भगवान् की साधना में यथार्थ स्थिति तो एकात्मकता से आती हैं । इसमें - राम का भजन करने वाला मन स्वयं राम बन जाता है -
मेरा मन सुमिरै राम कूं मेरा मन रामहिं आहि ।
तब साधक चकित होकर पूछता है कि-
अब मन रामहिं रह्या, सीस नवावौ काही ?
इस स्थिति में तुलसीदास जी यदि -
सियाराम मय सब जग जानी
का अनुभव करते हैं तो कबीरदास भी " मैं " और " तू " के भेद के दूर हो जाने पर यह अनुभव करते हैं कि उसके अतिरिक्त तो कुछ है ही नहीं , क्योंकि ' अस्मि ' ( अहमस्मि =' हूँ ' के निकल जाने पर अनुभव का स्वरूप ' मैं ' के स्थान पर ' तू ' हो जाता हैं
तूं तूं करता तूं भया मुझमें रही न हूँ ।
वारी केरी वलि गई , जित देखौं तित तूँ ।
जब तक खोजनेवाला व्यक्ति स्वयं खो नहीं जाता तब खोजी जाने वाली ' सद्वस्तु ' उसे मिलती ही नहीं -
हरेत हेरत हे सखी , रह्या कबीर हेराइ ।
बूँद समानी समद मैं , सो कत हेरा जाइ ।।
या
समंद समाना बूँद मैं सो कत हेर या जाइ ।।
उस स्थिति में जबकि ' मैं ' में भी ' तूँ ' ही ' तूँ ' दिखाई पड़ने लगता है तब साधक को यह लगने लगता है कि जब ' मेरे ' में मेरा कुछ है ही नहीं सबकुछ उसी का है तब ' उसी को ' या ' उसी का ' समर्पित करने में कठिनाई क्या है ?
मेरा मुझमें कुछ नहीं , जो कुछ है सो तेरा ।तेरा तुझकौं सौंपता क्या लागे मेरा ।।
दृढ आस्था और अचल विश्वास की शक्ति ही हमारी प्रार्थना को भगवती तक पहुँचा सकते में समर्थ है । इस विश्वास की शक्ति के साथ हम उनसे जो भी माँगेंगे वह हमे अवश्य मिलेगा और हम जो कुछ भी खोजेंगे वह हमें अवश्य प्राप्त होगा ।
उसका दरवाजा खटखटाइए वह आपके लिए अवश्य खुलेगा , क्योंकि जो माँगता है उसे दिया जाता है , जो ढूँढता है उसे मिल जाता है और जो द्वार खटखटाता है उसके लिए द्वार खोल दिया जाता है ।
इसलिए Lord Christ कहते हैं —
Ask, and it will be given you, seek, and you will find, know, and it will be opened to you . For every one who asks neceives and who knocks it will be opened. '
साधना-पथ में धैर्य और कष्ट - सहिष्णुता की भी आवश्यकता है । साधना के मार्ग में कदम बढ़ाने पर सुविधा , विश्राम , सुख , सरलता , सहायता , और सौकर्य की बात सोचने से काम नहीं चलेगा , क्योंकि ये तो विनाश के मार्ग में हीं मिलेंगे किन्तु शाश्वत जीवन के मार्ग में कठिनाइयाँ मिलेंगी ही; क्योंकि उसका रास्ता कठिन है और उसका दरवाजा अत्यन्त सँकरा है —
Enter by the narrow gate; for the is wide and the way is easy that leads to destruction and those who enter by it are many . For the gate is narrow and the way is hand , that leads to life and those who find it are few .'
कबीरदास भी इस पथ को बड़ा कठिन मानते हैं और कहते हैं —
आँखड़ियाँ झाई पड़ी पन्थ निहारी निहारी ।
जीभड़ियाँ छाला पडया राम पुकारि पुकारी ।।
केवल चिन्तन और मनन ही उसके लिए पर्याप्त नहीं है निदिध्यासन भी आवश्यक है — उसके लिए गीत बनाना ही पर्याप्त नहीं गाना भी आवश्यक है । आप स्वर ही साधते रहेंगे तो गायेंगे कब ? यदि सारा दिन आसन बिछाने में ही कट गया और आप घर में दीपक भी नहीं जला पाये तो उसे बुलायेंगे कब ?
