देवी भागवत के माहात्म्य प्रसंगमें मुनि के शापसे रेवती नक्षत्र के पतन, पर्वतसे रेवती नामकी कन्या के प्रादुर्भाव, ऋषि प्रमुचके द्वारा उसके पालन तथा राजा दुर्दम के साथ उसके विवाह की एवं रेवती नक्षत्र के पुनः स्थापन की कथा


सूतजी कहते हैं- इस प्रकारकी अत्यन्त अद्भुत दिव्य कथा सुननेपर भी अगस्त्यजीकी इच्छा शान्त न हुई। अतः नम्रतापूर्वक उन्होंने पुनः श्रीकार्तिकेयजीसे कहा ।


अगस्त्यजीने कहा-आप देवसेनाके अध्यक्ष हैं। मैंने आपके मुखारविन्दसे यह अलौकिक कथा सुन ली। अब श्रीमद्देवीभागवतका दूसरा माहात्म्य सुनानेकी कृपा कीजिये ।


स्कन्दजी कहते हैं- मित्रावरुणसे प्रकट होनेवाले मुने ! अब यह कथा कहता हूँ, सुनो! जिसके एक अंशमें भागवतकी महिमा कही। गयी हो, धर्मका विशद वर्णन हो और गायत्रीका प्रसंग आरम्भ करके उसका महत्त्व दर्शाया गया हो, उसे भागवत कहते हैं। भगवती जगदम्बिकासे इस कथाका सम्बन्ध है। 


अतएव इसे 'देवीभागवत' कहते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव-सभी देवता उन भगवती जगदम्बिकाकी आराधना करते हैं। ऋतवाक् नामके एक मुनि थे। उनकी बुद्धि बड़ी विलक्षण थी। उनके यहाँ समयानुसार पुत्रोत्सव हुआ। रेवतीका चौथा चरण गण्डान्त होता है; उसीमें उस बालककी उत्पत्ति हुई। 


मुनिने उस लड़केकी जातकर्म आदि सभी क्रियाएँ सविधि सम्पन्न कीं । चूडाकरण और उपनयन आदि संस्कार भी सम्पन्न किये। महात्मा ऋतवाक्के यहाँ जबसे उस पुत्रका जन्म हुआ, तभीसे वे रोग और शोकसे चिन्तित रहने लगे। क्रोध और लोभ उन्हें सदा घेरे रहते थे। माताकी भी यही स्थिति हो गयी। 


उसे निरन्तर अनेक रोग सताने लगे। वह उदास होकर सदा चिन्तामें डूबी रहती थी । वह लड़का भी उद्दण्ड हो गया। तब मुनि अत्यन्त चिन्तित होकर सोचने लगे कौन ऐसा कारण है, जिससे यह मेरा पुत्र महान् दुष्ट हो गया! उस समय उस लड़केने किसी मुनिकी स्त्रीको हठपूर्वक छीन लिया था। 


वह ऐसा प्रचण्ड मूर्ख था कि माता-पिताकी शिक्षापर बिलकुल ध्यान ही नहीं देता था। तब ऋतवाक् मुनि अत्यन्त खिन्न होकर कहने लगे  मनुष्योंको पुत्र न हो यह अच्छा; किंतु दुराचारी पुत्र हो जाना किसी स्थितिमें भी ठीक नहीं है; क्योंकि दुष्ट पुत्र पितरोंको स्वर्गसे नरकमें ढकेल देता है, वह जीवनपर्यन्त पिताको केवल दुःख ही देता रहता है। 


कुपुत्र और पापपरायण संतानसे पिता कभी सुखी नहीं हो सकते। ऐसे पुत्र- जन्मको धिक्कार है। उस पुत्रसे न मित्रोंका उपकार होता है और न शत्रुओंका अपकार ही । जगत् में वे ही पुरुष बड़भागी हैं, जिनके घर सुपुत्र होनेका अवसर सुलभ है। 



