नारद! गणेश जननी दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री, और राधा ये पाँच देवियाँ प्रकृति कहलाती हैं । इन्हीं पर सृष्टि निर्भर हैं ।
नारद जी ने पूछा :- ज्ञानियों में प्रमुख स्थान प्राप्त करने वाले साधो ! वह प्रकृति कहाँ से प्रकट हुई है, उसका कैसा स्वरूप है, कैसे लक्षण हैं तथा क्यों वह पाँच प्रकार की हो गयी ? उन समस्त देवियों चरित्र, उनकी पूजा के विधान, उनके गुण तथा वे किसके यहाँ कैसे प्रकट हुईं । ये सभी प्रसंग आप मुझे बताने की कृपा करें ।
भगवान् नारायण कहते हैं :-
वत्स! 'प्र' का अर्थ है प्रकृष्ट और 'कृति' से 'सृष्टि' के अर्थ का बोध होता है। अतः सृष्टि करने में जो परम प्रवीण है , उसे देवी ' प्रकृति ' कहते हैं। सर्वोत्तम सत्त्व गुण के अर्थ में 'प्र' शब्द, मध्यम रजोगुण के अर्थ में 'कृ' शब्द और तमोगुण के अर्थ में 'ति' शब्द है। जो त्रिगुणात्मक स्वरूपा हैं, वही परम शक्ति से सम्पन्न होकर सृष्टि विषयक कार्य में ' प्रधान प्रकृति ' कहलाती है। 'प्र' प्रथम अर्थ में और ' कृति ' सृष्टि अर्थ में है अतः सृष्टि के आदि में जो देवी विराजमान रहती है, उसे ' प्रकृति ' कहते हैं।
सृष्टि के अवसर पर परब्रह्म परमात्मा स्वयं दो रूपों में प्रकट हुए - प्रकृति और पुरुष । उनका आधा दाहिना अंग ' पुरुष ' और आधा बायाँ अंग "प्रकृति' हुआ। वही प्रकृति ब्रह्मस्वरूप, नित्या और सनातनी है। परब्रह्म परमात्मा को सभी अनुरूप गुण प्रकृति में निहित हैं। जैसे अग्नि में दाहिका शक्ति सदा रहती है। इसी से परम योगी पुरुष स्त्री और पुरुष में भेद नहीं मानते हैं।
नारद! वे कहते हैं कि 'सत्-असत्' जो कुछ भी है, सब ब्रह्ममय हैं। भगवान श्रीकृष्ण सर्वतंत्र - स्वतन्त्र परम पुरुष हैं। उनके मन में सृष्टि की इच्छा उत्पन्न होते ही तुरंत 'मूल प्रकृति' परमेश्वरी प्रकट हो जाते हैं। तदनन्तर परमेश्वर की आज्ञाके अनुसार इन के पाँच रूप हो जाते हैं। विभिन्न सृष्टि का सृजन करना इनका प्रमुख उद्देश्य है। भगवती प्रकृति भक्तों के अनुरोध से अथवा उनपर कृपा करने के लिये विविध रूप धारण करती हैं ।
जो गणेशकी माता 'भगवती दुर्गा' हैं, उन्हें 'शिवस्वरूपा' कहा जाता है। ये भगवान् शंकरकी प्रेयसी भार्या हैं। नारायणी, विष्णु- माया और पूर्णब्रह्मस्वरूपिणी नामसे ये 'प्रसिद्ध हैं, ब्रह्मादि देवता, मुनिगण तथा मनु प्रभृति - सभी इनकी पूजा करते हैं। वे सबकी व्यवस्था करती हैं। उनका चरित्र परम पावन है। यश, मंगल, सुख, मोक्ष और हर्ष प्रदान करना उनका स्वाभाविक गुण है। दुःख, शोक और उद्वेगको वे दूर कर देती हैं। शरणमें आये हुए दीनों एवं पीड़ितोंकी रक्षामें सदा संलग्न रहते हैं। वे तेजःस्वरूपमा हैं। उनका विग्रह परम तेजस्वी है। उन्हें तेजकी अधिष्ठातृ- देवता कहा जाता है।