कवीन्द्र रवीन्द्र ठीक ही कहते हैं —
हेथा ये गान गाइते आसा आमार , हय नि से गान गावा ।
आजो केवलि सुर साधा आमार , केवल गाते चावा ।।
शुधू आसन पाता हल आमार , साराटि दिन धरे ।
घरे हयनि प्रदीप ज्वाला तारे , डाकव केमन करें ।।
प्रेम , विरह , पश्चात्ताप एवं व्याकुलता इस मार्ग के पुष्पों में वह करुणामयी सुगन्ध बन कर फूट पड़ती हैं ।
साधना की यात्रा में आगे बढ़ने पर यह अनुभूति अवश्य होती है कि — वह मेरे निकट आकर आसीन हुआ किन्तु मैं फिर भी नहीं जग पाया । मुझ दुर्भाग्याहत को घोर निद्रा आ गई । वह निस्तब्ध यामिनी में हाथों में विपञ्ची लेकर आया और मेरे स्वप्नों में अपनी गम्भीर रागिनी भी छेड़ गया । मैं उसका सामीप्य पाकर भी उसके निकटस्थ क्यों नहीं हो पाया ?
से जे पाशे एसे वैसे , तवू जागि नि ।
की धूम तोर पेरे छिल , हतभागिनी ।
एसे छिल नीरव राते , वीना खानि छिल हाते ।
स्वपन माझे बाजिए गोल , गम्भीर रागिनी ।
जेगे देखि , दखिन हावा पागल करिया ।।
गन्ध ताहार भेसे बेटाय , आँधार भरिया ।।
केन आमार रजनी जाय , काछे पेये काछे ना पाय ?
आपका ' मैं ' उसके प्रयोजनार्थ ही शेष रह जाय । वह ' मैं ' इतना ही शेष रहे कि वह अपने में आकर कहीं लुप्त न हो जाय । उतना ही बंधन शेष रहे कि जिससे कि उसकी इच्छा में ही अपने को बाँधा जा सके — और उसके कारुण्यपूर्ण बाँहुओं में ही अपने को बाँधा जा सके उससे अधिक नहीं —
तोमाय आमार प्रभु करे ताकि , आमार आमि सेई टूक थाक् वाकिफ , तोमाय आमि हरे सकल दिशि , सकल दिये तोमार माझे मिशि , इच्छा आमार सेई टूटू थाक् वाकि , तोमार आमार प्रभु करे ताकि , तोमाय आमि को थाओ नाहि टाकि , केवल आमार सेई टूकू थाक् बाकि , तोमार लीला हवे ए प्राण भरे , ए संसार रेखे छे ताइ धरे । रइव बाँधा तोमार बाहु गरै , बाँधन आमार सेई टूकू थाक् थाक् बाकि । तोमाय आमार प्रभु करे ताकि ’ ।।
भगवान के धाम में पहुँचने के लिए वैदुष्य , सेवा , दान , पुण्य भी उतना आवश्यक नहीं है जितना कि साधक की दीनता , हीनता , नम्रता , धार्मिकता , दया , हृदय की निर्मलता , कष्यसहिष्णुता , अन्याय एवं अत्याचार - सहिष्णुता हैं । ये ही लोग धन्य हैं और ये लोग भगवद्धाम में प्रवेश कर पाते हैं अन्य नहीं —
' Blessed are poor in spirit , for their is the kingdom of heaven ,
Blessed are those who mourn , for they shall be comforted,
Blessed are the meek , for they shall inherit the earth ,
Blessed are those who hunger and thirst for reghteousness for they be satisfied ,
Blessed are the merciful , for they shall obtain mercy ,
Blessed are the pure in the heart , for they shall see God ,
Blessed are the peacemakers , for they shall be called sons of God ,
Blessed are those who are persecuted for reghteousness ' sake for theirs is the kingdom of heaven.
