[ देवयज्ञ ] 
[ पूजन - सम्बन्धी जानने योग्य कुछ आवश्यक बाते ] 
यहाँ सर्वप्रथम पूजन सम्बन्धी कुछ ज्ञातव्य बातोका निर्देश किया जा रहा है ---
पञ्चदेव 
आदित्यं गणनाथं च देवीं रुद्रं च केशवम् ।
पञ्चदैवत्यमित्युक्तं सर्वकर्मसु पूजयेत् ।। 
सूर्य , गणेश , दुर्गा , शिव , विष्णु - 
ये पञ्चदेव कहे गये हैं । इनकी पूजा सभी कार्योमें करनी चाहिये । 
अनेक देवमूर्ति - पूजा - प्रतिष्ठा - विचार 
एका मूर्तिर्न सम्पूज्या गृहिणा स्वेष्टमिच्छता ।
अनेकमूर्तिसम्पन्नः सर्वान् कामानवाप्नुयात् ।।
कल्याण चाहने वाले गृहस्थ एक मूर्तिकी ही पूजा न करें , किंतु अनेक देवमूर्तिकी पूजा करें , इससे कामना पूरी होती है । 
किंतु 
गृहे लिङ्गद्वयं नाच्र्यं गणेशत्रितयं तथा ।
शङ्खद्वयं तथा सूर्यो नाच्र्यौ शक्तित्रयं तथा ॥
द्वे चक्रे द्वारकायास्तु शालग्रामशिलाद्वयम् ।
तेषां तु पूजनेनैव उद्वेगं प्राप्नुयाद् गृही ।। 
घरमें दो शिवलिङ्ग , तीन गणेश , दो शङ्ख , दो सूर्य , तीन दुर्गामूर्ति , दो गोमतीचक्र और दो शालग्रामकी पूजा करनेसे गृहस्थ मनुष्यको अशान्ति होती है ।
शालग्रामशिलायास्तु प्रतिष्ठा नैव विद्यते ।
शालग्रामकी प्राणप्रतिष्ठा नहीं होती ।
बाणलिङ्गानि राजेन्द्र ख्यातानि भुवनत्रये । 
न प्रतिष्ठा न संस्कारस्तेषां नावाहनं तथा ॥
बाणलिङ्ग तीनों लोकोंमें विख्यात है , उनकी प्राणप्रतिष्ठा , संस्कार या आवाहन कुछ भी नहीं होता । 
शैलीं दारुमयीं हैमीं धात्वाद्याकारसम्भवाम् । प्रतिष्ठां वै प्रकुर्वीत प्रासादे वा गृहे नृप ॥
पत्थर , काष्ठ , सोना या अन्य धातुओंकी मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा घर या मन्दिरमें करनी चाहिये । 
गृहे चलार्चा विज्ञेया प्रासादे स्थिरसंज्ञिका ।
इत्येते कथिता मार्गा मुनिभिः कर्मवादिभिः ॥
घरमें चल प्रतिष्ठा और मन्दिरमें अचल प्रतिष्ठा करनी चाहिये । यह कर्मज्ञानी मुनियोंका मत है । 
गङ्गाप्रवाहे शालग्रामशिलायां च सुरार्चने ।
द्विजपुङ्गव ! नापेक्ष्ये आवाहन विसर्जने ।।
शिवलिङ्गेऽपि सर्वेषां देवानां पूजनं भवेत् । सर्वलोकमये यस्माच्छिवशक्तिर्विभुः प्रभुः ।।
गङ्गाजीमें , शालग्रामशिलामें तथा शिवलिङ्गमें सभी देवताओंका पूजन बिना आवाहन - विसर्जन किया जा सकता है । 
पाँच उपचार - 
१ - गन्ध , 
२ - पुष्प , 
३ - धूप , 
४ - दीप और
५ - नैवेद्य ।
दस उपचार - 
१  पाद्य , 
२ अर्घ्य , 
३ आचमन ,
४ स्नान ,
५ वस्त्र निवेदन , 
६ गन्ध , 
७ पुष्प , 
८  धूप , 
५  दीप और 
१० नैवेद्य । 
सोलह उपचार - 
१  पाध , 
२ अर्घ्य , 
३ आचमन , 
४ स्नान , 
५ वस्त्र , 
६ आभूषण , 
७ गन्ध , 
८  पुष्प , 
९  धूप , 
१०  दीप , 
११ नैवेद्य , 
१२  आचमन , 
१३  ताम्बूल , 
१४  स्तवपाठ , 
१५  तर्पण और 
१६  नमस्कार । 
पूजनके अन्तम साङ्गता - सिद्धिके लिये दक्षिणा भी चढ़ानी चाहिये । 
- हारीतका वचन है 
स्नानं कृत्वा तु ये केचित् पुष्पं चिन्वन्ति मानवाः । 
देवतास्तन्न गृहन्ति भस्मीभवति दारुवत् ।।