सूर्य में जो शक्ति है, वह उन्हीं का रूप है। वे शंकरको निरन्तर शक्तिशाली बनाये रखती हैं। सिद्धेश्वरी, सिद्धिरूपा, सिद्धिदा, सिद्धि, ईश्वरी, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, पिपासा, छाया, तंद्रा, दया, स्मृति, जाति, क्षान्ति, भ्रांति, शांति, कांति, चेतना, तुष्टि, पुष्टि, लक्ष्मी, धृति और माया- ये सब इनके नाम हैं। श्रीकृष्ण परब्रह्म परमात्मा हैं। उनके समीप शक्तिरूपसे ये विराजती हैं। श्रुतिमें इनका यश गाया गया है। ये अनंता हैं। अतएव इनमें गुण भी अनंत हैं। अब इनके दूसरे रूप का वर्णन करता हूँ, सुनो।
जो परम शुद्ध सत्त्वस्वरूप हैं, उन्हें 'भगवती लक्ष्मी' कहा जाता है। परमप्रभु श्रीहरिकी वे शक्ति कहलाती हैं। अखिल जगत् की सारी सम्पत्तियाँ उनके स्वरूप हैं। उन्हें सम्पत्ति की अधिष्ठातृदेवता माना जाता है। वे परम सुंदरी, अनुपम संयमरूपा, शांतस्वरूपा, श्रेष्ठ स्वभाव से सम्पन्न तथा समस्त मंगलोंकी प्रतिमा हैं। लोभ, मोह, काम, क्रोध, मद और अहंकार आदि दुर्गुणों से वे सहज ही रहित हैं।
भक्तों पर अनुग्रह करना तथा अपने स्वामी श्रीहरिसे प्रेम करना उनका स्वभाव है। संपूर्ण स्त्रियों की अपेक्षा वे श्रेष्ठ वे पतिव्रता हैं। श्रीहरि प्राणके समान जानकर उनसे अत्यंत प्रेम करते हैं। वे कभी अप्रिय बात नहीं कहतीं ; धान्य आदि सभी शस्य उनके रूप हैं। प्राणियों का जीवन स्थिर रहे- एतदर्थं उन्होंने यह रूप धारण कर रखा है। वे परम साध्वी देवी 'महालक्ष्मी' नाम से विख्यात होकर वैकुंठ में अपने स्वामी की सेवा में सदा संलग्न रहती हैं। स्वर्गमें 'स्वर्गलक्ष्मी', राजाओंके यहाँ 'राजलक्ष्मी' तथा मर्त्यलोकवासी गृहस्थोंके घर 'गृहलक्ष्मी' के रूपमें वे विराजमान हैं। प्राणियोंके अखिल द्रव्योंमें सर्वोत्कृष्ट शोभा उन्हींका स्वरूप है; वे परम मनोहर हैं। पुण्यात्माओंकी कीर्ति उन्हींकी प्रतिमा है। वे राजाओंकी प्रभा हैं। व्यापारियोंके यहाँ वे वाणिज्यरूपसे विराजती हैं। पापीजन जो कलह आदि अशिष्ट व्यवहार करते हैं, उनमें भी इन्हींकी शक्ति है। ये हयरूपसे धराधामपर पधारी थीं। यह बात वेदमें कही गयी है। सबने | इसका समर्थन भी किया है। सब लोग इनकी आराधना और वन्दना करते हैं।
नारद ! अब मैं अन्य देवी प्रसंग कहता हूँ, सुनो। परब्रह्म परमात्मा से संबंध रखनेवाली वाणी, बुद्धि, विद्या और ज्ञानकी जो व्यवस्था करती हैं, उन्हें 'सरस्वती' कहा जाता है। संपूर्ण विद्याएँ उन्हीं के स्वरूप हैं। मनुष्यों को बुद्धि, कविता, मेधा, प्रतिभा और स्मरण-शक्ति उन्हीं की कृपासे प्राप्त होती हैं। अनेक प्रकार के सिद्धांतों को पृथक-पृथक करना उनका स्वभाविक गुण है। वे व्याख्या और बोधस्वरूप हैं। उनकी कृपा से समस्त संदेह नष्ट हो जाते हैं। उन्हें विचारकारिणी और ग्रंथकारिणी कहा जाता है। वे शक्तिस्वरूपा हैं। स्वर, संगीत और ताल-सब उन्हीं के रूप हैं। वे विषय, ज्ञान और वाणीमयी हैं। प्रत्येक प्राणी को जीविका प्रदान करती हैं। वे परम प्रसिद्ध, वाद-विवाद की अधिष्ठात्री एवं शांतमूर्ति हैं। वे हाथ में वीणा और पुस्तक लिये रहती हैं। उनका विग्रह शुद्धसत्त्वमय