Blessed are you when men revile you and persecute you and ulted all kinds of evil against you falsely on my account. '
भगवती बगला के सन्निधि में आने पर मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता वह तो कोई अकथ्य महान् विभूति बन जाता है ।
मिट्टी से बना मटका फिर मिट्टी नहीं बना रह जाता ;
मक्खन से बना घी फिर कभी मक्खन नहीं बना रह जाता ;
लोहे से बना सोना फिर लोहा नहीं बन रह जाता ;
पारस पत्थर से छू जाने पर लोहा सोना बन जाता है ;
पानी से उत्पन्न होने वाला मोती फिर पानी नहीं बना रह जाता । ठीक इसी प्रकार कूडल सड़्गम देव की शरण में एक बार जाने पर फिर मानव मानव नहीं बना रह जाता कुछ और ही हो जाता है ।
ध्यान योग
यदि कोई आत्म साक्षात्कार के पथ पर अग्रसर होना चाहता है तो उसे भौतिक इन्द्रियों के वेग को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए ये वेग हैं---
वाणीवेग , क्रोधवेग , मनोवेग , उदरवेग , उपस्थवेग तथा जिह्वावेग
जो व्यक्ति इन विभिन्न इन्द्रियों के वेगों को तथा मन को वश में करने में समर्थ हैं वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता हैं ऐसे गोस्वामी नितान्त संयमित जीवन बिताते हैं और इन्द्रियों के वेगों का तिरस्कार करते हैं भौतिक इच्छाएं पूर्ण न होने पर क्रोध उत्पन्न होता हैं और इस प्रकार मन , नेत्र उत्तेजित होते हैं अतः इस शरीर का परित्याग करने के पूर्व मनुष्य को इन्हे वश में करने का अभ्यास करना चाहिए जो ऐसा कर सकता है वह स्वरूपसिध्य माना जाता है और आत्म साक्षात्कार की अवस्था में वह सुखी रहता है योगी का कर्तव्य है कि वह इच्छा तथा क्रोध को वश में करने का भरसक प्रयत्न करें
बड़े से बड़े साधु पुरुष भी इन्द्रियों के वेग को उतनी कुशलता से रोक पाने में समर्थ नहीं हो पाते जितना कि वे जो सकामकर्मों की तीव्र इच्छा को समूल नष्ट करके और भगवान के चरण कमलों की सेवा करके दिव्य आनन्द में लीन रहते हैं
मेरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है सो तेरा ।
तेरा तुझकौं सौंपता क्या लागे हैं मेरा ? ।।
प्रश्न यह है कि जब मन में अहंकार ने डेरा जमा रखा है और दूसरे को रहने का स्थान ही नहीं छोड़ा है तो भगवती रहेंगी कहाँ ?
सन्त ठीक ही कहते हैं भगवती की कृपा प्राप्त करने के लिए तन्निष्ठता, तद्गत प्रेम, तद्रूपता एवं भगवती के पास मन की पहुँच आवश्यक है । सन्त कहते हैं — वेदों को रटने से क्या ? शास्त्रों को सुनने से क्या ? जप करने से क्या ? तप करने से क्या ? यदि हमारे कूडलसंग पास तक हमारा मन ही न पहुँच सके तो क्या फल मिलेगा ?
अद्वैत की स्थिति भक्ति में भी आती है। इसी स्थिति में कबीर कहते हैं —'मैं तैं तैं मैं ए द्वै नाहीं । आपै अकल सकल घट माही ।। साधना की यथार्थ स्थिति में पूजा के अंग प्रत्यङ्ग — आसन, जप, तप, अनाहत नाद, श्र्ङ्गी आदि सभी मन के भीतर मन के ही स्वतः अङ्ग बन जाते हैं अतः बाहर से उन्हें ग्रहण करना निरर्थक हो जाता है ।
सो जोगी जाकै मन मैं मुद्रा ।
मन मैं आसण मन मैं रहणां ।
मन का जप तप मन सूं कहणा।।
मन मैं खपरा मन मैं सीङ्गी ।
अनहद वे न बजावै रङ्गी ।।
भक्ति के क्षेत्र में कबीर दास नारदीया भक्ति के अनुवर्ती थे —
भगति नारदी मगन सरीरा ।
इहि विधि भवतिरि कहै कबीरा ।।
वे भावभगति और प्रेमभगति के अनुवर्ती थे । भक्ति के इस स्वरूप में योग, ध्यान, तप आदि सब विकार दिखाई पड़ते हैं । इस समय साधना का आधार केवल परमात्मा मात्र रह जाता है ।
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