एक समय महर्षि श्री वेदव्यासजी के प्रधान शिष्य श्री सूतजी, जिन्होंने अपने गुरु की सेवा द्वारा बड़प्पन प्राप्त किया था, नैमिषारण्य नामक वन में भगवान् सदाशिव की तपस्या कर रहे थे। वे सदैव शंकरजी के ध्यान में मग्न रहकर उन्हीं के गुणों का कीर्तन किया करते थे। उन्हीं दिनों संयोग से शौनक ऋषि अपने साथ अन्य बहुत से ऋषियों को लेकर श्री सूतजी के पास आये तथा उनसे इस प्रकार बोले- हे सूतजी ! हमलोग संसार रूपी अथाह सागर में डूबे हुए हैं। हमारा परम सौभाग्य है कि आज हमें आपके दर्शन प्राप्त हुए। कुछ समय पश्चात् वह युग आनेवाला है, जिसमें पुराने धर्म नष्ट हो जायेंगे तथा पापाचार में वृद्धि होगी।
सबलोग उस धर्म को त्यागकर कुमार्ग पर चलने लगेंगे। चारों वर्ण इस प्रकार अपने कर्मों से पतित हो जायेंगे कि ब्राहाणवर्ण खेती करने लगेगा। ब्राह्मण छलछिद्र में अत्यन्त चतुर होंगे और अपने धर्म को भुला बैठेंगे। क्षत्रिय भी अपने जाति-धर्म को त्यागकर, युद्ध-क्षेत्र से विमुख हो, पलायनवादी बन जायेंगे तथा चोरी करने में अत्यन्त चातुरी का प्रदर्शन करेंगे । वे शूद्रों के समान कर्म कर उठेंगे और उसी अवस्था में रहकर प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। गौ की रक्षा करना वे छोड़ देंगे। इस प्रकार क्षत्रिय जाति अत्यन्त अन्यायी एवं दुखदायी हो जायेगी।
इसी प्रकार वैश्य भी अपने श्रेष्ठ धर्म को त्यागकर, पाप कर्मों द्वारा धन का संचय करेंगे एवं उत्तम मार्ग को ठुकरा देंगे। इसी प्रकार शूद्र भी अपने धर्म को त्यागकर ब्राह्मणों का कर्म करने की चेष्टा करेंगे । शूद्रों द्वारा इस प्रकार विपरीत कर्म किये जाने पर ब्राह्मणों का तेज नष्ट हो जायेगा। ऐसी दशा में सम्पूर्ण प्राणियों की आयु भी कम रह जायगी।
संसार में जब इस प्रकार अधर्म बढ़ जायगा और जातिबन्धन नष्टप्राय हो जायगा, उस समय भिक्षुकों द्वारा भिक्षा माँगे जाने पर भी उन्हें कोई कुछ दान नहीं देगा। वर्णसंकर मनुष्य अपने को उच्चकुलीन समझकर और लोगों को हेय दृष्टि को देखेंगे। स्त्रियाँ भी दुष्ट प्रकृतिवाली बनकर अपने पति की सेवा से विमुख हो जायेंगी। ऐसी अवस्था में सन्तान भी अपने माता-पिता से प्रीति रखना त्याग देगी। मनुष्यों में संयम, जप, तप, तथा शील नष्ट हो जायगा। ऐसी अवस्था में प्रतिदिन सत्य और शौच का अभाव होता जायगा ।
हे सूतजी ! ऐसे घोर कलिकाल में लोग तपस्वियों को केवल इसीलिए सम्मान देंगे कि वे उनके पुत्र आदि उत्पन्न होने की कामना को पूर्ण करने में सहायता प्रदान करें। इस युग में केवल बालों को सम्भाल लेना ही सुन्दरता का लक्षण होगा और अपने पेट को भर लेना ही सबसे श्रेष्ठ कार्य समझा जायेगा। भला, आप ही बताइए कि ऐसे घोर समय में कलियुगवासी जीव किस प्रकार मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे ? वे अपने पापों तथा सहस्त्रों दुष्कर्मों को भस्म कर सत्यपथ को अपनाने में किस प्रकार समर्थ हो सकेंगे ? आप सब प्रकार की चिन्ताओं को दूर करके प्रसन्नता प्रदान करनेवाले हैं। हमलोग इसी चिन्ता में डूबे हुए थे कि तब तक हमें आपके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हो गया।
अब कृपा करके कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे हमारी यह चिन्ता नष्ट हो जाय और हम प्रसन्नता को प्राप्त करें। संसारी जीवों का हित चाहनेवाला आपके समान और कोई नहीं है। आपने भगवान् वेदव्यासजी की अत्यन्त सेवा की है और अनेक पापियों को पापरूपी समुद्र से पार उतारा है। भगवान् कृष्णद्वैपायन ने अत्यन्त कृपा करके आपको सम्पूर्ण पुराण पढ़ाये हैं, अतः आप हम पर भी अवश्य कृपा करें।
शौनक ऋषि के मुख से निकले हुए इन शब्दों को सुनकर सूतजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। तदुपरान्त अपने नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की वर्षा करते हुए इस प्रकार बोले -हे शौनकजी तथा अन्य ऋषि महानुभावो ! आपलोग परमज्ञानी एवं सम्पूर्ण संसार का हित चाहनेवाले हैं। यद्यपि संसारी लोगों की वह बुद्धि नष्ट हो गयी है, जिसमें सबके मंगल का ध्यान रहता है, आप सबलोग उसके अपवादस्वरूप हैं। क्योंकि आपने अन्य लोगों के उपकार के लिए ही मुझसे यह प्रश्न किया है। अतः अब मैं आपकी इस प्रीति के वशीभूत होकर भगवान् सदाशिव की उस परम स्तुति का वर्णन करूँगा, जिसे सुनकर कलिकाल के दुःख नष्ट हो जाते हैं तथा अज्ञानी जीवों को भी मुक्ति प्राप्त होती है।
यही कारण है कि जो लोग बुद्धिमान होते हैं, वे भगवान् सदाशिव की तपस्या द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों को अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं। शिवलोक में किसी भी प्रकार शोक और दुःख कभी भी नहीं व्यापता। जो लोग शिवजी का नमन करते हैं, वे बहुत संतान प्राप्त करते हैं। अतः हे ऋषियो! उचित यही है कि इस संसार को दुःख रूप समझकर शिवजी के चरणों में ही प्रीति लगायी जाय। हे शौनक ! शिवजी की स्तुति करने में वेद भी असमर्थ हैं, अतः शिवजी का क्षण भर के लिए भी ध्यान करना नहीं भूलना चाहिए ।
सूतजी के मुख से यह वचन सुनकर शौनक ऋषि अपने दोनों हाथ जोड़कर उनके सम्मुख बैठ गये । तदुपरान्त सब ऋषियों ने परस्पर विचार-विमर्श करके सूतजी से यह कहा- हे सूतजी ! शिवजी तो निर्गुण कहलाते हैं, उन्होंने सगुण रूप किस प्रकार धारण किया ? उन्होंने संसार को किस प्रकार उत्पन्न किया तथा स्वयं किस प्रकार उत्पन्न हुए ? वे प्रलयकाल में संसार को नष्ट करके, स्वयं किस प्रकार स्थित रहते हैं ? वे किस कार्य से प्रसन्न होते हैं और प्रसन्न होकर क्या वरदान देते हैं ? हे सूतजी ! यह सब वृत्तान्त तथा इसके अतिरिक्त भी, भगवान् सदाशिव के सम्बन्ध में और जो कुछ भी जानने योग्य हो, आप उसे हमें बताइए क्योंकि आप श्री वेदव्यासजी की कृपा से भूत, भविष्य एवं वर्तमान-इन तीनों कालों की गति को जानने में समर्थ हैं।
तभी तो व्यासजी ने कृपा करके अपने श्रीमुख से आपको इस ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण रहस्य समझा दिया है। यह बात निश्चित है कि जब तक श्रेष्ठ ब्रह्म-ज्ञानी से भेंट नहीं होती, तब तक शोक तथा मोह नष्ट नहीं होता है। हम तो उसी को बड़ा भाग्यवान् मानते हैं, जो शिवजी की कथा कीर्तन से अपना सम्बन्ध सदैव बनाये रहता है।
॥नारदजी की तपस्या एवं शीलनिधि के घर जाने का वृत्तान्त॥
शौनक आदि ऋषियों के मुख से निकले हुए इन शब्दों को सुनकर सूतजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। तदुपरान्त उनको प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहने लगे-हे शौनकादि ऋषियो ! आपने जो प्रश्न मुझसे किया है, वही प्रश्न एक समय नारदजी ने श्री ब्रह्माजी से किया था। उस समय श्री ब्रह्माजी ने उन्हें समुचित उत्तर देकर प्रसन्नता प्रदान की थी। मैं आपसे वही प्रसंग कहता हूँ। एक बार देवर्षि नारदजी तपस्या करने के निमित्त हिमालय पर्वत पर जा पहुँचे और वहाँ श्री गंगाजी के तट पर बैठकर अत्यन्त कठिन तपस्या करने लगे। उन्होंने निश्चल भाव से सहस्त्रों वर्षों तक घोर तपस्या की। उनकी उस उग्र तपस्या को देखकर देवताओं के राजा इन्द्र अत्यन्त भयभीत हुए। उन्होंने यह समझा कि नारदजी मेरे इन्द्रासन पद की प्राप्ति के लिए ही सम्भवतः ऐसी कठिन तपस्या कर रहे हैं।
इन्द्र ने भयभीत होकर यह विचार किया कि मुझे किसी प्रकार नारदजी की तपस्या में विघ्न डाल देना चाहिए । यह निश्चय करके उन्होंने अपने मित्र कामदेव को अपने पास बुलाया । जब कामदेव उनके पास आ गया, तब उन्होंने उसे सम्बोधित करते हुए यह कहा -हे मित्र ! तुम्हारी सहायता से मैंने अनेक अहंकारियों के अहंकार को नष्ट किया है। इस समय नारदजी हिमालय पर्वत पर बैठे हुए शिवजी की तपस्या कर रहे हैं। मुझे भय है कि कहीं वे अपनी तपस्या द्वारा मेरे इन्द्रासन को न छीन लें, अतः तुम कोई ऐसा उपाय करो, जिससे नारदजी की तपस्या भंग हो जाये।
सूतजी बोले - हे ऋषियो! इन्द्र के मुख से निकले हुए उन शब्दों को सुनकर कामदेव ने उन्हें मनोकामना सिद्धि का विश्वास दिलाते हुए, नारदजी पर विजय पाने के हेतु अपनी संपूर्ण सेना को तैयार किया। तदुपरान्त उसने नारदजी के समीप पहुँचकर वहाँ चारों ओर अपनी माया फैला दी। कामदेव के प्रभाव के कारण उस निर्जन स्थान में भी अनेकों प्रकार के पुष्प खिल उठे एवं कोकिल आदि पक्षी अपनी मीठी बोली से सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने लगे।
हृदय में कामदेव को जगानेवाली तीनों प्रकार की शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु बहने लगी। अपनी इस विजयिनी सेना को देखकर कामदेव के हृदय में अत्यन्त प्रसन्नता हुई। वह अपनी शक्ति भर जो कुछ भी कर सकता था, उसे कर चुका उसके कृत्यों से नारदजी का मन तनिक भी विचलित नहीं हुआ ।
हे ऋषियो! नारदजी का मन विचलित न होने का जो कारण था,उसे मैं आपको सुनाता हूँ। कारण केवल यही था कि जिस स्थान पर नारदजी बैठे हुए तपस्या कर रहे थे, उसी स्थान पर एक बार पहिले सदाशिव ने कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया था। तदुपरान्त उसे जीवित होने का वर देकर यह कहा था कि अन्य स्थानों पर तेरा प्रभाव भले ही हो, इस स्थान पर कभी कोई प्रभाव नहीं हो सकेगा।
यही कारण था, जिससे कामदेव निराश एवं लज्जित होकर इंद्र के पास लौट गया और उन्हें अपने निष्फल मनोरथ होने का सब वृत्तान्त कह सुनाया। कामदेव की बात सुनकर देवराज इन्द्र की सभा के सम्पूर्ण सभासद नारदजी की स्तुति एंव प्रशंसा करने लगे।
हे ऋषियो! इधर अपनी तपस्या के पूर्ण हो जाने पर नारदजी को योग-दृष्टि द्वारा जब यह ज्ञात हुआ कि उन पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ कामदेव आया था वह असफल मनोरथ होकर लौट गया है तो उनके हृदय में कुछ अंहकार उत्पन्न हो गया। उन्होंने यह समझा कि वे कामदेव से अधिक शक्तिशाली हैं। इस रहस्य को वे नहीं जान सके कि यह मेरा नहीं अपितु इस तपोभूमि का प्रताप है।
नारदजी अपने तपोबल पर अत्यन्त गर्व करते हुए वहाँ से उठकर शिवजी के पास जा पहुँचे और अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्हें अपनी तपस्या का सब हाल सुनाने लगे। नारदजी की बात सुनकर शिवजी ने उन्हें समझाते हुए कहा-हे देवर्षि! कामदेव पर विजय पाने की सामर्थ्य तीनों लोकों में किसी के पास नहीं है। तुमने मुझसे तो यह बात कही, मैं तुम्हें समझाता हूँ कि तुम विष्णुलोक में जाकर इस बात को मत कह बैठना। तुम इस बात को अपने मन में गुप्त ही रखना ।
हे ऋषियो! अहंकार में डूबे हुए नारदजी को शिवजी की यह बात अच्छी नहीं लगी। वे उनसे विदा लेकर, ब्रह्मा जी के समीप जा पहुँचे। वहाँ भी उन्होंने अपनी प्रशंसा करते हुए तपस्या तथा कामदेव पर विजय पाने का वृत्तान्त कह सुनाया। अपने पुत्र नारद के उस अंहकार को देखकर ब्रह्माजी ने भी भगवान् सदाशिव की भाँति उन्हें बहुत कुछ समझाया, नारदजी के हृदय में अहंकार अपना घर कर बैठा था, इसलिए पिता का समझाना भी उन्हें अच्छा नहीं लगा और वे वहाँ से उठकर विष्णुलोक में आ पहुँचे। नारदजी को आया हुआ देखकर भगवान् विष्णु ने अपने आसन से उठकर, उन्हें अपने कंठ से लगाते हुए पूछा- हे देवर्षि ! अब तक आप कहाँ रहे ? यह सुनकर नारदजी ने अपनी तपस्या तथा कामदेव पर विजय प्राप्त करने का सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे भी कह दिया।
उस समाचार को सुनकर भगवान् विष्णु शिवजी की इच्छा समझ कर मन-ही-मन हँसते हुए बोले- हे नारदजी! जो मनुष्य ब्रह्मज्ञानी नहीं है और परब्रह्म की आराधना से रहित है, उन्हीं के हृदय में मोह की उत्पत्ति होती है। आप तो ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करनेवाले हैं, तब भला कामदेव आपका अनिष्ट कैसे कर सकता है ? भगवान् विष्णु के मुख से इन शब्दों को सुनकर नारदजी और भी अंहकार में भर गये तथा इस प्रकार अभिमानपूर्ण वचन बोले-हे प्रभो! मुझे यह शक्ति आपकी कृपा से ही प्राप्त हुई है।
हे ऋषियो ! इतना कहकर नारदजी भगवान् विष्णु से विदा लेकर चल दिये । उस समय भगवान् सदाशिव ने अपने हृदय में यह इच्छा की कि मुझे नारद का अंहकार दूर कर देना चाहिए। उनकी इच्छा से जिस मार्ग से नारदजी चले जा रहे थे, उस मार्ग में स्वर्ग के समान सुन्दर एक श्रेष्ठनगर शीघ्र ही बस गया। उस नगर में शीलनिधि नामक राजा राज्य करता था। जिस समय नारदजी उस नगर से होकर जा रहे थे, उस समय उस राजा की कन्या के स्वयम्वर का आयोजन हो रहा था। उस राजकन्या की सुन्दरता पर सम्पूर्ण संसार मुग्ध था। नगर निवासियों द्वारा जब नारदजी को यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो वे भी उस स्वयंवर सभा में जा पहुँचे। अब राजा शीलनिधि ने अपनी सभा में नारदजी को पधारते हुए देखा तो उसने आगे बढ़कर उनका अत्यन्त सम्मान किया।
फिर उन्हें ले जाकर अपने आसन पर बैठा दिया। इसके उपरान्त उस राजा ने अपनी परमसुन्दर कन्या को भी बुलाकर नारदजी के सम्मुख उपस्थित कर दिया। बहुत समय तक नारदजी उस कन्या के अनुपम स्वरूप को अपलक दृष्टि से रखते रहे। तदुपरान्त जब उन्होंने उस कन्या के लक्षणों का विचार किया तो यह पाया कि जो भी मनुष्य इस कन्या का पति होगा, वह संसार में अमर होकर अक्षय कीर्ति को प्राप्त करेगा और युद्ध में कभी किसी से भी परास्त न हो सकेगा।
कन्या के इन लक्षणों को विचारकर नारदजी वहाँ से उठकर अपने मार्ग पर फिर चल दिये; इस समय उनका मन काम के वशीभूत होकर उस कन्या को स्वयं प्राप्त करने को लालायित हो रहा था। इस प्रकार वे अपनी बुद्धि के विपरीत कामदेव के जाल में फँस गये। उन्होंने यह भी विचार किया कि जब तक मैं सुन्दर नहीं हूँ तब तक मुझे उस कन्या का मिलना असम्भव है; क्योंकि स्त्रियाँ सुन्दरता को ही अधिक प्यार करती हैं। मुझे यह उचित है कि मैं भगवान् विष्णु से उनकी सुन्दरता माँग लूँ और राजकुमारी को मोहित कर, अपने साथ विवाह करने के लिए उसे तैयार कर लूँ।
हे ऋषियो ! इस प्रकार निश्चय करके नारदजी वहीं मार्ग में एक स्थान पर बैठकर श्रीविष्णु का ध्यान करते हुए प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभो! संसार में आपके समान मेरा हितू अन्य कोई नहीं है। आप यहीं प्रकट होकर मेरे मनोरथ को पूर्ण करें। नारदजी की इस प्रार्थना को सुनकर श्रीविष्णु उसी स्थान पर प्रकट हो गये। जब नारदजी ने उन्हें अपना मन्तव्य सुनाया तो उन्होंने उत्तर दिया-हे नारद! जिस प्रकार वैद्य रोगी की इच्छा के प्रतिकूल भोजन देता है, उसी प्रकार मैं भी आपकी सेवा करूँगा ।
इतना कहकर श्रीविष्णु अन्तर्धान हो गये। नारदजी उनके गूढ़ वचनों का भावार्थ नहीं समझ सके। नारदजी का सम्पूर्ण शरीर श्रीविष्णु जैसा हो गया, परन्तु उनका मुख बन्दर जैसा बना रहा। नारदजी वहाँ से उठकर शीघ्रतापूर्वक पुनः राजसभा में जा पहुँचे। नारदजी बारम्बार उचकते हुए, मन ही मन यह विचार करके प्रसन्न होने लगे कि अब राजकन्या मुझे छोड़कर अन्य किसी को वरण नहीं करेगी।
उस सभा में नारद जी के इस नये स्वरूप को कोई देख नहीं सका, अतः सबने उन्हें नारद समझकर ही प्रणाम किया। भगवान् सदाशिव के दो गण भी ब्राह्मण का रूप धारण किये हुए बैठे थे। उन दोनों से यह रहस्य छिपा न रह सका। वे दोनों नारदजी के पास जा कर बैठ गये। उन्होंने मुस्काते हुये नारदजी से कहा -हे मुनिश्रेष्ठ! आपको तो भगवान् विष्णु ने अत्यन्त सुन्दर रूप प्रदान कर दिया है। अब भला, राजकन्या आपको छोड़कर अन्य किसी को क्यों स्वीकार करेगी ?
