॥ ॐ नमः शिवाय ॥

भगवान् व्यासजी के प्रिय शिष्य सूतजी से शौनकादि ऋषियों ने आग्रह पूर्वक शिवपुराण सुनाने की प्रार्थना की तो सर्वप्रथम सूतजी बोले- हे ऋषियो ! आप सबलोग धन्य हैं। जो आप में शिवजी की उत्तम कथा सुनने की प्रीति हुई है। आपके सामने उत्तम शिव भक्ति बढ़ानेवाला तथा शिव को प्रसन्न करनेवाला कालरूप सप्र का नाश करनेवाला रसायन रूप शास्त्र सुनाता हूं । 

इस शास्त्र का वर्णन शिवजी ने स्वयं अपने श्रीमुख से श्री सनत्कुमार जी से किया । इसलिए इसे शिव महापुराण कहा गया है । इसके श्रवण एवं पठन एवं मनन से कलयुगी जीवों का मन शुद्ध होता है तथा शिव में भक्ति दृढ़ होकर शिवपद की प्राप्ति होती है । 
हे महर्षियो ! सर्व प्रकार के दान एवं यज्ञों के करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह फल शिवपुराण के श्रोता को अनायास ही मिल जाता है ।


इस ग्रंथ की सात संहितायें हैं और इसमें कुल चौबीस हजार श्लोक हैं। संहितायें इस प्रकार हैं- विद्येश्वर संहिता, रुद्र संहिता, शतरुद्री, कोटिरुद्रि, उमा संहिता, कैलास संहिता तथा सातवीं वायु संहिता वाला यह शिवपुराण महान् और दिव्य है। 


सर्वोपरि ब्रह्म तुल्य है तथा शुभगति देने वाला है। आत्मवेत्ता पुरुष को इस पुराण का सदा सेवन एवं श्रवण करना चाहिए। 


॥ पापी देवराज की मुक्ति की कथा ॥


सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ ऋषियो ! जो दुराचारी, पापी, कामी एवं दुष्टजन हों वे भी इस कथा के द्वारा शुद्ध हो जाते हैं । लालची, मिथ्याभाषी, माता-पिता को दुःख देनेवाले, दम्भी, पाखंडी, हिंसक, पतित, द्वेषी, क्रूरात्मा, निद्रय पुरुष भी कलियुग में इसके द्वारा पवित्र हो जाते हैं । इस प्रसंग में एक प्राचीन इतिहास आपको सुनाता हूं जिसके श्रवण करने पर सभी पापों का नाश होता है ।


किरात नगर में एक दरिद्री और दुराचारी ब्राह्मण रहता था । जो धर्म एवं देवों से विमुख था। संध्या वन्दन तो क्या वह स्नान तक भी नहीं करता था। उसने अधर्म के द्वारा बहुत सा धन इकट्ठा किया । एक बार वह एक तालाब पर स्नान करने गया । वहाँ एक शोभावती नाम की वेश्या भी आई थी । वह उसे देखकर व्याकुल हो गया। वह वेश्या भी एक धनी पुरुष को अपनी ओर आकर्षित देखकर परम प्रसन्न हुई । 


वे दोनों स्त्री-पुरुष चिरकाल तक कामासक्त होकर विहार करते रहे। उस ब्राह्मणाधम को उसके माता-पिता आदि ने बार-बार समझाया परन्तु उसने उनकी एक न मानी। उस नीच ने एक दिन रात्रि में ईर्ष्या के कारण सोते हुये माता-पिता तथा स्त्री को मार डाला और धन सम्पत्ति ले जाकर वेश्या को दे दी ।


दैवयोग से वह प्रतिष्ठापुर में आया। वहाँ उसने एक शिवालय देखा। जिसमें अनेक साधुजन एकत्र थे। वह ब्राह्मण वहाँ बीमार पड़ गया। इसी अवस्था में उसने एक ब्राह्मण के मुख से शिवजी की परम पवित्र कथा सुनी। एक मास के अन्तर्गत वह देवराज नामक ब्राह्मण मर गया । यमदूत उसे पकड़कर यमपुरी ले गये । 


