शरीर में प्रतिदिन उत्पन्न होने वाली विद्युत दैनिक कार्यों में काम आती है अथवा उपयोग हीन अवस्था में व्यर्थ चली जाती है मन के द्वारा अर्जित विद्युत सूक्ष्म रूप से विचारों के रूप में प्रवाहमान रहती है शरीर के द्वारा उत्पादित विद्युत इंद्रियों के माध्यम से निर्गत होती है।

इसमें घार्षणिक एवं चुम्बकीय विद्युत के निर्गम के द्वार मुख्य रूप से हाथ एवं आंखें हैं हठयोगी यह मिशन रेशम करने वाला आंखों से मोहन निंद्रा के वशीभूत करता है हाथों से पार्जिगं कर के पात्र की विद्युत शक्ति को निष्प्रभ करके उसके मानसिक शरीर पर नियंत्रण करता है मन की विचार तरंगे भी मुख्यतः आंखों के माध्यम से गमन करती हैं वैसे इन तरंगों के लिए आंखें ही एकमात्र निर्गमद्वार नहीं है पर प्रत्यक्ष संपर्क होने पर आंखों की मुक भाषा सब कुछ समझा देती है।

आंखों के त्राटक से सिंह का भी सम्मोहन संभव है हमारे इर्द-गिर्द घूमने वाले कुत्तों पर इस शक्ति का प्रयोग करके देखा जा सकता है यदि किसी कुत्ते की तरफ हम स्निग्ध दृष्टि देखेंगे तो वह पूंछ हिला नहीं लगेगा और अगर क्रोध से देखने पर वह गुर्राने लगेगा यह मानसिक विद्युत का भावनात्मक प्रतिफल नहीं तो और क्या है।

प्रथम दृष्टि में ही प्रेमपाश मे बंध जाने के मुहावरे की सत्यता का कारण यही मानसिक विधुत का तीव्र प्रवाह है शारीरिक एवं मानसिक विद्युत विचार संप्रेक्षण योग्यता रहती है इसका दूसरा अनुभव सिद्ध प्रयोग है मान लीजिए हम एक रेलगाड़ी में सफर कर रहे हैं हमारे पास एक ऐसा व्यक्ति बैठा है जिससे हम संबंध बनाना चाहते हैं हम इस भावना को बिना शब्दों में व्यक्त किए ही उस निकटस्थ व्यक्ति तक पहुंचा सकते हैं हमारे स्पर्श से हमारे विचार उस तक संक्रमण कर जाएंगे और यदि उस व्यक्ति मे हम से कम प्रभाव है तो वह हमारी भावनाओं का प्रभाव ग्रहण कर लेगा अथवा हमारे विचारों में अति है पवित्रता है तो भी वह उसे अनुकूल बना लेगा यह सब विद्युत शरीर की सक्षमता भी माना जा सकता है।

दोनों ही विद्युत एक प्रकार की नहीं होती एक होती है ऋणात्मक दूसरी होती है धनात्मक। घार्षणिक ऋण धनात्मक जिसे देह जेनरेट करता है चुंबकीय उभयात्मक जिसे मन उत्पन्न करता है इसका विनियोग उपयोग विद्युत शरीर करता है जो सीधे मन से अनुशासित है हाथ मिलाने की यूरोपीय परंपरा भारत के लिए आदर की वस्तु नहीं है।

