श्री जगदम्बिकायै नमः

श्रीमद् देवी भागवत पहला स्कन्ध


व्यास जी का जाना, नारद जी का मिलना और भगवान विष्णु तथा ब्रह्मा में हुए प्राचीन संवाद का वर्णन करते हुए व्यास जी को देवी की उपासना करने के लिये कहना


ऋषियोंने पूछा-महाभाग सूतजी ! व्यासजीकी किस भार्यासे शुकदेवजी प्रकट हुए? कैसे उनका आविर्भाव हुआ और वे ऐसे किन गुणोंसे सम्पन्न थे कि उन्होंने संहिताओंका भलीभाँति अध्ययन कर लिया ? महामते! आपने कहा है, शुकदेवजी अयोनिज हैं, अरणिसे उनका प्राकट्य हुआ है। इन बातोंसे हमें महान् आश्चर्य हो रहा है। इनका स्पष्टीकरण करनेकी कृपा कीजिये ।


सूतजी कहते हैं-प्राचीन समयकी बात है, सत्यवतीनन्दन व्यासजी सरस्वती नदीके तटपर विराजमान थे। उनके आश्रमपर दो गौरैया पक्षी थे। उन्हें देखकर वे आश्चर्यमें पड़ गये। उन्होंने देखा पक्षी अपने घोंसलेमें थे । उनका एक सुन्दर बच्चा अभी-अभी अंडेसे बाहर निकला था। उस बच्चेके सभी अंग बड़े सुन्दर थे और अभी पाँख और रोओंसे वह रहित था। दोनों पक्षी उस बच्चेको आहार पहुँचानेके लिये असीम प्रयत्न कर रहे थे। बारम्बार दाने ला- लाकर उन्हें बच्चेके मुखमें डालना उनका प्रधान कर्तव्य बन गया था। वे आनन्दमें विह्वल होकर उस बच्चेके अंगोंको अपने अंगोंसे रगड़ते और प्रेमपूर्वक मुख चूमा करते थे। उन गौरैयोंका अपने बच्चेमें ऐसा अद्भुत प्रेम देखकर व्यासजीने अपने मनमें विचार किया कि जब पक्षी अपने पुत्रके प्रति इतना स्नेह कर रहे हैं, तब मनुष्योंका संतानोंमें प्रेम हो– इसमें कौन-सी विचित्र बात है; क्योंकि उन्हें तो पुत्रोंसे सेवा पानेकी अभिलाषा बनी रहती है।


सत्यवतीनन्दन व्यासजी इस प्रकारके विविध विचारोंमें उलझकर उदास हो गये। मन ही मन बहुत कुछ सोच-समझकर बात निश्चित कर ली और वे मन्दराचल पर्वतके निकट चले गये। विचार किया, 'मेरे मनोरथ पूर्ण करने एवं वर देनेमें निपुण कौन देवता हैं, जिनकी मैं उपासना करूँ ?


भगवान् विष्णु, शंकर, इन्द्र, ब्रह्मा, सूर्य, गणेश, स्वामी कार्तिकेय, अग्नि अथवा वरुण-मुझे किनकी उपासना करनी चाहिये ?' इस प्रकार व्यासजी सोच रहे थे,  इतनेमें ही स्वच्छन्दगति मुनिवर नारदजी हाथमें वीणा लिये हुए वहाँ पधारे। मुनिको देखकर व्यासजीको अपार हर्ष हुआ। उन्होंने पाद्य एवं अर्घ्य-प्रदानकी समुचित व्यवस्था की। साथ ही कुशल- समाचार पूछा। कुशल प्रश्न सुन लेनेके पश्चात् मुनिवर नारदजीने व्यासजीसे पूछा- 'द्वैपायन! तुम क्यों इतने चिन्तित दीख रहे हो ? अपनी चिन्ताका कारण बतलाओ' ।


व्यासजीने कहा-सुना गया है कि पुत्रहीनकी गति नहीं होती और मानसिक सुख भी उसे सुलभ नहीं हो सकता। इसलिये मैं बहुत दुःखी  हूँ, और यही चिन्ता मुझे बार-बार बेचैन किये। डालती है। अब मैं मनोरथ पूर्ण करनेवाले किस देवताकी उपासना करूँ ? इस विचार- धारामें गोते खा रहा है। इस परिस्थितिमें अब आप ही मेरे आश्रय हैं। महर्षे! आप सब कुछ जाननेवाले एवं कृपाके समुद्र हैं। शीघ्र बतानेकी । कृपा कीजिये कि मैं किन देवताकी शरण में जाऊँ, जो मुझे पुत्र दे सकें।


