॥ ब्रह्मा के सन्ध्य पर मोहित होने की कथा ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अब मैं तुमको शिवजी के अनादि चरित्र के विषय में बताता हूँ। जिस प्रकार सती ने दक्ष के घर में अवतार लेकर पुनः शिवजी से विवाह किया तथा उन्होंने शिवजी के घर जो-जो कार्य किये, उन सबका विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ। मैंने पहिले दस पुत्र उत्पन्न करके उनको आदेश दिया कि तुम सृष्टि की रचना करो। मेरे वे पुत्र मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, नारद तथा दक्ष हैं। 

मैंने इनको मानसी सृष्टि की रीति पर उत्पन्न किया परन्तु जब मैंने नारीस्वरूपा परमसुन्दरी सरस्वती को उत्पन्न किया तो उसके मनमोहक सुन्दर स्वरूप को देखकर मेरा हृदय काम के वशीभूत हो गया। परन्तु उसे देखकर मेरे हृदय में भी उसके साथ मैथुन करने की इच्छा उत्पन्न हुई, क्योंकि उस समय मेरे हृदय में कामदेव प्रवेश किये हुए था। मुझे सरस्वती के साथ मैथुन करने के लिए उद्यत देखकर, मेरे सभी पुत्र हाहाकार करने लगे और वे सब मुझे उस भारी पाप से बचाने के लिए, भगवान् सदाशिव की स्तुति करने लगे। उस समय शिवजी ने प्रकट होकर मुझे उस नरक देनेवाले महाभयानक पाप से बचा लिया।

सूतजी बोले- हे ऋषियो ब्रह्माजी के मुख से यह वृत्तान्त सुनकर नारदजी ने कुछ देर तक विचार करने के उपरान्त उनसे इस प्रकार कहा- हे पिता! आप सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी तथा सब को उत्पन्न करनेवाले हैं। इस समय मेरा हृदय अत्यन्त चिन्तित है, अतः आप सम्पूर्ण संशय को नष्ट करने के लिए इस कथा को विस्तारपूर्वक कहिए। आपका मन इस प्रकार क्यों अधीर हुआ ? आपकी सेवा करने वाले मनुष्यों को ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है, अतः आपके द्वारा ऐसा कर्म होना अत्यन्त आश्चर्य की बात है।

ब्रह्माजी ने उत्तर दिया - हे नारद ! तुम ध्यान देकर सुनो, मैं तुमसे मुख्य वृत्तान्त भली-भाँती समझाकर कहता हूँ। भगवान् सदाशिव की माया धन्य एवं अपरम्पार है। उन श्री शिवजी की माया ने मुझे जिस प्रकार नचाया, वह कथा मैं तुमसे कहता हूँ। सृष्टि की वृद्धि के हेतु मैंने अपने मुख से एक कन्या को उत्पन्न किया। उसे उत्पन्न कर मेरे हृदय में कुछ अंहकार उपजा। अहंकार प्रत्येक प्राणी को दुःख देता है।

उस समय शिवजी ने यह लीला दिखायी कि मेरे मुखसे एक ऐसी परम सुन्दरी स्त्री उत्पन्न हुई जिसके देखने मात्र से सम्पूर्ण दुःख दूर हो जायँ। उस स्त्री का नाम 'सन्ध्या' रखा गया। वैसी अपूर्व सुन्दरी मनुष्यलोक में तो क्या, देवलोक में भी नहीं थी। उस नख से शिखा तक नवीन पूर्ण चन्द्र के समान प्रभावशालिनी, गजगामिनी तथा चम्पक वर्ण कामिनी को देखकर मेरे हृदय में काम वासना जाग ही उठी और मैं उसके साथ रमण करने की इच्छा से, अपने स्थान से उठकर खड़ा हो गया। 

दक्ष आदि ने उस समय मुझे ऐसा करने से रोक दिया तदुपरान्त वे सब दक्ष आदि मेरे पुत्र स्वयं उसकी ओर पाप भरी दृष्टि से देखने लगे। जिस समय मैं अपने मन में उसी स्त्री के प्रति अनेकों प्रकार के विचार कर रहा था, उसी समय अचानक ही एक अत्यन्त सुन्दर पुरुष भी वहीं उत्पन्न हो गया। वह मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और मुझसे इस प्रकार कहने लगा कि हे पिता! आप मुझे मेरा नाम और काम बता दें। आप मुझे जहाँ रहने की आज्ञा देंगे, मैं वहीं रहूँगा।आप कृपा करके मेरी इस इच्छा को पूर्ण करें।

हे नारद! उस पुरुष की बात सुनकर मुझे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। फिर कुछ देर विचार करने के बाद मैंने उससे कहा- हे पुत्र ! तेरे उत्पन्न होते ही मेरा हृदय और शरीर के सब अंग काँप उठे थे, अतः मैं तेरा नाम मन्मथ रखता हूँ। इसके अतिरिक्त मनसिज, मदन, आदि तेरे अनेकों नाम होंगे। तू अपने इन पाँच बाणों द्वारा तथा अपने सौंदर्य द्वारा सबको अपने वशीभूत कर लेगा। सम्पूर्ण सृष्टि का हृदय तेरे अधीन रहेगा। इस प्रकार मैंने अपने पुत्र को बहुत से अधिकार प्रदान किये। अपने कार्य को इस प्रकार सम्पन्न हुआ देखकर मेरे हृदय में प्रसन्नता भर गयी तथा अत्यन्त अहंकार भी उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् सिंहासन पर बैठे हुए अपने सभी पुत्रों को देखकर मुझे बहुत हर्ष हुआ। मैंने उस पुरुष का जो मन्मथ नाम रखा था, उसे सभी ने बहुत पसन्द किया और यह स्वीकार किया कि कामदेव का पद सबसे बड़ा तथा ऊँचा होगा।

इस घटना के उपरान्त जब कि हम सबलोग अपने मन में प्रसन्नता का अनुभव कर रहे थे, कामदेव ने अपने उस धनुष को सीधा किया, जिसके चढ़ते ही तीनों लोकों की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह धनुष को चढ़ाये हुए मेरे पास आकर खड़ा हो गया और मन में यह विचार करने लगा कि मैंने उसे जो वरदान दिया है, उसकी परीक्षा करके देख ली जाय। उसने मेरी पुत्री संध्या को मेरे समीप खड़े देखकर, मेरे ही ऊपर अपना मोहन नामक बाण चला दिया। तदुपरान्त उसने मेरे अन्य पुत्रों को भी अपने उस बाण द्वारा मूर्च्छित कर दिये। उस प्रकार हम सब उसके वशीभूत हो गये। जब उसने यह देखा कि संध्या के ऊपर उसके बाण का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है तो उसने संध्या के हृदय पर भी एक ऐसा बाण मारा कि जिसके कारण वह भी कामदेव के वश में होकर चंचल और वक्र दृष्टि से सबकी ओर देखने लगी। हम सब लोग बुद्धिभ्रष्ट हो जाने के कारण उसे पकड़ने की इच्छा करने लगे। क्योंकि काम के वशीभूत हो जाने के कारण हमें किसी प्रकार के कुकर्म तथा पाप का विचार नहीं रहा था।

॥ ब्रह्मा द्वारा चौंसठ योगिनियों की उत्पत्ति ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद ! मुझे इस प्रकार मोहित देखकर, धर्म के पुत्र सत्य को बहुत चिन्ता हुई। वह दोनों हाथ जोड़कर शिवजी के निकट जा पहुँचा और स्तुति प्रणाम करने के उपरान्त उन्हें सब हाल कह सुनाया। उसकी प्रार्थना पर हमलोगों को विरुद्ध व्यवहार से बचाने के निमित्त भगवान् शिव शीघ्र ही हम लोगों के बीच प्रकट हो गये। 

उन्हें देखकर मैं तथा मेरे पुत्र अत्यन्त लज्जित हुए और कामदेव भी बहुत लज्जित हुआ। उस समय शिवजी ने मेरी ओर क्रोधपूर्ण दृष्टि से देखते हुए कहा-हे ब्रह्मन्! तुम ऐसे कुमार्गगामी क्योंकर हो गये ? तुमने श्रेष्ठ बुद्धि को भुलाकर अपनी पुत्री से भोग करना चाहा। तुम वेदपाठी होते हुए भी इस ज्ञान को भुला बैठे और लज्जा त्यागकर अधर्म कार्य की ओर प्रवृत्त हुए, यह उचित नहीं है। हमने संसार में बहुत से पापियों को देखा है, परन्तु तीनों लोकों में ऐसा पाप करने वाला किसी को नहीं देखा।

हे नारद! इस प्रकार शिवजी ने मेरी बहुत निन्दा की। तदुपरान्त वे मेरे पुत्रों की ओर अत्यन्त क्रोधपूर्ण दृष्टि से देखते हुए बोले- हे मरीचि आदि तुमलोग ऐसे अधीर और कामी क्यों हो गये। तुम सब ब्रह्मा के पुत्र हो और तुमने वेद का अध्ययन किया है। फिर भी तुम इस प्रकार मोहित हुए, इसलिए तुम्हें सहस्रों बार धिक्कार है।

हे नारद! भगवान् सदाशिव के मुख से निकले हुए इन शब्दों को सुनकर मैं तथा मेरे पुत्र अत्यन्त लज्जित हुए। उस समय सबको ऐसा दुःख हुआ कि किसी के मुँह से कोई भी शब्द नहीं निकला। तदुपरान्त मैंने इन्द्रियों एवं वीर्य को मस्तक पर चढ़ा कर, सन्ध्या के प्रति जो आसक्ति मेरे हृदय में उत्पन्न हुई थी उसका त्याग कर दिया। 

भगवान् सदाशिव के भय से मैं पाप कर्म में प्रवृत्त होने से बच गया और मेरे पुत्र भी उस निन्दनीय कर्म की ओर से विमुख हो गये। उस समय भय के कारण मेरे शरीर से जो पसीना टपका, उससे चौंसठ, योगिनियाँ उत्पन्न हुईं, जो संसार से विमुख होकर तपस्या के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य नहीं करती हैं। तदुपरान्त छियासी पुत्र और उत्पन्न हुए, दक्ष प्रजापति के शरीर से पसीना निकल कर पृथ्वी पर गिरा, उससे एक स्त्री की उत्पत्ति हुई। 

अनि, मरीचि, पुलह, भृगु, तथा तुम अर्थात् नारद के शरीर से पसीना नहीं निकला। वशिष्ठ, विश्नवा, अंगिरस तथा क्रतु के शरीर से जो पसीना निकल पृथ्वी पर गिरा, उससे सम्पूर्ण अंगों सहित पितरों की उत्पत्ति हुई, जो सबसे प्रतिष्ठा, प्राप्त करने योग्य एवं प्रसन्नता प्राप्त करानेवाले हैं। उन्हें उसी समय वेद और धर्म-शास्त्रों का ज्ञान हो गया। वे सब परम धार्मिक, धर्म का उपदेश करनेवाले एवं सम्पूर्ण कार्यों को करने की क्षमता रखने वाले थे।

हे नारद! क्रतु से सोमपा, वशिष्ठ से अहिर्बुघ्न, पुलस्त्य से अज्यप तथा अङ्गि्रस से बर्हिपाद हुए। इस प्रकार पितर चार प्रकार के होते हैं। पर वे छः प्रकार के प्रसिद्ध हैं। तत्पश्चात मेरी आज्ञा से संध्या ने उन पितरों गर्भ धारण किया। इस प्रकार मेरे धर्म की रक्षा करके भगवान् सदाशिव अन्तर्धान हो गये। उनके चले जाने के पश्चात मैंने अत्यन्त क्रोधपूर्वक कामदेव की ओर देखा और उन्हें शाप देने की इच्छा प्रकट की। उस समय मेरे सब पुत्रों ने मुझे बहुत समक्षाया, परन्तु मैंने माया के वशीभूत होकर उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। 

उस समय मैंने मन्मथ से कहा-अरे मूर्ख! तूने यह क्या दुखदायीपन किया जो मेरे हृदय को ऐसा घोर पापकर्ष करने की ओर प्रवृत्त कर दिया? तूने अपने पिता की यह खूब सेवा की। परन्तु, तूने जैसा काम किया है, वैसा ही अब तू फल भी प्राप्त करेगा। तेरे कारण शिवजी ने मेरी अत्यन्त निन्दा की है, अतः मैं तुझे यह शाप देता हूँ कि तू जलकर भस्म हो जाये। भगवान् सदाशिव के नेत्रों की अग्नि में पड़कर तुझे अपना शरीर त्याग देना पड़े और तेरी उस दशा को देखकर मेरा हृदय शीतल हो।

हे नारद ! इस शाप को सुनकर कामदेव अत्यन्त भयभीत हो थर-थर काँपने लगा और इस प्रकार कहने लगा-हे पिता! आप संसार को उत्पन्न करनेवाले तथा न्याय और अन्याय की स्थापना करनेवाले हैं। मैंने आपका कोई अपराध नहीं किया है, फिर भी आपने मुझे यह शाप क्यों दे डाला? मैंने तो आपकी आज्ञा की केवल परीक्षा ही ली थी। मेरे भाग्य से आपने मेरे लिए अब जो नयी आज्ञा दी है, वह तो अवश्य होगी ही, परन्तु आप कृपा करके मुझे ऐसा वरदान भी दीजिए जिससे मैं शिवजी की नेत्र-ज्वाला में भस्म होने के उपरान्त पुनः उत्पन्न हो सकूँ। इस प्रकार कृपा करके मेरा दुःख नष्ट कर दीजिए।

इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद ! कामदेव की यह प्रार्थना सुनकर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई तब मैंने कहा-हे कामदेव! मैंने तेरे सम्बंध में जो कुछ कहा है, वह तो निश्चित रूप से होगा ही, परन्तु अब मैं तुझे यह वरदान देता हूँ कि तुझे भस्म करने के उपरान्त कुछ दिनों बाद जब शिवजी अपना विवाह करेंगे, उस समय तुझे यही शरीर पुनः प्राप्त हो जायगा और शिवजी तेरे सहायक हो उठेंगे। इस बात को सुनकर सभा में फिर से नवीन आनन्द भर गया।

॥ ब्रह्मा तथा दक्ष का वार्तालाप ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! इस प्रकार मैंने शिवजी की माया के अधीन होकर तथा अंहकार के वशीभूत होकर, पहिले तो अपने प्रभु के साथ वैर किया, तदुपरान्त कामदेव पर कृपा करके दक्ष प्रजापति से यह कहा-हे पुत्र! तुम अपनी स्वेदका नामक पुत्री का विवाह कामदेव के साथ कर दो तो हमारा हृदय प्रसन्न होगा। 

मेरी इस आज्ञा को सुनकर दक्ष ने कामदेव से कहा-हे अनंग! मेरी पुत्री को, जो रति नाम से भी प्रसिद्ध है, स्वीकार करो और प्रसन्नतापूर्वक तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करते रहो। कामदेव ने भी दक्ष की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। तब रति के साथ कामदेव का बड़ी धूमधाम के साथ विवाह हुआ। उस समय मैंने अत्यन्त प्रसन्न होकर दक्ष को अपनी बायीं ओर बिठाया। फिर पिता के समान उपेदश करते हुए भगवान् सदाशिव ने मुझसे जो शब्द कहे थे, उन पर विचार करते हुए दक्ष से बोला-हे दक्ष! शिवजी योगी स्वरूप धारण कर तीनों लोकों को जीत, भोग-विलास को त्याग, स्त्रीहीन हो, सदैव स्वच्छन्द विचरण किया करते हैं। 

अपनी दशों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर, वे स्वाधीन बने हुए हैं। अतः तुम ऐसा कोई उपाय करो, जिससे शिवजी सांसारिक रीति के अनुसार अपना विवाह कर लें। ऐसा हो जाने पर हम निश्चित हो जायेंगे। शिवजी ने तुम्हें भी बहुत धिक्कार दिया है और अपने बड़प्पन के अहंकार में भरकर, किसी को कुछ नहीं समझा है। 

यदि विष्णु ने हम से ऐसा कहा होता तो हम कुछ भी बुरा नहीं मानते। शिवजी हमारे पुत्र होते हुए भी हमारे प्रति ऐसे कटु वचनों का प्रयोग करते हैं और तुमसे भी, जब कि तुम उनके भाई होते हो इस प्रकार अनादर वचन कहते हैं, सो यह किसी भी हालत में उचित नहीं है। परन्तु, जब तक शिवजी किसी स्त्री से विवाह नहीं कर लेते हैं, तब तक हमारा शोक दूर नहीं होगा। 

अब सोचने की यह बात है कि संसार में ऐसी कौन सी स्त्री है जिसके ऊपर शिवजी मोहित हो जायँ और उससे अपना विवाह कर लें तथा वह स्त्री शिवजी की सारी चतुराई को दूर कर दे। यहां यह बात ध्यान में रखने की है कि जब कामदेव भी शिवजी को वश में नहीं कर सका तो अन्य देवता उनके समक्ष किस प्रकार ठहर सकते हैं ? फिर भी, यदि कामदेव कुछ प्रयत्न करे तो शायद काम बने।

हे नारद ! इतना कहकर मैं हँसता हुआ कामदेव के पास जा पहुँचा। उसके सुन्दर स्वरूप को देखकर मुझे यह निश्चय हो गया कि कामदेव द्वारा हमारा यह काम अवश्य सिद्ध हो जायगा। कामदेव ने मुझे अत्यन्त आदरपूर्वक अपने पास बैठाया। उसी समय मेरे स्वाँस से एक अत्यन्त सुन्दर पुरुष उत्पन्न हुआ। उसका नाम मैंने वसन्त रखा। वसन्त के जन्म से कामदेव की शक्ति में वृद्धि हुई। 

उस समय तीनों प्रकार की वायु चलने लगी तथा पक्षीगण मधुर स्वरों में चहचहाने लगे। कोकिला भी मीठ स्वरों में कूक उठी। कामेदव की उस शक्तिशालिनी सेना को देखकर मैंने कहा -हे मन्मथ ! यदि तुम अपने पराक्रम से शिवजी को वश में कर लो तो तीनों भुवनों में तुम्हारी अत्यन्त प्रसिद्धि होगी। परन्तु, तुम मेरी आज्ञा मानकर इस कार्य को शीघ्र सम्पन्न करो। मेरी इस आज्ञा को सुनकर कामदेव ने उसे अपने मस्तक पर धारण किया। तदुपरान्त वह मुझे प्रणाम कर एवं अपनी सेना को साथ लेकर शिवजी के समीप चल दिया।

॥ शिवजी को मोहित न कर पाने के कारण कामदेव की लज्जा ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! जिस समय कामदेव अपनी सेना को लेकर शिवजी के पास चला, उस समय सम्पूर्ण संसार पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि सृष्टि के समस्त प्राणी बुद्धिहीन हो, उसके वशीभूत हो गये। शिवजी के गणों पर भी उसका प्रभाव पड़े बिना न रहा। जब शिवजी ने यह जाना कि कामदेव उन पर विजय प्राप्त करने के निमित्त अपनी सेना को साथ लिये हुए आ रहा है तो उनके ऊपर उसका कुछ भी प्रभाव न पड़ा। 

वे अपनी इन्द्रियों को जीतकर अपने स्थान पर ध्यानमग्न बैठे रहे। उनके ऊपर कामदेव का कोई वश नहीं चला। तब कामदेव अत्यन्त दुखी एवं चिन्तित होकर वहाँ से लौट आया और कायरों की भाँति मेरे सामने आकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। तदुपरान्त स्तुति करते हुए इस प्रकार बोला-हे पिता ! मैंने अपनी सेना द्वारा सम्पूर्ण देवता, मुनि एवं अन्य जीवधारियों को तो वश में कर लिया, परन्तु शिवजी के ऊपर मेरा कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अब मुझे यह भय लग रहा है कि कहीं वे मेरे ऊपर क्रोधित न हो जायँ। प्रज्ज्वलित अग्नि के समान उनके स्वरूप का स्मरण कर, मैं मन ही मन अत्यन्त भयभीत हो रहा हूँ। मुझ में इतना बल नहीं है कि मैं उन्हें परास्त कर सकूँ; क्योंकि इस बात की मैंने भली-भांति परीक्षा कर ली है।

हे नारद ! कामदेव की बात सुनकर मुझे अत्यन्त चिन्ता हुई और मेरे मुख पर उदासी के लक्षण स्पष्ट हो गये। उस समय मैंने शोकाकुल होकर जो बहुत से स्वाँस छोड़े, उनसे अनेक प्रकार के गणों की उत्पत्ति हुई। वह अपने हाथों में अनेक प्रकार के शस्त्र धारण किये हुए थे। वे बड़े जोर-जोर से चिल्लाते, नाचते-गाते हुए मार-मार की पुकार करते थे। उनका कोलाहल सम्पूर्ण दिशाओं में भर गया। वे अनेक प्रकार से उपद्रव करते थे। उनकी संख्या का वर्णन नहीं किया जा सकता।

हे नारद! जब उन गणों को कामदेव ने देखा तो मुझसे पूछा- हे पिता! ये लोग कौन हैं और इनका नाम क्या है ? मैंने उत्तर दिया- यह सब लोग मार-मार शब्द का उच्चारण कर रहे हैं, अतः इनका नाम मार होगा। हे अनंग! तुम इस सेना को अपने साथ लेकर एक बार शिवजी के पास फिर जाओ और ऐसा उपाय करो, जिससे शिवजी किसी स्त्री के साथ विवाह करना स्वीकार कर लें। 

यह सुनकर कामदेव ने उत्तर दिया-हे पिता! पहले तो मेरा कुछ वश नहीं चला और अब भी कोई आशा नहीं है, फिर भी मैं एकबार पुनः आपकी आज्ञा से उनके पास जाता हूँ; परन्तु आप यह निश्चय रखें कि यदि शिवजी का ध्यान भटक भी गया तो मैं जीवित कदापि नहीं बचूँगा। इतना कहकर कामदेव अपनी उस नयी सेना को साथ लेकर वहाँ से चल दिया और उस स्थान पर जा पहुँचा जहाँ शिवजी ध्यान मग्न बैठे थे। 

सर्वप्रथम उसने पृथ्वी पर मस्तक रख कर शिवजी को प्रणाम किया, तदुपरान्त उनकी प्रसन्नता के निमित्त अनेक प्रकार से उनकी स्तुति की। उसने प्रार्थना करते हुए कहा- हे प्रभो ! मैं अपने पिता की आज्ञानुसार यह कार्य करने के लिए आया हूँ। अतः आप मेरे ऊपर कृपा बनाए रहें। इतना कहकर कामदेव ने अपने साथी वसन्त को चारों ओर फैला दिया। उस समय संसार के किसी भी प्राणी का धैर्य स्थिर न रह सका। 

परन्तु इतने पर भी शिवजी का ध्यान विचलित न हुआ। कामदेव का उस समय भी यह बड़ा सौभाग्य रहा कि शिवजी ने उसे निरभिमान अनुमानकर भस्म नहीं कर दिया । तत्पश्चात् कामदेव लज्जित होकर पुनः मेरे पास लौट आया और बोला- हे पिता! शिवजी पर मेरा इस बार भी कोई वश नहीं चला। यदि आप चाहते हैं कि शिवजी विवाह अवश्य करें तो किसी अन्य उपाय का आश्रय लीजिए। इतना कहकर कामदेव अपने घर को चला गया। उस समय मुझे अत्यन्त निराशा तथा चिन्ता हुई। जब कोई उपाय न सूझा तो मैंने विष्णुजी का ध्यान किया और बहुत प्रकार से उनकी स्तुति की।

॥ विष्णु जी द्वारा ब्रह्मा को उपदेश ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! मैंने भगवान् विष्णु की विनती करते हुए कहा- हे प्रभो! आप अपना सेवक जानकर मेरा दुःख दूर कीजिए। हे दीनबन्धु! आप अपने सेवकों के हित के लिए अवतार लेते हैं, अतः इस समय आप प्रकट हो गये। जिस समय मैंने उन्हें प्रणाम किया, उस समय वे हँसकर कहने लगे-हे ब्रह्मन्! आपने हमें किसलिए स्मरण किया है ? आपको कौन सा कष्ट है ? तब मैंने उन्हें कामदेवजी का शिवजी के पास जाने और निराश होकर लौट आने का सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर विष्णुजी बोले- हे ब्रह्मन्! आप शिवजी को पत्नी सहित क्यों देखना चाहते हैं ? उन्हे अकेला क्यों नहीं रहने देते ? आपकी मनोभिलाषा को जानकर ही हम कुछ उपाय बतायेंगे । 

श्रीविष्णु के मुख से यह वचन सुनकर मैंने उन्हें वह वृत्तान्त कह सुनाया कि मैंने अपनी पुत्री संध्या के साथ मैथुन करना चाहा था और शिवजी ने प्रकट होकर मुझे धिक्कारा था। मैंने कहा था कि जब तक मैं शिवजी को सपत्नीक नहीं देख लूँगा, तब तक मेरे हृदय का क्षोभ नहीं जायेगा।

हे नारद ! मेरी बात सुनकर विष्णुजी ने कहा-हे ब्रह्मन् ! आप अपनी इस मूर्खता को दूर कर दें। आप जो शिवजी को अपना पुत्र समझकर बुद्धि के विरुद्ध बातें कह रहे हैं वे उचित नहीं है। हम और आप दोनों ही उनके सेवक हैं। वे सर्वथा स्वाधीन एवं भक्तों पर अनुग्रह करनेवाले हैं। यदि आपकी यही इच्छा है कि वे अपना विवाह कर लें तो आपको उनकी शरण में जाना उचित है। 

सर्वप्रथम आप कठिन तपस्या द्वारा उन्हें प्रसन्न करें, तदुपरान्त उमा का स्मरण करते हुए, दक्ष प्रजापति से भी उसी प्रकार करायें। उस तप के प्रभाव से भगवती उमा दक्ष प्रजापति के घर पुत्रीरूप में जन्म लेंगी और उनका विवाह शिवजी के साथ होगा । ऐसा करने से सम्पूर्ण लोकों का कल्याण भी होगा और आपकी इच्छा भी पूर्ण हो जायेगी । इतनी कह श्री विष्णुजी भगवान सदाशिव के चरणों का ध्यान धरते हुए, अपने लोक को चले गये।

॥ दक्ष की तपस्या का वृत्तान्त ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद ! भगवान् विष्णु की आज्ञा शिरोधार्य कर मैंने भगवान् सदाशिव के प्रति उस द्वेष का त्याग कर दिया, जिसे मैंने उनकी माया से मोहित होकर अपना रखा था। तदुपरान्त दक्ष को बुलाकर उसे वह सब हाल कह सुनाया, जो कुछ श्री विष्णुजी ने मुझसे कहा था। मैंने उससे कहा- हे पुत्र! अब तुम एक कन्या को जन्म दो, जो भगवान् सदाशिव की पत्नी हो सके। ऐसा होने पर हम और तुम संसार में धन्य हो जायेंगे । तुम भगवान् सदाशिव की तपस्या करके उनका दर्शन प्राप्त करो और यह वरदान माँगो कि हे प्रभो! आप मेरी सन्तान बनकर जन्म लें। 

मैं भी तपस्या करके उन से यही माँगूंगा। वे भगवान् त्रिशूलपाणि आदिशक्ति सम्पन्न तथा सगुण निर्गुण दोनों रूपवाले हैं। उनकी महिमा का पार वेद ने भी नहीं पाया है। वे तपस्या के वशीभूत होकर निश्चय ही दर्शन देते हैं। जब उन कृपालु शिवजी ने मुझे उत्पन्न किया था, उस समय मेरी तथा विष्णुजी की प्रार्थना को सुनकर हमें यह वरदान भी दिया था कि वे स्वयं भी हर नामक अवतार ग्रहण करेंगे और हमारे सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करेंगे। 

उन्होंने यह बताया था कि उनकी आदिशक्ति, जिनके अंश से लक्ष्मी की उत्पत्ति हुई है, और भी एक कला से उमा के रूप में जन्म लेकर हर अवतार की पत्नी होंगी। भगवान् सदाशिव ने बताया था कि हमारे स्वरूप की आदिशक्ति द्वारा ही इस सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति होती है और वह आदिशक्ति समस्त संसार की माता है।

परन्तु, हे दक्ष! वे आदिशक्ति तुम्हारे घर में सती नाम से जन्म लेंगी। तुम मुझे तथा विष्णु को तो पत्नी सहित देखते हो परन्तु भगवान् सदाशिव के हर अवतार ने अब तक किसी स्त्री को स्वीकार नहीं किया है और न अब तक सती का अवतार ही हुआ है। अतः तुम ऐसा उपाय करो, जिससे सती का अवतार हो। 

इस प्रकार समझाकर मैंने दक्ष को विदा किया। तदुपरान्त घर जाकर, सम्पूर्ण इन्द्रियों को वशीभूत कर, वेद के अनुसार तपस्या करने लगा। मैंने अपने मन में श्री जगदम्बा का ध्यान कर श्वास को मस्तक पर चढ़ा लिया और मन के वेग को जीत कर उनकी स्तुति की। तब मेरी उस तपस्या से प्रसन्न होकर जगदम्बा ने मुझे सेवक जानकर दर्शन दिया ।

॥ ब्रह्मा जी द्वारा देवी से वर याचना ॥

ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद! ऐसा कौन सा प्राणी है, जो भगवती महामाया के उस अनुपम, सुन्दर शरीर को देखकर मोहित न हो जाय ? उनके दर्शन प्राप्त कर देवता तथा ऋषि-मुनि भी मोहित हो जाते हैं। वे अपने मुख्य चिह्नों से अलंकृत तथा वस्त्राभूषण को धारण किये हुए थीं। वे सिंह पर आरूढ़ थीं। उनके उस स्वरूप को देखकर मैं अपना मस्तक नीचे झुकाकर, उनकी स्तुति करने लगा। 

उस समय भगवती भवानी ने मुझ पर दया करते हुए कहा- हे ब्रह्मन्! तुम जो चाहते हो, वर माँग लो । यह सुनकर मैंने पिछली बातों को स्मरण करते हुए कहा-हे मातेश्वरी ! रुद्र नामक शिवावतार ने मुझसे बहुत ही कटु-वचन कहे हैं और व्यर्थ ही धिक्कारा है। अतः आप अवतार लेकर उन्हें वश में कर लें, जिससे वे भी हमारे ही समान गृहस्थ हो जायँ। 

कृपा कर आप यही वरदान दक्ष प्रजाप्रति को भी दीजिए, क्योंकि इसी अभिलाषा को लिये वह भी आपकी आराधना कर रहा है। तीनों लोकों में आपके अतिरिक्त कोई ऐसा नहीं, जो शिवजी को मोहित कर सके।

हे नारद! मेरी बात सुनकर भगवती भवानी ने कहा-हे ब्रह्मन् ! तुम धोखा देकर मुझसे यह क्या माँग रहे हो ? इससे तुम्हें क्या लाभ होगा ? इस समय तुमने मेरे सामने यह संकट भी उपस्थित कर दिया है कि मैं तुम्हें वरदान न दूँ तो वेद का मार्ग नष्ट हो जायेगा। इतना कहकर उन भगवती ने योग धारण द्वारा उन परब्रह्म परमेश्वर का ध्यान किया, जो अपने भक्तों को प्रसन्नता प्रदान करते हैं और सबके अन्तःकरण का हाल जानते हैं। 

भगवान् सदाशिव ने उन्हें ध्यानावस्था में यह आज्ञा दी कि ब्रह्मा जिस वरदान को माँगते हैं, उन्हें दे दो और तुम अवतार ग्रहण करना स्वीकार करो। हम तुम्हें अत्यंत स्नेहपूर्वक अंगीकार करेंगे तथा ब्रह्मा को इस प्रकार मोहित करेंगे कि उनका सम्पूर्ण गर्व नष्ट हो जायगा। परब्रह्म की ऐसी आज्ञा पाकर भगवती जगदम्बा ने मुझसे कहा- हे ब्रह्मन् हररूपी भगवान् सदाशिव योगिराज हैं। उन्हें मोहित नहीं किया जा सकता। परंतु तुम्हारी प्रार्थना के अनुसार युक्तिपूर्वक तुम्हारा मनोरथ सिद्ध कर दिया जायगा। 

जब तक हर स्त्री को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक न तो उन्हें परलोक का फल मिलेगा और न संसार में आनन्द ही प्राप्त होगा। अतः मैं उनके निमित्त दक्ष प्रजापति की पुत्री के रूप में स्वयं ही अवतार ग्रहण करूंगी। उस समय शिवजी मुझपर मोहित होकर, मेरे साथ विवाह कर लेंगे। इतना कहकर भगवती महामाया अन्तर्धान हो गयीं और मुझे अत्यंत प्रसन्नता प्राप्त हुई ।

 ॥ दक्ष पत्नी के गर्भ में आदिशक्ति का अवतार आगमन ॥

इतनी कथा सुनाकर सूतजी बोले-हे ऋषियो! पितामह ब्रह्माजी द्वारा इस वृत्तान्त को सुनकर नारदजी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा-हे पिता! भगवान् सदाशिव की आदिशक्ति ने जब आपको यह वरदान दे दिया, उसके उपरान्त क्या घटना घटी, यह आप मुझे बताने की कृपा करें ?

