वाल्मीकि जी के आश्रम में एक दिन देवर्षि नारद मुनि आये, वाल्मीकि जी उस समय अपने शिष्यों के साथ वार्तालाप कर रहे थे, परंतु अपने आश्रम में आये सुविख्यात अतिथि को देखते ही वह तत्काल आदर प्रकट करने के लिये उठ खड़े हुए , नारद मुनि को प्रणाम करने और उन्हें आराम दायक स्थान पर बिठाने के बाद, ऋषियों ने नारद जी पैर धोए और उनका यथोचित आदर सत्कार किया।
एक दूसरे से कुशल क्षेम पूछने के बाद, वाल्मीकि जी बोले — सत्य को जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ , हे नारद मुनि, कृपा करके मुझे बताएँ कि पृथ्वी में इस समय सभी महान पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ कौन है ? वह कौन है जो सर्वाधिक ज्ञानी और सबसे अधिक शक्तिशाली है ? वह कौन है जो सर्वाधिक सुंदर और सुदर्शन है ? वह कौन है जो उदार हृदय, सत्यनिष्ठ , कृतज्ञ और सर्वाधिक चतुर हैं ? वह कौन है जिसका चरित्र निष्कलंक है और जो सदैव दूसरे जीवों का कल्याण करने के कार्य में रत रहता है ? वह कौन है जिसके मन में कभी भी क्रोध या द्वेष फटकता तक नहीं है और फिर भी जिससे समस्त देवी - देवता तक डरते हैं ? वह कौन है जिसके पास तीनों लोकों में रहने वाले प्रत्येक जीव को सुरक्षा प्रदान करने की शक्ति है ? वह कौन है जिन पर सौभाग्य की देवी लक्ष्मी पूर्णतः न्यौछावर रहती हैं ? कौन है वह जो समस्त ऐश्वर्यां के पूर्ण अंगार है ?
नारद मुनि बोले —
अस्त्र - शस्त्रों के संचालन में राम पूर्णतः प्रवीण हैं, वह वेदों के पूर्ण ज्ञाता हैं, वह धार्मिक सिद्धांतों का आदर्श रूप से पालन करते हैं और वह वर्णश्रम व्यवस्था के ध्वजवाहक हैं, एक ओर वह समस्त शत्रुओं के संहारक हैं तो वहीं दूसरी ओर वह पूर्णतः समर्पित आत्माओं के एक मात्र आश्रयदाता हैं, उनकी संकल्प शक्ति अटूट है और उनकी स्मृति त्रुटिहीन है वह बुद्धिमान, दयालु और सागर के समान गंभीर है, युद्ध में उनका पराक्रम सर्वश्रेष्ठ नायक के समान होता है, सभी जीवधारी उन्हें प्रेम करते हैं और वह मित्रों व शत्रुओं, दोनों के प्रति निष्पक्ष रहते हैं ।
राम का बल हिमालय के समान है, उनकी शक्ति और साहस भगवान् विष्णु के समान है, सुंदरता में वह पूर्णमासी के चन्द्रमा को भी मात करते हैं, उनकी सहनशीलता पृथ्वी के समान है और उनका क्रोध समस्त ब्रह्माण्ड को जलाकर राख कर देने वाली प्रचंड अग्नि के समान है, सत्य तो यह है कि राम ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के पालनहार हैं और भगवान् विष्णु के अवतार होने के कारण वह सभी प्रकार से उनके समान हैं ।
इस प्रकार नारद मुनि ने संक्षेप में भगवान् रामचंद्र भगवान् का जीवन परिचय दिया और फिर वाल्मीकि को बताया कि यही पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् इस समय सबसे आदर्श रूप में अपनी प्रजा पर शासन कर रहे हैं ।
नारद जी बोले — भगवान् राम के राज्य में कोई भी व्यक्ति बीमारी या मानसिक पीड़ा से ग्रस्त नहीं है, सभी लोग अत्यंत प्रसन्न और समृद्ध हैं और उन्हें चोरों का अभाव का या भूख का कोई भय नहीं है, समस्त कस्बों और गाँवों में खाद्यान्न, फल, सब्जियाँ और दुग्ध उत्पाद प्रचुरता से उपलब्ध हैं । असल में भगवान् राम के राज्य में लोग उतने ही धर्मनिष्ठ और प्रसन्न हैं जितने धर्मनिष्ठ और प्रसन्न सतयुग के समय के लोग हुआ करते थे , वहाँ बाढ़ , भूकंप या अकाल जैसी कोई प्राकृतिक आपदा नहीं आती, सभी स्त्रियाँ अत्यन्त पवित्र हैं और उन्हें कभी भी विधवा होने का दंश नहीं भोगना पड़ता, भगवान् रामचंद्र आध्यात्मिक लोक वैकुण्ठ में स्थित अपने भगवद्धाम को वापस लौटने से पहले 11000 वर्ष तक पृथ्वी पर शासन करेंगे ।
इसके बाद नारद जी आगे की अपनी यात्रा के लिए चल पड़े और उसके जाने के बाद वाल्मीकि जी अपने शिष्य भरद्वाज के साथ तमसा नदी के तट की ओर चल पड़े, वाल्मीकि जी नदी के तट पर बैठकर नारद जी की कही हुईं बातों के बारे गहन चिंतन मनन करने लगे, तभी वाल्मीकि की नजर जंगल के अंदर रति क्रीड़ा में आनन्दमग्न होकर अत्यन्त सुरीली आवाज में गाते क्रौंच पक्षी के एक जोड़े पर पड़ी ।
अचानक निशाद जाति का एक दुष्ट शिकारी अपने छुपने की आड़ से बाहर निकला और उसने बाण चला दिया, उसके बाण से बिंधा नर क्रौंच पक्षी दर्द से चीत्कार करता हुआ जमीन पर गिर पड़ा, मृत्यु की पीड़ा से छटपटाते हुए और रक्त से लथपथ अपने संगी को देखकर, मादा क्रौंच पक्षी करुणा स्वर में रोने लगा, पल भर में ही वह ऐंद्रिक आनन्द के शिकार से दुख के गर्त में पहुँच गई थी ।
यह देखकर वाल्मीकि जी का हृदय दुख से भर उठा और उन्हें वह शिकारी घोर पापी जान पड़ा , क्रोध से उबलते ऋषि ने शिकारी को शाप देते हुए कहा - ओ पक्षियों के हत्यारे, तुझे जन्म - जन्माँतरों तक कभी शान्ति न मिले , अपनी संगिनी के साथ सुख भोगते एक भोले भाले, अबोध जीव की ऐसी निर्दयतापूर्वक हत्या करने के लिए यही तेरा दंड है ।
परन्तु मुँह से शाप निकलते ही वाल्मीकि ने खुद को लज्जित अनुभव किया क्योंकि वह अपने क्रोध पर संयम नहीं रख सके , एक प्रबुद्ध आत्मा होने के कारण वह यह भलीभाँति जानते थे कि सभी जीवधारी भौतिक जगत् के तीन गुणों के वशीभूत होकर असहाय रूप से कार्य कर रहे हैं , इस प्रकार वाल्मीकि को इस बात पर खेद हुआ कि उन्होंने शिकारी का प्रतिकार करके उसे शाप दे दिया, परंतु साथ ही इस बात का भान होते ही उन्हें आश्चर्य हुआ कि उनके मुख से शाप के शब्द छंद की सही सही मात्राओं के रूप में बाहर निकले और ऐसा जान पड़ा कि वाल्मीकि के इस शाप में भगवान् राम की जीवन कथा में चित्रित उस प्रबल भावनात्मक अभिव्यक्ति का संकेत था जिस पर वह नारद जी के साथ हुई भेंट के बाद से ही विचार कर रहे थे ।
वाल्मीकि ने भरद्वाज से कहा — मेरे दुःख से चार पंक्तियों का एक श्लोक व्यक्त हुआ जिसकी प्रत्येक पंक्ति में आठ मात्राएँ थी , शोक से एक अत्यन्त सुन्दर श्लोक निकला, जिससे यह पता चलता है कि बिना करुणा के कोई भी मौलिक काव्यात्मक अभिव्यक्ति संभव नहीं है ।
इस प्रकार आदर सत्कार प्राप्त करने के बाद, प्रत्येक प्राणी के मन की बात को समझने वाले ब्रह्माजी ने वाल्मीकि से कहा — हे पुण्यात्मा ऋषि, यह सोचकर शोक न करें कि आपने उस शिकारी को ग़लत ढंग से शाप दे दिया, मैं आपको एक अत्यन्त गोपनीय बात बताता हूं, आपने क्रोधपूर्वक जो शब्द कहे, वे आपके अपने शब्द नहीं थे , वे मेरे शब्द थे जो मेरी इच्छा के कारण आपके मुख से निकल पड़े , ताकि मैं आपको एक महान कार्य करने के लिए प्रेरित कर सकूँ , अब समय आ गया है कि आप भगवान् रामचंद्र की जीवन गाथा की रचना करें, इस जगत के सभी प्राणियों के पूर्ण कल्याण के उद्देश्य से इसमें भगवान् की समस्त आध्यात्मिक लीलाओं का वर्णन होगा ।
मेरे प्रिय वाल्मीकि आपनी बेचैनी का त्याग करें, मेरे वरदान की शक्ति से आपको ऐसी दिव्य दृष्टि प्राप्त होगी जिससे आप अपने हृदय में वह सभी चीजें स्पष्ट रूप से देख पायेंगे जिनके बारे में आपको ज्ञान नहीं है, मेरे आशीर्वाद से आप रामायण की रचना करेंगे जो त्रुटिहीन होगी ।
वाल्मीकि ऋषि को इस प्रकार वरदान देने के बाद, ब्रह्माजी अपने दिव्य हंस रथ पर चढ़कर वहाँ से चले गये और उन्हें दिव्य रथ पर चढ़कर जाते हुए देखने वाले सभी प्राणियों के हृदय आश्चर्य से भर गये, इस के बाद, भगवान् रामचंद्र की समस्त लीलाओं के दर्शन करने के लिए वाल्मीकि ध्यान लगाकर बैठ गये, वाल्मीकि मुनि जब गहन आध्यात्मिक समाधि में लीन हो गये, तो उन्हें सचमुच भगवान् रामचंद्र के धरती पर अवतरित होने से जुड़ी समस्त बातें स्पष्ट रूप से दिखने लगीं ( यह सुनकर अचरज हो सकता है, परंतु जिस प्रकार आजकल हम दूर की घटनाओं का ताजा हाल टेलीविजन या मोबाइल पर देख सकते हैं, ठीक उसी प्रकार वाल्मीकि मुनि भगवान् राम के सम्पूर्ण जीवन को देख पा रहे थे । )
वाल्मीकि जी ने 24000 श्लोकों में रामायण की रचना की, इस महाकाव्य की रचना पूरी करने के बाद, वह इस बात पर विचार करने लगे कि वह किसे यह रचना पढ़ाएँ ताकि यह उसकी स्मृति में बस जाये और फिर धीरे धीरे सम्पूर्ण विश्व में इसका प्रसार हो , ( उस समय छपाई की प्रेसों का आविष्कार नहीं हुआ था, या यूँ कहें कि उन दिनों लोगों की स्मृति इतनी तीक्ष्ण होती थी कि लिखना एक अनुपयोगी कार्य हुआ करता था ) वाल्मीकि अभी इस पर विचार ही कर रहे थे कि तभी लव और कुश वहाँ आये और उन्होंने विनम्रतापूर्वक उनके चरण स्पर्श किए, जो कि वे प्रतिदिन किया करते थे।
ऋषियों के समान वेशभूषा वाले ये दोनों बालक राम और सीता के पुत्र थे जिनका जन्म सीता के निर्वासन के समय हुआ था और अपने जन्म के समय से ही ये दोनों बालक वाल्मीकि ऋषि की देख रेख में रह रहे थे, वाल्मीकि ने जुड़वा बालकों को प्रशंसापूर्ण नेत्रों से देखा और तभी उन्हें यह अहसास हुआ कि ये दोनों बालक ही उनके इस महाकाव्य को प्राप्त करने के सबसे उचित और योग्य पात्र हैं ।
इसके बाद, वाल्मीकि ने लव और कुश को अत्यन्त सावधानी पूर्वक सम्पूर्ण रामायण पढाया और जब उन्हें यह अच्छी तरह याद हो गया तो उन्होंने ब्राह्मण की एक सभा में पहली बार इसका पाठ किया, भगवान् राम की लीलाओं को सुनते हुए उन विद्वान ब्राह्मण को अत्यधिक आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव हुआ, लव और कुश की अत्यधिक सराहना करने के बाद, ब्राह्मणों ने दोनों जुड़वा भाईयों को प्रचुर उपहार प्रदान किये ।
