से सौभाग्य बढ़ता है तथा शिव का सानिध्य प्राप्त होता है। गिरिजा तो अपने भक्तों की सदा सहायक हैं। हे नारद! अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?

॥ गिरिजा द्वारा देवताओं को श्राप ॥

नारदजी बोले-हे ब्रह्माजी! स्कन्द का चरित्र सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई, अब आप शिव-गिरिजा के अन्य चरित्रों पर भी प्रकाश डालिये। मैं आपसे एक प्रश्न करता हूँ, आशा है कि आप उसका प्रसन्नता से उत्तर देंगे। हे पिता! आप मुझे गणपति का चरित्र सुनाइये तथा यह बताइये कि वे किसके पुत्र हैं ? पंचदेव के पूजन की जो आज्ञा दी गयी है, उसमें एक गणपति जी भी हैं। 

उनकी किस समय से पूजा की गयी, तीनों लोकों को उन्होंने किस प्रकार जीता तथा उन्होंने किस प्रकार इतनी ख्यति प्राप्ति की, यह आप मुझे बताइये। मैंने कई बार यह भी सुना है कि गणपतिजी भी गिरिजा के पुत्र हैं, उनके विषय में विशेष कुछ नहीं जानता। शिवजी के विवाह में आपने कहा था कि गणपति की पूजा की गयी तथा शिवजी ने उन्हें नमस्कार किया। 

मुझे इसमें बड़ा संशय है कि दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं?‌ यह सुनकर ब्रह्माजी बोले- हे नारद! तुमने वास्तव में बहुत अच्छा प्रश्न किया है। हम तुम्हें गणपति की उत्पत्ति तथा उनके पद आदि से अवगत कराते हैं। गणपति विष्णु आदि के समान ही प्राचीन देवता हैं। वे अलग-अलग पाँचों देवताओं में बँटे हुए हैं।

हे नारद! जब शिवजी गिरिजा के साथ विवाह करके अन्तःपुर में विहार करने लगे तब शिव एवं गिरिजा में ऐसा प्रेम बढ़ा कि उन्हें रात-दिन व्यतीत होते हुए कुछ भी न जान पड़े। यह दशा देखकर सब देवता मेरे पास आये तब मैं भी चिन्तित होकर उन सब को साथ लेकर विष्णुजी के पास पहुँचे और स्तुति करने के पश्चात् सब वृत्तान्त उन्हें कह सुनाया, कि शिवजी एक सहस्त्र दिव्य वर्षों से विहार कर रहे हैं, पता नहीं ऐसे विहार से कैसा पुत्र उत्पन्न होगा; आप ही इसके विषय में कुछ बतावें। 

विष्णुजी यह सुनकर बोले-हे ब्रह्मन्। सब उचित तथा शुभ ही होगा। हमको ऐसी युक्ति करनी चाहिए कि शिवजी का वीर्य किसी प्रकार से पृथ्वी पर गिर पड़े, जिससे गिरिजा के पुत्र न उत्पन होने पावे, नहीं तो वह ब्रह्माण्ड भर को जलाकर भस्म कर देगा। यह सुनने के पश्चात् मैं तो अपने घर चला गया तथा अन्य देवता कैलाश पर्वत को गये। 

देवताओं ने शिवजी के द्वार पर जाकर उन्हें आवाजें दीं, तब शिवजी बाहर निकल कर आये। उस समय देवताओं ने प्रणाम करके स्तुति की और कहा-हे प्रभु! आप संसार को पवित्र करें। शिवजी देवताओं का आशय समझकर कहने लगे-मैंने तुम्हारे मनोरथ को अच्छी तरह समझ लिया है। 

तुमने व्यर्थ ही मेरे आन्नद में विघ्न डाला, यह बहुत ही बुरा हुआ। अब मेरा वीर्य सिर से नीचे की ओर आता है, उसको तुममें कौन लेता है? यह कह कर उन्होंने अपना वीर्य पृथ्वी पर फेंक दिया, जिसके तेज से सब ओर प्रकाश हो गया। उस समय अग्नि कपोत का रूप धारण कर उस वीर्य को खा गये।

फिर जब वे उड़कर आकाश को चले तो उस वीर्य को धारण करने की शक्ति न पाकर, उन्होंने उसे पृथ्वी पर फेंक दिया। उसके गिरने से पहाड़ भी कांप उठा। इस प्रकार स्कन्द की उत्पत्ति हुई, जिसके विषय में हम पहिले बता चुके हैं।

हे नारद! अब हम तुम्हें गणपति के विषय में बतलाते हैं। इस घटना के घटते समय शिवजी ने सब देवताओं से कहा कि तुम लोग शीघ्र ही हमारे पास से भाग जाओ। ऐसा न हो कि गिरिजा इस बात को जानकर तुम पर क्रोध करें। यह सुनकर देवता वहां से भागे तथा शिवजी उनके भागने का चरित्र देखते रहें। 

उसी समय गिरिजा ने आकर देवताओं पर महाक्रोध किया, जिससे ऐसा प्रतीत होने लगा कि अभी प्रलय हो जायेगा। तदुपरान्त गिरिजा ने देवताओं को शाप दिया। शाप दे चुकने के पश्चात् भी उनका क्रोध शान्त न हुआ। उनका शरीर दुःख की अधिकता के कारण शिथिल हो गया शिवजी ने गिरिजा को इस प्रकार दुःखी देखकर गोद में उठा लिया तथा बहुत-सी प्रेम की बातें कीं। 

उन्होंने उन्हें समझाते हुए कहा-हे गिरिजे! तुम मुझ से इस प्रकार क्यों अप्रसन हो ? मेरा कोई अपराध नहीं है। यदि अनजाने में कोई अपराध हो गया हो तो क्षमा करो। तुम्हारे बिना मानो हम अंगहीन हैं। तुम तो सब की माता हो । तुम्हारे अधीन तो तीनों लोकों के कार्य हैं। बिना तुम्हारे सब निर्बल हैं। अब प्रसन्न होकर तुम हमारे तथा सबके दुःख को दूर करो ।

॥ शिव जी द्वारा गणपति के व्रत का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! शिवजी के ऐसे वचन सुनकर गिरिजा बोली-हे नाथ! क्या आप मेरे दुःख को नहीं जानते ? संसार में संतान-हीन होने के बराबर कोई दुःख नहीं है। मेरा पहिला जन्म बिना सन्तान के ही व्यतीत हो गया, अब यह जन्म भी उसी प्रकार बीतना चाहता है। देवताओं ने मेरे साथ छल करके मुझे बाँझ बनाकर, बहुत दुःख पहुँचाया है। यदि पुत्र न हो तो संसार के सहस्त्रों ऐश्वर्यों पर धिक्कार है। जब गुणवान् पुत्र उत्पन्न होता है, तभी लोक में शुभ कर्मों का फल प्राप्त हुआ प्रतीत होता है।

यह कहकर गिरिजा बहुत रोईं। तब शिवजी ने गिरिजा को उठाकर हृदय से लगाते हुए कहा-हे गिरिजे! हम तुमको ऐसा उपाय बताते हैं, जिससे तीनों लोकों में सब कार्य पूर्ण होंगे। मैं, विष्णु तथा ब्रह्मा सब उसके वश में हैं। हम उनको अपना गुरु अर्थात् गणपति कहते हैं। वह हमारा मुख्य रूप है, जिसकी सेवा से समस्त दुःख दूर होकर सुख की प्राप्ति होती है। 

तुम एक वर्ष तक उनका व्रत करो तो तुम्हारा मनोरथ सफल हो जायेग। उनका नाम ही समस्त कष्टों को दूर करनेवाला तथा आनन्ददायक है। वह व्रत कृष्णपक्ष की चौथ को किया जाता है। वह व्रत गणेशचौथ का व्रत कहलाता है। उस व्रत को रखकर, पवित्रतापूर्वक चन्द्रमा के उदय होते ही पूजा करे। वह व्रत समस्त व्रतों का राजा तथा प्रत्येक इच्छा की पूर्ति करने वाला है। 

जिस प्रकार सब मन्त्रों में प्रणव, हमारे भक्तों में विष्णु, नदियों में गंगा, इन्द्रियों में मन, बड़ों में माता, पुरियों में काशी, सहायकों में भाई तथा पुत्र, नक्षत्रों में चन्द्रमा, मन्त्रगणों में पंचाक्षरी, बीजमन्त्रों में प्रणव, पुराणों में भारत तथा आश्रमों में संन्यास उत्तम हैं, उसी प्रकार सब सेवाओं मैं शिव की भक्ति महान है। इसी प्रकार गणेश चौथ का व्रत भी सब व्रतों में बड़ा है ।

हे नारद! इस प्रकार शिवजी गिरिजा को गणेशचौथ की महानता का वर्णन करते हुए बोले-हे गिरिजे! कलियुग में राजा शेषसेन ने इस व्रत को करके बड़ा आनन्द प्राप्त किया। मनु की स्त्री शतरूपा ने यही व्रत करके दो पुत्र प्राप्त किये । कद्रम की पत्नी ने भी इसी व्रत द्वारा कपिल नाम विष्णु अवतार को प्राप्त किया। वशिष्ठ की स्त्री ने भी यह व्रत करके शक्ति नामक पुत्र को उत्पन्न किया। 