क्योंकि उस से दूसरे व्यक्ति की अनुकूल प्रतिकूल विचारचाही विद्युत के संपर्क से प्रभावित होना पड़ता है भारतीय हाथ जोड़ते हैं जिसका अर्थ होता है ऋणात्मक और धनात्मक विद्युत को स्वयं में सीमित करना बड़ों के द्वारा सिर पर हाथ रखकर आशीष देने का अर्थ होता है उनकी विद्युत शक्ति को हमारे मे प्रक्षेप हमारे शरीर में दोनों प्रकार की चुंबकीय और घार्षणिक विद्युत का प्रवाह अनवरत रूप से चलता रहता है चुंबकीय विद्युत मानसिक शरीर से प्राप्त होती है घार्षणिक भौतिक शरीर से हमारे सिर दर्द होने पर हाथ से दबाने से तसल्ली मिलती है इसका कारण केवल रक्त प्रवाह में संतुलन या आवश्यकता अनुसार तीव्रता उत्पन्न होना नहीं होता प्रत्युत हाथ से निकल रही विद्युत तरंगों द्वारा बिजली के परिपथ में उत्पन्न न्यूनता या अधिकता का संतुलन भी होता है।

रक्त प्रवाह के तीव्र होने से केवल सर्दी के कारण उत्पन्न सिर दर्द ही कम या बंद हो सकता है थकान या इलेक्ट्रिक सिस्टम की खराबी के कारण हुआ सिर दर्द बंद नहीं हो सकता इसके समांतर एक उदाहरण आप अपने जीवन में और देख सकते हैं हाथ सीने पर रखा रहे तो कई व्यक्तियों को नींद में भयानक सपने दिखते हैं इसका कारण भी यही है कि हाथ से निकलने वाली विद्युत तरंगों का प्रवाह रक्त संचार संस्थान के केंद्र ह्रदय को प्रभावित करता है कभी-कभी हमें किसी नई अपरिचित जगह पर जाते हैं तो वहां देर तक नींद नहीं आती इसका कारण यह होता है कि उस स्थान में स्थित विद्युत तरंगों का सामंजस्य हमारे शरीर के विद्युत से नहीं हो पाता डाकुओं के बीहड मे या शेर की मांद के आसपास संभावित हो जाते हैं क्योंकि इस वातावरण में सुक्ष्म रूप से फैली विद्युत तरंगे उग्र और शक्तिशाली होती हैं वह हमारे शरीर के उर्जा परिपथ को क्षीण शक्ति करने लगती हैं जिसे हम भय अथवा कातरता के रूप में अनुभव करते हैं।

ऋषियों के आश्रमों में मृग और सिंह एक ही घाट पर पानी पिया करते थे इसका रहस्य भी यही था किर ऋषियों की शक्तिशाली ऊर्जा वातावरण में फैली रहती थी और उसके प्रभाव के कारण प्राणी अपने जन्मजात बेर को भूल जाया करते थे आश्रम में जाने पर लोगों को परम शांति का अनुभव इसलिए होता था कि जिन जगहों को वही था कहा जाता है वहां किसी आत्मा का रहना एक तथ्य है किंतु कई बार कई दृश्य घटित होते दिखाई देते हैं इस दृश्य दृश्य का भारतीय दृष्टिकोण से स्पष्टीकरण यह है कि उस वातावरण में घटित घटनाओं का असर है चुके व्यक्तियों के विचार करेंगे जब किसी व्यक्ति विशेष के विद्युत शरीर की पकड़ में आ जाती है तो मन उसको अनुभव का विषय बना लेता है।

मन इतना समर्थ है कि वह अपने अनुभव को बलात इंद्रियों पर लाद देता है और इंद्रिया मूर्त रूप में से ग्रहणीय मान लेती है अन्यथा मृत प्राणी और घटनाएं पंच भूतों के समावेश योग्य होती ही नहीं है पर ऐसा ठीक वैसे ही हो जाता है जैसे किसी ने सपने में नोटों का बंडल पाया हूं और उसे इतना विश्वास हो गया हो कि वह उसके तकिए के नीचे धरे हुए हैं।