उस दिन के बाद से, लव और कुश ने रामायण का पाठ करते हुए पृथ्वी के समस्त स्थानों की यात्रा आरम्भ कर दी, अपनी इन यात्राओं के दौरान, लव और कुश कौशल प्रांत में स्थित अयोध्या नगरी पहुँचे , भगवान् राम ने संतों के समान वेशभूषा धारण किए हुए इन दोनों बालकों को गलियों में घूमते हुए देखा, चुँकी ये दोनों बालक उनकी आध्यात्मिक लीलाओं का पाठ कर रहे थे और अयोध्या के लोग इन बालको की जय जयकार कर रहे थे , इसलिए भगवान् राम अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक उन्हें अपने राजमहल ले आते, राम इन दोनों बालकों को आदरपूर्वक अपने राज दरबार में ले गये ताकि वे वहाँ पर सभी लोगों के सामने रामायण का पाठ कर सकें ।
भगवान् राम का ध्यान इस बात पर गया कि इन बालकों की शारीरिक विशेषताएँ पंडित के समान नहीं, बल्कि क्षत्रियों के समान थीं , परंतु इसके अतिरिक्त उन्हें इस बात का जरा भी अनुभव नहीं था कि उनकी वास्तविक पहचान क्या है, लव और कुश ने जैसे ही मंत्रमुग्ध कर देने वाला रामायण का पाठ करना आरम्भ किया, वैसे ही राम और उनके भाई उसे सुनने में इतने मग्न हो गये कि उन्हें अन्य किसी भी चीज का कोई भान ही नहीं रहा ।
राम भावनामृत का प्रभाव ऐसा ही होता है , यदि इस संसार में रहते हुए हम अपने विचारों को रामायण और ऐसे ही अन्य साहित्य के केंद्रित कर दें , तो हम भौतिक बुराईयों से बचें रहते हैं और हमारी चेतना आध्यात्मिक जगत में निवास करती है ।
बालकाण्ड
अत्यन्त प्राचीन काल से, वैवस्वत मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु के वंशजों ने पृथ्वी पर शासन किया, मनु ने कौशल प्रांत में सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या नगरी में अपनी राजधानी बसाई, बाद में, इक्ष्वाकु के वंशज, महाराज दशरथ के शासन काल के दौरान अयोध्या चमत्कारिक रूप से फला और फूला।
सभी जगहों पर संगीत वाद्य यंत्रो के साथ ही साथ तोतों और मोरों की ध्वनि भी सुनी जा सकती थी, मंद मंद हवा के झोंके अपने साथ अनगिनत झरनो से बहते जल के कणों को उड़ा ले जाते थे जो आस पास से गुजरने वाले यात्रियों को गर्मीयो की तपिश से ठंडक प्रदान करते थे, इस तरह , यह मालूम होता था मानो अयोध्या नगरी स्वर्ग के अधिपति इन्द्र के निवास स्थान अमरावती को भी मात कर रही हो ।
अयोध्या की सड़कें हमेशा यात्रियों से भरी रहती थी, सम्राट को वार्षिक नजराना देने और साथ ही उनके प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए संसार के सभी हिस्सों से राजा महाराजा और राजकुमार यहाँ आया करते थे, महाराज दशरथ एक महान् राजर्षि थे, जिन्हें महर्षि के समतुल्य माना जाता था, वह सत्यनिष्ठ थे और उनकी समस्त प्रजा उनसे बहुत प्यार करती थी, महाराज दशरथ एक अतिरथ थे, जिसका अर्थ है कि वह कई हजार शत्रु योद्धाओं का मुकाबला कर सकते थे, महाराज दशरथ और साथ ही उनकी प्रजा की धर्मनिष्ठा के कारण वहाँ वैदिक सभ्यता का आदर्श रूप से पालन किया जाता था, अयोध्या में सुख समृद्धि की सभी वस्तुओं की प्रचुरता थी, जबकि पापमय जीवन के कारण उपजने वाले भौतिक दुःख वहाँ नहीं थे ,
राज्य की शान्ति और समृद्धि के लिए, अयोध्या में चारों सामाजिक वर्ण ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ) सहयोग पूर्वक काम करते थे , न तो किसी के साथ किसी तरह की धोखाधड़ी होती थी और न कोई कंजूस था, घमण्ड और नास्तिकता के साथ ही कटु व्यवहार और कठोर वाणी का वहाँ कोई ठिकाना नहीं था ।
परंतु इतनी समृद्धि और ऐश्वर्य और प्रतिष्ठा के बावजूद महाराज दशरथ प्रसन्न नहीं थे क्योंकि उनके वंश को आगे बढ़ाने के लिए उनका कोई पुत्र नहीं था, अंततः अत्यधिक सोच विचार करने के बाद उन्होंने अपनी कामना की पूर्ति के लिए एक अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया, यह विचार आते ही महाराज दशरथ ने अपने प्रधानमंत्री सुमत्र को राज पुरोहितों को बुलवाने के लिए भेज दिया ।
वशिष्ठ और वामदेव की अगुआई में जब ब्राह्मण वहाँ पहुँचे , तो महाराज दशरथ उनसे बोला — हे द्विज श्रेष्ठों , बहुत लंबे समय से मेरे मन में एक पुत्र प्राप्ति करने की कामना रही है परंतु मेरी आशाएँ निष्फल रही हैं , मेरा कोई उत्तराधिकारी नहीं है, इसलिए मैं प्रसन्न दिखने का और अधिक दिखावा नहीं कर सकता, प्रत्येक दिन बस इसी दुःख में कट जाता है, इस विषय पर अत्यन्त गंभीरतापूर्वक सोच विचार करने के बाद, मैंने आप लोगों से अनुमति लेकर एक अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया है, आप सभी शास्त्रों के ज्ञाता हैं, इसलिए मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप मेरा उचित मार्गदर्शन करें ।
महाराज के इस प्रस्ताव पर सभी ब्राह्मणों ने एकस्वर से सहमति जताई, अतः उन्होंने अपने मंत्रियों को तत्काल तैयारियाँ आरंभ करने के आदेश दे दिए, इसके बाद सुमंत्र महाराज दशरथ को एक तरफ ले गये और महान ऋषियों की एक सभा से जुड़ी एक कहानी उन्हें सुनाने लगे जो उन्होंने पहले कभी सनत्कुमार से सुनी थी ।
सुमंत्र बोले — प्रिय राजन् आप निश्चित ही इस कथा को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होंगे क्योंकि इससे यह भविष्यवाणी है कि भविष्य में आप चार यशस्वी पुत्रों के पिता बनेंगे । राजा रोमपाद ने अतीत में कुछ अपराध किए थे जिनके कारण उनके राज्य में एक बार बहुत भयानक अकाल पड़ा और वहाँ के सभी जीव इससे अत्यन्त भयभीत हो उठे, जब स्थिति असहनीय हो गई, तो महाराज रोमपाद ने अपनी विद्वान् ब्राह्मणों की समिति को बुलावाया और बोले - मैं जानता हूँ कि मेरे राज्य के लिए दुखदायी बना हुआ यह अकाल मेरी अपनी त्रुटियों का परिणाम है, हे द्विज श्रेष्ठों, आप के ज्ञान की कोई सीमा नहीं है, इसलिए कृपा करके कोई उपाय बताएँ जिससे मैं अपने पिछले सभी पापों से मुक्त हो जाऊँ ।
इस पर ब्राह्मणों ने कहा — हे राजन, विभाण्डक नामक एक ऋषि हैं जो, कश्यप के पुत्र हैं और वन में रहते हैं, विभाण्डक के पुत्र का नाम ऋष्यश्रृंग है, यदि आप उस बालक को अपने राज्य में लाएँ और अपनी पुत्री शांता का कन्यादान उन्हें करके उनसे विवाह करा दें, तो अकाल तुरंत ही समाप्त हो जायेगा ।
असल में, शांता महाराज दशरथ की पुत्री थीं, अपने निःसंतान मित्र, महाराज रोमपाद के अनुरोध पर , महाराज दशरथ ने अपनी कन्या उन्हें दे दी ताकि महाराज रोमपाद उनका पालन पोषण कर सकें, अकाल को दूर करने का उपाय सुनकर रोमपाद अत्यन्त प्रसन्न हुआ, परंतु जब उन्होंने अपने पुरोहितों से कहा कि वे ऋष्यश्रृंग को अपने साथ राज्य में लिवा लाएँ , तो पुरोहितों ने ऐसा करने से मना कर दिया।
ब्राह्मणों ने महाराज को इसका कारण समझाते हुए कहा - अगर हम विभाण्डक के पुत्र को उनके घर से ले जाने के लिए प्रलोभन देने का प्रयास करेंगे तो विभाण्डक हमें शाप दे देंगे, इसका कारण यह है कि ऋष्यश्रृंग को मनुष्यों से एकांत में रखकर पाला पोसा गया है और उसने अपने पिता के अतिरिक्त अन्य किसी भी मनुष्य को देखा तक नहीं है, उसे सांसारिक प्रपंचों के मायाजाल से दूर रखने के लिए उसके पिता ने यह उपाय निकाला है ।
प्रिय राजन्, हम सभी आपके क्लयाण की कामना करते हैं, इसलिए हमने ऋष्यश्रृंग को आपके राज्य में लाने का एक उपाय निकाला है इस बालक ने कभी भी स्त्री जाति को नहीं देखा है और वह उनके सानिध्य के आनन्द से पूर्णतः वंचित है आप सबसे सुंदर गणिकाओं को वहाँ भेजें और इस बालक को अपनी मधुर स्त्रैण कथाओं से प्रलोभित करने को कहें , हमें विश्वास है कि इस ढंग से आपका उद्देश्य आसानी से पूर्ण हो जायेगा ।
महाराज रोमपाद ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और सबसे युवा व सुन्दर वेश्याओं को जंगल में भेज दिया, राजा द्वारा आदेश मिलने और प्रचुर उपहार दिए जाने का वचन मिलने के बाद, ये लड़कियाँ युवा ऋषि को किसी भी कीमत पर राज्य में लिवा लाने का संकल्प लेकर जंगल को रवाना हो गई, इन लड़कियों ने जंगल में विभाण्डक के आश्रम के निकट ही अपना डेरा जमाया और किसी उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगीं, एक दिन ऋष्यश्रृंग जंगल में भटकते हुए इन वेश्याओं के डेरे पर आ पहुँचे ।
लड़कियाँ अत्यंत प्रसन्न होकर ऋष्यश्रृंग का अभिवादन करने आईं, बालक की पहचान के बारे में पूछने पर, युवा ऋषि ने कहा - मैं विभाण्डक ऋषि का पुत्र हूँ, और पास ही में स्थित अपने पिता के आश्रम पर तप कर रहा हूँ। आप सभी अत्यन्त सुंदर हैं! मैं चाहता हूँ कि आप मेरे घर पर आयें और मेरी आराधना व आतिथ्य- सत्कार ग्रहण करें।"
यह कहकर, लड़कियों ने ऋष्यश्रृंग का बहुत कसकर और अत्यन्त स्नेहपूर्वक आलिंगन किया और उन्हें कुछ अत्यधिक स्वादिष्ट मिष्ठान खाने को दिए। ऋषि के भोले व सरल हृदय पुत्र ने कभी भी इतनी स्वादिष्ट वस्तु नहीं चखी थी क्योंकि वह जंगल में मिलने वाले फल और कंद-मूल को ही खाने का अभ्यस्त था। वास्तव में उसने सोचा कि ये मिष्ठान निश्चित ही कोई ऐसे अद्भुत फल हैं जिन्हें उसने आज से पहले देखा या चखा नहीं है। इसके अतिरिक्त, आज से पहले उसने अपने पिता के अतिरिक्त अन्य किसी मनुष्य को नहीं देखा था, इसलिए उसने यह सोचा कि ये वेश्याएँ अत्यन्त सुंदर रूप वाले पुरुष हैं।