इसी प्रकार इसी व्रत के प्रभाव से अनेक मनुष्यों ने पुत्र प्राप्त किये हैं। गिरिजे! तुम भी इसी व्रत के प्रभाव से अवश्य पुत्र प्राप्त करोगी। गिरिजा ने शिवजी के मुख से गणेशचौथ के व्रत की महिमा को सुन, प्रसन्न होकर कहा-हे स्वामी! मैं अवश्य ही व्रत करूँगी; आप इस व्रत के सब नियम-क्रिया आदि विस्तारपूर्वक कहें। 

शिवजी बोले-हे देवि! कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को शुद्ध हृदय से प्रातःकाल उठकर स्नान करे तथा जो कुछ करना उचित है, वह सब करे। इसके पश्चात् व्रत की दृढ़ इच्छा कर, यह संकल्प करे-हे गणेश! आज हम तुम्हारा व्रत करते हैं; हमारा मनोरथ पूर्ण करना। हे गणपति! हमारा व्रत भली प्रकार से पूर्ण हो जाय और हमारे सब दुःख दूर हो जायँ। 

तुम सबको जानते हो, सब फलों के दाता हो तथा वेदों ने तुमको विघ्नहर्ता कहा है । इस प्रकार हृदय में संकल्प करके चतुर्थी के दिन गणपति की वार्ता में ही दिन व्यतीत करे। सूर्यास्त के समय स्नानकर अपने स्थान पर बैठे और कथा-पूजा की सब सामग्री इकट्ठी करे, फिर गणेशजी की पूजा के लिए अच्छा स्थान तैयार करे, जिसके चारों ओर केले के खम्भे लगाये गये हों। 

जब आकाश में चन्द्रमा उदय हो, तब तुरन्त अर्घ्य और गणेश की मूर्ति सोने चांदी, ताँबे या गोबर की, जैसी सामर्थ्य हो, बनवावे। उसको शुभ स्थान पर रखकर कलश स्थापित करे, जिसके ऊपर दीपक रखा हो, इसके पश्चात् ध्यान लगाकर षोडशोपचार से उसका पूजन करे तथा लाल फूल, वस्त्र, चन्दन, कुश, दूध तथा पूए आदि आगे रखकर आचमन करा दें। अच्छी स्तुति करके, प्रेम मग्न हो, उनको प्रणाम करे। 

तुदपरान्त वही पूआ पूजन कराने वाले ब्राह्मण को खिलाकर, दक्षिणा स्वरूप कुछ चाँदी दे, नहीं तो अपनी सामर्थ्य के अनुसार जो चाहे सो दक्षिणा दे। तदुपरांत स्वयं भी मीठा भोजन करें। इस प्रकार जो गणेश का व्रत करते हैं, उनकी मनोकांक्षा पूर्ण होती है। हे गिरजे! इसलिए तुम भी इसी व्रत को करो।

 ॥ गिरिजा द्वारा चन्द्रमा को अर्घ्य देने के संबंध में प्रश्न॥

शिवजी से यह सुनकर गिरिजा ने पूछा-हे नाथ! आपने गणपति के इस व्रत में चन्द्रमा को अर्घ्य देने का जो वर्णन किया है, उसका मुख्य कारण मेरी समझ में नहीं आता। इसलिए आप इस कथा को कहिये। शिवजी बोले- हे गिरिजे! जब ब्रह्मा ने हमारी आज्ञा को मानकर स्वर्ग जाने की इच्छा की तथा गणपति का एकाग्र चित्त होकर पूजन किया, तब गणपति ने उनकी पूजा से प्रसन्न होकर उनसे वरदान माँगने को कहा। 

उस समय ब्रह्मा ने यह कहा कि हम सृष्टि उत्पन्न करना चाहते हैं तथा निर्विघ्न उसकी वृद्धि की इच्छा रखते हैं। ब्रह्मा के वचन सुनकर गणपति ने कहा-यही होगा। ऐसा कहकर गणपति धीरे-धीरे आकाश की ओर चल दिये। जब गणपति चन्द्रमा के मन्दिर में पहुँचे तो वहाँ पाँव फिसल जाने के कारण गिर पड़े। उनका उदर बहुत बड़ा तथा शरीर स्थूल था । चन्द्रमा यह देखकर हँस पड़े। 

चन्द्रमा को हँसते हुए देख गणपति बहुत क्रोधित हुए और उनके नेत्र लाल हो गये। तब उन्होंने उसी समय चन्द्रमा को यह शाप दिया कि हे कलंकी चन्द्रमा! तू अपनी सुन्दरता पर गर्व करता है। अब तुझको इसका फल तुरन्त प्राप्त होगा। जो कोई तुझको आज से देखेगा उसको अवश्य ही कुछ न कुछ कलंक लग जायगा। 

हे गिरजे! इस प्रकार चन्द्रमा को शाप देकर गणपति अन्तर्धान हो गये तथा चन्द्रमा क्षीणांग होकर तेजहीन हो गया। उस समय सब देवता एवं इन्द्र दुःखी होकर ब्रह्मा के पास गये तथा उन्हें सब वृत्तान्त कह सुनाया। ब्रह्मा ने उनसे कहा- हे देवताओ! इसमें कोई बुरी बात नहीं है। चन्द्रमा ने जो कुछ किया उसने उसी का फल प्राप्त किया है। गणपति का शाप कभी झूठा नहीं हो सकता। इसलिए तुम सब लोग गणपति की शरण में जाओ। 

निश्चय ही वे अपने शाप को शान्त करेंगे। तब देवताओं ने ब्रह्मा से विनय की- हे ब्रह्माजी! आप हमको वह उपाय बतायें, जिससे गणपति प्रसन्न होकर उस शाप को शान्त करें। यह सुनकर ब्रह्मा बोले- हे देवताओ ! गणपति का व्रत कृष्णपक्ष की चतुर्थी को है। जो कोई उसको करता है, उस पर गणपति प्रसन्न होते हैं। ब्रह्मा के ऐसे वचन सुनकर देवताओं ने बृहस्पति को चन्द्रमा के पास भेजा तथा उसे गणेश चतुर्थी का व्रत करने के लिए कहा। तब चन्द्रमा ने बृहस्पति द्वारा बताई हुई रीति के अनुसार गणपति के व्रत को आरंभ किया। 

उस व्रत के प्रताप मैं गणपति चन्द्रमा को क्रीड़ा करते हुए शिशु रूप में दिखाई दिये। चन्द्रमा ने उन्हें देखकर प्रणाम करके, बहुत स्तुति की। तब गणपति ने प्रसन्न होकर कहा- हे चन्द्रमा! हम तुम से प्रसन्न हैं, तुम जो वरदान चाहो, हम से माँगो। उस समय चन्द्रमा ने यह निवेदन किया- हे गणपति ! मैं केवल यही चाहता हूँ कि आपके शाप से मुक्ति पाकर सबके दर्शन के योग्य हो जाऊँ।

गणपति बोले- हे चन्द्रमा! मैं तुमको इसका उपाय बताता हूँ, जिससे तुम्हारा शाप से उद्धार हो जायगा । आज से प्रतिमास शुक्लपक्ष की चौथ को हमारा शाप तुमको लगा रहेगा तथा अन्य तिथियों में तुम्हें देखने से किसी को कलंक नहीं लगेगा, जो मनुष्य पहिले दूज तथा तीज में तुमको देखेगा, उस पर कुछ चतुर्थी को देखने का भी प्रभाव न होगा। 

साथ ही हम तुमसे यह भी कहते हैं कि हमारा पहिला वचन भी झूठा न होगा, अर्थात् जो मनुष्य भादों के शुक्ल पक्ष की चौथ को तुम्हारे दर्शन करेगा, उनको बराबर वर्षभर कलंक लगा करेंगे।

हे गिरिजे! गणपति के मुख से ऐसे वचन सुनकर चन्द्रमा ने कहा-हे गणपति! अब मुझे इस शाप से भी दूर होने की कोई युक्ति बताइये ?तब गणपति बोले-हे चन्द्रमा! जो मनुष्य प्रतिमास की कृष्णपक्ष की चौथ को तुम्हारे उदय होने के समय मेरी तथा रोहिणी सहित तुम्हारी पूजा करेगा, तुमको अर्घ्य देगा, हमारी कथा सुनकर ब्रह्मभोज करेगा तथा स्वयं नमक आदि त्याग कर केवल मीठा ही भोजन करेगा, उसको चौथ का दोष जो वर्णन किया है, वह प्राप्त न होगा। 

जब भादों मास का आरम्भ हो, तो शुक्लपक्ष की चौथ को हमारी पूजा करे। उस व्रत से सब प्रकार के क्लेश दूर हो जायेंगे, तथा उस मनुष्य को चौथ का कुछ कलंक नहीं लगेगा। चन्द्रमा से इतना कहकर गणपति अन्तर्धान हो गये और चन्द्रमा फिर अपना तेज प्राप्त कर प्रसन्न हुआ। 

हे गिरिजे! इस कथा के सुनने से भी पाप समूल नष्ट हो जाते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस व्रत को करने से पुत्र के अतिरिक्त जो भी मनोरथ हों, वे प्राप्त होते हैं।

 ॥ गिरिजा द्वारा गणपति का व्रत एवं गणपति का जन्म ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! शिवजी के ऐसे वचन सुनकर गिरिजा ने ब्राह्मणों को बुलाकर शुद्ध मन से नियमानुसार व्रत का आरम्भ किया तथा अनेक प्रकार की वस्तुएँ चढ़ाकर, पूए भी गणपति को भेंट किये। फिर उन्होंने उत्तम रीति से ब्रह्मभोज कर, स्वयं भी भोजन किया। 