मानसिक शरीर में संकल्प विकल्प होते रहते हैं मंत्र के चुंबकीय शक्ति को समझने के लिए मन की शक्ति और विद्युत तंत्र की कार्यविधि को समझ लेना आवश्यक होगा इस सुत्र को अपने जीवन में घट रही घटनाओं के माध्यम से समझना अधिक सरल रहेगा वास्तव में मन का काम ट्रांसमीटर अथवा रिसीवर जैसा होता है वह अपनी भावनाओं का प्रसारण भी करता है और संग्रहण भी पर इन सबके लिए पुद्गलशरीर ,,इलेक्ट्रॉनिक बॉडी,, का माध्यम आवश्यक होता है मन ने जिन संकल्पों को जन्म दिया जिन कल्पना ओं का सृजन किया उनको तरंगों के रूप में संप्रेक्षणीय बनाना और वायुमंडल में तैर रही तिरंगावली को पकड़कर विचार अथवा कल्पना के रूप में परिवर्तन करने के लिए मन को समर्पित करना पुद्गलशरीर की विशेषताएं हैं।

कई बार हम देखते हैं कि हमारे मन में हमारे निकटतम व्यक्ति के स्वास्थ्य के बारे में आशंका खड़ी हो जाती है और कालांतर में वही आशंका सत्य भी सिद्ध हो जाती है ऐसा इसलिए होता है कि हमारे मन ने विद्युत शरीर के सहयोग से उन तरंगों को पकड़ लिया जो हमारे लिए छोड़ी गई थी इन तरंगों के लिए समय या दूरी का कोई महत्व नहीं रखती मैं तो रखती है संप्रेषक की भावना और संग्रहीता के मन की संवेदनशीलता दरअसल मन दो प्रकार का काम करता है स्वयं भी कल्पना करता है और बाहर की विचारावली को भी ग्रहण करता है उसकी कल्पना की सीमा ज्ञान और अनुभूति का ही विविध रूपों से समायोजन करने तक है अथवा प्राप्त अनुभव की प्रतिक्रिया तक है नवीन बुध भावना का कहीं ना कहीं आधार होता है मूर्त आधार अथवा किसी विधि विशेष के कारण मन की शक्ति का विकास करने पर अलौकिक और अतिंद्रीय अनुभूतियां हो जाया करती है


शरीर में प्रतिदिन उत्पन्न होने वाली विद्युत दैनिक कार्यों में काम आती है अथवा उपयोग हीन अवस्था में व्यर्थ चली जाती है मन के द्वारा अर्जित विद्युत सूक्ष्म रूप से विचारों के रूप में प्रवाहमान रहती है शरीर के द्वारा उत्पादित विद्युत इंद्रियों के माध्यम से निर्गत होती है।

न्यास देवैक्य, सायुज्य एवं तद्रूपता की साधना है। साधक देवता को अपनी सत्ता अधिकृत करने के लिए उसका आवाहन करता है और चाहता है कि वह मेरी सत्ता में प्रवेश करके उसका शासनसूत्र अपने हाथों में ले ले। देवता साधक के सम्पूर्ण शरीर या शरीर के विशेषाङ्ग को अपने सजातीय अङ्ग से अधिकृत कर ले ।

इसी उद्देश्य से आहूत देवता एवं उसके ही मन्त्र या मन्त्रांश के साथ साधक अपनी अँगुलियों या हथेली का उसी अङ्ग में न्यास करता है , साधक इस क्रिया की, शरीर के प्रत्येक अङ्ग पर पुनरावृत्ति करता है और फिर वह अपनी अँगुलियों को पूरे शरीर पर फैला देता है, इसे व्यापक न्यास कहते हैं

इस से यह अर्थ लिया जाता है कि देवशक्ति या परमात्मा साधक की सम्पूर्ण सत्ता में फैल गई है इसीलिए तो कहा गया है कि " देवो भूत्वा यजेद्देवम् " 



न्यास के द्वारा देवत्व की प्राप्ति एवं मन्त्रसिद्धि होती है, यथा "वरिवस्या रहस्यम्" के लेखक भास्करराय मखिन् को " षोढा न्यास " सिद्ध होने से हुई थी और उसके परिणाम स्वरूप उन्होंने जैसे ही एक प्रतिद्वन्द्वी संन्यासी के कमण्डल को दण्डवत् किया तो उसके कमण्डल के सैकड़ों टुकड़े हो गये, न्यास की इसी महानता के कारण भगवान् शिव ने पार्वती से कहा था ।