स्नान कर फूल न तोड़े , क्योंकि ऐसा करनेसे देवता इसे स्वीकार नहीं करते । इस शब्दार्थसे आपाततः प्रतीत होने लगता है कि सबेरे उठकर स्नान करने के पहले ही फूल तोड़ ले । किंतु इस श्लोकका यह तात्पर्य नहीं है । निबन्धकारोंने निर्णय दिया है कि यहाँ ' स्नान ' का तात्पर्य ' मध्याह्न - स्नान ' है । फलितार्थ होता है कि मध्याह्न - स्नानके बाद फूल तोड़ना मना है , इसके पहले ही प्रात -स्नानके बाद तोड़ ले 
( क ) स्नानम् , प्रातःस्नानातिरिक्तम् , स्नानोत्तरं प्रातः पुष्पाहरणादिविधानात् । 
( ख ) तन्मध्याह्नस्नानपरम् । 
( ग ) रुद्रधरका मत है 
अस्नात्वा तुलसीं छित्त्वा देवतापितृकर्मणि ।
तत्सर्व निष्फलं याति पञ्चगव्येन शुद्ध्यति ।।
इस पद्मपुराणके वचनमें ' तुलसी ' पद पुष्प आदिका उपलक्षक है । अतः इस वचनसे सिद्ध होता है कि स्नान किये बिना ही यदि तुलसीदल , फूल आदि तोड़ लिये जायँ तो पाप लगता है , जिसकी शुद्धि पञ्चगव्यसे हो सकती है 
अत्र तुलसीपदं पुष्यमात्रपरम् । शिष्टाचारानुरोधादिति रुद्रधरः । 
( घ ) दक्षने समिधा , फूल आदिका समय संध्याके बाद दिनका दूसरा भाग माना है । दिनको आठ भागोंमें बाँटा गया है- 
' समित्पुष्पकुशादीनां स कालः परिकीर्तितः । '
फूल तोड़नेका मन्त्र - प्रात कालिक स्नानादि ' कृत्योंके बाद देव - पूजाका विधान है । एतदर्थ स्नानके बाद तुलसी , बिल्वपत्र और फूल तोड़ने चाहिये । तोड़नेसे पहले हाथ - पैर धोकर आचमन कर ले । पूरबकी ओर मुंहकर हाथ जोड़कर मन्त्र बोले 
मा नु शोकं कुरुष्व त्वं स्थानत्यागं च मा कुरु । 
देवता     पूजनार्थाय    प्रार्थयामि   वनस्पते ॥
 
पहला फूल तोड़ते समय ' ॐ वरुणाय नमः '
दूसरा फूल तोड़ते समय ' ॐ व्योमाय नमः '
और तीसरा फूल तोड़ते समय ' ॐ पृथिव्यै नमः ' बोले । 
तुलसीदल - चयन - 
स्कन्दपुराणका वचन है कि जो हाथ पूजार्थ तुलसी चुनते हैं , वे धन्य हैं 
तुलसीं ये विचिन्वन्ति धन्यास्ते करपल्लवाः ।
तुलसीका एक - एक पत्ता न तोड़कर पत्तियोंके साथ अग्रभागको तोड़ना चाहिये । तुलसीकी मञ्जरी सब फूलोंसे बढ़कर मानी जाती है । मञ्जरी तोड़ते समय उसमें पत्तियोंका रहना भी आवश्यक माना गया है  निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर पूज्यभावसे पौधेको हिलाये बिना तुलसीके अग्रभागको तोड़े । इससे पूजाका फल लाख गुना बढ़ जाता है ।
तुलसी - दल तोड़नेके मन्त्र 
तुलस्यमृतजन्यासि सदा त्वं केशवप्रिया ।
चिनोमि केशवस्यार्थे वरदा भव शोभने ।
त्वदङ्गसम्भवैः पत्रैः पूजयामि यथा हरिम् ।
तथा कुरु पवित्राङ्गि ! कलौ मलविनाशिनि ।। 
तुलसीदल - चयनमें निषिद्ध समय - 