इसी प्रकार गिरिजा प्रतिमास व्रत रखकर, भली प्रकार दान-दक्षिणा देती रहीं। जब एक वर्ष पूरा हो गया तो उन्होंने दान-दक्षिणा आदि देकर एक वृहत् उत्सव का आयोजन किया। जिसमें बहुत गाना-बजाना हुआ। व्रत पूर्ण होने के पश्चात् गिरिजा अत्यन्त प्रसन्न हुईं। उन्होंने शिवजी की ओर बारम्बार देखा, तब शिवजी ने उन्हें अपनी माया जानकर, अपने हृदय से लगा लिया। 

फिर गिरिजा का मनोरथ समझकर शिवजी ने चन्दन के एक वन में, जो उस पर्वत पर ही था और जहाँ सुख की सम्पूर्ण सामग्री उपलब्ध थी, वहां जाकर गिरिजा के साथ विहार किया। तब गणपति उस स्थान पर ऐसा स्वरूप बनाकर आये कि वे बहुत भूखे-प्यासे, नंगे, दरिद्री, श्वेत केश, मस्तक पर श्वेत तिलक लगाये, महादीन, कौए का शब्द बोलते हुए, दाँत मैले-कुचैले, हाथ में डण्डा लिये तथा बहुत ही दुर्बल थे। 

वे दुखियाते हुए शिवजी से बोले-हे शिव! तुम क्या करते हो ? सात दिन से हमने कुछ नहीं खाया है सो हम बहुत भूखे हैं। हमें भोजन चाहिए । तुम हमें भोजन कराकर जल पिलाओ। यह सुनकर शिवजी तुरन्त उठ खड़े हुए, जिससे उनका वीर्य उसी स्थान में गिर पड़ा। गिरिजा भी तुरन्त उठकर अपने वस्त्र पहिन, शिवजी के साथ द्वार पर आयीं। उन्होंने ब्राह्मण को प्रणाम किया तथा बड़ी स्तुति की। 

शिवजी उससे इस प्रकार बोले- हे ब्राह्मण! तुम्हारा नाम क्या है? हमारा सौभाग्य है जो तुम यहाँ पधारे । इस समय तुम यहाँ अतिथिरूप में हमारे यहाँ आये हो। अतिथि की सेवा के सुख के बराबर अन्य कोई धर्म नहीं है।

गिरिजा ने भी कहा-हे ब्राह्मण! ऐसी धूप में तुम कहाँ से पधारे हो? जो गृहस्थ अतिथि के चरणों को जल से धोकर, उस चरणामृत को पीता है, उसे सब तीर्थों का फल प्राप्त होता है।यह सुनकर उस ब्राह्मण ने कहा-हे गिरिजे! तुम धन्य हो, मैं बहुत ही भूखा-प्यासा हूँ। कृपाकर तुम मुझको भोजन तथा जल दो । 

गिरिजा ने उसी समय ब्राह्मण को उत्तमोत्तम भोजन कराये। भोजन करने के पश्चात् ब्राह्मण ने तृप्त होकर प्रसन्नतापूर्वक कहा-हे गिरिजे ! तुम्हारी कामना पूर्ण हो, तुमको संसारी रीति के विरुद्ध ऐसे पुत्र की प्राप्ति हो, जो गर्भ से उत्पन्न न हुआ हो। यह कहकर वह ब्राह्मण अन्तर्धान हो गया । 

तदुपरान्त वे गणपति शिव-गिरिजा की शैय्या में, जहाँ वीर्य पड़ा हुआ था, मुख्य रूप से प्रकट हुए। बालकों के समान, करोड़ों सूर्यों की ज्योति धारण किये, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर शरीर धारण किये, चम्पा के समान हाथ-पाँव तथा कमलवत् कोमल अंगोंवाले शैय्या में इधर-उधर फिर रहे थे।

हे नारद! जब शिव एवं गिरिजा ने देखा कि वह ब्राह्मण एकदम अन्तर्धान हो गया, तो वे दोनों उसे चारों ओर ढूँढ़ने लगे। उन्हें अपने मन में बहुत दुःख तथा कष्ट हुआ, इतने में यह आकाशवाणी हुई हे गिरिजे! तुम संसार की माता हो, वह ब्राह्मणरूपधारी स्वयं गणपति थे। वे तुम्हारे व्रत से प्रसन्न होकर अब शिशु के समान तुम्हारे बिछौने पर पड़े हैं। तुम उन्हें जाकर देखो। योगी जिनका ध्यान करते हैं, वे तुम्हारे पुत्र हुए हैं। अब घर में जाकर आनन्द मनाओ।

यह आकाशवाणी सुनकर गिरिजा प्रसन्न होकर मन्दिर में गयीं। वहाँ देखा कि एक अत्यन्त सुन्दर बालक हँस-हँस कर शैय्या पर पड़ा खेल रहा है। गिरिजा ने तुरन्त ही यह सब वृत्तान्त शिवजी को जा सुनाया और कहा-हे स्वामी ! आप शीघ्र चलकर देखें, गणपति के व्रत का फल प्राप्त हो गया है। यह सुनकर शिवजी ने भी अन्दर आकर उस बालक को देखा।

॥ शिव गिरिजा का पुत्र जन्मोत्सव मनाना॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! गिरिजा ने बालक को दूध पिलाया। जिस प्रकार एक दरिद्री अतुल सम्पत्ति पाकर प्रसन्न होता है, उससे कई लाख गुना अधिक आनन्द गिरिजा को प्राप्त हुआ।

हे नारद! जब गणपति दूध पी चुके, तब शिवजी ने उन्हें अपनी गोद में उठाकर, उनके शिर तथा हाथ चूमे और नाना प्रकार के आशीर्वाद दिये। फिर सब ब्राह्मणों को बुलाकर रत्न-मोती आदि दान दिये। तदुपरान्त विष्णुजी तथा देवता, मुनि आदि सब शिव के उस पुत्र को देखने के लिए वहाँ गये। 

हिमाचल भी अत्यन्त प्रसन्नता के साथ रत्न आदि लिये हुए जा पहुँचे। एक लाख अमूल्य रत्न, पाँच लाख भर सोना, तीन लाख घोड़े, एक सहस्त्र हाथी तथा वस्त्र ब्राह्मणों को दान में दिये। देवता, शेषनाग, गन्धर्व आदि ने भी एक सहस्त्र अच्छे बर्तन, एक सहस्त्रमणि, एक सहस्र माणिक्य, असंख्य अग्नि में न जलनेवाले शुद्ध वस्त्र दान में दिये। 

लक्ष्मी ने कौस्तुभ मणि तथा सरस्वती ने हार ब्राह्मणों को दान दिये। विष्णु तथा मैंने लड़के को देखकर, प्रसन्नतापूर्वक अनेक आशीर्वाद दिये। उस समय विष्णुजी बोले-हे बालक! तुमने शिवजी को बहुत प्रसन्न किया है। तुम्हारा बल पवन के समान होगा और सब सिद्धियाँ तुम्हारे आधीन होंगी। मैंने यह आशीर्वाद दिया कि तुम्हें सब लोग पूजेंगे, तुम्हारा तेज एवं कीर्ति किसी समय कम न होगी, तुम तीक्ष्ण बुद्धिवाले तथा बड़े विद्वान् होगे। तुम हमारे समान सबका उपकार करोगे और तीनों भुवन के विघ्न तुम्हारे स्मरणमात्र से ही दूर हो जायेंगे ।

हे नारद! मेरे इस प्रकार आशीर्वाद देने के पश्चात् लक्ष्मी ने कहा-हे बालक! तुम जहां पर रहोगे, हम भी वहाँ अवश्य ही रहेंगे। वहाँ ऋद्धि-सिद्धयां भी प्रेमपूर्वक स्थित रहेंगी। सरस्वती ने कहा-तुम्हारी कविता में महान् शक्ति होगी। तुम्हारे स्मरणमात्र से ही कवित्वशक्ति शीघ्र प्राप्त होगी। सावित्री ने आशीर्वाद देते हुए कहा- हम सब वेदों की जननी हैं, हमारी कृपा से तुम सम्पूर्ण वेदों के ज्ञाता होगे।

हिमाचल बोले-तुमको शिव के चरणों में बड़ी भक्ति प्राप्त हो तथा तुम में विष्णु के समान अपार बल हो। मैना ने कहा-हे गिरिजापुत्र! तुम कामदेव के समान सुन्दर, समुन्द्र के समान गंभीर तथा विष्णु एवं शिव के समान धर्मनिष्ठ होगे। वसुन्धरा ने कहा- तुम्हारे आधीन समस्त पृथ्वी के रत्न एवं मणि रहेंगे। तुम्हारी कृपा द्वारा सब प्रकार के विघ्न नष्ट होंगे। 

पार्वती ने कहा- हे पुत्र! तुम सिद्धि को देनेवाले, सिद्ध योगी के समान मृत्यु पर विजय प्राप्त करनेवाले, सबसे निराले तथा अपने पिता के समान होगे। शिवजी ने कहा-तुम सबको आनन्द प्रदान करनेवाले, सबकी पूजा के योग्य तथा मुझको बहुत प्रिय होगे। इस प्रकार सब ने मिल कर गणपति को आशीर्वाद दिये। हे नारद! गणपति  की इस उत्पत्ति कथा को जो कोई सुनेगा तथा कहेगा, उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे ।