उसी समय शिवलोक से शिवजी के दूत त्रिशूल लिए भस्म लगाये रुद्राक्ष धारण किये उसे लेने यमलोक में पहुँच गये और यमदूतों से देवराज को छुड़ा लिया फिर उसे दिव्य विमान पर चढ़ाकर कैलाश पर ले जाने लगे। 
उस समय यमपुरी में भारी कोलाहल हुआ । उसे सुनकर स्वयं यमराज वहाँ आये और साक्षात् शिव के समान उनके चार दूतों को देखकर उनकी यथाविधि पूजा की । धर्मराज ज्ञान के द्वारा सब कुछ जान गये थे।


दूतों ने ब्राह्मण को ले जाकर दया के सागर शिव को अर्पित किया। हे मुनि ! शिव की यह कथा परम पावनी है जिसके श्रवण मात्र से महापापी ब्राह्मण भी मुक्त हो गया। अतः शिवपुराण की कथा को विधिपूर्वक सुनने से तो अमर फल की प्राप्ति होती है।

॥ चंचुला की कथा ॥

समुद्र के तट पर स्थित देशों के अन्तर्गत वाष्कल नामक एक ग्राम के निवासी स्त्री-पुरुष दुष्ट प्रवृत्ति और पाप-बुद्धि के थे। पुरुष पशुवृत्ति के और स्त्रियाँ व्यभिचारिणी थीं। उस ग्राम में बिन्दुग नामक एक ब्राह्मण भी रहता था । उसने अपनी कामातुरतावश, अत्यन्त रूपवती भार्या के होते हुए भी एक सुन्दरी वेश्या को अपना रखा था। 


वेश्या में आसक्त ब्राह्मण अपनी पत्नी से धीरे-धीरे विमुख होता गया। कुछ समय तक तो ब्राह्मण की पत्नी, चंचुला काम के वेग को सहन करती रही परन्तु उस युवती के लिए सदा के लिए अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना सम्भव न हुआ । 


फलतः वह एक जार से रति करने लगी । एक रात्रि को बिन्दुग ने अपनी पत्नी को परपुरुष के साथ रमण करते हुए देखा तो वह क्रोध से विक्षिप्त हो उठा। जार पुरुष तो वहाँ से भाग गया और अब बिन्दुग अपना सारा क्रोध अपनी पत्नी पर उतारने लगा तथा मुक्कों से उसकी पिटाई करने लगा । 


चंचुला ने अपने पति से विनयपूर्वक कहा कि जब आप मुझ जैसी पतिव्रता और रूपवती युवती को छोड़कर वेश्यागमन करते हो तो मैं कितनी दुःखी होती हूं इसका आप अनुमान लगाइये कि भला मैं किस प्रकार सुदीर्घ काल के लिए कामपीड़ा को सहन कर सकती हूँ ? यह सब आप सोच-समझ कर बताइये । पत्नी के वचनों को सुनकर दुर्बुद्धि बिन्दुग बोला-प्रिये ! तुम्हारा विश्लेषण सत्य है । तुम निर्भय होकर जार पुरुषों के साथ विहार करो, परन्तु उन्हें रति सुख देकर बदले में उनसे धन कमाओ । उस धन से हम दोनों का बहुत लाभ होगा।


चंचुला ने पति की आज्ञा को स्वीकार कर लिया और फलतः दोनों कुकर्मी हो गए। समय आने पर बिन्दुग की मृत्यु हो गई और वह नरक में अनेक दुःख भोगकर पिशाच योनि में उत्पन्न हुआ। चंचुला का यौवन भी परपुरुष का संग करते-करते बीत गया। एक बार वह अचानक भ्रमण करती हुई गोकर्ण क्षेत्र में आई और वहाँ उसने मन्दिर में एक पण्डित जी को कथा वाचते हुए देखा। 


वह वहाँ बैठकर दत्तचित्त होकर कथा सुनने लगी । उसने कथा में जार पुरुषों में आसक्त स्त्रियों के दुष्परिणाम-नरक भोग की व्यथाजनक बात ज्यों ही सुनी, त्यों ही वह कांप उठी । कथा की समाप्ति पर, सब लोगों के चले जाने पर वह कथा वाचक ब्राह्मण के चरणों में गिरकर बिलखने लगी ।