वैधृति और व्यतीपात- इन दो योगोंमें , मंगल , शुक्र और रवि - इन तीन वारोंमें , द्वादशी , अमावास्या एवं पूर्णिमा - इन तीन तिथियोंमें संक्रान्ति ,जननाशौच तथा संक्रान्ति ,  मरणाशौचमें तुलसीदल तोड़ना मना है । संक्रान्ति , अमावास्या , द्वादशी , रात्रि और दोनों संध्यायोंमें भी तुलसीदल न तोड़े ' , किंतु तुलसीके बिना भगवान्की पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती , अतः निषिद्ध समयमें तुलसीवृक्षसे स्वयं गिरी हुई पत्तीसे पूजा करे  , ( पहले दिनके पवित्र स्थानपर रखे हुए तुलसीदलसे भी भगवानकी पूजा की जा सकती है ) । शालग्रामकी पूजाके लिये निषिद्ध तिथियोंमें भी तुलसी तोड़ी जा सकती है । बिना स्नानके और जूता पहनकर भी तुलसी न तोड़े । 
बिल्वपत्र तोड़नेका मन्त्र 
अमृतोद्भव ! श्रीवृक्ष । महादेवप्रियः सदा ।
गृह्णामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात् ।।
बिल्वपत्र तोड़नेका निषिद्ध काल - 
चतुर्थी , अष्टमी , नवमी , चतुर्दशी और अमावास्या तिथियोंको , संक्रान्तिके समय और सोमवारको बिल्वपत्र न तोड़े । किंतु बिल्वपत्र शङ्करजीको बहुत प्रिय है , अतः निषिद्ध समयमे पहले दिनका रखा बिल्वपत्र चढ़ाना चाहिये । शास्त्रने तो यहाँतक कहा है कि यदि नूतन बिल्वपत्र न मिल सके तो चढ़ाये हुए बिल्वपत्रको हो धोकर बार - बार चढ़ाता रहे । 
बासी जल , फूलका निषेध - 
जो फूल , पत्ते और जलबासी हो गये हो , उन्हें देवताओंपर न चढ़ाये । किंतु तुलसीदल और गङ्गाजल बासी नहीं होते । तीर्थोंका जल भी बासी नहीं होता । वस्त्र , यज्ञोपवीत और आभूषणामें भी निर्माल्यका दोष नहीं आता । मालीके घरमें रखे हुए फूलोंमें बासी दोष नहीं आता । दौना तुलसीकी ही तरह एक पौधा होता है । भगवान् विष्णुको यह बहुत प्रिय है । स्कन्दपुराणमें आया है कि दौनाकी माला भगवान्को इतनी प्रिय है कि वे इसे सूख जानेपर भी स्वीकार कर लेते हैं । मणि , रत्न , सुवर्ण , वस्त्र आदिसे बनाये गये फूल बासी नहीं होते । इन्हें प्रोक्षण कर चढ़ाना चाहिये ।
नारदजीने ' मानस ' ( मनके द्वारा भावित ) फूलको सबसे श्रेष्ठ फूल माना है । उन्होंने देवराज इन्द्रको बतलाया है कि हजारों - करोड़ों बाह्य फुलोको चढ़ाकर जो फल प्राप्त किया जा सकता है , वह केवल एक मनस - फूल चढ़ानेसे प्राप्त हो जाता है । इससे मानस - पुष्प ही उत्तम पुष्प है । बाह्य पुष्य तो निर्माल्य भी होते हैं । मानस - पुष्पमें बासी आदि कोई दोष नहीं होता । इसलिये पूजा करते समय मनसे गढ़कर फूल चढ़ानेका अद्भुत आनन्द अवश्य प्राप्त करना चाहिये ।
सामान्यतया निषिद्ध फूल - 
यहाँ उन निषेधोंको दिया जा रहा है जो सामान्यतया सब पूजामें सब फूलोंपर लागू होते हैं । भगवान्पर चढ़ाया हुआ फूल ' निर्माल्य ' कहलाता है , सूँघा हुआ या अङ्गमें लगाया हुआ फूल भी इसी कोटिमें आता है । इन्हें न चढ़ाये । भौंरेके सूंघनेसे फूल दूषित नहीं होता । जो फूल अपवित्र बर्तनमें रख दिया गया हो , अपवित्र स्थानमें उत्पन्न हो , आगसे झुलस गया हो , कीड़ोंसे विद्ध हो , सुन्दर न हो ' , जिसकी पंखुड़ियाँ बिखर गयी हों , जो पृथ्वीपर गिर पड़ा हो , जो पूर्णतः खिला न हो , जिसमें खट्टी गंध या सङाँध आती हो , निर्गन्ध हो या उग्र गन्धवाला हो , ऐसे पुष्पोंको नहीं चढ़ाना चाहिये । जो फूल बायें हाथ , पहननेवाले अधोवस्त्र , आक और रेंङके पत्तेमें रखकर लाये गये हों , वे फूल त्याज्य हैं । कलियोंको चढ़ाना मना है , किंतु यह निषेध कमलपर लागू नहीं है । फूलको जलमें डुबाकर धोना मना है । केवल जलसे इसका प्रोक्षण कर देना चाहिये ।
 