॥ शनि की दृष्टि से गणपति के मस्तक का उड़ जाना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! गणपति के जन्म की प्रसन्नता में शिवजी ने बड़ा भारी उत्सव किया । वे स्वयं रत्नजटित आसन पर बैठे, दाहिनी और विष्णु तथा बार्थी ओर मैं स्वयं बैठा। विष्णु के पार्षद चन्द्रमा, दिक्पति तथा धर्मराज आदि अपने-अपने स्थान पर बैठ गये। नृत्य-गायन का समारोह आरम्भ हुआ। उस समय वेद, पुराण, आगम, निगम ने शिवजी की स्तुति की तथा बाजे बजने लगे। 

इसी समय सूर्य के पुत्र शनिश्चर गणपति को देखने को आये। शिव, विष्णु, ब्रह्मा, धर्मराज तथा चन्द्रमा की स्तुति कर, उनसे आज्ञा ले शनिदेव मन्दिर के अन्दर गये तथा प्रथम द्वार पर पहुँचे। वहाँ द्वारपालों ने उन्हें जाने से रोक दिया। तब शनिश्चर ने द्वारपालों से कहा तुम हमको मत रोको, हम लड़के को देखने के लिए जाते हैं। द्वारपालों ने उत्तर दिया- हम गिरिजा की आज्ञा बिना तुम्हें अन्दर नहीं जाने देंगे। 

हमको शिवजी की शपथ है, तुम यहीं खड़े रहो। तब तक हम गिरिजा से आज्ञा लिये आते हैं। यह कहकर एक द्वारपाल गिरिजा से आज्ञा लेने अन्दर गया। कुछ समय के पश्चात् गिरिजा की आज्ञा से शनिश्चर अन्दर गये। शनिश्चर ने गिरिजा की स्तुति की तथा गिरिजा ने आशीर्वाद दिया और यह पूछा-हे शनिश्चर! इसका क्या कारण है कि तुम आधा सिर झुकाकर देखते हो, तुम लड़के को अच्छी तरह क्यों नहीं देखते ? क्या तुमको हमारा यह आनन्द अच्छा नहीं लगा ?

हे नारद! शनिश्चर ने गिरिजा के ऐसे वचन सुनकर कहा-हे गिरिजे! भाग्य अत्यन्त बलवान है। सब मुनष्य संस्कार के आधीन हैं तथा शुभ-अशुभ कर्म दोनों लोकों से दूर नहीं किये जा सकते। स्वर्ग-नरक, जन्म-मरण, आकाश-पाताल, देवता-मनुष्य, आवागमन, धन की पूर्णता, दुरिद्रता, कुल-अकुल, पुत्रहीन, सपुत्र आदि सब भाग्य के ही व्यवहार हैं। इसी प्रकार हम भी अपने भाग्य द्वारा आधे देखने वाले हो गये हैं। हम जिस कारण ऊपर दृष्टि नहीं कर सकते, उसकी कथा सुनिये। 

यद्यपि वह कथा इस योग्य नहीं है कि ढिठाई से सुनायी जाय। फिर भी आप मेरी माता हैं तथा मैं आपका पुत्र हूँ। मैं बचपन से ही शिवजी का भक्त होकर उन्हीं के ध्यान एवं तप में संलग्न रहकर, उन्हीं के नाम का जप करता था। जब मैं यौवनावस्था को प्राप्त हुआ, तब मेरे पिता ने मेरा विवाह कर दिया। चित्ररथ की कन्या ने, जो मेरी पत्नी थी, मेरी बड़ी सेवा की । संयोग से ऋतु के दिनों से निश्चित होकर उसने स्नान तथा श्रृंगार किया और तिरछी चितवन किये, हँसती हुई मेरे पास आयी और बोली कि मुझको देखो और मेरी इच्छा की पूर्ति करो। 

मैंने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया तथा उसी प्रकार शिवजी के ध्यान में लगा रहा। उस समय मैं बहुत बुद्धिहीन था। मैंने उसके गूढ़ शब्द को न सुना। जब उसने अपने मनोरथ को सिद्ध होता हुआ न देखा, तब उसने मुझे यह शाप दिया- तुमने बुद्धिमान होते हुए भी अपना धर्म न जानकर ऐसा भारी पाप किया है और जो अपराध तुमने किया, उसपर विचार तक नहीं किया। 

इसलिए मैं तुमको शाप देती हूं कि तुम शुभ न होगे। तुम जिसको नेत्रों से अच्छी तरह देखोगे, वह जड़-मूल से जलकर भस्म हो जायगा। यह कहकर वह मेरे पास खड़ी रही। तब मैंने शिवजी का ध्यान छोड़कर उसे उत्तर देते हुए कहा- हे प्रिय! मैं ऐसे शाप को सहन नहीं कर सकता। यह वचन सुनकर मेरी पत्नी दुःख एवं नम्रता से अत्यन्त लज्जित हुई, मेरे मन में किसी प्रकार का खेद न हुआ। मैंने वह शाप धारण कर लिया। मैं उसी दिन से किसी वस्तु को अच्छी प्रकार आँख उठाकर नहीं देखता; क्योंकि मुझे जीव के निर्जीव होने का भय हर समय बना रहता है ?

हे नारद! शनिश्चर के यह वचन सुनकर गिरिजा अपनी सखियों सहित बहुत हँसी और बोलीं-हे शनिश्चर! तुम हमारे पुत्र को भली-भाँति देखो। शनिश्चर यह सुनकर दुविधा में पड़े कि गिरिजा के पुत्र को देखूँ या न देखूँ; यह विचार करते हुए उन्होंने दाहिने नेत्र के कोने से बालक की ओर देखा। उसी समय गिरिजा के पुत्र का सिर उड़ गया। पार्वती यह दशा देख रोने-बिलखने लगीं तथा शनिश्चर को बुरा-भला कहने लगीं। 

उन्होंने लड़के का शरीर हृदय से लगा लिया और मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर पेड़ीं। यह दशा देखकर सब स्त्रियाँ भी रोने लगीं। रोने-पीटने का वह शब्द सुनकर विष्णु आदि देवता आश्चर्य के साथ मन्दिर के अन्दर गये तथा वहाँ सब दृश्य देखा। शिवजी भी संसारी मनुष्यों के समान रुदन करने लगे।

॥ विष्णु जी के द्वारा हाथी का मस्तक लाना तथा गणपति का सजीव होना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! गिरिजा चैतन्य होकर पुनः खेद एवं दुःख से मूच्छित हो गयीं। हम सबने उन्हें फिर किसी उपाय से सचेत किया। तब विष्णु तथा मैंने हर प्रकार से गिरिजा को समझाते हुए यह कहा कि संसार का सम्बन्ध ही क्या है ? यह सब सम्बन्ध केवल मोह के ही कारण हैं। 

यह सुनकर गिरिजा ने दुखित होकर कहा-अब मेरा जीवित रहना कठिन है। मैंने देवताओं की युक्ति को कुछ भी न समझा। मैं अभी तीनों लोकों को जलाकर भस्म कर दूँगी, क्योंकि मेरे दुःखी रहते कोई सुखी नहीं रह सकता। यदि मेरा पुत्र सजीव होकर नहीं उठेगा तो संसारभर को सुख न मिलेगा। यह कहकर गिरिजा पुनः पृथ्वी पर गिर पड़ीं तथा अचेत हो गयीं। 

उस समय सब चित्र लिखे के समान चुप हो गये तथा शिव के पास पहुँचकर बहुत ही लज्जा से बोले-हे प्रभो! यह क्या हुआ, जिससे हम सबको दुःख प्राप्त हुआ है ? अब आप ऐसा कोई उपाय बताइये, जिससे बालक पुनः जीवित हो उठे तथा उससे तीनों लोकों को आनन्द प्राप्त हो। यह सुनकर शिवजी बोले- हे देवताओ! जो होनहार है, वह रुक नहीं सकता। फिर वे विष्णु से बोले-हे विष्णु! तुम हमारे मुख्यरूप हो। वेदों ने हमारी तुम्हारी समानता बतायी है। अब तुम किसी और का शीश काटकर बालक को लगा दो, तो बालक जीवित हो उठेगा।

हे नारद! शिवजी का आदेश पाकर विष्णुजी तुरन्त गरुड़ पर चढ़कर चले तथा उत्तर दिशा की ओर चक्र लिये हुए पहुँचे। उन्होंने पुष्पभद्रा नदी के तट पर वन में एक हाथी को हथिनी तथा बच्चों सहित देखा। हाथी अपने परिवार सहित उत्तर की ओर सिर किये सो रहा था, विष्णु जी ने तुरन्त ही उस हाथी का सिर चक्र से काट कर गरुड़ पर रख लिया। जब विष्णुजी ने वहां से चलना चाहा, तभी हथिनी जग पड़ी। उसने चिल्लाकर अपने बच्चों को जगाया तथा विलाप करने लगी। 