सूतजी ने कहा-हे शौनकादि ऋषियो! इसी बीच वह राजकन्या भी स्वयम्वरसभा में आ पहुँची। जब उसने नारदजी के उस भयानक स्वरूप को देखा तो वह अपने मन में अत्यन्त अप्रसन्न हुई और मुँह फेरकर दूसरी पंक्ति में अपने योग्य पति को ढूँढ़ने लगी।
इधर नारदजी की यह दशा थी कि वे बारम्बार उचक-उचककर, चारों ओर से उस राजकन्या के समीष पहुँचने का प्रयत्न करते थे । शिवजी के वे दोनों गण नारदजी की इस दशा को देखकर परस्पर और अधिक हास्य कर उठे । ठीक उसी समय भगवान् विष्णु उस सभा में आ पहुँचे। उन्हें देखते ही राजकन्या ने प्रसन्न होकर, गले में वरमाला डाल दी। यह देखकर अन्य सब राजा तो निराश हुए ही, देवर्षि नारदजी अत्यन्त विह्वल हो गये। उस समय उन दोनों शिवगणों ने नारदजी से यह कहा-हे मुनिराज! आप इतने दुःखी क्यों होते हैं? कृपाकर अपने मुख को किसी दप्रण में तो देख लीजिए।
॥नारदजी द्वारा शिवगणों को शाप॥
शिवगणों की बात सुनकर नारदजी वहाँ से उठकर एक पानी से भरे तालाब के पास जा पहुँचे। वहाँ जल के भीतर जब उन्होंने अपने मुख का प्रतिबिम्ब देखा तो उन्हें अत्यन्त आश्चर्य हुआ। अपने उस विकृत रूप को देखकर उन्हें अत्यन्त क्रोध हो आया और उसी क्रोध में उन्होंने उन दोनों शिवगणों को यह शाप दिया, अरे मूर्खो तुमने हमारी बहुत अप्रतिष्ठा की है, अतः तुम दोनों भी छली तथा पापी हो जाओ। तुम अपने किये का फल पाओ कि जिससे फिर ऐसा नीच-कर्म करने की तुम्हें हिम्मत न पड़े। नारदजी के मुख से इस शाप को सुनकर वे दोनों गण अत्यन्त चिन्तातुर हो वहाँ से लौट कर अपने लोक में जा पहुँचे और शिवजी की स्तुति करने लगे। इधर नारद जी भी कुछ देर बाद अपनी यथार्थ दशा में आ गये। उनके मन में यह विचार निरंतर चक्कर काटता रहा कि विष्णु द्वारा छल किये जाने के कारण ही मेरा यह अपमान हुआ है अतः या तो मैं विष्णु को शाप दूँगा अन्यथा अपने प्राण त्याग दूँगा ।
हे ऋषियो ! यह निश्चयकर नारदजी भगवान् विष्णु के वैकुण्ठधाम को चल दिए। उस समय नारद जी की इच्छा जानकर विष्णु भगवान् उन्हें मार्ग में ही मिल गये । विष्णु भगवान् के साथ वह कन्या भी थी, जिसको उन्होंने स्वयम्बर में प्राप्त किया था। विष्णु भगवान् ने नारद को प्रणाम करके हास्यपूर्ण शब्द में कहा-हे नारदजी ! आप इस प्रकार चिंतित होकर कहाँ जा रहे हैं ? विष्णु के ऐसे वचन सुनकर नारदजी पर अत्यन्त क्रोधित हुए, उसी क्रोधावस्था में नादरजी के मुँह से यह शब्द निकले - हे विष्णु ! तुम इस समय हमको अच्छे मिले ! तुम बड़े छली हो। तुम्हारा वह छल जो तुमने दिति के पुत्रों के साथ मोहनीरूप धारण करके, अमृत को बाँटने में किया था, प्रसिद्ध है ही। तुम्हीं ने छल से जलन्धर की स्त्री से उसका पातिव्रतधर्म छुड़ाया। सदाशिव ने भी तुमको वरदान देकर सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी बनाकर उचित नहीं किया है।
अब सदाशिव भी तुमको ऐसा स्वाधीन एवं सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी बनाकर अपने मन में चिन्तित हैं। अब हम सदाशिव की आज्ञानुसार ही, तुमको तुम्हारे कर्मों का फल देते हैं जिससे कि तुम भविष्य में फिर ऐसा कोई काम न करो । यद्यपि तुमको सदाशिव ने वरदान दिया है, तो भी हम तुमको केवल शिक्षा देने के लिए ही शाप देते हैं।
नारदजी ने इतना कहकर, विष्णु को यह शाप दिया -हे विष्णु ! तुमने जिनके समान हमारा मुख कर दिया था, वही बानर तुम्हारी सहायता करेंगे। जिस स्त्री के लिए तुमने हमारा अपमान किया, तुम भी उसी स्त्री के वियोग से अत्यन्त दुखी होकर वन-वन में घूमते फिरोगे । विष्णुजी ने यह सुनकर नारदजी के चरणों पर अपना मस्तक रख दिया; नारदजी ने उन्हें क्षमा नहीं किया ।
भगवान् सदाशिव ने यह देखकर नारदजी के मन से अपनी माया हटा ली। उस समय न तो नारदजी की ही वह दशा रही और न वहाँ कोई स्त्री ही दिखाई दी। तब नारदजी ने आश्चर्य चकित होकर, खेद प्रकट करते हुए कहा -कहा नहीं जा सकता कि यह सब वृत्तान्त सत्य है या मैंने इसे स्वप्न में देखा है। फिर आपकी माया अपरम्पार है, जिससे हम जैसे बुद्धिमान भी भ्रमित हो जाते हैं, कहते हुए नारदजी विष्णुजी के चरणों पर गिरते हुए बोले- हे नारायण ! आप मेरे शाप का खण्डन कर दीजिये तथा जो कठोर शब्द मैंने कहे हैं, उस महापाप के लिए मुझे क्षमा कर दीजिए ।
यह सुनकर विष्णुजी ने कहा -हे नारद ! तुमने सदाशिव के वचनों की जो अवज्ञा की है, यह सब उसी का फल मिला है। अब भी उचित है कि तुम चैतन्य होकर सदाशिव को महान् समझो। वे ही तीन स्वरूप धारण करके तीनों कार्यों द्वारा सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन करते हैं। वे स्वयं प्रलय के स्वामी हैं। मैं केवल सदाशिव के तप के कारण ही सबसे बड़ा गिना जाता हूँ।
हे नारद ! तुम उन्हीं सदाशिव की तपस्या करो; क्योंकि उनकी आराधना और तपस्या के बिना कोई भी परमपद प्राप्त नहीं कर सकता है। अब तुम्हें उचित है कि सब कुछ त्यागकर, सदाशिव का भजन करो एवं उनके शतनामों का जाप करो। वे ही मेरी शक्ति हैं। तुम हृदय में शिवजी के चरणों का ध्यान रखकर, देशाटन करो जिससे तुम्हें दुःख न होगा । तुम्हारे लिए यही उचित है कि समस्त भूमण्डल पर भगवान् सदाशिव की महिमा देखते हुए, काशीजी को सिधारो । उसे रुद्रक्षेत्र, वाराणसी, मुक्तिक्षेत्र तथा महाश्मशानभूमि भी कहते हैं।
इतना कहकर विष्णु जी अन्तर्धान हो गये और नारदजी सदाशिव जी के पास चल दिए। मार्ग में वे दोनों गण मिले और वे भी नारद के चरणों में गिरकर क्षमायाचना करते हुए बोले-हे ऋषिराज! हम ब्राह्मण नहीं, अपितु सदाशिव के गण हैं। हमने आपका बड़ा अपमान किया है। इसलिए, हमें अपना दास समझकर कृपा करें, क्योंकि हम अपने कर्मों का फल प्राप्त कर चुके हैं। नारदजी ने यह सुनकर खेद प्रकट करते हुए कहा-मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी। सदाशिव की माया अपरम्पार है। मैंने जो कुछ कहा है।
हे शिवगणो ! वह होकर ही रहेगा, मैं तुम्हें यह वर देता हूँ कि तुम दोनों भाई मुनि के वीर्य एवं राक्षसी के गर्भ से उत्पन्न होगे तथा बहुत प्रतापी होगे। सम्पूर्ण सृष्टि पर विजय प्राप्त करोगे तथा अनेक प्रकार के भोग भोगकर भी सदाशिव की भक्ति से अचेत न होगे। अन्त में, बानर और मनुष्य द्वारा तुम मुक्ति प्राप्त करोगे ।
इतना कहकर नारदजी पहिले सदाशिव के पास तथा फिर ब्रह्मा के पास गये और वहाँ दोनों हाथ जोड़, स्तुति करते हुए बोले -हे पिता ! आपने विष्णु की जो कथा मुझसे कही थी जिसमें भक्ति, वैराग्य, तप, दान की रीति एवं तीर्थ आदि का वर्णन है, वह तो मैंने सुनी; मैं सदाशिवजी की भक्ति से अभी अनभिज्ञ हूँ।
इसलिए कृपाकर मुझे क्रम से बताइए कि सदाशिव आदि, मध्य तथा अन्त में क्यों रहते हैं और कैसे प्रसन्न होते हैं ? वे निर्गुण होकर भी सगुण कैसे हो जाते हैं ? आप अपनी तथा विष्णुजी की उत्पत्ति के ऊपर भी प्रकाश डालिए। शिव और पार्वती के जितने भी चरित्र हों, कृपा करके उनपर भी प्रकाश डालिए, जिससे मुझे और आपको भी प्रसन्नता प्राप्त हो।
॥ब्रह्मा जी द्वारा शिवजी के सगुण रूप की प्रशंसा॥
इतनी कथा सुनाकर सूतजी ने कहा-हे शौनकादि ऋषियो ! नारदजी का यह प्रश्न सुनकर, ब्रह्माजी ऐसे प्रेम मग्न हुए कि उनकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली । उन्हें तन, मन, स्त्री, पुत्र, घर द्वार आदि किसी का भी कुछ ध्यान न रहा। बहुत देर बाद जब वे प्रकृतिस्थ हुए तब 'शिव, शिव' कहते तथा शिवजी का ध्यान करते हुए हँसकर बोले -हे नारद! तुम्हें बहुत-बहुत धन्यवाद है। तुमने मेरे सम्पूर्ण कुल को मुक्त कर दिया है, क्योंकि तुम्हारे हृदय में भगवान् सदाशिव की भक्ति उत्पन्न हुई है। इस प्रकार प्रशंसा करने के उपरान्त पितामह ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा- हे पुत्र ! मैं सर्वप्रथम अपनी बुद्धि के अनुसार भगवान् सदाशिव के निर्गुण चरित्र का वर्णन करूँगा, तदुपरान्त उनकी सगुण महिमा को कहूँगा। तुम्हें यह जान लेना चाहिए कि जिस समय सृष्टि का कहीं चिन्ह भी न था, उस समय भगवान् सदाशिव ही निर्गुण रूप से सर्वत्र व्याप्त सच्चिदानन्दस्वरूप, एकमात्र परब्रह्म थे।
वे भगवान् सदाशिव सत्य एवं परमानन्द रूप हैं। वे मन तथा वचन के स्वामी हैं और नामरूप से हीन हैं। वे किसी के वशीभूत न तो देखने में आते हैं और न कोई उनका आदि-अन्त ही जानता है। वे किसी के वशीभूत न होकर सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी बने हुए हैं। वे ही मनुष्यों के कर्मों के साक्षी हैं तथा सर्वव्यापक होते हुए भी, सबसे भिन्न रहते हैं।
हे नारद! उन शिवजी की स्तुति करने में सहस्त्र फणधारी शेषनाग भी हार गये हैं। योगी लोग उनका भजन करते हैं, उनके आदि और अन्त को नहीं जान पाते। वे निगुर्णस्वरूप वाले प्रभु बिना कान के ही सब कुछ सुन सकते हैं, बिना आँख के ही सब कुछ देख सकते हैं, बिना नाक के ही सम्पूर्ण सुगन्धियों को सूँघ लेते हैं, बिना मुख के ही सम्पूर्ण पदार्थों का भोजन करते हैं, बिना जिह्वा के सम्पूर्ण विद्या को पढ़ते हैं, जिन स्वामी की ऐसी विचित्र महिमा है, उनकी स्तुति भला किस प्रकार की जा सकती है ?
हे नारद! ऐसे निर्गुण स्वरूप भगवान् सदाशिव ने जब अपने मन में यह इच्छा की कि हम एक से अनेक हो जायँ, उस समय वे सगुणरूप हो गये। उनके निर्गुण एवं सगुण रूप में कोई अन्तर नहीं है। उन्होंने विष्णु, और ब्रह्मा को उत्पन्न किया है एवं वे ही सम्पूर्ण प्राणियों में प्रतिष्ठत विराट् स्वरूप हैं। उनके सहस्त्रों नाम हैं, जिनमें-शिव, शंकर, हर, नाथ, महेश, परमदेव, वामदेव, जगदीश्वर, परमेश्वर, परमात्मा, ब्रह्म, गिरीश, शम्भु, सदाशिव, अनीश, विवुध, पार्वतीपति, चक्री, त्रिशुलपाणि, ईश्वर, सुखदाता, अनादि, अनन्त, सर्व आदि संसार में अधिक प्रसिद्ध हैं।
वे भगवान सदाशिव ब्रह्मा एवं विष्णु द्वारा मान प्राप्त करते हैं। संपूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करनेवाले तथा भक्तों को आनन्द प्राप्त करानेवाले वे भगवान् उमापति ही सूर्य, चन्द्रमा आदि सहस्त्रों गुणों से भरी हुई संपूर्ण सृष्टि एवं ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र के उत्पन्नकर्त्ता हैं। इस प्रकार भगवान् सदाशिव अपने सहस्त्रों नामों से सम्पूर्ण लोकों में प्रसिद्ध हैं।
हे नारद ! अब तुम उन त्रिशूलपाणि भगवान् शिव के उस सगुण स्वरूप का वर्णन सुनो जिसको स्मरण करने से ही सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। अपने सगुण स्वरूप में वे मस्तक पर जटाजूट एवं गंगा जी को धारण किये हैं। उनके भाल पर चन्द्रमा की कला एवं धनुषाकार त्रिपुण्ड विराजमान हैं। वे कानों में कुण्डल पहने हैं और सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि के समान तीन लाल नेत्रों को धारण किये हैं। उनका प्रभातकालीन सूर्य के समान पहिला मुख पूर्व दिशा की ओर रहता है तथा उनका दूसरा मुख दक्षिण दिशा की ओर, उनके कंठ में तीन लकीरें हैं। उस कंठ में विराजित हलाहल की श्यामता भक्तों के मन को अनायास ही हर लेती है। वे अपने गले में मुण्डों की माला धारण किये रहते हैं और हाथ में त्रिशूल लिये रहते हैं। उन्हें कोई चतुर्भुज और कोई पंचमुख कहता है। कइयों ने उन्हें दशभुजाधारी भी कहा है। वे अपने उन हाथों में भिन्न-भिन्न प्रकार के शस्त्र लिये रहते हैं। उँगलियाँ भी सुकोमल एवं अरुण प्रभायुक्त हैं। ऐसे सम्पूर्ण कलाधारी भगवान् सदाशिव के पवित्र स्वरूप का स्मरण बड़े-बड़े तपस्वी तथा मुनिजन निश्छल भाव से किया करते हैं।
हे नारद! जिस प्रकार शिवजी के अनेकों स्वरूप हैं, उसी प्रकार उनका ध्यान धरने की क्रियाएँ भी असंख्य हैं; उन्हें जाननेवाले बहुत कम लोग ही पाये जाते हैं। भगवान् सदाशिव की महिमा, स्वरूप तथा नामों की कोई गिनती नहीं हो सकती। वेदों का नाम भी न जाननेवाले गज और गणिका जैसे असंख्य महापापी मूर्खी ने जो मुक्ति प्राप्त की, उसका एक मात्र कारण यही है कि उनपर भगवान् श्री त्रिशूलपाणि ने स्वयं ही कृपा कर दी थी। ऐसे दयालु गिरिजापति की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है ?