ब्रह्माजी बोले-हे आत्मज! जब भगवती महामाया ने प्रकट होकर मुझे यह वरदान दिया तब दक्ष प्रजापति ने मेरी आज्ञानुसार घोर तपस्या करनी आरम्भ की। उसने तीनों प्रकार का प्राणायाम करते हुए, शिवरानी के चरण-कमलों में अपने हृदय को स्थित किया। दक्ष के उग्र तप को देखकर श्री जगदम्बा ने अपने उसी शुद्ध, मनोहर एवं पवित्र स्वरूप में प्रकट होकर दर्शन दिया, जिसका वर्णन मैं पहिले कर चुका हूँ। 

दक्ष ने उन्हें प्रणाम कर स्तुति करते हुए कहा -हे भगवती! मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप मुझे अपना सेवक जानकर मेरे ऊपर कृपा करें। उसकी स्तुति को सुनकर भगवती बोलीं-हे दक्ष! तुम्हारी जो इच्छा हो वह मुझसे माँग लो। मेरे लिये कोई भी वस्तु अदेय नहीं है। यह सुनकर दक्ष ने कहा-हे मातेश्वरी ! आप मेरी पुत्री बनकर मेरे घर में अवतार लें और हर के मन को मोहित करें। इस कार्य में मेरा कोई प्रयोजन नहीं है, अपितु तीनों लोकों का उपकार भी सन्निहित है। मैंने मोक्ष का वरदान न माँगकर आपसे जो यह प्रार्थना की है वह पूर्ण होनी चाहिए।

दक्ष की प्रार्थना सुनकर भगवती महामाया ने कहा-हे दक्ष! तुम जो चाहते हो, वही होगा। मैं तुम्हारी पली के गर्भ से उत्पन्न होकर शिवजी की अर्धागिनी बनूँगी; परन्तु तुम अपने मन में किसी प्रकार अंहकार नहीं करना, अन्यथा तुम्हारा सम्पूर्ण गर्व नष्ट हो जायगा।

इतना कहकर श्रीजगदम्बा अन्तर्धान हो गयीं और दक्ष अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने घर को लौट आया। तदुपरान्त दक्ष ने दस सहस्त्र मानस पुत्रों की उत्पत्ति की। वे सब तुम्हारी प्रेरणा से घर छोड़कर तपस्या करने के लिए वन में चले गये और परमपद को प्राप्त हुए। तत्पश्चात्, दक्ष ने दस सहस्त्र पुत्र और उत्पन्न किये परन्तु वे भी तुम्हारा उपदेश सुनकर संसार से विरक्त होकर वहीं चले गये; जहाँ उनके भाई गये थे। उस समय दक्ष ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर तुम्हें शाप दिया कि हे नारद ! तुम अत्यन्त अधम हो, क्योंकि तुमने मेरे सब पुत्रों को मेरे विरुद्ध कर दिया है। अब मैं तुम्हारे कर्म के अनुसार तुम्हें यह शाप देता हूँ कि तुम किसी एक स्थान पर न ठहर कर सदैव भ्रमण किया करो।

हे नारद! तुम्हें यह शाप देने के उपरान्त दक्ष को अपने मन में कुछ संतोष हुआ। तब उसने अपने मन में यह निश्चय किया कि अब कुछ मैथुनी सृष्टि उत्पन्न करनी चाहिए। यह विचार करके दक्ष ने वीर प्रजापति की पुत्री वीरनी के साथ विवाह किया। विवाह के उपरान्त दक्ष ने अपने हृदय में भगवती जगदम्बा का ध्यान किया। उस समय श्री जगदम्बाजी ने भी अपने मन में यह विचार किया कि अब मुझे दक्ष के घर जन्म लेकर, उसका मनोरथ पूर्ण करना चाहिए। 

यह निश्चय कर, वे दक्ष के हृदय में प्रवेश कर गयीं। उस समय दक्ष प्रजापति को अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई। और भगवती के तेज से उनका शरीर प्रदीप्त हो उठा। तदुपरान्त शुभ अवसर पाकर दक्ष ने उस तेज को अपनी पत्नी में स्थिर कर दिया।

॥ सती नाम से आदिशक्ति के अवतार का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! जब दक्ष की पत्नी गर्भवती हुई, उस समय बहुत धूमधाम से उत्सव मनाया गया। दक्ष ने रीति के अनुसार पूजा की। मैंने तथा विष्णु ने भी उस उत्सव में सम्मिलित होकर दक्ष की पत्नी की सेवा एवं स्तुति करने के पश्चात् दक्ष की प्रशंसा की। सभा समाप्त होने के पश्चात् हम सबलोग अपने-अपने लोक को लौट आये। नौ महीने बीतने के पश्चात् जब दसवाँ महीना आरम्भ हुआ, तब चारों ओर अपने आप आनन्द के दृश्य प्रकट हुए। सभी मन में हर्षित थे। आकाश में बाजे बजने लगे। ऐसे परमोत्तम समय में श्री महारानी जगदम्बा अवतरित हुई । 

तीनों लोकों में प्रसन्नता भर गयी। उस समय कोई मनुष्य दुःखी दिखायी नहीं देता था। तब मैं, विष्णु तथा समस्त ऋषि-मुनि एकत्र होकर दक्ष प्रजापति के घर गये। अत्यन्त प्रसन्नता के साथ बाजे बजने लगे। सबलोग देवी की स्तुति करके कहने लगे हे शिवा, शिवरानी! तुम सम्पूर्ण संसार की राजरानी हो। तुम्हारी महिमा अपरम्पार है, जिसका पार वेद भी नहीं पा सके। तुम सब की माता तथा सबको प्रसन्नता प्राप्त कराने वाली हो।

इस प्रकार हम सब विनय करके अपने-अपने स्थान को चले गये। जब दक्ष की पत्नी ने अपनी पुत्री का मुख देखा तो उसको हृदय के ज्ञान से आभास हुआ कि यह आदिशक्ति है तथा इसने हमारे यहाँ अवतार लिया है। माता उस कन्या का अद्वितीय सौन्दर्य देखकर पहिचान गयी। तब उस देवी ने अपनी माता को अष्टभुजा महातेजस्वी, मेघसदृश श्याम वर्ण, नख झलकते हुए अंग अत्यन्त सुडौल, परम सुन्दरी, सब प्रकार के आभूषणों तथा वस्त्रों से सुशोभित तथा कानों में कुंडल, हाथों में कंकण, कण्ठ में हार, माथे पर बिन्दी से सज्जित शशिमुख का दर्शन दिया।

॥ पुत्री के जन्म पर दक्ष की प्रसन्नता ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! देवीस्वरूपा अपनी पुत्री का ऐसा रूप देखकर माता करबद्ध होकर उसकी स्तुति करने लगी और कहने लगी -मैं जानती हूँ कि तुम आदिशक्ति तथा सृष्टि की माता हो। तुमने हमारे ऊपर कृपा करके हमारे घर में अवतार लिया है, परन्तु तुम हम पर अनुग्रह करो और मेरे मन में अपने स्वरूप को स्थिर करो। इस समय तुम मुझे अपना स्वरूप बालरूप में ही दिखाओ। मैंने तुम्हें पहिचान लिया है। मैं जानती हूँ कि तुमने अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया है। वैसे मैं तुमको क्या पहिचान सकती हूँ क्योंकि अन्त में वेद भी तुम्हारी स्तुति करके हार मानकर चुप हो जाते हैं।

उसी समय दक्ष प्रजापति ने आकर बड़े प्रेम से स्तुति की और कहा- तुमने अपने वचन का पालन कर मेरे घर में अवतार लिया है। मैं तथा मेरे भाई वेद सब जीवनमुक्त हो गये। तुम्हारी महिमा अपरम्पार है। तुम केवल पूजा और तप के वश में हो, जैसा कि राजा सुरथ का तप साक्षी है। 

वह अपने तप से ही परमपद प्राप्त कर सका था। तुम्हारा शुम्भ और निशुम्भ ने भी क्रोध एवं वैमनस्य से मन लगाया तो भी वे ध्यान करने से परमगति को प्राप्त हुए। इसी प्रकार दक्ष ने महामाया की अत्यन्त स्तुति करके अन्त में यह प्रार्थना की कि अपना यह मनमोहक रूप हमारे हृदय में बसा कर, अब जो रूप, समय के योग्य हो, उसे आप धारण कीजिए, जिससे प्रसन्नता प्रकट हो।

इस प्रकार दक्ष तथा उसकी पत्नी अर्थात् अपने माता-पिता की बातें सुनकर, श्री देवीजी बोलीं-कि हे दक्ष तथा हे दक्षपत्नी! तुम दोनों ही ने हमारी बड़ी उपासना की है। हमने भी वरदान के अनुसार तुम्हारे घर अवतार लिया है। अब तुमको यही उचित है कि तुम जिस प्रकार मुझे शक्ति समझते हो, उसी प्रकार का विश्वास रखते हुए, कभी गर्व न करना। 

देवी जी इतना कह कर कन्या का रूप धारण कर संसार की रीति के अनुसार रोने लगीं। तब वह रोदन सुनकर कुल की असंख्य नारियाँ, समस्त बाँदियाँ एकत्र हो गयीं। उन सब ने पुत्री को देखकर प्रसन्नता प्रकट की। उस दिन नगर में सर्वत्र प्रसन्नता छायी हुई थी। चारों ओर से जय-जय नाद गूंज रहा था। दक्ष तथा उसकी पत्नी ने वेद एवं कुल के नियमानुसार सब रीति की तथा बहुत सा धन दान स्वरूप बाँटा। उस समय मैं तथा विष्णुजी देवताओं और मुनियों को साथ लेकर वहाँ जा उपस्थित हुए तथा दक्ष के निवेदन के अनुसार हमने उस कन्या का नाम सती रखा।

दक्ष के यहाँ पुत्री उत्पन्न होने से, इस आनन्दोत्सव की तीनों लोकों में चर्चा हई। दक्ष प्रजापति तथा दक्षपत्नी ने पुरुषों एवं स्त्रियों का समुचित आदर सत्कार किया। इसके पश्चात् सब लोग अपने-अपने घर को चले गये। दक्ष अपनी पत्नी सहित सती के प्रेम में निमग्न होकर सब कुछ भूल गये। सती चन्द्रकला की भाँति दिन-दिन बढ़ने लगीं। वे प्रतिदिन शिवपत्नी का पाठ करतीं तथा सदाशिव का ध्यान करतीं। वह पार्थिव पूजन करतीं तथा माता-पिता की प्रसन्नता की ओर से अधिक ध्यान देतीं। 

यद्यपि उनका शिव में अधिक ध्यान रहता, परन्तु इस बात को वे किसी पर प्रकट न होने देतीं। सती इसी प्रकार के विचित्र खेलों में मग्न रहतीं। जब कुछ बड़ी हुईं तो उनके मुख की कान्ति दूनी हो गयी। उनकी सुन्दरता की समानता तीनों लोकों में कोई भी नहीं कर सकता था। लक्ष्मी मोहिनी भी उनकी सुन्दरता की समानता न करके अन्त में पराजय मान गयीं। हे नारद ! इस प्रकार मैंने दक्ष की कन्या का यह संक्षेप में वर्णन किया है।

॥ सती के बाल चरित्रों का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! एक समय सती ने दक्ष के सम्मुख एक विचित्र चरित्र किया था । उस समय मैं और तुम वहाँ पहुँचे। सती ने हम दोनों को बैठने के लिए स्वर्ण की चौकी देकर हमारी स्तुति की। हम दोनों ने सती की नम्रता तथा सेवा देखकर यह वरदान दिया कि जिसकी महिमा अपार है तथा जिसकी हम और विष्णु सेवा करते हैं, जो किसी दूसरी स्त्री को न चाहे, ऐसा परम पुरुष तुम्हारा पति हो। 

सती से ऐसा कहकर मैंने फिर दक्ष से कहा-हे दक्ष! तुम धन्य हो, तुम्हारे घर में आदिशक्ति जगदम्बा अवतरित हुई हैं। अब तुमको यही उचित है कि मोह रहित होकर कन्या का विवाह शिव के साथ सम्पन्न कर दो। ऐसा कहकर मैं और तुम अपने-अपने स्थान को लौट आये। उस समय दक्ष ने प्रसन्न होकर सोचा कि अब सती युवा हुई तथा घर से बाहर पैर नहीं रखती है परन्तु अब मुझे यही उचित है कि जिस प्रकार शिवजी उसको स्वीकार करें, वही उपाय करना चाहिए। 

इसी प्रकार विचार करते-करते बहुत समय व्यतीत हो गया, परन्तु दक्ष के हृदय में कोई बात स्थिर न हुई। तब सती ने सोचा कि मैं शिव का तप करके शिवशक्ति हो जाऊँ, परन्तु लज्जावश माता-पिता की आज्ञा के बिना वे इस बात को प्रकट नहीं कर सकती थीं। अन्त में एक दिन उन्होंने अपनी माता से अपनी यह आकांक्षा प्रकट करते हुए कहा-यदि आज्ञा हो तो मैं वन में जाकर शिवजी की तपस्या करूँ क्योंकि वे बिना तपस्या किए मुझसे विवाह नहीं करेंगे और बिना विवाह के तुम्हारा मनोरथ पूर्ण न होगा। इसलिए हे माता! यही उचित है कि तुम मुझे इसके लिए पिता से आज्ञा दिला दो।

माता ने सती की बात सुनकर दक्ष को बुलाया तथा सती की मनोकामना कह सुनायी। उसे सुनकर दक्ष अत्यन्त प्रसन्न हुए। इस प्रकार सतीजी अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर अपनी सखियों के साथ हाटकेश वन में पहुँचकर, कठिन तपस्या करने लगीं। 

उन्होंने तीनों ऋतुओं में उसी वन में रहकर व्रत का शुभारम्भ किया और पूरी तरह शिवजी की पूजा की। वे कार्तिक में नित्य प्रातः स्नानकर, शिव पूजन करके रात-दिन शिव के चरणों में ध्यान लगाये रहीं। माघ में स्नान कर, शिवजी की पूजा की तथा भीगे हुए वस्त्रों से नदी के तट पर तप करती रहीं और रात्रि को सखियों सहित जागकर अत्यन्त प्रसन्न हुईं। 

उन्होंने फागुन मास की चौदस को शिवजी की पूजा की तथा उन पर अनेक प्रकार के पुष्प चढ़ाये और रात्रि को जागरण कर चारों प्रहर उनकी पूजा की। चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की चतुद्रशी को टेसू के पुष्प अप्रित किये। उन्हीं पुष्पों से शिवजी का पूजन किया। वैसाख सुदी तृतीया को शिवजी का पूजन किया तथा उनके सम्मुख नाना प्रकार के पुष्पों से नैवेद्य समर्पित किये। 

ज्येष्ठ मास के अन्त में व्रत रखकर सहस्त्रों भटकटियों के पुष्पों से शिवजी की पूजा की। अत्यन्त पवित्र आषाढ़ मास में पूरे माह व्रत रखकर, नाना प्रकार के पुष्पों से शिवजी का पूजन किया। श्रावण की अष्टमी को वस्त्रादिक दान किये। भादों के कृष्णपक्ष को काम तिथि में सुन्दर-सुन्दर पुष्प एवं फलों से अच्छी प्रकार शिवजी की पूजा की। इसी प्रकार चतुर्दशी को पुनः शिवजी का पूजन किया। इसी प्रकार सती का नन्दा व्रत आनन्दपूर्वक सम्पन्न हुआ।

नन्दा व्रत पूर्ण हो जाने के पश्चात् सती ने प्रसन्न होकर लोगों को बहुत दान दिया और वेद के अनुसार अनेक प्रकार की सर्वोत्तम वस्तुएं एकत्र कर उनसे शिवजी का पूजन किया । ब्राह्मणों को शिवस्वरूप जानकर उनकी भी पूजा की। इस प्रकार शिव के प्रेम में मग्न होकर योग धारण से तप किया और श्वास चढ़ा कर जल में बैठ गयीं। उस समय मैंने तथा विष्णु ने जाकर देखा कि सती सिद्धों, एवं अमरगण की भाँति बैठी हैं और वहाँ के सम्पूर्ण जीवों में कोई भी द्वेषभाव नहीं है। यहाँ तक कि सिंह तथा गौ एक साथ रहते हैं। 

इसी प्रकार समस्त जीवधारी शत्रुता त्यागकर, वहाँ प्रेमपूर्वक क्रीड़ा करते थे। मैं और विष्णुजी वहाँ की ऐसी दशा देखकर सती की स्तुति करने लगे। फिर कैलाश पर्वत की ओर यह कहते हुए कि सती को शिवजी अंगीकार करें, चल दिये।

॥ ब्रह्मा आदि द्वारा शिव जी से विवाह करने के हेतु प्रार्थना करना ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! मैंने स्वयं एवं विष्णुजी, देवता, मुनि, नाग, सिद्ध सबने शिवजी के निकट जाकर देखा कि शिवजी शक्ति सहित विराजमान हैं। हम सबने उसकी स्तुति की तथा विनती करते हुए कहा- हे महादेव! जब हमको आपने उत्पन्न किया था, तब आपने प्रण किया था कि हम तुम्हारे उपकार के लिए रुद्र नाम से अवतरित होंगे, सो ऐसा ही हुआ। आपने अपनी प्रतिज्ञानुसार अवतार लिया। अब आप हम पर कृपा करें। मैं और विष्णु यह कहकर चुप हो गये।

यह सुनकर सदाशिव बोले-हे ब्रह्मा तथा विष्णो! मुझे तुम दोनों ही अत्यन्त प्रिय हो। तुम यहाँ मुनियों के साथ किस लिए आये हो सो मुझे सब ठीक-ठीक बताओ ? शिवजी के ऐसे वचन सुनकर हमने यह समझा कि अब मनोकामना अवश्य सिद्ध होगी। तब विष्णु और मैंने हाथ जोड़कर उनसे निवदेन किया-हे प्रभो! पहिले आप ने कहा था कि हम विवाह करके लोक कार्य सिद्ध करेंगे, सो अब वह समय आ गया है। अब आप अपने वचन का पालन कीजिए।

शिवजी यह सुन हँसकर बोले-हम तो योगी हैं। हमें विवाह-भोग से क्या संबंध ? हमारा शरीर अवधूत है और हमारी सामग्री भी अशुभ है। हम इसी दशा में बहुत प्रसन्न हैं। देखो, लोग विवाह से अधिक दूसरा कोई आनन्द नहीं मानते, परन्तु वह एक कारागृह के समान है, जैसा कि वेद भी कहते हैं। जो बात मुझे अच्छी नहीं लगती, तुम उसी के करने के लिए मुझ से कहते हो। 

अच्छा, फिर भी मैं अपना वचन पूरा करूंगा और विवाह करूँगा परन्तु इसके साथ एक बात अवश्य है कि मैं जिस प्रकार की स्त्री कहूँगा, तुमको मेरे लिए उसी प्रकार की स्त्री ढूँढ़नी होगी। वह स्त्री ऐसी हो जो हमारे तेज को सह सके। वह परम सुन्दरी तथा कीर्तियुक्त हो। और वह मेरी बात माने तथा पूरी तरह से मेरी सेवा करे।

शिवजी के ऐसे वचन सुनकर मैंने तथा विष्णु ने हाथ जोड़कर उनसे निवेदन किया-हे प्रभो! आपके योग्य सर्व गुण सम्पन्न दक्ष प्रजापति की पुत्री हैं। जो आपके लिए ही महा कठिन तप कर रही हैं। आप वहां चलकर उनको वरदान दीजिए तथा उनसे विवाह कीजिए। इतना कहकर हमलोग शान्त हो गए। तब शिवजी ने हँसकर कहा- "तथास्तु" शिवजी के मुख से यह सुनकर देवता तथा मुनि आदि जय जयकार करने लगे। 

इसके पश्चात् सब विदा हो गये। उधर शिवजी अपने गणों सहित सती को वर देने के लिए उसी स्वरूप में, जिसका सती ध्यान करती थीं, सती के पास जा पहुँचे। सती के मन से उस समय वह स्वरूप जिसका कि सती ध्यान कर रही थीं, लुप्त हो गया। तब चिंतित होकर सती ने अपने नेत्र खोले और अपने सम्मुख उसी स्वरूप को देखा। सती ने उन्हें पहले तो प्रणाम किया, फिर अपने हृदय में उस स्वरूप का ध्यान धर, लज्जा से मस्तक, नत कर लिया तथा आनन्द में मग्न हो वे शान्त बैठी रहीं। उन्होंने कुछ न कहा। उस समय सती को जो आनन्द हुआ, उसका वर्णन करना कठिन है।

शिवजी सती को शान्त देखकर बोले-हे दक्ष प्रजापति की पुत्री! हम तुम्हारे तप से बहुत प्रसन्न हुए हैं। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह मांगो। यद्यपि शिवजी सती की मनोकांक्षा जानते थे परन्तु सती का वचन सुनने को यह आज्ञा दी। फिर भी सती कुछ न कह कर शान्त ही रहीं। सती का यह भाव शिवजी को बहुत भला लगा। 

वे फिर बोले-माँगो, माँगो, विलम्ब न करो। तुम्हारी प्रत्येक मनोकांक्षा पूर्ण होगी। इतनी कथा कहकर ब्रह्माजी बोले-हे नारद! इस प्रकार जब शिवजी ने बार-बार कहा, तब सती बोलीं- हे महादेव! आप अन्तर्यामी हैं। आप मेरे मुख से अपनी प्रीति सुनना चाहते हैं तथा सांसारिक जीवों की भांति पूछते हैं तो मेरा मनोरथ सुनिए । मैं चाहती हूँ कि आप मेरे पति हों, और मेरे साथ विवाह करके मुझको अपने घर की दासी बनायें। शिवजी ने सती के ऐसे वचन सुन, प्रसन्न होकर 'तथास्तु' कहा तथा अन्तर्धान हो गये।

॥ शिव जी द्वारा सती को वरदान प्राप्ति ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! शिवजी से ऐसा वरदान प्राप्त कर सती अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने घर पहुँचीं। सती की सखियों ने उनके माता-पिता को सती का सम्पूर्ण वृत्तान्त बताया, उसे सुनकर उनके माता-पिता अत्यन्त प्रसन्न हुए।

इतना कहकर सूतजी बोले-हे मुनियो! जब देवर्षि नारद ने ब्रह्माजी से यह कथा सुनी, तो वे बोले-हे ब्रह्माजी ! आपके द्वारा वर्णित यह चरित्र सुनकर मेरे सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो गये हैं तथा मुझे बहुत आनन्द प्राप्त हुआ है। अब इसके आगे और जो कुछ घटना हुई, उस पर भी प्रकाश डालिए। हे पिता! आपके समान शिवजी की पूजा करने वाला संसार में और कोई नहीं है।

नारदजी के यह वचन सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जब मुझको यह वृत्तान्त मालूम हुआ तो मैं प्रसन्न होकर शिवजी के पास गया। वहाँ हाथ जोड़कर उनकी बहुत स्तुति की तथा निवेदन किया कि मुझे क्या आज्ञा है ? शिवजी ने उत्तर दिया-हे ब्रह्मा! सती ने हमारी बहुत आराधना की है तथा हमने उनको वर दिया है, सो तुम दक्ष प्रजापति के पास जाकर कहो कि वह हमारे विवाह की तैयारी करें।

यह कहकर शिवजी ने मुझे विदा किया। मैं उनकी आज्ञा पाकर दक्ष के पास पहुँचा तथा शिवजी की आज्ञा उन्हें कह सुनायी। यह सुनकर दक्ष, शुभलग्न का विचार कर विवाह की सामग्री एकत्र करने लगे। उन्होंने रत्नों सहित शिवजी के पास लग्न भेजा और यह समाचार सबको भेजा। यह देखकर गण अत्यंत प्रसन्न होकर इधर-उधर दौड़न लगे। दोनों ही ओर से पूरी-पूरी तैयारी हुई तदुपरान्त शिवजी बारात सजाकर, दक्षप्रजापति के नगर की ओर चले।

बारात जब दक्षप्रजापति के नगर के निकट पहुँची, तब शिवजी ने सप्त ऋषियों को दक्ष के पास भेजा। दक्ष प्रजापति बारात को नगर के निकट आया जानकर, अगवानी के लिए चले। वे सबसे भेंटकर, हाथ जोड़, बारात को अपने मन्दिर ले चले। उस समय मैं, विष्णु, अष्टवसु, ग्यारह रुद्र, बारहों सूर्य, सिद्ध, भूतप्रेत, गन्धर्व, किन्नर, विद्याधर, देवता, मुनि, तथा अप्सराएँ शिवजी सहित दक्ष के द्वार पर जा पहुँचीं। 

चारों ओर से जय-जयकार होने लगा। वेद एवं कुल की रीति के अनुसार सब कार्य हुए । गायन होने लगा । दक्ष प्रजापति ने ब्राह्मणों को बहुत-सा दान देकर बारात के ठहरने के लिए अति उत्तम स्थान की व्यवस्था की जहाँ सब बारात ठहरी। फिर दक्ष ने मुझको बुलाकर कहा कि विवाह वेद के अनुसार कराओ, जिससे मेरी पुत्री सुखी तथा पति की प्यारी हो और उसके अनेक सन्तानें हों। इसके पश्चात् बारातियों को अनेक प्रकार के उत्तम भोजन खिलाये। उनमें चारों प्रकार के भोजन तथा छः रसों के स्वाद थे। बाराती इस प्रकार के स्वादिष्ट भोजन पाकर तथा अनेक प्रकार के व्यंग सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए। 

उस समय वहाँ सभी प्रसन्न दिखाई देते थे। भोजन के उपरान्त पान बाँटे गये। सब लोग शिवजी की स्तुति करने लगे। भोजन आदि से निवृत्त होकर, लग्न ठहराकर शिवजी के आगमन के लिए सूचना भेजी। शिवजी तुरन्त आये। तब दक्ष प्रजापति शिवजी को अन्दर ले गये। उन्होंने प्रसन्न होकर सर्वप्रथम शिवजी के चरणों को स्वयं धोया तथा सोने की चौकी पर बिठाया। 

मैंने सब कार्य समयोचित किया तथा सती को बुलाया। उन्हें देखकर सबने प्रणाम किया। तब मैंने तथा विष्णु ने दक्ष को कन्यादान का जो समय बताया, उस समय दक्ष ने कुश, जल तथा पुत्री का हाथ शिव के हाथ में दिया। हे नारद! लोक में यही सर्वप्रथम कन्यादान हुआ तथा तब से विवाह की यही रीति संसार में फैल गयी।

॥ शिव जी के साथ सती के विवाह का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जिस समय शिवजी ने सती का हाथ अपने हाथ में लिया, उस समय मुनि प्रसन्न होकर शिव तथा सती का जयघोष करने लगे तथा पुष्पवृष्टि हुई। अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे। दक्षप्रजापति ने दहेजस्वरूप बहुतसी उत्तम वस्तुएं अमूल्य रत्न आदि दिये। अन्य रीतियों के पूर्ण होने के पश्चात् मैंने हवन का आयोजन किया। दोनों की गाँठें बाँधकर भाँवरें फिरने लगीं उस समय एक महाभयानक काण्ड हुआ। 

मेरी इच्छा शिवजी को मोहित करने की थी, परन्तु मैं स्वयं ही उस रोग में ग्रस्त हो गया। अर्थात् भाँवरें फिरते समय सती का चरण कपड़े से बाहर निकल गया। जब मेरी कामुक दृष्टि उस पर पड़ी, तो मैं मोहित और मुग्ध होकर बुद्धिहीन हो गया। ऐसी दशा में मेरे हृदय में सती का अनुपम रूप देखने की अभिलाषा जाग्रत हुई। मैंने उस समय यह उपाय किया कि एक भीगी लकड़ी आग में डाल दी, जिससे बड़ा धुआँ उठा। 

शिवजी के नेत्रों में वह धुआँ लगने से ऐसे आँसू बहने लगे कि शिवजी उन्हें दोनों हाथों से पोंछने लगे। ऐसे सुअवसर से लाभ उठाकर मैंने सती के मुख से घूँघट उठाकर, उनका सुन्दर स्वरूप देखा तथा कामदेव के प्रचण्ड वेग से दुखित हो, सब धर्म-कर्म को भूल गया। उस समय मेरा वीर्य धरती पर गिर पड़ा। मैंने उसको इस प्रकार से छिपाया कि किसी पर यह बात प्रकट न हो सकी, परन्तु शिवजी ने अपनी दिव्य दृष्टि द्वारा इस भेद को जान लिया तब वे मुझ पर अत्यन्त क्रोधित होकर, धिक्कारते हुए बोले-हे ब्रह्मा! तुमने यह निन्दनीय कर्म क्यों किया ? तुम बड़े कामी हो । यह कह कर शिवजी ने बड़े क्रोध से त्रिशूल हाथ में ले लिया।

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! शिवजी का यह स्वरूप देखकर मैं थर-थर काँपने लगा तथा मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। यह दशा देखकर सबलोग शिवजी द्वारा मेरी मृत्यु का निश्चय कर शिव की स्तुति करने लगे, परन्तु शिवजी का क्रोध कम न हुआ। दक्ष प्रजापति भी हाथ उठाकर 'शिव-शिव' कहने लगे तथा मेरे मारने की मना ही करते हुए शिवजी से बोले-हे प्रभो! आप इस समय रंग में भंग न करें। 

शिवजी ने कहा-हे दक्ष! तुम अब मुझसे कुछ न कहो। मैं ब्रह्मा को किसी प्रकार क्षमा नहीं कर सकता। इसने वेद के पथ को भुलाकर सती को पापदृष्टि से देखा है। शिवजी के ऐसे क्रोधपूर्ण वचन सुनकर उनके कोप से समस्त सभा काँप उठी। तब विष्णु ने शिवजी की बहुत स्तुति करते हुए कहा-हे प्रभो! आप अप्रमेय हैं। आपका आदि-अन्त कोई भी नहीं जानता। मैं तथा ब्रह्मा आप से ही उत्पन्न हैं। आप अपने क्रोध को शान्त कर तथा मुझे अपना सेवक समझ मेरी प्रार्थना स्वीकार करें अर्थात् ब्रह्मा को क्षमादान दें। 