सबने जागकर विष्णुजी को चारों ओर से घेर लिया तथा उत्तम रीति से उनकी स्तुति करके कहा-हे विष्णु! यह आपने क्या किया ? आप तो धर्मस्वरूप हैं। यदि आप हमारे स्वामी गजराज को जीवित नहीं करते तो हम सबके मारने का अपराध आप पर लगेगा । तब विष्णुजी ने प्रसन्न होकर हाथी के धड़ से एक और शीश लगा कर उसे जीवित कर दिया और कहा-तुम एक कल्पतक जीवित रहोगे।

इस प्रकार विष्णुजी वहाँ से हाथी का सिर लेकर लौटे तथा गिरिजा के पास जाकर वह सिर दे दिया। गिरिजा ने इस शीश को युक्तिपूर्वक गणेशजी के धड़ से जोड़ दिया तथा शिवजी ने अपनी दयादृष्टि से उन्हें जीवित कर दिया। यह देखकर गिरिजा अत्यन्त प्रसन्न हुईं। उन्होंने तुरन्त ही उस बालक को दूध पिलाया तथा बहुत प्यार करके । 

विष्णुजी की प्रशंसा की। वे बोलीं- हे विष्णु! तुम शिवरूप तथा तीनों लोकों को आनन्द प्रदान करनेवाले हो। तब विष्णुजी ने प्रसन्न होकर अपने गले की कौस्तुभ मणि निकाल कर उस लड़के को पहना दी। इसी प्रकार हिमाचल, देवता, मुनि आदि सब लोगों ने अनेक आशीर्वाद दिये। 

उस समय ऐसा बड़ा उत्सव किया गया, जिसे देखकर सारी सृष्टि प्रसन्न हो गयी । देवताओं ने दुन्दुभी बजायी। गिरिजा भी अपने लड़के को खिलाने तथा प्यार करने में मग्न होकर, आनन्द सागर में डूब गयीं।

॥ पार्वती द्वारा शनिदेव को श्राप एवं सूर्य तथा यमराज का क्रुद्ध होना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! शनिश्चर लज्जा के कारण चुपचाप चिन्तायुक्त एक कोने में बैठा था। संयोग से गिरजा ने उसे देख लिया। तब वे बोलीं-हे शनिश्चर! तुमने अपनी दृष्टि से हमारे पुत्र का सिर उड़ा दिया, इसलिए मैं तुमको यह शाप देती हूँ कि तुम भी अंगहीन हो जाओगे। यह सुनकर सूर्य, कश्यप तथा यमराज को क्रोध आ गया। उन्होंने क्रोधावेश में गिरिजा को शाप देना चाहा।

उसी समय विष्णु ने मुझसे तथा अन्य देवताओं से ये कहा कि तुमलोग इनकी सेवा करके, इन्हें शान्त करो। तब मैं अन्य देवताओं के साथ उनको समझाने का प्रयत्न करने लगा। उस समय कश्यप ने कहा- मेरा पोता शनिश्चर निर्दोष है। गिरिजा ने इसके मना करने पर भी स्वयं अपने लड़के को दिखलाया हैं। इसमें शनिश्चर का क्या अपराध है ? मैं भी अब गिरिजा को अपना ब्रह्मतेज दिखलाता हूँ, जिससे गिरिजा के पुत्र का अंग-भंग होगा।

यमराज ने कहा-शनिश्चर को गिरिजा ने किस अपराध में शापित किया है ? हम भी गिरिजा को शाप देते हैं, क्योंकि शत्रु के मारने में कोई दोष नहीं । यह सुनकर मैंने यमराज को समझाते हुए कहा कि ऐसा मत करो। मेरे ऐसे वचन सुनकर यमराज का क्रोध शान्त हो गया। 

तब गिरिजा ने भी शान्त होकर शनिश्चर से कहा कि तुम सब ग्रहों के अधिपति होकर शिव के प्यारे तथा अमर हो जाओ। हमारे वर से तुम शिव के अन्य भक्त होगे। यद्यपि हमारे अपराध से खण्डित अवश्य हो जाओगे, परन्तु तुमको कोई दुःख एवं कष्ट न होगा। 

यह कहकर गिरिजा भीतर चली गयीं । हे नारद ! जब विष्णु ने गणेश के नया सिर लगा दिया और वे पुनः जीवित हो गये, उस समय आनन्द-मंगल तथा नृत्य-गायन होने लगे। सब ने गणपति को अपने भूषण दिये। तब तीनों देवता एक साथ बोले- हे पुत्र ! सर्वप्रथम तुम्हारी ही पूजा हुआ करेगी, जिससे वह कार्य बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण होगा। तुमको ब्रह्मज्ञान प्राप्त हेगा तथा तुम परमसिद्धि देनेवाले होगे ।

हे नारद ! इस प्रकार हमने अति कृपा करके गणेश को अपने समान कर लिया। फिर समस्त देवताओं की सम्मति से गणपति के ये नाम रखे गये। लम्बोदर, एकदन्त, विघ्नेश, शूपकर्ण, हेरम्ब, गणेश, गजवदन तथा विनायक । इस प्रकार उनके अनेक नाम हैं। फिर सबने गणेशजी को बहुत सी वस्तुएँ भेंट कीं। 

शिवजी ने योग तथा ब्रह्मज्ञान दिया, जो हर समय प्रसन्नता प्रदान करता है। विष्णुजी ने देवताओं सहित गणपति की बड़ी स्तुति की । इस कथा को जो मनुष्य त्रिकाल में पढ़े तो उस पर कभी भी किसी प्रकार की आपत्ति न पड़े, न उसे किसी समय भय प्राप्त हो और यदि विदेश यात्रा के समय पढ़े तो उसका उद्योग सफल हो और उसके सब कष्ट दूर हो जायँ । यह कथा बड़ी फलदायक है । 

हे नारद ! इसके पश्चात् शनिश्चर ने विष्णुजी से निवेदन किया कि आप गणपति के तेज के विषय में वर्णन करें। विष्णु ने शनिश्चर की यह विनती सुनकर गणपति का कवच कह सुनाया। हे नारद! गणपति का यह कवच अत्यन्त गुप्त एवं सिद्ध है। फिर विष्णुजी तथा मैं दोनों वहाँ से विदा होकर घर को गये । 

इतनी कथा कहकर सूतजी बोले कि हे शौनक । नारदजी ने यह कथा सुनकर सन्देह करते हुए कहा-हे पिता! मैंने गणपति की कथा और प्रकार से सुनी है तथा आपने और ही रीति से इसका वर्णन किया है। 

मैंने सुना था कि गणेजी को गिरिजा ने अपने शरीर के मैल से उत्पन्न किया था तथा शिवजी ने स्वयं ही उनका सिर काट डाला था । आप मुझे यह बतावें कि यह कहाँ तक सत्य है ?

 ॥ गणपति के जन्म का अन्य वर्णन ॥

नारद की इस शंका को सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे नारद! कल्पभेद से दूसरी रीति से गणपति ने जिस प्रकार जन्म लिया, उस कथा को मैं तुम्हें सुनाता हूँ। जब शिव ने गिरिजा के साथ विवाह किया तथा उनको घर ले आये और दैत्यों का वध करने के पश्चात् विहार में संलग्न हुए, तब संयोग से एक दिन गिरिजा की सहेलियों ने उनसे यह कहा कि देखो शिवजी के असंख्य गण हैं; तुम्हारे एक भी नहीं है। 

यद्यपि शिवजी के गण तुम्हारे अधीन हैं; तुम भी कोई गण उत्पन्न कर, उनको अपने द्वार का द्वारपाल बनाओ, जिससे उस गण की रक्षा के द्वारा किसी अन्य गण का अन्दर आने-जाने का कोई भय न रहे। तब गिरिजा ने प्रसन होकर यह कहा-सखियो! समय आने पर ऐसा ही होगा।

हे नारद! एक बार गिरिजा नन्दी को द्वार पर रक्षा के निमित्त बैठा, आप स्नान करने गयीं। उस समय शिवजी लीला करके द्वार पर आये तथा इच्छा की कि हम अन्दर जायँ, नन्दी ने उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया। तब शिवजी नन्दी को धमकाकर अन्दर चले गये। गिरिजा शिवजी की ऐसी दशा देख अन्य स्त्रियों की भांति अत्यन्त लज्जित हुईं तथा लज्जावश अपने शरीर को छिपाती हुई भाग गयीं। 

उस समय उन्होंने अपनी सहेलियों के वचन का स्मरण किया। फिर कई दिनों के पश्चात् गिरिजा ने इच्छा की कि एक ऐसा गण उत्पन्न होना चाहिए, जो मेरे अधीन हो तथा अत्यन्त बलवान, पराक्रमी और शिव के गणों से भी अधिक तेजस्वी हो। यह विचार कर गिरिजा ने अपने शरीर से मैल निकाल, एक मूर्ति स्थापित की तथा उसे गणपति नाम देकर जीवन दान दिया। 

वह बालक अत्यन्त सुन्दर, रूप के सागर के समान उत्पन्न हुआ। उस समय गिरिजा अत्यन्त प्रसन्न होते हुए बोलीं कि तुम हमारे पुत्र तथा श्रेष्ठ गण हो। फिर उसके साथ लाड़-प्यार किया तथा अत्यन्त प्रसन्न होकर भूषण एवं वस्त्र दिये। 

