मधु कैटभके साथ भगवान् विष्णु का युद्ध, भगवती की स्तुति से भगवान् के द्वारा मधु कैटभका सम्मोहन और भगवान् विष्णु के द्वारा उनका वध
सूतजी कहते हैं-जब जगद्गुरु भगवान्। विष्णुके श्रीविग्रहसे निद्रा दूर हुई, उनके नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय एवं वक्षःस्थल- सभी अंगोंसे निकलकर उस तामसी देवीने मूर्तिमान् हो आकाशमें स्थान बना लिया और भगवान् बार-बार जँभाई लेते हुए उठकर बैठ गये, तब उन्होंने देखा, वहीं प्रजापति ब्रह्माजी भयभीत होकर खड़े हैं। फिर तो महान् तेजस्वी श्रीविष्णु मेघकी भाँति गम्भीर वाणीमें कहने लगे
भगवान् विष्णु बोले- पद्मयोनि ब्रह्माजी ! आप जप-तप छोड़कर यहाँ कैसे आ गये ? भगवन्! क्यों आप इतने चिन्तित हैं? आपका मन भयसे अत्यन्त घबराया हुआ क्यों है?
ब्रह्माजीने कहा- भगवन्! मधु और कैटभ नामक दो दैत्य आपके कानकी मैलसे उत्पन्न हुए हैं। उनका रूप बड़ा ही भयंकर है और वे अपार बली हैं। वे दोनों मुझे मारनेके लिये उपस्थित हैं। जगत्प्रभो! उन्हींसे डरकर मैं आपके पास चला आया । भगवन्! भयसे मेरा कलेजा काँप रहा है और चेतना लुप्त-सी हो रही है। अब आप मुझे बचाइये ।
भगवान् विष्णु बोले- ब्रह्माजी! यहाँ विराजिये, अब आपका भय समाप्त हो गया। वे मूर्ख अपनी आयु खो चुके हैं। अभी युद्ध करनेके लिये मेरे पास आयेंगे और निश्चय ही मैं उनका वध कर दूँगा !
सूतजी कहते हैं -इस प्रकार देवाधिदेव भगवान् विष्णु ब्रह्माजीसे कह रहे थे- इतनेमें ही मतवाले मधु और कैटभ दोनों महाबली दानव ब्रह्माजीको खोजते हुए वहाँ आ पहुँचे। मुनिवरो! सर्वत्र जल-ही-जल था, बिना किसी अवलम्बके ही निश्चिन्त होकर वे दैत्य खड़े थे। उनके सर्वांगमें अहंकार भरा था। वे ब्रह्माजीसे कहने लगे- ' भागकर इसके पास चला आया ? क्या इससे बच सकेगा ? युद्ध कर। यह देखता ही रहेगा और हम तेरे प्राण हर लेंगे। इसके बाद सर्पके फनपर बैठनेवाले इसे भी हम मारेंगे। किंतु पहले अभी तू लड़ ले; या लड़ना नहीं चाहता तो 'मैं तुम्हारा दास हूँ' यों कह दे ।
सूतजी कहते हैं-मधु और कैटभकी बात सुनकर भगवान् विष्णु उनसे कहने लगे- 'दानव-श्रेष्ठ! तुम इच्छापूर्वक मुझसे युद्ध कर लो। महाभाग! तुम बड़े बली हो। तुम्हें असीम अभिमान हो गया है। यदि युद्ध करनेकी अभिलाषा हो तो आ जाओ, मैं तुम्हारा अभिमान दूर कर दूँगा!