सदाचारी पुत्र दूसरेका उपकार करता और माता-पिताको सुखी बनाये रहता है। दुराचारी पुत्रसे कुल नष्ट हो जाता है, जगत् में अपकीर्ति होती, इस लोक और परलोकमें दुःख सहने पड़ते तथा अन्तमें नरककी यातना भोगनी पड़ती है। 


कुपुत्रसे कुल नष्ट हो जाता है, दुष्ट स्त्री मिलनेसे जन्मकी सार्थकता जाती रहती है, उत्तम भोजन न मिलनेसे दिन व्यर्थ चला जाता तथा कुमित्रसे सुखकी आशा भी निष्फल हो जाती है।


स्कन्दजी कहते हैं- इस प्रकार दुष्ट पुत्रके नीच व्यवहार से दुःखी होकर वे श्रीगर्गजी के पास गये और उनसे पूछने लगे । 


ऋतवाक् मुनि बोले-भगवन्! आप ज्योतिषशास्त्र के आचार्य हैं। मेरे पुत्र के दुराचारी होनेका क्या कारण है- यह मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, बतानेकी कृपा करें। मैंने गुरुकी। सेवामें तत्पर रहकर विधिपूर्वक वेदाध्ययन किया। 


ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करके उचित रूपसे विवाहकी विधि सम्पन्न की। स्त्रीके साथ रहकर सदा मैं गार्हस्थ्यधर्मका पालन करता रहा। समुचित रूपसे पंचयज्ञकी क्रिया सम्पन्न की। विप्रवर! मुझे नरकका भय सदा बना रहता था; अतः कामसम्बन्धी सुखकी इच्छा न करके मैंने केवल पुत्र-प्राप्तिके लिये शास्त्राज्ञानुसार गर्भाधान किया। 


मुने! फिर भी माता अथवा पिता किसके दोषसे मुझे यह ऐसा दुराचारी पुत्र प्राप्त हो गया ? यह दुःखदायी पुत्र परिवारमें अशान्ति फैला रहा है  ऋतवाक् मुनिकी यह बात सुनकर ज्यौतिषशास्त्रके पारगामी मुनिवर गर्गजीने सभी कारणोंपर विचार करके कहा ।


गर्गजी बोले- मुने! पुत्रके दुश्चरित होनेमें न तुम कारण हो और न माता तथा कुल ही। रेवतीका अन्तिम चरण गण्डान्त होता है। वही कारण है; क्योंकि मुने! वही निन्दित वेला तुम्हारे इस पुत्रके जन्म समय बीत रही थी। अतएव तुम्हें दुःखी करना इसका स्वभाव बन गया। 


दूसरा कोई भी कारण नहीं है। ब्रह्मन् ! तुम उस दुःखको दूर करनेके लिये जगज्जननी भगवती दुर्गाकी आराधना करो। यत्नपूर्वक सुपूजित होनेपर वे सम्पूर्ण विघ्न शान्त कर देती हैं।


गर्गजीकी बात सुनकर ऋतवाक् मुनि क्रोधसे मूर्च्छित हो गये। उन्होंने रेवतीको शाप दिया- 'वह आकाशसे गिर जाय।' उस समय नक्षत्रमण्डल चमक रहा था। उधर सबके नेत्र लगे हुए थे । इतनेमें ही मुनिके शापसे रेवती आकाशसे टूटकर कुमुदगिरिपर आ पड़ी।


रेवतीके गिरनेसे वह पर्वत 'रैवतक' नामसे प्रसिद्ध हो गया। तबसे उस पर्वतकी शोभा और भी अधिक बढ़ गयी। यों रेवतीको शाप देनेके पश्चात् मुनिवर ऋतवाक् गर्गजीके कथनानुसार भगवती जगदम्बिकाकी आराधना करके सुख और सौभाग्यसे सम्पन्न हो गये।


स्कन्दजी कहते हैं- रेवती नक्षत्रका जो तेज पर्वतपर पड़ा, उससे एक कन्या उत्पन्न हो गयी। जगत् में अनुपम सुन्दरी होकर वह दूसरी लक्ष्मीकी भाँति शोभा पाने लगी । रेवतीके तेजसे प्रकट होनेवाली उस कन्यापर प्रमुच ऋषिकी दृष्टि पड़ी। उसे देखकर वे प्रसन्न हो गये और उसका रेवती नाम रख दिया। 