तब गणपति ने गिरिजा को प्रणाम करते हुए कहा- हे माता! आप जो काम मुझे सौंपेंगी, मैं उसे भली-भाँति पूरा करूंगा। यह सुनकर गिरिजा ने कहा-हे पुत्र! तुम हमारे द्वारपाल हो जाओ। हमारी आज्ञा बिना कोई भी अन्दर न आने पावे। इतना कहकर गिरिजा ने गणपति को हृदय से लगाकर द्वार पर बैठा दिया ।

हे नारद! गणेशजी गिरिजा के आदेशानुसार हाथ में डंडा लेकर द्वार पर बैठे। तदुपरान्त गिरिजा ने स्नान का विचार कर, सब सेवकों से सामग्री एकत्र करने को कहा तथा स्नान करने के लिए बैठीं। इतने में ही शिवजी गणों सहित वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने गणों को बाहर छोड़कर अन्दर जाने की इच्छा की; परन्तु गणपति ने उनको रोकते हुए कहा कि अभी अन्दर जाने का समय नहीं है, क्योंकि इस समय मेरी माता स्नान कर रही हैं। 

यह कहकर उन्होंने अपने डंडे को आगे कर, शिवजी को आगे बढ़ने से रोक दिया। तब शिवजी ने उनसे कहा कि तुम कौन हो जो मुझे नहीं पहिचानते तथा मुझको भीतर नहीं जाने देते! हम गिरिजा के पति शिव इस मन्दिर के स्वामी हैं। तुम किसके पुत्र हो? यह कहकर शिवजी अन्दर को चले। 

यह देखकर गणपति ने तुरन्त ही अपना डंडा शिवजी को मारा तथा कहा- तुम कौन शिव हो, और किस कार्य के लिए हमारी माता के पास जाते हो ? हम बिना अपनी माता की आज्ञा के किसी को भी, चाहे वह कोई भी क्यों न हो, अन्दर नहीं जाने देंगे। शिवजी इन शब्दों की कोई भी चिन्ता न कर अन्दर जाने लगे, तब गणपति ने पुनः उनको डंडा मारा। 

तब उन्होंने अपने सब गणों को बुलाया और कहा कि तुम जाकर इससे पूछो कि यह कौन है ? शिवजी की आज्ञानुसार गणों ने आकर गणपति से पूछा तो गणपति ने उत्तर दिया कि हम गिरिजा के पुत्र हैं, तुम लोग कौन हो जो हमसे यह पूछने आये हो ? यह सुनकर गणों ने शिवजी से सारा वृत्तान्त कहते हुए कहा-हे प्रभो! वह वहाँ से नहीं उठता।

तब शिवजी ने गणों को यह आज्ञा दी कि तुम इसे द्वार से हटा दो। उस समय गणों ने गणपति को उठाने का बहुत प्रयल किया, लेकिन वे न उठे। परस्पर झगड़ा होने लगा। इसी समय शिवजी वहाँ आ गये तथा भीतर से गिरिजा ने भी यह कोलाहल सुनकर अपनी सहेलियों को भेजते हुए कहा कि तुम बाहर जाकर देखो कि वहाँ क्या हो रहा है।

॥ गणपति द्वारा शिवगणों से युद्ध का वृत्तान्त ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! वहाँ से लौटकर सहेलियों ने आँखों देखा सब हाल गिरिजा को सुना दिया और कहा-न जाने शिवजी की क्या आदत है कि वे सदैव कुसमय आया करते हैं। यह सुनकर गिरिजा ने अपनी सहेलियों से कहा कि तुम गणपति से जाकर कह दो कि शिव इस समय किसी प्रकार भी भीतर न आने पावें। सहेली ने तुरन्त ही यह आज्ञा गणपति को जाकर सुना दी। 

तब गणपति ने शिवजी के गणों से कहा कि मेरी आज्ञा के बिना बलपूर्वक तुम्हारा भीतर जाना असम्भव है, मैं सब तरह से तैयार हूँ तुम्हारी जो इच्छा हो वह करो। शिवजी के गण गणपति के ऐसे शब्द सुनकर दुःखी हुए तथा शिवजी के पास जाकर उन्होंने सब वृत्तान्त कह सुनाया। तब शिवजी ने कहा कि वह तो अकेला और तुम इतने हो, सब एकत्र होकर उससे युद्ध क्यों नहीं करते ? शिवजी इतना कहकर चुप हो गये।

हे नारद! शिवजी की लीला कैसी अद्भुत है कि जो शिवजी केवल एक बाण द्वारा ही सम्पूर्ण सृष्टि को नष्ट कर सकते हैं, वही शिव अपने पुत्र के साथ लीला करके युद्ध की इच्छा रखते हैं। शिवजी की आज्ञा पाकर सब गण शस्त्र आदि लेकर गणपति के समीप पहुँचे और बोले- हे बालक! तू क्या चाहता है, अब तू जलकर भस्म हो जायगा। 

अब तक हमने तेरी ढिठाई सहन की है लेकिन अब सहन नहीं कर सकते। यह सुनकर गणपति ने सहनशीलतापूर्वक उत्तर दिया-तुम ऐसी बढ़-बढ़ कर बातें क्यों करते हो ? तुम तो बड़े वीर मालूम होते हो, मैं तो एक अज्ञान बालक हूँ। मैंने कभी किसी युद्ध को आँखों से देखा तक नहीं है और तुम अनेक युद्धों में भाग ले चुके हो, फिर भी मैं युद्ध से मुख न मोडूंगा। 

शिवजी गिरिजा-पुत्र के इस बल एवं धीरता को देखकर धन्य-धन्य कहने लगे। शिव के गणों ने यह सुनकर गणपति पर आक्रमण कर दिया। दोनों ओर से घोर युद्ध होने लगा। शिवजी के गणों ने शूल, बाण आदि सब शस्त्र गणपति के ऊपर चलाये, परन्तु गणपति ने उन्हें अपने दंड़ से ही काट डाला तथा सब को युद्धभूमि से भगा दिया। 

शिवजी के गणों ने कहा- न जाने इस छोटे से बालक ने यह वीरता कहाँ से प्राप्त की है ? इसके पश्चात् उन सब ने गणपति को पुकारकर कहा कि अब तक तो हमने तुमको बच्चा समझकर छोड़ दिया, अब नहीं छोड़ेंगे। यह कहकर उन्होंने गणपति पर अनेक शस्त्रों द्वारा आक्रमण किया। 

गणपति ने भी उनके आक्रमणों का उत्तर दिया। तब दोनों ओर से घोर युद्ध हुआ, शिवगणों ने पराजित होकर वहाँ से भाग गये तथा गणपति उसी प्रकार द्वार पर बने रहे।

॥ देवताओं का गणपति से युद्ध में पराजित होना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! शिवजी ने ऐसी विचित्र लीला करके अपने गणों का गर्व दूर कर दिया तथा अपनी शक्ति प्रकट करके दिखायी कि तीनों भुवन उनकी शक्ति के आधीन हैं। 

हे नारद! तब इसके पश्चात् जब तुमने यह हाल विष्णुलोक में जाकर विष्णु से कहा तो इस पर विष्णुजी आश्चर्य करने लगे। फिर मैं, देवता तथा विष्णुजी आदि ने शिवजी के समीप पहुँच कर उन्हें प्रणाम किया तथा विनय के साथ कहा-हे सदाशिव! इस समय आपने कौन सी लीला कर रखी है?

तब शिवजी ने उत्तर दिया-हमारे द्वार पर एक विकट बालक खड़ा है, वह प्रलय कर देगा। इसलिए तुम जाकर किसी प्रकार उसको प्रसन्न करो। यह सुनकर हम सबने कहा- हे प्रभो! यह सब आपकी ही लीला है कि एक बालक इस प्रकार युद्ध कर रहा है। यह कहकर सब लोग गणपति के पास गये। गणपति ने हम सबको आते हुए देख एक बाल उखाड़ लिया और उससे हमें मारने की इच्छा प्रकट की। 

यह देखकर हमलोगों ने उनके पास जाकर यह कहा कि आप हमें क्षमा कर दें, हममें से कोई भी आपसे युद्ध करने की इच्छा नहीं रखता। मैंने इतना ही कहा था कि गणपति ने तुरन्त अपने दंड को सम्हाल लिया। उस समय हम सब लोग वहाँ से लौट कर शिवजी के पास गये। 

तब शिवजी ने क्रोधित होकर इन्द्रादि से कहा कि तुम जाकर उस बालक का वध करो, जिससे तुम्हें यश प्राप्त होगा। शिवजी की आज्ञा पाकर इन्द्र आदि देवताओं ने युद्ध के लिए तत्पर होकर गणपति के ऊपर बाण तथा अन्य शस्त्रों की वर्षा की। 

उसी समय शिव तथा गिरिजा ने दो शक्तियाँ उत्पन्न कीं; जो तुरन्त युद्धस्थल में पहुँचकर दोनों ओर के शस्त्र अपना मुँह खोलकर निगल जाती थीं। जिस प्रकार पर्वत समुद्र के बीच में स्थिर रहता है उसी प्रकार अकेले गणपति ने समस्त सेना को दुःखी कर दिया। तब सब देवता निःशस्त्र हो, खाली हाथ युद्धस्थल में खड़े रहे और बोले कि अब हम क्या करें, हमारे पास तो कोई शस्त्र भी नहीं रहा। उस समय केवल वीरभद्र को यह दिखाई देता था कि दोनों शक्तियों ने प्रकट हो कर देवताओं को इस प्रकार दुःखी किया है।