आप ही ने ब्रह्मा को सृष्टि की रचना के लिए उत्पन्न किया है। ब्रह्मा के सिवाय सृष्टि की और कौन रचना करेगा ? यह स्पष्ट है कि बिना सृष्टि के सब लीला व्यर्थ है। फिर आप ही ने तो ब्रह्माजी को उत्पन्न किया, इसलिए आप उनका वध न कीजिए। यह सुनकर शिवजी ने फिर बड़े क्रोध से कहा नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। हम ब्रह्मा का अवश्य वध करेंगे। 

हम स्वयं सृष्टि की रचना करेंगे अथवा दूसरा ब्रह्मा उत्पन्न कर सब लोकों में इस बात को प्रकट कर देंगे। हमको अब मत रोको। हमारा क्रोध कभी व्यर्थ नहीं जाता। शिवजी ने यह कह अपना समस्त शरीर जलती हुई अग्नि के समान कर दिया। देवता तथा मुनि आदि कोई भी ऐसा न था जो उस स्वरूप को देख सकता। मैं तो जैसे शिवरूप में ही समा गया। दक्ष को भी अति खेद से सब आनन्द विस्मरण हो गया। 

उसने अत्यन्त दुखी होकर शिवजी के चरण कमलों का ध्यान करके बहुत प्रार्थना की । विष्णु ने मुझे शिवजी के चरण के नीचे डाल दिया तथा मुझसे बहुत स्तुति करायी तथा स्वयं भी स्तुति की। वे बोले-मैं और ब्रह्मा दोनों आपके सेवक हैं। आप अपनी कृपादृष्टि से हम दोनों की ओर देखिए। ऐसे आनन्दोत्सव में किसी प्रकार का शोक उत्पन्न नहीं होना चाहिए। केवल आप ही हमारे रक्षक हैं। अब जो आप उचित समझें वही वर दीजिए। आप ब्रह्मा के दोनों हाथ पकड़ कर उन्हें अभयदान दीजिए। यह कह कर हम दोनों शिवजी के चरणों पर गिर पड़े। दक्ष भी अत्यन्त दीन बनकर 'त्राहिमाम्, त्राहिमाम्' कह उठे।

हे नारद ! उस समय शिवजी ने सती को अत्यन्त दुखी जानकर अत्यन्त कृपापूर्वक मेरे मस्तक पर अपना हाथ रखा और मुझे अभयदान दिया। उस समय मैं तथा विष्णु अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त हुए। दक्ष तथा अन्य सभासद भी आनन्दमग्न हो गये। उस हर्ष में भर कर मैंने भगवान् सदाशिव की अनेकों प्रकार से स्तुति की और यह कहा-हे प्रभो! आपने मुझे पापरूपी समुद्र में डूबते हुए की रक्षा की है और नरक की अग्नि में पड़ने से बचाया है। अब आप कृपा करके वह उपाय बताइए, जिससे मेरा यह महान् पाप नष्ट हो जाय। 

यह सुनकर श्री शिवजी ने कहा-हे ब्रह्मन्! तुम अपनी स्त्रीसहित तपस्या करो। तुम्हारे पाप का यही प्रायश्चित्त है। जब तुम तपस्या द्वारा निष्पाप हो जाओगे, उस समय तुम्हारा नाम 'रुद्रशिरा' होगा और तभी तुम अपने सम्पूर्ण मनोरथ को प्राप्त होगे। तुमने देवताओं का अधिपति होते हुए भी जो मनुष्य के समान निकृष्ट कर्म किया है, उसके कारण तुम्हें मनुष्य योनि में जन्म लेकर लज्जा उठानी पड़ेगी। इस उपाय से तुम्हारा पाप नष्ट हो जायेगा। भगवान् सदाशिव के श्री मुख से निकले हुए इन वचनों को सुनकर मुझे तथा दक्ष को अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई।

॥ सती सहित शिव जी कैलास आगमन ॥

इतनी कथा सुनाकर नारदजी ने पूछा-हे पिता! जब भगवान् सदाशिव का क्रोध शान्त हो गया और वे प्रसन्नता को प्राप्त हो गये, तदुपरान्त क्या हुआ, वह मुझे बताने की कृपा करें ? ब्रह्माजी बोले- हे नारद! जब भगवान् सदाशिव मुझपर प्रसन्न हुए और मेरे वीर्य को पृथ्वी पर चमकता हुआ पड़ा देखा तो मुझसे कहा-हे ब्रह्मन्! यह वीर्य अत्यन्त तेजस्वी दिखाई देता है अतः इसे नष्ट नहीं करना चाहिए। जिस समय तुम्हारा वीर्य पृथ्वी पर गिरा था, उसी समय मेरे नेत्रों से कुछ आँसू भी गिरे थे। 

परन्तु उन दोनों के सम्मेलन से चार मेधों की उत्पत्ति होगी। शिवजी के इतना कहते ही चार मेघ उत्पन्न होकर आकाश में छा गये और गरजते हुए पानी बरसाने लगे। परन्तु उस समय शिवजी के भय के कारण यह वर्षा धीमी फुहारों के रूप में हो रही थी। उस वर्षा को देखकर शिवजी तथा अन्य सभी सभासद अत्यन्त प्रसन्न हुए और सर्वत्र आनन्द भर गया। तदुपरान्त शिवजी की आज्ञानुसार विवाह की अन्य रीतियाँ पूरी करायी गयीं।

हे नारद! यह सब हो जाने के पश्चात् विवाह के बाजे फिर पहिले की भांति बज उठे। उस समय हमने शिवजी की स्तुति करते हुए कहा- हे प्रभो! जिस प्रकार शब्द और अर्थ में भेद नहीं है, उसी प्रकार आप में तथा शक्ति में कोई अन्तर नहीं है। आपकी महिमा अप्रेमय है। आपके चरणारविन्द की कृपा से इस संसार में किसने क्या नहीं पाया? आप सम्पूर्ण जीवधारियों के पिता हैं और भगवती शक्ति संसार की माता हैं। इस स्तुति को सुनकर शिव तथा शक्ति अत्यन्त प्रसन्न हो, हम लोगों पर कृपादृष्टि की वर्षा करते हुए, कैलाश पर्वत को चल दिये।

हे नारद! उस समय की शोभा यह थी कि शिवजी के सिर पर छत्र शोभित था और देवतागण दोनों ओर खड़े हुए उनकी स्तुति कर रहे थे। शिवजी ने कुछ दूर आगे जाकर दक्ष तथा अन्य सब देवताओं को विदा कर दिया और स्वयं शक्ति एवं अपने गणों सहित कैलाश पर्वत पर जा विराजे। जब शुभ लग्न में शिवजी और सती ने अपने भवन में प्रवेश किया, उस समय चारों ओर से जय-जयकार की ध्वनि सुनाई पड़ने लगी। 

मैंने तथा विष्णुजी ने शिवजी एवं सती को एक ही सिंहासन पर बैठाया। उस समय नृत्य, गायन एवं मंगलाचरण होने लगे। शिवजी ने सबकी मनोकामना पूर्ण करते हुए जिसने जो-जो माँगा, उसे वही वस्तु प्रदान की। तदुपरान्त सबलोग उनका यश वर्णन करके अपने-अपने घर को लौट गये। 

मैं तथा विष्णुजी भी उनकी आज्ञा प्राप्त कर अपने लोक को लौट आये। हे पुत्र ! इस प्रकार मैंने शिवजी के विवाह के लिए अनेक उपाय किये, परन्तु मेरा कोई वश नहीं चला। जब साक्षात् आदिशक्ति ने प्रकट होकर उनके लिए तप किया, तभी शिवजी ने उन्हें स्वीकार किया। भगवान् सदाशिव का यह चरित्र प्राणियों को मुक्ति देनेवाला है। 

शिवजी का विवाह हो जाने पर मेरे हृदय का दुःख दूर हो गया। इस प्रकार श्री त्रिशूलपाणि सती के साथ विहार करते हुए, कैलाश पर्वत पर रहते थे और सृष्टि के उपकार के निमित्त अनेक प्रकार की कथाएँ कहते थे। जो मनुष्य शिव तथा सती के विवाह की इस पवित्र कथा का पाठ करता है, वह संसार में इच्छित आनन्द को प्राप्त कर अन्त में मुक्ति पाता है।

॥ सती द्वारा शिव जी से परमतत्त्व के संबंध में प्रश्न ॥

इतनी कथा सुनकर शौनकादिक ऋषियो ने कहा-हे सूतजी! सती के विवाह का वृत्तान्त सुनने के उपरान्त नारदजी ने ब्रह्माजी से क्या बातें पूछीं वह आप हमें बताने की कृपा करें? पौराणिक सूतजी बोले-हे ऋषियो! जब देवर्षि नारदजी इतनी कथा सुन चुके तो उन्होंने ब्रह्माजी से कहा-हे पिता! विवाह के उपरान्त शिव तथा सती ने जो चरित्र किये, उन्हें आप मुझसे कहने की कृपा करें। 

यह सुनकर ब्रह्माजी बोले -हे नारद! एक दिन शिवजी को एकान्त में बैठे हुए देखकर सती उनके पास पहुँची और स्तुति प्रशंसा करने के उपरान्त बोलीं-हे प्रभो! आपने तीनों लोकों का कल्याण करने के निमित्त अवतार ग्रहण किया है। यह मेरा परम सौभाग्य है जो आपने मुझे अपनी पत्नी के रूप में अंगीकार किया है। हे भक्तवत्सल! मैं आप की शरणागत हूँ। अब मैं आप से अपनी उस अभिलाषा को प्रकट करती हूँ जिसे मैंने आज तक गुप्त रखा है। 

हे स्वामी! इस समय आपको अपने ऊपर प्रसन्न देखकर ही मैं यह बात कह रही हूँ। मेरी अभिलाषा यह है कि मैंने वर्षों तक आप के साथ विहार आदि का आनन्द प्राप्त किया, परन्तु परमतत्त्व का विचार कभी नहीं किया है। अब मेरे हृदय में वैराग्य उत्पन्न होने के कारण परमतत्त्व जानने की अभिलाषा जागृत हुई है। 
अतः आप मुझे श्रेष्ठ प्रकार से ब्रहाज्ञान की युक्ति एवं मुक्ति का मार्ग बताने की कृपा करें। हे प्रभो ! तीनों लोकों में आपके समान ज्ञानी अन्य कोई नहीं है, आप वेदों के उत्पन्नकर्त्ता, परब्रह्म, अनादि, सम्पूर्ण विद्याओं के समुद्र एवं तीनों लोकों के स्वामी विष्णु तथा ब्रह्मा को भी श्रेष्ठ पद प्रदान करनेवाले हैं। शेषजी दिन-रात आपकी महिमा का वर्णन करते हुए भी उसका पार नहीं पाते। परन्तु, आप कृपा करके मेरी मनोभिलाषा को पूर्ण करें।

सती के इन वचनों को सुनकर भगवान् सदाशिव बोले-हे प्रिये! ज्ञान को सर्वोत्तम वस्तु समझना चाहिए। उसके पास तक किसी अन्य पदार्थ की गति नहीं है। इस प्रकार वह परम अलभ्य कहा जाता है। उसी को मेरा स्वरूप ब्रह्म जानना चाहिए। जिस तपस्या तथा आराधना का आश्रय लेकर जीवधारी पवित्र हो जाते हैं, उसे ज्ञान की पदवी समझना चाहिए। 

भक्ति तथा ज्ञान में कोई अन्तर नहीं है। जो मनुष्य इन दोनों में अन्तर देखते हैं, उन्हें दुःख उठाना पड़ता है। जो लोग भक्ति के विरुद्ध वचन कहकर ज्ञान को प्राधनता देते है, उन्हें महान् कष्ट उठाना पड़ता है। अत्रि मुनि को उस बात का निश्चय हो चुका है, जो संसार भर में विद्वान् माने जाते हैं। भक्ति को परमतत्त्व का ज्ञान प्रदान करनेवाली समझना चाहिए। वह मुझे अत्यन्त प्रिय भी है।

भक्ति के समान सीधा तथा भयहीन मार्ग अन्य कोई नहीं है, क्योंकि उसके द्वारा परब्रह्म की प्राप्ति होती है। इस रीति को पिपीलिका कहा जाता है, क्योंकि इसमें बिना किसी आधार के भी ब्रह्म पर चढ़कर फल प्राप्त किया जा सकता है। इसके विपरीत निर्गुण के मार्ग को भीष्म कहते हैं, क्योंकि उसमें किसी वस्तु का आधार न होने के कारण अत्यन्त परिश्रम तथा कष्ट भोगने के पश्चात् ही फल की प्राप्ति होती है। 

भक्ति मन को प्रसन्नता प्रदान करनेवाली है और मैं सदैव उसके अधीन रहता हूँ। जो प्राणी मेरी भक्ति करता है, उसे मैं इह लोक में आनन्द तथा परलोक में मुक्ति प्रदान करता हूँ। मुझे कुल तथा जाति से कोई प्रयोजन नहीं है। चारों युगों में मुझे भक्त प्रिय हैं, परन्तु कलियुग में तो अपने भक्तों को अत्यन्त स्नेह करता हूँ। मैं अपने भक्तों की सदैव सहायता करता हूँ और उनकी प्रसन्नता के निमित्त अनेक प्रकार के श्रेष्ठ चरित्र दिखाता हूँ। अतः हे देवि! भक्ति की महिमा सबसे बड़ी जानकर तुम उसी को अपनाओ।

॥ निर्गुण एवं सगुण भक्ति का निरूपण ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! भक्ति की ऐसी प्रशंसा सुनकर सती अत्यन्त प्रसन्न हुईं। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर सदाशिव से कहा-हे प्रभो! आपने मेरे ऊपर कृपा करके भक्ति की प्रशंसा की है, परन्तु मेरी इच्छा है कि आप उसके सम्पूर्ण अंगों का वर्णन करें। शिवजी ने हँसते हुए कहा-हे सती! मैं भक्ति का सम्पूर्ण वृत्तान्त, जिसको सुनकर प्रेम उत्पन्न होता है। तथा तीनों लोकों के दुःख शोक नष्ट हो जाते हैं, सुनाता हूँ। भक्ति को परमतत्त्व कहकर उसका सर्वोत्तम वर्णन किया गया है।

वह दो प्रकार की है। एक स्वाभाविक, जो प्रकृति से उत्पन्न होती है, दूसरी वैदेही, जो प्रारब्ध से प्राप्त होती है। जिसमें तीनों गुण पाये जायँ उसको सगुण भक्ति कहते हैं। जो गुणरहित हो, उसे अगुणा भक्ति कहते हैं। उसके दो भाग हैं, भक्त लोग जिनमें बड़ी श्रद्धा में मन लगाते हैं। 

इन दोनों खण्डों के दो-दो भाग हैं। जब उनको सावधानी से धारण किया जाता है, तब वे पूर्ण होते हैं। वे इस प्रकार हैं- अपने स्वामी की कीर्ति सुनना, कीर्तन अथवा उसका वर्णन करना, स्मरण करना, सेवन अर्थात् सेवा करना, दासत्व अर्थात् दास्यभाव से पूजन करना और वन्दना अर्थात् वन्दना करना, सख्य अर्थात् मित्रों की भाँति रहना एवं आत्म समप्रण अर्थात् स्वयं को अप्रण कर देना। 

भक्ति के इन्हीं नौ भागों को मुनि भी बताते हैं। इस नवधा भक्ति के अतिरिक्त और भी बहुत से प्रकार हैं, जिनको धारण करने से मन अत्यन्त प्रसन्न होता, जैसे- बरगद, बेल, तुलसी तथा गंगा आदि की सेवा, अतिथियों की सेवा, ब्राह्मणों की अधीनता तथा तीर्थों की स्थिति आदि।

ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! इतना कहकर शिवजी बोले-अब मैं अलग-अलग नौ प्रकार के अर्थ वर्णन करता हूँ। जब मन वचन कर्म से मेरी प्रशंसा सुन भक्त बड़ाई का विचार कर तथा मन को दृढ़ करें तो इसको श्रवण कहते हैं। जब कुल, धन, व्यवहार तथा स्वयं के गर्व को छोड़कर हमारी कथा को सुने, जिस स्थान पर कथा होती हो उसको नित्य प्रति सजाकर शुद्ध करता रहे, उस शास्त्र की भली भांति प्रकार से पूजा कर अनेक प्रकार की वस्तुएँ उस पर चढ़ावे।

इसी प्रकार उसको पाठ करने वाले की पूजा करके अच्छे वस्त्र, द्रव्य, पदार्थ, फल-फूल आदि से स्तुति करे, तब उसका उचित फल मिलता है। यही श्रवण की प्रशंसा है। हे नारद! अब मैं तुम्हें कीर्तन के विषय में बताता हूँ। जो अपने मन को निर्लोभ करके मेरे जन्म, कर्म तथा गुण को देखे, उनका उच्च स्वर से पाठ करे, उसी को कीर्तन कहते हैं। 

कर्म, काल तथा काम रहित होकर संसार की लज्जा तथा इच्छा का त्यागकर, हृदय से हमारा गुणगान करे तो ऐसा कीर्तन करने से अच्छे फल की प्राप्ति होती है। जो सृष्टि, जड़, चैतन्य, जीवित, निर्जीव, चलने वाले तथा एक ही स्थान पर स्थित रहनेवाले सब जीवों में शिव को देखे, मुझको सर्वात्मा समझकर निस्पृह रहा करे, उसे स्मरणी कहते हैं। 

ऐसे स्मरण से अत्यन्त आनन्द मिलता है। सेवन के अर्थ हैं कि नित्य प्रातःकाल उठकर सर्वप्रथम अपने गुरु का ध्यान करे। फिर नियमानुसार नित्य नैमित्यिक आदि से सुचित्त हो, रेशमी वस्त्र धारणकर मस्तक पर त्रिपुण्ड लगावे, रुद्राक्ष की माला पहने, धरती को शुद्ध कर बैठने का उत्तम स्थान बनावे तथा हृदयरूपी कमल में मेरा, अपने स्वामी के स्वरूप का प्रेम से ध्यान लगावे, पूजन की सामग्री तैयार होने के पश्चात् उससे क्रमपूर्वक षोडशोपचार से पूजा करे। 

नैवेद्य लगाकर आरती करके दण्डवत् करे। अच्छे सुगन्धित पुष्प बिछाकर उनके ऊपर अपने स्वामी को सुलावे तथा सदैव मेरे गुणों का गानकर जीवन व्यतीत करे। सन्ध्या समय फिर मुझे, अपने स्वामी को, जगावे तथा सन्ध्या आदि से मेरी आरती करे। नाम एवं स्तुति वर्णन कर, कुछ रात व्यतीत हो जाने पर गाने-बजाने का समान एकत्र करे। 

आनन्दपूर्वक बाजे बजवा कर भोग लगावे। पुनः आरती करे। इसके पश्चात् उत्तम शैय्या बिछाकर मुझ, स्वामी को उसपर सुलावे। इस प्रकार की सेवा करनेवाला भक्त लोक-परलोक में आनन्द प्राप्त करता है और तीनों लोक उसके चरणों में नमस्कार करते हैं।
शिवजी बोले-हे सती! अब मैं अर्चन का वर्णन करता हूँ। इसे ध्यानपूर्वक सुनो। जो बेलपत्र, पुष्प तथा चन्दन को पवित्रता एवं विचार के साथ, लोगों से पूछकर लगावे, धर्म की रीति के अनुसार जिसने धन संग्रह किया हो, उससे पूजा के बर्तन तथा सामग्री एकत्र करे, अपने स्वामी इष्ट देव की षोडशोपचार पूर्वक निस्वार्थ पूजा करे, समय तथा नियम में कोई कमी न होने पावे, इसी को अर्चन कहते हैं। 

जो मेरे मन्दिर में फुलवाड़ी लगावे अथवा मेरे लिंग की स्थापना करे तथा मेरे लिए उत्सव करे, यह सब अर्चन के भाग हैं। जो इस प्रकार मेरा अर्चन करता है, वह दोनों लोकों में सिद्धि प्राप्त करता है। अब मैं वन्दन की व्याख्या करता हूँ। हे सती! मन्त्र का जप करे तो बार-बार उसका ध्यान करना चाहिए और मन को एकाग्र करके प्रणाम करना चाहिए। यही वन्दन है। वन्दना का फल तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। इसी के प्रताप से सनकादिक निर्भर रहते हैं।

शिवजी बोले-हे सती! अब मैं तुम्हें दास्य भाव के विषय में बताता हूँ। जो इन्द्रियों को वश में करके मुझे प्रसन्न करता रहे, जो मेरी प्रसन्नता से मन तथा शरीर की काम वासना को जड़ से नष्ट करे तो वह दोनों लोकों का सुख प्राप्त करता है। जिस मनुष्य के विचार में दुःख-सुख, बुरा-भला, राग-द्वेष, जय-पराजय, लाभ तथा हानि बराबर हो तथा जो इस बात पर पूर्ण विश्वास रखता हो कि जो कुछ भी परब्रह्म हमारे लिए करता है, वह सब हमारी भलाई के लिए ही है ऐसे दृढ़ विचार को सख्य कहते हैं। 

ऐसे मनुष्य को तीनों लोकों में कोई वस्तु दुर्लभ नहीं होती। जो मनुष्य अपनी देह, सेवक, पशु, धन तथा कोष आदि समस्त वस्तुओं को त्याग कर तथा उनका मोह दूर कर, मेरे लिए संकल्प कर दे और उनके लिए फिर कोई प्रयत्न न करे, उनकी प्रीति तथा ध्यान न करे, उसे आत्मसमप्रण कहते हैं। इससे गर्व दूर हो जाता है। 

जब तक मनुष्य इसको मन, वाणी तथा कर्म से नहीं करता, तब तक वह अपने स्वामी मुझको प्राप्त नहीं कर पाता। ऐसे मनुष्य को सब वस्तुएँ सुलभ हैं कोई वस्तु दुर्लभ नहीं। मैं सदैव रात-दिन उसकी रक्षा करता हूँ तथा उसके निकट ही निवास करता हूँ। भक्ति के केवल यही नौ अंग हैं।

शिवजी ने कहा-हे सती! अब मैं भक्ति के उपांग का वर्णन करता हूँ। उपांग दस हैं। उनमें से प्रत्येक दुःख को नष्ट करनेवाला है। इसलिए वट तथा पीपल की सदैव पूजा करनी चाहिए और उनका जल से सिञ्चन करना चाहिए। उनका अनादर करना, मेरा अपमान करना है। उनकी परिक्रमा दायीं ओर से करनी चाहिए। इन दोनों वृक्षों की सेवा से ही निर्भय परमपद प्राप्त होता है। 

दूसरे विल्ववृक्ष की सेवा करनी चाहिए और उसको मेरा ही शरीर समझना चाहिए। उसके पूजन से कोई कष्ट नहीं रहता। उसको जल से सींच कर, उसका पूजन करना तथा उसकी आरती उतारना उचित है। जो लोग नित्य ऐसा करते हैं, उन्हीं को हमारी पूजा का फल प्राप्त होता है। तीसरा उपांग रेवा अर्थात् नर्मदा, सुरसरी अर्थात् गंगा आदि का पूजन कहलाता है। 
उनमें पवित्रता के साथ स्नान करने से बड़ा पुण्य मिलता है। जैसा की व्यासजी आदि ने कहा है। चौथा उपांग गुरु-सेवा है, जिसकी स्तुति वेद करते हैं। इसके बराबर और कुछ नहीं । पाँचवें हमारे चौदस आदि जितने व्रत हैं, उनमें हमारा पूजन कर व्रत रखे, रात्रि भर जागरण करे। 

उनसे जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वह वेदों में प्रकट है। इसी प्रकार शिवरात्रि मास के दोनों प्रदोष तथा हर महीने की अष्टमी के व्रत बड़ी महिमा रखते हैं तथा उत्तम गति प्राप्त कराते हैं। इन व्रतों से व्याध, किरात आदि ने बहुत आनन्द प्राप्त किया है। छठा शैवाराधन अर्थात् शैव लोगों की आराधना करना है। इसके अन्तर्गत जब किसी शिव भक्त को अपने यहाँ आता हुआ देखे, तब उसका समुचित आदर करे। 

उसको अपने यहाँ देखकर सकुटुम्ब प्रसन्न होकर, सब प्रकार से उसकी सेवा में तत्पर रहे तथा उसकी पूजा आदि करे। शुद्ध भोजन द्वारा उसका स्वागत करे। यह शैवाराधन अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त करानेवाला है। उसी के प्रताप से अधिकतर लोग तीनों लोकों के अधिपति हुए हैं। सातवाँ अतिथि-सम्मान है अर्थात् जो कोई भी द्वार पर भिक्षा-हेतु आवे, उसको यथाशक्ति कुछ अवश्य देना चाहिए। इसमें लोक-परलोक दोनों ही बनते हैं। यह कभी भी भुला देने के योग्य नहीं है। आठवाँ उपांग ब्राह्मण का सम्मान है। इसके द्वारा बहुत से मनुष्यों ने परमपद प्राप्त किया है।

सदाशिवजी बोले-हे देवि! मैं ब्रह्म शरीर हूँ, इसलिए ब्राह्मण की पूजा, उसको मेरे समान समझकर करनी चाहिए। नवाँ उपांग तीर्थ तथा क्षेत्र में भ्रमण आदि है। समस्त तीर्थों में से सात पुरियों का बृहद् वर्णन किया गया है । उनमें आनन्द-वन अर्थात् श्री काशीजी का बहुत मान है। इसलिए नियमित रीति के अनुसार प्रेमपूर्वक काशीजी की परिक्रमा करनी चाहिए तथा धर्मशास्त्र के कथनानुसार सब बातें करनी चाहिएँ। 
सब तीर्थों का फल उसको प्राप्त होता है, जिसकी मृत्यु काशी में होती है। यही बात वेदों में भी कही गयी है। दसवाँ बड़ा धर्म अहिंसा अर्थात् किसी जीव को कष्ट न पहुँचाना है। जिसने हिंसा को त्यागकर अहिंसा व्रत को अपनाया वह मानो संसार के समस्त धर्मों को प्राप्त कर सका है। यह अहिंसा व्रत अति प्रसन्नता देनेवाला है। 

हे देवि! जिसके हृदय में तुम वास करती हो वही मुझे अत्यन्त प्रिय है। लोग कलियुग में ज्ञान-वैराग्य को कम चाहेंगे। उस युग में केवल भक्ति को ही प्रमुख समझना चाहिए। हे देवि! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा, मैंने उसका तुम्हें पूरी तरह से उत्तर दिया। इस वृत्तान्त को जो सुनेगा अथवा पाठ करेगा वह भी आनन्द-पद प्राप्त करेगा।

॥ सती के द्वारा भक्ति के अंगों के सम्बन्ध में प्रश्न ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! सती ने सदाशिव के ऐसे वचन सुनकर अपने को भाग्यवान् समझा। उन्होंने प्रेमपूर्वक उनसे भक्ति के अंग पूछे तथा उपासना के प्रकार, जिसके पाँच अंग हैं, पूछे। शिवजी ने तंत्रशास्त्र का स्तोत्र, कवच, सहस्त्रनाम, पटल तथा पद्धति सहित और अनेक प्रकार यन्त्र, मन्त्र, चेटक आदि गुणों सहित वर्णन किया। 

उन्होंने प्रेम में वृद्धि करने वाली कथाएँ तथा आनन्द उत्पन्न करनेवाले वृत्तान्त, अपने भक्तों की महिमा, जिससे भक्ति में वृद्धि होती है तथा उनके धर्म जैसे नृपधर्म अर्थात् राजनीति, स्त्रीधर्म, वर्णाश्रमधर्म, पुत्रधर्म तथा शंकरधर्म आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया। सामुद्रिकशास्त्र तथा ज्योतिष आदि शास्त्र भी सती को बताये। 

इसी प्रकार शिव तथा सती कैलाश में निवास करते रहे और बहुत वर्षों तक विहार करते रहे। इसके पश्चात् सती ने अपने पिता के यज्ञ में शिव का अपमान देख, क्रोध से शरीर को प्राणरहित कर दिया। वही सती फिर हिमाचल के घर उत्पन्न होकर शिवजी की सेवा में पहुँची।

नारद जी इतनी कथा सुनकर बोले-हे ब्रह्माजी! सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी सदाशिव, जो किसी के भी शत्रु नहीं हैं, उनके साथ दक्ष ने इस प्रकार से वैर क्यों किया ? उनकी बुद्धि क्यों और कैसे भ्रष्ट हो गयी ? शिवजी ने अपनी शक्ति को किस प्रकार त्यागा तथा सती ने शिवजी का क्या अपराध किया था जो उन्हें अपना शरीर त्यागने को विवश होना पड़ा ? सती का अनादर किस प्रकार हुआ तथा जिन लोगों ने उनका अनादर किया था, उन्हें सती ने भस्म क्यों नहीं कर दिया। 
वे स्वयं क्यों अपनी देह छोड़ बैठीं ? आदिशक्ति होते हुए भी वे इस प्रकार क्यों अन्तर्धान हुई-यह चरित्र मेरे हृदय में सदेह बढ़ा रहा है। सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि सती दक्षप्रजापति को अत्यन्त प्रिय थीं, फिर दक्ष ने उनके प्रति अप्रिय व्यवहार कैसे किया ?