 
ब्राह्मण द्वारा पूछे जाने पर चंचुला ने अपनी सारी करनी कह सुनाई और रो-रो कर ब्राह्मण से अपने उद्धार का उपाय पूछने लग। ब्राह्मण ने कहा कि जिस शिव पुराण की कथा को सुनकर तुम्हारे चित्त में विवेक जागृत हुआ है, उसी पुराण को सुनने से तुम्हारा मोक्ष हो सकता है। 


जिस प्रकार निर्मल दर्पण में प्रतिबिम्ब सही दीखता है, उसी प्रकार शिव पुराण के सुनने से विशुद्ध चित्त में अंबिका सहित भगवान शिव का साक्षात्कार हो जाता है। शिवजी की कथा के श्रवण-मनन चित्तशुद्धि तथा गणेश, कार्तिकेय सहित शिव की भक्ति प्राप्त होती है । शंकर का भक्त उनकी कृपा से देव-दुर्लभ मुक्ति पा लेता है । अतः हे ब्राह्मण स्त्री ! तुम्हारे कल्याण का एकमात्र उपाय 'शिव पुराण' का श्रवण ही है।


ब्राह्मण के वचन सुनकर, उसके प्रति आभार प्रकट करती हुई चंचुला उससे ही शिवकथा सुनाने' का अनुरोध करने लगी। ब्राह्मण ने उस दीन अबला की प्रार्थना को स्वीकार किया। चंचुला, ब्राह्मण द्वारा बताई विधि से स्नान करके, जटा-वल्कल धारण करके, शरीर पर भस्म लगा और रुद्राक्ष धारण करके तथा जितेन्द्रिय होकर श्रद्धा भक्तिपूर्वक शिवपुराण का श्रवण करने लगी। 


इस प्रकार शिव के ध्यान में मग्न होकर ही चंचुला ने शरीर त्याग किया और शिवपुरी में पहुंचकर उमा सहित भगवान शंकर के साक्षात् दर्शन किए। उसकी श्रद्धा-भक्ति को देखते हुए पार्वती ने उसे नित्य के लिए अपना सामीप्य प्रदान किया ।


शौनकजी ने सूतजी से निवेदन किया कि चंचुला का और आगे का वृत्तांत सुनाने की कृपा करें । तब सूताजी ने कहा-हे मुनि विप्रवरो! चंचुला ने अपनी निश्छल भक्ति से भगवती पार्वती का सान्निध्य प्राप्त कर लिया। एक दिन उसने दया, करुणा की स्त्रोतस्वनी भगवती पार्वती से अपने पति के सम्बन्ध में जिज्ञासा की तो भगवती ने उसे बताया कि बिन्दुग नरक की अनेक यातनाएं भोगने के उपरान्त इस समय पिशाच योनि में पड़ा हुआ कष्टमय जीवन बिता रहा है । 


यह सुनकर चंचुला खिन्न और उद्विग्न हो उठी । वह भगवती की अनेक प्रकार से स्तुति वन्दना करके उनसे अपने पति के उद्धार की याचना करने लगी । अपने भक्तों को कृतकृत्य करनेवाली माता पार्वती ने तुम्बुरु गन्धर्व को बुलाकर उसे विन्ध्याचल पर्वत पर जाकर वहां पिशाच योनि में पड़े बिन्दुग को शिव पुराण सुनाने और इससे उसका उद्धार करने का आदेश दिया । 


माता की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए तुम्बुरु विन्ध्याचल पहुंचा और वहाँ उस पिशाच को बलपूर्वक बिठाकर कथा सुनाने लगा । शिवकथा के आयोजन को सुनकर देवता लोग भी वहाँ पहुंच गए । इससे श्रोताओं का वहाँ एक सुन्दर समाज जुट गया । तुम्बुरु से शिवकथा सुनकर जहाँ अन्य सभी उपस्थित सज्जन कृतकृत्य हो गए वहाँ बिन्दुग निष्पाप होकर पिशाच योनि से मुक्त हो गया।