पुष्पादि चढ़ानेकी विधि- -
फूल , फल और पत्ते जैसे उगते हैं , वैसे ही इन्हें चढ़ाना चाहिये । उत्पन्न होते समय इनका मुख ऊपरकी ओर होता है , अतः चढ़ाते समय इनका मुख ऊपरकी ओर ही रखना चाहिये । इनका मुख नीचे की ओर न करे । दूर्वा एवं तुलसीदलको अपनी ओर और बिल्वपत्र नीच मुखकर चढ़ाना चाहिये । इनसे भिन्न पत्तोंको ऊपर मुखकर या नीचे मुखकर दोनों ही प्रकारसे चढ़ाया जा सकता है । दाहिने हाथके करतलको उत्तान कर मध्यमा , अनामिका और अँगूठेकी सहायतासे फूल चढ़ाना चाहिये । 
उतारनेकी विधि - 
चढ़े हुए फूलको अँगूठे और तर्जनीकी
सहायतासे उतारे । 
पञ्चदेवपूजा ( आगमोक्त - पद्धति ) 
प्रतिदिन पञ्चदेव - पूजा अवश्य करनी चाहिये यदि वेदके मन्त्र आध्यस्त न हो , तो आगमोक्त मन्त्रसे , यदि वे भी अभ्यस्त न हो तो नाम मन्त्रसे और यदि यह भी सम्भव न हो तो बिना मन्त्रके ही जल , चन्दन आदि चढाकर पूजा करनी चाहिये । यहाँ सामान्यरूपसे पूजाकी विधि दी जा रही है । साथ साथ नाम - मन्त्र भी हैं । जो श्लोकोंका उच्चारण न कर सकें , वे नाममन्त्रसे षोडशोपचार पूजन करें । 
गृह - मन्दिरमें स्थित पञ्चदेव -पूजा
यदि गृहका मन्दिर हो तो पूजागृहमें प्रवेश करनेसे पहले बाहर दरवाजे पर ही पूर्वोक्त प्रकारसे आचमन कर ले और तीन तालियाँ बजाये और विनम्रताके साथ मन्दिरमें प्रवेश करे । ताली बजानेके पहले निम्नलिखित विनियोग सहित मन्त्र पढ़ ले
 विनियोग – 
अपसर्पन्त्विति मन्त्रस्य वामदेव ऋषिः , शिवो देवता , अनुष्टुप् छन्दः , भूतादिविघ्नोत्सादने विनियोगः । 
भूतोत्सादन मन्त्र 
ॐ अपसर्पन्तु ते भूता ये भूता भूतले स्थिताः ।
 ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ।। 
पश्चात् देवताओंका ध्यान करे , साष्टाङ्ग प्रणाम करे । बादमें निम्नलिखित विनियोग और मन्त्र पढ़कर आसनपर बैठकर उसको जलसे पवित्र करे । 
आसन पवित्र करनेका विनियोग एवं मन्त्र
 
ॐ पृथ्वीति मन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः , सुतलं छन्दः , कूर्मो देवता , आसनपवित्रकरणे विनियोगः । 
ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता । 
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम् ॥
पूजाकी बाहरी तैयारी 
बैठने के पूर्व पूजाकी आवश्यक तैयारी कर ले । ताजे जलको कापङे से छानकर कलशमें भरे । आचमनीसे शङ्ख में भी जल डालकर पीलापर रख दे । शङ्घको जलमे डुबाना ' मना है । इसी तरह शङ्ख को पृथ्वीपर रखना भी मना है । शङ्खमें चन्दन और फूल छोड़ दे ।उदकुम्भ ( कलश ) के जलको भी सुवासित करनेके लिये कपूर और केसरके साथ चन्दन घिसकर मिला दे या पवित्र इत्र डाल दे । अक्षतको केसर या रोलीसे हलका रंग ले ।