नारद की यह बात सुनकर पितामह ब्रह्माजी ने कहा- हे पुत्र! यह सब उन्हीं शिवजी की महिमा है। इसमें और किसी को दोष कैसे दिया जाय ? परन्तु, अब हम तुम्हें वह वृत्तान्त सुनाते हैं, जिस प्रकार श्री शिवजी दक्षप्रजापति की शुद्ध बुद्धि को भ्रष्ट करके, उनसे वैर बढ़ाया था। हे नारद! एक बार दक्षप्रजापति ने एक यज्ञ रचाया। 

उस उत्सव में भाग लेने के लिए सभी देवता तथा ऋषि-मुनि आदि अपनी-अपनी पत्नियों सहित दक्ष के घर पहुँचे। मैं भी अपने सेवकों सहित यज्ञशाला में गया। मुझे देखकर सभी सभासदों को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। कुछ देर बाद जब भगवान् सदाशिव भी वहाँ पहुँचे तो हम सबलोग उन्हें देखते ही उठकर खड़े हो गये तथा हाथ जोड़कर, बहुत प्रकार से उनकी स्तुति करने लगे। चारों ओर 'जय शिव, जय शिव' का नाद गूंज उठा। हमने प्रार्थना करते हुए कहा-हे प्रभो! आपने इस यज्ञशाला में उपस्थित होकर हमलोगों के ऊपर अत्यन्त कृपा की है।

हे नारद! हमलोगों द्वारा इस प्रकार की गयी स्तुति को सुनकर शिवजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। तदुपरान्त उनकी आज्ञा से हम सबलोग यथास्थान बैठ गये। उस समय हम सभी सभासद अपने को परमधन्य मानकर, मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे। इसके कुछ देर बाद ही उस यज्ञशाला में दक्षप्रजापति भी आ पहुँचे। उन्हें देखकर सब देवता तथा ऋषि-मुनि फिर उठ खड़े हुए तथा दण्डवत्-प्रणाम करने के उपरान्त उनकी स्तुति करने लगे। 

मैं एवं विष्णुजी तथा शिवजी अपने आसन पर ज्यों के त्यों बैठे रहे। यह देखकर दक्ष ने क्रोध भरी दृष्टि से देखते हुए मुझे प्रणाम किया। फिर अत्यन्त अहंकारपूर्वक अपने आसन को ग्रहण किया। तदुपरान्त जब दक्ष ने यह देखा कि उसके जामाता शिवजी ने भी उसे प्रणाम नहीं किया है, तब वह अत्यन्त अहंकार में भरकर, शिवजी के प्रति कटु शब्द कहने लगा। 

शिवजी की माया के वशीभूत होकर मृत्यु को प्राप्त होनेवाला दक्ष, शिवजी की निन्दा करता हुआ, समस्त सभासदों को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार बोला-हे सभासदो! आपलोग मेरी बात को मन लगाकर सुनें। इस सभा में उपस्थित बड़े-बड़े देवताओं ने मुझे हाथ जोड़कर दण्डवत् किया है, परन्तु शिव ने जामाता होते हुए भी, मुझे प्रणाम न करके अपनी मूर्खता का भारी परिचय दिया है। शिव का यह कार्य वेद के विरुद्ध है। न तो इसके माता-पिता का ही कुछ पता है और न इसके कुल-शील के सम्बन्ध में कोई कुछ जानता है।

परन्तु, बुद्धिमानों का यह धर्म है कि वे मूर्ख को दण्ड अवश्य दें। यदि वे ऐसा न करें तो संसार में उद्दण्डता बहुत बढ़ जाएगी। इसलिए मैं शिव को शाप देता हूँ और अपने ब्राह्मण-वंश का तेज प्रकट करता हूँ।
हे नारद! इतना कहकर दक्ष ने शिवजी को यह शाप दिया कि हे शिव! तुम मूर्खों के समान कर्म करने वाले हो, अतः तुम्हें आज से किसी भी यज्ञ में भाग नहीं मिलेगा। दक्ष के इस शाप को सुनकर शिवजी ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे चुपचाप बैठे रहे; परन्तु उस समय नन्दी से नहीं रहा गया। 

परन्तु, नन्दीगण ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर दक्ष से कहा-हे दक्ष! तूने शिवजी को शाप देकर अपनी परम मूर्खता का प्रदर्शन किया है। 

क्या तू यह नहीं जानता कि शिवजी के द्वारा इस सम्पूर्ण सृष्टि का भरण पोषण होता है? फिर भी जो तू शिवजी को अशुभ कहता है, यह तेरी मूर्खता नहीं तो और क्या है? हे पापी तूने ऐसे परम प्रधान पुरुष की निन्दा की है, परन्तु, मैं तुझे यह शाप देता हूँ कि तेरा यह शिव-निन्दक मुख न रहे और तेरा कोई भी मनोरथ पूर्ण न हो।

हे नारद! नन्दीगण के मुख से यह शाप सुनकर दक्षप्रजापति ने अत्यन्त भयभीत हो उन्हें भी यह शाप दिया-हे नन्दी! तुमने मेरा अपमान किया है। परन्तु, संसार में तुम दुखी रहोगे। तुम्हारा स्वरूप विचित्र होगा। वेद के विरुद्ध आचरण करने के कारण तुम्हारी बुद्धि नष्ट हो जायेगी और तुम बोझ ढोने के काम में आओगे। 

यह शाप देकर दक्षप्रजापति ने भृगु आदि की ओर जो शिवजी से द्वेष रखते थे, देखा। दक्ष के इस शाप को सुनकर वे सब बड़े प्रसन्न हुए। यह देखकर नन्दी को फिर क्रोध हो आया। तब उसने अपनी अप्रेमय महिमा को दिखाते हुए, जिन लोगों ने शिवजी की निन्दा की थी, उनकी ओर देखते हुए कहा-तुम सबलोग व्यर्थ ही ब्रह्मा के वंश में उत्पन्न हुए हो। 

तुम तत्त्व का ज्ञान नहीं रखते हो और काम, क्रोध, लोभ आदि के वशीभूत होकर शिवजी के विरुद्ध आचरण करते हो अतः मैं तुम्हें भी यह शाप देता हूँ कि तुम्हें शुभ कर्मों का फल प्राप्त न होगा और तुम कभी भी परमपद को नहीं पा सकोगे। जो लोग शिवजी से द्वेष रखनेवाले हैं वे सब वेद के विरुद्ध चल कर ब्राह्मण के कर्मों का त्यागकर बैठेंगे। वे महादरिद्र होकर कुकर्म करेंगे तथा अन्त में नरकवास पायेंगे।

हे नारद ! इस प्रकार नन्दीगण ने जब ब्राह्मणों को भी शाप दे दिया, उस समय शिवजी ने हँसते हुए कहा-हे सभासदो! हम तुम्हें अब सच्चे ज्ञान का उपदेश करते हैं। उस ज्ञान को सुनकर कोई अप्रसन्न न हो। वेद को अक्षर तथा मंत्र कहा जाता है। उसमें भी सूक्त को अत्यन्त आनन्द देने वाला कहा गया है। इसलिए ज्ञानियों के मन सूक्त में लगे रहते हैं और वे बुद्धिमान जन अपने मन को सदैव अपने वश में किये रहते हैं। 

परन्तु, मैं नन्दी से भी यह कहता हूँ कि हे नन्दी! तुम विद्वान होते हुए भी अपने हृदय में क्रोध को जो स्थान दे रहे हो, यह उचित नहीं है। दक्ष ने मुझे कोई शाप नहीं दिया। यह ठीक है कि उसने जानने योग्य बात को जानने में अपना मन नहीं लगाया है और इस प्रकार सभा में मेरा अपमान कर अपने अज्ञान को प्रदर्शित किया है। 

फिर भी, तुम्हें यह जान लेना चाहिए कि इस जगत् के सम्पूर्ण कर्मों को करने वाले हमीं हैं। हमारी इच्छा है और हमीं इसके भीतर बाहर सब स्थानों पर निवास करते हैं। हम शुद्ध और अशुद्ध, भूत प्रेत, देवता, दैत्य आदि तीनों लोकों के प्राणियों के उत्पन्न करने वाले हैं। परन्तु, तुम्हें यह उचित है कि हमारे इन वचनों को सुनकर अपने क्रोध को दूर कर दो और अब किसी को भी शाप आदि मत दो। 

हे नारद! शिवजी के यह वचन सुनकर नन्दीगण ने अपना क्रोध शान्त कर लिया। तदुपरान्त शिवजी कैलाश पर्वत को चले गये। दक्षप्रजापति भी उसी क्रोध से भरा हुआ अपने घर चला गया। उस दिन से वह सदैव शिवजी की निन्दा करने लगा। यदि वह किसी शिवभक्त को देख लेता था तो उसे बहुत क्रोध आ जाता था। शिवजी की माया ऐसी अपरम्पार है कि वह कब किससे क्या करा बैठेंगे, इसका कोई पता नहीं चलता।

॥ सती द्वारा रामचन्द्र जी की परीक्षा लेने का प्रयत्न॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद ! शिवजी की लीला अत्यन्त ही पवित्र एवं शुद्ध है, जिसको पूर्ण रूप से वेद तथा पुराण भी नहीं जानते हैं। अब मैं तुम्हें शिवजी के चरित्र के विषय में और बताता हूँ। एक बार शिवजी अपनी पत्नी सती सहित तीनों लोकों के अवलोकनार्थ चले। पृथ्वी पर घूमते-घूमते वे दंडक वन में पहुँचे। उन्होंने वहाँ रामचन्द्रजी को लक्ष्मण सहित देखा कि वे चारों ओर दुःख से बिलाप करते हुए सीताजी को ढूँढ रहे हैं। 

उन्होंने रामचन्द्रजी को देखकर प्रणाम किया क्योंकि वे पहिले विष्णु को ऐसा वरदान दे चुके थे। शिवजी फिर जय कहकर आगे बढ़े तथा उचित समय न जानकर, उनसे कुछ वार्ता न की। इसलिए सत्ती ने जब यह हाल देखा कि शिवजी अपने परम भक्त राम को इस प्रकार छोड़कर आगे बढ़ गये तो वे बोलीं-हे अनादि सर्वोपरि ब्रह्म आपने ब्रह्मा, विष्णु, सुर, मुनि तथा सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति की है। 

यह सब आपकी सेवा, उपासना करते हैं। फिर आज दशरथ के पुत्र रामचन्द्र जो वन में मिले, तो आपने उनको प्रणाम क्यों किया? मेरी समझ में नहीं आता कि इसका कारण क्या है ? मुझे इसकी बहुत चिन्ता है।
शिवजी ने जब सती को ऐसी चिन्ता में मग्न देखा तो वे बोले-हे सती! रामचन्द्रजी रमा के पति विष्णु हैं, जो संसार के पालन का अधि कार रखते हैं। उनका अवतार भक्तों के लिए ही है। फिर शिव ने सती को उनके अवतार लेने का कारण बताया; परन्तु सती का मन फिर भी सन्तुष्ट न हुआ। तब शिवजी ने विष्णु के अवतार के अनेक चरित्र सती को सुनाये, परन्तु फिर भी उन्हें कोई नहीं भाया और न उन्हें विश्वास ही हुआ। 

यह देखकर शिवजी ने पुनः उनसे कहा-हे सती! यदि तुमको विश्वास न हो तो स्वयं जाकर परीक्षा क्यों नहीं करतीं ? तुम वही करो, जिससे तुम्हारा सन्देह दूर हो सके। मैं यहाँ वृक्ष की छाया में बैठा तुम्हारी तब तक प्रतीक्षा करूँगा, जब तक तुम परीक्षा लेकर लौट न आओगी। सती महादेव की आज्ञा पाकर सन्देहयुक्त चलीं। उन्होंने मन में विचार किया कि मैं किस प्रकार उनकी परीक्षा लूँ ? 

बहुत सोचने के पश्चात् निश्चय किया कि मैं रामचन्द्रजी के सम्मुख श्रीसीताजी का रूप धारण कर जाऊँ। यदि वे वास्तव में विष्णु होंगे तो मुझे अवश्य पहचान लेंगे और यदि केवल राजपुत्र होंगे तो नहीं पहचान सकेंगे। यह विचार कर वे सीता के रूप में हँसती हुई श्री रामचन्द्रजी की ओर गयीं। लक्ष्मण ने जब सती को इस स्वरूप में देखा तो आश्चर्य में आकर जाना कि यह सती है, परन्तु पूर्णज्ञान न होने के कारण वे कुछ न बोले। 

परन्तु जब रामचन्द्रजी ने सती को ऐसे छल स्वरूप में देखा तो वे हँस पड़े तथा 'शिव-शिव' कहते हुए बोले-जिसका ध्यान करने से सम्पूर्ण दुःख तथा भ्रम दूर हो जाते हैं और जिसके हृदय में सदाशिव का स्थान है, आपने उसे धोखा देने का प्रयत्न किया है वह सब शिव की ही माया है। धन्य है कि ऐसी माया को जो सबको, इस प्रकार नचाती है।

इसके पश्चात् रामचन्द्रजी ने अत्यन्त नम्रता के साथ अपना भ्रातासहित नाम लेकर पूछा शिवजी कहाँ हैं तथा हे माता! तुम उनसे अलग वन में अकेली क्यों फिर रही हो ? तुमने अपना स्वरूप त्यागकर, यह रूप क्यों धारण किया है ? सती यह सुनकर आश्चर्यचकित हुईं तथा उन्होंने सदाशिव का ध्यान कर रामचन्द्रजी को, विष्णु का अवतार जाना। 

फिर वे अपना रूप धारण कर, रामचन्द्रजी से बोलीं अब मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम विष्णु के अवतार हो, जिन्होंने राजा दशरथ के यहाँ अवतार लिया है। परन्तु एक शंका है कि वह तुमसे पूछती हूँ कि शिवजी तुम्हारा चतुर्भुजी स्वरूप देखकर कभी इतने प्रसन्न नहीं हुए, जितने यह स्वरूप देखकर आज प्रसन्न हुए हैं। अत्यन्त प्रेम से उनके अश्रु बह चले तथा वे तुम्हारी प्रशंसा करने लगे । तुम मुझे सत्य बताओ कि इसका मुख्य कारण क्या है ?

सती के मुख से ऐसे वचन सुनकर रामचन्द्रजी प्रेम विह्वल हो गये तथा उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। उन्होंने प्रेम निमग्न होकर चाहा कि उसी समय चलकर शिव को देखें; परन्तु उचित समय न जानकर तथा सती की आज्ञा पाकर उन्होंने केवल शिव का ध्यान ही किया। फिर रामचन्द्रजी ने कहा-आज मैंने उसे देखा जो तीनों लोकों में प्रकट दिखाई नहीं देता है। यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने उस स्वरूप को देखा है। 

मेरे भाग्य धन्य हैं कि उनकी मेरे ऊपर ऐसी कृपा है, जिनका ध्यान सिद्ध, मुनि, देवता आदि करते हैं तथा वेद स्तुति में मग्न रहते हैं, जिनकी कृपा से व्याध, किरात, नन्दा, पंचक की स्त्री हर्यक्षा तथा इन्द्रद्युम्न को परम पद प्रदान किया है। शिवजी ने किसके ऊपर कृपा नहीं की है ? श्रीरामचन्द्र इतना कहकर सती से बोले-हे देवि ! शिवजी ने जो मुझे प्रणाम किया, उसका यही एक मात्र कारण है कि वे मुझपर प्रसन्न हैं।

॥ रामचन्द्र एवं सती के वार्त्तालाप ॥

रामचन्द्रजी ने कहा-हे देवि! एक बार शिवजी ने विश्वकर्मा को बुलाकर हमारी गोशाला में एक अति सुन्दर मन्दिर बनाने की आज्ञा दी तथा उस मन्दिर में एक उत्तमोत्तम सिंहासन बनाने का आदेश दिया। इस प्रकार जब मन्दिर बनकर तैयार हो गया तो शिवजी ने सम्पूर्ण देवताओं, मुनियों, तथा ब्रह्मा को आमन्त्रित कर, वहाँ पर एक उत्सव का आयोजन किया। शिवजी ने मुझे भी वैकुण्ठ से लाकर वहाँ बैठाया तथा सब जड़ी-बूटी तथा धन-द्रव्य, वस्त्र आदि एकत्र कर, मेरे विष्णुस्वरूप का अभिषेक करना चाहा। 

मेरे सिर पर एक बड़ा ऊँचा छत्र रख कर तथा मुझे सिंहासन पर बैठाकर उत्तम वस्त्र पहनाये और रत्नजटिल मुकुट मेरे सिर पर बँधवाया। इसके पश्चात् लक्ष्मीजी सहित मेरा अभिषेक किया। उस समय आपने भी लक्ष्मी का बहुत आदर किया। देवनारियाँ गान करने लगीं। अनेक प्रकार के बाजे बजने लगे। तब शिवजी ने अपने कमलरूपी मुख से ऐश्वर्य से पूर्ण वचन कहे। फिर उन्होंने मुझे सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी बना दिया। अनेक आशीर्वाद दिए तथा स्वयं मेरी स्तुति की। फिर ब्रह्मा से कहा कि तुम भी इनको प्रणाम करके उनकी बड़ाई करो तथा समझो कि आज से विष्णु तुम सबके स्वामी हुए। वे सबको आनन्द प्रदान करेंगे तथा तुम सब की इच्छाओं की पूर्ति करेंगे ।

शिवजी का यह आदेश सुनकर सबों ने मुझे प्रणाम किया। चारों ओर से जय-जयकार का शब्द गूंजने लगा। फिर शिव ने मुझे वरदान दिया हे विष्णु! तुम सबके स्वामी होकर, सबके कष्टों को दूर करो। तुम्हारी तीनों लोक पूजा करेंगे। धर्म, काम तथा मोक्ष देने वाले होकर बड़े विजयी वीर बनोगे । हम स्वयं भी तुम पर विजय प्राप्त न कर सकेंगे। तुम ब्रह्मा के भी स्वामी हो। हमने तुमको तीनों लोक प्रदान किये, अब तुम अवतार लेकर तीनों लोकों का पालन करो। 

हम तुम्हारे भक्तों को आनन्द दिया करेंगे तथा उनको मुक्त करेंगे। साथ ही तुम्हारे शत्रुओं का वध कर, हर प्रकार से तुम्हारी सहायता किया करेंगे। ब्रह्मा हमारी दाहिनी तथा तुम बायीं भुजा हो। तुम्हारे अवतार, जो कि राम एवं कृष्ण के रूप में होंगे, उनको हम स्वयं जाकर देखेंगे तथा संसार के देखने के लिए सदैव उनकी भक्ति किया करेंगे। हे माता ! तब से जहाँ शिवजी निवास करते हैं, मैं भी वहीं स्थित रहता हूँ। शिवलोक में ही विष्णुलोक है, जिसको गोलोक भी कहते हैं। मैं शिव के आदेशानुसार ही अवतार लेता हूँ। मेरे मत्स्य आदि अनेक अवतार हो चुके हैं। मैंने उन्हीं अवतारों में संसारी कार्य पूरे किये हैं।

हे देवि! इस समय मेरा अवतार चार रूपों में हुआ है। राम, भरत, लक्ष्मण, तथा शत्रुघ्न। उन चारों का मन एक है परन्तु शरीर अलग-अलग हैं। मैं अपने पिता की आज्ञा से वन में आया हूँ क्योंकि उन्होंने कैकेई को वरदान दिया था। मेरे साथ लक्ष्मण तथा सीता भी आयी थीं। रावण सीता को हर ले गया है। उसी को हम ढूँढ़ते हैं। आपके दर्शन से मेरे सब कार्य सिद्ध होंगे। 

इस प्रकार मुझको तो सीताहरण अत्यन्त शुभ हुआ, जिससे आपके चरणों के दर्शन प्राप्त कर सका। मुझे पूरा विश्वास है कि अब मुझे शीघ्र ही सीता का पता लग जायेगा तथा मैं शत्रु पर विजय प्राप्त कर, सीता को प्राप्त करूँगा। संसार में उससे महान कौन है, जिसके ऊपर शिवजी तथा आपकी कृपा हो। 

तीनों लोक में शिवजी के समान कोई कृपा करनेवाला नहीं। उनके अनेक अवतार हैं। उन्होंने पापियों का बहुत उद्धार किया है तथा मैं उनके चरित्र कहाँ तक कहूँ ? यह कहकर रामचन्द्रजी ने सती से विदा मांगी इस प्रकार सती से आज्ञा तथा आशीर्वाद प्राप्त कर, शिवजी का ध्यान धर रामचन्द्रजी आगे चले तथा उसी प्रकार अपने कार्य में संलग्न हुए।

॥ शिव जी द्वारा मन ही मन सती को त्यागकर समाधिस्थ होने का वर्णन ॥

इतनी कथा सुनकर नारदजी ब्रह्मा से बोले-हे जगत् पिता! इसके पश्चात् शिवजी ने जो-जो कार्य किये उन पर भी प्रकाश डालिए। ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! सती को रामचन्द्र का वृत्तान्त सुन अत्यन्त आनन्द हुआ, परन्तु उन्हें अपने कर्म का विचार कर बहुत चिन्ता हुई। वे हृदय में अति भयभीत तथा दुःखी होकर लौटीं। 

मार्ग में उन्होंने सोचा कि मैंन शिव की अवज्ञा की तथा रामचन्द्र के विष्णु होने पर अविश्वास किया, अब मैं शिव को क्या उत्तर दूँगी ? सती इस प्रकार सोचती हुई शिव के निकट पहुँची तथा उन्हें प्रणाम किया। शिवजी ने कुशल-क्षेम पूछ हँसकर कहा-हे सती! तुमने रामचन्द्र की जिस प्रकार परीक्षा ली, वह सब हमें बताओ ? सती ने यह सुनकर लज्जा से सिर नीचा कर लिया और कोई उत्तर न दिया।

तब शिवजी ने ध्यान धरकर देखा तथा जो चरित्र सती ने किया था, उसे जाना। उन्होंने अपनी पहली बात को, जो विष्णु को अभिषेक के समय कही थी, स्मरण कर अत्यन्त क्रोध किया और हृदय में निश्चय किया कि अब यदि मैं सती से प्रेम करता हूँ तो मेरा प्रथम वाक्य झूठा सिद्ध होता है। सती जैसी स्त्री को छोड़ा नहीं जा सकता, यदि छोड़ता नहीं हूँ तो जो मैं पहले कह चुका हूँ वह झूठा होता है। 

परन्तु, शिवजी ने पुनः सोचा और निश्चय किया कि अब सती से भेंट न होगी। मैं अपने वचन को झूठा नहीं करूँगा। यह विचार कर शिव सती को छोड़ अपने स्थान को चल दिये। जिस समय वे वहाँ से चले, तब आकाश से यह शब्द हुआ कि हे शिव ! आपने अपने वचन का पूर्णरूप से पालन किया। आपके समान दूसरा कौन है, जो इस प्रकार अपने वचन का पालन करे ? 

यह शब्द सुनकर सती भयभीत हो गयीं। उन्होंने कुछ सोचकर शिव से पूछा-हे प्रभो! आपने क्या निश्चय किया है ? आप सत्य बोलने वाले हैं परन्तु आप मुझसे सत्य-सत्य कहिए ? सती के बार-बार पूछने पर भी शिवजी ने यह बात छिपा रखी। यह देख कर सती को विश्वास हो गया कि शिवजी ने उन्हें त्याग दिया है ।

कुछ देर के पश्चात् सती शिवजी से बोलीं-हे नाथ ! मैंने जो कुछ भी किया, वह अज्ञान तथा मूर्खतावश किया है। अब आप दूध और पानी अलग करके देखें क्योंकि प्रीति की यही रीति है। मैं स्वयं ही अपने कर्म पर बहुत लज्जित हूँ। परन्तु शिवजी ने उस बात को प्रकट करना उचित न समझा। वे अनेक प्रकार की कथा आदि के सुनाने में समय टालते रहे, परन्तु अन्त में उनको सत्य बात कहनी ही पड़ी। 

इस प्रकार वे कैलाशपर्वत पर पहुँचे। शिवजी मन में विचार कर बरगद के नीचे आसन लगा कर बैठ गये तथा अपने स्वरूप का ध्यान करने लगे। इधर सती मन्दिर में अत्यन्त उदास हुईं। उनका एक-एक दिन युग के समान बीतता था, परन्तु सिवाय उनके और किसी को यह हाल प्रतीत न हो पाया। दिन-दिन दुःख बढ़ता ही जाता था। वे सोचतीं कि यह दुःख कहने के योग्य नहीं। पता नहीं, इस दुःख सागर से मैं कब पार हूँगी ? 

मैंने शिव का कहा न माना, यह उसी का परिणाम है। तीनों लोकों में ऐसा कौन है जो शिव की अवज्ञा से आनन्द प्राप्त कर सके ? फिर वे मन ही मन कहतीं-हे शिव! आपका कोई दोष नहीं है। मैंने जो कुछ भी किया, उसका फल प्राप्त कर रही हूँ। 

हे भाग्य! तुझे ऐसा न चाहिए था कि मुझे शिव के विरुद्ध किया। हे ब्रह्मा! ऐसे संकट के समय में तुम मेरी मदद करो, ताकि मेरा शरीर बदल जाय। हे मृत्यु! मैं तुमसे निवदेन करती हूँ कि तुम मुझे इस संसार से उठा लो।

शिवजी को इस प्रकार समाधि में सत्तासी हजार वर्ष व्यतीत हुए। इतने समय के पश्चात् जब वे समाधि से जागे तो उन्होंने सती को अपने सम्मुख खड़ा पाया। शिवजी ने उनको अपने सम्मुख बैठाया तथा उस बात को समाप्त कर अन्य बातें आरम्भ कीं, जिससे सती को कोई दुःख न हो। इस प्रकार वे प्रसन्न रहने लगीं। शिव ने भी अपने प्रण को न तोड़ा। 

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सती को पिछली बात का कुछ दुःख न हुआ तथा वे सभी बातें भूल गयीं। शिवजी प्रत्येक शरीर में हैं। बहुत से मुनि यह कहते हैं कि शिव और शक्ति का बिछोह यह पीछे के वचन हैं। शिव के चरित्र हर कल्प के अलग-अलग हैं। कल्प भेद का हाल किसको ज्ञात है ? वे जो कुछ करें, सब उचित है। 

इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिए। शिव तथा शक्ति का भेद अत्यन्त गुप्त एवं कठिन है, उसको कोई नहीं जान सकता। शेष तथा विष्णु भी उनके चरित्र का वर्णन करने में असमर्थ हैं। यह जानकर भक्तों को उचित है कि सन्देह रहित होकर उनकी पूजा आराधना करें। 

हे नारद! इस प्रकार जब बहुत समय व्यतीत हो गया, तब शिव ने अपना वह चरित्र किया, जिसको देखकर सबकी बुद्धि भ्रमित हो गयी।

॥ दक्ष प्रजापति द्वारा कनखल में यज्ञ एवं दधीचि से विवाद ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जब हमने दक्षप्रजापति का अभिषेक कर उसको सब प्रजापतियों के अधिकार प्रदान किये तो वह अहंकार में लीन हो गया, जिसके कारण उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी। उस समय दक्ष ने सम्पूर्ण सामग्री एकत्र कर, प्रजापति यज्ञ करने की इच्छा प्रकट की। यही इच्छा लेकर वह कनखल तीर्थ गया। वहाँ उसने सब मुनियों को बुलाया। व्यास, ककुभ, गौतम, भारद्वाज, कश्यप, अंगिरा, वशिष्ठ, वामदेव, जैमिनि, पिप्पल, पराशर, भृगु, दधीचि, नारद आदि को बुलाया। 

इनके अतिरिक्त संसार भर के समस्त देवता तथा ब्राह्मण आकर वहाँ उपस्थित हुए। अग्नि भी अपने गणों सहित यज्ञ में पहुँचे। अन्य देवता भी उसके बुलावे पर, विष्णु सहित प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ में सम्मिलित हुए । देवराज इन्द्र अपनी पत्नी शची सहित ऐरावत पर चढ़कर वहाँ पहुँचे । 

इन्द्र पावकमेव पर, यम भैंसे पर, वायु हिरण पर, तथा शिव के मित्र कुबेर पुष्पक विमान पर चढ़कर वहाँ आये। वरुण भी अपने वाहन पर आरूढ़ होकर यज्ञशाला में पहुँचे। सूर्य अपनी पत्नी सहित तथा चन्द्रमा भी अपनी पत्नी रोहिणी सहित वहाँ जा उपस्थित हुए।

दक्ष ने सबको उपस्थित देखकर अति आनन्द में मग्न हो, सबका आदर सत्कार किया और सबके निवास के लिए विश्वकर्मा द्वारा बनाये हुए मन्दिर बता दिये, जिनमें सबने निवास किया। उस समय सती जी गन्धमादन पर्वत पर अपनी सखियों सहित क्रीड़ा कर रही थीं। उन्होंने देखा कि चन्द्रमा अपनी पत्नी सहित चला जा रहा है। 

सती ने अपनी विजया नाम की सखी को आदेश दिया कि तुम चन्द्रमा से जाकर पूछो कि वह कहाँ जा रहा है। सखी की आज्ञानुसार विजया ने चन्द्रमा से जाकर पूछा कि सती पूछती है कि तुम अपनी पत्नी सहित ऐसे ठाठ से कहाँ जा रहे हो ? यह बात सुनकर रोहिणी ने कहा कि सती के पिता दक्षप्रजापति ने कनखल में एक यज्ञ का आयोजन किया है। वहाँ बहुत बड़ा उत्सव है। उनके निमन्त्रण पर समस्त देवता वहाँ गये हैं। 

ब्रह्मा तथा विष्णु भी वहाँ शोभायमान हैं। तुम तो इस प्रकार पूछती हो, जैसे कोई मूर्ख हँसी से पूछे । इसका क्या कारण है कि तुमको इस यज्ञ के विषय में कुछ भी पता नहीं है ? वहाँ समस्त देवता अपना-अपना भाग लेने गये हैं, तुम वहाँ अपनी इच्छा से नहीं गयीं या दक्ष ने तुम को बुलाया ही नहीं है। विजया यह सुनकर लौट आयी तथा रोहिणी द्वारा कहे गये शब्द सती जी को कह सुनाये। 

इस समाचार को सुनकर सती जी को अत्यन्त दुःख हुआ। वे अपने मन में सोचने लगीं कि क्या माता-पिता ने मुझको भुला दिया है जो मुझे और शिवजी को उन्होंने नहीं बुलाया ? ऐसा सोचकर सती उसी समय शिवजी के पास गयीं। उधर चन्द्रमा भी अपनी स्त्री रोहिणी सहित दक्ष के पास गया।

हे नारद। दक्ष के यज्ञ की सजावट तथा उस समय के आनन्द, जो उस यज्ञ में मनाये जा रहे थे, अवर्णनीय हैं। जब सब मुनि एवं देवता कनखल में, जो कि हरिद्वार में है, आ गए; तब दक्ष ने यज्ञ आरम्भ किया। दक्ष अपनी पत्नी सहित यज्ञ में प्रवृत्त हुआ। भृगु मुनि को यज्ञ करानेवाला आचार्य बनाया गया। 

दक्ष ने उस यज्ञ में सब को उपस्थित देख, शिव से शत्रुता स्वीकार की। उस समय मेरे पुत्र दधीचि ने सदाशिव को यज्ञशाला में न देख, आश्चर्य से कहा-इस उत्सव में समस्त देवता, मुनि तथा ब्रह्मा के पुत्र आदि आये हैं, परन्तु फिर भी मैं निश्चय से कहता हूँ कि यह सभा सदाशिव के बिना अशोभित है। 

वे शुभ कर्मों के मूल हैं, वे सब देवताओं के स्वामी हैं। क्या कारण है कि वे यहाँ नहीं हैं? तुमलोग शिव को क्यों भूल गये ? हे दक्ष! तुम्हारी बुद्धि इस प्रकार क्यों भ्रष्ट हो गयी ? अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। तुम सब देवताओं, मुनियों तथा ब्रह्मा एवं विष्णु को साथ लेकर, शिव को प्रसन्न करके यहाँ ले आओ। साथ में सती जी को भी प्रसन्न करके यहाँ लाओ। यह निश्चय समझ लो कि बिना शिव के यहाँ आये, यह यज्ञ पूर्ण नहीं होगा। 

आश्चर्य है, ऐसे देवता को, जिसका स्मरण करने अथवा नाम लेने से सम्पूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं; तुमलोग क्यों भूल गये तथा उन्हें यहाँ क्यों नहीं बुलाया ? मैं फिर कहता हूँ कि जब तक शिव यहाँ न आयेंगे, यज्ञ पूर्ण न होगा ।

दधीचि के ऐसे वचन सुनकर दक्ष अत्यन्त क्रोधित हुआ तथा हँसकर बोला-हे दधीचि! यहाँ पर सब देवताओं के स्वामी बैठे हैं। सब धर्म, वेद तथा शुभ कर्म पूर्ण रूप से उपस्थित हैं। सबके स्वामी विष्णु भी हमारे इस यज्ञ में विराजमान हैं। अब क्या शेष रह गया है सो मुझे बता दो। मेरे इस यज्ञ में ब्रह्मा, वेद, धर्मशास्त्र, पुराण तथा उपनिषद् भी अपने-अपने गणों सहित आ चुके हैं। 

मेरा यह सौभाग्य है कि इन सबने मुझ पर बड़ी कृपा की है। आज मेरे यहाँ इन्द्र, समस्त देवताओं के साथ विष्णु भगवान् तथा तुम्हारे समान अनेक मुनि विराजमान हैं, अब फिर शिव के आने की क्या आवश्यकता है ? तुम सब मिलकर यज्ञ को पूरा करो। मैंने अपने भाग्यवश तथा ब्रह्मा की आज्ञा मानकर, अपनी कन्या का विवाह शिव के साथ कर दिया। यद्यपि यह विवाह अनुचित हुआ, क्योंकि वह कुलवान न था। शिव संसार से विरक्त, महाअहंकारी है।

उस पर भी वह माता-पिता विहीन है। इस लिए मैंने ऐसे शिव को इस यज्ञ में बुलाने की आवश्यकता न समझकर नहीं बुलाया है। मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम पुनः ऐसे वचन मुख पर न लाना। अब यही उचित है कि तुम सब मिलकर मेरा यज्ञ पूर्ण करके, मुझे आनन्द प्रदान करो।

दक्ष के ऐसे अंहकारपूर्ण वचन सुनकर किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया, सब शान्त रहे। उनका यही शान्त रहना सब के लिए महापाप हुआ, क्योंकि सभी ने अपने कानों से शिव-निन्दा सुनी। इस पर दधीचि ने पुनः कहा कि बिना शिव के यह यज्ञ कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता। तुम सब धोखे में हो जो इसका अनुसरण कर रहे हो। यह दक्ष बड़ा अधर्मी तथा मूर्ख है, जो शिव की निन्दा कर रहा है। 

यदि इसने शिव को नहीं बुलाया तो यह यज्ञ भी पूरा नहीं होगा। जो इस यज्ञ में रहेगा वह भी दुःख का भागी होगा। यह कहकर दधीचि उस सभा से उठकर चले गये तथा बहुत से मुनि भी दुःखी होकर वहाँ से उठ गये।

ऐसे मुनियों को अपनी सभा से जाते देख दक्ष ने अत्यन्त प्रसन्नता से कहा-यह बहुत अच्छी बात हुई जो शिव के प्रेमी तथा भक्त, जो मुझको दुःख देते थे, उठकर चले गए। अब तुम सब मिलकर मेरे इस यज्ञ को पूर्ण करो। दक्ष की बात सुनकर यज्ञ का कार्य प्रारंभ हो गया ।

॥ शिव जी से आज्ञा पाकर सती का दक्ष यज्ञ में पहुँचना ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! सती ने अपने पिता के घर यज्ञ का हाल सुनकर चाहा कि मैं भी वहाँ जाऊँ। वह इसी इच्छा से अकेली सदाशिव के पास पहुंचीं। वहाँ पहुँचकर देखा कि सेवक गण शिवजी की सेवा में संलग्न हैं। वे दिगम्बर केवल रुद्राक्ष धारण किये हुए थे। उनके शीश पर जटाएँ लटक रही थीं। शरीर पर भस्म शोभित थी। शिव का ऐसा स्वरूप देख, सती ने उन्हें प्रणाम किया। 

सती को वहाँ देखकर शिवजी ने बड़े प्रेम के साथ उन्हें बैठा लिया। यद्यपि शिव सब कुछ जानते थे, फिर भी उन्होंने संसारी लीला के निमित्त वहाँ आने का कारण पूछा। तब सती अत्यन्त प्रसन्न होकर बोलीं-हे प्रभो ! क्या आपको यह अच्छा नहीं लगा कि दक्ष ने यज्ञ प्रारम्भ किया है ? मित्रों तथा बान्धवों की भेंट महाधर्म है। इसीसे अच्छे लोग भले बन्धुओं की संगति स्वीकार करते हैं तथा आनन्द प्राप्त करते हैं। 

परन्तु, आपको यह उचित है कि वहाँ चलकर यज्ञ को पवित्र करें तथा मुझे भी अपने साथ ले जाकर मेरी इच्छा की पूर्ति करें। मेरे पिता के यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु आदि सब देवता पहुँच गये हैं; परन्तु आप वहाँ नहीं गये। शायद यह यज्ञ आपको अच्छा मालूम नहीं हुआ। आप वहाँ न जाने का कारण मुझ से विस्तारपूर्वक कहिये। मैं आपकी दासी हूँ। मेरी हाद्रिक इच्छा है कि मैं अपने पिता के घर जाऊँ इसलिए आप मुझे अपने साथ लेकर वहाँ चलिये।

शिवजी ने सती के वचन सुनकर मुस्कुराते हुए कहा -हे सती! तुम्हारे पिता दक्ष ने मुझको यज्ञ का निमन्त्रण नहीं भेजा है तथा शत्रुता रखकर मेरा अनादर किया है। तुम्हीं सोचो, वहाँ केवल तुम्हीं को न बुलाकर अन्य सब लड़कियों को बुलाया है, इसका एकमात्र कारण केवल शत्रुता ही है। ऐसे स्थान पर बिना बुलाये जाना कहाँ तक उचित है ? 