न्यासं निर्वर्तये द्देहे षोढान्यास पुरः सरम् ।


न्यास यत्त्व अपने शरीर एवं शरीराङ्गों में मन्त्र के अक्षर, देवता, लोक, राशि, नक्षत्र, पीठ आदि की स्थापना करके अपने को मन्त्रमय, देवतामय एवं विश्वमय बनाने की अद्वैतात्मिका प्रक्रिया ही न्यास है ।


न्यायो पार्जित वित्ताना मङ्गेषु विनिवेशनात् ।
सर्व  रक्षा  कराद्देवि  न्यास  इत्यभि  धीयते ॥


तान्त्रिक प्रक्रिया में न्यास का अत्यधिक महत्त्व बताया गया है उसमें 'षोढा न्यास' अतीव महत्त्वपूर्ण है ।


षोढा न्यास विहीनं यं प्रणमे देष पार्वति ।
सोऽचिरान् मृत्यु माप्नोति नरकं च प्रपद्यते ।।


न्यास के प्रकार एवं न्यास के अनेक प्रकार हैं ।

(01.) मातृका न्यास - स्वर एवं वर्णों का न्यास ।
(02.) मन्त्र न्यास - सम्पूर्ण मन्त्र, मन्त्र के पद, मन्त्र के एक  एक अक्षर या एक साथ ही सबका न्यास ।
(03.) देवता न्यास - शरीर के बाह्य एवं आभ्यन्तर अङ्गों में इष्टदेव या अन्य देवों की यथा स्थान स्थापना ।
(04.) ऋष्यादि न्यास - शिर, मुख, हृदय, गुह्यस्थान, पैर एवं सर्वाङ्ग में ऋषि बीजादि की स्थापना ।


न्यास का अर्थ है स्थापन किसी स्थान, केन्द्र चक्र, अङ्ग या शरीर के बाह्याभ्यन्तर अङ्गों में इष्टदेवता, मन्त्र या मातृकाओं की स्थापना करना ही न्यास है।

शरीर शुक्र, रक्त, रस आदि संप्तधातु; प्राण, मन संस्कार एवं चेतना आदि सभी दृष्टियों से अपवित्र है अतः उसे पवित्रतम भगवान् की पूजा करने का तब तक अधिकार नहीं मिलता जब तक कि वह शरीर को पवित्र न बना ले, देवपूजा के लिए शरीर को पवित्र करना आवश्यक है ।

चित्तगत क्षोभ, चित्त में उत्पन्न ग्लानि के रहते हुए ( ग्लानि युक्त चित्त में ) प्रसाद एवं भावों का उद्रेक नहीं होता, विक्षेप एवं अवसाद से आक्रान्त होने के कारण ही चित्त में बार बार प्रमाद एवं तन्द्रा का उदय होता रहता है ।

क्षोभ कलुषित चित्त किसी भी वस्तु या विषय का एकतार स्मरण नहीं कर सकता और न तो वह विधि विधानपूर्वक किसी भी कृत्य का साङ्गोपाङ्ग अनुष्ठान ही निष्पादित कर सकता है इन दोषो के परिहार के लिए न्यास श्रेष्ठतम उपाय स्वीकार किया गया है । 

शरीर के प्रत्येक अवयव में क्रियाशक्ति प्रगाढ़ सुषुप्ति की अवस्था में सोती रहती है किन्तु हृदयान्तराल में जो भावशक्ति सम्मूर्च्छित रहती है उसको जागृत करने के लिए न्यास एक उत्कृष्ट साधन है । न्यासों के अनेक प्रकार हैं ।

मातृकान्यास का सम्बन्ध स्वर एवं व्यञ्जनों से निर्मित वर्णमाला या मातृकाओं वर्णों का मूल स्वरूप से होता है ।