सूतजी कहते हैं-इस प्रकार व्यासजीके पूछनेपर महामना नारदजी अत्यन्त प्रेमपूर्वक उनसे कहने लगे।


नारदजीने कहा- महाभाग व्यासजी! तुम इस विषयमें जो पूछ रहे हो, ठीक यही प्रश्न मेरे पिताजीने भगवान् श्रीहरिसे किया था। देवाधिदेव भगवान् जगत्के स्वामी हैं। लक्ष्मीजी उनकी सेवामें उपस्थित रहती हैं। दिव्य कौस्तुभमणि उनकी शोभा बढ़ाती है। वे शंख, चक्र और गदा लिये रहते हैं। पीताम्बर धारण करते हैं। चार भुजाएँ हैं। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न चमकता रहता है। वे चराचर जगत्के आश्रयदाता हैं, जगद्गुरु एवं देवताओंके भी देवता हैं। ऐसे जगत्प्रभु भगवान् श्रीहरि महान् तप कर रहे थे। उनकी समाधि लगी थी। यह देखकर मेरे पिता ब्रह्माजीको बड़ा आश्चर्य हुआ। अतः उन्होंने उनसे जाननेकी इच्छा प्रकट की।


ब्रह्माजीने पूछा- प्रभो! आप देवताओंके अध्यक्ष, जगत्के स्वामी और भूत, भविष्य एवं वर्तमान- सभी जीवोंके एकमात्र शासक हैं। भगवन्! फिर आप क्यों तपस्या कर रहे हैं और किस देवताकी आराधनामें ध्यानमग्न हैं? मुझे असीम आश्चर्य तो यह हो रहा है कि आप देवेश्वर एवं सारे संसारके शासक होते हुए भी समाधि लगाये बैठे हैं। प्रभो! आपके नाभि- कमलसे तो मेरी उत्पत्ति हुई और वह मैं अखिल विश्वका रचयिता बन गया। फिर आप जैसे सर्वसमर्थ पुरुषसे बढ़कर कौन विशिष्ट देवता है, उसे बतानेकी कृपा अवश्य कीजिये । जगत्प्रभो! मैं तो यही जानता हूँ कि सबके कारणस्वरूप आदिपुरुष परमात्मा आप ही हैं। आपमें सारी शक्तियाँ स्थित हैं। सृष्टि, स्थिति । और संहार तथा सभी कार्योंके करनेवाले आप ही हैं। महाराज! आपकी इच्छासे ही मैं इस जगत्की रचना करता हूँ। भगवान् शंकर भी आपकी आज्ञा पानेपर ही समयानुसार सदा संहारलीलामें प्रवृत्त होते हैं। भगवन्! सूर्यका आकाशमें चक्कर लगाना, सुखदायी पवनका चलना, अग्निका जलना और मेघका बरसना आदि सभी कार्य आपकी आज्ञापर ही निर्भर हैं। मुझे तो महान् कौतूहल यह हो रहा है कि आप किस देवताका ध्यान कर रहे हैं। त्रिलोकीमें आपसे बढ़कर किसी देवताको मैं नहीं देखता अतएव सुव्रत। मुझ दासको यह रहस्य स्पष्ट बतानेकी कृपा कीजिये; क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष किसी बातको छिपाते नहीं- स्मृतियाँ भी यही कहती हैं।




ब्रह्माजीके ये विनीत वचन सुनकर भगवान् श्रीहरि उनसे कहने लगे— 'ब्रह्मन्! सावधान होकर सुनो। मैं अपने मनका विचार व्यक्त करता हूँ। देवता, दानव और मानव- सब यही जानते हैं कि तुम सृष्टि करते हो, मैं पालन करता हूँ और शंकर संहार किया करते हैं, किंतु फिर भी वेदके पारगामी पुरुष अपनी युक्तिसे यह सिद्ध करते हैं कि रचने, पालने और संहार करनेकी यह योग्यता जो हमें मिली है, इसकी अधिष्ठात्री शक्तिदेवी हैं। 