हे नारद ! भगवान् सदाशिव ने ही अपने आनन्द के निमित्त शक्ति को प्रकटा था अर्थात् भगवान् त्रिशूलपाणि के तेज द्वारा ही महाशक्ति का जन्म हुआ है। उस महाशक्ति का जो स्वरूप है वह मैं तुम्हें बताता हूँ। वे देवी सोलह श्रृंगार किये हुए हैं। उनका शरीर श्याम कमल के समान कोमल है। उनके केश घुँघराले तथा कृष्णवर्ण के हैं। उन शक्ति स्वरूपा देवी के ऐसे अनुपम स्वरूप का ध्यान धरकर भक्तों को अत्यन्त प्रसन्नता की प्राप्ति होती है ।
हे नारद ! भगवान् सदाशिव ने उस परमशक्ति को श्यामरूप में उत्पन्न किया, अनेकों भक्त उन्हें गौरवर्ण अथवा सोने के समान रंगवाली कहकर उनका स्मरण एवं ध्यान करते हैं। इस संसार में जो कुछ भी दिखाई देता है और जहाँ तक वचन तथा मन की गति है, उन सबको इन आदि शक्ति की कृपा से ही उत्पन्न समझना चाहिए। अब हम तुमसे भगवान् सदाशिव के सगुण स्वरूप के गूढ़ चरित्रों का वर्णन करते हैं ।
हे नारद! भगवान् सदाशिव को परब्रह्म एवं भगवती उमा को परमशक्ति समझना चाहिए। सर्वप्रथम भगवान् सदाशिव ने उमा नामधारिणी उस परमशक्ति के साथ विहार करने के निमित्त एक लोक की रचना की, जिसमें दुःख, चिन्ता, शोक तथा दारिद्र्य का कोई स्थान नहीं है। वह लोक अत्यन्त रमणीक, परम विचित्र एवं मनोहर है। उस स्थान को भगवान् सदाशिव किसी भी समय नहीं छोड़ते, इसीलिए वह 'अविमुक्त' कहा जाता है । वह स्थान सृष्टि के सम्पूर्ण जीवों को आनन्द देनेवालाहोने के कारण 'आन्नदवन' के नाम से भी प्रसिद्ध है।
वह स्थान सिद्धरूप, तेजस्वरूप तथा अद्वितीय होने के कारण 'काशी' भी कहलाता है। उस नगर में भगवान् सदाशिव ने अपनी इच्छा से एक ऐसे भवन का निर्माण किया, जो अनेकों प्रकार के रत्नों से अलंकृत है। जिसमें मोतियों की झालरें लटका करती हैं। और जहाँ छत्र, विमान आदि असीमित संख्या में रखे हुए हैं।
उस लोक अथवा नगर में कल्पवृक्ष के समान मनोभिलाषा पूर्ण करनेवाले सहस्त्रों वृक्ष विद्यमान हैं। उस भवन को भगवान् सदाशिव ने अपनी आदिशक्ति सहित सुशोभित किया। उन्होंने परमशक्ति को सम्बोधित करते हुए कहा -हे प्रिय! यह लोक अत्यन्त उत्तम, परम पवित्र एवं प्रसन्नता प्रदान करनेवाला है, अतः यह मुझे तथा तुझे अत्यन्त प्रिय है। यहाँ किसी भी प्रकार के दुःख का कभी प्रवेश न हो सकेगा।
जो मनुष्य यहाँ पहुँच जायगा; वह नरक के दुःखों से मुक्त हो जायगा। हम इस काशी की जो प्रशंसा करते हैं, सो कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि इसकी स्तुति का वर्णन करने में वेद भी असमर्थ हैं। इतना कहकर भगवान् सदाशिव भगवती उमा के साथ वहाँ विहार करने लगे।
जब उनके हृदय में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि हम कोई रचनात्मक कार्य करें, उस समय उन्होंने भगवती उमा से इस प्रकार कहा-हे प्रिये! अब हम कोई ऐसा काम करना चाहते हैं, जिससे हम दोनों को प्रसन्नता की प्राप्ति हो।
॥भगवान् सदाशिव द्वारा विष्णु एवं ब्रह्मा की उत्पत्ति का वर्णन॥
भगवान् सदाशिव ने कहा -हे प्रिये ! हमें एक ऐसा मनुष्य उत्पन्न करना चाहिए, जो सब विद्याओं में पारंगत हो और जिसके ऊपर हम सम्पूर्ण सांसारिक भार को छोड़कर, आनन्दपूर्वक विहार कर सकें। भगवान् त्रिशूलपाणि के मुख से निकले हुए इन शब्दों को सुनकर भगवती जगदम्बाजी ने अपने बाँई ओर देखा तो उनकी इच्छा से तुरन्त ही एक मनुष्य की उत्पत्ति हुई। वह मनुष्य अत्यन्त स्वरूपवान्, कलावान्, बुद्धिमान्, तथा शीलवान् था । उसका सम्पूर्ण शरीर श्यामवर्ण चन्द्रमा जैसा था।
वह अपने भाल पर त्रिपुण्ड धारण किये हुए था। वह पीतवस्त्र धारण किये हुए था। उसका प्रत्येक अंग सुडौल एवं परम सुन्दर था। वह सम्पूर्ण विद्याओं का निधान, महाप्रतापी, सिद्धरूप तथा पवित्र था। वह उत्पन्न होते ही बारम्बार दंडवत् करता हुआ भगवान् सदाशिव एवं भगवती उमा के सम्मुख आ, हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
उस सुन्दर मनुष्य को देखकर उमा सहित उमापति शिवजी अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त हुए। वह भी इन दोनों को देखकर बहुत हर्षित हुआ । तदुपरान्त उसने हाथ जोड़कर इन दोनों की स्तुति तथा प्रंशसा करते हुये प्रार्थना की-हे पिता एवं हे मातेश्वरी ! आप मेरा नाम रखकर, मेरे योग्य जो कार्य हो उसे बताइए । यह सुनकर श्रीशिवजी बोले-तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सम्पूर्ण सृष्टि में तुम्हारे समान तेजस्वी तथा प्रतापी अन्य कोई भी प्राणी प्रकट न होगा।
तुम्हारा यश सम्पूर्ण संसार में निरन्तर फैला रहेगा। संसारी मनुष्य तुम्हें हरि, चतुर्भुज, भगवान्, अच्युत आदि अनेक नाम से पुकारेंगे। तुम भक्तों का मनोरथ पूर्ण करने के लिए उत्पन्न किये गये हो। अब तुम्हें यह उचित है कि तुम तपस्या करो, जिससे तुम्हें अधिक तेज एवं सामर्थ्य की प्राप्ति हो। इतना कहकर भगवान् सदाशिव ने विष्णु को योगविद्या का उपदेश किया। तब विष्णु एक स्थान पर बैठकर तपस्था करने में संलग्न हो गये।
हे नारद ! वे द्वादश दिव्य सहस्त्र वर्ष पर्यन्त एक ही आसन पर बैठे हुए योगसाधन द्वारा भगवान् सदाशिव का ध्यान करते रहे, जब उन्हें तपस्या का कुछ भी फल प्राप्त नहीं हुआ तो उनके हृदय में अत्यन्त शोक हुआ। उसी समय, जिस प्रकार वर्षा में बादल गरजते हैं, ठीक उसी प्रकार यह आकाशवाणी हुई -हे विष्णु ! तुम मन लगाकर फिर से तप करो; क्योंकि हम सुगमता से किसी को दिखाई नहीं देते हैं।
इस आकाशवाणी को सुनकर उन्होंने पुनः अत्यन्त कठिन तप करना आरंभ कर दिया। उस कठिन तपस्या के कारण विष्णु के पवित्र शरीर से इतना पसीना निकला कि उससे एक नदी बह चली। उस अवस्था में बैठे हुए विष्णु जब मूच्छित हो गये, तब उनका नाम तीनों लोकों में 'हरनारायण' प्रसिद्ध हुआ। वे इस प्रकार मूच्छित हो गये कि जैसे कोई निद्रा में शयन कर रहा हो। उसी दशा में भगवान् सदाशिव की इच्छा से उन विष्णु की नाभि से एक कमल की उत्पत्ति हुई। उस कमल में बहुत सी पंखुड़ियाँ थीं। वह देखने में बहुत ऊँचा, अत्यन्त मनोहर तथा लम्बा था।
ब्रह्माजी बोले- हे नारद ! विष्णु को उत्पन्न करने के पश्चात् भगवान् सदाशिव ने मुझे अपनी दाहिनी भुजा से उत्पन्न किया और उसी कमल में बैठा दिया। मेरा रंग लाल था। मेरे चार मस्तक थे, जो चारों दिशाओं की ओर खुल रहे थे। मेरे अन्य सभी अंग विष्णु के समान ही थे। मैं भी अत्यन्त सामर्थ्यवान् एवं तेजस्वी था।
उसी समय मैंने यह आकाशवाणी सुनी-हे पुत्र ! तुम्हारे अज, ब्रह्मा, धाता, विधाता, प्रजेश, परमेष्ठी, बहुगर्भ आदि अनेकनाम होंगे। परन्तु मैं उस समय यह नहीं जान सका कि मुझे उत्पन्न करने वाला कौन है ? हे नारद ! भगवान् सदाशिव की माया तीनों भुवनों को घेरे हुये है। वे जो चाहते हैं, वही होता है। जब मैं यह नहीं जान सका कि मैं किसके द्वारा उत्पन्न हुआ हूँ और किसका पुत्र हूँ तथा उस कमल के पुष्प की जड़ कहाँ है ? तब मैंने अपने मन में यह विचार किया कि जिसके मूल से यह कमल का पुष्प उत्पन्न हुआ है, वही मेरा पिता होगा।
ऐसा निश्चय करके उस कमल की जड़ को जन्म देने वाले अपने पिता का पता लगाने के लिए मैं उस कमल की डण्डी के मार्ग से, उस जल के भीतर जा पहुँचा, जिसमें होकर वह कमलनाल ऊपर को निकली हुई थी । यद्यपि मैं उस कमलनाल के सहारे सैकड़ों कोसों तक पानी के भीतर चला गया, मुझे उसके उद्गम स्थान का कोई भी पता नहीं चल सका।
तब मैं निरन्तर सौ वर्षों तक प्रयत्न करने के बाद निराश हो जाने के शोक से व्याकुल होकर उसी स्थान पर पुनः लौट आया, जहाँ से नीचे की ओर गया था। जब मैं पुनः ऊपर लौट कर आया तो यह देखकर मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही कि वहाँ वह कमलपुष्प कहीं भी दिखाई नहीं देता था जिस पर मैं पहले बैठा हुआ था। इस अद्भुत दृश्य को देखकर मुझे अत्यन्त चिन्ता हुई। तब मैंने इस सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी से अपनी रक्षा करने की प्रार्थना की।
हे नारद ! उस समय मुझे चिन्तायुक्त देखकर आकाशवाणी हुई, जिसके द्वारा दो अक्षर प्रकट हुए। उन अक्षरों के सहारे सोलह तथा इक्कीस अक्षरों का और ज्ञान हुआ। जिनसे मैं बहुत सी बातों को जान सका। ठीक उसी समय भगवान् सदाशिव की इच्छा से उस जल में अचेत होकर पड़े हुए विष्णु सचेत होकर मेरे समीप आये। वे रत्नजटित किरीट आदि को धारण किये हुए थे। उनके शरीर का रंग मेघ के समान श्यामल था । उनके उस मनोहारी प्रकाशवान् स्वरूप को देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया ।
इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिए; क्योंकि भगवान् सदाशिव जो चाहते हैं वही होता है। मैंने विष्णु के उस स्वरूप को देखकर पूछा -आप कौन हैं ? विष्णु ने उत्तर दिया-हे ब्रह्मन् ! हम ब्रह्म, अलख, निरंजन, हरि, भूपति, निर्विकार अचिन्त्य तथा सतचित् आनन्दस्वरूप हैं।
हम तुम्हारे पिता हैं और हमारे ही नाभि-कमल द्वारा तुम्हारी उत्पत्ति हुई हैं। अब तुम निर्भय हो जाओ, क्योंकि हम तुम्हारे रक्षक हैं। हमारे ऊपर, हमारे समान अथवा हम से उत्तम अन्य कोई नहीं है। हमी सब के स्वामी हैं।
हे नारद ! विष्णुजी ने यह बात अज्ञानावस्था में ही कही थी कि हमी उत्तम हैं और हमी ब्रह्म हैं, क्योंकि वे उस समय शिवजी की माया से अचेत थे। भला इस संसार में ऐसा कौन है, जिसे भगवान् सदाशिव की माया भुलावे में नही डाल देती ?