मन्त्रन्यास का सम्बन्ध मन्त्र का, मन्त्रों के पदों का, मन्त्र के एक एक वर्ण का और एक साथ ही सब प्रकार का होता है।

देवतान्यास शरीर के बाह्यान्तर अङ्गों में अपने इष्टदेव या अन्य देवों के यथा स्थान न्यास को कहते हैं।

तत्त्वन्यास का वह रूप है जिसमें संसार के कार्य कारण के रूप परिणत एवं इनसे परे रहने वाले तत्त्वों का शरीर में यथानिर्दिष्ट स्थानों में न्यास किया जाता है, इसे ही पीठन्यास भी कहते हैं।

हाथों की समस्त अँगुलियों एवं करतल तथा करपृष्ठ में किया गया न्यास कर न्यास कहा जाता है । न्यास मुख्यतया चार प्रकार से किया जाता है।

न्यास में १. तत्त्व स्थानों में देवता, २. मन्त्रवर्ण, ३. तत्त्व आदि की भावना की जाती है।

जिस न्यास में किसी भी अङ्ग का स्पर्श नहीं किया जाता किन्तु फिर भी सर्वाङ्ग में मन्त्र न्यास किया जाता है उसे व्यापक न्यास कहा जाता है।

ऋष्यादि न्यास के षडङ्गआत्मक हैं 

01. शिर में ऋषि
02. मुख में छन्द
03. हृदय में देवता
04. गुह्यस्थान में बीज
05. पैरों में शक्ति 
06. सर्वाङ्ग में कीलक

न्यास - प्रक्रिया

न्यास चार प्रकार से निष्पादित किया जाता है , अन्तर्ध्यान मन से निष्पादित किया जाता है । मन से उन उन स्थानों में देवता, मन्त्रवर्ण, तत्त्व आदि की स्थिति की भावना की जाती है ।

बहिर्न्यास केवल मन से भी किया जाता है और साथ ही उन उन स्थानों के स्पर्श से भी किया जाता है ।

स्पर्श दो प्रकार से किये जाने का विधान है -

01. किसी पुष्प से या 
02. अँगुलियों से

अँगुलियों का प्रयोग दो प्रकार से किया जाता है

01. अङ्गुष्ठ एवं अनामिका मिलाकर सभी अङ्गों का स्पर्श करने से 
03. भिन्न भिन्न अङ्गों के स्पर्श के लिए भिन्न भिन्न अँगुलियों का प्रयोग किया जाता है।

विभिन्न अँगुलियों के द्वारा न्यास करने का भी एक क्रम है 

मध्यमा, अनामिका, और तर्जनी द्वारा हृदय; मध्यमा और तर्जनी द्वारा शिर; अङ्गुष्ठ के द्वारा शिर, दसों अंँगुलियों के द्वारा कवच; तर्जनी, मध्यमा और अनामिका द्वारा नेत्र; तर्जनी और मध्यमा द्वारा करतल एवं करपृष्ठ में न्यास करना चाहिए। यदि देवता त्रिनेत्री हो तो तर्जनी, मध्यमा और अनामिका से एवं यदि देवता द्विनेत्री हो तो मध्यमा और तर्जनी द्वारा नेत्र में न्यास करना चाहिए ।

पञ्चाङ्गन्यास नेत्र को छोड़कर ही किया जाता है, वैष्णव क्रम भिन्न है, इस में अँगूठों को छोड़कर सीधी अँगुलियों से हृदय और मस्तक में न्यास किये जाने का विधान है, अङ्गुष्ठ को भीतर करके और मुष्टि बाँधकर शिखा स्पर्श करना चाहिए, सभी अँगुलियों से कवच, तर्जनी और मध्यमा से नेत्र, नाराच मुद्रा से हस्तद्वय को ऊपर उठाकर अङ्गुष्ठ और तर्जनी द्वारा मस्तक के चतुर्दिक करतल ध्वनि करनी चाहिए, जहाँ अङ्गन्यास का मन्त्र नहीं प्राप्त होता वहाँ देवता के नाम के पूर्व के अक्षर ( प्रथमाक्षर ) से अङ्गन्यास करने का विधान है ।