है। वे सदाचारपारायण तथा भगवान श्रीहरिकी प्रिया हैं। हिम, चंदन, कुंड, चन्द्रमा, कुमुद और कमलके समान उनकी कान्ति है। वे रत्नोंका हार गलेमें पहनाकर भगवान् श्रीकृष्णकी उपासना करती हैं। उनकी मूर्ति तपोमयी है। तपस्वीजनोंको फल प्रदान करनेमें वे सदा तत्पर रहती हैं। सिद्धि-विद्या उनका स्वरूप है। वे सदा सम्पूर्ण सिद्धि प्रदान करती हैं। उनके अभावमें ब्राह्मण मूक-जैसे होकर मृतकके समान बना रहता है। ये तृतीया देवी कहलाती हैं। इन्हें श्रुतिमें भगवती जगदम्बा कहा गया है।
नारद! इनके सिवा कुछ अन्य देवी भी हैं ।। आगम शास्त्र के अनुसार उनका वर्णन करता हूँ, सुनो। वे चारों वर्णोंकी माता हैं। छन्द और वेद उन्हींसे उत्पन्न हुए हैं। बुद्धिमान् नारद! संध्यावन्दनके मन्त्र और तन्त्रका निर्माण उन्हींपर निर्भर है। द्विजाति वर्णोंके लिये उन्होंने अपना यह रूप धारण किया है। वे जपरूपा, तपस्विनी ब्रह्मतेजसे सम्पन्न तथा सर्वसंस्कारमयी हैं। उन पवित्र रूप धारण करनेवाली देवीको 'सावित्री' अथवा 'गायत्री' कहते हैं। वे ब्रह्माकी परम प्रिय शक्ति हैं। तीर्थ अपनी शुद्धिके लिये उनके स्पर्शकी कामना करते हैं। शुद्ध स्फटिक मणिके समान उनकी स्वच्छ कान्ति है। वे शुद्धसत्त्वमय विग्रहसे शोभा पाती हैं। उनका रूप परम आनन्दमय है। उनका सर्वोत्कृष्ट रूप सदा बना रहता है। वे परब्रह्मस्वरूपा हैं। मोक्ष प्रदान करना उनका स्वाभाविक गुण है। वे ब्रह्मतेजसे सम्पन्न परम शक्ति हैं। उन्हें शक्तिकी अधिष्ठात्री माना जाता है। उनके चरणकी धूलि सम्पूर्ण जगत्को पवित्र कर देती है।
नारद! इन चौथी देवीका प्रसंग सुना चुका। अब तुम्हें पाँचवीं देवीका चरित्र सुनाता हूँ। ये परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। सम्पूर्ण देवियोंकी अपेक्षा इनमें सुंदरता अधिक है। ये सभी सदगुण सदा विद्यमान हैं। ये परम सौभाग्यवती हैं। इन्हें अनुपम गौरव प्राप्त है। परब्रह्म का वामार्द्धंग ही इसका स्वरूप है। ये ब्रह्मके समान ही गुण और तेजसे सम्पन्न हैं। इन्हें परावरा, सारभूत, परमद्या, सनातनी, परमानंदरूपा, धन्या, मान्या और पूज्या कहा जाता है। ये नित्यनिकुंजेश्वरी रासक्रीड़ाकी अधिष्ठात्री देवी हैं। भगवान श्रीकृष्णके रासमंडल में इसका आविर्भाव हुआ है। इनके विरजनसे रासमंडल की विचित्र शोभा होती है। गोलोक-धाम में रहने वाली ये देवी 'रासेश्वरी' और 'सुरसिका' नाम से प्रसिद्ध हैं। रसमंडल में पधारे रहना इन्हें बहुत प्रिय है। ये गोपीके वेशमें विराजती हैं। ये परम आह्लादस्वरूपिणी हैं। इसका विग्रह संतोष और हर्षसे परिपूर्ण है। ये निर्गुण (लौकिक त्रिगुणों से रहित स्वरूपभूत गुणवती), निर्लिप्त (लौकिक विषयभोगसे रहित), निराकार (पाँचभौतिक शरीर से रहित दिव्य चिन्मयस्वरूपा), आत्मस्वरूपिणी (श्रीकृष्णकी आत्मा) नाम से विख्यात हैं। इच्छा और अहंकार से ये रहित हैं। भक्तोंपर कृपा करने के लिए ही इन्होंने अवतार धारण कर रखा है।