सूतजी कहते हैं- भगवान् विष्णुके वचन सुनकर मधु और कैटभकी आँखें क्रोधसे लाल हो उठीं। वे बिना किसी सहारे जलमें ही खड़े थे; फिर भी श्रीहरिसे युद्ध करनेके लिये तैयार हो गये । मधु कुपित होकर तुरंत ही भगवान्से लड़नेके लिये आगे आ गया था। अभी कैटभ वहीं ही ठहर गया। दो मतवाले पहलवानोंकी भाँति भगवान् विष्णु और मधु मल्लयुद्ध करने लगे। मधुके थक जानेपर कैटभ लड़ने लगता था। फिर मधु और फिर कैटभ-यों बार-बार वे क्रोधान्ध दैत्य शक्तिशाली श्रीहरिके साथ बाहुयुद्ध करनेमें संलग्न हो गये। उस समय ब्रह्माजी और भगवती शक्ति- ये दोनों आकाशमें खड़े होकर यह दृश्य देख रहे थे। मधु और कैटभको कुछ श्रम न हुआ और भगवान् विष्णु थक से गये। जब पाँच हजार वर्षोंतक लड़ाई होती ही रही, तब भगवान् श्रीहरि मधु एवं कैटभकी मृत्युके विषयमें विचार करने लगे। सोचा, 'अरे! मैंने पाँच हजार वर्षोंतक युद्ध किया, फिर भी इन भयंकर दानवोंको श्रमतक न हुआ और मैं थक गया - यह बड़े ही आश्चर्यकी बात है। मेरा बल और पराक्रम कहाँ चला गया? ये दानव सदा स्वस्थ ही कैसे रह जाते हैं? कौन-सा ऐसा कारण इस समय उपस्थित हो गया ?' यो भगवान् विष्णुको चिन्तित देखकर मधु और कैटभको अपार हर्ष हुआ। तब वे मतवाले दानव मेघकी भाँति गम्भीर वाणीमें कहने लगे-'विष्णो! यदि तुझमें बल न रहा और युद्ध करनेसे थकान आ गयी तो मस्तकतक हाथ जोड़कर कह दे कि 'मैं अब तुमलोगोंका दास बन गया।' महामते! यदि यह न जँचे- अभी कुछ शक्ति शेष हो तो 'युद्ध कर। तुझे तो हम मार ही डालेंगे। साथ ही इस चार मुखवाले ब्रह्माके भी प्राण हर लेंगे।
सूतजी कहते हैं-महाभाग श्रीविष्णु अगाध जलमें विराजमान थे। मधु और कैटभने उन्हें यो खरी-खोटी सुनायी। उनकी बात सुनकर भगवान् शान्तिपूर्वक मधुर वचन कहने लगे।
भगवान् बोले- जो थक गया हो, डरा हो, जिसके हथियार गिर पड़े हों, स्वयं गिर गया हो अथवा अभी जो बालक हो - इनपर शूरवीर पुरुष प्रहार नहीं करते, यही सनातन धर्म है। इस युद्धभूमिमें मैंने पाँच हजार वर्षोंतक लड़ाई की। मैं अकेला हूँ और समान बलवाले तुम दो भाई लड़ रहे हो। तुम दोनों समय-समयपर जैसे विश्राम कर लेते हो, वैसे ही मैं भी कुछ विश्राम करके युद्ध करूँगा- इसमें क्या संदेह है। माना, तुम दोनों महान् मतवाले शूरवीर हो; परंतु कुछ समयतक ठहरो, मैं विश्राम कर लूँ। फिर न्यायपूर्वक युद्ध आरम्भ होगा।
सूतजी कहते हैं- भगवान् विष्णुका उक्त कथन सुनकर दानवश्रेष्ठ मधु और कैटभ शान्त हो गये। फिर युद्ध होगा-यों निश्चय करके कुछ समयके लिये वे दूर जाकर खड़े हो गये। चतुर्भुज भगवान् विष्णुने देखा, मधु और कैटभ यहाँसे बहुत दूर चले गये हैं; तब उन्होंने 'उनकी मृत्यु क्यों नहीं होती' – इसका कारण सोचा। विचार करनेपर ज्ञात हुआ कि 'भगवतीने इन्हें वरदान दिया है। ये जब चाहेंगे, तभी मृत्यु इनके पास आयेगी। इसीसे ये शान्त भी नहीं होते। मैंने व्यर्थमें इतनी घोर लड़ाई की। मेरे परिश्रमका कुछ भी फल न मिला। ये कैसे मरेंगे - यह ठीक जाने बिना अब मैं युद्ध करूँ भी किस प्रकार । ये दानव वरके प्रभावसे घमंड में चूर हो रहे हैं। सदा मुझे दुःख देना इनका स्वभाव ही बन गया है। बिना युद्ध किये ये मरेंगे भी कैसे। भगवती वर दे चुकी है, वह उसे टाल नहीं सकती। भला, अपनी इच्छासे तो दुःखी आदमी भी मृत्युका आवाहन नहीं करता - फिर ये क्यों मरना चाहेंगे। जब कोई असाध्य रोगी और दरिद्र भी स्वयं मरना नहीं चाहता, फिर ये तो अभिमानमें चूर रहते हैं; अपनी मृत्यु क्यों चाहेंगे। अतः मैं अब सभी मनोरथ पूर्ण करनेवाली उन विद्यामयी शक्तिकी शरणमें चलूँ, क्योंकि अब उनके प्रसन्न हुए। बिना कार्य सिद्ध नहीं हो सकता।