लड़कियों के जाने के बाद ऋष्यश्रृंग के मन में बेचैनी होने लगी क्योंकि कामुक इच्छाओं का जो बीज लंबे समय से अब तक मन में दबा हुआ था वह अब अंकुरित हो चुका था। ऋष्यश्रृंग चाहकर भी स्वयं को उन सुंदर लड़कियों के बारे में सोचने से नहीं रोक पा रहे थे, क्योंकि उनकी मधुर बातों और कामुक आलिंगनों ने उनके मन को जकड़ लिया था। उस रात वह ठीक से सो भी नहीं पाए और अगली सुबह जब उनके पिता किसी कार्य से कहीं गये हुए थे, तो वह सीधे वेश्याओं के डेरे को चल पड़े।
ऋष्यश्रृंग को देखकर लड़कियाँ अत्यन्त प्रसन्न हुई, वे बोली, "प्रिय बालक, यह हमारा असली घर नहीं है। हमारे साथ हमारे अद्भुत तैरने वाले आश्रम में आओ, तो हम आपको एक ऐसी जगह ले जायेंगी जहाँ हम ज्यादा अच्छी तरह से आपका मनोरंजन कर सकेंगी। हमारे पास ढेरों किस्म के फल और कंद-मूल हैं और हम साथ मिलकर इतना अधिक आनन्द-भोग करेंगे कि समय बीतने का पता ही नहीं चल पाएगा।
पूरी तरह से आसक्त हो चुके ऋष्यश्रृंग बिना किसी हिचक के उन वेश्याओं के साथ चल पड़े। इस तरह से वे वेश्याएँ ऋष्यश्रृंग को अंग प्रांत में स्थित महाराज रोमपाद की राजधानी में ले आई। ऋष्यश्रृंग को जब गंगा नदी के रास्ते से ले जाया जा रहा था, तभी इंद्र देव ने बारिश की फुहारें बरसा दी और समस्त जीवधारियों को इन फुहारों से अत्यन्त आनन्द का अनुभव हुआ।
ऋष्यश्रृंग के आगमन का समाचार सुनकर महाराज रोमपाद उनका अभिनंदन करने के लिए अपने राजमहल से बाहर आये। युवा ऋषि को झुककर प्रणाम करने के बाद, राजा ने पूरे हृदय से उनकी वंदना की और फिर उन्हें अपने राजमहल के अंदर अपनी पुत्री के कक्ष में ले गये। वहाँ महाराज रोमपाद ने ऋष्यश्रृंग को अपनी पुत्री शांता अर्पित की।
ऋषि को अत्यन्त संतुष्ट देखकर, राजा ने अनुरोध किया, कृपा कर मुझे यह वरदान दें कि आपको छल-कपटपूर्वक प्रलोभित करके जिस प्रकार आपके घर से यहाँ मेरे राज्य में लाया गया है उसके लिए आप या आपके पिता प्रतिकार नहीं करेंगे।
ऋष्यश्रृंग ने राजा को आश्वासन दिया और फिर बहुत धूम-धाम से विवाह सम्पन्न किया गया। विवाह के पश्चात् नवदंपति राजा रोमपाद के महल में राजसी ठाट-बाट के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे।
सुमंत्र से यह कथा सुनकर महाराज दशरथ अत्यन्त प्रसन्न हुए। वह समय गंवाए बिना, अपने नौकर-चाकरों के साथ अंग प्रांत के लिए रवाना हो गये। राज रोमपाद ने अत्यन्त हर्ष के साथ अपने मित्र का स्वागत किया और उसी समय ऋष्यश्रृंग को यह बताया कि महाराज दशरथ ही उनके असली ससुर हैं।
लगभग एक सप्ताह तक राजा रोमपाद के आतिथ्य सत्कार का आनन्द उठाने के बाद, महाराज दशरथ ने अपने मित्र से कहा, "बहुत लंबे समय से मैं दुखी और चिंतित हूँ क्योंकि मेरे महान वंश को आगे बढ़ाने के लिए मेरा कोई पुत्र नहीं है। मेरा अनुरोध है कि आप मुझे ऋष्यश्रृंग को अपने साथ अयोध्या ले जाने की अनुमति दें ताकि वह मेरी और से अश्वमेध यज्ञ को सम्पन्न कर सके। "
रोमपाद खुशी-खुशी मान गये और इस प्रकार महाराज दशरथ अपने साथ ऋष्यश्रृंग और शांता को लेकर अपनी राजधानी लौटे। वसंत का समय आरंभ होते समय, महाराज विनम्रतापूर्वक ऋषि के पास गये और उनसे यज्ञ सम्पन्न कराने के लिए मार्गदर्शन करने का अनुरोध किया। इस प्रकार तैयारियाँ आरंभ हो गईं और सरयू नदी के उत्तरी तट पर यज्ञ के लिए एक स्थान का चुनाव किया गया। दशरथ ने पहला आमंत्रण राजा जनक को भेजा क्योंकि वह यह जानते थे कि राजा जनक ही उनके पुत्रों के भावी ससुर होंगे।
अश्वमेध यज्ञ में एक अश्व को चुनौती के प्रतीक के रूप में स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है, यानी वह अपनी इच्छा के अनुसार इधर-उधर विचरण करता है और शाही रक्षक उसके साथ रहते हैं। यह अश्व धरती के जिस भी स्थान पर जाता है वहाँ के समस्त राजा सम्राट के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए उपहार देते हैं, अन्यथा अश्व को कैद करके सम्राट की चुनौती स्वीकार करते हैं। यदि चुनौती देने वाला अश्व बिना बंदी बने राजमहल लौट आता है, तो अश्वमेध यज्ञ सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। इस प्रकार, पूरे एक वर्ष तक इधर-उधर विचरण करने के बाद जब अश्वमेध यज्ञ का अश्व अयोध्या वापस लौटा, तो यज्ञ की आहुति का कार्य आरंभ किया गया।
नगर के बाहर तँबुओं और मंडपों से सजे एक क्षेत्र में विशाल जन समुदाय जमा हुआ। इनमें पृथ्वी के कोने-कोने से आये राजा-महाराज और उनकी रानियाँ, राजकुमार और राजकुमारियाँ शामिल थे जो सम्राट के लिए बहुमूल्य उपहार लेकर आये थे। इस स्थान के बीच में आहुति की अग्नि प्रज्वलित थी जिसके चारों ओर बैठे हुए ब्राह्मण वैदिक मंत्रों का पाठ कर रहे थे।
महाराज दशरथ की सबसे बड़ी रानी कौशल्या ने आहुति के खूँटे से बँधे हुए अश्वमेध यज्ञ के अश्व को परिक्रमा की। इसके बाद महारानी ने शास्त्रों में दिए गये निर्देशों के अनुसार एक तलवार के तीन प्रहार से अश्व का सिर काट दिया। ऋष्यश्रृंग ने मृत अश्व की चर्बी आहुति के लिए प्रज्वलित की गई अग्नि को समर्पित की और महाराज दशरथ को आहुति से उठने वाले धूम्र को सूंघकर श्वास भरने को कहा गया क्योंकि ऐसा करने से यज्ञकर्ता सभी पापों से मुक्त हो जाता है। इसके बाद, सहायक पुरोहितों ने अश्व के अन्य पैरों को आहुति की अग्नि को अर्पित किया। इस प्रकार तीन दिन तक विधि-विधान से चलने के बाद अश्वमेध यज्ञ सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ।
इस प्रकार की आहुतियाँ पहले के युगों में की जाती थीं क्योंकि तब यह निश्चित होता था कि जिस पशु की आहुति दी जा रही है वह निश्चित ही स्वर्ग में जायेगा। इस प्रकार की आहुतियों और बलियों की सफलता ऐसे ब्राह्मणों की शक्तियों पर निर्भर होती थी जो अपनी अद्वितीय धर्मपरायणता के बल पर मंत्रों का आदर्श रूप से पाठ कर सकते थे और आहुतियाँ स्वीकार करने के लिए देवताओं को आमंत्रित कर सकते थे। आजकल ऐसे योग्य और सक्षम ब्राह्मण नहीं होते हैं और इसलिए इस प्रकार की बलि देने की परंपरा प्रतिबंधित कर दी गई है।
आहुति सम्पन्न हो जाने पर, महाराज दशरथ ने चार प्रमुख पुरोहितों को सम्पूर्ण पृथ्वी दान कर दी, परंतु ब्राह्मणों ने यह उपहार लौटाते हुए कहा, "हे राजन्, हमारा जीवन वेदों का अध्ययन करने और तप करने के लिए समर्पित है और राज-काज के कार्य में हमारी कोई रुचि नहीं है। कृपा कर हमें ऐसे उपहार दें जो हमारे लिए उपयोगी हों, जैसे कि गाय या स्वर्ण ।
इसके बाद ऋष्यश्रृंग महाराज दशरथ के पास गये और बोले, "हे राजन निश्चित ही आपके चार यशस्वी पुत्र होंगे, परंतु मेरा प्रस्ताव है कि आप एक अन्य यज्ञ करें जिसे पुत्रेष्टी यज्ञ कहा जाता है और जिसे पुत्र रत्न के फल को प्राप्ति के उद्देश्य से ही किया जाता है।"
महाराज दशरथ तत्काल ही यह यज्ञ करने के लिए सहमत हो गये और अश्वमेध यज्ञ के सम्पन्न होने के शीघ्र बाद ही पुत्रेष्टी यज्ञ आरंभ कर दिया गया। इसी बीच, देवताओं के प्रतिनिधि भगवान् ब्रह्मा के पास गये और बोले, "हे परमपिता, आपसे वरदान प्राप्त करके रावण इतना अधिक शक्तिशाली हो गया है कि वह अपनी इच्छानुसार सभी पर अत्याचार कर रहा है। हम लोग भी दुष्ट रावण को वश में करने में असमर्थ हैं और इसीलिए हम आपसे विनती करते हैं कि दुष्ट रावण का नाश करने का कोई मार्ग बताएँ।"
ब्रह्माजी ने पल भर इस पर विचार किया और फिर बोले, "वरदान प्राप्त करते समय रावण ने मनुष्य के हाथों मृत्यु से बचने का अभयदान नहीं माँगा क्योंकि वह मनुष्यों को अत्यन्त तुच्छ समझता है।"
ब्रह्माजी अभी इस मामले पर गंभीरतापूर्वक विचार ही कर रहे थे कि तभी अचानक भगवान् विष्णु अपने वाहन गरुड़ पर सवार होकर वहाँ पहुँच गये। अनेक सूर्यो के समान तेज वाले, चतुर्भुजाधारी (चार भुजाओं वाले) भगवान् ने दैदीप्यमान केसरिया रंग के वस्त्र धारण किए हुए थे और उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल का एक पुष्प था।
देवताओं ने अत्यन्त भक्ति और श्रद्धा के साथ भगवान् विष्णु की आराधना की और फिर वे बोले, "हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हमारी रक्षा के लिए दया करके आप स्वयं को चार में विभक्त करें। इस प्रकार महाराज दशरथ के चार पुत्र बन जायें और फिर रावण का संहार करें।
यह कहकर भगवान् विष्णु रहस्यमय ढंग से अंतर्ध्यान हो गये और यह देखकर देवगण चकित रह गये। इसी बीच महाराज दशरथ द्वारा किये जा रहे यज्ञ की अग्नि से अत्यन्त काले रंग का एक असाधारण व्यक्तित्व प्रकट हुआ जिसके शरीर के सभी अंगों पर शुभ चिह्न अंकित थे। यह व्यक्ति असीमित शक्तियों वाला जान पड़ता था और आध्यात्मिक आभूषणों से सुसज्जित था और उसने अपने हाथों में सोने का एक बड़ा बर्तन पकड़ रखा था जिसमें खीर थी। इस दिव्य पुरुष ने महाराज दशरथ को संबोधित करके कहा, "मैं भगवान् विष्णु का दूत हूँ।"
प्रार्थना की मुद्रा में दोनों हाथ जोड़कर, महाराज दशरथ बोले, "हे विष्णु दूत, कृपा कर आदेश दें। मैं क्या सेवा कर सकता हूँ?"