बिन्दुग अब निरन्तर शिवजी का गुणगान करने लगा। भगवान् शंकर ने उसकी अचल प्रीति को देखकर उसे अपना गण बना दिया।


सूतजी बोले-हे शौनक महाराज ! इस प्रकार इस शिवपुराण की कथा बड़े से बड़े पापियों का उद्धार करके उन्हें सद्गति प्रदान करनेवाली है । अब मैं आपको इस पुराण को सुनने की विधि बताता हूं, क्योंकि विधिपूर्वक सम्पन्न कार्य अतुल सिद्धिदाता होता है।


॥ शिवपुराण के सुनने की विधि ॥


शिव पुराण के निर्विघ्न श्रवण के लिए ब्राह्मण से शुभ मुहुर्त निकलवाना चाहिए। देश-देशान्तर स्थित अपने बन्धु-बान्धवों को अपने शुभ निश्चय की सूचना देते हुए उन्हें निमन्त्रित करना चाहिए। अपने नगर के इष्ट मित्रों तथा बन्धु-बान्धवों को भी श्रद्धापूर्वक निमन्त्रण देना चाहिए और आए हुए सज्जनों का यथोचित स्वागत करना चाहिए। शिवालय, तीर्थ अथवा घर में ही कथा की सारी व्यवस्था करनी चाहिए। कथास्थल की भूमि का संशोधन कराकर उसे चित्रों से सुसज्जित करना चाहिए ।


केला-चंदोवा आदि से सुसज्जित एक सुन्दर मण्डप बनाना चाहिए और उसके चारों ओर ध्वजा-पताकाएं लगानी चाहिये। वक्ता के लिए उपयुक्त स्थान और सुखद आसन की व्यवस्था करनी चाहिए ।


वक्ता को पूर्वाभिमुख और श्रोता को उत्तराभिमुख होकर बैठना चाहिये। कथावाचक के प्रति उसके आयु, सामाजिक स्थिति और शारीरिक अवस्था के भेद-भाव को छोड़कर आदर भाव रखना चाहिए तथा उसे सदैव श्रद्धापूर्वक प्रणाम भी करना चाहिए ।


पुराणज्ञ, शुद्ध-बुद्ध तथा शान्तचित्त ब्राह्मण को अपने यजमान के हितसाधन को ही अपना पुनीत कर्त्तव्य मानते हुए कथा के दिनों में संयम-नियम का जीवन व्यतीत करना चाहिए । ब्राह्मण को प्रतिदिन सूर्योदय से साढ़े तीन प्रहर तक कथा सुनानी चाहिए। उसके उपरान्त सभी उपस्थित लोगों को मिलकर एक साथ भजन-कीर्तन करना चाहिए ।


शिवपुराण के वक्ता के पास सहायतार्थ एक पुराणज्ञ ब्राह्मण भी रहना चाहिए । कथा में आने वाले विघ्नों के निवारणार्थ विधिपूर्वक गणेश पूजन करना चाहिए ।


यजमान को कथा अवधि में ब्रह्मचर्य तथा शुद्धाचार का पालन अत्यन्त कठोरता पूर्वक करना चाहिए। कथावाचक ब्राह्मण को अपने यजमान को शिवपुराण में साक्षात् महेश्वर की भावना कराते हुए उससे इस पवित्र ग्रन्थ का पूजन कराना चाहिए और उससे यह प्रार्थना करानी चाहिए कि भगवान् शंकर उस पर प्रसन्न होकर उसको इस ग्रन्थ के मर्म को समझाने और निर्विघ्न श्रवण करने की क्षमता प्रदान करें।


यजमान को ऐसे पांचवें ब्राह्मण पृथक् से नियत करने चाहिएँ जो पञ्चाक्षर शिव मंत्र का निरन्तर जाप करते रहें। यजमान का यह भी कर्त्तव्य है कि ग्रन्थ समाप्ति पर वक्ता तथा अन्य ब्राह्मणों को अन्न-वस्त्र तथा दक्षिणादि से पूर्णतः सन्तुष्ट करें ।