वेदोक्त विधिके अनुसार ध्यान करने से विद्वान् पुरुष इन के रहस्यों को समझ पाते हैं। सुरेन्द्र एवं मुनीन्द्र प्रभृति समस्त प्रधान देवता अपने चर्मचक्षुओंसे इन्हें देखने में असमर्थ हैं। ये नीले रंग के दिव्य वस्त्र धारण करती हैं। अनेक प्रकार के दिव्य आभूषण इन्हें सुशोभित किये रहते हैं। इनकी कांति करोड़ों चन्द्रमाओंके समान प्रकाशमान है। इसका सर्वांगसंपन्न विग्रह संपूर्ण ऐश्वर्योंसे संपन्न है। भगवान श्रीकृष्ण की सेवारति ही सदा इनका स्वभाव है; क्योंकि सम्पूर्ण सम्पत्तियों में ये इसीको परम श्रेष्ठ मानती हैं। श्रीवृषाभानुके घर पुत्रीके रूपसे ये पधारी हैं।
इनके चरणकमल का संस्पर्श प्राप्तकर पृथ्वी परम पवित्र हो गया है। मुने! जिन्हें ब्रह्मा आदि देवता नहीं देख सके, वहीं ये देवी भारतवर्ष में सबके दृष्टिगोचर हो रही हैं। ये स्त्रीमय रत्नोंमें सार हैं। भगवान श्रीकृष्णके वक्षस्थलपर इस प्रकार विराजती हैं, जैसे आकाशस्थित नवीन नील मेघों में बिजली चमक रही हो। इन्हें पाने के लिए ब्राह्मणे साठ हजार वर्ष की तपस्या की है। उनकी तपस्या का उद्देश्य यही था कि इनके चरणकमल के नखके दर्शन सुलभ हो जायँ, जिससे मैं परम पवित्र बन जाऊँ; परंतु स्वप्न में भी वे इन भगवतीके दर्शन प्राप्त न कर सकें; फिर प्रत्यक्ष की तो बात ही क्या है। उसी तपके प्रभाव से ये देवी वृन्दावन में भगवान् के सामने प्रकट हुई हैं-धराधाम पर इनका पधारना हुआ है। ये ही पाँचवीं देवी 'भगवती राधा' के नाम से प्रसिद्ध हैं।
इन प्रकृति देवीके अंश, कला, कलांश और कलांशांश-भेदसे अनेक रूप हैं। प्रत्येक विश्वमें सम्पूर्ण स्त्रियाँ इन्हींकी रूप मानी जाती हैं। ये पाँच देवियाँ परिपूर्णतम हैं। इन्हें भगवती विद्या कहते हैं। इन देवियोंके जो-जो प्रधान अंश हैं, अब उनका वर्णन करता हूँ, सुनो। भूमण्डलको पवित्र करनेवाली गंगा इनका प्रधान अंश है। ये सनातनी 'गंगा' जलमयी हैं । भगवान् विष्णुके विग्रहसे इनका प्रादुर्भाव हुआ है। पापियोंके पापमय ईंधनको भस्म करनेके लिये ये प्रज्वलित अग्नि हैं। इन्हें स्पर्श करने, इनमें नहाने अथवा इनका जल पान करनेसे पुरुष कैवल्य-पदके अधिकारी हो जाते हैं। गोलोक धाममें जानेके लिये ये सुखप्रद सीढ़ीके रूपमें विराजमान हैं। इनका रूप परम पवित्र है। समस्त तीर्थों और नदियोंमें ये श्रेष्ठ मानी जाती हैं। ये भगवान् शंकरके मस्तकपर जटामें ठहरी थीं। वहाँसे निकलीं और पंक्तिबद्ध होकर भारतवर्षमें आ गयीं। तपस्वीजन अपनी तपस्यामें सफलता प्राप्त कर सकें- एतदर्थ शीघ्र ही इनका पधारना हो गया। इनका शुद्ध एवं सत्त्वस्वरूप चन्द्रमा श्वेतकमल या दूधके समान स्वच्छ है। मल और अहंकार इनमें लेशमात्र भी नहीं है। ये परमसाध्वी गंगा भगवान् नारायणको बहुत प्रिय हैं।