भगवान् विष्णु के सेवक ने कहा, "आपके दोनों यज्ञों की सफलता के उपहारस्वरूप खीर का यह पात्र आपके लिए हैं। इसके तीन हिस्से अपनी तीनों पत्नियों को दें। उनसे आपको चार पुत्र रत्न प्राप्त होंगे जो अनंत काल तक आपके यश को बढ़ाते रहेंगे।
महाराज दशरथ ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए प्रसाद का पात्र स्वीकार किया और फिर श्रद्धापूर्वक विष्णु-दूत की परिक्रमा की और भगवान् विष्णु का दूत अचानक अंतर्ध्यान हो गया। राजा बिना समय गंवाए तत्काल अपनी पत्नियों के पास गये और उन्हें प्रसाद खिलाया क्योंकि वह पुत्र प्राप्त करने के लिए अत्यन्त उतावले थे।
महाराज दशरथ ने सबसे पहले खीर का आधा हिस्सा अपनी सबसे बड़ी पत्नी कौशल्या को दिया। इसके बाद उन्होंने एक-चौथाई खीर सुमित्रा को और खीर का आठवाँ हिस्सा सबसे छोटी पत्नी कैकेयी को दिया, कुछ सोच-विचार करने के बाद राजा ने बचा हुआ आठवाँ हिस्सा सुमित्रा को दे दिया। इस प्रकार सभी रानियाँ अत्यन्त प्रसन्न हुई क्योंकि अब उन्हें यह विश्वास हो गया था कि शीघ्र ही वे माताएँ बन जायेंगी। उन्होंने अत्यन्त उत्साहपूर्वक अपने-अपने हिस्से का प्रसाद ग्रहण किया और फिर नियत समय बाद प्रत्येक रानी को अपने गर्भ में दिव्य संतान की उपस्थिति का अनुभव हुआ। महाराज दशरथ को जब यह पता चला कि उनकी पत्नियाँ गर्भवती हैं, तो वह भी अत्यधिक प्रसन्न हो उठे।
इसी बीच, भगवान् ब्रह्मा ने देवगणों को इस प्रकार से आदेश दिया "शीघ्र ही भगवान् विष्णु मानव समाज में अवतरित होंगे, इसलिए उनकी सहायता करने के लिए आप सभी को अपने-अपने आंशिक अवतार लेने चाहिए। मैं यह चाहत हूँ कि आप अप्सराओं, बंदरियों, यक्षों, नागों, विद्याधरों और किन्नरों के साथ संयोग करके दिव्य बंदरों की एक नस्ल निर्मित करें। ये संतानें अपनी इच्छानुसार कोई भी रूप धारण करने में सक्षम होनी चाहिए और उनके पास कुछ अन्य मायावी शक्तियाँ भी होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, वे अत्यन्त बुद्धिमान होने चाहिए और उन्हें अस्त्र-शस्त्रों के संचालन का श्रेष्ठ ज्ञान भी होना चाहिए। उनके पास आपके समान शक्ति होनी चाहिए और साथ ही उनके दैवीय शरीर होने चाहिए।"
यह आदेश प्राप्त करने के बाद, इन्द्र ने वालि के रूप में, सूर्य ने सुग्रीव, बृहस्पति ने तारा, कुबेर ने गंधमादन, विश्वकर्मा ने नल और अग्नि ने नील के रूप में सन्तानें उत्पन्न कीं। अश्विनी कुमारों ने मैदा और द्विविदा, वरुण ने सुशेण और वायु ने हनुमान का अवतार धारण किया। इन प्रमुख वानरों के अतिरिक्त भगवान् विष्णु के उद्देश्य में सहायता करने के लिए अनेक हजार देवताओं ने संतानों को जन्म दिया। वे सभी पर्वतों के समान विशालकाय थे और साथ ही रावण के साथ युद्ध करने को बहुत उत्सुक थे। जिन देवगणों ने वानरों के रूप में इन संतानों को उत्पन्न किया, उन्हीं के समान इन वानरों का जन्म गर्भधारण के तुरंत बाद ही हो गया और वे इतने अधिक शक्तिशाली थे कि वे अपनी असाधारण ऊर्जा के बल पर समुद्र तक को आंदोलित कर सकते थे।
'देवगणों ने असल में तीन प्रकार के जीवों की सृष्टि की। पहले ब्रह्माजी के मुँह से, जिस समय ब्रह्माजी जम्हाई ले रहे थे, भालुओं के राजा जाम्बवान निकले। ये भालू पहले प्रकार के जीव थे और अन्य दो प्रकार के जीव बंदरों के रूप में प्रकट हुए जिनमें से एक प्रकार के बंदरों की गायों की तरह लंबी पूंछें थीं। धरती पर इन भालुओं और बंदरों की संख्या एक करोड़ से अधिक थी और जिस समय ये प्राणी जंगलों में नाना प्रकार के फल और कंद-मूल खाने के लिए भटकते, उस समय अपनी भाग-दौड़ से वे पृथ्वी को रौंद डालते।
फिर, बारह माह की गर्भावस्था के बाद, चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को कौशल्या ने एक पुत्र को जन्म दिया। नवजात शिशु की आँखें और होंठ लाल थे और उसके शरीर पर सभी शुभ चिह्न अंकित थे। कौशल्या का यह पुत्र भगवान् विष्णु की आधी शक्ति व क्षमता का प्रतिनिधित्व करता था।
शीघ्र ही, भगवान् विष्णु की चौथाई शक्ति व क्षमता का प्रतिनिधित्व करने वाला एक शिशु, महाराज दशरथ की सबसे छोटी पत्नी कैकेयी के पुत्र के रूप में पैदा हुआ। कैकेयी के पुत्र के जन्म लेने के दो दिन बाद, सुमित्रा ने जुड़वां संतानों को जन्म दिया, जिनमें से प्रत्येक बालक भगवान् विष्णु की शक्ति व क्षमता के आठवें हिस्से का प्रतिनिधित्व करता था। ये चारों नवजात शिशु एक-दूसरे से अत्यधिक मिलते-जुलते दिखते थे। वे अत्यन्त ओजपूर्ण थे और उन्हें निहारना अत्यन्त सुखकर था। दशरथ के इन चारों पुत्रों के जन्म के समय देवगणों ने स्वर्ग से पुष्पों की वर्षा की और साथ ही आकाश लोक से दिव्य संगीत की ध्वनि भी सुनाई दी।
अयोध्या में एक विशाल उत्सव आयोजित हुआ क्योंकि इस शुभ अवसर पर आनन्द मनाने के लिए सभी नागरिक सड़कों पर उमड़ पड़े थे और उनके साथ वहाँ संगीत, नर्तक और अभिनय करने वाले लोग भी थे जो सबका मनोरंजन कर रहे थे।
कौशल्या के पुत्र के जन्म के तेरह दिन बाद, पारिवारिक पुरोहित वशिष्ठ मुनि ने नामकरण समारोह सम्पन्न किया। इन अत्यन्त सौभाग्यशाली मुनि ने कौशल्या के पुत्र का नाम राम, कैकेयी के पुत्र का नाम भरत और सुमित्रा के जुड़वां पुत्रों के नाम लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे।
इसके बाद, वशिष्ठ मुनि ने महाराज दशरथ के पुत्रों के समस्त शुद्धिकारक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करने का दायित्व पूरा किया, जिनके अंत में जनेऊ पहनाने का अनुष्ठान किया गया। वशिष्ठ मुनि के सक्षम मार्गदर्शन में, ये चारों बालक वेदों के ज्ञाता बने, महान योद्धा बने और साथ ही समस्त दैवीय गुणों के भंडार भी बन गये। अपने जन्म के समय से ही राम अपने अन्य भाइयों की तुलना में सभी प्रकार से सर्वश्रेष्ठ थे और इसी कारण वह स्वाभाविक रूप से अपने पिता के सबसे प्रिय पुत्र बन गये थे। बचपन से ही, लक्ष्मण को अपने बड़े भाई राम से अत्यधिक लगाव था और राम भी लक्ष्मण से उतना ही स्नेह करते थे। सच तो यह है कि लक्ष्मण के बिना राम न तो भोजन करते थे और न ही सोने जाते थे। राम यदि वन में शिकार करने जाते, तो लक्ष्मण बिना किसी चूक के उनके साथ जाया करते। इसी प्रकार, भरत और शत्रुघ्न भी एक-दूसरे से अत्यन्त स्नेह करते थे और उनको अलग करना संभव नहीं था।
राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ने जब अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी कर ली, तब महाराज दशरथ ने उनके विवाह के संबंध में वशिष्ठ मुनि से परामर्श किया। एक दिन जब इसी संबंध में चर्चा चल रही थी, तो उसी समय अत्यन्त शक्तिशाली ब्रह्मर्षि विश्वामित्र अयोध्या पहुँचे और राजमहल के अंदर चले आये। ब्रह्मर्षि का स्वागत करने के लिए महाराज दशरथ और वशिष्ठ मुनि तत्काल अपने आसनों से उठ खड़े हुए। महाराज दशरथ ने यथोचित सम्मान देकर अपने अतिथि की वंदना की। इसके बाद, वह विश्वामित्र को राज दरबार में लेकर गये और उन्हें एक बहुमूल्य आसन पर बिठाया।
इसके बाद राजा ने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक उनसे कहा, "हे मुनिश्रेष्ठ, मुझे आशा है कि जन्म और मृत्यु के निरंतर चलने वाले चक्र पर विजय पाने के आपके प्रयास सफलतापूर्वक संचालित हो रहे हैं। आपका यहाँ आना उसी प्रकार है जैसे कि किसी व्यक्ति को अमृत का प्याला मिल जाये, जैसे कि लंबे समय तक सूख रहने के बाद मूसलाधार बारिश हो जाये, जैसे कि किसी निःसंतान को पुत्र रत्न मिल जाये, या फिर किसी व्यक्ति को उसका खोया हुआ वह खजाना मिल जाये। जिसे पाने की वह आशा त्याग चुका हो।"
विश्वामित्र द्वारा कुशलक्षेम पूछे जाने पर, महाराज दशरथ आदर सहित बोले, "हे मुनिश्रेष्ठ, आपका यहाँ आना मेरा सौभाग्य है। आपकी उपस्थिति से मेरा सम्मान बढ़ा है। कृपा करके बताएँ कि मुझसे आपकी क्या अपेक्षा है ताकि मैं आपके यहाँ पधारने के उद्देश्य को पूरा करने का सौभाग्य पा सकूँ।"
राजा के इस स्वागत से विश्वामित्र अत्यन्त प्रसन्न हुए। वह बोले, "मैं एक महान यज्ञ कर रहा था, परंतु इससे पहले कि यह यज्ञ पूरा हो पाता, मारीच और सुबाहु नामक दो दुष्ट राक्षसों ने इस यज्ञ को भंग कर दिया। मैंने यज्ञ पूरा करने के समस्त संभव प्रयास किए, परंतु उन राक्षसों ने हर बार यज्ञ वेदी पर माँस और रक गिराकर यज्ञ - क्षेत्र को दूषित कर दिया और इस प्रकार मेरे सारे प्रयासों को निष्फल कर दिया।
"महाराज, मैं आपके पुत्र राम को अपने साथ ले जाना चाहता हूँ ताकि वह इन दोनों भयानक राक्षसों का संहार करके मेरे इस यज्ञ को सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सकें। कृपया पितृ-प्रेम की भावना से मेरे अनुरोध का मान रखने से न हिचकिए, क्योंकि मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि राम आसानी से यह कार्य कर सकते हैं। आपको इस उदारता के बदले में आपको ढेरों आशीष दूंगा, इसलिए कृपया मुझे राम को मात्र दस दिन के लिए अपने साथ ले जाने दें। आप निश्चिंत रहें, वह सकुशल वापस आ जायेंगे।"
विश्वामित्र के शब्दों से महाराज दशरथ को ऐसा सदमा पहुँचा कि उनका पूरा शरीर थर-थर काँपने लगा। ब्रह्मर्षि की बात पूरी होते ही महाराज दशरथ सिंहासन पर बैठे-बैठे ही मूर्च्छित हो गये। शीघ्र ही उनकी चेतना लौट आई, परंतु जैसे ही उनके मन में एक बार फिर से राम को खो देने का विचार आया, वह फिर मूर्च्छित हो गये और जमीन पर गिर पड़े। इस बार उन्हें पूरी तरह से होश में आने में लगभग एक घंटा लगा।
विश्वामित्र बोले, "इन समस्त राक्षसों का राजा रावण है और वह समस्त संसार पर अत्याचार कर रहा है। जब वह स्वयं व्यक्तिगत रूप से किसी यज्ञ में बाधा नहीं डालता है, तो वह इन दो शक्तिशाली राक्षसों (मारीच और सुबाहु) को यह पाप- कार्य करने का दायित्व सौंप दिया करता है।"
रावण का नाम सुनते ही महाराज दशरथ और अधिक भयभीत हो उठे और चौत्कार कर उठे, “रावण से युद्ध करना किसी भी व्यक्ति के सामर्थ्य में नहीं है! यहाँ तक कि उन अन्य दो राक्षसों का वध करना भी मेरे या मेरे पुत्र के लिए संभव नहीं है। हे ऋषिवर, मैं आपका अनुरोध पूरा नहीं कर सकता। यहाँ तक कि अपने पुत्र की आपके साथ भेजने की बात तक सोचना मेरी सहन शक्ति के बाहर है।
पुत्र-वियोग के दुख । से उन्मत्त हो गये महाराज दशरथ इसी तरह ऊल-जुलूल ढंग से बोलते रहे और उन्होंने विश्वामित्र का अनुरोध पूरा करने से मना कर दिया। इसे ऋषि ने अपना अपमान समझा। विश्वामित्र के क्रोध की ज्वाला भड़क उठी और वह क्रुद्ध होकर बोले, "अरे मूर्ख राजा! तुम्हारी यह धृष्टता ही तुम्हारे सम्पूर्ण वंश के विनाश का कारण बनेगी! तुमने मेरे उद्देश्य को पूर्ण करने में सहयोग देने का वचन दिया था और अब तुम अपने वचन से पीछे हट रहे हो। राघव वंश में एक ब्राह्मण के साथ इस प्रकार का व्यवहार आज से पहले कभी नहीं हुआ, अतः मैं इसी समय इस अधम स्थान को छोड़कर जाता हूँ!