यद्यपि धर्मशास्त्र कहता है कि अपने पिता, मित्र, गुरु तथा स्वामी के घर बिना बुलाये भी जाना उचित है, परन्तु उनके मन में शत्रुता भी नहीं होनी चाहिए। किसी के घर बिना बुलाये जाना मृत्यु से अधिक तथा अनादर एवं लोकनिन्दा का कारण होता है। 

सती यह सुनकर बोलीं-हे स्वामी! आप इस वैर का कारण तो बतावें। शिव जी ने पिछला सब वृत्तान्त सुनाकर कहा। इसलिए उचित है कि तुम दक्ष यज्ञ में न जाओ। नहीं तो तुम को बड़ा कष्ट उठाना पड़ेगा। शिव ने सती को अनेक प्रकार से समझाया, परन्तु सती को यह अच्छा न लगा। 

वह दक्ष पर अति अप्रसन्न एवं कुपित होकर कहने लगीं-हे शिव जी! आप तीनों लोकों को आनन्द प्रदान करनेवाले हैं। सभी देवता आपका स्मरण करते हैं। आप यज्ञ-कर्म तथा यज्ञ के फल हैं। आप की दृष्टिमात्र से ही तीनों लोक तृप्त हो जाते हैं। आपसे यज्ञ पूर्ण तथा पवित्र होता है। मूर्ख दक्ष ने आपको अपने यज्ञ में नहीं बुलाया सो मुझे चिन्ता है कि उसका यज्ञ किस प्रकार पूर्ण होगा ? मेरा पिता इस प्रकार क्यों अज्ञानी हो गया, मुझे बड़ी चिन्ता है। यदि आप मुझे आज्ञा दें तो मैं जाकर उसके शील या दुःशील अथवा उसके वैर भाव को देखूँ।

हे नारद! शिवजी को तो कुछ और ही लीला करनी थी, इसलिए उन्होंने सती के आग्रह को न टाल कर, उन्हें नन्दी पर सवार होकर, यज्ञ में जाने की आज्ञा दे दी। उन्होंने सती के साथ साठ हजार गण देकर, उन्हें विदा किया। अच्छे-अच्छे वस्त्र आभूषण दिये। सती का स्वरूप भी अति उत्तम कर दिया। हे नारद! शिव ने ऐसी माया की कि सती बड़ी धूमधाम से चलीं। सती ने उस समय अपनी जैसी शोभा प्रकट की, वैसी किसी समय में भी प्रकट न की थी। 

उनके चलने के समय बड़ा शब्द हुआ। कोई गण उछलता कूदता था। अन्य गण भी सब को प्रसन्न तथा आनन्दित करते हुए चले, कोई सती का प्रताप-वर्णन करता तो कोई शिव की महिमा का गान करता था। इस प्रकार सब अत्यन्त प्रसन्न हो, अनेक प्रकार की गति से चलते, सती की सेवा करते, दक्ष के घर जा पहुँचे ।

॥ दक्ष यज्ञ में सती के शरीर त्याग की कथा ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! इस प्रकार सती दक्ष से भयभीत यज्ञशाला में पहुँची; परन्तु वहाँ किसी ने उनसे बात तक न पूछी। न किसी ने यही जाना कि यह जगन्माता हैं। दक्ष ने तो अहंकार में उनसे कुशल तक न पूछी। यह देखकर सती की बहनों ने, जो वहाँ उपस्थित थीं, हँसकर सती की निन्दा की। सती ने यज्ञ में सब देवताओं का स्थान देखा, परन्तु वहाँ शिवजी का स्थान न देखा। तब वे मन में अत्यन्त क्रोधित हुईं। उन्होंने अपना अनादर देख शिवजी का स्मरण किया तथा सोचा कि अपने क्रोध से दक्ष को भस्म कर डालें; परन्तु फिर उन्होंने सोचा कि यह उचित नहीं होगा। 

क्योंकि जब दक्ष ने कठिन तपस्या करके मुझको प्रसन्न किया था, तब मैंने उससे कहा था कि जब मैं तुम में कुछ गर्व तथा अपने मान की कमी देखूँगी, तो उसी समय अपने शरीर को त्याग दूँगी। दक्ष ने भी इस बात को मान लिया था। अब वही समय आ गया है। परन्तु, सती ने पुनः इस बात पर विचार कर बहुत दुःख प्रकट किया और मन में कहा कि मुझे बड़ा दुख है जो शिवजी बिना पुत्र के ही रहे और उन्हें मेरे विवाह का कोई फल न मिला। 

मेरे सिवाय और कौन ऐसी स्त्री है, जो मेरे पीछे शिवजी को प्रसन्न रख सकेगी। फिर शिव भी तो दूसरी स्त्री को अंगीकार न करेंगे। अब मैं अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपने शरीर को त्याग कर हिमाचल पर्वत के घर उत्पन्न हूँगी, तथा हिमाचल की पत्नी मुझे अपनी पुत्री समझेगी और मैं भी उसको अपनी माता समझकर आनन्द प्रदान करूँगी। तब मैं शिवजी के साथ पुनः ब्याही जाऊँगी।

उस समय मेरी सब लज्जा समाप्त हो जायगी तथा संसार के मनोरथ पूर्ण होंगे। सती ने यह सब बातें सोचकर दक्ष से क्रोधित होकर कहा-हे पिता! तुम ने शिव को निमन्त्रण क्यों नहीं भेजा ? क्या तुम्हारी बुद्धि नष्ट हो गयी है। जिन मेरे स्वामी शिव से तीनों लोक पवित्र होते हैं, तुमने उन्हें नहीं बुलाया। बिना शिवजी के सब कर्म असिद्ध हो जाते हैं। तुमने ऐसे शिव को क्यों नहीं पहिचाना ? 

फिर वे सनकादिक, ब्रह्मा तथा विष्णु से बोलीं-तुम सभा में बिना शिव के क्यों आये ? इस प्रकार उन्होंने सब से ऐसी बातें कहीं तथा शिवजी का वर्णन कर, एक-एक को अलग-अलग लज्जित किया। उन्होंने विष्णु से कहा-क्या तुम शिव को नहीं जानते, जिन्हें वेद सगुण एवं निर्गुण कहकर बखानते हैं ? मैंने तुमको अनेक बार समझाया है, परन्तु फिर भी तुम धर्म मार्ग को भ्रष्ट करते हो। 

हे ब्रह्मन्। तुम भी बुद्धिहीन हो गये ? क्या तुम शिव के अपार बल को नहीं जानते ? यद्यपि शिव ने तुमसे अनेक बार कहा है, फिर भी तुम्हें बुद्धि नहीं आयी। तुम्हारे पाँच मुख थे। तुमने शिव की निन्दा की, इसीलिए तुम्हारे चार मुख शेष रहे। हे विष्णु! क्या तुम शिव की महिमा भूल गये, जबकि उन्होंने शंबर को जला दिया था ? यह जानकर भी तुम इस यज्ञ में क्यों सम्मिलित हुए हो ?

सती ने फिर देवताओं से कहा-हे देवताओ! तुमने अपनी शुद्ध बुद्धि क्यों नष्ट कर दी ? मैं समझ गयी, तुम सब बड़े अभागे हो जो बिना शिव के इस यज्ञ में चले आये। हे भृगु, अत्रि, वसिष्ठ! तुमने यह बात बुद्धि के विरुद्ध क्यों की ? तुमको तो शाप देने की महान् शक्ति है। क्यों तुम भी शिवजी की शक्ति को नहीं जानते ? एकबार भगवान् सदाशिव मगर का रूप धारण कर द्रविड़पुर को गये थे और वहाँ उन्होंने भक्त की परीक्षा लेने के लिए कुछ लीलाएँ कीं परन्तु मुनियों ने उन लीलाओं के रहस्य को न जानकर, शिवजी को शाप दे डाला और उस शाप का प्रभाव उन्हीं के लिए प्रतिकूल पड़ा। उस समय, जबकि तीनों लोक जलने लगे, तब शिवजी ने अपने लिंग को पृथ्वी पर गिरा दिया था, जिसके कारण वे पुनजीर्वित हो गये थे। 

इतना कहकर सती ने अत्यन्त क्रुद्ध ब्रह्मा तथा विष्णु से इस प्रकार कहा-हे ब्रह्मा तथा हे विष्णु! दक्ष ने जो कुछ किया है उसके मूल में तुम दोनों हो क्योंकि तुम दोनों शिवजी के न आने पर भी इस यज्ञ में सम्मिलित हुए हो। परन्तु, तुमने जैसा कार्य, किया उसका फल तुम्हें अवश्य भोगना पड़ेगा। आश्चर्य है कि जिन शिवजी द्वारा चारों वेद तथा सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति हुई है, उन्हें तुम बिल्कुल नहीं पहचान सके। यदि तुम दोनों दक्ष के इस यज्ञ में नहीं आते तो दक्ष को इतना अहंकार कभी न होता। यदि यहाँ उपस्थित देवता तथा ऋषि-मुनि भी न आते तो दक्ष को कभी भी यह हिम्मत न होती कि वे शिवजी से विरुद्ध होकर कोई कार्य करते। तुम लोगों की बुद्धि वास्तव में भ्रष्ट हो गयी है जो तुम्हें दधीचि मुनि का सभा से उठ जाना भी अच्छा नहीं लगा।

हे नारद! सती के मुख से निकले हुए इन शब्दों को सुनकर दक्ष ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहा-अरी मतिमन्द ! तू ऐसी बातें क्यों कर रही है ? मेरा और तेरा पिता-पुत्री का सम्बन्ध समाप्त हो चुका है। यदि तेरी इच्छा हो तो तू यहाँ रह, अन्यथा अपने घर चली जा। तेरा पति अत्यन्त अशुभ है। उसके नाम में केवल दो ही अक्षर हैं। वह भूत, प्रेत एवं पिशाचों के साथ रहता है, चिता की भस्म को अपने शरीर में लगाता है और श्मशान में घूमा करता है। उसके माता, पिता, कुल, जाति आदि का कुछ भी पता नहीं है। इसका वर्णन वेद में भले हो, परन्तु उसमें कोई शुभ लक्षण दिखाई नहीं देते। 

इसीलिए मैंने उसे यहाँ नहीं बुलाया, क्योंकि ऐसे मूर्छ मनुष्य का यज्ञ में आना निषिद्ध कहा गया है। हे सती! मैंने वास्तव में बड़ी मूर्खता की, जो औरों के कहने पर तुझ जैसी अपनी श्रेष्ठ पुत्री का विवाह उस नंग-धड़ंग औढर के साथ कर दिया। मुझे इस बात का बहुत बड़ा पश्चाताप है। परन्तु, तू मेरी बातों पर विचार करके अपना यह क्रोध त्याग दे।

दक्ष की बातों को सुनकर सती पुनः क्रोधित हो उठीं और अपने पिता को महापापी अनुमान कर बहुत दुःखी भी हुईं। वे बोलीं शिव जी का अपमान कभी सुनना नहीं चाहिए। यदि कोई व्यक्ति शिव जी की निन्दा कर रहा हो तो सुनने वाले को उचित है कि वह या तो उस निन्दा करने वाले की जीभ काट ले अन्यथा अपने दोनों कान बन्द करके वहाँ से उठ जाये और अपने शरीर को अग्नि में जला कर भस्म कर दे। 

इसके विपरीत चलने से महापाप होता है। जो व्यक्ति शिवजी की निन्दा करता है, वह उस समय तक नरक में पड़ा रहता है, जब तक कि इस ब्रह्माण्ड में सूर्य और चन्द्रमा स्थित रहते हैं। यह बात वेद के कथन से भी पक्की होती है। इस प्रकार कह कर सती अपने मन में अत्यन्त पछताती हुई सोचने लगीं कि मैंने यहाँ आकर शिवजी की निन्दा अपने कानों से सुनी यह अच्छा नहीं हुआ। 

उन्हें इस बात से और भी अधिक दुःख हो रहा था कि वे यहाँ किसलिए आयीं और अब कौन-सा मुँह लेकर शिवजी के पास लौटेंगी ? वे सोचने लगीं कि यद्यपि शिवजी के श्री चरणों का दर्शन प्राप्त करना मेरे लिए अत्यन्त आवश्यक है, परन्तु अब भला किस मुँह से मैं उनके पास जाऊँ। मुझे तो दोनों ही प्रकार से कठिनाई दिखाई दे रही है।

हे नारद! इस प्रकार विचार करने के उपरान्त सती अत्यन्त क्रुद्ध होकर शिवनाम का जोर-जोर से उच्चारण करने लगीं। उन्होंने किसी की भी प्रतिष्ठा का ध्यान न रखते हुए यज्ञशाला में उपस्थित सब लोगों को धिक्कारते हुए कहा-हे उपस्थित सभासदो! मैं तुमलोगों से यह बात सत्य ही कह रही हूँ कि इस समय तुम्हारी बुद्धि नष्ट हो गयी है। अन्त में तुम्हें बहुत अधिक पछताना पड़ेगा। तुममें से अनेक मारे जायेंगे और अनेक भाग कर किसी गुप्त स्थान पर छिप जाने के लिए विवश होंगे। 

इस सभा में जिस-जिसने शिवजी की निन्दा की है और जिसने उसे सुना है, उन सब को महापाप लगा है। सभासदों से इस प्रकार कहकर वे दक्ष से बोलीं-हे दक्ष! तुमने शिवजी की बहुत निन्दा की है, अतः तुम्हें भी बहुत पछताना पड़ेगा। शिवजी सब को सुख देनेवाले और सबके स्वामी हैं, पर तुम उन्हें साधारण देवताओं की भाँति ही समझ रहे हो। तुम्हें यह नहीं मालूम है कि वे सम्पूर्ण सृष्टि के सबसे बड़े हितैषी हैं। तुम्हें अपनी करनी का फल शीघ्र ही मिलेगा।

हे दक्ष! वेद में मुनष्य के तीन प्रकार कहे गये हैं। जो किसी के गुण तथा शील में दोष लगाता है, उसे अधम कहा जाता है। जो किसी के पाप तथा पुण्य का सच्चा वर्णन करता है, उसे मध्यम कहते हैं और किसी के पापों को छिपाते हुए केवल उसके सद्गुणों का ही वर्णन कहता है, उसे उत्तम की संज्ञा दी जाती है। इन तीनों में भी जो सर्वोत्तम प्राणी होते हैं, वे अन्य लोगों के केवल गुण का ही वर्णन नहीं करते हैं अपितु वे सबको अपने कृत्य द्वारा प्रसन्न भी रखते हैं। 

मैंने इन तीन प्रकार के प्राणियों को विचार करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि तुम अधम प्रकार के हो, क्योंकि तुमने शिवजी की झूठी निन्दा की है। मिथ्या भाषण, अहंकार, क्रोध, लोभ आदि जितने भी बड़े पाप हैं, उन सब में महान् पाप किसी दूसरे की निन्दा करना है। तुम जो यह कहते हो कि शिव नाम में केवल दो ही अक्षर हैं, सो तुम्हें यह जान लेना चाहिए कि ये दो अक्षर इतने प्रभावशाली हैं कि जो मनुष्य इन्हें अपने मुख से निकालता है, उसके सम्पूर्ण पाप भस्म हो जाते हैं। 

ऐसे पवित्र नाम की निन्दा करना कभी भी उचित नहीं है, परन्तु तुम अपने अज्ञान के कारण इस बात को नहीं पहिचानते। शिवजी अनादि, अप्रमेय तथा महान् हैं। उनसे द्वेष रखनेवाले का कभी भी कल्याण नहीं होता। जिन लोगों ने शिवजी की वास्तविक महिमा को पहिचान लिया है, वे सदैव उन्हीं के प्रेम में मग्न रहते हैं। यह मेरा शरीर तुम्हारे द्वारा उत्पन्न हुआ है, परन्तु, मैं अपना खुद नष्ट करने के निमित्त अब इसे अवश्य त्याग दूँगी। क्योंकि शिव-निन्दक पिता की पुत्री कहाना मुझे सहन नहीं होगा। 

हे दक्ष! तुमने जो यह कहा कि शिव जी कोई कर्म नहीं करते और अशुभ वेषधारी हैं, उसका उत्तर यह है कि वे परब्रह्म, शरीर-रहित एवं अनादि हैं। माया का ग्रहण किये रहने के कारण ही, वे अपना ऐसा अमंगल वेष बनाये रहते हैं। भला उन्हें किसी कर्म से क्या प्रयोजन है ? तुमने जो यह कहा कि वे चिता भस्म लगाने वाले, नग्न, निर्धन तथा अवधूत हैं, उसका उत्तर केवल यही है कि मुझे उनका यह स्वरूप देखकर ही प्रसन्नता होती है, उनके इस स्वरूप के अतिरिक्त किसी अन्य रूप को देखना मुझे स्वीकार नहीं है। परन्तु, अब मैं अपने निश्चयानुसार अपने को भस्म करती हूँ क्योंकि इससे शिवजी को प्रसन्नता की प्राप्ति होगी।

इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! यह कहकर सती उत्तर दिशा की ओर मुँह करके पृथ्वी पर बैठ गयीं-उन्होंने स्नान करने के उपरान्त अपने सम्पूर्ण शरीर को वस्त्रों से लपेट लिया । तत्पश्चात् योग धारण कर, विधिपूर्वक आसन लगाते हुए प्राणायाम किया। सर्वप्रथम उन्होंने समान वायु को नाभि चक्र में लाकर उदान वायु को ऊपर चढ़ाया और शिवजी की सुन्दर मूर्ति को अपने हृदय में स्थापित किया, तदुपरान्त उन्होंन के बीच दृष्टि जमाते हुए, पति के चरणों का ध्यान किया अपने भौंहों के और अग्नि तथा वायु को उत्पन्न कर दिया। उस पवित्र अग्नि तथा वायु के द्वारा उन्होंने अपने उस निष्पाप शरीर को भस्म कर दिया। 

इस दृश्य को देखकर सब ओर हाहाकर मच गया। यज्ञशाला में उपस्थित सभी लोग अत्यन्त भयभीत तथा दुखी हुए और दक्ष की पत्नी वीरनी शोकाकुल हो गयी। उस समय शिव जी के गणों ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर सब लोगों को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार कहा।

॥ वीरभद्र आदि गणों द्वारा दक्ष यज्ञ का विध्वंस ॥

शिवगणों ने कहा-इस दक्ष की मूर्खता को देखो कि इसने सती को भस्म होने से रोका तक नहीं। शिवजी के इस शत्रु को संसार में अत्यन्त निन्दा प्राप्त होगी और यह अभिमानी मूर्ख करोड़ों नरकों के दुःख भोगेगा। इतना कहकर वे सब दक्ष को जान से मार देने तथा यज्ञ को भ्रष्ट करने के निमित्त अपने स्थान से खड़े हो गये। उस समय अनके हृदय की इच्छा को जानकर, भृगु ऋषि ने यज्ञ की रक्षा के निमित्त यज्ञ-कुण्ड में एक पवित्र आहुति डाली। 

उस आहुति के पड़ते ही यज्ञ-कुण्ड द्वारा एक सहस्त्र अत्यन्त बलवान् तथा धैर्यवान् दैत्यों की उत्पत्ति हुई, जो संसार में ऋभु नाम से प्रसिद्ध हुए। वे महाभयानक स्वरूप धारण किये हुए शिवजी के गणों के सामने जा खड़े हुए। उस समय शिवजी ने यह चरित्र किया कि उन्होंने अपने गणों के बल को चुपचाप हर लिया, जिसके कारण वे अत्यन्त निर्बल हो गये और भयभीत होकर हाहाकर करने लगे। 

उनके विलाप को सुनकर वहाँ उपस्थित अन्य शिवगण भी आश्चर्यचकित रह गये। जब उन सब ने यह देखा कि वे उन दैत्यों से युद्ध करने में अशक्त हैं और सती के वियोग को सहन करने में असमर्थ हैं, तो उन्होंने अपनी स्वामिनी के साथ ही अपने प्राण दे देने भी उचित समझे। यह निश्चय करने के उपरान्त उनमें से किसी ने अपने मस्तक को और किसी ने अन्य अंगों को काट कर स्वयं ही अपना वध कर डाला। 

इस प्रकार जिस स्थान पर सती ने अपना शरीर त्यागा था, उसी स्थान पर शिवजी के बीस सहस्र गण भी मृत्यु को प्राप्त हो गये।

हे नारद! उस दृश्य को देखकर सभा में उपस्थित सभी लोग अत्यन्त चिंतित हुए। उस समय मेरा तथा विष्णु का श्वास शीघ्रतापूर्वक चलने लगा। पहिले तो सब लोग मौन खड़े रहे, फिर कोई विष्णु की स्तुति करने लगे तथा कोई किसी अन्य की प्रार्थना करने में संलग्न हो गया। इस प्रकार सम्पूर्ण यज्ञशाला में दुःख भर गया। प्रसन्नता और आनन्द का कोई भी चिह्न शेष न रहा। अकेले दक्ष की मूर्खता के कारण उस महापाप का भागी सभी को होना पड़ा। तदुपरान्त जो थोड़े से शिव गण शेष रह गये, उन्होंने शिवजी के पास पहुँचकर सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। 

वे बोले-हे प्रभो! दक्ष ने सती जी के पास पहुँचकर अत्यन्त अपमान किया था। अकेली दक्ष-पत्नी ही ऐसी थी, जिन्होंने उनका हाद्रिक स्वागत किया, अन्य सब लोग तो अन्त तक दक्ष के ही साथी बने रहे। अपने गणों द्वारा यह समाचार प्राप्त कर शिवजी क्रुद्ध हुए। उस समय तुमने अर्थात् नारद ने भी शिवजी के पास पहुँचकर, जो कुछ घटना घटित हुई थी, उसे ज्यों का त्यों कह सुनाया और यह कहा कि वेद के बताये अनुसार आपको उचित है कि आप उन महापापियों को दण्ड अवश्य दें। 

यदि आप दक्ष को दण्ड नहीं देंगे तो वेद की आज्ञा और धर्म का मार्ग मिथ्या हो जायगा। देवताओं को दंड न देना भी नीति के विरुद्ध कार्य है। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि यदि आप दक्ष को दण्ड नहीं देंगे तो दधीचि ऋषि का वचन भी मिथ्या हो जायगा। खेद की बात तो यह है कि ब्रह्मा और विष्णु ने भी दधीचि ऋषि के शब्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया और दक्ष से ऐसा निन्दनीय कर्म करा दिया।

हे नारद! तुम्हारी बात को सुनकर शिवजी ने अपने मन में विचार किया कि यद्यपि ब्रह्मा, विष्णु, देवता, ऋषि-मुनि, एवं ब्राह्मण मुझे अति प्रिय हैं, तो भी वेद की आज्ञा सबसे ऊँची है। 

यह निश्चय कर भगवान् शिवशंकर ने अपने गणों को अभयदान दे, दिव्यदृष्टि द्वारा यज्ञ के सम्पूर्ण वृत्तान्त की जानकारी प्राप्त की। तदुपरान्त वे ऐसे क्रुद्ध हुए कि मानो प्रलय ही कर देना चाहते हों। वे अपने दोनों होठों को दाँतों से काटने लगे। तदुपरान्त उन्होंने अपने मस्तक से एक जटा का केश उखाड़कर पर्वत पर पटक दिया। 

उस बाल के गिरने से ऐसा महाभयानक शब्द उत्पन्न हुआ, जिसे सुनकर तीनों लोक काँपने लगे। यह जटा का केश टूट कर दो बराबर  के टुकड़ों में अलग-अलग बैट गया। तब उसकी जड़ की ओर वाले टुकड़े से 'वीरभद्र' की उत्पत्ति हई । 

उन वीरभद्र का शरीर अत्यन्त कृष्णवर्ण का  था और उनके बाल काली घटा के समान घने तथा शान्त थे, वे प्रज्ज्वलित अग्नि के समान देदीप्यमान लग रहे थे। वे इतने ऊँचे थे, मानो अनायास ही आकाश को छू लेना चाहते हों।वे महाभयानक शस्त्रों को लिये हैं। उनके हृदय में युद्ध करने की बड़ी प्रबल आकांक्षा थी । उनकी भौहें चढ़े हुए धनुष की भाँति बहुत टेढ़ी थीं । वे महाभयानक शब्द करते हुए सिंह के समान गरज रहे थे। उनके तीन मस्तक और एक सहस्त्र भुजाएँ थीं। वे शिव जी को प्रणाम करते हुए अपने स्थान पर निश्चल भाव से खड़े हो गये। 

उसी समय शिवजी के रोम-कूपों द्वारा अन्य सहस्त्रों गणों की उत्पत्ति हुई, जो शरीर, बल तथा स्वरूप में वीरभद्र के समान ही प्रतीत होते थे। शिवजी की आज्ञानुसार कैलाश पर्वत पर खड़े हुए वे परम भयानक शब्दों का उच्चारण अपने मुख से कर रहे थे। परन्तु, जटा के एक टुकड़े से तो इन सेना की उत्पत्ति हुई और दूसरे टुकड़े से श्री महाकाली प्रकट हुई। उन महाकाली के साथ करोड़ों भूत, प्रेत आदि भी उत्पन्न हुए। वे अनेक प्रकार से नाचने-कूदने तथा लीलाएँ करने लगे। 

उस परम क्रोधमय अवस्था में भगवान् शिव की नासिका द्वारा जो श्वास निकले, उनसे सौ प्रकार तथा तेरह प्रकार के सन्निपातों की उत्पत्ति हुई, जो संसार में अनेक प्रकार के उपद्रव मचाते रहते हैं। इस प्रकार पलक मारते-मारते शिव गणों की महाभयानक सेना उपस्थित हो गयी। ऐसा प्रतीत होता था कि वह उसी समय सम्पूर्ण सृष्टि को नष्ट कर डालेगी। 

हे नारद! इसके पश्चात् वीरभद्र ने अपने हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम करते हुए कहा-हे प्रभो! आप जो उचित समझें, वह आज्ञा हमें दीजिये। यदि किसी ने आपका अपमान किया हो तो वह साक्षात् काल ही क्यों न हो, हम उसे भी नष्ट कर डालेंगे। 

यह सुनकर शिव जी ने कहा-हे वीरभद्र! दक्षप्रजापति ने अहंकार में भर कर कनखल से एक यज्ञ रचाया है। उसने शत्रुता करके हमें यज्ञ का निमन्त्रण नहीं दिया । जब सती लोकरीति के अनुसार उसके घर पहुंचीं तो उसने उन्हें भी कुछ न समझा और बहुत से व्यंग्य वचन कहे। दक्ष के अतिरिक्त अन्य लोगों ने भी, जिनमें दक्ष-पत्नी सम्मिलित नहीं है, सती का कोई आदर नहीं किया। हमारे ऐसे अपमान को देखकर सती उस यज्ञ कुण्ड में जलकर भस्म हो गयीं। 

परन्तु किसी ने उन्हें रोका तक नहीं। इसके अतिरिक्त हमारे परमभक्त दधीचि ऋषि ने उस सभा को शाप दिया कि उन लोगों को शिवजी का अपमान करने का फल अवश्य मिलेगा। परन्तु, तुम लोग दक्ष के यज्ञ में जाकर उसे भ्रष्ट कर डालो और हमारा अपमान करने वाले दक्ष का मस्तक काट डालो। 

दुर्वासा, कौशिक, मार्कण्डेय, कम्बु, उपमन्यु, इन्द्र, गौतम, पुलह, बृहस्पति तथा सनकादिक चारों भाई, जो मेरे परम भक्त हैं, वे सब भी निराश हो कर यज्ञशाला से उठकर चले गये हैं और यह शाप दे गये हैं कि यह यज्ञ नष्ट हो जायगा। 

परन्तु, मैं अपने उन भक्तों का वचन सत्य करने के हेतु तुम्हें यह आज्ञा देता हूँ कि तुम गणों को साथ ले, निर्भय होकर दक्ष के यज्ञ में जा पहुँचो और किसी प्रकार का कुछ भी विचार न करते हुए जिसको जो उचित हो, वह दण्ड दो। 

शिवजी की इस आज्ञा को सुनकर वीरभद्र ने अत्यन्त प्रसन्न हो, महाभयानक स्वर में गर्जना की । तदुपरान्त उन्होंने शिवजी की परिक्रमा एवं स्तोत्रों द्वारा स्तुति की। फिर वे करोड़ों गणों की सेना तथा महकाली को साथ लेकर दक्ष यज्ञ को विध्वंस करने के लिए वहाँ से चल दिये।

॥  दक्ष यज्ञ के विध्वंस तथा असंख्य सेनापतियों का वृत्तान्त ॥

इतनी कथा सुनाकर सूतजी ने कहा-हे शौनकादिक ऋषियो! इस वृत्तान्त को सुनकर नारदजी ब्रह्माजी से बोले-हे पिता! जिन महाभयानक यूथपतियों को साथ लेकर वीरभद्र, दक्ष-यज्ञ विध्वंस करने के निमित्त गये, आप मुझे उनका नाम सुनाने की कृपा करें तथा यह भी बतायें कि उन्होंने यज्ञशाला में जाकर क्या-क्या कार्य किये और किन-किन को किस प्रकार दण्ड दिया ? 