महर्षि प्रमुचका आश्रम कुमुदगिरिपर था। उस कन्याको वे अपने स्थानपर ले आये और पुत्रीकी भाँति धर्मपूर्वक उसके पालन-पोषणकी व्यवस्था कर दी। जब कुछ समय बाद वह सुन्दरी कन्या युवती हो गयी तब उसे देखकर 'कौन इसके योग्य वर होगा' यों मुनि विचार करने लगे। 

बहुत अन्वेषण करनेपर भी उस कन्याके अनुरूप वर पानेमें उन्हें सफलता न मिल सकी। तब वे अग्निशालामें जाकर अग्निदेवकी उपासना करने लगे। अग्निदेव प्रसन्न हुए और कन्याके वरके। विषयमें मुनिसे बोले- 'मुने! सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाले, पराक्रमी, शूरवीर, प्रियभाषी तथा युद्धमें पीछे न हटनेवाले राजा दुर्दम इसके पति होंगे।' 


अग्निदेवकी यह बात सुनकर मुनिके मनमें प्रसन्नता छा गयी। उसी समय संयोगवश राजा दुर्दम शिकार खेलनेके बहाने प्रमुच ऋषिके आश्रमपर आ गये। वे बड़े बुद्धिमान्, बलवान् और शक्तिशाली थे। उनके पिताका नाम विक्रमशील और माताका नाम कालिन्दी था प्रियव्रतके वंशमें उनकी उत्पत्ति हुई थी। जब राजा आश्रमके भीतर गये तब उन्हें मुनि दिखायी न पड़े, अतः उन्होंने उस कन्या रेवतीको बुलाया और 'प्रिये!' सम्बोधन करके पूछने लगे। 


राजा दुर्दमने पूछा- प्रिये! महाभाग महर्षि आश्रमसे कहाँ पधारे हैं? कल्याणी! सच-सच बताओ, मैं उनके चरणोंके दर्शन करना चाहता हूँ।'


कन्या बोली- महाराज ! मुनिवर अभी अभी निकलकर अग्निशालामें गये हैं।' कन्याकी बात सुनकर राजा दुर्दम अग्निशालाके द्वारपर पहुँच गये। वे राजोचित वेषभूषामें थे। नम्रतासे उनका मस्तक झुका हुआ था। उनपर मुनिकी दृष्टि पड़ी। तब राजाने मुनिको प्रणाम किया और मुनि अपने शिष्यसे कहने लगे- 


गौतम! अर्घ्य उपस्थित करो। ये राजा अर्ध्या पानेके अधिकारी हैं; क्योंकि बहुत दिनोंपर इनका आगमन हुआ है और खास बात तो यह है कि ये हमारे जामाता हैं। यों कहकर मुनिने उन्हें अर्घ्य दिया और राजाने उसे स्वीकार भी कर लिया। राजा दुर्दम अर्घ्य आदिके पश्चात् आसनपर विराजमान थे। 


मुनिने प्रचुर आशीर्वाद देकर उन्हें संतुष्ट किया और कुशल पूछी। कहा  'राजन्! तुम्हारी सेना, खजाना, मित्रमण्डली, भृत्यवर्ग, मन्त्रिवर्ग, देश, नगर और स्वयं आत्मामें किसी प्रकारकी अशान्ति तो नहीं है न ? 


तुम्हारी पत्नीकी तो कुशल पूछनी ही नहीं है; क्योंकि वह तो मेरे यहाँ ही ठहरी है। इसीसे मैंने उसका समाचार नहीं पूछा। अन्य लोगोंकी कुशल कह सुनाओ।'


राजाने कहा - भगवन् ! आपकी कृपासे सर्वत्र कुशल है। ब्रह्मन्! पर मुझे मुझे यह बहुत आश्चर्य हो रहा है कि आपने मुझे जामाता कहा है; अतः मेरी कौन-सी पत्नी आपके यहाँ है ?