क्रोध से घर-थर काँपते विश्वामित्र को देख, सम्पूर्ण पृथ्वी इस प्रकार काँपने लगी कि स्वर्ग के देवतागण भी भयभीत हो उठे।
वशिष्ठ मुनि तत्काल महाराज दशरथ के पास गये और बोले, "हे राजन, इस समय ऐसा अनुचित कार्य करके इससे पहले अर्जित किए हुए अपने सारे पुण्यों को नष्ट न करें। आपने पवित्र वचन दिया है, इसलिए आपको अपना पुत्र विश्वामित्र जी को देकर अपने वचन को अवश्य पूरा करना चाहिए। "विश्वामित्र जी पहले एक राजा थे और उन्हें भगवान् शिव से ऐसे दिव्य अस्त्र-शस्त्र प्राप्त हुए थे जो दक्ष की पुत्रियों, जया और सुप्रभा से शिव को मिले थे। विश्वामित्र निश्चित ही ये अस्त्र राम को देंगे और साथ ही राक्षसों का संहार करने के लिए आवश्यक शक्तियाँ भी देंगे। सच तो यह है कि ऋषि विश्वामित्र स्वयं ही बड़ी आसानी से मारीच और सुबाहु का वध कर सकते हैं, परंतु वह आपसे सहायता माँग रहे हैं ताकि आपके पुत्र का यश बढ़े।
अपने गुरु के इन शब्दों को सुनकर, महाराज दशरथ का भय दूर हो गया और उन्होंने पुनः अपना मानसिक संतुलन और शान्ति प्राप्त कर ली। महाराज खुशी- खुशी अपने पुत्र को विश्वामित्र के साथ भेजने को तैयार हो गये और इससे ऋषि को भी संतोष हुआ।
महाराज दशरथ ने राम को बुलवाया और चूँकि लक्ष्मण अपने बड़े भाई राम के बिना नहीं रह सकते थे इसलिए वह भी राम के साथ आ गये। राजा ने संक्षेप में उन्हें ऋषि विश्वामित्र का अनुरोध कह सुनाया और स्नेहवश अपने पुत्रों के शीश चूम लिए। इसके बाद ऋषि वहाँ से चल पड़े और राम व लक्ष्मण अपने धनुषों के साथ उनके पीछे-पीछे चलने लगे। जिस समय वे तीनों राजमहल से बाहर निकल रहे थे, तो स्वर्ग से पुष्पवृष्टि हुई और हवा के सौम्य शोकों ने चारों ओर पुष्प बिखेर दिए, साथ ही आकाश की तरफ से दिव्य संगीत ध्वनि आती सुनाई दी।
शीघ्र ही, विश्वामित्र, राम और लक्ष्मण अयोध्या से बहुत दूर निकल आये। सरयू नदी के किनारे-किनारे लगभग बीस किलोमीटर तक चलने के बाद विश्वामित्र रुक गये और बोले, "प्रिय राम, थोड़ा-सा जल ग्रहण करके शुद्धिकरण के लिए आचमन करें। अब मैं आपको बल और अतिबल नामक मंत्रों की दीक्षा दूँगा। इन मंत्रों का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर, आप थकान और वृद्धावस्था के प्रभाव से मुक्त हो जायेंगे और आपको अतुलनीय ज्ञान और शक्ति प्राप्त होगी। मुझे पता है कि आप मैं ये गुण पहले से ही विद्यमान हैं, परंतु फिर भी आपके कल्याण के लिए आपको ये मंत्र प्रदान करने की मेरी कामना है।
बल और अतिबल नामक मंत्रों की दीक्षा प्राप्त करने के बाद, भगवान् राम का तेज एक हजार सूर्यो के तेज के समान हो गया। राम, लक्ष्मण और विश्वामित्र ने वह रात्रि नदी के किनारे अत्यन्त सुखपूर्वक व्यतीत की और अगले दिन वे सरयू और गंगा के संगम पर पहुँच गये।
राम ने वहाँ पर ऋषियों का एक आश्रम देखा, तो उन्होंने इसका इतिहास जानना चाहा। विश्वामित्र बोले, "यही वह स्थान है जहाँ कामदेव द्वारा भगवान् शिव की तपस्या में विघ्न डाले जाने के कारण शिवजी ने उन्हें जलाकर राख कर दिया था।"
ऋषियों द्वारा स्वागत किए जाने पर, इन तीनों यात्रियों ने उनके आश्रम में ही रात बिताई। अगली सुबह उन्होंने गंगा नदी पार की। बीच नदी में पहुँचने पर, राम ने स्पष्ट रूप से गड़गड़ाहट के साथ बहते पानी की आवाज सुनी, परंतु कहीं भी उसका कोई चिह्न नहीं दिखा।
राम द्वारा इस बारे में पूछे जाने पर विश्वामित्र बोले, "एक बार ब्रह्माजी ने अपने मन में जल का एक सरोवर निर्मित किया, इसीलिए इसे मानस सरोवर कहा जाता है। सरयू नदी के जल का स्रोत यही मानस सरोवर है। जल के बहकर आने की जो ध्वनि आपको सुनाई दे रही है वह मानस सरोवर से आकर गंगा में मिल रहा है। हे राम, आपको इस पवित्र स्थान की वंदना करनी चाहिए और इसे प्रणाम करना चाहिए।"
गंगा के दक्षिणी तट पर पहुँचने के बाद, राम ने एक सघन, निर्जन वन प्रांत देखा। वह बोले, "इस निर्जन वन को देखकर किसी भी व्यक्ति के हृदय में भय का संचार हो सकता है। कृपा करके मुझे बताएँ कि इसका क्या कारण है। "
विश्वामित्र बोले, "इंद्र ने जब वृत्रासुर का वध कर दिया तो उसके बाद वह पापों से व्याकुल हो उठे और इस कारण से उनका तेज नष्ट हो गया। इंद्र को सामान्य स्थिति में लौटाने के लिए देवगणों ने वैदिक मंत्रों से अभिमंत्रित किए हुए गंगाज से उन्हें स्नान कराया। फिर इंद्र की समस्त अशुद्धियों वाले इस जल को उन्होंने इस स्थान पर फेंक दिया। इसलिए इस स्थान ने इंद्र के समस्त पापों को स्वीकार कर लिया, परंतु बदले में स्वर्गाधिपति इंद्र ने इस स्थान को अत्यन्त समृद्धशाली होने का वरदान दिया। इसके परिणामस्वरूप, यहाँ मालदा और करुशा नामक दो समृद्धशाली राज्यों की स्थापना हुई।
बाद में ताड़का नामक एक दुष्ट राक्षसी यहाँ आई और यहाँ के नागरिकों को आतंकित करने लगी। राक्षस झुंड की पत्नी ही ताड़का है और उनका पुत्र मारोच है जिसका वध करने के लिए हो मैं आपको यहाँ लाया हूँ। ताड़का के भयानक प्रकोप से यहाँ के सभी लोग धीरे-धीरे यहाँ से चले गये और यह क्षेत्र पूर्णत: निर्जन हो गया।
राम ने कहा, "आप मेरे गुरु हैं इसलिए आपकी आज्ञा का पालन करना मेरा कर्तव्य है, " और यह कहकर उन्होंने अपने पराक्रमी धनुष की डोर पीछे खींचकर टंकार ध्वनि पैदा की। राम ने जब धनुष की डोर को कंपित करके चारों दिशाओं में भयानक टंकार ध्वनि गूंजने दी, तो सभी जीव धनुष की टंकार की भयानक ध्वनि से भयभीत हो उठे। यह ध्वनि ताड़का की गुफा में भी गई और इसे सुनकर वह राक्षसी क्रोध से कुपित हो उठी। ताड़का ने आग-बबूला होकर हवा में छलाँग लगाई और इस ध्वनि के आने की दिशा में तेजी से बढ़ चली और तभी राम ने उसे पास आते हुए देखा।
राम जोर से बोले, "हे लक्ष्मण, जरा इस विशाल, भयानक और घृणित जीव को देखो तो! परंतु कुछ भी हो, है तो यह स्त्री ही मैं इसका वध नहीं करूँगा, बल्कि इसके हाथ-पैर काटकर पंगु कर दूंगा ताकि यह किसी को हानि न पहुँचा सके।" ताड़का ने अपनी मायावी शक्तियों का इस्तेमाल करके धूल का एक बवंडर उठा दिया जिससे कुछ समय के लिए राम और लक्ष्मण कुछ भी नहीं देख पाए। इसके बाद, उसने आसमान से पत्थरों की बौछार करनी शुरू कर दी। राम तत्काल हाँ सचेत हो गये और अपने बाणों से उन्होंने सभी पत्थरों को चूर-चूर कर दिया और फिर ताड़का के हाथ काट दिए। राम के कहने पर लक्ष्मण ने ताड़का के कान और उसका नासिकाग्र काट दिया, परंतु अचानक ही वह अन्तर्ध्यान हो गई।
अब ताड़का ने अदृश्य होकर फिर से पत्थरों की बौछार करनी शुरू कर दी और ठीक तभी विश्वामित्र ने कठोर स्वर में आग्रह किया, "हे राम, सांझ हो रही है। अंधेरा होने पर राक्षसों की शक्ति अत्यधिक बढ़ जाती है। इसलिए अब अपना दया भाव छोड़ें और ताड़का का तत्काल वध कर दें। "
यह सुनकर, राम ने बाणों की बारिश कर दी। परंतु तभी अचानक ताड़का दिखने लगी और वह राम की तरफ अत्यन्त क्रोध से दौड़कर आने लगी। परंतु राम ने विचलित हुए बिना अपने तरकश से एक विशेष शक्ति वाला वाण निकाला और अपनी तरफ आती राक्षसी की ओर इसे चला दिया। जगमगाते हुए इस बाण ने ताड़का के हृदय को आर-पार वेध दिया और दर्द से बिलबिलाती हुई राक्षसी भयानक गर्जना के साथ धरती पर गिरी और उसके प्राण पखेरू उड़ गये।
इसी समय, इंद्र की अगुआई में देवतागण एक एकांत स्थान पर विश्वामित्र से भेंट करने आये। वे बोले, " श्रीराम को हमारी ओर से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य करना है, इसलिए आप बिना समय गंवाए दिव्य अस्त्रों का अपना समस्त ज्ञान उन्हें प्रदान करें।"
यह कहकर देवगण तत्काल ही दृष्टि से ओझल हो गये। विश्वामित्र, राम और लक्ष्मण ने वह रात वहीं पर शान्ति के साथ बिताई। अगली सुबह, विश्वामित्र ने राम को दिव्य अस्त्रों से संबंधित अपना समस्त ज्ञान दे दिया। राम ने जब दिव्य अस्त्रों को जागृत करने वाले मंत्रों की दीक्षा प्राप्त कर ली, तो ये दिव्य अस्त्र मानव रूप में उनके सामने प्रकट हो गये। वे बोले, "भगवान् राम, कृपा करके हमें आदेश दें कि हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं?"