हे नारद ! विष्णु के मुख से यह वचन सुनकर मुझे अत्यन्त क्रोध आया। तब मैंने उनसे कहा- हे विष्णु ! तुम ऐसी असत्य बात मत कहो और कैवल्य-भाव का निश्चय रखो। यदि तुम हमें उत्पन्न करनेवाले होते तो वेद हमें ब्रह्मा, पितामह, विधाता, परमेष्ठी आदि नामों से नहीं पुकारते। हम स्वयं ही तीनों गुणों को धारण करके सम्पूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करने वाले हैं। अतः तुम्हें हमारे प्रति ऐसे शब्द नहीं कहने चाहिएँ।
मेरी बात सुनकर विष्णु बोले -हे ब्रह्मा ! तुम्हें ऐसे अज्ञान में पड़ना उचित नहीं है। इस सृष्टि को उत्पन्न करने वाले तुम नहीं हो, बल्कि हमी हैं। हमी सब जीवों को उत्पन्न करके उनका पालन करते हैं और प्रलयकाल में सबको नष्ट कर देते हैं। हमारे हरि, ईश, अच्युत आदि सर्वोत्तम नाम हैं। हमारी माया के वशीभूत होकर सबलोग अपना ज्ञान भुला बैठते हैं, इसीलिए तुम भी ऐसा कह रहे हो।
इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। यह सम्पूर्ण संसार हमारे द्वारा ही उत्पन्न हुआ है और हमारे ही आधीन बना रहता है । हमीं ने वेदों को बनाया है और तुम्हें नाभि-कमल द्वारा उत्पन्न किया है। हमसे अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई नहीं है। तुम अपने नामों पर अहंकार मत करो तथा क्रोध को त्यागकर जो वचन कहने योग्य तथा उचित हैं, उन्हीं का प्रयोग करो।
जिस प्रकार अन्धा मनुष्य आँखों की महिमा का, निर्धन मनुष्य धनवान् की अवस्था का वर्णन करे, उसी प्रकार वेद ने भी तुम्हारे नामों का वर्णन किया है। यदि तुम हमारा पूजन करोगे तो वह शुभ होगा, अन्यथा हम तुम्हें अपनी शक्ति द्वारा नष्ट कर देंगे ।
हे नारद ! विष्णु के ऐसे अंहकार पूर्ण शब्द सुनकर पहिले तो मुझे बहुत हँसी आई, फिर हृदय में इतना क्रोध उत्पन्न हुआ कि मैं उनका शत्रु बन गया और उनसे इस प्रकार कहने लगा-हे विष्णु! जिस प्रकार गुरु अपने शिष्य को झिड़ककर बुलाता है, उसी प्रकार तुम हमें उपदेश क्यों दे रहे हो ?' हे नारद ! परस्पर इस प्रकार कहते हुए हम तथा विष्णु आपस में युद्ध करने लगे। शिवजी की माया से मोहित होकर हम दोनों ने बहुत समय तक खूब युद्ध किया, क्योंकि हम दोनों ही अपने को सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी समझते थे ।
॥ब्रह्मा एवं विष्णु द्वारा शिवलिंग के आदि अन्त की खोज॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! हमें तथा विष्णु को परस्पर लड़ते हुए देखकर, प्रलयकालीन प्रज्ज्वलित बड़वाग्नि के समान शिवजी अचानक ही उस स्थान पर प्रगट हो गये। मैं उनकी उपमा किससे दूँ ? उनके उस परम तेजस्वी स्वरूप को देखकर हम दोनों ने परस्पर युद्ध करना बन्द कर दिया। उस समय विष्णु अत्यन्त भयभीत तथा आश्चर्य चकित होकर मुझ से यह कहने लगे-हे ब्रह्मन् ! यह निस्सीम तेज यहाँ कहाँ से आ पहुँचा ? अब हम दोनों को उचित है कि हम इस तेज के आदि और अन्त को देख आवें।
हम दोनों में से जो भी इसके आदि और अन्त को देख लेगा, उसी को सबसे बड़ा और सबका स्वामी स्वीकार कर लिया जायगा। हमें तो यह तेज आदि और अन्त से रहित जान पड़ता है। अच्छा, तुम इस तेज के ऊपर की ओर जाओ और हम नीचे की ओर जाते हैं।
हे नारद ! विष्णु की यह बात मैंने स्वीकार कर ली। तब हम दोनों अहंकारी उस तेज के आदि और अन्त को देखने के लिए एक दूसरे से भिन्न दिशाओं में चल दिये। हे पुत्र ! जो कार्य अहंकार की अवस्था में किया जाता है, वह कभी पूर्ण नहीं होता और उसका फल भी अच्छा नहीं मिलता । जब तक मनुष्य अहंकार को नहीं त्याग देता, तब तक उनका कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। हमारे और विष्णु के इस चरित्र को जो मनुष्य प्रातःकाल हाथ-पाँव धोकर ध्यान में लाता है, उसे इस लोक में सुख, आरोग्य तथा परलोक में श्रेष्ठ गति की प्राप्ति होती है।
हे नारद ! हम और विष्णु एक दिव्य सहस्त्र वर्ष पर्यन्त उस दिव्यज्योति के आदि और अन्त को ढूँढ़ते रहे, हम दोनों में से किसी को भी उसका कुछ पता न चला । हम निराश होकर अपने स्थान को लौट पड़े तभी एक आश्चर्य की बात हुई कि जिस स्थान से हम चले थे, वह हमें बहुत ढूँढ़ने पर भी कहीं दिखाई नहीं दिया। अतः हमें एक सहस्र दिव्य वर्षों का समय अपने पहिले स्थान को ढूँढ़ने में लग गया।
उस समय हमें इस बात का भली प्रकार ज्ञान हो गया कि हमारे ऊपर भी कोई बड़ी शक्ति है जो सबसे उत्तम और पुरातन है। यह बात ध्यान में आते ही हम दोनों उस पवित्र, निर्विकारस्वरूप की शरण में गये और परस्पर शत्रुता को त्यागकर, भक्तिभाव से उस परमस्वामी की स्तुति करने लगे। हम दोनों की उस प्रार्थना को सुनकर यह आकाशवाणी हुई हे ब्रह्मा तथा हे विष्णु! तुम दोनों योग साधन करो ।
हे नारद ! उस आकाशवाणी को सुनकर हम दोनों ने योगाभ्यास करते हुए उस अलक्षित स्वामी की स्तुति में इस प्रकार कहना आरंभ किया-हे स्वामी ! हम दोनों ने आपकी माया के वशीभूत होकर अपने को सृष्टि का उत्पन्नकर्त्ता समझ लिया था। अब हम अभिमान को त्यागकर आपको दण्डवत् करते हैं। आप हमें अपना सेवक जानकर कृपा कीजिए और प्रकट होकर हमें अपना दर्शन दीजिए।
जिस समय हमलोग इस प्रकार स्तुति कर रहे थे, उसी समय हम दोनों को गूढ़ शब्दों में किसी ने कुछ प्रेरणा दी; हम उसके तात्पर्य को नहीं समझ पाये। अब हमने दंडवत् करते हुए पुनः यह प्रार्थना की कि हे प्रभो! हमारे सम्मुख साकार रूप में प्रकट होकर आप दर्शन दें; क्योंकि आपकी गूढ़ प्ररेणा को समझने में हम दोनों ही असमर्थ हैं।
हमारे इस प्रकार कहते ही भगवान् सदाशिव ने साक्षात् प्रकट होकर हमें अपना वह स्वरूप दिखाया, जिसके दर्शन पाकर सम्पूर्ण संसार मोहित हो जाता है। तदुपरान्त प्रणव अर्थात ॐकार प्रकट हुआ। भगवान् सदाशिव की माया जानने में असमर्थ होने के कारण हम का उसे भी समझने में असमर्थ रहे। कुछ देर पश्चात् जब उस प्रणव के चार भाग हुए और उसके भीतर से सगुणरूप भगवान् त्रिशूलपाणि प्रकट हुए, उस समय हमने यह समझा कि इस प्रणव के जो अकार, उकार तथा मकार अक्षर हैं, उसके नाद तथा बिन्दु का यह अर्थ है कि पहिला अक्षर अर्थात् अकार लिंग की ज्योति है; दूसरा अक्षर उकार उस ज्योति का मध्य है; जो आधी मात्रा नाद स्वरूप है, वह उस लिंग ज्योति का मस्तक है जो बिन्दु है, वह सम्पूर्ण लिंग का ज्योतिस्वरूप है।
उसका वर्णन अन्य प्रकार से इस प्रकार किया जा सकता है कि अकार से ऋग्वेद, उकार से यजुर्वेद, मकार से सामवेद, नाद से अथर्ववेद तथा बिन्दु से ब्रह्मविद्या का स्वरूप बना है।
वह इस सम्पूर्ण सृष्टि में सर्वोत्तम है। उसी को 'वृषातन' कहा जाता है। उसी प्रणव में तीनों लोकों की स्थिति है। वह कभी नष्ट नहीं होता । ब्रह्म से लेकर तृण पर्यन्त सभी जीव तथा वस्तुएँ उसमें स्थित रहती हैं। ढूँढ़ने पर भी प्रणव के लिंग को प्राप्त नहीं किया जा सकता। चारों वेद तथा अठारहों पुराण भी उसके भीतर विद्यमान हैं।
हे नारद ! वेद भगवान् सदाशिव का प्रणवरूप कहलाते हैं। वे शिवजी अपने दाहिने अंग अकार द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं एवं बाँये अंग उकार द्वारा उसका पालन करते हैं। प्रणवरूप शिव के हृदय में जो मकार है, उससे प्रलय का प्रादुर्भाव होता है। वर्णमाला के सम्पूर्ण अक्षरों से भगवान सदाशिव का शरीर अलंकृत है। इन अक्षरों से अलंकृत श्रीशिवजी का जो शरीर है, उसका स्मरण करने से अत्यन्त प्रसन्नता की प्राप्ति होती है। मैंने और विष्णु ने सदाशिव का जब यह प्रणवरूप देखा तो अत्यन्त प्रसन्न होकर हाथ जोड़ उन्हें दंडवत् की तथा हम दोनों ही उनकी बहुत प्रकार से स्तुति करने लगे।
॥ब्रह्मा एवं विष्णु को शिव दर्शन की प्राप्ति॥
ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! इस प्रकार निर्विकार एवं निराकार परब्रह्म की बहुत प्रकार से स्तुति करने के उपरान्त हमने उनसे यह प्रार्थना की हे प्रभो! आप हमारे समक्ष अपने स्वरूप को प्रकट कीजिए। मेरी तथा विष्णुजी की यह प्रार्थना सुनकर, भगवान् सदाशिव अपनी परमशक्ति सहित उसी क्षण प्रकट हो गये। उनका शरीर श्वेत पत्थर के समान गौर था । वे उस पर भस्म मले हुए थे। उनके वामांग में आदिशक्ति महामाया उत्तमोत्तम वस्त्रालंकारों को धारण किये हुए विराजमान थीं। इस प्रकार जब उन्होंने अपना दर्शन दिया तो उनके स्वरूप को देखकर हम दोनों को इतना अधिक आनन्द हुआ कि उस प्रसन्नता में हमारे नत्रों से आँसू बह निकले और वाणी गद्गद हो गयी।
कुछ देर पश्चात् जब हमें चैतन्यता प्राप्त हुई, तो हम हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करते हुए बोले-हे प्रभो ! हमारा यह पारस्परिक विवाद शुभ ही हुआ, जो हमें आप परमप्रभु के दर्शन प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। निश्चय ही हमारे शुभ कार्यों का उदय हुआ है जो हम आप को देखकर लोक परलोक का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं।
हे प्रभो ! हम से जो कुछ अपराध हुआ, उसे आप कृपापूर्वक क्षमा कर दीजिए। हम दोनों ने भगवान् सदाशिव को अपना स्वामी स्वीकार किया और अत्यन्त नम्रतापूर्वक अपने हाथ जोड़ते हुए उनकी महान् महिमा का वर्णन किया। तत्पश्चात् हम अपने मस्तक को नीचे झुकाए हुए उनके चरणारविन्दों की ओर देखने लगे ।
॥शिवजी द्वारा ब्रह्मा तथा विष्णु का स्पर्श॥
ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद ! मेरे तथा विष्णु द्वारा की गई स्तुति को सुनकर भगवान् सदाशिव ने मुस्कुराते हुये इस प्रकार कहा -हे ब्रह्मन् तथा हे विष्णो ! तुमने हमारी माया के मोह में पड़कर परस्पर युद्ध किया और अन्त में हमने तुम दोनों को अपना भक्त जानकर, अपना लिंग स्वरूप प्रकट किया, जिसे तुम दोनों में कोई नहीं पहिचान सका। अब तुम्हें यह उचित है कि पारस्परिक विरोध भाव को त्यागकर, तुम दोनों ही अंहकार को नष्ट कर दो और वह कार्य करो, जिसकी हम तुम्हें आज्ञा देते हैं।
हे नारद ! इतना कहकर भगवान् सदाशिव ने श्वास के मार्ग द्वारा मुझे सम्पूर्ण वेद पढ़ा दिये। तदुपरान्त वे पाँच मन्त्र भी बताये, जिनमे संपूर्ण विद्याएँ अन्तर्निहित हैं। उन्होंने सर्व प्रथम प्रणव की शिक्षा दी, जिसके अक्षर वेद कहलाते हैं। शिवजी का सर्वप्रथम वाक्य वही है। तदुपरान्त उन्होंने चौबीस अक्षरों से युक्त वेदों की माता गायत्री का उपदेश दिया।
फिर महामृत्युञ्जय मंत्र की शिक्षा देने के उपरान्त उस चिन्तामणि मंत्र को सिखाया, जो भक्तों को महान् सुख देता है। उस वेद तथा मन्त्रों को पढ़कर हमें अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई। उस समय मैं तथा विष्णुजी कृतज्ञता भरी दृष्टि से उन महेश्वर भगवान् की ओर देखने लगे और दर्शन के उस आनन्द में आचूड़ निमग्न हो गये।
उन परमप्रभु के दर्शन से हमें जो सुख प्राप्त हुआ, उसका वर्णन किसी भी प्रकार नहीं किया जा सकता। हमारे इन अनन्य प्रेम को देखकर भगवान् महेश्वर को भी बहुत प्रसन्नता हुई। तब उन्होंने मुझसे यह कहा-हे ब्रह्मा ! तुम धन्य हो, जो तुम्हें मेरी कृपा से सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। अब तुम मेरी आज्ञा स्वीकार कर, सृष्टि करो। मुझसे यह कह कर फिर वे विष्णु की ओर देखते हुए बोले-हे विष्णु ! तुम सृष्टि का पालन करने के अधिकारी हो। तुम हमें वेद का स्वरूप जानो और वेद में जो कुछ लिखा है, उसे हमारी आज्ञा मानकर स्वीकार करो ।
हे नारद ! भगवान् त्रिशूलपाणि की आज्ञा सुनकर हम दोनों ने उनसे प्रार्थना करते हुए कहा -हे प्रभो ! हमें आपकी आज्ञा स्वीकार है। हम यह चाहते हैं कि आप स्वयं भी कोई अवतार ग्रहणकर हमारी सहायता करते रहें। तीनों लोकों का पालन करने के पश्चात् अंत अर्थात् प्रलय का अधिकार आप अपने पास रखें। हमारा यही मनोरथ है।
इतना कह कर हम दोनों मौन हो गये। तदुपरांत उनकी मौन स्वीकृति पाकर हमने यह बात कही-हे प्रभो ! अब आप सर्वप्रथम हमें यह बताइए कि हम किस रीति के अनुसार आपका पूजन करें ?यह सुनकर भगवान् भूतभावन ने उत्तर दिया- हे ब्रह्मा तथा विष्णु ! हमें संसार में तुमसे अधिक प्रिय अन्य कोई न होगा। अब तुम दोनों सम्पूर्ण चिन्ता तथा शोक को त्यागकर, सुखपूर्वक अपना कार्य करो तथा उस कार्य द्वारा अन्य लोगों को भी सुख पहुँचाओ।
हमने तुम्हें कुछ देर पूर्व जो अपना लिंग स्वरूप दिखाया था, उसका पूजन करना सर्वथा योग्य है। उसी के पूजन से सुख की प्राप्ति होगी। उस लिंग की उत्पत्ति का भेद यह है कि सम्पूर्ण संसार जिस क्षेत्र में लीन हुआ है, उसीको लिंग कहते हैं। ऐसे लिंग के पूजन से इस लोक तथा परलोक में सुख प्राप्त होता है।
लिंग के पूजन की महिमा अनंत है। तुमने जो हमसे अवतार ग्रहण करने की प्रार्थना की है, उसके सम्बन्ध में यह जान लो कि समय आने पर हम स्वयं ही प्रकट होकर आवेंगे । हमारे उस अवतार का नाम रुद्र होगा। हम चारों अर्थात ब्रह्मा, विष्णु, शिव और शक्ति एक ही स्वरूप हैं। जो व्यक्ति हम में किसी प्रकार का भेद समझेगा, उसे बहुत दुःख उठाना पड़ेगा।
इतना कहकर भगवान् सदाशिव ने एक बड़े गुप्त भेद को प्रकट करते हुए मुझसे यह कहा-यह भेद वेद में भी अधिक गुप्त है अर्थात् हम सगुण रूप में शिव और शक्ति दो नामों से प्रकट होते हैं, तथा तीनों गुणों द्वारा ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव नामक देवताओं के रूप में अलग-अलग प्रकट होते हैं।
किसी कल्प में पहिले, विष्णु, फिर ब्रह्मा तदुपरान्त रुद्र की उत्पत्ति होती है तो किसी कल्प में पहिले शिव, फिर विष्णु और तत्पश्चात् ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार तुम दोनों शक्ति के चिह्न से रजोगुण एवं सतोगुण को ग्रहण करते हो। हर अर्थात महादेव हमारे ही अंश से उत्पन्न होकर, हमारे ही तमोगुणी स्वरूप हैं। उनके आधीन प्रलय कार्य रहता है। जिस प्रकार हम तमोगुणी रुद्र का स्वरूप धारण कर प्रकट होंगे, वह सब हमने तुम्हें बता दिया। तुम दोनों श्याम एवं लाल वर्ण का स्वरूप धारण किये हुए हो,अतः हम श्वेत रूप धारण करेंगे। तुम दोनों पर तमोगुण का प्रभाव न होगा, हमारे रुद्रस्वरूप की यह स्थिति होगी कि वह तमोगुण से संयुक्त होने पर भी दिन रात पवित्र योग में निमग्न रहेगा।
हे नारद ! मुझे यह आज्ञा देकर भगवान् सदाशिव ने विष्णुजी की ओर देखते हुए यह कहा-हे विष्णु ! तुम सम्पूर्ण जीवों का भली प्रकार पालन करना। हमारे दाहिने ओर से ब्रह्मा, बाएँ ओर से विष्णु तथा हृदय से रुद्र की उत्पत्ति होगी। हमारी शक्ति जो उमा हैं-वह भी दो अंशों में प्रकट होंगी, जिससे तुम अलग-अलग नहीं समझे जाओगे । पहिले अंश से वे लक्ष्मीस्वरूपा होकर तुम्हें प्राप्त होंगी और दूसरे अंश से सरस्वतीस्वरूप होकर ब्रह्मा को प्राप्त होंगी ।
उनके उमा स्वरूप को हम स्वीकार करेंगे। उस समय संसार में उनका नाम सती प्रसिद्ध होगा। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा महादेव-यह तीनों देवता अपनी शक्तियों के साथ रहकर वेद का पूजन करेंगे। तुम दोनों को उचित है कि तुम हमारी उस आज्ञा का अनुसरण करो।
ब्रह्मा का एक दिन सहस्त्र चतुर्युगी का होगा, इस प्रकार की एक सौ वर्ष की आयु ब्रह्मा की होगी। ब्रह्मा की सम्पूर्ण आयु का समय विष्णु के आधे दिन के बराबर होगा और विष्णु की सम्पूर्ण आयु का समय महादेव का एक दिन होगा। ऐसा एक दिन व्यतीत हो जाने पर हमारा सगुण स्वरूप निर्गुण होकर प्रलय कर दिया करेगा ।
इतना कहकर भगवान् सदाशिव ने हम दोनों के मस्तक पर अपने दोनों हाथ रखे। इस प्रकार उपदेश तथा शिक्षा देकर जब भगवान् शिव अन्तर्धान हो गये, तब हम दोनों शोक से व्याकुल हो, हाथ जोड़कर 'शिव-शिव' कहते हुए जिस ओर वे गुप्त हुए थे, उसी ओर मुँह किये बारम्बार दंडवत् करते रहे ।
॥भगवान् सदाशिव का प्रकट होना॥
ब्रह्मा जी बोले- "हे नारद! भगवान सदाशिव के आज्ञा पाकर विष्णु भी कुछ देर पश्चात् अन्तर्धान हो गये और उन्होंने सम्पूर्ण लोक को ब्रह्माण्ड से पृथक् कर दिया । परन्तु, उन्हीं सदाशिव की कृपा से शक्ति को प्राप्त कर, मैंने ब्रह्माण्ड अर्थात् सर्वोत्तम सृष्टि को उत्पन्न किया। अब मैं तुमसे जीवों की उत्पत्ति का वर्णन करता हूँ कि वे प्रकृति और पुरुष द्वारा किस प्रकार उत्पन्न होते हैं। जब भगवान् सदाशिव तथा उनकी परमशक्ति प्रकृति ने इच्छा की तो उनकी इच्छा द्वारा सर्वप्रथम बुद्धि की उत्पत्ति हुई । उस महत्तत्व से अहंकार एवं अहंकार से सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण की उत्पत्ति हुई। इन तीन गुणों द्वारा पृथ्वी एंव आकाश उत्पन्न हुए। इसी प्रकार क्रमानुसार देवता, मनुष्य आदि योनियों की उत्पत्ति हुई।