हे नारद! अन्त में तुमने देवताओं सहित शिवजी के पास जाकर कहा-हे प्रभो! हमको ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब लीला आपकी ही है। यदि आप इस समय कुछ नहीं करते तो अवश्य ही प्रलय हो जायगा। तब शिवजी की आज्ञानुसार इन्द्र, वरुण, यमराज आदि ने पहुँचकर गणपति के ऊपर अपने शस्त्रों से आक्रमण किया; लेकिन वे सब व्यर्थ हो गये।तब सब देवताओं ने वहाँ से भागकर शिवजी के चरणों में शरण आये। 

हे नारद! उस समय तुमने शिवजी से कहा-हे शिवशंकर! आप संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं। यदि गिरिजा का यह गण जीवित रहा तो प्रलय कर देगा। इसलिए आप इस गण का सिर काट लीजिए । यह कहकर तुम चुप हो गये तथा शिवजी यह सुनकर हँसने लगे।

॥ विष्णु द्वारा गणपति का वध ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! शिवजी तुम्हारे यह वचन सुनकर युद्ध के लिए अपने उत्तमोत्तम शस्त्र लेकर तैयार हुए। उन्होंने अत्यन्त क्रोधित होकर विष्णु तथा अन्य प्रसिद्ध गणों को साथ लेकर अपना डमरू बजा दिया । डमरू की ध्वनि सुनकर वे समस्त देवता, जो कई बार युद्ध भूमि से पराजित होकर भाग आये थे, पुनः वीरता से गर्जन करने लगे। 

विष्णुजी ने स्वयं भी गणेश से युद्ध किया। जो शस्त्र विष्णु ने गणपति के ऊपर प्रलय की अग्नि के समान चलाया, उसे गणेशजी ने अपने डंडे से दो खंड कर डाला। तब विष्णुजी ने देर तक युद्ध करने के पश्चात् शिवजी से कहा-हे प्रभो! अब मैं इस गण का वध किये डालता हूँ। शिवजी बोले- बहुत अच्छा। 

तब गणपति ने उस समय इतनी बीरता दिखायी कि सब देवता युद्ध भूमि से पीठ दिखाकर भाग गये। ये देखकर विष्णुजी ने अपने मुख से गणेश की प्रशंसा करते हुए कहा कि तुम्हें अनेक धन्यवाद हैं, क्योंकि आज तक कोई भी इतनी वीरता से हमारे साथ नहीं लड़ा है। 

विष्णुजी यह कह ही रहे थे कि गणपति ने अपना परिघ उठाकर मारा, विष्णुजी ने अपने परिघ से उसे काट डाला। फिर गणपति ने एक शस्त्र विष्णुजी के वक्ष में मारा, जिसको विष्णुजी सहन न कर सके तथा धरती पर अचेत होकर गिर पड़े। उस समय चारों ओर हाहाकार मच गया; थोड़ी देर पश्चात् विष्णुजी शिवजी की कृपा से पुनः उठ खड़े हुए। 

इसी प्रकार बहुत देर पश्चात् तक दोनों में युद्ध होता रहा, दोनों में से कोई किसी को परास्त न कर सका । निदान विष्णुजी ने गणपति पर एक साथ असंख्य बाणों की वर्षा की तथा अपनी विजय के विचार से अपना शंख बजाया। इनके शंख की ध्वनि सुनकर सब देवता लौटकर फिर युद्ध करने लगे। 

फिर एक साथ सब देवताओं ने गणपति पर आक्रमण कर दिया, गणपति ने गिरिजा का स्मरण करके अपनी मुष्टिका द्वारा सब देवताओं के शस्त्र व्यर्थ कर डाले तथा इतने वेग से अपने शस्त्र चलाये, जो किसी को दिखाई न देते थे। उस समय समस्त देवता आश्चर्यचकित हुए, पृथ्वी काँपने लगी तथा पर्वत हिलने लगे। ऐसा प्रतीत होता था कि अब प्रलय होने ही वाला है। 

तब विष्णुजी सबको दुःखी देख तथा प्रलय के चिह्न देखकर तुरन्त गणपति पर कूद पड़े तथा वेग से दौड़कर गणपति का सिर चक्र से काट डाला। यह देखकर मैं तथा अन्य सभी देवता आदि निर्भय होकर अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा शिवजी की स्तुति करने लगे।

॥ गिरिजा द्वारा शक्तियों की उत्पत्ति एवं गणपति का पुनर्जीवित होना ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! तब तुमने युद्ध का विस्तार इस प्रकार से प्रकट कर कहा-हे गिरिजे! देवता कितने दुष्ट हैं कि उन्होंने आपके पुत्र का वध निद्रयता के साथ कर डाला है। उन्होंने आपके प्रताप एवं तेज का कोई विचार नहीं किया।  आपको अब यही उचित है कि आप अपना तेज देवताओं को दिखा दें, जिससे वे अपने कर्मों का फल पावें तथा आपकी भी कीर्ति बनी रहे ।

यह कहकर तुम वहाँ से चले गये। गिरिजा तुम्हारे मुख से अपने गण की यह दुद्रशा सुन रो उठीं तथा शोकाकुल हो मूच्छित हो गयीं। फिर अपने शरीर से उन्होंने सौ शक्तियाँ उत्पन्न कीं और सोचा कि उन शक्तियों के द्वारा समस्त सेना को नष्ट कर डालें। उन शक्तियों का स्वरूप बहुत ही उग्र था, शरीर महाविकराल तथा अंग-वदन बहुत ही भयानक थे। 

उन्होंने हाथ जोड़कर गिरिजा से निवेदन किया कि आप हमें जो आज्ञा दें, हम उसे पूरा करेंगी । तब गिरिजा ने क्रोधावेश में उनसे कहा कि जितने देवता सेना में हैं, तुम उन सबको खा जाओ, एक भी शेष न बचने पावे, क्योंकि उन्होंने हमारे पुत्र को मारा है। गिरिजा के आदेशानुसार वे सब शक्तियाँ युद्धस्थल में पहुँचकर देवताओं का भक्षण करने लगीं। 

उस समय विष्णुजी, मैं तथा समस्त देवता दुःखी होकर कहने लगे कि वास्तव में प्रलयकाल आ गया है अथवा शिवजी ने अपनी शक्ति प्रकट की है। यह कहकर हम सब ने शिवजी की ओर दृष्टिपात किया।

हे नारद! उस समय तुमने शिवजी की आज्ञा से सब लोगों से यह कहा कि जब तक गिरिजा को प्रसन्न न किया जायेगा, तब तक यह प्रलयरूपी कष्ट किसी प्रकार भी दूर न होगा। यह सुनकर हम तथा सब देवता गिरिजा के समीप जाकर; हाथ जोड़ मस्तक झुका; स्तुति करने लगे तथा यह निवेदन किया- हे गिरिजे! वास्तव में हम सब अपराधी हैं। अब आप हम सबको क्षमा करें। यह सुनकर गिरिजा ने उत्तर दिया-हे देवताओ! यदि हमारा पुत्र जीवित हो जाय तथा समस्त देवता पहिले उसकी पूजा करें तब हम प्रलय नहीं होने देंगे। 

यह सुनकर देवताओं ने यह हाल शिवजी से जाकर कहा। उसे सुनकर शिवजी ने गणपति के शरीर को अच्छी तरह धोकर कहा कि उत्तर की ओर जाओ और जो जीव सर्वप्रथम मिले, उसी का सिर काट कर इसके शरीर में जोड़ दो, तब यह जीवित हो जायेगा। शिवजी की आज्ञानुसार विष्णुजी ने वन जाकर प्रशूलभद्रा नदी के वन में एक हाथी को अपने बच्चे सहित हथिनी के साथ सोते हुए देखा। 

उन्होंने तुरन्त हाथी का सिर काट लिया तथा अपने गरुड़ पर रखकर जैसे ही चलना चाहा, उसी समय हथिनी जाग उठी। उसने विष्णुजी की बहुत स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर विष्णुजी ने दूसरा सिर उत्पन्न कर उस हाथी के धड़ से जोड़ दिया, तब वह हाथी भी पुनः जीवित हो गया। 

फिर विष्णुजी ने उसे आशीर्वाद दिया, कि तुम एक कल्प तक जीवित रहोगे। इसके पश्चात् विष्णुजी हाथी के सिर को लेकर शिवजी के पास पहुँचे तथा उसे गणपति के धड़ से जोड़ दिया। उस समय शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें जीवनदान दिया, इस प्रकार सबके दुःख दूर हो गये तथा आनन्द प्राप्त हुआ।

॥ देवताओं द्वारा गणपति की पूजा ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! गिरिजा ने अपने पुत्र को पुनः जीवित देखकर आनन्दोत्सव मनाया और उन्हें अनेक प्रकार के वस्त्र देकर कहा-हे पुत्र! इस समय हम तुम्हारे भाल पर सिन्दूर देखती हैं, इसलिए तुम्हारी पूजा सिन्दूर से हुआ करेगी। जो तुम्हारी पूजा करेगा, उसके पास सिद्धियाँ बनी रहेंगी। शिवजी ने भी अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा-हे देवताओ! यह हमारा ही पुत्र है, इसका नाम गणपति है। 