मुझे यह बड़ा आश्चर्य है कि एक ओर तो शिवजी की ऐसी बलवान् आज्ञा थी और विष्णुजी दक्ष के सहायक थे । अतः आप मुझे यह बतायें कि विष्णु ने दक्ष की सहायता की अथवा नहीं ? कुछ समझ में नहीं आता कि शिवजी और विष्णु जी के चरित्र कैसे होते हैं ? मैंने भगवान् शिव तथा विष्णु के किसी युद्ध का वृत्तान्त नहीं सुना; परन्तु इस कथा में वह सब सामग्री उपस्थित है।

यह सुनकर ब्रह्माजी ने कहा-हे पुत्र ! भगवान् सदाशिव परब्रह्म हैं। अन्य सब देवता तथा प्राणी उनके सेवक है हैं।वे शिवजी अपनी इच्छा के अनुसार प्रत्येक कार्य करते हैं। हम अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु तथा हर तीनों उहीं के स्वरूप हैं। परन्तु, तुम इस सम्बन्ध में कोई सन्देह मत करो। वीरभद्र के साथ जो सेनाएँ गयी थीं उनके सेनापतियों तथा विस्तार का वृत्तान्त सुनो शंखकर्ण के साथ एक करोड़, केयेक राक्षस के साथ एक करोड़, विकृत के साथ आठ करोड़, मारियाक के साथ नौ करोड़, सुरमन्यक के साथ छः करोड़, विकृतानन के साथ भी छः करोड़, जालक के साथ बारह करोड़, दुंदुभि के साथ आठ करोड़ एवं आवेश के साथ भी आठ ही करोड़ वीरों की सेनाएँ थीं। 

अनल वर्ण, घण्टाकर्ण, कुक्कुट, चित्रासन, सम्वत, करटि, भृङ्ग, बकुली, नन्दन, प्रियभानु, सुरसरिनन्द, तारक, छाया, चण्ड, कालतुंग, कपटी, शूलकार्ण, पिंगल, मान, सुकेश, अंग, भारभूत, मणिभद्र, लांगूल, बिन्दु एवं मयूराक्ष के साथ चौंसठ-चौंसठ करोड़ योद्धाओं की सेनाएँ वीरभद्र की सहायता के लिए चलीं। इसके अतिरिक्त करोड़ों वीरों की सेनाएँ वीरभद्र के साथ चलीं।

हे नारद! रविमर्या नामक सेनापति अत्यन्त क्रोध में भरकर अपने साथ एक करोड़ वीरों को लेकर वीरभद्र के साथ चला। इसके अतिरिक्त कोकिल, अमोध एवं सुमन्त्रक इन तीनों यूथपों के साथ भी एक-एक करोड़ योद्धा थे। नील नामक महाबली यूथप के साथ नौ करोड़ वीर थे और पूर्णभद्र की सेना में भी इतने योद्धा थे। क्षेत्रपाल के साथ इतनी सेना थी जिसकी संख्या का वर्णन नहीं किया जा सकता। इन सेनापतियों के अधि पति भैरव अपार सेना लेकर चले। उस असंख्य सेना के चलते समय दसों दिशाओं में भारी हाहाकार मचा। 

हे नारद! इन सबके साथ ही भगवती महाकाली अपने नौ स्वरूपों के साथ नाचती-कूदती हुई चलीं। उन नौ स्वरूपों के नाम इस प्रकार हैं-काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुण्डा, मुण्डीरमद्रिनी, भद्रकालिका, भद्रा, त्वरिता, तथा वैणवी। इनके साथ शाकिनी, डाकिनी, भूत, प्रेत, लॉकनी, मसान्ती, कुष्माण्डी, ब्रह्मराक्षसी तथा चौंसठ योगिनी के समूह भी चले। 

उस सेना का वर्णन मैं कहां तक करूँ ? जिस समय वह विशाल सेना दक्ष का यज्ञ विध्वंस करने के लिए चली, उस समय पृथ्वी से उठ कर ऊपर उड़ने वाली धूल समस्त आकाश में इस प्रकार भर गयी कि उसमें सूर्यनारायण छिप गये और महाभयानक अन्धकार चारों ओर फैल गया। यह सम्पूर्ण कटक दक्षिण दिशा की ओर चलता हुआ कनखल के समीप जा पहुँचा। उस समय दक्ष के यज्ञ में अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे, जो भावी विपत्ति के सूचक थे।

॥ शिवगणों से देवताओं के युद्ध का वर्णन ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! उस समय यज्ञशाला में जो अपशकुन हुए अब मैं उनका वर्णन करता हूँ। आकाश से पिसी हुई हड्डियों की वर्षा होने लगी तथा ऐसी आश्चर्यजनक बातें दिखाई देने लगीं जिनके कारण कर्म तथा धर्म का विचार शेष न रहा। तीनों प्रकार के दुःख सब लोगों को दुखी करने लगे। डर के मारे उनके मुख से कोई शब्द नहीं निकलता था। सब के शरीर थर-थर काँपने लगे। 

उस समय यज्ञ करने वाले दक्षप्रजापति तथा यज्ञ कराने वाले भृगु ऋषि की आँखें उत्तर दिशा की ओर उठ गयीं तो उन्होंने देखा कि उधर से भारी धूल के उड़ने का कारण क्या है; परन्तु कोई ठीक बात उनकी समझ में नहीं आयी। सभा में उपस्थित सभी लोग आश्चर्य में भरकर एक दूसरे से अनेक प्रकार की बातें करने लगे।

हे पुत्र! उस समय दक्ष की पत्नी वीरनी ने सब लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा-हे सभासदो! तुमने मूर्ख बनकर सती का अनादर किया और उन्हें भस्म होने से नहीं रोका। दक्षप्रजापति ने शिवजी का घोर अपमान किया है और सती की बहनों के सामने ही सती का भी तिरस्कार किया है। 

यह सब उपद्रव उसी के प्रतिफल है। शिवजी का शत्रु कभी भी आनन्द नहीं पा सकता। वह कुछ समय के लिए अपने मन को प्रसन्न कर ले, परन्तु अन्त में उसे नरकगामी होना पड़ता है। अस्तु, तुम लोगों को अपने किये हुए पाप का फल अवश्य मिलेगा।

वीरनी के इन शब्दों को सुनकर सभी देवता तथा मुनियों को अत्यन्त भय लगा। दक्ष भी भयभीत होकर विष्णुजी के पास पहुँचकर इस प्रकार कहने लगा-हे विष्णो! आप यज्ञरूप, यज्ञरक्षक तथा यज्ञ के कर्मस्वरूप हैं। 

आपका कार्य भक्तों की रक्षा करना है। अस्तु, आप मुझे इस भय से छुड़ाइये और अपनी कृपा द्वारा यज्ञ को नष्ट होने से बचाइये। आप सच्चे स्वामी हैं। यह सुनकर विष्णुजी ने हँसते हुए कहा-हे दक्ष? जहाँ तक सम्भव होगा, हम, तुम्हारी रक्षा करेंगे, परन्तु तुमने शिवजी से शत्रुता स्थापित कर स्वयं ही संकट का आवाहन कर लिया है। 

तुमने प्रलयकर्ता एवं जगत् स्वामी शिवजी के साथ वैर करके अच्छा नहीं किया । अब तुम्हें कौन पार लगा सकता है ? हम स्वयं तथा अन्य सभी देवतागण भगवान् की आज्ञारूपी रज्जु से बंधे हुए हैं। संसार में उनके समान बलवान् अन्य कोई नहीं है। कोई सहस्त्रों उपाय भी क्यों न करे,परन्तु शिवजी की कृपा के बिना किसी को कर्म का फल नहीं मिलता। 

जिस स्थान पर पूजा करने योग्य शिवजी की पूजा नहीं की जाती, वहाँ कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता। जो देवता पूजा करने योग्य नहीं हैं, उसकी पूजा करने से दारिद्र्य, मृत्यु तथा भय-ये तीनों उपद्रव उत्पन्न होते हैं।
हे नारद! विष्णु के मुख से इन शब्दों को सुनकर दक्ष अत्यन्त चिन्तित और महादुखी हुआ। 

अन्य सबलोग भी भय के मारे काँपने लगे और इस प्रकार कहने लगे कि अब हमारी रक्षा किसी भी प्रकार नहीं हो सकती । जिस समय सभी सभासद आपस में एक दूसरे का मुँह देखते हुए चिन्तामग्न हो रहे थे, उसी समय वीरभद्र अपनी सेना सहित यज्ञस्थल में जा पहुँचे और बड़े जोर का शब्द करने लगे। 

भैरव तथा कालिका आदि भी अपनी सेना सहित वहाँ पहुँच गयीं। उस समय वीरभद्र का यह स्वरूप था कि उनके पाँच मुख, तीन नेत्र तथा दस हाथ थे। वे अपने मस्तक पर जटाओं को धारण किये थे तथा उनके ललाट पर अर्द्धचन्द्र सुशोभित हो रहा था। 

वे रुद्राक्ष की माला पहने, शरीर में भस्म लगाये, बैल पर सवार थे। उनके सभी अंग वज्र के समान अत्यन्त कठोर थे। वे अपने अत्यन्त सुन्दर हाथों में अनेकों प्रकार के शस्त्र लिये, चॅवर-छत्र धारण किये, शिव-शिव शब्द का उच्चारण करते हुए, परमविचित्र स्वरूप से भलीभाँति अलंकृत थे। 

जिस रथ पर वे अपने नन्दी सहित आरूढ़ थे, वह पच्चीस योजन ऊँचा था और उस रथ को दस लाख सिंह खींच रहे थे। शार्दूल तथा हाथी चारों ओर से उस रथ की रक्षा के निमित्त चैतन्य खड़े हुए थे।उसकी सेना ने आते ही चारों ओर से धावा करना आरम्भ कर दिया। 

अनेक प्रकार के युद्ध के बाजे, भेरी, शंख, पटह, गोमुख, श्रृंग, उपंग, मृदंग आदि बजने लगे। उस समय इन्द्र, वायु, यमराज, कुबेर, वरुण, अग्नि तथा दिक्पाल अपने-अपने वाहनों पर सवार हो-हो कर दक्ष के सम्मुख जा पहुँचे। 

दक्ष ने उन सब से कहा-हे दिक्पालो! मैंने इस यज्ञ को केवल तुम्हारे ही बल पर किया था, अतः तुम सब मेरी रक्षा और सहायता करो। इस प्रकार सब देवताओं से कहने के उपरान्त दक्षप्रजापति ने विष्णुजी के चरणों पर अपने मस्तक को रखते हुए कहा-हे प्रभो! आप संसार के रक्षक एवं शुभ कर्मों के साक्षी हैं। आपकी कृपा से संसार का पालन होता है, अतः आपको मेरे यज्ञ की रक्षा करनी चाहिए।

यह सुनकर विष्णुजी ने उत्तर दिया-हे दक्ष, जहाँ तक हमारा अधिकार है और जहाँ तक हममें शक्ति है, वहाँ तक हम तुम्हारे यज्ञ की रक्षा अवश्य करेंगे, परन्तु तुम्हारे कर्मों का स्मरण कर हमारी बुद्धि को आश्चर्य होता है। ब्रह्मस्वरूप शिवजी के क्रोध से तुम्हारी कौन रक्षा कर सकता है ? परन्तु, उस शिवनामधारी ईश्वर से विरोध कर, कभी हितसाधन नहीं हो सकता। वे शिवजी तीनों गुणों से युक्त होने पर भी परम पवित्र हैं, अतः उचित है कि तुम उन्हीं शिवजी की शरण में जाओ, जिससे तुम्हारा यह यज्ञ सम्पन्न हो सके।

इस प्रकार दक्ष और विष्णु में बातें हो रही थीं कि वीरभद्र की सेना चारों ओर इस प्रकार घिर आयी, मानो कोई समुद्र घिर-घिर कर आकाश की ओर बढ़ रहा हो । उस सेना के सेनापतियों ने दक्ष तथा विष्णुजी को ब्रह्मज्ञान व ज्ञान की बातें करते हुए सुना तो वे सब हँस पड़े। 

उस समय गणों को युद्ध करने के लिए उद्यत देखकर, इंद्र ने अपना वज्र उठा लिया और यह इच्छा की कि मैं शिवगणों से युद्ध करूँ। इन्द्र युद्ध करने के लिए सामने आये, शिवजी के गण हरहर का घोष करते हुए उनके सम्मुख जा पहुँचे। 

॥ विष्णु तथा वीरभद्र के युद्ध का वर्णन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! इन्द्र की सेना शिवगणों से युद्ध करने लगी। उस युद्ध में असि, शूल, तोमर, बाण, पटिस आदि अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग होने लगा। भेरी, शंख, मृदंग, ढप, दुन्दुभि, पटह, निशान तथा डिमडिम आदि प्रसिद्ध रणवाद्यों की ध्वनि चारों ओर गूंजने लगी। सभी योद्धा उस युद्ध में अपनी वीरता का अधिकाधिक प्रदर्शन करने लगे। 

जिस समय शिवगणों ने अपनी परमवीरता को प्रकट किया, उस समय इन्द्र की सेना को पराजित होते हुए हुए देखकर भृगु ऋषि ने उच्चाटन मन्त्र का जप करके वीरभद्र की सेना को अशक्त बना दिया। तब इन्द्र की सेना ने उन्हें अत्यन्त दुखी करके, सहस्त्रों योद्धाओं को जान से मार डाला। उस अयाचित विपत्ति को देखकर शिव के गण भयभीत होकर भागने लगे और इन्द्र की सेना विजयिनी हुई।

हे नारद! शिव गणों की हार का मुख्य कारण यही था कि इस प्रकार शिवजी ने ब्राह्मण की श्रेष्ठता को सम्मान दिया था। परन्तु, जब वीरभद्र ने यह देखा कि उनकी सेना हार कर भाग रही है, तब वे भूत-प्रेतों आदि को पीछे कर स्वयं आगे बढ़ आये। जो बड़े-बड़े सेनापति योद्धा बैल पर सवार थे वे भी उनके साथ आगे आकर खड़े हुए। तदुपरान्त उन्होंने अपने हाथों में त्रिशूल लेकर इन्द्र के साथ महाभयानक युद्ध किया। 

उन प्रहारों से घायल होकर देवता आदि भयभीत हो, युद्ध क्षेत्र से भागने लगे। किसी के विभिन्न अंग कट गये तो कोई टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ा। इस प्रकार देवताओं की सम्पूर्ण सेना क्षीण-विषीर्ण हो गयी। कुछ देवता तो भागकर अपने घरों को भी चले गये। उस समय अकेले इन्द्र ही दृढ़तापूर्वक खड़े हुए युद्धक्षेत्र में दिखाई पड़ रहे थे। अपनी सेना को इस प्रकार भागते देखकर इन्द्र ने अपने गुरु बृहस्पतिजी से कहा-हे गुरु! आप देवताओं की सेना के रक्षक हैं, अतः आप हमें ऐसा कोई उपाय बताइये, जिससे हमारी जीत हो।

यह सुनकर बृहस्पति ने उत्तर दिया-हे इन्द्र! विष्णुजी ने जो कुछ कहा था, वही सब इस समय सामने आ रहा है। मन्त्र, तन्त्र, औषधि, वेद, धर्मशास्त्र, पुराण, विचार तथा प्रतीति आदि यह सब शिवजी की महिमा को जानने में असमर्थ हैं। तुम मूर्ख हो, जो बच्चों के समान बुद्धिहीन बनकर, उन्हीं भगवान् सदाशिव से वैर ठान रहे हो, यह सभी गण शिवजी की आज्ञानुसार आये हुए हैं और इस यज्ञ को नष्ट करके ही मानेंगे। इनके सामने किसी का कोई वश नहीं चलेगा।

हे नारद! बृहस्पतिजी के मुख से यह वचन सुनकर इन्द्र के सहित सभी देवताओं को बड़ी चिन्ता हुई। उसी समय वीरभद्र ने उन सबको सम्बोधित करके कहा-हे देवताओ! तुम्हारी सभी बातें बच्चों के समान बुद्धिहीनता की सूचक एवं व्यर्थ की सी हैं। तुमलोग सारवस्तु को नहीं पहिचान पाते। परन्तु, इस यज्ञ में जो-जो देवता भाग लेने के लिए आये हैं, वे सब मेरे समीप आकर यज्ञ का भाग ले जायें।

यह कहकर वीरभद्र ने एक बार फिर इन्द्र, अग्नि, कुबेर, वरुण, सूर्य, चन्द्र आदि देवताओं को सम्बोधित करते हुए कहा-हे देवताओ! तुम सब मेरे समीप आकर अपना-अपना भाग ले जाओ। मैं तुम्हें सुख पहुँचाकर ऐसा प्रसन्न करूंगा कि तुम्हें सदैव के लिए भगवान् सदाशिव की महिमा का ज्ञान प्राप्त हो जायगा। इतना कहकर वीरभद्र अत्यन्त क्रुद्ध होकर बाणवर्षा करने लगे। उनके तीक्ष्ण बाणों के प्रहार ने इन्द्र के शरीर को घायल कर दिया। जब उन्होंने यह अनुभव किया कि वीरभद्र पर वे किसी प्रकार विजय प्राप्त नहीं कर सकते, तो सब देवताओं के साथ भाग खड़े हुए। 

हे नारद! यह दृश्य देखकर सब ऋषि-मुनि अत्यन्त भयभीत हो, विष्णुजी की शरण में गये और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे-हे प्रभो! हम आपकी शरण में आये हैं। आप दयालु होकर हमारी रक्षा करें। उन ऋषि-मुनियों की प्रार्थना को सुनकर श्री विष्णु भी अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर, युद्ध करने की इच्छा से वीरभद्र के सम्मुख जा खड़े हुए। 

जब वीरभद्र ने अपने सामने खड़े हुए विष्णुजी को देखा तो उन्हें पुकारते हुए इस प्रकार कहा-हे विष्णु! तुम यहाँ किसलिए आये हो ? तुम दक्ष के रक्षक बनकर अपने तेज तथा प्रकाश को नष्ट कर देने पर क्यों तुले हुए हो ? तुमने सब से बड़ी गलती तो यह की कि इन्द्र को साथ लेकर इस यज्ञ में अपना भाग ग्रहण करने के लिए चले आये । अब यदि तुम युद्ध करने के लिए आये हो तो यह भी स्मरण रखो कि शिवजी की जैसी आज्ञा है, उसी प्रकार मैं तुम्हें भी अच्छी तरह तृप्त कर दूँगा।

हे नारद ! वीरभद्र के मुख से निकले हुए इन शब्दों को सुनकर विष्णुजी ने हँसते हुए उत्तर दिया-हे वीरभद्र! तुम शिवजी के गण हो और उन्हीं के द्वारा उत्पन्न होने के कारण पूजा किये जाने के योग्य हो। मैं शिव जी को त्याग कर दक्ष की रक्षा के निमित्त यहाँ आया हूँ, वह वृत्तान्त तुमसे कहता हूँ। दक्ष मेरे परम भक्त हैं और उन्होंने मेरी बड़ी सेवा की हैं। जब उन्होंने मुझे यहाँ आने का निमन्त्रण दिया तो उनकी भक्ति के वशीभूत होकर मैं यहाँ चला आया, क्योंकि मैं सदैव अपने भक्तों के आधीन रहता हूँ। 

अब मैं तुम्हें अपनी शक्ति द्वारा उस स्थान से हटाने का प्रयल करता हूँ, इसलिए तुम्हें भी उचित है कि तुम जिस कार्य के लिए यहाँ आये हो, उसे सम्पन्न करो। जब तक तुम मुझे पराजित नहीं कर देते, तब तक यज्ञ के समीप नहीं पहुँच पाओगे।

हे नारद! यह सुनकर वीरभद्र ने सहिष्णु बनकर हँसते हुए कहा-हे विष्णु! आप में और शिवजी में कोई भेद नहीं है। परन्तु, मैं तो आप दोनों का ही सेवक हूँ। जो मनुष्य आप में और शिव जी में भेद समझते हैं, उन्हें घोर दुःख उठाना पड़ता है। फिर भी मैं आपको यह बता देना चाहता हूँ कि मुझे भगवान् सदाशिव की आज्ञा का पालन करना है। 

परन्तु, यदि मैं आपको कोई कष्ट पहुँचाऊँ तो उसमें मेरा कोई दोष नहीं होगा। आप जानबूझकर भी अपने लोक को लौटकर नहीं गये और यहाँ मुझसे युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो गये हैं। अतः आप स्वयं ही मुझे यह बतावें कि इस समय मुझे क्या करना उचित है ? यह सुनकर विष्णुजी बोले-हे वीरभद्र! तुम निश्चिन्त होकर हमारे साथ युद्ध करो। इस युद्ध में तुम अवश्य ही विजयी होगे। 

जब हम तुम्हारी चोट से घायल होकर अपने लोक को लौट जायँ, उस समय तुम जो उचित समझो, वह करना। यह सुनकर वीरभद्र ने अपने हथियार उठा लिए। उस समय युद्ध के बाजे बजने लगे तथा विष्णुजी ने अपना भी शंख फूंककर सम्पूर्ण संसार में हाहाकार मचा दिया। जो लोग युद्धक्षेत्र से भाग गये थे, वे भी फिर लौट आये। इन्द्र आदि देवता विष्णुजी के साथ रहकर फिर से अपने पराक्रम का प्रदर्शन करने लगे। इस प्रकार घनघोर संग्राम आरंभ हो गया।

॥ विष्णु का वीरभद्र से पराजित हो, युद्धक्षेत्र से पलायन ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! इन्द्र के साथ नन्दी ने युद्ध करना प्रारंभ किया। अनल के साथ मुनिभद्र का युद्ध होने लगा। यमराज तथा महाकाल एक दूसरे के सम्मुख जा खड़े हुए तथा निक्रति तथा मुण्ड ने परस्पर युद्ध करते हुए वीरता का प्रदर्शन किया। वरुण के साथ मुण्ड एवं वायु के साथ भृंगि का युद्ध होने लगा। उस समय इन्द्र ने अपने हाथ में वज्र लेकर नन्दी के ऊपर प्रहार किया और नन्दी ने कुद्ध होकर अपने त्रिशूल को इन्द्र के ऊपर चलाया। उस चोट से घायल होकर इन्द्र पृथ्वी पर गिर पड़े और मूच्छित हो गये; परन्तु कुछ देर बाद जब उन्हें होश आया, तो वे पुनः युद्ध करने लगे। 

उधर अनल ने शक्ति की चोट द्वारा मुनिभद्र को घायल कर दिया और मुनिभद्र ने भी निर्भय होकर अपने त्रिशूल द्वारा उसका उत्तर दिया। कालदन्त ने यमराज को अपने त्रिशूल की चोट से व्याकुल बना दिया। इधर तो ये बड़े-बड़े सेनापति परस्पर युद्ध करने में प्रवृत्त थे, उधर भैरव अत्यन्त क्रोधित होकर योगिनियों को साथ ले, देवताओं की सेना में घुस गये और सबको घायल करते हुए उनका रुधिर पीने लगे। 

फिर उन्होंने अपने स्वरूप को ऐसा भयानक बनाया कि उसे देखकर अनेकों देवता युद्ध क्षेत्र से भाग खड़े हुए। जो देवता खड़े रहे, वे उनके तेज तथा प्रकाश को देखकर, अत्यन्त भयभीत हो, "भैरव-भैरव" की पुकार करने लगे।

हे नारद! भैरव की भाँति क्षेत्रपाल ने भी देवताओं की सेना के अन्दर प्रविष्ट होकर, उसे कष्ट देना आरंभ कर दिया। नौ काली भी देवताओं की सेना को नष्ट करने लगीं। वे देवताओं के मस्तक को तोड़कर उनका रुधिर पीती थीं और शरीर को खा जाती थीं। जिसके कारण चारों ओर हाहाकार मच गया। उस समय वे सब लोग भागकर विष्णुजी की शरण में जा पहुँचे और इस प्रकार कहने लगे-

हे प्रभो! इस समय हमलोग बहुत दुखी हैं, अतः आप हमारी सहायता करें। आप हम सब के स्वामी हैं, इसलिए हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि भैरव, क्षेत्रपाल तथा काली ने हमारी जो दुर्गति की है, उसका आप उचित उपाय करें। विष्णुजी ने सब देवताओं की उस दयनीय दशा को देखा तो उन्होंने अत्यन्त क्रोध में भर कर क्षेत्रपाल की ओर अपना चक्र छोड़ दिया। 

उस चक्र के तेज से संपूर्ण दिशाएँ भस्म-सी होने लगीं। जब क्षेत्रपाल ने उस प्रज्ज्वलित ज्योति को इस प्रकार अपनी ओर आते देखा तो उसने यह चक्र अपने मुख में डाल दिया। यह देखकर विष्णुजी ने क्षेत्रपाल के गाल पर अपनी गदा का प्रहार किया, जिसके कारण वह मुँह के बल पृथ्वी पर गिर पड़ा।

हे नारद! इस अवस्था को देखकर कालीजी विष्णु के सम्मुख जा पहुंचीं। उन्हें देखकर विष्णुजी ने जितने बाण चलाये उन सबको वे सहज ही में खा गयीं। तब विष्णुजी ने अपने नन्दक नामक खड्ग का प्रहार उनके ऊपर किया। उसे कालीजी ने पकड़ कर तोड़ डाला। यह दृश्य देखकर विष्णुजी ने काली के साथ युद्ध करना बन्द कर दिया और भैरव के समीप जा पहुँचे। 

विष्णुजी ने भैरव के ऊपर जब अपना चक्र चलाया तो भैरव ने उसे सहज ही काट कर गिरा दिया। तदुपरान्त उन्होंने अपने मृत्यु के समान भयानक बाणों द्वारा विष्णुजी पर प्रहार करना आरम्भ कर दिया। विष्णुजी तथा भैरव का युद्ध, बहुत देर तक होता रहा। उस युद्ध को सब देवता अलग खड़े होकर देखते रहे, तदुपरान्त भैरव ने उस प्रलयकर्त्ता त्रिशूल को अपने हाथ में उठाया, जो बिना प्राण लिये कभी नहीं रुकता था। 

भैरव के क्रोध को इस प्रकार बढ़ता देखकर वीरभद्र दौड़ते हुए उनके पास जा पहुँचे और अनेक प्रकार से उनकी प्रशंसा करते हुए बोले-हे भैरवजी! आप ऐसा क्रोध न करें, क्योंकि शिवजी ने इतनी कठिन आज्ञा नहीं दी है। विष्णुजी भी शिवजी के एक रूप हैं, अतः सेवक को अपने स्वामी के विरुद्ध ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। यह सुनकर भैरवजी ने अपना त्रिशूल रोक लिया। तदुपरान्त वीरभद्र स्वयं विष्णु से युद्ध करने लगे।

हे नारद! जब विष्णुजी ने देखा कि वीरभद्र पर सहज ही विजय पाना संभव नहीं है, तब उन्होंने योगमाया द्वारा अपने ही समान असंख्य गणों को उत्पन्न किया। वे सब गरुड़ पर आरूढ़ थे और शंख चक्र गदा तथा पद्म को अपने हाथों में धारण किये हुए थे। वे उत्पन्न होते ही शिवगणों से युद्ध करने लगे। उन्होंने अपनी बाणवर्षा, शंखध्वनि, चक्र तथा गदा आदि से शिव गणों को व्याकुल कर दिया। 

यह दशा देखकर वीरभद्र ने भगवान् सदाशिव का ध्यान धरकर अपना त्रिशूल चलाया। उस त्रिशूल के चलते ही विष्णुजी के गण भस्म होने लगे और देखते ही देखते अदृश्य हो गये। यह दशा देखकर विष्णुजी ने अत्यन्त क्रोध कर, वीरभद्र को मार डालने की इच्छा से उनके मस्तक पर अपनी गदा का एक कड़ा प्रहार किया। 

तब वीरभद्र ने उनकी मनोभिलाषा को जानते हुए अपना त्रिशूल उनकी छाती में मारकर,उन्हें पृथ्वी पर गिरा दिया। विष्णुजी के इस प्रहार से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर जाने से, चारों ओर हाहाकार मचने लगा, परन्तु कुछ देर बाद ही विष्णुजी उठकर खड़े हो गये। तब वीरभद्र को मारने के लिए उन्होंने अपने चक्र को हाथ में उठा लिया। उस समय विष्णुजी का स्वरूप अत्यन्त भयानक हो उठा। ऐसा प्रतीत होता था मानो आज वे अपने चक्र द्वारा प्रलयकाल उपस्थित कर देंगे।

हे नारद! वीरभद्र ने जब विष्णु के उस तेजस्वी स्वरूप को देखा, तो मन ही मन भगवान् सदाशिव के चरणों का ध्यान किया। उस समय शिवजी ने वीरभद्र को अभयदान देते हुए अपने शत्रु का प्रहार सहन करने की सामर्थ्य प्रदान की। उधर विष्णुजी भी पर्वत शिखर के समान निश्चलभाव से खड़े थे। परन्तु, सर्वप्रथम वीरभद्र ने अपने पवित्र बाणों द्वारा विष्णुजी के धनुष के दो टुकड़े कर डाले। 

विष्णुजी भी प्रबोधन मन्त्र का त्यागकर, जड़ता से मुक्त हो, अपनी सामर्थ्य को प्राप्त कर चुके थे। परन्तु, उस समय का दृश्य देखकर मैंने अर्थात् ब्रह्मा ने विष्णुजी से कहा हे प्रभो! होनहार किसी के मिटाये नहीं मिटती, यद्यपि आपने दक्ष के यज्ञ की रक्षा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी, परन्तु उसका भाग्य ही इस समय विपरीत है। 

इसलिए आप इस युद्ध में विजय प्राप्त नहीं कर सकेंगे। वीरभद्र इस यज्ञ को अवश्य नष्ट करके मानेगा। शिवजी के क्रोध के साथ ही साथ उसका यह भी एक कारण है कि दधीचि मुनि ने भी इस यज्ञ को नष्ट होने का शाप दिया है। यदि ब्राह्मणों के वाक्य को सत्य न माना जाय तो सम्पूर्ण सृष्टि छली एवं नास्तिक हो जायेगी। 

परन्तु, आप युद्ध करना बन्द कर दें। जिस समय भगवान् सदाशिव पुनः कृपालु होंगे, उस समय बिगड़े हुए सभी कार्य स्वतः ही बन जायेंगे। आपकी और शिवजी की लीला अपार है। उसका भेद कोई नहीं जान सकता। हे नारद! मेरी इस बात को सुनकर विष्णुजी युद्ध बन्द करके अपने लोक को चले गये और मैं भी अपने लोक को चला आया, क्योंकि मैं यह जानता था कि जब शिवजी पुनः दयालु होंगे, तभी बिगड़ा कार्य बन सकेगा।