फिर मैंने भगवान् सदाशिव के चरणों का ध्यान धरकर सर्वप्रथम सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार एवं ऋभु-इन पाँच मनुष्यों को उत्पन्न किया । ये सब भगवान् सदाशिव का ध्यान धरने के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते थे । इन्होंने मुझ से यह कहा कि हम लोग सृष्टि उत्पन्न करने का काम नहीं करेंगे। इस अवज्ञा को देखकर मुझे उनके ऊपर बहुत क्रोध आया, विष्णुजी के समझाने पर मैंने उस क्रोध को शान्त कर लिया।
तत्पश्चात् मैंने परिश्रमपूर्वक बहुत समय तक तपस्या की, जब उस तपस्या का कोई फल न निकला तो मुझे अपने मन में बहुत आश्चर्य हुआ। उस समय मैं भगवान् सदाशिव की माया से ऐसा भयभीत हुआ कि मेरे नेत्रों से आँसुओं की बूंदें टपकने लगीं।
इस समय भगवान् सदाशिव ने दयालु होकर मुझे सद्बुद्धि प्रदान की, जिससे मेरे हृदय में यह इच्छा उत्पन्न हुई कि यदि भगवान् त्रिशूलपाणि ही मेरे पुत्र होकर जन्म लें तो सम्पूर्ण कार्य स्वयं ही सिद्ध हो जायेंगे । इस बात को मन में रखकर मैं फिर बहुत समय तक योगसमाधि में लीन हो गया।
मेरी उस तपस्या से भगवान् सदाशिव अत्यन्त प्रसन्न हुए और सृष्टि की वृद्धि करने के लिए उन्होंने मेरी भौंह के निचले भाग से अवतार ग्रहण किया। उन्होंने अपने उस अवतारी शरीर में वे चिन्ह प्रगट कर दिये, जिन्हें मैंने सर्वप्रथम विष्णु जी के साथ, उनका दर्शन प्राप्त करते समय देखा था। इस प्रकार उन्होंने मेरी सहायता करने के हेतु अवतार ग्रहण किया।
॥शिव शक्ति द्वारा भूत आदि सृष्टि की उत्पत्ति॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद! भगवान् सदाशिव इस रूप में प्रकट होकर मुझसे कहने लगे-हे ब्रह्मन्! यदि आप हमें आज्ञा दें तो हम वेदानुकूल कार्य करें। मैं ऐसे सुपुत्र को पाकर अपने मन में फूला नहीं समा रहा था। परन्तु, मैंने उनसे कहा- जब तुम जैसे मेरे पुत्र उत्पन्न हुए हैं, तो मेरे सम्पूर्ण मनोरथ निश्चय ही पूर्ण हो जावेंगे। मैं वेद के अनुसार तुम्हारे जो ग्यारह नाम हैं उन्हें बताता हूँ-मन्युमनु, महर्निष, महान, शिव, कृतुध्वज, उग्रेरता, भव, काल, वामदेव तथा धृतव्रत । तुम्हारी ग्यारह रुद्राणियों के नाम इस प्रकार होंगे-धी, वृत्ति, उशना, उमा, निवृत्सर, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा, दीक्षा तथा रुद्राणी ।
इसके अतिरिक्त रुद्र, महेश्वर, हर तथा जगदीश आदि तुम्हारे अनेक नाम और भी होंगे। पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु-ये पांचों तत्त्व तथा सूर्य, चन्द्रमा, जीव और हृदय ये योगस्थान तुम्हारे निवासस्थान होंगे। तुम अपनी पत्नियों को भी इन्हीं स्थानों में अपने साथ रखो और सन्तान की उत्पत्ति करो, जिससे सृष्टि की वृद्धि हो।
हे नारद ! मेरी बात सुनकर उन सगुणस्वरूप शिवजी ने भूत, प्रेत, पिशाच, आदि सहस्त्रों प्रकार के भयानक जीव उत्पन्न किये, जिन्हें देखकर मुझे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। तब मैंने भयभीत होकर उनसे कहा- तुम इस सन्तान को इसी समय नष्ट कर दो तथा श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न करो। यह सुनकर उन्होंने उत्तर दिया- हे ब्रह्मन् ! जिन जीवों को बार-बार जन्म लेना और मरना पड़े, उन्हें हम उत्पन्न नहीं करेंगे, उन्हें तो आप ही उत्पन्न कीजिये।
आप हमें भूलियेगा नहीं। यह कहकर शिवजी ने अपनी माया को मेरे ऊपर से हटा लिया। उस समय मैंने चैतन्य होकर अपना मस्तक दण्डवत् करने के हेतु उनके चरणों में झुका दिया। यह देखकर शिवजी ने मुझे ऊपर उठाते हुए, मेरे मस्तक पर अपना हाथ फेरा। उस समय सनकादिक भी आकर शिवजी के चरणों में गिर पड़े और उन्हें दण्डवत् करते हुए, स्तुति करने लगे ।
भगवान् सदाशिव ने सब पर दयालु होकर उन्हें उत्तम बुद्धि प्रदान की। तदुपरान्त वे मेरे ललाट के मार्ग से गुप्त होकर अपने लोक को चले गये। हे नारद ! हम तीनों देवताओं में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। अब मैं तुमसे सृष्टि का वर्णन पुनः करता हूँ।
॥पंचतत्व, पर्वत,मूल तथा कला आदि की उत्पत्ति का वर्णन॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद! भगवान् सदाशिव की आज्ञा पाकर मैंने सर्वप्रथम पृथ्वी, आकाश आदि पंचतत्त्व, पर्वत, मूल एवं कला आदि को उत्पन्न किया। तदुपरान्त अपनी इच्छा से विरचि, अग्निरस, शातातप, भृगु पुलस्त्य, पुलह, तथा वशिष्ठ- इन सप्त ऋषियों को जन्म दिया। फिर मैंने अपने प्रत्येक अंग से तुम्हें अर्थात् नारद, कद्रम एवं दक्ष आदि दस पुत्रों को उत्पन्न किया।
फिर स्तन से मनुष्य, पीठ से पाप और अन्य अंगों से प्रीति, तृष्णा आदि को प्रकट किया, तदुपरान्त क्रमानुसार नक्षत्र, दिशा, दिक्पाल, एवं चन्द्रमा आदि को उत्पन्न किया। अपने द्वारा उत्पन्न की हुई, उस तामसी सृष्टि को देखकर मुझे अत्यन्त चिन्ता हुई। रात्रि के कारण अब मुझे भूख लगी और मैं राक्षस-यक्षादि को खाने के लिए दौड़ा, उस समय मैंने अपने शरीर को भयंकर बनाकर, काल को उत्पन्न किया।
हे नारद ! इसके उपरान्त मैंने उस शरीर को त्यागकर स्त्री का स्वरूप धारण किया। उस समय मेरे उस रूप को देखकर सब ऋषि-मुनि आसक्त होकर मुझे पकड़ने के लिए दौड़े। तब मैंने उस शरीर को बदलकर एक दूसरा शरीर ग्रहण कर लिया और अपने घुटनों द्वारा असुरों की उत्पत्ति की। वे मुझे पहिचान नहीं सके, अतः निर्लज्ज बनकर काम के वशीभूत हो, मेरे पास दौड़े चले आये।
उनके भय से भयभीत होकर मैंने अपनी रक्षा के लिए भगवान् सदाशिव से प्रार्थना की और यह कहा कि हे प्रभो! आप इन दुष्टों को शीघ्र ही नष्ट कर डालें। मेरी प्रार्थना सुनकर भगवान् भूतभावन ने अप्रकट रूप से मुझे यह आज्ञा दी कि तुम अपने इस शरीर को बदल डालो।
तब मैंने उनकी आज्ञानुसार अपने शरीर को फिर बदल दिया। जिस समय मैंने शरीर को बदला, वह समय सायंकाल कहलाया। उसमें सम्पूर्ण असुर अचेत होकर गिर पड़े। तदुपरान्त मैंने मनुष्यों की सृष्टि की। मैंने दूसरा स्वरूप धारण कर राक्षस, गन्धर्व, यक्ष, गुह्य, किन्नर, किम्पुरुष, विद्याधर, ईश्वर, भूत, प्रेत आदि तथा स्त्री को उत्पन्न किया, इन जीवों की उत्पत्ति से भी मेरे हृदय को प्रसन्नता प्राप्त नहीं हुई।
हे नारद ! इसके उपरान्त मैंने शिवजी की इच्छा से हाथी, सिंह, बैल आदि बुद्धिहीन जीवों को उत्पन्न किया । इस सृष्टि को उत्पन्न करने के पश्चात् मैंने यह विचार किया कि यह लोग क्या काम करेंगे। यह सोचकर जैसे ही मैंने श्रीशिवजी का ध्यान किया तो चारों वेद उसी समय मेरे द्वारा उत्पन्न हो गये। उनसे मैंने धनुर्विद्या, गानविद्या एवं सम्पूर्ण कथाओं से युक्त पुराणों को, जिन्हें पंचम वेद कहा जाता है, उत्पन्न किया ।
इसके बाद मैंने संपूर्ण आश्रम अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ, संन्यास एवं व्रत, धर्मशास्त्र, नीति, मोक्ष, धर्म, अर्थ, काम तथा वैद्यक शास्त्र को उत्पन्न किया। इस प्रकार मैं जब सम्पूर्ण सृष्टि कर चुका तब विष्णु उसका पालन करने लगे एवं शिवजी पृथ्वी को स्थिर रखने के कार्य में संलग्न हुए । हे नारद ! सृष्टि की उत्पत्ति का यह वर्णन अत्यन्त सुख प्रदान करनेवाला है।
॥ब्रह्मा को शिव शक्तिरूप का दर्शन॥
ब्रह्माजी ने कहा- 'हे नारद ! अब मैं तुमसे उस सृष्टि का वर्णन करता हूँ, जो समागम से उत्पन्न होती है। यद्यपि मैंने अनेकों प्रयत्न किये, मुझे दृढ़ शक्ति की प्राप्ति नहीं हुई। यह देखकर मैंने अपनी संपूर्ण इन्द्रियों को वश में करके भगवान् सदाशिव की पुनः पूजा की। क्योंकि उनकी प्रसन्नता के बिना कोई भी कार्य पूरा नहीं होता है।
शिवजी ने इस पूजा से प्रसन्न होकर पुनः दर्शन दिया। उस समय उनका शरीर अर्धाङ्गी था अर्थात् उनके दाहिने ओर आधे भाग में तो सदाशिव का पुरुष शरीर था और बाईं ओर आधे भाग में महारानी जगदम्बा का स्त्री रूप था । आधे मस्तक पर जटाएँ थीं और आधे पर घुंघराले सुन्दर केश थे। एक ओर ललाट पर त्रिपुण्ड लगा हुआ था और दूसरी ओर बिंदी चमक रही थी । एक ओर डमरू की ध्वनि थी और दूसरी ओर घुँघरू का मधुर- स्वर ।
हे नारद ! भगवान् सदाशिव के इस अर्धाङ्गी स्वरूप को देखकर मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ और मैंने उन्हें दण्डवत् करते हुए प्रार्थना की-हे प्रभो ! मेरे धन्यभाग हैं, जो आप ने कृपा कर मुझे अपने दर्शन दिये। मेरी स्तुति को सुनकर भगवान् सदाशिव हँसते हुए बोले-हे ब्रह्मन् तुमने जिस मनोरथ की प्राप्ति के लिए इतना कष्ट भोगा है, उसे हम जानते हैं। तुम्हारी अभिलाषा अधिक सन्तान उत्पन्न करने की है।
इतना कह कर भगवान् सदाशिव शक्ति से अलग हो गये। उस समय मैंने शक्ति की महिमा का वर्णन करते हुए कहा-हे महारानी ! मैंने आपकी आज्ञा से सृष्टि उत्पन्न करने की चेष्टा की वह अधिक नहीं बढ़ी । हे अम्बे ! अब मैं कामदेव के आश्रय से सृष्टि उत्पन्न करना चाहता हूँ और आप से यह वरदान माँगता हूँ कि मेरा मनोरथ पूर्ण हो।
हे जगदम्बे! आप दक्ष की पुत्री के रूप में अवतार ग्रहण करें। मेरे मुख से निकले हुए इन शब्दों को सुनकर भगवती महामाया ने पहिले तो भगवान् सदाशिव की ओर देखा, फिर मुझ से यह कहा- हे ब्रह्मन् ! मैं तुम्हारी पौत्री के रूप में जन्म लूँगी और मेरा नाम सती होगा। जिस समय राजा दक्ष भगवान् सदाशिव का अपमान करेगा, उस समय मैं अन्तर्धान हो जाऊँगी ।
इतना कहकर वे शक्तिस्वरूपा जगदम्बा पुनः श्री सदाशिव के शरीर से संयुक्त हो गयीं। तब भगवान् भूतभावन भी अन्तर्धान हो गये ।
॥राजा स्वायंभुव एवं शतरूपा की उत्पत्ति का वर्णन॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब मैं तुम्हें वह वृत्तान्त सुनाता हूँ, जिस प्रकार इस मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति हुई। भगवान् सदाशिव से शक्ति प्राप्तकर मैंने एक पुरुष तथा एक स्त्री को अपने आधे-आधे शरीर से उत्पन्न किया। उस पुरुष का नाम 'स्वयंभू मनु' तथा स्त्री का नाम 'शतरूपा' हुआ। शतरूपा ने तपस्या द्वारा मनु को पति रूप में प्राप्त किया।
फिर उन दोनों-पुरुष तथा स्त्री ने मेरे पास आकर कहा-हे पिता! आप हमें कुछ आज्ञा दीजिए । तब मैंने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्हें यह आज्ञा दी थी कि तुम सर्वप्रथम भगवान् सदाशिव का पूजन करो, तदुपरान्त उनसे आज्ञा पाकर, सृष्टि उत्पन्न करने का कार्य करो ।
मेरी आज्ञा को स्वीकारकर उन्होंने ऐसी तपस्या की कि भगवान् सदाशिव ने प्रसन्न होकर उन्हें अपना दर्शन दिया तथा वरदान माँगने के लिए कहा। उस समय मनु ने उनकी स्तुति करते हुए यह कहा- हे प्रभो ! अपने मन की इच्छा को आपके सामने प्रगट करना मूर्खता होगी, अतः आप हमारे लिए जो उचित समझें वह करें।
यह सुनकर भगवान् त्रिशूलपाणि प्रसन्न होकर बोले- हे मनु ! तुम मनुष्य सृष्टि को उत्पन्न करो । उस सृष्टि कार्य में तुम्हें कोई कष्ट न होगा। तुम्हें तीन प्रकार के ऋण चुकाने होंगे जिन्हें देवऋण, पितृऋण तथा ऋषिऋण कहते हैं। इन तीनों ऋणों से उऋण होने का उपाय विद्या पढ़ना, संतान उत्पन्न करना तथा यज्ञ करना है। इतना कहकर शिवजी अन्तर्धान हो गये ।
हे नारद ! भगवान् सदाशिव से इस प्रकार वरदान प्राप्त कर मनु तथा शतरूपा मेरे समीप लौट आये और मुझे सब वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर मैंने भी उनसे कहा-तुम दोनों सन्तान की उत्पत्ति करो। मेरी आज्ञा पाकर वे दोनों सृष्टि उत्पन्न करने लगे। सर्वप्रथम उन्होनें दो पुत्र तथा तीन पुत्रियों को उत्पन्न किया। उनमें एक पुत्र प्रियव्रत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसने गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर श्रेष्ठ धर्म का पालन किया। उसकी सन्तान भी अत्यन्त शीलवान् हुई।
आगे चलकर उसी के वंश में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने अवतार लिया। मनु के दूसरे पुत्र का नाम उत्तानपाद था। उसके वंश में ध्रुव के समान योगी भक्त का जन्म हुआ। मनु की पहली पुत्री का नाम अनुमति था। उसका विवाह मेरे पुत्र रुचि नामक मुनि के साथ हुआ था। वह पुत्र मुझे अत्यन्त प्रिय था। उसके द्वारा यज्ञ और दीक्षा नामक दो संतानों की उत्पत्ति हुई।
मनु की दूसरी पुत्री का नाम देवहूति था। उसका विवाह कद्रम मुनि के साथ हुआ था। उसके गर्भ से भगवान् कपिल देव ने जन्म लिया। कद्रम मुनि के कला, अनुसूया, श्रद्धा, निवर्चा, कर्मागति, शान्ति, अरुन्धती, ख्याति, वर्हती तथा वृहती नामक दस कन्याएँ भी हुईं। इनमें से नौ कन्याएँ मरीच, अत्रि, अंगिरस्, पुलस्त्य, पुलह, कृतु, भृगु, वशिष्ठ तथा अथर्वण नामक सौ ऋषियों को ब्याही गईं ।
मनु की तीसरी पुत्री का नाम प्रसूति था। उसका विवाह दक्ष के साथ हुआ। उन दोनों से साठ कन्याएँ उत्पन्न हुईं। उनमें से दक्ष ने दस कन्याओं का विवाह धर्मराज के साथ कर दिया। सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को दीं तथा तेरह कन्याएँ कश्यप को, चार कन्याएँ तार्क्ष्य को एवं, भूत, अंगिरस् तथा कृशाश्व को दो-दो कन्याएँ ब्याह दीं।
उन सबसे बहुत अधिक सन्तानों की उत्पत्ति हुई। उसी के कुल में हमने, विष्णु जी ने तथा शिवजी ने जन्म लिया। इस प्रकार अपनी साठों पुत्रियों का विवाह करने के उपरान्त दक्ष ने मेरे पास आकर सब हाल कह सुनाया और यह पूछ कि अब आप मुझे क्या आज्ञा देते हैं।
दक्ष की बात सुनकर मैंने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा-हे पुत्र ! अब तुम कोई ऐसा उपाय करो, जिससे तुम्हारी एक पुत्री का विवाह शिवजी के साथ हो सके। ऐसा करने से तुम्हारा जन्म सफल हो जायगा और हमारी सृष्टि पवित्र हो जायगी। मेरी यह आज्ञा सुनकर दक्ष कठिन तपस्या करने के लिए चला गया। उस तपस्या के प्रभाव से आदिशक्ति जगदम्बा ने दक्ष के घर में अवतार ग्रहण किया ।
॥वैकुंठ आदि लोकों का वर्णन॥
नारद जी ने हँसकर कहा-हे पिता! अब आप अपने, विष्णुजी के एवं शिवजी के लोकों का वर्णन कीजिए। यह सुनकर ब्रह्माजी भगवान् सदाशिव का ध्यान धरकर बोले-हे पुत्र ! मेरे लोक का नाम सत्यलोक है।
इसके ऊपर विष्णुजी तथा शिवजी के लोक हैं, जिन्हें वेद तथा पुराण परमधाम कह कर पुकारते हैं। सत्यलोक के ऊपर वैकुण्ठलोक है। यह सोलह करोड़ योजन की परिधि में चौकोर बसा हुआ हैं। उसमें रत्नों से भरे हुए स्वर्ण-मन्दिर, बाग, उपवन, तथा कुएँ आदि सर्वत्र सुशोभित हैं। इसको स्वर्ग भी कहा जाता है ।
हे नारद ! अब मैं तुमसे उस लोक का वर्णन करता हूँ, जो स्वर्ग से ऊपर है और जिसे स्वामिकार्तिकेयलोक कहते हैं। वह लोक चौंसठ योजन की परिधि में चौकोर बसा हुआ है। उस लोक के सभी घर रत्नों से भरे हुए हैं। उस लोक के स्वामी स्वामिकार्तिकेय हैं, जिन्होंने तारकासुर का वध कर देवताओं को आनन्द प्रदान किया था। वे भगवान् सदाशिव के पुत्र होकर, उन्हीं के पद पर विराजमान हैं।
हे नारद ! उस लोक के ऊपर शक्तिलोक है। वहाँ सम्पूर्ण सृष्टि की माता जगदम्बा आदिशक्ति निवास करती हैं। वहाँ इन्द्र आदि देवता जगन्माता की सेवा करते हुए उनके चरणों का ध्यान धरते रहते हैं। हे पुत्र ! तुम्हें यह जान लेना चाहिए कि इस सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणी उन आदिशक्ति की कृपा से ही ठहरे हुए हैं। वे जगदम्बा भगवान् सदाशिव की अर्द्धाङ्गिनी हैं। उन्हीं के अंश द्वारा मेरी पत्नी ब्रह्माणी, विष्णुजी की अर्द्धाङ्गिनी लक्ष्मी एवं स्वाहा, स्वधा, सिद्धा, विश्वा तथा इन्द्राणी की उत्पत्ति होती है। वह शक्तिलोक भली-भाँति सजा हुआ है।
हे नारद ! शक्तिलोक के ऊपर शिवलोक है। वहाँ किसी को चिन्ता और मोह नहीं व्यापते हैं। जिस स्थान पर भगवान् सदाशिव का सिंहासन है, वह स्थान परम मनोहर है। शिवजी के बैठने का सिंहासन रत्नों से जड़ा हुआ है। उसके पास ही शिवजी के तथा भगवती आदिशक्ति के अनेक निवास एवं विहार स्थल बने हुए हैं।
उस शिव लोक का विस्तार दो सौ छप्पन करोड़ योजन है। उस लोक के बीचों-बीच अत्यन्त सुन्दर, पवित्र तथा सब प्रकार की चिन्ताओं को नष्ट करनेवाला भूतभावन का मुख्य निवासस्थल बना हुआ है। उन त्रिशूलपाणि शिवजी द्वारा ही मेरी, विष्णुजी की तथा रुद्र की उत्पत्ति हुई है।
वे सबके स्वामी, स्वाधीन तथा एकरूप हैं। उसी शिवलोक में शिवजी की श्रेष्ठ गोशाला बनी हुई है, जिसे गोलोक कह कर पुकारा जाता है। उसके स्वामी श्रीकृष्णजी तथा श्री राधिकाजी हैं।
॥गुनानिधि की कथा॥
सूतजी ने कहा-हे ऋषियो ! ब्रह्माजी के वचन सुनकर, नारदजी अत्यन्त प्रसन्न हो, प्रेम एवं सुखरूपी समुद्र में गोते लगाने लगे । फिर प्रेमपूर्वक इस प्रकार बोले-हे ब्रह्माजी ! आपने जो शिवलोक को सर्वोच्च स्थान देकर उसका वर्णन किया, उसे सुनकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है, लेकिन मेरे मन में एक सन्देह उत्पन्न हुआ है।
मैंने सुना था कि शिवजी का स्थान कैलाश पर्वत पर है तथा जो शिवपुरी में जाता है उस कैलाश की प्राप्ति होती है, न किसी अन्य स्थान की। इसलिए आप मुझे यह बताइए कि जो शिवजी कैलाश में निवास करते हैं क्या वे वही शिवजी हैं, जिनका कि आप वर्णन करते हैं अथवा कोई दूसरे हैं ?