पूजा - सामग्रीके रखनेका प्रकार 
पूजनकी किस वस्तुको किधर रखना चाहिये , इस बातका भी शास्त्रने निर्देश दिया है । इसके अनुसार वस्तुओको यथास्थान सजा देना चाहिये । 
बायीं ओर- 
( १ ) सुवासित जलसे भरा उदकुम्भ ( जलपात्र ' ) , 
( २ ) घटा ' और 
( ३ ) धूपदानी । 
( ४ ) तेलका दीपक भी बायीं ओर दायीं ओर-रखे 
दायीं ओर -
( १ ) घृतका दीपक और
( २ ) सुवासित जलसे शङ्ख
सामने -
( १ ) कुङ्कुम ( केसर ) और कपूरके साथ घिसा गाढ़ा चन्दन ,
( २ ) पुष्प आदि हाथमे तथा चन्दन ताम्रपात्र में न रखें 
भगवानके आगे - 
चौकोर जलका घेरा डालकर नैवेद्यकी वस्तु रखे ।
पूजाकी भीतरी तैयारी 
शास्त्रोंमें पूजाको हजारगुना अधिक महत्त्वपूर्ण बनानेके लिये एक उपाय बतलाया गया है । वह उपाय है , मानसपूजा । जिसे पूजासे पहले करके फिर बाह्य वस्तुओंसे पूजन करे ।
पहले पुष्प प्रकरणमें शास्त्रका एक वचन उद्धृत किया गया है , जिसमें बतलाया गया है कि मन : कल्पित यदि एक फूल भी चढ़ा दिया जाय तो करोड़ों बाहरी फूल चढ़ानेके बराबर होता है । इसी प्रकार मानस चन्दन , धूप , दीप , नैवेद्य भी भगवान्को करोड़गुना अधिक संतोष दे सकेंगे । अतः मानसपूजा बहुत अपेक्षित है ।
मानसपूजा 
वस्तुतः भगवानको किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं , वे तो भावके भूखे हैं । संसारमें ऐसे दिव्य पदार्थ उपलब्ध नहीं हैं , जिनसे परमेश्वर की पूजा की जा सके । इसलिये पुराणोंमें मानसपूजाका विशेष महत्त्व माना गया है । मानसपूजामें भक्त अपने इष्टदेवको मुक्तामणियोंसे मण्डितकर स्वर्ण सिंहासनपर विराजमान कराता है । स्वर्गलोककी मन्दाकिनी गङ्गाके जलसे अपने आराध्यको स्नान कराता है , कामधेनु गौके दुग्धसे पञ्चामृतका निर्माण करता है । वस्त्र भूषण भी दिव्य अलौकिक होते है । पृृृृृथ्वीरूपि गन्धका अनुनपन करता है । अपने आराध्या के लिये कुबेरकी पुष्पवारिकासे स्वर्णकमलपुष्पोंका चयन करता है । भावनासे वायुरूपी धूप , दीपक नैवेद्य भगवानको अर्पण करनेकी विधि है । इसके साथ ही त्रिलोकको सम्पूर्ण वस्तु सभी उपचार सच्चिदानन्दघन परमात्म प्रभु के चरणामे भावनासे भक्त अर्पण करता है । यह है मानसपूजाका स्वरूप । इसकी एक संक्षिप्त विधि भी पुराणों में वर्णित है । जो नीचे लिखी जा रही है 
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ॐ लं पृथिव्यात्मकं गन्धं परिकल्पयामि । 
( प्रभो । मैं पृथ्वीरूप गन्ध ( चन्दन ) आपको अर्पित करता 
२ - ॐ हं आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि
( प्रभो । मैं आकाशरूप पुष्प आपको अर्पित करता हूँ । ) 
३ - ॐ यं वाय्वात्मकं धूपं परिकल्पयामि । 
( प्रभो । मैं वायुदेवके रूपमें धूप आपको प्रदान करता हूँ । )
४ - ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं दर्शयामि । 
( प्रभो । मैं अग्निदेवके रूपमें दीपक आपको प्रदान करता हूँ । ) 
५ - ॐ वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि । 