श्री 'तुलसी' को प्रकृति देवीका प्रधान अंश माना जाता है। ये विष्णुप्रिया हैं। विष्णुको विभूषित किये रहना इनका स्वाभाविक गुण है। भगवान् विष्णुके चरणमें ये सदा विराजमान रहती हैं। मुने! तपस्या, संकल्प और पूजा आदि सभी शुभ कर्म इन्हींसे सम्पन्न होते हैं। पुष्पों में ये मुख्य मानी जाती हैं। ये परम पवित्र एवं पुण्यप्रदा हैं। अपने दर्शन और स्पर्शमात्रसे ये तुरंत मनुष्योंको परमधामके अधिकारी बना देती हैं। पापमयी सूखी लकड़ीको जलानेके लिये प्रज्वलित अग्निके समान रूप धारण करके ये कलिमें पधारी हैं। इन देवी तुलसीके चरणकमलका स्पर्श होते ही पृथ्वी परम पावन बन गयी। तीर्थ स्वयं पवित्र होनेके लिये इनका दर्शन एवं स्पर्श करना चाहते हैं। इनके अभावमें अखिल जगत्के सम्पूर्ण कर्म निष्फल समझे जाते हैं। | इनकी कृपासे मुमुक्षुजन मुक्त हो जाते हैं। जो जिस कामनासे इनकी उपासना करते हैं, उनकी वे सारी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं।
भारतवर्षमें वृक्षरूपसे पधारनेवाली ये देवी कल्पवृक्ष-स्वरूपा हैं। भारतवासियोंको प्रसन्न करनेके लिये इनका यहाँ पधारना हुआ है। ये परम देवता हैं।
प्रकृति देवीके एक अन्य प्रधान अंशका नाम देवी 'जरत्कारु' है। ये कश्यपजीकी मानसपुत्री हैं। इन्हें भगवान् शंकरकी प्रिय शिष्या होनेका सौभाग्य प्राप्त है। ये परम विदुषी हैं। नागराज शेषने इन्हें अपनी बहन माना है। सभी नाग इनका सम्मान करते हैं। नागकी सवारीपर चलनेवाली इन अनुपम सुन्दरी देवीको 'नागेश्वरी' और 'नागमाता' भी कहा जाता है। प्रधान प्रधान नाग इनके साथ विराजमान रहते हैं। ये नागोंसे सुशोभित रहती हैं। नागराज इनकी स्तुति करते हैं। ये सिद्धि और योगकी साक्षात् मूर्ति हैं। इनकी शय्या नाग है। ये विष्णुस्वरूपिणी हैं। भगवान् विष्णुमें इनकी अटल श्रद्धा है। ये सदा श्रीहरिकी पूजामें संलग्न रहती हैं। इनका विग्रह तपोमय है। तपस्वीजनोंको फल प्रदान करनेमें ये परम कुशल हैं। ये स्वयं भी तपस्या करती हैं। इन्होंने देवताओंके वर्षसे तीन लाख वर्षतक भगवान् श्रीहरिकी तपस्या की है। भारतवर्षमें जितने तपस्वी और तपस्विनियाँ हैं, उन सबमें ये श्रेष्ठ हैं। सम्पूर्ण मन्त्रोंकी ये अधिष्ठात्री हैं। ब्रह्मतेजसे इनका विग्रह सदा प्रकाशमान रहता है। इनको 'परब्रह्मस्वरूपा' कहते हैं। ये ब्रह्मके चिन्तनमें सदा संलग्न रहती हैं। जरत्कारु मुनि भगवान् श्रीकृष्णके अंश हैं। इनके द्वारा पातिव्रत धर्मका पूर्ण पालन होता है। मुनिवर आस्तीक, जो तपस्वियोंमें श्रेष्ठ गिने जाते हैं, ये देवी उनकी माता हैं।
नारद! प्रकृति देवीके एक प्रधान अंशको 'देवसेना' कहते हैं। मातृकाओंमें ये परम श्रेष्ठ मानी जाती हैं। इन्हें लोग भगवती 'षष्ठी' के नामसे कहते हैं। पुत्र-पौत्र आदि संतान प्रदान करना तथा त्रिलोकी को जन्म देना इनका प्रधान कार्य है। ये साध्वी भगवती प्रकृतिकी षष्ठांश हैं। अतएव इन्हें 'षष्ठी' देवी कहा जाता है। संतानोत्पत्तिके अवसरपर अभ्युदयके लिये इन षष्ठी योगिनीकी पूजा होती है। अखिल जगत्में बारहों महीने लोग इनकी निरन्तर पूजा करते हैं। पुत्र उत्पन्न होनेपर छठे दिन सूतिकागृहमें इनकी पूजा हुआ करती है - यह प्राचीन नियम है। कल्याण चाहनेवाले कुछ व्यक्ति इक्कीसवें | दिन इनकी पूजा करते हैं। मुनियोंके प्रणाम करनेपर ये सदा उनकी अभिलाषा पूर्ण कर देती हैं। अतः इन्हें सर्वोत्तम देवी कहते हैं। इनकी मातृका संज्ञा है। ये दयास्वरूपिणी हैं। निरन्तर रक्षा करनेमें तत्पर रहती हैं। जल, थल, आकाश, गृह — जहाँ कहीं भी बच्चोंको सुरक्षित रखना इनका प्रधान उद्देश्य है।
