साधना क्या है ?



ऐन्द्रिय स्तर से ऊपर उठकर

"यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह"वाले इन्द्रियातीत परमपद की यात्रा करना ही साधना हैं आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो भी आध्यात्मिक यात्रा की जाती हैं वहीं साधना है 'स्वर्ग' प्राप्त करना है तो पहले आपके हृदय में स्वर्ग रहना चाहिए क्योंकि तभी स्वर्ग प्राप्त हो सकता है

"Bible" में ठीक ही कहा गया है---

Heaven will be inherited by every man who has heaven in his soul

ऋषि भी कहते हैं---"शिवो भूत्वा शिवं भजेत्"

यही साधना का सिद्धांत है

सांसारिक प्राण,सांसारिक मन,सांसारिक शरीर, एवं सांसारिक हृदय भगवान की साधना का अधिकारी नहीं है जब 'शिव' शव बनता है तभी उसके वक्षस्थल पर 'शक्ति' का पदार्पण हो पाता है साधना 'साध्य' को प्राप्त करने की तैयारी है---तीर्थ तक पहुंचने की एक यात्रा है या 'उसके' आने के लिए तुम्हारे द्वारा पथ निर्माण है क्योंकि इसीलिए कहा गया है कि

' prepare the way of the lord make his path straight '

इस साधना के कुछ सिद्धांत है इस यात्रा के कुछ नियम हैं इसका प्रथम सिद्धांत है एकनिष्ठता

No one can serve two masters for either he will hate the one and love the other or he will be devoted to the one and dispire the other you can not serve god and mammon

इसका दूसरा सिद्धांत है---अटल प्रेम इसीलिए कहा गया है

You shall love the lord your god with all your heart and with all your soul and with all your mind this is the great and first commandment

"Bible"के मतानुसार इसका दूसरा सिद्धांत है पड़ोसियों से प्रेम

Second is like it you shall love your neighbour as your self

इस सूत्र में अहम्-त्वाम् की भेदक भावना को नष्ट करके समत्व दृष्टि के विकास की ओर उत्प्रेरित किया गया है भैतिक और शारीरिक आवश्यकताओं की गुलामी पर भी अंकुश आवश्यक है इसीलिए कहा गया है

I tell you do not be anxious about your life what you shall eat or what you shall drink nor about your body what you shall put on is not life more then food and the body more than clothing?

यह भी विश्वास करना आवश्यक है कि जो कुछ भी तुम करते हो परमात्मा सब कुछ देख रहा है अपने लिए जो भी भलाइ पहले से भेज दोगे उसे परमात्मा के यहां अवाश्य पाओगे

अपनी प्रार्थना शक्ति में भी अपना पूर्ण विश्वास होना चाहिए

I tell you whatever you ask in prayer belive you have received it and it will be yours


साधना में ऐकात्म्य तत्त्व---

एकनिष्ठता, एकीभाव,ताद्रूप्य,तदात्मकता,

'तत्' में 'त्वं' का लय ही ऐकात्म्य की भावना है

ईसाई धर्म की मान्यता---

ईसाई धर्म 'अद्वैतवाद' का समर्थन एवं 'सायुज्यमुक्ति' का प्रतिपादक तो नहीं है तथापि 

ईसामसीह कहते हैं 

I and my father are one

सेण्टपाल कहते हैं

''01.'' In live and yet no longer I but christ live in me

''02.'' and that life which I now live in the flesh I live in faith the faith which is in the son of God who loved me and gave himself

पतङ्गा दीपक को देखकर सब कुछ यहां तक कि अपने को भी भूल जाता है 'क्या देखते नहीं कि दीपक और पतङ्गे में कितना प्रेम है ? पतङ्गा सदैव उसी के प्रणय में भावविभोर रहता है। वह कभी दूसरे का ध्यान नहीं करता'