इस प्रकार शिवपुराण की विधि अंधकार श्रवण निःसंदेह इह लौकिक सुख और पारलौकिक कल्याण को देने वाला है। 


॥ रुद्राक्ष माहात्म्य ॥


रुद्राक्ष साक्षात् शिव स्वरूप है। यह अत्यन्त पवित्र तथा शिव जी को परम प्रिय है। रुद्राक्ष के दर्शन, स्पर्श तथा जप से सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं।


विद्वानों ने रुद्राक्ष के श्वेत,रक्त, पीत तथा कृष्ण ये चार भेद कहे हैं। मनुष्यों को चाहिये कि वे अपनी जाति के अनुसार वर्ण के रुद्राक्ष को धारण करें।


भुक्ति मुक्ति के इच्छुक पुरुषों को चाहिये कि वे रुद्राक्ष को अवश्य धारण करें। जो शिव भक्ति शिव और शिवा की प्रीत पाने के इच्छुक हों, उनके लिए तो रुद्राक्ष धारण करना अनिवार्य ही है।


श्रेष्ठ रुद्राक्ष आँवले के फल के समान बड़े आकार का माना गया है। बेर के फल के समान आकार वाले रुद्राक्ष को मध्यम तथा चने के बराबर आकार वाले रुद्राक्ष को अधम माना जाता है।


बेर के बराबर आकार वाला रुद्राक्ष लोक में सुख सौभाग्य की वृद्धि करता है तथा आँवले के समान आकार वाला रुद्राक्ष सम्पूर्ण अरिष्टों का शमन करता है। घुँघची के प्रमाण वाला रुद्राक्ष सवार्थ सिद्धिदायक माना गया है। रुद्राक्ष जितना ही छोटा होता है, उतना ही अधिक फलदायक होता है ।


रुद्राक्ष को पाप नाश के रूप में धारण किया जाता है। अतः सम्पूर्ण अर्थों की सिद्धि चाहने वालों को रुद्राक्ष अवश्य धारण करना चाहिए।


इस संसार में रुद्राक्ष की माला जितनी फलप्रद माला और कोई नहीं है। समास्निग्ध, हठ, स्थूल तथा काँटों वाले शुभ रुद्राक्ष कामनादायक तथा भुक्ति-मुक्ति प्रदायक होते हैं। कृमियों से खाये हुए छिन्न-भिन्न, काँटे रहित, गोलाई रहित तथा ब्रण युक्त रुद्राक्ष त्याग देने योग्य हैं।


जिस रुद्राक्ष में स्वयं छिद्र हो, उसे सर्वोत्तम समझना चाहिये। जिस रुद्राक्ष में मनुष्य के द्वारा छिद्र किया गया हो, उसे मध्यम समझना चाहिये ।


रुद्राक्ष धारण करने से सब प्रकार के महापाप भी दूर हो जाते हैं। ग्यारह सौ रुद्राक्ष धारण करनेवाला व्यक्ति साक्षात् रुद्र-रूप होता है। इतनी संख्या से रुद्राक्ष धारण करने के फलों का वर्णन वर्षों में भी नहीं किया जा सकता। साढ़े पाँच सौ की संख्या में रुद्राक्ष धारण करनेवाला मनुष्य श्रेष्ठ माना गया है ।


तीन सौ आठ रुद्राक्षों की तीन लड़ी बनाकर यज्ञोपवीत के साथ और उसी के समान धारण करनी चाहिये । तीन रुद्राक्ष शिखा में, छै रुद्राक्ष दोनों कानों में, एक सौ एक रुद्राक्ष कण्ठ में, ग्यारह रुद्राक्ष बाहों में तथा इसी प्रकार कर्पूर एवं मणिबन्ध में धारण करने चाहियें। 


तीन रुद्राक्ष यज्ञोपवीत में तथा पाँच रुद्राक्ष कटि में धारण करने चाहियें। इस प्रकार रुद्राक्ष धारण करने वाला मनुष्य साक्षात शिव स्वरूप एवं स्तुति करने योग्य हो जाता है। यह ग्यारह सौ रुद्राक्ष धारण करने की विधि है।