गणपति ने भी उठकर सबको प्रणाम किया तथा कहा-हे देवताओ! आप मेरा अपराध क्षमा करें। तब तीनों देवताओं ने प्रसन्न होकर कहा-हे गणपति! तुम्हारी पूजा हम तीनों देवताओं के समान ही होगी। जो सर्वप्रथम तुम्हारी पूजा न करेगा, उसको पूजा का कुछ भी फल प्राप्त न होगा। 

यह कहकर सबने प्रथम गणपति की पूजा की तथा प्रणाम कर यह वरदान दिया कि तुम भाद्रकृष्ण चतुर्थी को उत्पन्न हुए हो, इसलिए तुम्हारा व्रत चौथ को हुआ करेगा। तुम्हारा व्रत करनेवाले भक्त सुखी एवं प्रसन्न रहेंगे। 

सबको तुम्हारी सेवा से आनन्द प्राप्त होगा और सबको तुम्हारी पूजा आदि करनी चाहिए। इसके पश्चात् विष्णुजी तथा अन्य सब देवताओं ने गणपति की अत्यन्त उत्तम एवं पवित्र स्तुति की। 

इतनी कथा सुनाकर सूतजी बोले-हे मुनियो! जब ब्रह्माजी इतना कह चुके तो वे अत्यन्त आननद में मग्न हो गये। उसी आनन्द में उन्होंने गणेश की एक स्तुति बना कर नारद को सुनायी। फिर कहा-हे नारद! इसके पश्चात् शिवजी से विदा होकर समस्त देवता वहाँ से चले गये ।

॥ गणपति एवं स्कन्द द्वारा पृथ्वी परिक्रमा का वर्णन एवं गणपति के विवाह का वृत्तान्त ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! गिरिजा के दोनों पुत्र स्कन्द तथा गणपति नित्य प्रातःकाल उठकर शिवजी तथा गिरिजा को प्रणाम करते थे। दोनों भाइयों का दिन-प्रतिदिन प्रेम बढ़ने लगा। 

एक दिन शिवजी गिरिजा से बोले-हे गिरिजा! हमारी यह प्रबल इच्छा है कि अब हमारे पुत्रों के विवाह हो जायँ। हमको स्कन्द एवं गणपति दोनों समानरूप से प्रिय हैं। पहिले हम किसका विवाह करें ? उस समय माता-पता से विवाह की चर्चा सुनकर स्कन्द एवं गणपति दोनों परस्पर झगड़ने लगे। स्कन्द कहने लगे कि पहिले हमारा विवाह होना चाहिए और गणपति कहते थे कि पहिले हमारा। 

यह देखकर शिव एवं गिरिजा ने दोनों को बुलाकर कहा कि तुम दोनों समवयस्क हो। हम तुमसे इस बात की प्रतिज्ञा करते हैं कि तुम दोनों में से जो सर्वप्रथम सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके लौट आयेगा, उसी का विवाह हम पहिले कर देंगे। यह सुनकर दोनों भाई पृथ्वी की परिक्रमा के लिए चल दिये। 

तभी गणपति ने यह सोचा कि मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि मैं संसारभर की शीघ्र परिक्रमा कर सकूँ, तब मैं क्या करूँ ? उसी समय उन्हें एक युक्ति सूझी। वे स्नान कर माता-पिता के सम्मुख खड़े हुए तथा विनती की कि हम आपकी पूजा करेंगे  आप पूजन के स्थान पर बैठिये। 

यह सुनकर शिवजी एवं गिरिजा दोनों पूजा के आसन पर बैठ गये। तब गणपति ने उनकी परिक्रमा कर, उन दोनों की यथा विधि पूजा की। उस समय माता-पिता ने कहा-हे गणपति! स्कन्द तो संसार की परिक्रमा के लिए जा चुके, अब तुम भी परिक्रमा के लिए जाओ।‌ यह सुनकर गणपति ने विनय की कि हे माता-पिता क्या मैंने पृथ्वी की परिक्रमा नहीं कर ली ? 

आप धर्ममूर्ति होकर ऐसा क्यों कहते हैं। शिव-गिरिजा ने गणपति के मुख से ऐसे वचन सुनकर आश्चर्यचकित होकर कहा-हे गणपति! तुम संसार की परिक्रमा कब कर आये ? तब गणपति ने यह उत्तर दिया-आपको वेद त्रिभुवन का रूप मानते हैं, सो मैंने आपकी परिक्रमा कर क्या तीनों लोकों की परिक्रमा नहीं की ? 

इसके सिवाय वेद लिखते हैं कि जो मनुष्य माता या पिता की परिक्रमा करता है, उसको संसार भर की परिक्रमा का फल प्राप्त होता है। पुत्र के लिए माता-पिता के चरण ही सबसे बड़े तीर्थ हैं। अब आप या तो वेद के मार्ग को ही त्याग दें, नहीं तो मेरा विवाह कर दें।

हे नारद! शिव एवं गिरिजा गणेश के ऐसे चातुर्यपूर्ण वचन सुनकर अत्यन्त चिन्तित हुए तथा उनकी यह चतुराई देखकर प्रसन्नता भी हुई । तब उन्होंने कहा-हे गणेश! तुमको शुभ मति उत्पन्न हुई है, इसीलिए तुमने ऐसे धर्म के वाक्य कहे, हम तुमसे कहते हैं कि तुम्हारा यह कथन वेद, पुराण एवं शास्त्रों के समान विश्वास के योग्य प्रमाणित माना जायेगा।

इसके अनुसार हम पहिले तुम्हारा ही विवाह करेंगे। तब शिवजी की इच्छा जानकर विश्वरूप ने अपनी दो पुत्रियों को, जिनका नाम सिद्धि एवं ऋद्धि था, गणपति से साथ विवाह किया। विवाह में उसी प्रकार सब बातें हुईं, जिस प्रकार शिवजी के विवाह में हिमाचल की ओर से हुई थीं। 

ऐसी सुन्दर तथा कुशल स्त्रियाँ पाकर गणपति अत्यन्त प्रसन्न हुए। कुछ समय के पश्चात् गणपति के दो पुत्र उत्पन्न हुए। सिद्धि से क्षेम तथा ऋद्धि से लाभ उत्पन्न हुए। समस्त संसार में उनके समान कोई पंडित तथा कलाकार न हुआ। इतने ही में स्कन्द भी सम्पूर्ण संसार की परिक्रमा पूरी कर लौट आये। 

हे नारद! उस समय तुमने पहिले स्कन्द को बहुत भड़काया तथा यह कहा-हे स्कन्द! देखो, तुमको माता-पिता ने बहकाकर तुम्हारे पीछे गणपति का विवाह कर दिया। गणपति ने दो स्त्रियों से दो पुत्र भी उत्पन्न किये हैं। मेरी समझ में तो उन्होंने यह काम उचित नहीं किया। 

जो माता-पिता स्वयं ही अपनी सन्तान को बेचें या विष दें या उसका राज्य, धन, द्रव्य आदि लूट लें, तब मनुष्य किसके पास जाकर अपना दुःख कहे ? इसमें पुत्र को यही उत्तम है कि वह फिर ऐसे माता-पिता का मुँह न देखे ।

हे नारद! इस प्रकार की बातें करने से तुम्हारा तेज घट गया। तब स्कन्द अपने माता-पिता के पास गये। वहाँ माता-पिता की स्तुति करने के पश्चात् वे अत्यन्त दुःखी होकर क्रौंच पर्वत पर चले गये। यद्यपि उन्हें वहाँ जाने से माता-पिता ने बहुत रोका, परन्तु स्कन्दजी नहीं लौटे। 

हे नारद! शिवजी के चरित्र ऐसे आश्चर्यजनक हैं कि उनको कोई नहीं जान पाता। हे नारद! स्कन्दजी क्रौंच पर्वत में जबसे स्थित हुए, तबसे वहाँ की दशा ही बदल गयी। वह पर्वत यश में वृद्धि करनेवाला,पापों को घटाने वाला तथा अत्यन्त आनन्ददायक हो गया। 

स्कन्दजी तब से उसी पर्वत पर वास करते हैं। उनके दर्शनों से समूल पाप नष्ट हो जाते हैं। प्रत्येक मास की पूर्णमासी के दिन समस्त देवता एवं मुनि एक-साथ वहाँ जाकर स्कन्द के दर्शन करके कृतार्थ होते हैं। जो कोई उस दिन मल्लिकार्जुन के दर्शन करता है, उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं। 

यद्यपि शिव एवं गिरिजा ने कई बार क्रौंच पर्वत पर जाकर स्कन्द को मनाकर लौटा लाने का प्रयन किया,लेकिन स्कन्दजी वहाँ से लौटकर नहीं आये, वरन् शिवजी के आने का समाचार जानकर उन्होंने यही इच्छा की कि वहाँ से कहीं और दूर जाकर वास करें। इसीलिए वे वहाँ से तीन योजन दूर जाकर स्थित हुए। शिवजी वहाँ पर हर पूर्णमासी को जाते हैं। 

हे नारद! हमने तुमको स्कन्द तथा गणपति का यह चरित्र सुनाया, जिसके सुनने एवं कहने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। मल्लिकार्जुन स्थान का यश वेद गाते हैं। गणपति के इस चरित्र को जो कोई सुनेगा, वह संसार में आनन्द तथा अन्त में शिवजी के धाम को प्राप्त करेगा।

इति श्री शिवपुराणे ब्रह्मानरसंवादे भाषायां चतुर्थो खण्डसमाप्तः ॥ 4 ॥