न बीनी कि परवानऒ शमा हरगिज़ ।

कि बर बातिनाश खीरा गरदद बिदादे ।।


सारे द्वैताभासों में अद्वैत (अभेद ) की प्रतीति

अनन्त भेदों एवं द्वैतभावो‌ से भरे जगत् में साधक भेद में अभेद की खोज करता है तुलसीदास जी के शब्दों में वह अभेदात्मकता इस प्रकार है

सियाराम मय सब जग जानी ।

करउं प्रणाम जोरि जुग पानी ।।

एक सूफी को मन्दिर और काबा, मस्जिद एवं गिर्जा, तसबीह और माला सबमें एक ही दृष्टिगत है दूसरा कोई दिखाई नहीं पड़ता---

बुतखानआ काबाखानए बन्दगी अस्त

नाकस जदन तरानए बन्दगी अस्त

मेहराबो कलीसाओ। तसबीहो सलीब

हक्क कि हमा निशानए बन्दगी अस्त 

अर्थात मन्दिर और काबा दोनों ईश्वर की पूजा के स्थान है शङ्ख बजाना उसी का आह्वान या आजान है मस्जिद की मेहराब और गिर्जा की वेदी तसबीह और माला सभी में एक ही सत्य स्थित हैं ये सभी उसी एक ही पूजा की स्मृतियां हैं

इस ऐकात्म्यभाव के लिए दो के एक हो जाने के लिए केवल एक बात आवश्यक है और वह हैं

अपनी पृथक् पहचान एवं अपने पृथक् अस्तित्व को भुलाकर दूसरे के अस्तित्व में अपने को लय कर देना

शवज खुद बारी गर्दतावर हकीकत

तुरा बे तो हासिल शवद इनहिदादे

अर्थात अपने आपको विस्मृत कर दो हकीकत (ईश्वरीय यार्थाथ्य- सत्यता) तक पहुंचने का यही मार्ग है इस उपाय से आप अपने आपको भी दूर कर सकत हों 


मिटा दे अपनी हस्ती को अगर तू मर्तबा चाहे ।

कि दाना खाक में मिलकर गुले गुलजार होता है ।‌।

इसलिए Lord christ ने Bible में कहा था TAKE MY CROSS

शास्त्र कहता है AND FOLLOW ME

क्रौस लेना ही अपने मैं को मिटाना है

देवो भूत्वा यजेद्देवं ना देवो देवमर्चयेत्

कहकर देवतादात्म्य को ही देवतात्व का पर्याय स्वीकार किया गया है ।

परमात्मा की इस प्रतिज्ञा एवं वचन पर पूर्ण विश्वास करना चाहिए कि मैं तो तेरे पास हूं

जब कभी कोई मुझे पुकारता है तो मैं प्रत्येक पुकारने वाले की प्रार्थना स्वीकार कर लेता हूं


जो मांस के पिण्ड से जन्म लेता है वह तब तक मांस का पिण्ड ही बना रहता है जब तक कि आध्यात्मिक जन्म लेकर आत्मा के राज्य में प्रवेश नहीं कर लेता आध्यात्मिक लोग मेंं प्रवेश करने के लिए एक नया जन्म लेना ही पड़ेगा

इसलिए हिन्दू शास्त्र द्विजत्व में विश्वास रखता है क्योंकि---

You must be born a new truly truly I say to you unless one is born of water and the spirit he can not enter the kingdom of god that which is born of the flesh is flesh and that which is born of the spirit is spirit.

भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में युक्ताहार,युक्त विहार, युक्तचेष्टा,युक्तस्वप्नावबोध को भी योगसाधनार्थ आवश्यक माना है ।

युक्ताहार विहारस्य युक्ताचेष्टस्य कर्मसु ।

युक्तस्वप्नाव बोधस्य योगो भवति दुःखहा।।


योग साधना हेतु उचित स्थान निर्धारण

'अमनस्क योग' में इस दिशा में यह निर्देश दिया है कि---

विविक्तदेशे सुखसन्निविष्ट: समासने किञ्चिदुपेत्य पश्चात् ।

बाहुप्रमाणं स्थिरदृक् स्थिराङ्गश्र्चिन्ता वि हीनोअ्भ्यसनं कुरुष्व ।।

।एवमभ्यसतो योगं मनो भवति सुस्थिरम्।

अर्थात्

०१. एकान्त स्थान हो

०२. सुखपूर्वक आसन ग्रहण करके स्थिर हो जाते

०३. एक हाथ की दूरी पर दृष्टि को स्थिर रखें

०४. शरीर के प्रत्येक अङ्ग स्थिर हो

०५. साधना के समय चिन्ता से रहित मनोवृत्ति हो । उसके बाद ही योग साधना करें



भगवान् पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए उसके इस कथन पर विश्वास होना चाहिए कि---

नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदयेश ने च ।

मद्भक्ता यंत्र गायन्ति यंत्र तिष्ठामि नारद ।।


साधक में इतनी तन्मयता एवं ऐकात्म्यभाव की प्रगाढ़ता होनी चाहिए कि वह यह अनुभव कर सके कि ---



अहं देवी न चान्योअ्स्मि ब्रह्मैवाहं न शोकभाक् ।

सच्चिदानन्द रूपोअ्हम नित्यमुक्त स्वभाववान् ।।

जब अक्षर पर क्षर ( perishable or imperishable ) एवं अमत्र्य पर मत्र्य 

( Mortal on immortal ) आरोहण ( पद- विक्षेप ) करता है तब वह मृत्युञ्जयत्व प्राप्त करके मृत्यु को चुनौती देता हुआ कह उठता है---

O Death! where is thy victory?

O Death! where is thy sting ?

क्योंकि वह देखता है कि---

Death is swallowed up in victory.

साधना में "मैं" और "तू" दोनों एक साथ नहीं रह सकते 

इसलिए कहा गया है---

'If any man would come after me, let him deny himself and take up his cross daily and follow me' CROSS लेने का अर्थ हैं अपनी वासनाओं को शूली पर चढ़ा देना है क्योंकि जो अपना जीवन बचायेगा वह उसे को देगा और जो उसे ईश्वर की राह में खो देगा वह उसे सदा अक्षर रखेगा---

Whoever would save his life will lose it and whoever loses his life for my save he will save it

ठीक भी है---

मिटा दे अपनी हस्ती को अगर तू मर्तबा चाहे ।

कि दाना खाक में मिलकर गुले गुलजार होता है ।।

अध्यात्म राज्य में जो कुछ सुना जाता है उसे मांस के कान नहीं सुन सकते,

वहां जो देखा जाता है उसे मांस की आंखें नहीं देख सकती,

वहां जो समझा जाता है उसे मांस का दिमाग समझ नहीं सकता । 

क्योंकि---

'You shall indeed hear but never understand and you shall indeed see but never perceive'

व्रत एवं उपासना प्रदर्शन की वस्तु नहीं है अतः ---

'When you fast, do not look dismal like the hypocrites, for they difigure their faces that their fasting may be seen by men'

सबसे बड़ी साधना है परमात्मा में लय हो जाना 

सूफी इस अवस्था को 'फना' कहते हैं

 

हिंदू इसे समाधि कहते हैं 

योगी इसे 'समाधि' एवं 'योग' कहते हैं


समाधि और योग

सारी साधनाओं की अन्तिम भूमि 'समाधि' है 

समाधि क्या है ?

योग: समाधि: - अर्थात् योग समाधि है

योग क्या है ?

योगश्र्चितवृत्ति निरोध: ----

योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है

समत्वं योग उच्यते ---योग समत्वभाव है

योग: कर्मसु कौशलम् ---योग कर्म में कौशल है

वियोगं योगसंज्ञितम् ---योग वियोग है

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P. Mani Bhushan jha