न्यास का महत्त्व

न्यास मान्त्री शक्ति, देवशक्ति, पीठशक्ति एवं चक्रशक्ति को जाग्रत् करता है और देवत्व की प्राप्ति कराने के अतिरिक्त मन्त्र की सिद्धि भी करता है, मन्त्रशास्त्र यह मानता है कि मनुष्य के अङ्ग प्रत्यङ्ग में देवों का निवास है और हमारा अन्तस्तल तथा बाह्य शरीर देवशक्ति तथा मान्त्री शक्ति यों से ज्योतित है ।

न्यास के सिद्ध होने पर साधक का परमात्मा से एकत्व प्राप्त हो जाता है । न्यास कवच का भी कार्य करता है क्योंकि न्यास करने पर आध्यात्मिक - आधिभौतिक कोई भी विघ्न साधक के मार्ग को अवरुद्ध नहीं कर पाता बिना न्यास के जप, ध्यान आदि की क्रियाओं में अनेक विघ्न उपस्थित हो जाते हैं ।


न्यास क्रिया में ऋषि देवता आदि का स्थान—

न्यास क्रिया में मन्त्र के ऋषि, छन्द, देवता, बीजशक्ति एवं कीलक आदि सभी का अपना एक नियंत्रित स्थान है । प्रत्येक मन्त्र के प्रत्येक पद के और मन्त्र के प्रत्येक अक्षर के पृथक् - पृथक् ऋषि, देवता, छन्द, बीज, शक्ति एवं कीलक होते हैं ।

(०१.) ऋषि — वह ऋषि जो कि भगवान् शङ्कर से मन्त्र प्राप्त करके सर्वप्रथम उस मन्त्र की साधना करता है उसे उस मन्त्र का ऋषि कहा जाता है । वैसे ऋषि उसे कहते हैं जो मन्त्रो का द्रष्टा होता है, ऋषि गुरु तुल्य होता है अतः उसका स्थान मस्तक माना जाता है ।

(०२.) छन्द— मन्त्र के स्वर वर्णों की विशिष्ट गति, जिसके द्वारा मन्त्रार्थ एवं मन्त्रतत्त्व आच्छादित रहते हैं और जिसका उच्चारण मुख के द्वारा होता है उसे छन्द कहते हैं, छन्द का स्थान मुख माना जाता है।

(०३.) देवता — देवता ही मन्त्र का आराध्य होता है, वही सारे भावों का प्रेरक एवं हृदय का अधिकारी होता है, उसके न्यास का स्थान हृदय है, सिर में ऋषि, मुख में मन्त्र का छन्द और हृदय में इष्ट देवता तथा शरीराङ्गों में मन्त्र के अक्षरों का न्यास करने से रोम रोम में अपने इष्ट देवता का वास हो जाता है, न्यास से रोम रोम एवं अणु अणु में देवता होने से समस्त शरीर ही देवतामय हो जाता है, चिन्मय के ध्यान से सारा अचित जगत भी चिन्तय हो जाता है, जड़ चित्त भी चिन्मय हो जाता है और जड़ शरीर भी, जड़ जगत् भी चिन्मय हो जाता है और अपनी जड़ चेतना भी।

प्रत्येक मन्त्र के ऋषि, देवता, छन्द, बीज, शक्ति, और कीलक होते हैं, मन्त्रसिद्धयर्थ इनके ज्ञान, इनकी कृपा एवं सहायता की आवश्यकता होती है।

पीठन्यास को लें , देवता के निवास योग्य स्थान को पीठ कहते हैं, पीठ न्यास की साधना से साधक का शरीर एवं अन्तःकरण भी देवता के निवास योग्य पीठ बन जाता है।