( प्रभो ! मैं अमृतके समान नैवेद्य आपको निवेदन करता हूँ । )
ॐ सौ सर्वात्मकं सोपचारं समर्पयामि । 
( प्रभो । मैं सर्वात्माके रूपमें संसारके सभी उपचारोंको आपके चरणोंमे समर्पित करता हूँ ।) 
इन मन्त्रोंसे भावनापूर्वक मानसपूजा की जा सकती है मानस पूजा से चित्त एकाग्र और सरस हो जाता है, इससे बाह्य पूजा में भी रस मिलने लगता है । यद्यपि इसका प्रचार कम है तथापि इसे अवश्य अपनाना चाहिये ।

१.मानस - पूजाम आराधकका जितना समय लगता है , उतना भगवानका सम्पका बीतता है और तबतक संसार उससे दूर हटा रहता है । अपने आराध्यदेवक लियेबांदया --- बढ़िया रत्नजटित आसन , सुगन्धके बौछार करते दिव्य फुलकी वह कल्पना करता है और उसका मन वहांसे दौड़कर उन्हें जुटाता है । इस तरह मनको दौड़नेकी और कल्पना ऑकी उड़ान भरने की इस पद्धतिमें पूरी छूट मिल जाती है । इसके दौड़ने के लिये क्षेत्रमा विस्तृत है । इस दायरेमे अनन्त ब्रह्माण्ड बत साकेतलोक , सदाशिवलोक भी आ जाते हैं । अपन आराध्यदेवको इस आसन देना है.वस नहीं , अपितु इसकी पहुँचके परे गोलाक और आभूषण पहनाना है , चन्दन लगाना है , मालाएँ पहनानी है , धूप - दीप दिखलाना है और नैवेद्य निवेदित करना है । इन्हें जुटाने के लिये उसे इन्द्रलोकसे ब्रह्मलोकतक दौड़ लगाना है । पहुँचे या न पहुँचे , किंतु अप्राकृतिक लोकोंके चक्कर लगानेसे भी वह नहीं चूकता , ताकि उनम साधन जुट जायें और भगवान्की अद्भुत सेवा हो जाय । इतनी दौड़ धूपसे लायी गयी वस्तुओको आराधक जब अपने भगवानके सामने रखता है , तब उसे कितना सतोष मिलता होगा ? उसका मन तो निहाल ही हो जाता होगा । इस तरह पूजा सामग्रियोंके जुटानेमें और भगवान्के लिये उनका उपयोग करनेमें साधक जितना भी समय लगा पाता है , उतना समय वह अन्तर्जगत्में बिताता है । इस तरह मानस पूजा साधकको समाधिकी ओर अग्रसर करती रहती है और उसके रसास्वादका आभास भी कराती रहती है । जैसे कोई प्रेमी साधक कान्ताभावसे अपने इष्टदेवकी मानसी सेवा कर रहा है । चाह है कि अपने पूज्य प्रियतमको जूही , चमेली , चम्पा - गुलाब और बेलाको तुरंतकी गुंथी , गमगमाती हुई बढ़िया - से - बढ़िया माला पहनायें । बाहरी पूजामें इसके लिये बहुत ही भाग - दौड़ करनी पड़ेगी । आर्थिक कठिनाई मुँह बाकर अलग खड़ी हो जाती है । तबतक भगवानूसे बना यह मधुर सम्बन्ध भी टूट जाता है । पर मानसपूजामें यह अड़चन नहीं आती । इसलिये बना हुआ वह सम्पर्क और गाढ़ - से - गाढ़तर होता जाता है । मनकी कोमल भावनाओंसे उत्पन्न की गयो वे वनमालाएँ तुरत तैयार मिलती है । पहनाते समय पूज्य प्रियतमको सुरभित साँसोंसे जब इसको सुगन्ध टकराती है , तब नस - नसमें मादकता व्याप्त हो जाती है । पूज्य प्रियतमका स्पर्श पाकर वह उद्वेलित हो उठती है और साधकको समरस कर देती है । अब न आराधक आराध्य है और न आराधना ही है । आगेकी पूजा कौन करे ? धन्य हैं वे , जिनकी पूजा इस तरह अधूरी रह जाती है । मानसपूजासे यह स्थिति शीघ्र आ सकती है ।