प्रकृति देवी का एक प्रधान अंश 'मंगल-चंडी' के नाम से विख्यात है। ये मंगलचंडी प्रकृति देवीके मुख से प्रकट हुई हैं। इनकी कृपा से समस्त मंगल सुगम हो जाते हैं सृष्टिके समय इसका विग्रह मंगलमय रहता है। संहारके अवसर पर ये क्रोधमयी बन जाती हैं। इसीलिये इन देवीको पंडितजन मंगलचण्डी कहते हैं। प्रत्येक मंगलवार के दिन विश्वभर में इनकी पूजा होती है। इनके अनुग्रह से साधक पुरुष पुत्र, पैत्र, धन, सम्पत्ति, यश और कल्याण प्राप्त कर लेते हैं।
प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण स्त्रियों के समस्त मनोरथ पूर्ण कर देना इनका स्वभाव ही है। ये भगवती माहेश्वरी कुपित होने पर क्षणमात्र में विश्वको नष्ट कर सकती हैं।
देवी 'काली' को प्रकृति देवीका प्रधान अंश मानते हैं। इन देवीके नेत्र ऐसे हैं मानो कमल हों। संग्राममें जब भगवती दुर्गाके सामने प्रबल राक्षसबन्धु शुम्भ और निशुम्भ डटे थे, उस समय ये काली भगवती दुर्गाके ललाटसे प्रकट हुई थीं। इन्हें दुर्गाका आधा अंश माना जाता है। गुण और तेजमें ये दुर्गाके समान ही हैं। इनका परम पुष्ट विग्रह करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान है। सम्पूर्ण शक्तियोंमें ये प्रमुख हैं। इनसे बढ़कर बलवान् कोई है ही नहीं। ये परम योगस्वरूपिणी देवी सम्पूर्ण सिद्धि प्रदान करती हैं। श्रीकृष्णके प्रति इनमें अटूट श्रद्धा है। तेज, पराक्रम और गुणमें ये श्रीकृष्णके समान ही हैं। इनका सारा समय भगवान् श्रीकृष्णके चिन्तनमें ही व्यतीत होता है। इन सनातनी देवीके शरीरका रंग भी कृष्ण ही है। ये चाहें तो एक श्वासमें समस्त ब्रह्माण्डको नष्ट कर सकती हैं। अपने मनोरंजनके लिये अथवा जगत्को शिक्षा देनेके विचारसे ही ये संग्राममें दैत्योंके साथ युद्ध करती हैं। सुपूजित होनेपर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- सब कुछ देनेमें ये पूर्ण समर्थ हैं। ब्रह्मादि देवता, मुनिगण, मनु प्रभृति और मानव-समाज- सब-के-सब इनकी उपासना करते हैं।
भगवती 'वसुन्धरा' भी प्रकृति देवीके प्रधान अंशसे प्रकट हैं। अखिल जगत् इन्हींपर ठहरा है। ये 'सर्वशस्या' कही जाती हैं। इन्हें लोग 'रत्नाकरा' और 'रत्नगर्भा' भी कहते हैं। सम्पूर्ण रत्नोंकी खान इन्हींके अंदर विराजमान है। राजा और प्रजा - सभी लोग इनकी पूजा एवं स्तुति करते हैं। सबको जीविका प्रदान करनेके लिये ही इन्होंने यह रूप धारण कर रखा है। ये सम्पूर्ण सम्पत्तिका विधान करती हैं। ये न रहें
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