नारदजी का यह प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! अब मैं तुम्हें सब हाल विस्तार पूर्वक बताता हूँ। जो परमब्रह्म सगुणरूप शंकर हैं और उनकी इच्छा से शक्ति द्वारा शिवानी हुई, वे ही ब्रह्मशिव अपनी शक्ति द्वारा संसार की सृष्टि करते हैं। मैं उनके लोक काशी, ब्रह्मपुर तथा आनन्दवन का वर्णन कर चुका हूँ। अब अपनी शंका का समाधान सुनो । जब मैं शिवजी की आज्ञानुसार सृष्टि उत्पन्न कर चुका तब मैंने उन महाप्रभु से प्रार्थना की कि हे प्रभु अब आप भी सगुणरूप अंगीकार करके आइए। यह सुनकर शिवजी बोले हे ब्रह्मा ! हम नियत समय पर अवश्य ही आयेंगे ।
जिस प्रकार तुम हमारे नाम आदि देखते हो तथा जैसे हम हैं वह सब अपने अवतार में प्रकट करेंगे। शिवजी यह कहकर अन्तर्धान हो गये। इसके पश्चात् शिवजी निश्चित समय पर प्रकट होकर मेरी इच्छा की पूर्ति के लिए कैलाश पर्वत पर उपस्थित हुए तथा गौरीजी को अपने से पृथक करके स्वयं कठिन तपस्या करते हुए त्रैलोक्य का पालन करने लगे। अब मैं उस कथा का विस्तार से वर्णन करता हूँ, जिस कारण शिवजी कैलाश पर्वत पर आये।
जिस कथा का अब मैं वर्णन करता हूँ, वह कल्पभेद के कारण दूसरे प्रकार से है। अर्थात् मैंने शिवजी की आज्ञानुसार संसार को उपजाया और चौदह लोक उपलोक, द्रुपदपुरी एवं कपिला को, जिन्हें देखने से मन प्रसन्न होता है तथा जहाँ काली मृत्युरूप से बैठी है, प्रकट किया। पापनाशिनी गंगा के तट पर पापों को हरनेवाला कपिल मुनि का पवित्र आश्रम था।
उसी स्थान पर यज्ञदत्त नाम के दो ब्राह्मणों का जन्म हुआ। यज्ञदत्त यज्ञशास्त्र में बहुत ही योग्य था । उसको वहाँ के राजा ने बहुत-सा धन दिया। वह वाग्मी, शुद्ध हृदय, शीलवान् वेदों में निपुण, परम उपकारी, उदार तथा शिवजी का परम भक्त था। उसकी स्त्री अत्यन्त पवित्र, पतिव्रता, गृहकार्य में निपुण, तथा अच्छे कार्यों को करने वाली थी।
कुछ समय पश्चात् उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम उन्होंने गुणनिधि रखा । गुणनिधि ने थोड़े ही दिन में अनेक विद्याएँ सीख लीं; परन्तु कुछ दिनों के पश्चात् वह कुल की रीति छोड़कर, बुरी नीति पर चलने लगा। उसने बुरे मनुष्यों की संगति की। उसी के फलस्वरूप उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी, क्योंकि अच्छे और बुरे कर्मों पर संगति का प्रभाव अवश्य पड़ता है ।
गुणनिधि उस अज्ञान-अवस्था में बुरे लोगों के सम्पर्क में आया-जाया करता था। धीरे-धीरे उसके सब धर्म नष्ट होने लगे। वह वेदों के विपरीत कर्म करने लगा। वह बड़ा छली तथा जुआरी हो गया। उसकी माता उसको नित्य भले-भले उपदेश करती, वह पिता के निकट कभी न जाता। जिस समय उसकी माता गृह-कार्य में संलग्न रहती, वह घर की चीजें चुरा कर ले जाता ।
एक बार उसके पिता ने पूछा कि गुणनिधि कहाँ गया ? तब माता ने उत्तर दिया कि वह स्नान, पूजन तथा भोजन आदि से निवृत्त होकर, अपने मित्र विद्यार्थियों के साथ पाठशाला चला गया है। इस प्रकार उसकी माता ने उसके पिता से उसके अवगुण को छिपाया।
॥गुणनिधि के ऊपर पिता का कोप॥
ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद ! जब भी गुणनिधि का पिता अपनी पत्नी से पुत्र के विषय में पूछता वह इसी प्रकार टाल दिया करती थी। इस प्रकार यज्ञदत्त अपने पुत्र के अवगुणों को न जान सका और वह बहुत दिनों तक इसी प्रकार दुष्कर्म करता रहा। जब उसकी अवस्था सोलह वर्ष की हुई तब उसका विवाह कर दिया गया।
पत्नी भी पतिव्रता, शीलवती एवं सर्वगुणसंपन्न मिली। गुणनिधि को ऐसी पवित्र पतिव्रता पत्नी प्राप्त हुई, फिर भी वह अपनी कुसंगति एवं दुष्कर्मों को न त्याग सका। उसकी माता सदैव सदुपदेश देती तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की कथाओं द्वारा उत्तमोत्तम दृष्टान्त देती हुई कहती हे गुणनिधि तुम्हीं हमारे एक मात्र पुत्र हो, इसलिए इन दुष्कर्मों को त्याग दो। तुम्हारे पिता अत्यन्त क्रोधी प्रकृति के हैं। वह अभी तुम्हारे अवगुणों को नहीं जानते हैं। क्योंकि मैंने बहुत पूछने पर भी उन्हें नहीं बताया है। इसीलिए तुम अभी तक उनसे निर्भय हो। यदि किसी दिन उन्हें इन कर्मों का पता लग गया तो वे मुझे और तुम्हें दोनों को दंड देंगे।
इससे यही उत्तम है कि उन्हें पता लगने से पहिले ही तुम कुसंगति को त्यागकर, सत्कर्म करो। हे पुत्र ! तुम्हारी पत्नी बुद्धिमान् महारूपवती तथा उच्चकुल की है। उसी प्रकार तुम भी गुणवान् तथा उच्चकुल के हो। ऐसी पत्नी के साथ सुख से अपना जीवन व्यतीत करो। अपनी स्त्री का त्याग करना महापाप है। तुम पिता के धर्म पर चलो, नहीं तो सारा संसार तुमको बुरी दृष्टि से देखेगा । तुम मुझको तथा अपने पिता को क्यों लज्जित करते हो ? तुम अन्य घरों के लड़कों को देखो, वे नित्य वेदपाठ करते हैं।
जब यहाँ के राजा को तुम्हारे अवगुणों के विषय में ज्ञात होगा तो वह तुम्हारे पिता से अप्रसन्न होकर उनका मासिक शुल्क देना बन्द कर देगा। अभी तो लोग यह कह कर टाल देते हैं कि तुम यह अवगुण के कर्म लड़कपन के कारण करते हो, अवस्था बढ़ जाने पर सब लोग तुम पर हँसेंगे तथा व्यंग्यपूर्ण तानों से कहेंगे कि अब तुम्हारा कुल अति अपवित्र हुआ। वे तुम्हारे पिता की निन्दा करेंगे और इन्हीं सब कारणों से तुम्हारे पिता नरकगामी होंगे।
सब लोग इसका दोषी मुझी को ठहरावेंगे। वे कहेंगे कि इसी ने पाप-कर्म से गर्भधारण कर ऐसा पुत्र उत्पन्न किया है, क्योंकि तुम्हारें पिता निष्पाप हैं। वे वेद एवं धर्मशास्त्र के ज्ञाता हैं। मैं भी अपने पति के सिवाय और किसी पुरुष को नहीं जानती तथा निष्पाप होकर गृहकार्य में संलग्न रहती हूँ। यह सब भगवान् की इच्छा है कि मेरे गर्भ से तुम जैसा दुख देनेवाला कुपुत्र उत्पन्न हुआ है ? इस प्रकार गुणनिधि की माता अनेक उपदेश देती, भिन्न-भिन्न प्रकार से समझाती, लेकिन गुणनिधि पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।
ब्रह्माजी बोले-हे नारद! गुणनिधि को यदि मेरे समान भी कोई गुरु मिलता तो भी उस मूर्ख के मन में बुद्धि उत्पन्न न होती। गुणनिधि की माता उपदेश करते-करते थक गयी। परन्तु गुणनिधि पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह सदैव जुआ खेलता, चोरी करता, मद्यपान करता, और वेश्याओं के साथ भोग करने में अपना समय व्यतीत करता था। इस प्रकार उसने कुछ ही दिनों में पिता का धन चुराकर जुआ, भोग तथा वेश्याओं पर खर्च कर डाला।
इस प्रकार वह निर्धन हो गया। उसके पिता ने जितने बहुमूल्य रत्न एवं उत्तम वस्त्र, अपनी विद्या के प्रभाव से राजा के यहाँ से प्राप्त किये थे, उनमें से कुछ भी शेष न बचा। तब एक दिन गुणनिधि ने अपनी माता को पूरी तरह निद्रा में लिप्त देखकर, उसके हाथ में से अँगूठी उतार ली और उसको जुआरियों के साथ दाँव पर लगा दिया। जुआरियों ने उस अँगूठी को भी जीत लिया।
एक दिन अकस्मात् उसके पिता यज्ञदत्त ने उस अँगूठी को एक जुआरी के पास देखकर पहचान लिया। उन्होंने उस पुरुष को एकान्त में ले जाकर पूछा कि तुमने यह अँगूठी कहाँ से प्राप्त की है ? उस जुआरी ने उत्तर दिया यह अँगूठी तथा इसी प्रकार की अनेक अँगूठियाँ मेरे पिता के घर में हैं। जान पड़ता है, पराया धन देखकर तुम ललचाते हो। भला, तुमने ऐसी चतुराई किससे सीखी है ? तब यज्ञदत्त ने क्रोधित होकर उससे कहा-अब तुम हँसी छोड़कर तथा छल आदि को त्यागकर इस अँगूठी के विषय में सत्य-सत्य बता दो कि यह तुमने कहाँ से प्राप्त की है ? मैंने इसे राजा से प्राप्त किया है अतः तुम इसे नहीं ले सकते ।
इस प्रकार जब उन्होंने दृढ़ता से जुआरी से पूछा तो उसने सब सत्य-बात उनको बता दी और कहा-तुम मुझको डराते-धमकाते क्यों हो, मैंने कोई चोरी नहीं की है। यही क्या, और भी बहुत-सी वस्तुएँ मैंन तुम्हारे लड़के से जुए में जीती हैं। अनेक रत्न, सोने-चाँदी के आभूषण, पीतल-ताँबे आदि के बर्तन जो तुम्हारे घर में थे, हमलोगों ने वे सब तुम्हारे लड़के से जीत लिये हैं। वह केवल जुआ ही नहीं खेलता, अपितु, चोरी तथा वेश्या-गमन भी करता है।
जुआरी के ऐसे वचन सुनकर यज्ञदत्त को बहुत आश्चर्य हुआ। वे कपड़े से अपना मुँह लपेटे शोक से रुदन करते हुए, अपने घर आये तथा स्त्री से बोले-गुणनिधि कहां है तथा मेरी अँगूठी कहां है ? उनकी स्त्री ने यह सुनकर भयभीत हो, बड़ी चतुराई से उत्तर दिया इस समय मैं अनेक कार्यों में व्यस्त हूँ। तुम्हारा भी यह पूजन का समय है। मुझे तुम्हारे प्रेमी अतिथियों का भोजन बनाना है। मैंने अँगूठी को किसी स्थान पर रख दिया है, लेकिन इस समय स्मरण नहीं है।
जिस समय इन कार्यों से अवकाश पाऊँगी, उस समय तुम्हारी अँगूठी खोज कर दे दूँगी। यज्ञदत्त यह सुन क्रोधित होकर बोले-हे कपूत की माँ ! छल वार्ता में चतुर! मैंने जिस दिन भी तुम से यह पूछा कि गुणनिधि कहाँ है, तभी तुमने यह उत्तर दिया है कि यह अपने साथियों सहित विद्याध्ययन के लिए पाठशाला गया है। अच्छा, यदि अँगूठी नहीं मिलती तो अन्य वस्तुएँ मुझे लाकर दिखाओ।
अब तुम पुत्र-मोह को त्याग दो, क्योंकि कुपुत्र किसी प्रकार का सुख नहीं पहुँचा सकता। अब मेरी इच्छा बिना पुत्र के रहने की है। मुझे ऐसी सन्तान की आवश्यकता नहीं है। अब तुमको यही उचित है कि हाथ में कुश एवं जल-लेकर लड़के के नाम तिलाजंलि छोड़ो। जब तक मैं यह न कर लूँगा, तब तक भोजन ग्रहण न करूँगा। गुणनिधि की माता अपने स्वामी के ऐसे वचन सुनकर, उनके चरणों पर गिर पड़ी तथा क्षमाप्रार्थना करने लगी। कुछ देर के पश्चात् यज्ञदत्त का क्रोध भी कम हो गया।
॥गुणनिधि की मृत्यु एवं शिवपुरी गमन॥
ब्रह्मा जी ने कहा- हे नारद जब गुणनिधि ने यह बात सुनी तब वह चिन्ता और शोकयुक्त होकर अपने को भाग्यहीन समझने लगा। वह रो-रो कर कहने लगा-हाय-हाय, हे मेरी सहायक माता! अब मैं कहाँ जाऊ और क्या करूँ ? इस समय मुझको कुछ नहीं सूझ पड़ता है। मुझे धिक्कार है। गुणनिधि यह कह कर पिता के भय से भयभीत हो, रोता हुआ घर से भाग गया। वह कुछ समय में ही मार्ग के परिश्रम से थक कर तथा शोक-सागर में डूब कर, हाय-हाय करता हुआ रुदन करने लगा।
रोते-रोते वह कहता-हे मेरी माता ! मैं अब कहाँ जाऊँ और क्या करूँ ? मुझे कोई उपाय नहीं सूझता। मैं विद्या से हीन हूँ, जो मुझको इस समय में लाभदायक होती। मैंने धन का संग्रह भी तो नहीं किया, जिससे विद्वान एवं बुद्धिमान लोग सुख से जीवन व्यतीत करते हैं। अब तो मैं भिक्षा माँगने के योग्य भी नहीं रहा हूँ। प्रातःकाल जब मैं सोकर उठता था तो मेरी माँ मुझे बड़े स्नेह से भोजन देती थी परन्तु अब उस माता को मैं कहाँ पाऊँ ? क्या करूँ तथा कहां जाऊँ ?