भगवान् राम बोले, “मेरा अनुरोध है कि जिस समय मैं आपको आह्वान करूँ, उस समय आप मेरे सामने प्रकट हो जायें।" दिव्य अस्त्रों के जाने के बाद, विश्वामित्र, राम और लक्ष्मण ने अपनी यात्रा जारी रखी। काफी दिन चढ़ जाने पर, वे विश्वामित्र के आश्रम पहुँचे जिसे सिद्धाश्रम कहा जाता था। विश्वामित्र के शिष्यगण बाहर आये और उन्होंने अपने गुरु का तथा राम व लक्ष्मण का स्वागत किया।
विश्वामित्र बोले, "प्रिय राम, यह स्थान इससे पहले भगवान् विष्णु का निवास- स्थान था, जहाँ वह अपने वामनदेव अवतार के समय रहते थे। आप भी सभी जीवों के वही भगवान् हैं, जो मानव रूप में अवतरित हुए हैं। इस पवित्र स्थान में इतनी शक्ति है कि यह किसी भी व्यक्ति को जन्म और मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर देता है। आप इसे अपनी ही जगह समझें।"
इसके बाद विश्वामित्र ने अपने यज्ञ को जारी रखने की तैयारियाँ शुरू कर दी जबकि राम और लक्ष्मण अपने-अपने धनुष लिए हुए यज्ञ क्षेत्र की निगरानी के काम में जुट गये। इस तरह छह दिन और छह रात बिना किसी दुर्घटना के बीत गये और कोई भी नहीं सोया। फिर, छठी रात को, जब सोम रस निकाला जाना था और यह बहुत महत्वपूर्ण रात थी, तभी आहुति की अग्नि अचानक बहुत चमक के साथ जल उठी, जो राक्षसों के शीघ्र ही आने का संकेत थी।
कुछ ही पल में, आकाश क्षेत्र से भयानक गर्जना की ध्वनि सुनाई देने लगी क्योंकि मारीच और सुबाहु बिना किसी चेतावनी के अपने संगी राक्षसों के साथ जमीन की ओर झपट पड़े। अपनी मायावी शक्तियों का प्रयोग करके, इन राक्षसों ने आहुति की वेदी पर रक्त, पस, मल, मूत्र, मांस और अन्य प्रदूषित वस्तुओं की बौछार करनी शुरू कर दी।
भगनान् राम बोले, "प्रिय लक्ष्मण, मैं अपने अस्त्र-शस्त्रों से इन दुष्ट राक्षसों को यहाँ से भगा दूँगा, परंतु मैं उनका वध नहीं करूँगा क्योंकि अभी इनके भाग्य में कुछ और वर्ष तक जीवित रहना लिखा है।"
यह कहकर, राम ने एक शक्तिशाली बाण चला दिया जो मारीच के सीने में जा लगा और इसके प्रहार से वह मेरे बिना समुद्र के बीच में जा गिरा। इसके बाद एक अन्य बाण से भगवान् राम ने सुबाहु का सीना वेध दिया और वह मृत होकर जमीन पर गिर पड़ा। तीसरे दिव्य बाण को जागृत करके, भगवान् राम ने बचे हुए सभी राक्षसों को तितर-बितर करके भगा दिया और यह क्षेत्र में एक बार फिर से शान्ति स्थापित हो गई। सिद्धाश्रम में रहने वाले सभी ऋषि-मुनि बाहर आये और उन्होंने भगवान् राम को राक्षसों का मर्दन करने के लिए बधाई दी और उसी संध्या को यज्ञ सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया।
रात के बीत जाने पर, भगवान् राम ऋषियों के पास गये और उनसे पूछा, "हे ब्राह्मणों, अब आपका आश्रम समस्त विघ्र बाधाओं से मुक्त हो गया है, ऐसे में क्या हम आपकी कोई और सेवा कर सकते हैं ?"
विश्वामित्र के आग्रह पर ऋषिगण बोले, "हम लोग मिथिला राज्य को प्रस्थान करने वाले हैं ताकि हम वहाँ पर महाराज जनक द्वारा आयोजित एक विशाल यज्ञ में भाग ले सकें। हम चाहते हैं कि आप दोनों भाई भी हमारे साथ वहाँ चलें। वहाँ यज्ञ-क्षेत्र पर एक अद्भुत धनुष रखा हुआ है जो पहले कभी भगवान् शिव का था। भगवान् शिव ने यह धनुष देवताओं को दिया। देवताओं ने बाद में यह धनुष राजा देवव्रत को उपहार में दे दिया जो बहुत समय पहले मिथिला के राजा थे। यह धनुष इतना भारी है कि इंसानों की तो बिसात ही क्या है देवता तक इसे मोड़ नहीं सकते हैं। यह धनुष बहुत लंबे समय से मिथिला में है और इसे एक वेदी पर स्थापित करके फूलों, चंदन के लेप और अन्य शुभ वस्तुओं से इसकी आराधना की जाती है।"
राम खुशी-खुशी ऋषियों के साथ जाने के लिए तैयार हो गये। शीघ्र ही, महाराज जनक के यज्ञ के लिए आवश्यक सामग्रियों से लदे लगभग सौ रथों के साथ एक विशाल कारवां मिथिला को प्रस्थान करने के लिए तैयार हो गया। सारा दिन यात्रा करने के बाद वह दल सोन नदी के तट पर पहुँचा और यह निश्चय किया गया कि वह रात वे लोग वहीं बिताएँगे। प्रतिदिन संध्या वेला में राम और लक्ष्मण अत्यन्त शांत और मित्रतापूर्ण वातावरण में विश्वामित्र ऋषि के साथ बैठा करते। ऋषि के विशाल ज्ञान के भण्डार का लाभ उठाते हुए, राम उनसे मिथिला जाने के मार्ग पर यात्रा के दौरान आये विभिन्न स्थलों के इतिहास के बारे में पूछा करते।
अगले दिन सुबह के समय कारवां अपने गंतव्य की ओर आगे चल पड़ा और सूर्यास्त तक वे लोग गंगा नदी के तट पर पहुँच गये। उस दिन संध्या वेला में विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को कार्तिकेय के जन्म और गंगा के धरती पर अवतरित होने की कथा सुनाई।
अगली सुबह ऋषियों के इस कारवां ने गंगा नदी को पार किया और शाम तक वे विशाल शहर पहुँच गये। विश्वामित्र का स्वागत करने के लिए विशाल के राजा, महाराज सुमति नगर के बाहर आये और उन्होंने इस दल को अपने यहाँ रात्रि- विश्राम करने के लिए आमंत्रित किया।
अगली सुबह फिर से इस कारवां ने आगे की यात्रा जारी रखी और उस दिन वे महाराज जनक के राज्य मिथिला के सीमांत प्रांत पर पहुँच गये। वहाँ पर राम ने एक प्राचीन निर्जन आश्रम देखा और विश्वामित्र मुनि से इस बारे में पूछा।
विश्वामित्र ने इस स्थान के इतिहास का वर्णन इस प्रकार किया एक दिन जब गौतम ऋषि अपने आश्रम से बाहर गये हुए थे, तो राजा इन्द्र ने ऋषि गौतम का वेश धारण किया और उनके आश्रम गये। गौतम की पत्नी के पास जाकर वह बोले, "संभोग के आनन्द को लालसा रखने वाले लोग, स्त्री के मासिक धर्म के सोलह दिन बाद आने वाले गर्भाधान के समय तक प्रतीक्षा नहीं किया करते हैं। है प्रिये, मैं इसी समय तुमसे संभोग करना चाहता है, इसलिए कृपा करके मुझे निराश न करो। "
अहल्या यह समझ सकती थी कि उसके सामने खड़ा व्यक्ति गौतम ऋषि के भेष में असल में इंद्र हैं। परंतु फिर भी उसने उसके अनुरोध को नहीं ठुकराया क्योंकि वह स्वयं उसके आलिंगनों का सुख भोगने को लालायित थी। इस प्रकार उन दोनों ने संभोग किया। काम वासना की इच्छा शांत हो जाने के बाद, अहल्या गिड़गिड़ाकर बोली, "प्रिय इंद्र, कृपा करके मेरे पति के क्रोध से हम दोनों की रक्षा करें।"
इंद्र बोले, "भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं तत्काल यहाँ से चला जाऊँगा और कोई भी मुझे देख नहीं पाएगा।"
परंतु जिस समय भयभीत इंद्र चोरी-छुपे वहाँ से भाग रहा था, उसी समय गौतम ऋषि नदी में स्नान करके वापस लौट आये। गौतम ऋषि ने इंद्र को अपने छद्म वेश में देखा, तो इन्द्र का सिर लज्जा से झुक गया क्योंकि वह इंद्र के दुराचरण को भलीभाँति समझ सकते थे। गौतम ऋषि ने अत्यधिक क्रोध में इंद्र को शाप देते। हुए कहा, "अरे मूर्ख दुराचारी इस अक्षम्य अपराध के दंडस्वरूप तेरे अंडकोष तत्काल तेरी देह से झड़कर गिर जायें!"