॥ मृगरूप यज्ञ को वीरभद्र का पकड़ना तथा उसके मस्तक काटने का वृत्तान्त ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जिस समय विष्णुजी अपने लोक को चले गये, उस समय यज्ञ देवता को अत्यन्त शोक हुआ। वह मृग का रूप धारण कर उस स्थान से भाग चला; परन्तु वीरभद्र ने उसे तुरन्त ही पकड़ लिया। तदुपरान्त उन्होंने उसके मस्तक को धड़ से काटकर यज्ञकुण्ड में डाल दिया। फिर वे अत्यन्त क्रुद्ध हो, बारम्बार गरजते हुए यज्ञमण्डप के समीप पहुँचे। 

भैरव, क्षेत्रपाल तथा काली आदि ने यज्ञस्थल पर उपस्थित सभी लोगों को इस प्रकार पकड़ा, मानो वे कोई चोर हों। कोई शिवगण देवताओं को पकड़ता, कोई मुनियों को बाँधता था, कोई विष्णु के घण्टे तोड़ता था और कोई यज्ञकुण्ड को ठंडा करने के लिए उसमें जल डाल रहा था। सभी शिवगण अपने शत्रुओं के साथ घोर युद्ध कर रहे थे और यज्ञ-मण्डप को गिराने में संलग्न थे। उन्होंने अपने मुद्गरों की चोट से अनेक के हाथ-पावों को कुचल दिया और यज्ञ पात्रों को तोड़कर नदी में फेंक दिया। किसी ने देवताओं के शरीर को काटा, किसी ने ऋषि-मुनियों को दुःख दिया, किसी ने यज्ञकुण्ड को खोद डाला और किसी ने सभास्थल, अन्तःपुर तथा विहारस्थल को जड़ से खोद कर नष्ट कर दिया। 

हे नारद! इसके उपरान्त वीरभद्र ने दक्ष को पकड़ लिया। नन्दी ने सूर्य देवता को बन्दी बनाया। मणिमान ने भृगु ऋषि को पकड़ा और चण्डी ने पूषा को बाँध लिया। इसी प्रकार अन्य देवताओं को भी उन्होंने बन्दी बना लिया। जो देवता कहीं जाकर छिप गये थे, उन सबको भी वे ढूँढ़ कर ले आये। मणिमान ने अत्यन्त क्रोध में भरकर भृगुमुनि की मूँछें उखाड़ लीं और उन्हें नगर में घुमा कर सब लोगों को भयभीत कर दिया। 

तदुपरान्त नन्दीश्वर ने क्रुद्ध होकर भृगुमुनि के नेत्र निकल लिये, क्योंकि उन्होंने दक्षप्रजापति को बहका कर शिवजी के विरुद्ध कर दिया था। जो व्यक्ति शिवजी के विरुद्ध जाने का उपदेश करे, उसकी आँखें निकाल लेना ही उचित है। उधर चण्डी ने पूषा के उन दाँतों को तोड़ डाला, जिन्हें खोलकर उन्होंने शिवजी का उपहास किया था।

हे नारद! इसके पश्चात् वीरभद्र ने अत्यन्त क्रोध में भरकर दक्षप्रजापति को पृथ्वी पर पटक दिया और उसकी छाती पर पाँव रखकर उसका शिर काट डालने की इच्छा की, परन्तु अनेक हथियारों का प्रयोग करने पर भी वे न तो दक्ष का मस्तक ही काट सके और न उसे कोई कष्ट ही पहुँचा सके। यह दशा देखकर वीरभद्र ने शिवजी का ध्यान किया और उस ध्यानावस्था में उनसे आज्ञा प्राप्त की कि दक्ष के सिर को जोर से मरोड़ कर तोड़ डाले। 

वीरभद्र ने ऐसा ही आचरण किया, तदुपरान्त उस कटे हुए मस्तक को यज्ञकुण्ड में डाल कर जला दिया। फिर अत्यन्त क्रोध करके उसके शरीर को काटा और उस कटे हुए शरीर के हिस्सों को कश्यप तथा धर्मराज के हाथों में रख दिया। फिर उन्होंने धृष्टनेमि को बहुत दुःख दिया और अंगिरा ऋषि को लातों से मारा। 

फिर जिस प्रकार उन्होंने शान्तनु को मारा था उसी प्रकार अन्य ऋषि-मुनियों को भी मार डाला। फिर कश्यप की पत्नी की नाक को उन्होंने अपने नखों से काट डाला, जिसके कारण देवताओं की माता अदिति, उस अंग को ही खो बैठी। इस प्रकार जिसके लिए जैसा उचित था, वैसा दण्ड दे दिया।

हे नारद! भगवान् सदाशिव ने अपना तिरस्कार करनेवाले लोगों को इस प्रकार यथोचित फल देकर अपनी महत्ता को प्रतिष्ठापित किया। शिवजी के बिना जो देवता यज्ञ में अपना भाग लेना चाहते थे, वे सब या तो मारे गये या घायल हुए । इस प्रकार दक्ष का यज्ञ सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो गया। 

हे पुत्र! शिवजी से शत्रुता रखनेवाले को इसी प्रकार दुःख भोगना पड़ता है। सहस्त्रों उपाय करने पर भी जब तक शिवजी का पूजन नहीं किया जाता, तब तक किसी को मुक्ति प्राप्त नहीं होती। शिवजी सबसे बड़े और सबके स्वामी हैं। उनकी महिमा ऐसी अपार है कि आज तक उसे कोई नहीं जान सकता। जो लोग प्रेमपूर्वक शिवजी की सेवा एवं पूजा करते हैं, उन्हें किसी प्रकार दुःख नहीं उठाना पड़ता। 

क्योंकि सदाशिव सदैव उनकी सहायता करते रहते हैं। शिवजी अपने भक्तों के उस पाप को भी नष्ट कर देते हैं जो पिछले पाप कर्मों के कारण प्राप्त होता है। शिवजी के विपरीत चलनेवाला मनुष्य इस संसार में तो दुःख पाता ही है, अन्त में दण्डनीय होकर नरकवास भी करता है। शिवजी की आराधना किये बिना जो कार्य किया जाता है, उसका परिणाम इसी प्रकार दुःखदायी होता है। परन्तु, इस प्रकार दक्ष का यज्ञ विध्वंस करने के उपरान्त वीरभद्र भगवान् सदाशिव के समीप जा पहुँचे।

॥ राजा छू का दधीचि से युद्ध ॥

सूतजी ने कहा-हे शौनकादि ऋषियो! ब्रह्माजी द्वारा इस कथा को सुनकर नारदजी को अत्यन्त आश्चर्य हुआ। लेकिन, उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए ब्रह्माजी से पूछा-हे पिता! शिवजी के बिना विष्णु आदि अन्य सब देवता दक्ष के यज्ञ में क्यों चले गये ? फिर विष्णुजी ने शिवगणों के साथ मित्रतापूर्वक युद्ध क्यों किया ? वे दक्ष के यज्ञ को बचाने में समर्थ क्यों न हो सके ? 

ब्रह्माजी ने उत्तर दिया -हे नारद! पूर्वकाल में मेरा छू नामक एक पुत्र था। वह राजा था। दधीचि उसका परम मित्र था। वे दोनों आनन्दपूर्वक अपनी राजधानी में रहते थे। कुछ समय बाद ही छू अपने सम्मान एवं पद के कारण अत्यन्त अहंकारी हो गया और अपने को सर्वश्रेष्ठ समझने लगा। 

एक बार उसने च्यवन ऋषि के पुत्र दधीचि के साथ बहुत विवाद किया। छू कहता था कि राजा सबसे श्रेष्ठ है और दधीचि का कहना था कि ब्राह्मण सबसे उत्तम है, क्योंकि अन्य सभी लोग, जिनमें राजा भी सम्मिलित हैं, ब्राह्मण को प्रणाम करते हैं। परन्तु छू उसकी बात को न मानकर तथा उसके प्रमाण को अपने तर्क द्वारा काट कर, यह कहता था कि देखो, आठों दिक्पाल जो राजा हैं, उन्हें प्रजापति तथा ईश्वर कहा जाता है और सबलोग, जिनमें ब्राह्मण भी सम्मिलित हैं, उनका पूजन तथा सम्मान करते हैं; इसलिए तुम्हें भी उचित है कि तुम हमारी पूजा करो।

हे नारद! छू की इस बात को सुनकर दधीचि ने अपने बांये हाथ से उसके मस्तक पर एक थप्पड़ मारा और ब्राह्मण की श्रेष्ठता को प्रमाणित कर दिखलाया। यह देखकर छू ने अपने हाथ में वज्र उठाकर दधीचि को मार डाला और इस प्रकार उस पर विजय प्राप्त की। जिस समय दधीचि पृथ्वी पर गिरकर मरने को था, उस समय उसने गुरु का स्मरण करके अपने प्राण त्यागे। 

उसकी प्रार्थना को सुनकर शुक्राचार्य शीघ्रतापूर्वक उस स्थान पर जा पहुँचे और उन्होंने दधीचि के छिन्न-भिन्न शारीरिक अंगों को एकत्र करके उन्हें पुनर्जीवित कर दिया। इस प्रकार जीवन-दान एवं आरोग्य प्राप्त करने के पश्चात् दधीचि ने शुक्राचार्य से कहा-हे शुक्राचार्यजी! आप मुझे कोई ऐसी युक्ति बताइये, जिससे मैं अमर हो जाऊँ। यह सुनकर शुक्राचार्य ने उत्तर दिया-हे दधीचि! ऐसा वरदान केवल शिवजी ही दे सकते हैं। 

ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता भी उन शिवजी के चरणसेवक हैं। उन्हीं की सेवा द्वारा मैंने यह संजीवनी विद्या प्राप्त की है। उनका मृत्युञ्जय नाम तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। उनकी कृपा प्राप्त करके बाणासुर अमर हो गया और वह सब राजाओं मुनियों तथा ब्राह्मणों में श्रेष्ठ बनकर, शिवपुरी में निवास करता है। 

शिवजी की सेवा करके ही दुर्वासा ऋषि तीनों लोकों के स्वामी बन बैठे हैं और अपने उत्तम चरित्र द्वारा धर्म की रक्षा करते हैं। शिवजी की सेवा करने के कारण ही विश्वामित्र मुनि ने ब्राह्मण पद को प्राप्त किया है और नवीन सृष्टि को उत्पन्न कर अनेक प्रकार की नूतन वस्तुओं को जन्म दिया है। ब्रह्माजी दिन-रात शिवजी की सेवा में संलग्न रहते हैं तथा उन्हीं की आराधना के कारण ही मार्कण्डेय ऋषि कल्प समाप्त हो जाने पर भी जीवित बने रहते हैं।

हे दधीचि! इन्द्र ने शिवजी की सेवा द्वारा ही यह शक्ति प्राप्त की है कि उनका शत्रु किसी भी प्रकार जीवित नहीं बच सकता। भगवान् विष्णु भी शिवजी के अनन्य सेवक हैं। जगदम्बा शक्ति भी रात-दिन शिवजी की सेवा करने के कारण तीनों लोकों की स्वामिनी बनी हैं। रामचन्द्र, परशुराम तथा बलराम ने शिवजी की पूजा से ही अपना नाम अमर किया है। 

विकट, अंगिरस तथा गौतम ऋषि ने शिवजी का पूजन करके अमरत्व प्राप्त किया है। बृहस्पति ने भी शिवजी की सेवा द्वारा उच्च पद पाया है। इन्द्रदेव मुनि बिना इच्छा के ही शिवजी का नाम ले लेने के कारण, शिवगणों में सम्मिलित हो गये। वैश्य वर्ण नन्दी ने शिवजी की सेवा द्वारा उच्च पद को प्राप्त किया। 

महाकाल पूर्व जन्म में अक्सर वेद के विरुद्ध कार्य किया करते थे, परन्तु शिवजी की सेवा करने के कारण ही उन्होंने मुक्तिपद प्राप्त किया। ब्रह्मा तथा विष्णु ने परस्पर विवाद करने के उपरान्त भी शिवजी के आदि तथा अन्त को नहीं पाया। एक बार एक राक्षसी ने धोखे से शिव मन्दिर को धोया था, उसी पुण्य के कारण वह कैलाश में जा पहुँची और फिर एक राजपुत्री के रूप में उत्पन्न हुई। 

एकबार एक चोर ने शिवालय में अपने शरीर को त्याग दिया, जिसके कारण उसे परमपद की प्राप्ति हुई। अतः यदि तुम्हें अमरत्व प्राप्ति की इच्छा है तो उन्हीं भगवान् शिव की पूजा करो। 

हे नारद! शुक्राचार्यजी की बात सुनकर दधीचि ने प्रसन्न होकर कहा-हे स्वामिन् आप मुझे शिव मन्त्र का उपदेश दीजिये, तब शुक्राचार्यजी ने भगवान् सदाशिव से प्राप्त संजीवनी विद्या का उपदेश दधीचि ऋषि के प्रति किया और शिवजी का पूजन करने के लिए एक मन्त्र का उपदेश भी दिया। फिर मैंने भी दधीचि को शिक्षा दी। तब दधीचि ने अत्यन्त प्रसन्न होकर, उस मन्त्र का जाप करते हुए शिवजी की बहुत सेवा-पूजा की। 

उनकी सेवा से प्रसन्न होकर शिवजी ने अपना दर्शन देते हुए उनसे वरदान माँगने के लिए कहा। उस समय दधीचि ने अपने दोनों हाथ जोड़कर भगवान् सदाशिव की बहुत प्रकार से प्रार्थना करते हुए यह कहा-हे प्रभो! आप मुझे अपनी भक्ति प्रदान कीजिये और यह वरदान दीजिये कि मेरी हड्डियाँ वज्र के समान हो जायें और मुझे कोई न मार सके। मैं किसी के साथ नम्रतापूर्वक वार्तालाप भी न करूँ।

दधीचि ऋषि की प्रार्थना सुन शिवजी ने हँसते हुए उन्हें ये तीनों वरदान दिये। तदुपरान्त दधीचि राजा छू के पास जा पहुँचे और पहुँचते ही उन्होंने उसके मस्तक में एक लात मारते हुए कहा-यह कौन पड़ा हुआ है। यह देखकर छू ने भी अत्यन्त क्रुद्ध हो, दधीचि के ऊपर अपने वज्र का प्रहार किया, परन्तु उसका कोई फल नहीं निकला। राजा छू ने दधीचि के साथ बहुत समय तक युद्ध किया, परन्तु न तो वह विजय प्राप्त कर सका और न उन्हें किसी प्रकार का कष्ट ही पहुँचा सका। उस समय राजा छू को यह निश्चय हुआ कि दधीचि ने शिव जी से कोई वरदान प्राप्त कर लिया है।

हे नारद! यह देखकर राजा छू लज्जित हो, भगवान विष्णु का पूजन करने लगा। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु लक्ष्मी सहित गरुड़ पर आरूढ़ हो उसे दर्शन देने के लिए आ पहुँचे। उन्हें देखकर राजा छू ने साष्टांग दंडवत् प्रणाम तथा स्तुति करने के उपरान्त यह प्रार्थना की -हे प्रभो! दधीचि नामक एक ब्राह्मण पहिले मेरा परम मित्र था, परन्तु अब शत्रु बन गया है और शिवजी से वरदान प्राप्त कर, वज्र शरीर एवं अमर हो गया है। 

उसने मेरा अनादर करते हुए अपने बायें पैर से मेरे मस्तक पर लात मारी है और अहंकार में भरकर यह कहा है कि मैं तीनों लोकों में निर्भय हूँ। हे प्रभो! उस पर विजय प्राप्त करने के निमित्त ही मैंने आपका पूजन किया है, क्योंकि आप अहंकार को नष्ट करनेवाले हैं। परन्तु, आप मुझे कृपा करके यह वरदान दीजिये कि मैं उसके ऊपर विजय प्राप्त कर सकूँ। राजा छू की इस प्रार्थना को सुनकर भगवान् विष्णु अपने मन में अत्यन्त चिन्तित होकर यह विचार करने लगे कि यदि मैं इस समय अपने भक्त को वरदान नहीं देता हूँ तो वेद का वचन मिथ्या होता है। 

इसके साथ ही यह बात भी है कि यदि मैं इसे वरदान देता हूँ तो भी वेद का वाक्य झूठा होता है; क्योंकि वेद में कहे अनुसार ब्राह्मण सदैव से निर्भय हैं। इसके साथ यह बात भी है कि मैं शिवजी का भक्त हूँ और दधीचि भी शिवजी का भक्त है। इधर राजा छू मेरा भक्त है। लेकिन, दोनों बातों में से मैं किस बात को रखूं ? शिवजी की सृष्टि मेरे द्वारा मोहित नहीं हो सकती, अतः इस सम्बन्ध में मेरी कोई भी न चल सकेगी। 

इस प्रकार विचार करने के उपरान्त भगवान् विष्णु ने छू से कहा-हे राजन्! पहिले तो तुम इस बात को अपने मन में निश्चय कर रखो कि शिवजी के भक्त को कहीं भी, किसी प्रकार का भय नहीं होता; तदुपरान्त तुम यह जानो कि हम तुम्हारे सदैव रक्षक बने रहेंगे, जिसके कारण दधीचि अपना हठ त्याग देगा। साथ ही हम तुम्हें यह भी बताये देते हैं कि हम दधीचि को किसी प्रकार शाप दिलवा देंगे।

॥ ब्राह्मण रूपधारी विष्णु की दधीचि से वर याचना ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! जब राजा छू ने विष्णुजी का यह कथन स्वीकार कर लिया, तब विष्णुजी ब्राह्मण का स्वरूप धारणकर, छलपूर्वक दधीचि के पास गये और उन्हें प्रणाम करते हुए बोले-हे ब्रह्मन्! आप मुझे एक वरदान देने की कृपा करें। अपने भक्त के मनोरथ की प्राप्ति के हेतु जब विष्णुजी ने इस प्रकार कहा, उस समय उनके तात्पर्य को जानकर दधीचि ने निर्भय होकर इस प्रकार उत्तर दिया-हे विष्णु! मैं आपको पहिचान गया हूँ। 

मेरे ऊपर शिवजी की कृपा है, अतः मैं प्रत्येक बात को भलीभाँति जान लेता हूँ। आप मेरे साथ छल करने के निमित्त ही यहाँ ब्राह्मण भेष धारण कर आये हैं। राजा छू ने आपकी सेवा की है और केवल इसीलिए की है कि वह मुझे परास्त कर सके। परन्तु, अब आपको उचित है कि आप अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट करें और अपने घर चले जयें। शिवजी की दया से मैं तीनों काल की बातें जान लेता हूँ और तीनों लोकों में कभी किसी से भयभीत नहीं होता। 

विधीचि के मुख से यह शब्द सुनकर भगवान् विष्णु ने हँसते हुए कहा-हे दधीचि! तुम सत्य कह रहे हो, क्योंकि शिवजी की कृपा प्राप्त होने के कारण सदैव निर्भय हो, परन्तु मैं दंडवत् करके तुम से यह प्रार्थना कर रहा हूँ कि तुम मेरे मनोरथ को स्वीकार कर छू के वरदान को पूर्ण करो। यह सुनकर दधीचि ने उत्तर दिया-हे विष्णु! शिवजी की कृपा प्राप्त होने के कारण मुझे अब किसी का भय नहीं है। लेकिन, आप मेरे साथ ऐसा छल न करें और अपने लोक को चले जायें।

तब विष्णुजी बोले-अरे मूर्ख! तू मेरी इस बात को क्यों नहीं मानता ? मुझसे शत्रुता रखकर कोई सुखी नहीं हो सकता। मैंने रावण आदि महान् बलशाली वीरों को भी नष्ट कर दिया है। तू मेरी अवज्ञा मत कर, अन्यथा मैं तुझे अपने चक्र से मार डालूँगा।

यह सुनकर दधीचि ने कहा-हे विष्णु! आपका कथन सत्य है और आप तीनों लोकों को जीत भी सकते हैं। आपने करोड़ों राक्षसों, दैत्यों तथा अपने शत्रुओं को मारा भी है; परन्तु आप यह ध्यान रखिये कि शिव-भक्तों के ऊपर आपका कोई वश नहीं चल सकता। उनके ऊपर आपका सुदर्शन चक्र निष्फल हो जाता है। इसके प्रमाण स्वरूप मैं आपको स्मरण दिलाये देता हूँ कि तारक के कंठ में लग कर आपका चक्र निष्फल हो गया तथा रावण का भी कुछ नहीं बिगाड़ सका। 

जिस समय आपने अपने चक्र को निष्फल होते देखकर रावण को मारने के लिए शिवजी का पूजन किया और उन्होंने प्रसन्न होकर आपको अमोध बाण तथा आज्ञा दी, तभी आप रावण पर विजय प्राप्त कर सके थे। आप यह भली-भाँति जान लें कि शिवजी की भक्ति के बिना कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता। 

हे नारद! यह सुनकर विष्णुजी ने अत्यन्त क्रोद्धित हो, अपना चक्र दधीचि के ऊपर छोड़ दिया, परन्तु दधीचि के शरीर का स्पर्श करते ही वह चक्र सर्वथा निष्फल हो गया। उस समय विष्णुजी अपनी ऐसी पराजय देखकर बहुत व्याकुल हुए। तभी दधीचि ने मुस्कराते हुए उनसे इस प्रकार कहा-हे विष्णु! आप आश्चर्य चकित न हों। मैं आपको चक्र के निष्फल हो जाने का कारण विस्तारपूर्वक समझाता हूँ। यद्यपि आपने बहुत उपायों द्वारा इस चक्र को प्राप्त किया है; परन्तु यह मुझे अपना मित्र समझकर नहीं मारता। 

आप मेरे ऊपर जिस अस्त्र का प्रयोग चाहें करें और अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर मुझे नष्ट करने का प्रयत्न करें परन्तु यह निश्चित है कि आप मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। यह सुनकर विष्णुजी अत्यन्त क्रुद्ध हुए और उन्होंने महा भयानक गर्जना की। उस घोर गर्जना को सुनकर देवता, उप-देवता तथा वैकुण्ठवासी लोगों की सेना विष्णुजी के समीप तुरन्त आ पहुँची। तब विष्णुजी उस सेना को साथ लेकर दधीचि के साथ युद्ध करने लगे।

हे नारद! विष्णुजी ने सब देवताओं के साथ मिलकर दधीचि के ऊपर अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा की। इस प्रकार धर्म के प्रतिकूल चलते हुए, सबने मिलकर एक मनुष्य को मार डालना चाहा; परन्तु उस दशा में भी दधीचि निर्भय बना रहा। उसने एक मुट्ठी कुश लेकर जैसे ही उन देवताओं की ओर छोड़े, वैसे ही वे पवित्र त्रिशूल बनकर प्रलयकाल की ज्योति के समान चारों ओर अग्नि फैलाते हुए सब को भस्म करने लगे। 

उन त्रिशूलों ने विष्णु सहित सम्पूर्ण देवताओं को नष्ट कर देना चाहा। यह दृश्य देखकर सब देवताओं ने अपने हथियार डाल दिये और उस स्थान से भाग खड़े हुए। तब विष्णुजी ने माया द्वारा अपने समान करोड़ों पार्षदों को अपने पवित्र शरीर से उत्पन्न किया, परन्तु दधीचि ने शिवजी का ध्यान धर कर, उन सब को भी भस्म कर दिया। 

अपने गणों को इस प्रकार नष्ट होते हुए देखकर विष्णुजी ने एक अत्यन्त आश्चर्यजनक चरित्र का आश्रय लिया अर्थात् उन्होंने अपना विराट स्वरूप प्रकट कर, अपने शरीर में तीनों लोकों को दिखाया ताकि दधीचि भयभीत हो जाय; परन्तु उस विराट रूप को देखकर भी दधीचि निर्भय बना रहा और बोला-हे विष्णु! आप इस प्रकार माया का प्रदर्शन न करें। 

यह सब तो केवल मन की शक्ति है। इसमें ईश्वरीय शक्ति कुछ भी नहीं है। आप चाहें तो मेरे शरीर में भी इन सब वस्तुओं को देख लें। तदुपरान्त मुझसे छल करें। यह कहकर दधीचि ने शिवजी का स्मरण किया और अपने शरीर से सम्पूर्ण जीवों को प्रकट करके दिखा दिया। यह गति देखकर सभी देवता वहाँ से चले गये, परन्तु विष्णुजी की इच्छा युद्ध करने से फिर भी विरत नहीं हुई।

हे नारद! उस समय विष्णुजी के मन की बात जानकर मैंने उन्हें समझाते हुए कहा हे विष्णुजी! आप इस प्रकार हठ क्यों कर रहे हैं। आपकी बुद्धिमत्ता और शक्ति का लोप क्यों हो गया है ? क्या आप उन शिवजी के तेज से परिचित नहीं हैं । जो क्षणभर में ही तीनों लोकों को नष्ट कर देने की सामर्थ्य रखते हैं ? मेरी बात सुनकर विष्णुजी ने युद्ध बन्द कर दिया। फिर हाथ जोड़कर, छू को आगे कर दधीचि की प्रशंसा करते हुए यह कहा-हे दधीचि! छू आपकी शरण में आया है और उसने अपने हठ को त्याग दिया है।

विष्णुजी के इस प्रकार कहने के उपरान्त छू ने भी दधीचि की स्तुति करते हुए कहा-हे मित्र! तुम मेरा अपराध क्षमा कर दो। तुम शिवजी के परम भक्त हो और तुम्हारा कथन सब प्रकार श्रेष्ठ है। आपके धन्यभाग्य हूँ कि आपके ऊपर शिवजी इस प्रकार दयालु हैं। मैं यह भली-भाँति समझ गया हूँ कि तीनों लोकों में शिवजी के समान अन्य कोई नहीं है। राजा छू के इन शब्दों को सुनकर दधीचि ने भी उसके ऊपर कृपा दिखायी। 

शिवभक्तों की यही रीति है कि जो व्यक्ति उनकी शरण में पहुँचता है, उसपर वे तब कृपा रखते हैं। परन्तु, दधीचि ने उस समय विष्णु तथा अन्य देवताओं को यह शाप दिया कि तुमलोगों ने शिवभक्तों की महिमा को नहीं समझा, इस प्रकार तुमने भगवान् सदाशिव का निरादर किया है। परन्तु, तुम सब रुद्र के क्रोध में पड़कर उनसे पराजित होगे। विष्णुजी भी अपने पार्षदों सहित इसका फल प्राप्त करेंगे। केवल ब्रह्मा ही ऐसे बचेंगे जिन्हें कोई चिन्ता और शोक नहीं होगा।

इतना कहकर राजा छू की ओर कृपापूर्ण दृष्टि से देखते हुए दधीचि ने कहा-हे छू! तुम यह स्मरण रखो कि ब्राह्मण सर्वोत्तम हैं और वे इस संसार में पूजे जाने योग्य हैं। देवताओं, राजाओं तथा सर्पों आदि से इस प्रकार कहकर, दधीचि अपने घर को चले गये। विष्णुजी भी उन्हें प्रणाम करने के उपरान्त चिन्तित मन से अपने लोक को लौट आये। 

ब्रह्माजी, विष्णु तथा सनकादि को पहले तो अपने हृदय में बहुत ही ग्लानि तथा दुःख हुआ, परन्तु जब उन्होंने अहंकार रहित होकर शुद्ध बुद्धि से यह पहिचाना कि शिवजी सबसे उत्तम हैं, तो उनका खेद नष्ट हो गया। जिस स्थान पर दधीचि के साथ देवताओं का युद्ध हुआ था, वह स्थान हरपुर तीर्थ' तथा 'स्थानेश्वर' के नाम से प्रसिद्ध है। 

उस तीर्थ की सेवा करने से सम्पूर्ण दुःख दूर हो जाते हैं। जो मनुष्य स्थानेश्वर तीर्थ में जाकर शिवजी का पूजन करता है, वह सम्पूर्ण सुखों को प्राप्त करता है। जो मनुष्य दधीचि तथा छू की यह कथा पढ़ेगा, उसके सम्पूर्ण शोक नष्ट हो जायेंगे और वह आवागमन से रहित हो जायेगा। जो मनुष्य इस कथा को सुनकर किसी युद्धक्षेत्र में ज़ायेगा, उसकी निश्चय रूप से विजय होगी अथवा वह श्रेष्ठ मृत्यु को प्राप्त कर, शिवलोक पहुँचेगा।

॥ ब्रह्मादि देवताओं का शिव जी की शरण में पहुँचना ॥

सूतजी ने कहा-हे ऋषियो! इतनी कथा सुनकर देवर्षि नारदजी पितामह ब्रह्माजी से बोले-हे पिता! दक्ष के यज्ञ विध्वन्स का वृत्तान्त मैंने सुना, अब आप कृपाकर विस्तारपूर्वक यह बताइये कि यज्ञ नष्ट हो जाने के उपरान्त क्या घटना घटित हुई। यह सुनकर ब्रह्माजी ने शिवजी के श्री चरणों का ध्यान धरने के उपरान्त उत्तर दिया-हे नारद! जब शिवजी के गणों ने यज्ञ में उपस्थित लोगों की इस प्रकार दुर्गति की तथा उन्हें लज्जित किया, उस समय सभी सभासद् उस स्थान पर आकर, जहाँ मैं तथा विष्णुजी बैठे हुए थे, रुदन करने लगे तथा विस्तारपूर्वक सब वृत्तान्त बताने लगे। 

देवताओं तथा मुनियों की उस दुर्गति को देखकर हम दोनों को बहुत दुःख हुआ। उसी समय जब सब लोगों ने 'त्राहिमाम्, त्राहिमाम्' की पुकार की, तब मैंने उन्हें समझाते हुए कहा-हे देवताओ तथा ऋषियो! तुमने शिवजी को क्रुद्ध किया है और अन्य देवताओं के समान ही उन्हें जानकर भारी अपराध भी किया है, अतः अब तुम सब लोग शिवजी के चरणों पर गिरकर प्रार्थना करो और उनसे ही अपना अपराध क्षमा कराओ। 

तीनों लोकों में ऐसा कौन है, जो शिवजी के क्रोध को सहन कर सके ? भगवान् सदाशिव रौद्र होते हुए भी, आशुतोष हैं। वे सेवा करने पर शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः तुम सब उनकी शरण में जाओ। तुम सब शिवजी के बिना यज्ञ में अपना भाग लेना चाहते थे, उसी का फल तुम्हें प्राप्त हुआ है। जो लोग शिवजी के शत्रु बनकर सुख प्राप्ति की कामना करते हैं, उनका अन्त ऐसा ही होता है। जो शिवजी क्षण भर में ही सम्पूर्ण सृष्टि को भस्म कर देने की सामर्थ्य रखते हैं, उनसे शत्रुता करके किस प्रकार सुख मिल सकता है ? 