गुणनिधि इस प्रकार भयभीत हो रुदन करते-करते अचेत होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। सूर्यास्त का समय हो गया। कुछ समय पश्चात् वह सचेत होकर पुनः इसी चिन्ता में डूबा हुआ था कि इतने में एक शिवभक्त पुरुष शिवजी की पूजा के लिए उधर से निकला। उसके पास पूजन के लिए अनेक प्रकार की सामग्री तथा शिवजी के लिए भाँति-भाँति के नैवेद्य थे। उसके साथ कुछ अन्य शिव भक्त भी थे। उस दिन शिवरात्रि थी, जिसमें मुनष्य व्रत करके मुक्ति प्राप्त करते हैं।
यह शिवरात्रि सब व्रतों में श्रेष्ठ, अत्यन्त सुखदायक स्वंय शिवजी को अतिप्रिय है। मूर्ख भी इस व्रत को करके अपने मनोरथ सिद्ध कर चुके हैं। जिस प्रकार शिवजी समस्त देवताओं को सुख प्रदान करते हैं, उसी प्रकार यह व्रत भी मनुष्यों को सुख प्रदान कर इस अपार संसार के ऋणों तथा बन्धनों से मुक्त कर देता है। ऐसे परम शिवरात्रि व्रत को रखे हुए वे मनुष्य शिवालय में चले गये ।
जो पुरुष अनेक प्रकार के नैवेद्य एवं व्यंजन अपने साथ लाया था, उसकी सुगन्धि पाकर गुणनिधि जो बहुत भूखा था विचार करने लगा कि रात्रि के समय जब ये लोग शिवजी को अप्रण करेंगे तथा सो जावेंगे, उस समय मैं इस सुगन्धित भोजन को वहाँ से उठा लूँगा। गुणनिधि अपने मन में यह विचार कर, उन्हीं लोगों के साथ चल दिया तथा शिवालय के ऊपर जाकर ठहर गया । शिवभक्त ने सच्चे हृदय से अनेक प्रकार से शिवजी की पूजा की। फिर वह भक्ति में खोकर नृत्य करने लगा।
गुणनिधि ऊपर से यह सब देखता रहा। वह अपने मन में कहता था कि यदि इनकी दृष्टि क्षीण हो जाय तो मैं अपना काम करूँ। कुछ समय पश्चात् वे सब शिव भक्त, ऊँघ गये। तब गुणनिधि सबको निद्रावस्था में देखकर शीघ्र ही शिवालय में जाकर धीरे-धीरे दबे पाँव नैवेद्य के पास जा पहुँचा। अँधेरा होने के कारण उसने प्रकाश करने के निमित्त धीरे से अपना वस्त्र फाड़कर बत्ती बनायी और उसको जलाया। उसके प्रकाश में सब व्यंजन उठा लिये तथा उन्हें लेकर वहाँ से वह प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र ही बाहर निकल गया।
परन्तु चलते समय उसका एक पैर लेटे हुए किसी शिव भक्त के लग गया, जिससे वह उसी क्षण उठकर चिल्लाया तथा कहने लगा कि यह कौन चोर भागा जाता है, इसे पकड़ो। नगर के रक्षक उस आवाज को सुनकर आ गये तथा गुणनिधि को लक्ष्य कर, उन्होंने बाण छोड़ दिया, जिससे आहत होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। क्षण भर में वहीं उसकी मृत्यु भी हो गयी।
परन्तु, तब यमदूत पहुँचकर मुगदर आदि भंयकर शस्त्र गुणनिधि को दिखाते हुए उसे पापी जानकर बाँधने लगे। परन्तु उसी समय शिवजी ने अपने गणों से कहा-यद्यपि गुणनिधि ने अनेकों पाप किये हैं; परन्तु वह शिवरात्रि का व्रत रखकर न तो रात्रिभर सोया है और न उसने हमारा निर्माल्य ही खाया है। नगर के रक्षकों द्वारा उसकी मृत्यु हुई है।
इस समय उसको यमदूत बाँध रहे हैं, अतः मेरा आदेश है कि तुम यमदूतों से गुणनिधि को मुक्त करके मेरे लोक में ले आओ; क्योंकि मैंने उसको अपना लिया है। अब वह नरकगामी न होगा। मुझको शिवरात्रि व्रत अत्यन्त प्रिय है। परन्तु, अब गुणनिधि कलिंगदेश का राजा होकर मेरा परमभक्त होगा ।
शिवजी के आदेशानुसार उनके गण गुणनिधि के पास जा पहुँचे। उनके हाथों में त्रिशूल थे। यमराज के गण उन्हें देखकर बहुत भयभीत हो गये। शिवगणों ने उनसे कहा-तुम कौन हो, जो इस निष्पाप व्यक्ति को बाँध रहे हो ? यमदूत यह सुनकर आश्चर्य के साथ कहने लगे- तुम कौन हो, जो यम की अवज्ञा करके ऐसे पापी को छुड़ाते हो ? भला तुम किसकी शक्ति पर इतने प्रबल हो रहे हो ? तब शिवगणों ने यह उत्तर दिया कि हम उन शिवजी के गण हैं, जिनका ध्यान ब्रह्मा विष्णु आदि सभी देवता करते हैं। तुम इसको छोड़ दो ।
यमगणों ने कहा-तुम्हारी आज्ञा उचित है, परन्तु इसके पापों का विचार न कर तुम इसे क्यों छुड़ा रहे हो ? इसने अपने कुल की रीति को त्यागा है तथा वेद का अपमान किया है। हम इसकी मूर्खता को कहाँ तक कहें ? यह सब पापियों का सिर मौर है। सबसे बड़ा पाप जो इसने किया, वह यह है कि शिव-निर्माल्य चोरी करके ले भागा और खाने लगा।
यह तो तुम भी देखे होगे। तुम यह भी भली भांति जानते होगे कि जो कोई शिव-निर्माल्य ग्रहण करता है, उसको ऊपर से लाँघ जाता है अथवा किसी को देता है। वह नरकगामी होता है। शिवजी पर चढ़ी वस्तु खाने की अपेक्षा, विष पीना कहीं अच्छा है। परन्तु इस संसार में तो धर्म रखना ही बहुत कठिन हो गया है।
शिवगणों ने यमगणों के मुख से यह शब्द सुनकर उत्तर दिया-हे यमदूतो ! यह ब्राह्मण पुत्र निष्पाप हो चुका है। इसने सबसे बड़ा धर्म यह किया है कि इसने शिव मन्दिर में जाकर अपना वस्त्र फाड़ा तथा उससे दिया जलाकर प्रकाश किया। दूसरा बड़ा धर्म यह किया है कि शिवरात्रि को रात्रि दिन व्रत कर रात्रि भर जागरण किया, शिवजी का पूजन देखता रहा और उनके नाम श्रवण करता रहा।
यद्यपि यह धर्म इससे अचानक ही हुआ, परन्तु इसको पुण्य लाभ हुआ है। अब यह भविष्य में कलिंग देश का राजा होकर शिवजी का पूजन करेगा। यह कह कर शिवजी के गण गुणनिधि को मुक्त कर, अदृश्य हो गये।
॥गुणनिधि की विश्रवा के यहाँ उत्पत्ति॥
ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! शिवगणों के ऐसे वचन सुनकर यमदूत लज्जित होकर यम के पास गये तथा उन्हें सब हाल विस्तारपूर्वक कह सुनाया । यम को भी यह सुनकर आश्चर्य हुआ। फिर यम ने शिवजी को दंडवत् कर, अपने गणों को तीनों लोकों में फिरने का आदेश देते हुए यह कहा कि जो मनुष्य देह में भस्म लगाये हो, रुद्राक्ष धारण किये हो, शिवलिंग का पूजन करता हो, एवं आराधन में डूबा हो अथवा छल से भी शिवजी का बान तथा वस्त्र धारण किये हो, तथा उसका शिवजी से किसी प्रकार भी संबन्ध हो तो तुम उसको मुक्त कर देना, और कोई कष्ट मत देना। यमराज ने शिवजी की स्तुति करते हुए कहा- हे सदाशिव ! आप मेरे पापों को क्षमा कीजिए, क्योंकि यह अपराध मुझसे अज्ञान में ही हुआ है। इस प्रकार बहुत स्तुति करने के पश्चात् यमराज चुप हो गये ।
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! गुणनिधि यमगणों से मुक्ति पाकर, विमान पर आरूढ़ हो, शिवलोक को चला गया। बहुत समय तक स्वर्ग में अनेक प्रकार के सुख भोग कर, वह कंलिग देश का राजा हुआ। वहाँ के पहिले राजा का नाम इन्द्रमुनि था। गुणनिधि ने उसी के यहाँ जन्म लिया तथा कद्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह शिवजी का अनन्य भक्त था। इन्द्रमुनि अपने पुत्र में राजा के समस्त लक्षण देख, अपना सम्पूर्ण राज्य उसको सौंप रानी सहित वन में जाकर, शिवजी की कठिन तपस्या करके, शिवलोक को प्राप्त हुआ।
कद्रम को पूर्व जन्म का स्मरण था, इसलिए वह समस्त शिवालयों में दीपदान करने लगा। उसने प्रत्येक मंडलेश्वर को आदेश दिया कि जितने भी शिवालय हों, वहाँ दीपक जलाये जायें और जो इस आज्ञा का उल्लंघन करे, उसका सिर धड़ से अलग कर दिया जाय। गाँव के स्वामी इस भय से दीपदान करने लगे। वह स्वयं भी बड़े हर्ष के साथ इस कार्य को करता रहा।
उसने अपनी नीति द्वारा जनता को प्रसन्न रखा। वह जीवन भर शिवजी के दीपदान से अचेत न रहा। जब उसकी मृत्यु हुई, तब उस पुण्य से वह शिवलोक को प्राप्त हुआ। उसने शिवलोक में अनेक प्रकार के आनन्द एवं सुख भोगे तथा शिव चरणों का ध्यान धरता रहा। इसके पश्चात् उसने मृत्युलोक में जन्म लिया।
ब्रह्माजी कहते हैं-हे नारद! अब मैं तुम्हें अपने लड़के पुलस्त्य के पुत्र का हाल सुनाता हूँ। मेरे पुत्र पुलस्त्य के विश्रवा नाम का एक पुत्र हुआ। विश्रवा के तीन स्त्रियाँ थीं। वे तीनों ही विष्णु तथा शिव की भक्त थीं। विश्रवा की सबसे छोटी पत्नी से विभीषण नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। विभीषण विष्णु का ऐसा भक्त हुआ कि वह इस अथाह संसार सागर से पार हो गया। विश्रवा की मँझली पत्नी से दो पुत्र रावण तथा कुम्भकर्ण, तुम्हारे शाप के फलस्वरूप उत्पन्न हुए। वे दोनों ही शिव के भक्त बनकर, अनेक प्रकार के संसारी भोग-विलासों में लिप्त हो गये।
उनमें से रावण ने शिवजी की कठिन तपस्या कर, उनसे वरदान प्राप्त किया। उसने तेज एवं प्रताप से संसार भर में राज्य किया। विष्णु भगवान ने उसका नाश करने के लिए स्वयं द्विभुज मानव अवतार लिया था, जिनका नाम राम हुआ। वे रावण का नाश न कर सके। तब उन्होंने शिवजी की आराधना कर, अपने कठिन तप से उनको प्रसन्न किया और शिव के अवतार अर्थात् श्रीहनुमानजी को साथ लेकर बानरों की सहायता से रावण-वध किया तथा उसके वंश को ही मिटा डाला।
विश्रवा की सबसे बड़ी पत्नी का नाम षटतिला था। उसके उदर से गुणनिधि का जन्म हुआ था, जिसका वर्णन पहिले किया जा चुका है। विश्रवा ने पहिले लंका में रहकर जो उचित था, वह किया; फिर काशी में आकर घोर तपस्या की, जिससे शिवजी उसपर अत्यन्त प्रसन्न हुए। शिवजी का वरदान पाकर वह अलकापुरी का राजा हुआ तथा दिक्पति के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसे राज्य करते हुए एक कल्प व्यतीत हुआ। जब धनवान कल्प का आरंभ हुआ उस समय विश्रवा ने तपस्या आरंभ की।
उसने दीपदान की सम्पूर्ण विधि कठंस्थ करके, उसमें बहुत ध्यान लगाया। वह काशी में कठिन तपस्या करने लगा और हृदय के नेत्र खोलकर उसने शिवजी के दर्शन प्राप्त किए । अपने हृदय को ब्रह्मज्ञान से पूर्ण कर, उसने मन को शान्त कर लिया और उसी स्थान पर शिवलिंग की स्थापना करके षोडशोपचार द्वारा उसकी पूजा की।
पूजा करते-करते विश्रवा के शरीर का रक्त एवं मांस सूख गया, केवल चर्म तथा हड्डियाँ ही शेष रह गयीं। ऐसी कठोर तपस्या करते-करते सौ करोड़ वर्ष समाप्त हो गये। उसकी ऐसी कठिन तपस्या को देखकर शिवजी पार्वती सहित विश्रवा के पास पहुँचे और वर माँगने के लिए कहने लगे।
॥ कुबेर का वर्णन॥
शिवजी ने विश्रवा से कहा-अब इस तपस्या को छोड़कर अपनी इच्छानुसार वर माँग लो। यद्यपि यह शब्द सदाशिव ने उच्च स्वर से कहे थे, विश्रवा ध्यानमग्न होने के कारण, शिवजी के शब्दों को नहीं सुन सका। तब शिवजी ने उसके हृदय से अपनी मूर्ति हटा ली । दिक्पति ने उस समय आश्चर्यचकित होकर जब अपने नेत्र खोले तो देखा कि शिवजी अपने पूर्व रूप से, जैसा कि वह सुन चुका था, सम्मुख खड़े हुए हैं। उनके वामांग में पार्वती खड़ी थीं। यह देखकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ, अत्यन्त प्रकाशवान् तेज को देखने की शक्ति न होने के कारण उसने अपने नेत्र बन्द कर लिये।
फिर इस प्रकार कहा-हे नाथ! मुझे आप अपने चरण दिखा दीजिए तथा ऐसी शक्ति दीजिए जिससे मैं आपके दर्शन कर सकूँ। मैं इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहता; क्योंकि संसार में इससे अधिक और कोई पदार्थ नहीं है । दिक्पति यह कहकर चुप हो गया। शिवजी उसके वचनों को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने दिक्पति को अपने स्वरूप का दर्शन प्राप्त करने की शक्ति प्रदान की तथा अपने हाथों से उसके हाथ पकड़ लिये।
सर्वप्रथम दिक्पति ने नेत्र खोलते ही शिवरानी को देखा और कहा- ये देवी कौन हैं ? इनका बड़ा सौभाग्य है जो ये शिवजी के इतने निकट रहती हैं। इनके पुण्य, प्रेम, और, तथा माता-पिता को धन्य है। उसने यह बात बारम्बार कही, तथा शिवरानी को प्रत्यक्ष कुदृष्टि से देखा। इससे उसकी आँखें तुरन्त फूट गयीं। उस समय देवी ने क्रोधित होकर कहा-यह तपस्वी कुदृष्टि रखनेवाला है इसी से इसे कष्ट मिला है। यह ऐसे व्यंग्य वचन कहकर, मुझे अपनी स्त्री के समान देखता है।
शिवरानी बोलीं-हे शिव ! यह आपका कैसा भक्त है ? यह वचन सुनकर शिवजी हँसते हुए बोले-हे देवी ! इसने छल का त्याग कर ऐसा तप किया है, जो प्रत्यक्ष है। तुमको मेरे साथ देखकर, तुम्हारे भाग्य को अपने से अधिक जानकर इसने सराहना की है, यह कुदृष्टि से नहीं देखता। इसके पश्चात् शिवजी दिक्पति से बोले तुम्हारी जो इच्छा हो, माँग लो। हमारे आशीर्वाद से तुम समस्त निधियों एवं सम्पूर्ण राजाओं के स्वामी होगे।
तुम्हारे अधीन विद्याधर, यज्ञ तथा किन्नर रहेंगे। तुम्हारी जो गुप्त इच्छा है, हम उसे भी जानते हैं। हम मित्र होकर तुम्हारे ही निकट रहेंगे अर्थात् कैलाशपर्वत पर निवास कर, तुमसे अत्यन्त प्रेम रखेंगे और तुम्हारी हर कठिनाई को दूर करते रहेंगे।
अब तुम शिवरानी के चरणों पर गिरकर इनसे क्षमा माँगो; क्योंकि ये तुम्हारी माता हैं। इस प्रकार ये प्रसन्न होकर अपना क्रोध शान्त कर लेंगी। शिवजी की आज्ञा सुनकर विश्ववा शिवरानी के चरणों पर गिर पड़ा। तब शिवजी ने शिवरानी से बोले- हे देवि ! यह तुम्हारा परम भक्त है। तुम इसके ऊपर कृपा करो और इसको अपना सेवक समझो। शिवजी की ऐसी बातें सुनकर शिवरानी ने अपना क्रोध शान्त कर लिया तथा दिक्पाल से कहा-अब तुम हमारे पुत्र हुए, इसलिए तुम्हारे मन में शिव जी की भक्ति सदैव बनी रहेगी।