ऋषि के मुँह से शाप निकलते ही, इंद्र के अंडकोष उसके शरीर से झड़कर जमीन पर गिर गये। अपने आश्रम में जाने के बाद, गौतम ऋषि ने अपनी पत्नी को भी शाप दिया, "अरे नीच स्त्री, अब से तुम इस आश्रम में किसी को भी दिखें बिना, अदृश्य होकर अकेली ही रहोगी। तुम कुछ भी खाने-पीने में असमर्थ हो जाओगी और तुम्हें राख के बिस्तर पर लेटना पड़ेगा। दूर भविष्य में जब प्रभु राम यहाँ आयेंगे और तुम उनका आतिथ्य सत्कार करोगी, तब वही तुम्हें तुम्हारे पाप से, तुम्हारी वासनाओं से मुक्त करेंगे और पति और पत्नी के रूप में मुझसे तुम्हारा मिलन कराएँगे।"
यह कहकर गौतम ऋषि हिमालय की ओर चल दिए। इसी बीच, स्वर्ग में इंद्र ने देवताओं को सूचित कर कहा, "मुझे पदच्युत करके स्वर्गाधिपति बनने के गौतम ऋषि के प्रयास को मैंने विफल कर दिया है और यह कार्य मैंने उन्हें क्रोधित करके पूरा किया है। परंतु दुर्भाग्यवश इस प्रयास में मैंने अपने अंडकोष गंवा दिये। अब किसी भी प्रकार से मेरे पुरुषत्व को पुनः स्थापित करने का प्रबंध करें।"
इंद्र की याचना सुनकर देवगणों ने एक भेड़ के अंडकोष निकालकर उन्हें इंद्र की देह में लगा दिया। विश्वामित्र बोले, "हे राम, आइए, हम गौतम के आश्रम में चलें, ताकि आप अहल्या को उसके पति के शाप से मुक्त कर सकें।"
आश्रम में राम के प्रवेश करते ही, अदृश्य अहल्या अपने मूल रूप में वापस आ गई और उनका दैहिक रूप तप के तेज से दमक रहा था। राम और लक्ष्मण ने आदर सहित अहल्या के चरण स्पर्श किए और अहिल्या ने विश्वामित्र सहित राम-लक्ष्मण का हर प्रकार से आदर-सत्कार करके स्वागत किया। यह सब होते ही, स्वर्ग से पुष्पों की वृष्टि होने लगी और आकाश से संगीत ध्वनि सुनाई देने लगी। इसके बाद अपनी पत्नी से मिलन के लिए गौतम ऋषि भी वहाँ आ गये और उन्होंने राम और लक्ष्मण की अत्यन्त श्रद्धापूर्वक आराधना की।
इसके बाद, राम और लक्ष्मण के साथ विश्वामित्र ऋषि महाराज जनक के यज्ञ-क्षेत्र की ओर चल पड़े। वहाँ पर सम्पूर्ण पृथ्वी से आये हजारों ब्राह्मणों की उपस्थिति देखकर प्रभु राम प्रसन्न हुए। सभी श्रेणी के दर्शनार्थियों के लिए तंबुओं की व्यवस्था की गई थी और महायज्ञ की तैयारियाँ चल रही थीं। जैसे ही महाराज जनक को विश्वामित्र के आगमन की सूचना मिली, वह उनके स्वागत के लिए दौड़े-दौड़े आये।
विश्वामित्र को सर्वश्रेष्ठ ऋषियों के बीच आसन पर बिठाकर, जनक बोले, "यह यज्ञ बारह दिनों में सम्पन्न होगा और इस बीच देवतागण अपना-अपना अर्पण ग्रहण करने के लिए स्वयं यहाँ प्रकट होंगे। कृपा कर मुझे यह बताएँ कि आपके साथ ये दो महान व्यक्ति कौन हैं? इन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है मानो स्वयं देवता मानव रूप में प्रकट हुए हों।"
विश्वामित्र बोले, "ये दोनों युवक महाराज दशरथ के पुत्र हैं और इनके नाम राम और लक्ष्मण हैं। मेरे यज्ञ में विघ्न डाल रहे राक्षसों का संहार करने के लिए मैं इन्हें अयोध्या से अपने आश्रम ले गया था। ये यहाँ पर उस अद्भुत धनुष को देखने आये हैं जिनकी आराधना आप इतने मनोयोग और श्रद्धा के साथ करते हैं।" बाद में, जब सभी लोग बैठे हुए विश्राम कर रहे थे, तो महाराज जनक के
प्रमुख पुरोहित और गौतम ऋषि के ज्येष्ठ पुत्र शतानंद ने विधामित्र से अनुरोध किया कि वह प्रभु राम की कृपा से उनकी माता के वास्तविक रूप में वापस लौटने की कथा सुनायें विश्वामित्र ने खुशी-खुशी पूरी घटना ब्यौरेवार सुनाई। इसके बाद शतानंद ने विश्वामित्र के अतीत की यशगाथा सुनाई। यद्यपि विश्वामित्र एक क्षत्रिय कुल में जन्मे थे, परंतु उन्होंने ब्रह्मर्षि के उच्च पद को प्राप्त किया। इसके बाद सभी लोग रात्रि विश्राम के लिए चले गये।
अगली सुबह, महाराज जनक ने विश्वामित्र, राम और लक्ष्मण को बुलाया। अत्यन्त आदरपूर्वक उन सभी का अभिनंदन करने के बाद, वह बोले, "मुझे पता है। कि आप जैसे महान व्यक्तित्व बिना किसी यथोचित उद्देश्य के यहाँ नहीं आये हैं। कृपा कर मुझे बताएँ कि मैं किस प्रकार से आपकी सेवा कर सकता हूँ।"
विश्वामित्र ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, "राम और लक्ष्मण यहाँ सिर्फ इसलिए आये हैं क्योंकि वे उस अद्भुत धनुष को देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक थे जिसकी आराधना आपके कुल में इतने दीर्घकाल से होती आ रही है। "
तब महाराज जनक ने इस बारे में विस्तारपूर्वक बताना आरंभ किया। "बहुत समय पहले, भगवान् शिव ने दक्ष के यज्ञ को भंग करने के लिए इस धनुष का प्रयोग किया था। उन्हें यज्ञ का यथोचित अर्पण नहीं दिए जाने के कारण, भगवान् शिव ने यह धनुष उठाया और देवताओं का संहार कर देने की धमकी दी। यह सुनकर देवगण अपने होश में लौटे और उन्होंने किसी तरह भगवान शिव को शांत किया और तब भगवान् शिव ने देवताओं को अपना धनुष दे दिया। बाद में देवताओं ने मेरे पूर्वज महाराज निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवव्रत को यह धनुष सौंपा।"
धनुष की कथा सुनाने के बाद, महाराज जनक ने अपनी पुत्री के बारे में बताना आरंभ किया। "एक दिन मैं हवन क्षेत्र को सोने के एक हल से समतल कर रहा था और तभी मैं हल की एक भुजा में एक शिशु-कन्या को देखकर आश्चर्यचकित रह गया। मैंने उसका नाम सीता रखा और उसे अपनी दत्तक पुत्री के समान पालने- पोसने लगा। सौता बहुत जल्दी बड़ी हो गई और यौवन की दहलीज तक पहुँचते- पहुँचते अनेक राजकुमारों की ओर से सीता के लिए विवाह के प्रस्ताव आने लगे। मैंने उन राजकुमारों को समझाया कि मेरी पुत्री किसी माँ की कोख से जन्मी कोई सामान्य लड़की नहीं है। उससे विवाह करने का अधिकार किसी महा-पराक्रमी पुरुष को ही है। राजकुमारों ने जब यह पूछा कि उनसे किस प्रकार के पराक्रम की अपेक्षा की जाती है, तो मैंने उन्हें भगवान् शिव का धनुष दिखाया और इस पर प्रत्यंचा चढ़ाने को कहा।
चूँकि राम भगवान् शिव के धनुष को देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं, इसलिए मैं धनुष को उनके देखने-परखने के लिए यहाँ मंगवाता है। अगर राम इस पर प्रत्यंचा चढ़ाने में सफल होते हैं, तो मैं प्रसन्नतापूर्वक अपनी रूपवती पुत्री सीता का हाथ उन्हें सौंप दूँगा।
महाराज जनक ने धनुष को लाने का आदेश दिया और शीघ्र हो पाँच सौ बलिष्ठ पुरुष उस विशाल धनुष को खींचकर लाते हुए दिखे। धनुष को एक बक्से में बंद करके रखा गया था और इस बक्से को आठ पहियों वाले एक रथ पर रखा गया था। जब इसे उनके सामने लाया गया, तो विश्वामित्र ने राम से बक्सा खोलने को कहा। उस समय तक हजारों लोग उत्सुकतापूर्वक वहाँ पर जमा हो गये थे।
राम अत्यधिक प्रशंसापूर्ण नेत्रों से उस अद्भुत धनुष को निहार रहे थे कि तभी महाराज जनक ने उन्हें चेताया, "महान देवता, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व और नाग तक इस पराक्रमी धनुष को मोड़ नहीं पाए हैं। तो भला कोई मनुष्य इस पर प्रत्यंचा कैसे चढ़ा सकता है?''
इसके बावजूद, राम ने खेल-खेल में अपना बायाँ हाथ धनुष के मध्य में रखा और अभी सब लोग यह देख ही रहे थे कि राम ने बिना कोई जोर लगाए धनुष को इसके बक्से से बाहर निकाल लिया। इसके बाद, सभी को आश्चर्यचकित करते हुए, राम ने एक ही क्षण में इस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी और अत्यन्त बलपूर्वक इसे मोड़ना जारी रखा। अचानक तड़तड़ाकर टूटने की भयानक गर्जना करता हुआ यह धनुष बीच से टूट गया। असल में धनुष के टूटने की आवाज किसी पर्वत के फटकर बिखर जाने जितनी भयानक थी और इससे वहाँ पर मौजूद सभी लोगों के होश उड़ गये और विश्वामित्र, जनक, राम व लक्ष्मण को छोड़कर अन्य सभी लोग जमीन पर गिर पड़े।
तब महाराज जनक ने विश्वामित्र से अनुरोध किया कि वे महाराज दशरथ को राम और सीता के विवाह में शामिल होने का निमंत्रण पहुँचाने के लिए दूत भेजें। दूतों को अयोध्या पहुँचने में तीन दिन लगे और जब दूतों ने राम द्वारा वीरतापूर्वक सीता से विवाह करने की शर्त पूरा करने की बात महाराज दशरथ को बताई, तो वे खुशी से फूल उठे। वशिष्ठ और वामदेव से परामर्श करने के बाद, महाराज अगले दिन भोर में ही मिथिला की ओर चल पड़े। सबसे आगे महाराज दशरथ के पुरोहित थे और महाराज के साथ अपार सम्पदा और विशाल सेना थी।
चार दिन तक यात्रा करने के बाद, महाराज दशरथ का दल मिथिला के सीमांत क्षेत्र पर पहुँचा। महाराज जनक अत्यन्त प्रसन्नता के साथ अपने अतिथियों का राजसी स्वागत-सत्कार करने के लिए नगर के बाहर आये। महाराज दशरथ द्वारा अपने पुत्रों के साथ परामर्श करने के बाद यह निश्चित किया गया कि विवाह संस्कार ठीक अगले दिन एक शुभ मुहूर्त में किया जायेगा।
अगली सुबह, सभी लोगों के आ जाने पर, महाराज दशरथ ने महाराज जनक से यह अनुरोध किया कि वह वशिष्ठ मुनि से उनके राजवंश का इतिहास सुनें। इस गाथा के समाप्त हो जाने पर विश्वामित्र ने महाराज जनक से औपचारिक तौर पर यह अनुरोध किया कि वह अपनी दो पुत्रियों, सीता और उर्मिला का विवाह राम और लक्ष्मण के साथ करने की अनुमति दें।
इसके उत्तर में, राजा जनक ने पहले अपने राजवंश का इतिहास बताया और फिर अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह दशरथ के पुत्रों से करने की पूर्ण सहमति दो। कुछ आरंभिक कर्मकाण्ड हो जाने पर विश्वामित्र और वशिष्ट ने अनुरोध किया। कि जनक के छोटे भाई कुशध्यान की दो पुत्रियों का विवाह भरत और शत्रुघ्न के साथ कर दिया जाये। राजा जनक खुशी-खुशी तैयार हो गये और विवाह की तिथि तीन दिन बाद की निश्चित की गई क्योंकि तीन दिन बाद एक अत्यन्त शुभ मुहूर्त आने वाला था।
नियत दिन विजया नामक शुभ घड़ी में वशिष्ठ मुनि महाराज जनक के पास .. जाकर उनसे बोले, "कौशल- नरेश अपने चारों पुत्रों के साथ बाहर खड़े उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं जो उन्हें अपनी पुत्रियाँ देंगे। आइए और अधिक विलंब किए बिना शुभ विवाह समारोह आरंभ किया जाये।"
राजा जनक ने महाराज दशरथ को सुनाते हुए उत्तर दिया, "राज- अतिथियों को स्वयं अपने महल में प्रवेश करने के लिए भला किसकी अनुमति चाहिए? मेरे विचार से यह राज्य कौशल नरेश का ही है। चारों राजकुमारों से आने को कहें ताकि विवाह समारोह तत्काल आरंभ हो!