ऋषि बोले- राजन्! जो जगत्‌में अद्वितीय सुन्दरी है, वह रेवती नामकी तुम्हारी पत्नी यहाँ है। वह किस प्रकार तुम्हारी भार्या हुई यह रहस्य तुम नहीं जानते।


राजाने कहा - प्रभो! मेरी सुभद्रा आदि भार्याएँ घरपर हैं, उन्हींको मैं जानता हूँ। भगवन् ! रेवती सम्बन्धमें तो मुझे कुछ भी पता नहीं । 


ऋषि बोले- राजन् ! तुमने अभी जिसे 'प्रिये' शब्दसे सम्बोधित किया है, वही तुम्हारी प्रेयसी भार्या है। एक क्षण भी तो नहीं हुआ, तुम इसे भूल गये ?


राजाने कहा-' 'मुने! आप जो कह रहे हैं, वही ठीक है। मैंने वैसे ही ('प्रिये' शब्द ) कहकर बुलाया; परंतु मेरी कुत्सित भावना नहीं थी। इस विषय में आप मुझपर अप्रसन्न न हों।'


ऋषि बोले- राजन् ! तुम बहुत ठीक कहते हो, तुम्हारे मनमें कोई बुरा विचार नहीं था, किंतु अग्निदेवकी प्रेरणासे तुम्हें ऐसे शब्दका उच्चारण करना पड़ा। इस कन्याके पति कौन होंगे, यह बात अभी मैंने अग्निदेवसे पूछी थी। उन्होंने कहा है- राजा दुर्दम इस कन्याके स्वामी होंगे। इसे कोई टाल नहीं सकता। इसलिये राजन्! मैं यह कन्या तुम्हारी सेवामें समर्पण करता हूँ, इसे स्वीकार करो। तुमने उसे 'प्रिये' शब्दसे जो सम्बोधित किया था, उस विषयमें तो कुछ विचार ही नहीं करना चाहिये।


मुनिकी यह बात सुनकर राजा चुप हो गये। अब मुनि उनके विवाहकी विधि सम्पन्न करनेकी व्यवस्था करने लगे। पाणिग्रहण संस्कार करनेके यत्नमें संलग्न मुनिको देखकर कन्या सौंप दी। विवाह कर देनेके पश्चात् ।


मुनिने राजासे कहा-वीर! तुम्हें क्या पानेकी इच्छा है? कहो, उसे मैं पूर्ण करनेको उद्यत हूँ।


राजा बोले- मुनिवर मैं स्वायम्भुव मनुका वंशज हूँ। आपकी कृपासे मुझे मन्वन्तरका अधिष्ठाता पुत्र प्राप्त हो यही अभिलाषा है। 


मुनिने कहा- राजन् ! यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो भगवती जगदम्बिकाकी आराधना करो। तब मन्वन्तरका स्वामी पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा। श्रीमद्देवीभागवत पाँचवाँ पुराण है। उसकी पाँच आवृत्तियाँ श्रवण करनेसे तुम अपने मनके अनुसार पुत्र प्राप्त कर लोगे। 


इस रेवतीके गर्भसे पाँचवाँ - रैवत नामक मनु होगा। उसे वेदकी पूर्ण जानकारी रहेगी। शास्त्रके सभी रहस्य उसे ज्ञात रहेंगे। धर्ममें उसकी निष्ठा रहेगी और वह युद्धमें कभी पराजित न हो सकेगा।


मुनिके यों कहनेपर राजाने उनके चरणों में मस्तक झुकाया और पत्नीको साथ लेकर वे अपने नगरको चले गये और पिता पितामहकी राजगद्दीपर बैठकर उन्होंने शासन आरम्भ कर दिया। राजा दुर्दम बड़े बुद्धिमान् और धर्मात्मा थे। 


वे उसी प्रकार प्रजाकी रक्षा करते रहे, जैसे औरस पुत्रकी की जाती है। एक समयकी बात है, महात्मा लोमशजी राजभवनपर पधारे। राजाने प्रणाम करके उनका स्वागत सत्कार किया और हाथ जोड़कर उनसे कहने लगे।