तुमको शिवजी ने जो वरदान दिया है, वह सत्य है। तुम मेरे स्वरूप की इच्छा करके, अपने मन में भय नहीं लाये इससे तुम्हारा नाम कुबेर होगा। तुमने जिस शिवलिंग की स्थापना की है वह सिद्धि प्रदान करनेवाला होकर तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा। वह सम्पूर्ण पापों को नष्ट करके मुक्ति देगा। जो कुबेरेश्वर महादेव के दर्शन करेगा, वह थोड़ी-सी भक्ति में भी तपस्या का फल प्राप्त कर लेगा। यह कुबेरेश्वर महादेव विश्वेश्वर के दाहिने ओर हैं, जिनकी पूजा करके लोग अत्यन्त आनन्द प्राप्त करते हैं।
शिव और शिवरानी दिक्पति को यह वर देकर तथा यह कहकर कि हमारे आने की प्रतिक्षा करना अन्तर्धान हो गये। दिक्पति भी अपने घर को लौट आया। शिवजी की कृपा से उसने बहुत धन प्राप्त किया। फिर वह अलकापुरी का राजा होकर तथा शिवमित्र उपनाम पाकर, शिव का कोषाध्यक्ष हुआ।
तब से वह सदैव शिव की भक्ति में सलंग्न रहता है। अलकापुरी इतनी सुन्दर है, जिसको देखकर मनुष्य का मन मोहित हो जाता है। हे नारद ! मैंने तुम्हें यह विश्रवा की कथा कह सुनायी कि इसने किस प्रकार शिवजी से वरदान प्राप्त किया। तीनों लोकों में शिव के समान दयालु कोई नहीं है।
॥अलकापुरी के निकट शिवजी का आगमन॥
ब्रह्माजी बोले- "हे नारद ! दिक्पति को वरदान देकर जब शिवजी अन्तर्धान हो गये, तब उन्होंने मन में सोचा कि हमने दिक्पति को अपना मित्र बनाया है, सो अब किस प्रकार उसके यहाँ जाकर, मनुष्य की भलाई के लिए कोई उपाय करें ? हमने पहिले भी यह विचार किया था कि अब हम कुबेर के मित्र होकर उसके पास निवास करेंगे। हमारा मुख्य स्वरूप तो परब्रह्म रूप है इसलिए उस स्वरूप तथा इस स्वरूप में जो हम अब उसके यहाँ धारण करके जायेंगे, कोई अन्तर नहीं होगा।
जो व्यक्ति इनमें अन्तर या द्वैतभाव समझेगा, वह दुःख प्राप्त करेगा। ब्रह्मा, विष्णु आदि द्वारा जो स्वरूप पूजा जाता है उसी रूप एवं नाम से हम वहाँ वास कर कुबेर के साथ मित्रता स्थापित करेंगे। शिवरानी ने अब तक अवतार नहीं लिया है। अकेले हमने अवतार लिया है, इसलिए अब पहले अकेले हमीं लोग कठिन तप करके वहाँ निवास करते हुए भक्तों को मुक्त तथा कुमार्गियों को नष्ट करेंगे। कुछ समय इसी प्रकार अपना रूप देखने के पश्चात् शक्ति भी अवतरित होंगी तथा संसार की रीति के अनुसार वे हमारी पत्नी होंगी, तब उस दशा में हम गृहस्थ होकर अनेक प्रकार के भोग-विहार भी करेंगे।
ऐसा विचार कर शिवजी ने आगे चलने का प्रयत्नकर अपना डमरू बजा दिया। उमके शब्द से तीनों लोक पूरित हो गये। तब सबलोग उसी शब्द की ओर चल दिये। विष्णु गरुड़ पर तथा मैं हंस पर चढ़ चला। सनकादिक मुनि, सिद्ध देवता, वेद, धर्मशास्त्र, पुराण, तुम, अन्य मुनि तथा सर्पओं उस शब्द को लक्ष्य करके चल दिये। शिव के गण प्रथम भी उसी ओर चले। सब लोग परस्पर यह कह रहे थे कि क्या कारण है जो आज डमरू बजाया गया है ? आज किसके भाग्य उदय हुए ? हमारा भी सौभाग्य है कि हम शिवजी के शुभ चरणों के दर्शन प्राप्त करेंगे।
सबलोग इसी प्रकार की बातें करते हुए शिवजी के पास जा पहुँचे और उन्हें दण्डवत् प्रणाम करने के पश्चात् हाथ जोड़ कर स्तुति करने लगे। शिवजी ने अत्यन्त प्रसन्न हो, विष्णु का हाथ पकड़ कर उन्हें अपनी बायीं ओर बैठा लिया तथा दाहिनी ओर मुझे स्थान दिया। इसके पश्चात् कुशलक्षेम पूछकर मुझे अति प्रतिष्ठित किया। उन्होंने हाथ के संकेत से सूर्य का आदर किया, तथा उन मुनियों को, जो अमर हैं देखकर अत्यन्त प्रसन्नता व्यक्त की।
शिवगण शिवजी की इच्छा समझकर स्वयं ही अपने-अपने स्थान पर बैठ गये। इस प्रकार वहाँ बहुत से लोग एकत्र हो गये तथा एक वृहत् उत्सव का आयोजन हुआ। फिर शिवजी ने कुबेर का मनोरथ पूरा करने के के लिए कैलाश जाने का उद्घोष किया। उस समय जब देवता तथा गण भी उनके साथ चलने की इच्छा से उठ खड़े हुए।
विष्णुजी, नन्द एवं सुनन्द नामक दोनों गणों सहित उठ खड़े हुए। इसी प्रकार वेद तथा सनकादिक भी उद्यत हुए। इन्द्र तैंतीस कोटि अमर देवताओं के साथ खड़े हुए। इस प्रकार उस स्थान पर ग्यारहों रुद्र, अपने गणों सहित बारहों सूर्य, आठों वसु, तेरह विश्वेदेवा, सत्ताईस नक्षत्र, बारह भक्त, चौंसठ आभासुर, उनचास पवन तथा अनेक देवता उनके साथ हुए।
दस प्रकार के देवता अर्थात् विद्याधर, अप्सरा, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, ऋच, सिद्ध, भूत, पिचाश, आदि भी चल पड़े। दिशापति, अपने-अपने गणों सहित वासुकि, तक्षक आदि सर्प तथा नागपति शेषजी भी साथ गए। जगज्जननी श्री गायत्री, गरुड़, पर्वत, सातों समुद्र, दोनों अयन अर्थात् उत्तरायण और दक्षिणायन तथा सम्पूर्ण ऋतुएँ, काल, यम, यक्ष, समस्त सरिताएँ तथा बड़े नद और वनवासी, ये सब एक साथ उठ खड़े हुए तथा शिवजी के साथ चलने की तैयारी करने लगे।
हे नारद! समस्त रुद्रगणों को चलने के लिए उद्यत देखकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। उस समय चारों ओर से जय-जयकार का शब्द होने लगा। तदुपरान्त शिवजी अपने स्वरूप को प्रणाम एवं नमस्कार कर, बैल पर सवार हो गये। उनके दाहिने तथा बायें ओर मैं तथा विष्णु हंस एवं गरुड़ पर चढ़कर साथ-साथ चले। इन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़े थे तथा समस्त देवता मुनि अपने-अपने वाहनों पर बैठकर चल रहे थे।
सब के हृदय में शिव की मूर्ति स्थिर थी। प्रत्येक व्यक्ति अत्यन्त हर्ष में भरकर अपने-अपने वाहन पर चल रहे था। शिवजी बहुत धीरे-धीरे चलते थे जिससे कि किसी को कष्ट न हो। जिस-जिस देश में शिवजी आते थे वहाँ उनको भेंट दी जाती थी, जिसे वे सहज स्वीकार करते थे। इसी प्रकार चलते-चलते शिवजी अलकापुरी के निकट जा पहुँचे तब अलकापुरी के अधिपति शिवजी से विदा लेकर, जेवनार की सामग्री का प्रबन्ध करने के लिए आगे चले गये।
उन्होंने अपने घर पहुँचकर विधिपूर्वक पूजन एवं जेवनार की सामग्री एकत्रित कीं। इसके पश्चात् वे अपनी समस्त सेना सहित शिवजी की शुभ अगवानी को आगे आकर, उनके चरणों पर गिर पड़े और प्रेम में मग्न हो गये। फिर भेंट देकर उन्होंने पूजन किया । वे प्रेमानन्द में मग्न होकर सब कुछ भूल गये। उन्होंने शिव को प्रणाम कर विष्णु तथा मेरा भी आदर किया। शिवजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया। फिर उन्हें अपने साथ लेकर आगे बढ़े।
॥कुबेर की प्रार्थना पर शिव जी का अलकापुरी में निवास॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद! इस प्रकार शिवजी समस्त देवताओं सहित अलकापुरी में पहुँचे तथा निधिनाथ की विनती मानकर वहीं वास करने लगे। अलकापुरी के अधिपति निधिनाथ ने शिवजी की पूजा करके मेरा भी आदर सत्कार किया। यही बात हर व्यक्ति के लिए उचित है कि जो कोई अपने घर आये, उसका सत्कार करें तथा वेद-शास्त्र को जानकर, अच्छे कर्मों से संसार में प्रसिद्धि प्राप्त करे।
फिर शिवजी ने सिंहासन पर विराजमान हो तुरन्त ही विश्वकर्मा को कैलाश पर्वत को अत्यन्त सुन्दर बनाने का आदेश दिया। उन्होंने आज्ञा दी कि प्रत्येक गण तथा सुर, मुनि लोगों के लिए भी सुन्दर-सुन्दर, मन्दिरों की स्थापना की जाय। विश्वकर्मा शिवजी का यह आदेश, सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हो, कैलाश पर्वत पर मन्दिरों के बनाने में प्रवृत्त हुए।
उन्होंने एक बहुत सुन्दर तथा विचित्र स्थल का निर्माण किया, जो भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्री तथा रनों से अलंकृत बहुमूल्य स्वर्णपत्रों से सजा हुआ था। बीच में एक मुख्य स्थान शिवजी के लिए निर्मित किया गया। अन्तःपुर अलग बनाया गया। इसके पश्चात् उसने शिवजी से आकर प्रार्थना की कि मन्दिर बनकर तैयार है, अब और जो कुछ आज्ञा हो, उसका पालन करूँ। यह सुनकर शिवजी अत्यंत प्रसन्न हुए। तब सबकी यह इच्छा हुई की शिवजी कैलाश को चलें तो अत्यन्त उत्तम हो। अन्तर्यामी शिवजी अपने भक्तों के मन की इच्छा समझ गये तथा अपने चरण कमलों से कैलाश पर्वत को सुशोभित किया।
इतनी कथा कहकर ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! उसी समय मैं और विष्णु दोनों ब्राह्मणों को साथ लेकर शिवजी के पास पहुँचे। तब निधि पति ने हम सबकी ओर से प्रार्थना की कि हे स्वामी! सबकी प्रबल आकांक्षा है कि आपका अभिषेक एवं पूजन किया जाय।
हम आपको सिंहासन पर बिठाकर पूजा करें, जिसमें हमारा मनोरथ सफल हो। शिवजी ने प्रसन्न होकर यह बात स्वीकार कर ली। तब सबलोग आनन्द से तैयारी में लगे। मुनियों ने ज्योतिषियों से शुभ मुहूर्त जानकर प्रसन्न हो विष्णु ने यह कहा कि शिवजी के अभिषेक का मुहूर्त निश्चित हो गया है, अब विलम्ब न कीजिये । तब मैंने तथा विष्णु ने शिवजी से कहा-हे प्रभो ! अब आप स्नानकर, इस समय योग्य वस्त्र धारण कीजिये। शिवजी ने हमारी प्रार्थना को स्वीकार किया और स्नानकर वस्त्र धारण किये।
यह देखकर सब उपस्थित जन प्रसन्न हुए। और शिवजी के स्नान के लिए समस्त तीर्थों का जल लाया गया। उसी जल में उन्होंने स्नान किया। मैंने तथा विष्णुजी ने उनके शरीर को अपने हाथों से अच्छी तरह मल कर धोया। उसके पश्चात् शिवजी दिव्य वस्त्र धारण करके सिंहासन पर सुशोभित हुए। मैंने वेदध्वनि प्रारंभ की। सर्वप्रथम विष्णुजी ने मन्त्र पढ़कर शिवजी की पूजा की तथा लक्ष्मीजी सहित बड़ी भक्ति के साथ बार-बार आरती उतारी।
समस्त गन्धर्व अपने प्रिय स्वर एवं मधुर वाणी में मनोहर गीत गाने लगे। मैंने भी समस्त देवताओं के साथ पूजा की। उसके पश्चात् सनकादिक, मरीचि ब्रह्मर्षि तथा अन्य मुनि आदि ने शिवजी की पूजा की। हम सब लोगों ने इस आनन्द में बहुत द्रव्य लुटाया। उस समय चारों ओर से 'धन्य-धन्य' का शब्द सुनायी देता था। सब लोगों ने अत्यन्त आनन्द के साथ वह उत्सव मनाया।
॥शिव जी के कैलास में रहने की कथा॥
ब्रह्मा जी बोले-हे नारद ! सबसे पहले विष्णुजी ने दोनों हाथ जोड़कर स्तुति करते हुए कहा-हे ईश्वर ! आपकी स्तुति वेद भी नहीं कर सकते। मैंने भी आपकी स्तुति की है, पर आपका आदि अन्त नहीं जान पाया। फिर इसी प्रकार देवता, उपदेवता, गण आदि सबने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार अत्यन्त विस्तारपूर्वक स्तुति की। सबने खड़े होकर एक स्वर से प्रसन्नता प्रकट की। तब शिवजी सबकी प्रीत देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
महादेव ने यह देखकर अति प्रसन्न होकर बोले- तुम सब लोगों की जो भी इच्छा हो, उसे प्रकट करो। मैं उसकी पूर्ति करूँगा। यह सुन सब हाथ जोड़कर बोले-हे प्रभो ! आपके वचनों से ही हम तृप्त हो गये । हमारे सब क्लेश दूर हो गये हैं। इसके अतिरिक्त अब और कौन-सी वस्तु है, जिसको हम आप से माँगें ? आप से क्या छिपा है ? फिर भी हम सबकी एक इच्छा है कि हम सब सदा आपकी भक्ति में लिप्त रहें तथा आपके चरणों की इच्छा किया करें।
हमको कोई भय नहीं हो और आप हमारे सब अपराध क्षमा करें। जब दानव हमारा अपमान करें, उस समय हमारे दुःखों को दूर करें। सब लोग इतना कह कर चुप हो गये। तब शिवजी सबको अभयदान देकर, स्वयं सगुणरूप से वहीं स्थित हुए। फिर सबको समझा कर वहाँ से विदा कर दिया। केवल मुझको तथा विष्णु को पास बुलाकर उन्होंने यह कहा कि तुम दोनों ही हमारे शरीर हो तथा संसार की उत्पत्ति कर, तुम्हीं पालन करते हो; जब तुमको कोई दुःख होगा, तब हम तुम्हारी रक्षा करेंगे। अब तुम दोनों अपने लोक को, सुखपूर्वक चले जाओ।
यह सुनकर हम दोनों उनसे भक्ति माँग और विदा होकर चले आये। फिर शिवजी ने निधिपति का हाथ पकड़कर कहा- हे मित्र ! तुम्हारी प्रीति जानकर हमने तुम्हारे निकट ही वास किया है। हमारी तुम्हारी मित्रता तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो गयी। तुम्हारा कैसा सौभाग्य है कि तुम हमको अति प्रिय हुये हो। तुम प्रसन्न रहो। अब तुम भी अपने लोक को जाओ। निधिपति कुबेर शिवजी की ऐसी कृपा देखकर प्रेम मग्न हो गये और उन्होंने यह निवेदन किया-हे प्रभो ! मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ। यह कह कर निधिपति बारम्बार शिवजी को प्रणाम करके अति प्रसन्न हो, अपने घर तक पहुँचे ।
इसके पश्चात् शिवजी उसी कैलाश पर्वत पर आनन्दपूर्वक वास करने लगे। वे कभी-कभी इस लोक में आकर भ्रमण करते, तथा कभी-कभी अपने भक्तों के लिए कुछ लीलाएँ रचा करते। फिर उमा ने अवतार लिया और वे दक्ष के घर में उत्पन्न हुईं। दक्ष ने उमा का विवाह शिवजी के साथ कर दिया। शिवजी उमा के साथ भक्तों के हित के लिए लीलाएँ करने लगे ।
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! मैंने तुम्हें शिव अवतार तथा शिवजी के कैलाश जाने तक का वर्णन सुनाया। इसके अतिरिक्त और भी शिवजी की सहस्रों लीलाएँ हैं। यह लीला मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार ही कही है। शिवजी की कथा अत्यन्त पवित्र है; जिसके सुनने से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। जो इसका स्मरण करता है, उसके समस्त शोक तथा दुःख नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य शिव प्रीति से युक्त होकर इस कथा का पाठ करेगा, उसको धन तथा सन्तान की प्राप्ति होगी।
॥ इति श्री शिवपुराणे श्री शिवविलासे उत्तरखण्ड भाषायां ब्रह्मा-नारद सम्वादे प्रथम खण्ड समाप्तम् ॥
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