मैं भी दधीचि के शाप के वशीभूत होकर उस यज्ञ में चला गया था। परन्तु, तुमलोग निश्चिन्त होकर शिवजी की शरण में जाओ। वे तुम्हें अवश्य ही क्षमा कर देंगे। एक बात यह भी तुम्हें समझ लेनी चाहिए कि यदि शिवजी इस यज्ञ को नष्ट नहीं करते तो मनुष्य वेद की रीति को त्यागकर, नास्तिक हो जाते। अतः उन्होंने जो कुछ किया वह उचित ही है।

इतना कहकर मैं, विष्णुजी तथा अन्य सब देवताओं के साथ कैलाश पर्वत पर जा पहुँचा। हे नारद! उस स्थान की सुन्दरता का वर्णन किस प्रकार किया जाय ? वहाँ पहुँचकर, किसी को किसी प्रकार की चिन्ता और शोक नहीं रहता। वहाँ चारों ओर सुन्दर फुलवारी लगी हुई है, जहाँ भाँति-भाँति के सुन्दर पुष्प तथा फल वृक्षों पर सुशोभित हैं। कैलाश के आगे हम सब ने कुबेर की अलकापुरी को देखा। फिर उस पवित्र वटवृक्ष को देखा, जिसके नीचे भगवान् शिवशम्भु बैठे हुए थे। 

जो लोग उन शिवजी के दर्शन प्राप्त करते हैं उनके धन्य भाग्य हैं। महाप्रभु का इतना सुन्दर स्वरूप था कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उनका शरीर अत्यन्त कान्तिमय था। उस समय वे वीरासन की मुद्रा में, कुश के आसन पर बैठे हुए थे। तब मैंने, विष्णुजी ने, दधिगुप्त ने तथा अन्य देवताओं एवं ऋषिमुनियों ने उन्हें प्रणाम करते हुए, अनेक प्रकार से स्तुति की।

॥ शिव जी का दक्ष के यज्ञ में आगमन ॥

देवताओं ने कहा-हे दीनबन्धु भगवान् सदाशिव! आप सबके रक्षक, सबके स्वामी, परबह्य तथा अप्रमेय हैं। आपकी लीला को कोई भी नहीं जानता। आपकी जो इच्छा है, वही होता है। हे प्रभो ! दक्ष प्रजापति ने अपनी मूर्खता तथा अज्ञान के कारण आपको अपने यज्ञ में नहीं बुलाया और नास्तिक बनकर आपके भक्तों का सम्मान भी नहीं किया, जिसके कारण वे सब उसे शाप देकर अपने घर को लौट गये। 

उसने आदिशक्ति का भी कोई सम्मान नहीं किया और उन्हें भस्म होने से नहीं रोका। देवताओं ने भी कोई हस्तक्षेप नहीं किया। परन्तु, सब लोग अपने-अपने किये का फल प्राप्त कर चुके हैं। हमें आपसे कुछ नहीं कहना है, क्योंकि इसमें सम्पूर्ण दोष देवताओं का ही है। हम सबने आपको भुला दिया था। 

परन्तु अब आप हमारे अपराध क्षमा कर दें और कृपादृष्टि से देखकर, हमें निर्भय बना दें। हे स्वामिन्! यदि आप इस प्रकार दण्ड न देते तो धर्म नष्ट हो जाता, आपकी अवज्ञा होती, वेद की प्रतिष्ठा कम हो जाती तथा दक्ष का अहंकार और अधिक बढ़ जाता। परन्तु, आपने जो कुछ किया, वह सर्वथा उचित है।

हे नारद! देवताओं तथा ऋषि-मुनियों द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जाने पर मैंने तथा विष्णुजी ने भगवान् सदाशिव की प्रार्थना करते हुए कहा-हे प्रभो! आपकी माया सम्पूर्ण सृष्टि को अचेत किये हुए है। आप अपनी माया के द्वारा सम्पूर्ण सृष्टि को भुलावे में डाले हैं और अपने तीनों रूपों से संसार की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करते हैं। 

हे प्रभो! इस समय हम सब आपकी शरण में आये हैं। आप हम सब पर कृपा कीजिये और हमें वरदान दीजिये, जिसके कारण दक्ष को पुनः जीवन प्राप्त हो। आप भृगुदेवता को नेत्र प्रदान कीजिये तथा भृगु ऋषि के क्लेश को दूर कीजिये। आपकी कृपा से पूषा अपने दाँतों को पुनः प्राप्त करें तथा सम्पूर्ण देवताओं के घायल शरीर भी आरोग्य प्राप्त करें। हे नाथ! आपके यज्ञशाला में चलने पर ही यह सब बात पूरी होगी। हम यह प्रण करते हैं कि भविष्य में आपके बिना कोई भी यज्ञ न होगा।

हे नारद! हमलोगों की इस प्रकार स्तुति सुनकर भगवान् सदाशिव अत्यन्त प्रसन्न हुए और मुस्कुराते हुए बोले-हे देवताओ! हम कभी क्रोध नहीं करते तथा कल्पवृक्ष के समान सबको सुख प्राप्त कराते हैं। तुम यह निश्चय जानो कि जो प्राणी जैसा कर्म करता है, उसे वैसा फल अवश्य मिलता है; क्योंकि सांसारिक प्राणी माया में फंसकर सार वस्तु के सच्चे ज्ञान को भुला बैठते हैं। 

दक्ष ने जो कुछ किया, उसका फल उसे प्राप्त हो गया। अब हम यह वरदान देते हैं कि दक्ष बकरे का मुख पाकर जीवित हो जायेंगे, भृगु मित्र के नेत्रों से देखेंगे, पूषा यजमान के दाँतों से भोजन करेंगे तथा सभी देवताओं के शरीर स्वस्थ हो जायेंगे। इतना कहकर शिवजी मौन हो गये। उस समय सब देवता प्रसन्न होकर जय-जयकार करने लगे, तथा यह कहने लगे कि हे प्रभो! आप अब यज्ञ में अवश्य चलें; क्योंकि आपके बिना यज्ञ पूर्ण न होगा। आप कृपा कर अपने भाग को स्वीकार कीजिये। 

इस प्रकार देवताओं ने जब प्रार्थना की तो शिवजी ने प्रसन्न होकर यज्ञ में चलना स्वीकार कर लिया। उस समय सब को अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ। जिस समय शिवजी यज्ञस्थल की ओर चले, उस समय की शोभा यह थी कि कोई देवता शिवजी पर चँवर डुलाता था, कोई छत्र लिये चल रहा था और कोई उनकी महिमा का वर्णन कर रहा था।

॥ शिव जी द्वारा दक्ष को जीवन दान ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! इस प्रकार मैं, विष्णुजी तथा अन्य सभी देवता जिस समय शिवजी के साथ चलते हुए दक्ष के यज्ञ-मंडप में जा पहुँचे, उस समय दक्ष के पारिवारिक जनों को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। तदुपरान्त शिवजी की आज्ञानुसार प्रत्येक कार्य किया गया। जब दक्ष के शरीर में यज्ञपशु (बकरे ) का सिर लगाया गया तो वह जीवित होकर इस प्रकार उठ खड़ा हुआ, मानो अभी तक निद्रा में सो रहा हो। 

शिवजी के दर्शन प्राप्त कर उसे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उस समय वह प्रेम में भरकर बकरे की जिह्वा से शिवजी की स्तुति करने लगा। हाद्रिक प्रेम का सम्मिश्रण होने के कारण यह स्तुति परम पुनीत एवं सुन्दर थी। दक्ष ने कहा-हे प्रभो! आपके आदि और अन्त को कोई नहीं जान पाता है। इसीलिए आपने मुझे दण्ड देकर ब्रह्मज्ञान कराया, यह आपकी मुझ पर अत्यन्त कृपा है। मैंने अपने अज्ञान तथा मूर्खता के वशीभूत होकर आपको नहीं पहिचाना और आपकी बहुत निन्दा की, आप कृपापूर्वक मुझे अपनी भक्ति का वर प्रदान करें।

दक्ष की स्तुति के उपरान्त विष्णुजी ने कहा-हे प्रभो! आपका यश अमृत के समुद्र के समान शुद्ध, शीतल एवं फलदायक है। उस समुद्र में हमारा मन हाथी के समान चिन्ता में जला हुआ, जिस समय बैठता है, उस समय उसे बाहर निकलने की इच्छा नहीं होती। आप दया करके हमारे अपराधों को क्षमा करें।

ब्रह्माजी ने कहा-हे नाथ! संपूर्ण सृष्टि मुझे बुरा कहती है, परन्तु आपका उपासक होने के कारण मैं किसी की बातों पर ध्यान नहीं देता। ऋत्विज् ने प्रार्थना की-हे प्रभो! हम आपको न पहचान पाने के कारण शोक और चिन्ता आदि में पड़े हुए हैं। आपका तेज और प्रकाश अत्यन्त सुन्दर है। अतः हम आपको सहस्त्रों बार प्रणाम करते हैं। इसी प्रकार इन्द्र, वरुण, कुबेर, अग्नि आदि देवता, गन्धर्व, अप्सरा, ब्राह्मण, यजमान, विद्याधर, योगी, यती, ऋषि-मुनि आदि सभी ने शिवजी की अलग-अलग प्रार्थना करते हुए यह माँग की कि हे प्रभो! आप हमारे अपराधों को क्षमा कर दें। आप सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी, सब को उत्पन्न करनेवाले, सबका पालन करनेवाले तथा सबका नाश करनेवाले हैं। आप हमारे दोषों पर विचार न करते हुए, हमें अभयदान दें।

॥ भगवान् सदाशिव का सब लोगों को उपदेश ॥

ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! तुम इस बात को सत्य समझो कि शिवजी के चरणों का पूजन किये बिना, करोड़ों जन्मों तक भटकते रहने पर भी दुःख दूर नहीं होता। जो बुद्धि बाद में प्राप्त होती है, वह यदि पहिले ही प्राप्त हो जाय तो किसी को कष्ट न भोगना पड़े। अब मैं शिवजी की अन्य लीलाओं को कहता हूँ उन्हें सुनो। 

भगवान् सदाशिव ने जब सबलोगों द्वारा की गयी स्तुति एवं प्रार्थना को सुना तो उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई। उस समय उन्होंने मुस्कुराते हुए इस प्रकार कहा-हे देवताओ! दक्ष ने बकरे की जिह्वा होने के कारण गलबल के रूप में जो उत्तम स्तुति की है, उसी प्रकार जो मनुष्य हमारी प्रार्थना करेगा, उसे सम्पूर्ण ऋद्धि-सिद्धियों की प्राप्ति होगी। 

हे सभासदो! हम, ब्रह्मा तथा विष्णु संसार को मुक्ति-भुक्ति प्रदान करनेवाले, परब्रह्म परमेश्वर हैं। हम तीनों गुणों से परे हैं। सच्चिदानन्द रूप ब्रह्म केवल हमी हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा अन्य सब जीव हमारे ही स्वरूप हैं। वेदों का कहना भी यही है, जो अज्ञानी जीव उसमें भेद समझते हैं उन्हें कष्ट उठाना पड़ता है। जो मनुष्य हम तीनों देवताओं को अन्य प्राणियों के समान ही विचारता है और उनमें किसी प्रकार का भेद नहीं मानता, वह उच्च पद को प्राप्त होता है। जो हम तीनों को भिन्न-भिन्न करके देखता है, वह सहस्त्रों युगों तक शोक में डूबा रहता है। 

इससे सबलोगों को उचित है कि वे श्रेष्ठ बुद्धि का आश्रय ग्रहणकर, सब देवताओं तथा मुनियों की सेवा किया करें। ब्रह्मा के पूजन के बिना विष्णु का पूजन व्यर्थ है और विष्णु की सेवा किये बिना मैं कभी प्रसन्न नहीं होता, इस बात को भली-भाँति जान लेना चाहिए।

इस प्रकार शिवजी ने सब को सम्बोधित करने के उपरान्त भृगु ऋषि की ओर देखते हुए कहा-हे भृगु! तुम जो चाहते हो, वही होगा। संसार में जो व्यक्ति विष्णु अथवा हम में भेद मानेगा अथवा विष्णु का भक्त होकर हमारी निंदा करेगा अथवा हमारा सेवक बनकर विष्णु की बुराई करेगा, वह अवश्य ही नरक को प्राप्त होगा। हम दोनों में भेद रखनेवाला मनुष्य तत्त्वज्ञान से हीन कहा जाता है।

इस प्रकार के वचन कहकर जब शिवजी ने शापोद्धार का वरदान दिया, तो सब लोग अत्यन्त प्रसन्न हो गये। दक्ष भी अपने परिवार सहित प्रसन्न हो, आनन्द में डूब गया। उस समय सब ओर से 'जय हर-हर' की ध्वनि सुनायी देने लगी और सबलोग भगवान् सदाशिव की स्तुति-प्रशंसा करने लगे।

इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! जो व्यक्ति शिवजी की जिस भावना से स्तुति करता है, उसकी अभिलाषा को भगवान् सदाशिव अवश्य पूरा करते हैं। यह बात सब लोकों में प्रसिद्ध है कि भगवान् शिव की प्रशंसा से सम्पूर्ण सुखों की प्राप्ति होती है। वेद और पुराणों का यह कथन है कि शिवजी के विरोधी को कभी भी मुक्ति प्राप्त नहीं होती। 

इस घटना के पश्चात् शिवजी ने दक्षप्रजापति को सम्बोधित करते हुए यों कहा-हे दक्ष! अब तुम यज्ञ फिर से प्रारम्भ करो। हमारी प्रसन्नता द्वारा पूर्णता को प्राप्त होगा। शिवजी के मुख से यह वचन सुनकर सबलोग आनन्दमग्न हो गये। तदुपरान्त एक नवीन विशाल मण्डप का निर्माण किया गया। भगवान् शिवशंकर की आज्ञानुसार ऋषि-मुनियों ने पुनः यज्ञ आरम्भ कराया। दक्ष ने भी सब देवताओं सहित श्री शिवजी को यज्ञ का भाग दिया और उन्हें सबसे श्रेष्ठ तथा सबसे बड़ा स्वीकार किया। 

ब्राह्मणों को यथायोग्य दान देने के उपरान्त दक्ष प्रजापति ने यज्ञ समाप्त हो जाने पर, अपनी पत्नियों सहित नदी में स्नान किया। इस प्रकार भगवान् सदाशिव ने दक्ष के यज्ञ को पूर्ण करवाकर, सबको आनन्द प्रदान किया। तब सब देवता तथा ऋषि-मुनि श्री शिवजी की स्तुति, एवं प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घर को चले गये। मैं तथा विष्णुजी भी अपने-अपने लोक में लौट आये। 

भगवान शिवशंकर को दक्षप्रजापति ने यह कह कर वहीं रोक लिया कि, हे प्रभो! आप कुछ समय तक यहीं निवास कर हमें अपनी सेवा करने को सौभाग्य प्रदान करें। शिवजी ने भी दक्ष को अपना भक्त जानकर, उसकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। कुछ दिनों तक वहीं निवास करने के पश्चात् शिवजी अपने गणों सहित कैलाश पर्वत पर लौट गये।

हे नारद! यद्यपि शिवजी प्रसन्न होकर लौटे, परन्तु सती के वियोग का दुःख उनके हृदय से नहीं गया। वे अनेक कथाओं का वर्णन करते हुए, संसारी जीवों के समान चरित्र दिखाते हुए समय व्यतीत करने लगे। हे पुत्र! भगवान् शिव अनादि और अनन्त हैं। उन्हें किसी प्रकार भी दुःख कैसे हो सकता है ? परन्तु यह सब उनकी माया का ही प्रभाव है, उस माया के भेद को हमलोग नहीं जान पाते और सहस्त्रों युक्तियों द्वारा शिवजी की महिमा को नहीं समझ पाते हैं। 

वे परब्रह्म परमेश्वर हैं और माया उनकी दासी है। वेद का कहना है कि भगवान् शिव की महिमा का वर्णन किया ही नहीं जा सकता और सरस्वती सब कुछ वर्णन करने के उपरान्त भी यह कहती है कि मैं भगवान् शिवशंकर की महिमा का वर्णन करने में सर्वथा असमर्थ हूँ। विष्णुजी प्रतिदिन भगवान् शिव की सेवा करते रहते हैं और अपने हृदय में उनका भय माना करते हैं। 

उनके समान दीनों का रक्षक और कौन है ? वे अपने भक्तों के मनोरथ को सब प्रकार से पूर्ण करते हैं। वे अपने भक्तों के निमित्त अनेक प्रकार के दुःख भी उठाते हैं; परन्तु स्वयं किसी को दुःख नहीं पहुँचाते। उनकी सहायता से ही मैं सृष्टिं को उत्पन्न करता हूँ तथा उनकी आज्ञा पाकर ही विष्णुजी सृष्टि का पालन करते हैं। उन निर्गुण रूप परमप्रभु शिवजी को मेरा कोटिशः प्रणाम है।

॥ सती की मृत्यु पर शिव जी का विलाप ॥

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! मैंने दक्ष यज्ञ विध्वंस का सम्पूर्ण वृत्तान्त तथा अहंकार को नष्ट करने वाले शिव-चरित्रों का तत्त्वज्ञान तुम्हें सुना दिया। अब तुम जो चाहो, वह पूछ लो। यह सुनकर देवर्षि नारदजी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर ब्रह्माजी की स्तुति एवं प्रशंसा करते हुए नम्रतापूर्वक कहा-हे पिता! अब आप यह बताइये कि जब शिवजी कैलाश पर्वत पर लौट गये, उसके पश्चात् क्या हुआ? 

ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जिस स्थान पर सती ने अपना शरीर त्याग किया था, उस स्थान पर एक परम प्रकाशवान् ज्योतिपुंज का उदय हुआ। वह ज्योतिपुंज पश्चिम दिशा की ओर एक देश में गिर गया। तब उस ज्योतिपुंज का नाम 'ज्वाला भवानी' हुआ। उसकी सेवा करने से सम्पूर्ण मनोरथों की प्राप्ति होती है। उसको "ज्वाला देवी" भी कहा जाता है। कल्पभेद के अनुसार सती के अन्य अंग भी प्रकट हुए हैं। वे जहाँ-जहाँ गिरे, उन स्थानों की महिमा अलग-अलग है।

सूतजी बोले-हे ऋषियो! यह वृत्तान्त सुनकर नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा-हे पिता! अब आप कल्पभेद से सती के सम्पूर्ण चरित्रों का वर्णन करें और यह बतायें कि उनके द्वारा किन-किन देवियों की उत्पत्ति हुई है ? यह सुनकर ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! अब तुम कल्पभेद के अनुसार सती के चरित्रों को सुनो। एक कल्प की कथा यह है कि जब सतीजी ने दक्ष के यज्ञ में पहुँचकर अपना अपमान तथा शिवजी के निरादर को देखा तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुईं। 

उन्होंने अपनी माता के पास पहुँच कर, उन्हें बहुत समझाते हुए कहा-हे माता! इस यज्ञस्थल में बहुत दुःखदायी निन्द्य कर्म हुआ है। मैं अब अवश्य ही अपने प्राणों को त्याग दूँगी, जिसके कारण सबलोगों को बहुत दुःख उठाना पड़ेगा। मेरी मृत्यु के पश्चात् शिवजी के गण बहुत उपद्रव मचायेंगे और कोई भी व्यक्ति बिना दण्ड पाये नहीं बचेगा। तदुपरान्त शिवजी भी मेरे वियोग में बहुत दुःखी होकर तीनों लोकों में भ्रमण करेंगे।

हे नारद! इस प्रकार की भविष्यवाणी कर, सती ने उस स्थान से चला जाना चाहा, परन्तु उनकी माता तथा बहिनों ने उन्हें रोक लिया। उस समय सतीजी योग धारण कर, अन्तार्धान हो गयीं और गंगातट पर पहुँचकर स्नान करने के उपरान्त नवीन वस्त्रों को धारण कर, गन्धमादन पर्वत पर जा पहुँची। वहाँ उन्होंने सर्वप्रथम शिवजी की पूजा की, तदुपरान्त श्वास को ब्रह्माण्ड पर चढ़ाकर, शरीर को त्याग, परब्रह्म की ज्योति में लीन हो गयीं। 

उस समय तीनों लोकों में भारी हाहाकार मच गया और एक ऐसा शब्द उत्पन्न हुआ, जिसके कारण दैत्यों के घर नष्ट हो गये और देवता अत्यन्त दुःखी हुए। सतीजी के साथ जो गण यज्ञमंडप में गये थे, वे भी अत्यन्त दुःखी हुए। उनमें से कुछ तो आत्मघात करके मर गये और कुछ विभिन्न प्रकार के उपद्रव करने लगे। यह देखकर भृगु ऋषि ने अपनी मन्त्र-शक्ति द्वारा यज्ञ की रक्षा की। 

उस समय शिव-गणों ने भगवान् सदाशिव के समीप पहुँचकर सब वृत्तान्त उन्हें कह सुनाया और उनसे अपनी रक्षा की प्रार्थना की। उस समाचार को सुनकर शिवजी ने अत्यन्त क्रोधित हो, अपनी जटा को उखाड़ा और उसके द्वारा अनेक गणों को उत्पन किया। गणों की उस असंख्य सेना ने दक्ष के यज्ञ मंडप पर धावा बोल दिया और यज्ञ को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। सभी सभासदों को पूरा दंड देने के उपरान्त जब वे शिवजी के पास पहुँचे, उस समय शिवजी का क्रोध तो अवश्य कुछ कम हो गया, परन्तु सती का वियोग सहन करने में वे असमर्थ ही रहे। 

उसी दुःख में व्याकुल होकर वे अपने गणों को साथ ले गंगातट पर जा पहुँचे और। और जिस स्थान पर सती ने अपना शरीर त्यागा था, उस स्थान पर पहुँच कर, वहाँ सती के शरीर को पड़ा देख मूर्छित तथा मोहित हो गये। कुछ देर पश्चात् जब उन्हें चेत हुआ तो वही सती का शरीर ऐसा दिखायी दिया, मानो कोई श्रेष्ठ कमल खिला हुआ हो। उस स्वरूप को देखकर शिवजी फिर मूर्छित हो गये। इसी का आश्रय लेकर उन्होंने यह भी प्रदर्शित कर दिया कि मोह सब दुःखों का मूल है।

इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! तुम इस सम्बन्ध में कोई सन्देह मत करना। शिवजी की लीला अत्यन्त विचित्र है। कुछ देर पश्चात् जब शिवजी को चैतन्यता प्राप्त हुई, तब वे अपने को निपट अभागा अनुमान कर अधीर और निर्बल हो गये तथा किसी भी प्रकार सन्तोष धारण न करके, जोर-जोर से रोने-चिल्लाने लगे।

हे प्राणप्रिये! तुम्हारे तिरछे नेत्रों को देखे बिना मुझे बेचैनी हो रही है। भला, तुम इतनी निष्ठुर कैसे हो गयीं कि मुझ से बोलती तक नहीं हो ? इस प्रकार कहते हुए शिवजी ने सतीजी के मृत शरीर को अपने हाथ से उठाकर हृदय से लगा लिया। तदुपरान्त उसे बार-बार कंठ से लगाकर, चूमने लगे। इस प्रकार अपने प्रेम को प्रदर्शित करते हुए, वे फिर मूर्छित हो गये। 

कुछ देर बाद जब उन्हें चैतन्यता प्राप्त हुई, तब वे सती के मृत शरीर को अपने कन्धे पर लादकर, घोर दुःख उठाते हुए, चारों ओर भ्रमण करने लगे। उन्होंने सम्पूर्ण देश, पर्वत, द्वीप, समुद्र, वन, लोकालोक, सप्तशृंग पर्वत आदि सम्पूर्ण पृथ्वी का भ्रमण किया। तदुपरान्त वे भरतखण्ड में आकर देव नदी के तट पर खड़े हो गये। उस स्थान पर एक बरगद का बहुत बड़ा तथा श्रेष्ठ वृक्ष था। 

वहीं दौड़-दौड़ कर शिवजी ने रुदन करना आरम्भ कर दिया। साथ ही 'हे सती, हे प्रिये' आदि अनेकों नाम ले-ले कर, बे सती को पुकारने लगे। उस समय उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह चली।

हे नारद! जिस स्थान पर भगवान् सदाशिव के आँसू गिरे, वह स्थान 'नेत्र सरोवर' नामक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। उस तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को अपने सम्पूर्ण मनोरथों की प्राप्ति होती है। वह स्थान तपस्वियों के लिए श्रेष्ठ तपोभूमि है। उस तीर्थ पर स्नान करने से सम्पूर्ण पांप नष्ट हो जाते हैं। उस सरोवर की लम्बाई का प्रमाण दो योजन है। वहाँ कुछ समय ठहरने के पश्चात् शिवजी फिर आगे चल दिये। मार्ग में चलते हुए जिन-जिन स्थानों पर सती के मृत शरीर का कोई अंग पृथक् होकर गिर पड़ा। वे स्थान 'सिद्धपीठ' के नाम से प्रसिद्ध हुए। 

उन सिद्धपीठ स्थानों की पूजा करने से सम्पूर्ण मनोरथों की प्राप्ति होती है। उक्त स्थानों पर भगवती महामाया अपनी सम्पूर्ण कलाओं सहित निवास कर, अपने भक्तों को सर्वस्व प्रदान करती हैं। इस प्रकार लीला करने के उपरान्त शिवजी एक स्थान पर जाकर बैठ गये। सती के मृत-शरीर का जो भाग शेष रह गया था, वहाँ उन्होंने उसका दाह-संस्कार किया। 

तदुपरान्त उनकी हड्डियों को एकत्रित करके कर एक माला बनायी, जिसे उन्होंने अपने कंठ में धारण कर लिया। फिर चिता की भस्म को अपने शरीर पर मलकर, वे उसी स्थान पर बैठ गये और 'प्राणेश्वरी, भवानी' आदि नामों द्वारा सती का स्मरण करते हुए रो-रो कर व्याकुल होने लगे। 

उन्होंने परब्रह्म होते हुए भी ऐसी लीलाओं द्वारा सबको मोहित कर लिया। हे पुत्र! भगवान् सदाशिव के इस चरित्र को पढ़ने तथा सुनने से भी मुक्ति की प्राप्ति होती है।

॥ सती के अंगों द्वारा सिद्धपीठों के प्राकट्य का वर्णन ॥

इतनी कथा सुनाकर पौराणिक सूतजी ने कहा-हे शौनकादि ऋषियो! सिद्धपीठ के इस वृत्तान्त को सुनकर देवर्षि नारदजी ने ब्रह्माजी से कहा-हे पिता! सती के अंगों द्वारा जिन-जिन स्थानो पर जो-जो पीठ उत्पन्न हुए, अब उनके सम्बन्ध में मुझे बताने की कृपा करें।

यह सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे पुत्र! सिद्धपीठों का सम्पूर्ण वृत्तान्त मैं तुम्हें सुनाता है। तुम ध्यान देकर सुनो। देवपुर नामक परम रमणीक पर्वत पर सतीजी के दोनों चरण गिरे, उस स्थान पर 'महाभागा देवी' प्रकट हुईं। वहाँ शिवलिंग भी विराजमान हैं। औद्यानि देश में सतीजी के दोनों नितम्ब गिरे, वहाँ 'कात्यायनी' सिद्धपीठ प्रकट हुआ। वहाँ भी शिवलिंग विराजमान है। मैंने, विष्णुजी ने तथा सम्पूर्ण सृष्टि ने उस स्थान की पूजा की। 

कामशैल पर्वत पर सतीजी की योनि गिरी, वहाँ 'कामाक्षा' नामक देवी की उत्पत्ति हुई। उन्हें 'कामरूपा' भी कही जाता है। हम सबलोगों ने उस सिद्धपीठ की पूजा करके अपने मनोरथों को प्राप्त किया। सतीजी की अग्नि द्वारा पूर्णशैल पर्वत पर 'पुर्णेश्वरी भवानी' शिवलिंग सहित प्रकट हुईं। जलन्धर नामक पर्वत पर सती के कुच गिरे, जिससे वहाँ चण्डी नामक देवी का सिद्धपीठ प्रकट हुआ। 

गंगाजी के तट पर भी सतीजी का एक अंग कट कर गिरा। जिससे उस स्थान पर 'वागीश्वरी देवी, का आविर्भाव हुआ। इसी प्रकार सतीजी के अंग प्रत्यंगों के गिरने पर बहुत से सिद्धपीठ प्रकट हुए। उन सभी स्थानों पर शिवलिंग भी स्थापित हुए हैं। मैंने, विष्णुजी ने तथा अन्य सभी देवताओं ने उन सिद्धपीठों का पूजनकर, सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त किया है। जो व्यक्ति इन सिद्धपीठों की पूजा करता है, उसकी सभी अभिलाषाएँ पूरी होती हैं।

हे नारद! शिवजी ने सांसारिक मनुष्यों के विशेष उपकार के लिए यह लीलाएँ की हैं, क्योंकि वे अपने भक्तों को भुक्ति-मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। शिवजी तथा भवानी सम्पूर्ण सृष्टि के माता-पिता हैं। तीनों लोकों में उनकी समता का कोई स्त्री-पुरुष नहीं हैं। वे दोनों लोक-परलोक का सुख प्रदान करनेवाले हैं और तीनों लोकों में सबसे बड़े हैं। इस प्रकृति का मूल जगदम्बा सती द्वारा ही है। 

मैं तथा विष्णुजी आदि सब देवता उन्हीं भवानी के सेवक हैं। शिवजी साक्षात् परब्रह्म, निर्गुण सगुण तथा अप्रमेय हैं। शिव तथा भवानी की सेवा करनेवाले मनुष्य भवसागर से पार हो जाते हैं।

हे नारद! दक्ष के यज्ञ में शरीर त्यागने के पश्चात् सतीजी ने पर्वतराज हिमाचल के घर, उनकी मैना नामक पत्नी के गर्भ से जन्म लिया। वहाँ उन्होंने अनेक प्रकार की श्रेष्ठ लीलाएँ करके अपने माता-पिता को बहुत आनन्द दिया तथा उनकी आज्ञा लेकर शिवजी की तपस्या की। फिर शिवजी के साथ ही उनका विवाह हुआ। उन्होंने शिवजी की अर्द्धांगिनी होकर देवताओं के सम्पूर्ण दुःख दूर किये। फिर शिवजी की उपासना करके अपने शरीर का रंग गौर कर लिया ।

हे नारद! शिव और शक्ति अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें सब प्रकार के आनन्द प्रदान करते हैं। वे सम्पर्ण सृष्टि के माता-पिता हैं और उनसे बाहर कोई भी नहीं है। जब प्राणी के हृदय में यह बुद्धि उत्पन्न हो जाती है और इस बात का भली-भाँति ज्ञान हो जाता है कि शिव और शक्ति ही सृष्टि के मूल कारण हैं, तब वह सासांरिक बन्धनों से मुक्त होकर, परमपद को प्राप्त कर लेता है। 

मैं उन्हीं की कृपा प्राप्त करके सृष्टि को उत्पन्न करता हूँ और उन्हीं की शक्ति पाकर विष्णुजी संसार का पालन करते हैं। उन शिव और शक्ति को मैं, विष्णुजी तथा सनकादिक भी भली-भाँति नहीं जान सके हैं। केवल अपनी बुद्धि के अनुसार ही हम उनकी महिमा का थोड़ा-बहुत वर्णन कर लिया करते हैं।

हे नारद! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार शिव-सती के चरित्र को कहा है। इसी प्रकार अन्य सभी लोग भी अपनी बुद्धि के अनुसार चरित्र का वर्णन करते हैं, अन्त में दीन होकर पार नहीं पाते। भगवान् सदाशिव एवं भगवती सती का यह चरित्र परम पवित्र तथा आनन्द बढ़ानेवाला है। इसको सुनने से कीर्ति तथा आयु की बुद्धि होती है। 

यह चरित्र सम्पूर्ण पापों को नष्ट करनेवाला तथा शत्रुओं पर विजय प्राप्त करानेवाला है। शिव और सती का यह चरित्र जो स्वयं पढ़ता है अथवा दूसरों को सुनाता है, वह अपने कुल सहित समस्त विपत्तियों से छूट जाता है और इस संसार में अनेक प्रकार के आनन्द का उपभोग करने के पश्चात् अन्त में शिवलोक को प्राप्त होता है। हे नारद! मैंने तुमसे यह सब चरित्र कहा। अब तुम और जो सुनना चाहते हो, उसे बताओ।


इति श्री शिवपुराणे श्री शिवविलासे उत्तरखंडे भाषायां ब्रह्मा-नारद सम्वादे द्वितीयो खण्ड समाप्तम् ॥ 2॥