राजाने कहा- मुने! आप सर्वसमर्थ हैं। मुझे पुत्र पाने की इच्छा है। अतः आप श्रीमद्देवीभागवत नामक पुराण सुनानेकी कृपा कीजिये। राजाकी बात सुनकर लोमशजीको बड़ा आनन्द हुआ। वे कहने लगे- 'राजन्! तुम धन्य हो, तभी तो त्रिलोकजननी भगवती दुर्गामें तुम्हारी ऐसी भक्ति जाग्रत् हो गयी है। जो भगवती जगदम्बिका देवता, दानव और मनुष्योंकी परम आराध्या हैं, 


उनमें जब तुम्हारी भक्ति हो गयी, तब फिर तुम्हारा कार्य सिद्ध होनेमें क्या संदेह है। अतएव राजन्! मैं तुम्हें श्रीमद्देवीभागवतपुराण अवश्य सुनाऊँगा। उसके श्रवणमात्रसे कोई भी पदार्थ पानेको शेष नहीं रहता।


ब्रह्मन्! यों कहकर लोमशजीने शुभ मुहूर्तमें कथा आरम्भ कर दी। राजा दुर्दम सपत्नीक बैठकर विधिपूर्वक कथाकी पाँच आवृत्तियाँ सुनते रहे। कथा समाप्त होनेके दिन उन धर्मात्माने अत्यन्त आनन्दके साथ पुराण और मुनिकी पूजा की। नवार्ण मन्त्रसे हवन किया। कुमारी कन्याएँ जिमायी गयीं। वे सपत्नीक ब्राह्मण भोजनमें सम्मिलित हुए और सबको दक्षिणा देकर संतुष्ट किया गया। 


कुछ समय व्यतीत होनेपर भगवतीकी कृपासे रानीको लोकका कल्याण करनेवाला गर्भ रह गया। गर्भकी अवधि पूर्ण होनेपर ग्रहोंके उत्तम योगमें रानीने पुत्र प्रसव किया। उस समय सम्पूर्ण मंगल प्रदान करनेवाला मुहूर्त बीत रहा था। पुत्र जन्मकी बात सुनकर राजाके मनमें अपार हर्ष छा गया। उन्होंने स्नान किया। सुवर्णके कलश रखे गये और उनके जलसे जातकर्म । आदि क्रियाएँ सुचारुरूपसे सम्पन्न की गयीं।


ब्राह्मणोंको दान देकर संतुष्ट किया गया। तदनन्तर समयपर यज्ञोपवीत हुआ तथा अंगों और उपांगोंसहित वेद पढ़ानेकी राजाने व्यवस्था कर दी। फिर रैवत नामसे विख्यात वह बालक सम्पूर्ण क्रियाओंका पारगामी, धर्मात्मा, धर्मका प्रवचन एवं अनुष्ठान करनेवाला, परम पराक्रमी और अस्त्रवेत्ताओं में सर्वश्रेष्ठ निकला। तदन्तर ब्रह्माजीने रैवतको मनुके पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। श्रीमान् रैवत मन्वन्तर के स्वामी बनकर धर्मपूर्वक पृथ्वी पर शासन करने लगे।


इस प्रकार मैंने भगवती जगदम्बिकाके एवं पुराणके माहात्म्यका संक्षेपसे वर्णन कर दिया। उसे विस्तारपूर्वक कहनेमें तो कोई भी समर्थ नहीं हो सकता ।


सूतजी कहते हैं- अगस्त्यजीने श्रीमद्देवीभागवतके माहात्म्य एवं विधि सुनने के पश्चात स्वामी कार्तिकेयजी की पूजा की और पुनः अपने आश्रमको लौट आये । ब्राह्मणो ! तुम लोगों के समक्ष देवीभागवत् के माहात्म्यका वर्णन मैं कर चुका । भक्तिपूर्वक इसे पढ़ने और सुनने वाल पुरुष जगत् में भोगोंको भोगकर अन्त में पुनरागमन से रहित हो जाता है।


अध्याय 04