महाराज दशरथ अपने चारों पुत्रों को यज्ञ क्षेत्र में लेकर आये, जबकि वशिष्ठ मुनि ने चंदन के लेप और फूलों से, गमलों में रखे पौधों, धूप के पात्रों, अन और हल्दी के पात्रों और अन्य शुभ सामग्रियों से यज्ञ वेदी तैयार की। सब तैयारियाँ हो जाने पर, वशिष्ठ मुनि ने आहुति की अग्नि प्रज्वलित की और आहुतियाँ चढ़ाने लगे और ब्राह्मणों ने वैदिक मंत्रोच्चार करना आरंभ किया। इसके बाद महाराज जनक सीता को यज्ञ क्षेत्र में लेकर आये और उन्हें राम के बगल में बिठा दिया। -
भावुक होकर काँपती आवाज़ में राजा जनक बोले, "हे उदार हृदय राजकुमार, यह मेरी पुत्री सीता है। कृपा कर इनका हाथ अपने हाथ में लें और इन्हें अपनी जीवन संगिनी के रूप में स्वीकार करें। यह समस्त सद्गुणों का भंडार है और यह - आपके प्रति सदैव उसी प्रकार निष्ठावान रहेगी जैसे कि आपकी छाया आपके साथ रहती है।"
सीता को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करके राम को अत्यन्त संतुष्टि का अनुभव हुआ। वह समस्त सौन्दर्य और सद्गुणों का मूर्त रूप थीं। अपने प्रियतम और अपने हृदय के स्वामी के रूप में अच्छाई, वीरता, बुद्धिमान और पौरूष सौन्दर्य के मूर्तमान रूप श्रीराम को प्राप्त करके सीता को भी अकथनीय प्रसन्नता महसूस हुईं। एक-दूसरे को अपना हृदय सौंपकर, सीता और राम के श्रीमुख की कांति उसी प्रकार चमक उठी जैसे कि अपनी प्रियतमा लक्ष्मी के सानिध्य में भगवान् विष्णु का मुख-कमल खिल उठता है।
विवाह उत्सव के सम्पन्न हो जाने पर, विवाह में उपस्थित सभी लोग रात्रि- विश्राम के लिए चले गये। अगली सुबह, विश्वामित्र ऋषि हिमालय को प्रस्थान कर गये। थोड़ी देर बाद, महाराज दशरथ अपने चारों पुत्रों और पुत्रवधुओं के साथ अयोध्या को चल पड़े और उनके साथ राजा जनक से भारी मात्रा में मिला दहेज भी था। प्रस्थान करते समय, महाराज दशरथ को एक अशुभ संकेत दिखा। उनके सिरों के ऊपर वीभत्स पक्षी तेज स्वरों में चीत्कार कर रहे थे। फिर उन्होंने हिरण को अपने पथ पर बाएँ से दाएँ जाते हुए देखा जो एक शुभ शगुन था। भयभीत होकर, राजा ने वशिष्ठ मुनि से इसकी चर्चा की, तो वशिष्ठ मुनि ने अशुभ संकेत का अर्थ किसी संकट का संकेत बताया और कहा कि शुभ शगुन से यह आश्वासन मिलता है कि भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है।
वे दोनों अभी इसी प्रकार से बातें कर ही रहे थे कि भयंकर आंधी चलने लगी और धरती डोलने लगी जिससे अनेक वृक्ष उखड़कर जमीन पर गिर गये। चारों दिशाओं से धूल के बवंडर उठने लगे और इतना अंधकार छा गया कि सभी लोग हक्के-बक्के रह गये और बहुत व्याकुल हो उठे। महाराज दशरथ, उनके चारों पुत्र वशिष्ठ और अन्य ऋषि ही मात्र ऐसे थे जो अब भी शांत थे।
अचानक, क्रोध से आग-बबूला हो रहे परशुराम वहाँ पहुँच गये। उनके बाल बिखरे हुए थे और वह अपने दाहिने कंधे पर एक फरसा रखे हुए थे, जबकि उनके बाएँ हाथ में एक धनुष और दाहिने हाथ में एक शक्तिशाली बाण था परशुराम को इस भाव मुद्रा में देखकर ऋषियों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ, क्योंकि क्षत्रियों का इक्कीस बार संहार करने के बाद परशुराम ने अपने क्रोध का त्याग करने और तप में निरंतर लीन रहने की प्रतिज्ञा ली थी।
ऋषि-मुनि अब भी आश्चर्यचकित होकर यह विचार ही कर रहे थे कि आखिर परशुराम इतने क्रोधित क्यों हैं, कि तभी जमदग्नि ऋषि के पुत्र परशुराम ने भगवान् राम से कहा, "शिवजी का धनुष तोड़कर तुमने निश्चित ही अत्यन्त पराक्रम का कार्य किया है, परंतु मेरे हाथ में उससे भी महान धनुष है जो भगवान् विष्णु का है! यदि तुम स्वयं को अत्यन्त पराक्रमी समझते हो तो यह धनुष लो और इस पर प्रत्यंचा चढ़ाओ। अगर तुम इस धनुष पर बाण रखकर उसे पूरी तरह खींच सके, तभी मैं तुम्हें बुद्ध के लिए ललकारने योग्य समझा।"
महाराज दशरथ ने यह चुनौती सुनी तो उनके हृदय में अपने प्रिय पुत्र को गंवा देने का भय समा गया। वह प्रशंसापूर्ण स्वर में याचना करते हुए बोले, "हे ऋषिश्रेष्ठ, दया करके अपने क्रोध का त्याग करें। मेरी विनती है कि आप युद्ध का त्याग करने की अपनी उस प्रतिज्ञा की याद करें जो आपने कश्यप को समस्त पृथ्वी सौंपने के बाद ली थी।"
परशुराम ने राजा को अनसुना करते हुए राम से बात करना जारी रखा, " त्रिपुरासुर का वध करने के लिए निर्मित भगवान् शिव के धनुष और भगवान् विष्णु के धनुष को विश्वकर्मा ने बनाया था। एक बार देवताओं के कहने पर, ब्रह्माजी ने भगवान् शिव और भगवान् विष्णु के बीच कुछ मतभेद पैदा कर दिया। इस पर उन दोनों के बीच भयानक द्वन्द्व ठन गया, परंतु भगवान् शिव के धनुष की प्रत्यंचा काट देने के कारण भगवान् विष्णु विजयी हुए। कुपित होकर भगवान् शिव ने अपना धनुष देवव्रत को दे दिया, जबकि भगवान् विष्णु ने अपना धनुष जमदग्नि ऋषि के पिता, महान ऋषि ऋचिक को दे दिया।
मैं महेंद्र पर्वत जाकर अखंड तप में लीन हो गया था, परंतु जब मुझे यह समाचार मिला कि तुमने भगवान् शिव का धनुष तोड़ दिया है तो मैं यहाँ आने और तुम्हें ललकारने को बाध्य हो गया। अब, यदि तुम स्वयं को समर्थ समझते हो, तो यह धनुष लो और सिद्ध करो कि तुम मुझसे युद्ध करने योग्य हो।"
बिना कोई उत्तर दिए, राम ने परशुराम के हाथों से धनुष-बाण और साथ ही कठोर तप द्वारा उनकी समस्त अर्जित शक्तियों को छीनते हुए उनकी चुनौती स्वीकार कर ली। जमदग्नि ऋषि के पुत्र चोर आश्चर्य से देख ही रहे थे कि तब तक राम मुस्कुराते हुए धनुष में प्रत्यंचा चढ़ाकर बाण को उसकी पूरी लंबाई तक पीछे खींच लिया।
इसके बाद राम ने घोषणा करके कहा, "आप एक ब्राह्मण हैं और आपका संबंध ऋषि विश्वामित्र से है, इसलिए मैं आपका वध नहीं करूँगा। परंतु मैं इस बाण को व्यर्थ नहीं जाने दे सकता। इसलिए आपकी चुनौती का उचित उत्तर देते हुए, अब मैं इस बाण का प्रयोग कठोर तप के परिणामस्वरूप आपके द्वारा अर्जित स्वर्ग की प्राप्ति के पुण्य को नष्ट करने में करूँगा।"
सभी देवगण और दिव्य ऋषि आकाश में एकत्रित हो गये थे। परशुराम निःशक्त हो चुके थे और अब वह चकित नेत्रों से भगवान् को देखने के अतिरिक्त और कुछ भी कर पाने में असमर्थ थे।
अंततः, जब राम ने बिना हिले बाण को अपने कान तक खींचा, तो परशुराम पराजित स्वर में धीरे-धीरे बोले, "जब मैंने कश्यप को पृथ्वी दी, तो उन्होंने मुझे आदेश दिया था कि अब मैं पृथ्वी पर न रहूँ और इसी कारण से मुझे रात होने से पहले यहाँ से अवश्य हो जाना होगा। स्वर्ग जाने का पुण्य में गंवा चुका है, अत: मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मुझे महेंद्र पर्वत वापस लौटने की अनुमति दें ताकि मैं पुनः तपस्या में लीन हो सकूँ। "हे राम, मैं यह जान चुका हूँ कि आप स्वयं भगवान् विष्णु हैं और इसीलिए आपसे पराजित होने पर मुझे कोई लज्जा नहीं है।"
राम ने बिना कुछ कहे परशुराम का अनुरोध स्वीकार कर लिया और वह पराक्रमी बाण चला दिया। परशुराम महेंद्र पर्वत की ओर प्रस्थान कर गये और तत्काल ही अंधकार छंट गया। आकाश में खड़े देवगणों ने प्रभु राम की जय- जयकार की और उन पर सुगंधित पुष्पों की बारिश की। राम ने भगवान् विष्णु का ने धनुष वरुण को दिया और फिर उनका दल अयोध्या की ओर आगे चल पड़ा। घर लौटने के पश्चात, राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न अपनी-अपनी पत्नियों के साथ तापूर्वक रहने लगे।
एक बार राजा युधाजित अयोध्या में भेंट करने आये। वह कैकेय के पुत्र और भरत के मामा थे। उन्होंने अपने भांजे भरत को शत्रुघ्न के साथ कुछ दिनों के लिए अपने राज्य में आकर रहने के लिए आमंत्रित किया। भरत और शत्रुघ्न के चले जाने के बाद, राम अपने पिता और तीनों माताओं की पहले से भी अधिक जतन के साथ देखभाल करने लगे। राम ने राजकीय प्रशासन के अपने कर्तव्यों का इतनी ईमानदारी और बुद्धिमानी के साथ निर्वाह किया कि वह समस्त प्रजा की आँखों के तारे बन गये।
सीता और राम का एक-दूसरे के प्रति नैसर्गिक अनुराग दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक बढ़ता गया। एक-दूसरे की सुंदरता और सद्गुणों के कारण, धीरे-धीरे वे पूर्णतः एक-दूसरे को समर्पित हो गये। सौभाग्य की देवी लक्ष्मी का अवतार होने के कारण सीता अत्यधिक सुंदर थीं। वह राम के मन की गूढ़ से गूढ़ बात को बिना कहे ही पूरी तरह समझ लेती थीं। अपने स्वामी को सदैव प्रसन्न रखने और अपनी स्त्री सुलभ सौम्यता व सतीत्व को आदर्श रूप में बनाए रखने को संकल्पबद्ध, सीता ने शीघ्र ही प्रभु राम का हृदय पूरी तरह से जीत लिया।
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