जो लोग ग्यारह सौ रुद्राक्ष धारण न कर सकें उन्हें शिखा में एक, सिर में तीस, कण्ठ में पचास, दोनों भुजाओं में सोलह-सोलह, मणिबन्ध में बारह, स्कन्द में पाँच सौ तथा एक सौ आठ रुद्राक्ष का यज्ञोपवीत बनाकर धारण करना चाहिये इस प्रकार जो व्यक्ति दृढ़व्रती होकर एक हजार की संख्या में रुद्राक्ष धारण करता है, वह भी रुद्र के समान ही होता है और सभी देवता उसे नमस्कार करते हैं ।


जो व्यक्ति शिखा में एक, मस्तक में चालीस, कण्ठ में बत्तीस, हृदय में एक सौ आठ, दोनों कानों में छै-छै, दोनों भुजाओं में सोलह-सोलह, दोनों हाथों में बारह बारह अथवा चौबीस-चौबीस रुद्राक्ष धारण करता है, वह शिव भक्त भी सबके द्वारा वन्दनीय एवं पूजनीय माना गया है ।


ईशान मंत्र से शिर में, तत्पुरुष मंत्र से कानों में, अघोर मंत्र से कण्ठ और हृदय में, अघोर और बीज मंत्र से हाथों में तथा वामदेव मंत्र से पन्द्रह रुद्राक्ष उदार में, सद्योगजातादि पंच ब्रह्म मंत्रों से अन्य अङ्गों में तीन या पाँच अथवा सात माला रुद्राक्ष धारण करने चाहियें।


अलग २ मन्त्रों द्वारा धारण करना संभव न हो तो केवल मूलमंत्र 'ॐ नमः शिवाय' का उच्चारण करते हुए ही रुद्राक्षों को धारण करना चाहिये। रुद्राक्ष धारण करनेवाले को चाहिए कि वह मद्य, मांस, प्याज, लहसुन, सहजना तथ श्लेष्मन्तक वस्तुओं आदि का सेवन न करे ।


ब्राह्मणों के लिये श्वेत वर्ण, क्षत्रियों के लिये रक्त वर्ण, वैश्यों के लिए पीतवर्ण तथा शूद्रों के लिये कृष्णवर्ण का रुद्राक्ष धारण करना हितकर होता है। सभी वर्ण के गृहस्थ, स्त्री तथा यतियों को भी रुद्राक्ष धारण करना चाहिये । जो व्यक्ति रुद्राक्ष धारण नहीं करता, उसे नरक की प्राप्ति होती है ।


त्रिपुण्ड धारण करनेवाले, जटा धारण करनेवाले तथा रुद्राक्ष धारण करनेवाले प्राणी कभी भी यमलोक को प्राप्त नहीं होते। जो महात्मा पुरुष शिर में एक रुद्राक्ष तथा ललाट पर त्रिपुण्ड धारण करता है एवं पञ्चाक्षर मन्त्र का जप करता है, वह परम-पूजनीय है। उसे यमलोक में नहीं जाना पड़ता। रुद्राक्ष की माला पर मन्त्र का जप करने से करोड़ गुणा पुण्य मिलता है तथा रुद्राक्ष को धारण करने से करोड़ गुना पुण्य होता है।


पंचदेवताओं की उपासना करनेवालों को रुद्राक्ष की माला पर ही जप करना चाहिए क्योंकि रुद्राक्ष सभी देवताओं को प्रिय है।


रुद्राक्ष की  माला धारण करने वाले व्यक्ति के समीप भूत-प्रेत, पिशाच, डंकिनी, शंकिनी अथवा अन्य द्रोही जीव भूलकर भी नहीं जाते हैं। कृत्रिम अभिचार आदि भी रुद्राक्ष धारी को देखते ही दूर से भाग जाते हैं।


रुद्राक्ष की माला धारण किए हुए व्यक्ति को देखकर शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य तथा अन्य देवतागण प्रसन्न होते हैं । रुद्राक्ष धारी व्यक्ति शिवजी को परम प्रिय है । अतः प्रत्येक शिव-भक्त को रुद्राक्ष धारण करना चाहिये।

इति शिव महापुराण माहात्म्य समाप्तम्