वे कहते हैं कि संसारकी सृष्टि करनेके लिये तुममें राजसी शक्तिका संचार हुआ है, मुझे सात्त्विकी शक्ति मिली है और रुद्रमें तामसी शक्तिका आविर्भाव हुआ है। उस शक्तिके अभावमें तुम इस संसारकी सृष्टि नहीं कर सकते, मैं पालन करनेमें सफल नहीं हो सकता और रुद्रसे संहारकार्य होना भी सम्भव नहीं। ब्रह्माजी! हम सभी उस शक्तिके सहारे ही अपने कार्यमें सदा सफल होते आये हैं। सुव्रत! प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों उदाहरण मैं तुम्हारे सामने रखता हूँ, सुनो। यह निश्चित बात है कि उस शक्तिके अधीन होकर ही मैं (प्रलयकालमें) इस शेषनागकी शय्या पर सोता और सृष्टि करनेका अवसर आते ही जग जाता हूँ। मैं सदा तप करनेमें लगा रहता हूँ। उस शक्तिके शासनसे कभी मुक्त नहीं रह सकता। कभी अवसर मिला तो लक्ष्मी के साथ सुखपूर्वक समय बितानेका सौभाग्य प्राप्त होता है। मैं कभी तो दानवोंके साथ युद्ध करता हूँ। अखिल जगत्‌को भय पहुँचानेवाले दैत्योंके विकराल शरीरोंको शान्त करना मेरा परम कर्तव्य हो जाता है।


धर्मज्ञ! बहुत पहले की बात कह रहा हूँ। उस समय तुम तो थे ही। चारों ओर जल-ही- जल था। मुझे पाँच हजार वर्षोंतक बाहुयुद्ध करना पड़ा था। मेरे कानके मलसे उत्पन्न होनेवाले मधु और कैटभ नामधारी दो दानव महान् दुष्ट थे । उन्हें असीम अभिमान था। भगवती आद्याशक्तिकी कृपासे ही मैं उन दैत्योंको मारनेमें सफल हो सका। महाभाग ! उस समयकी बातसे क्या तुम अपरिचित हो ? सर्वश्रेष्ठ शक्ति ही तो उस जीतमें कारण हुई थी। फिर तुम बार-बार क्यों पूछते हो। जब सर्वत्र जल ही जल शेष रहता है, तब उस शक्तिकी इच्छाके अधीन होकर मैं पुरुषरूपसे विचरा करता हूँ। प्रत्येक युगमें कच्छप, वाराह, नृसिंह और वामनरूप मुझे धारण करने पड़ते हैं। ब्रह्माजी प्राचीन समयकी बात है, एक बार धनुषकी डोरी टूटी और उसके झटकेसे मेरा मस्तक धड़से अलग हो गया। तुम बड़े कुशल शिल्पी हो, अतः तुमने घोड़ेका मस्तक मेरे धड़से जोड़ दिया। यह घटना तो तुम्हारे सामने ही घटी थी। तभीसे लोग मुझे 'हयशिरा' कहने लगे। जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्माजी! तुम इससे अपरिचित नहीं हो । मुझे सब प्रकारसे शक्तिके अधीन होकर रहना पड़ता है। उन्हीं भगवती शक्तिका मैं निरन्तर ध्यान किया करता हूँ। ब्रह्माजी! मेरी जानकारीमें इन भगवती शक्तिसे बढ़कर दूसरे कोई देवता नहीं हैं।


नारदजी कहते हैं - इस गुप्त रहस्यके वक्ता भगवान् विष्णु हैं और श्रोता ब्रह्माजी रहे। मुनिवर! फिर तो पितामहने वे सभी बातें अक्षरशः मुझे कह सुनायीं। अतएव तुम भी यदि अपना पुरुषार्थ सिद्ध करना चाहते हो तो उन्हीं भगवतीके चरण-कमलको अपने हृदयमें धारण करो। तुम्हारी जो भी अभिलाषाएँ हैं, वे सभी भगवती जगदम्बिका अवश्य पूरा कर देंगी ।


सूतजी कहते हैं - इस प्रकार नारदजीके कहनेपर सत्यवतीनन्दन व्यासजी भगवतीके चरण-कमलोंको अपने हृदयमें स्थापित करके तपस्या करनेके लिये पर्वतपर चले गये


 अध्याय 04