भगवान विष्णु यों सोच रहे थे- इतने में ही मनको मुग्ध करनेवाली भगवती योगनिद्राके उन्हें दर्शन हुए। उस समय वे कल्याणमयी। देवी आकाश में विराजमान थे। आनन्दस्वरूप भगवान् श्रीहरिको योगका ज्ञान तो था ही, उन्होंने बड़े ही रहस्यपूर्ण शब्दों में मधु - कैटभका संहार होनेके लिए भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति की।
भगवान विष्णु के स्तुति करने पर देवी मुसकराकर कहने लगीं- 'विष्णो! तुम देवताओं के स्वामी हो। हरे! अब पुनः युद्ध करने में तत्पर हो जाओ। अब ये दोनों शूरवीर दानव ठगकर मारे जा सकेंगे। मेरी वक्र दृष्टि से ये अवश्य ही मोह में पड़ेंगे नारायण ! मेरी मायासे मोहित हो जाने पर तुम शीघ्र ही इन्हें मार डालना।
सूतजी कहते हैं-भगवतीकी प्रेमरससे सनी हुई वाणी सुनकर भगवान् विष्णु युद्ध-भूमिमें आकर खड़े हो गये। वे महाबली दानव बड़े ही विचारशील थे। युद्धकी इच्छासे वे भी सामने उपस्थित हुए। भगवान् विष्णुको सामने देखकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। बोले-" चार भुजावाले विष्णु ! ठहरो, ठहरो और युद्ध करो। तुम्हें लड़नेकी उत्कट इच्छा तो है ही। हार और जीतमें प्रारब्ध प्रबल होता है- यह निश्चय जानकर तुम्हें युद्धमें लग ही जाना चाहिये । बलवान् विजयी होता है, किंतु कभी-कभी भाग्यवश दुर्बल भी विजय पा जाता है। इसलिये महात्मा पुरुषको चाहिये कि किसी भी परिस्थितिमें हर्ष और शोक न करे । 'मैं सदासे दानवोंका शत्रु हूँ। प्राचीन समयमें बहुत-से दैत्य मुझसे पराजित हुए हैं' - यह जानकर हर्ष और इस समय इन मधु एवं कैटभसे मैं हार गया - यह शोक करना तुम्हारे लिये अनुचित है।
सूतजी कहते हैं-इस प्रकार कहकर महाबाहु मधु और कैटभ युद्धके लिये डट गये। उन्हें देखकर भगवान् विष्णुने बड़े विचित्र ढंगसे एक घूँसा मारा। बलाभिमानी उन दैत्योंने भी भगवान्पर घूँसोंसे चोट पहुँचायी। यों परस्पर घोर युद्ध होने लगा। लड़ते हुए उन अपार बलशाली दानवोंको देखकर भगवान् श्रीहरिने कातर भावसे भगवतीकी ओर दृष्टि फेरी ।
सूतजी कहते हैं- उस समय भगवान् करुणारससे भींग से गये थे। उन्हें देखकर भगवतीने अट्टहास किया। उनकी आँखें लाल हो गयी थीं, साथ ही उन्होंने कामदेवके बाणोंकी तुलना करनेवाले अपने कटाक्षभरे नेत्रोंसे उन दैत्योंको आहत कर दिया। भगवती मुसकराती हुई तिरछी नजरोंसे उनकी ओर देख रही थीं। उनके उस अवलोकनमें प्रेम और मोह भरे थे। फिर तो भगवतीकी तिरछी चितवनको देखकर दुरात्मा मधु और कैटभ तुरंत मोहित हो गये। मदन-शरोंसे उनका मन व्यथित हो उठा। यह कैसा मनोहर अद्भुत दृश्य सामने आ गया - यों मानते हुए वे अपनी विस्तृत छटा दिखाने वाली देवीकी ओर देखते रह गये!
भगवान् विष्णु काम साधनेमें सतर्क तो थे ही, वे देवीके अभिप्रायको देखकर समझ गये कि अब दैत्य मोहित हो चुके हैं। फिर तो हँसकर मेघकी भाँति गम्भीर वाणीमें उन्होंने मधुर शब्दोंमें कहा- 'वीर! तुम्हें जो इच्छा हो, वर माँग लो। मैं तुम्हारे युद्ध-कौशलसे अत्यन्त प्रसन्न होकर अवश्य वर देनेको तैयार हूँ। प्राचीन समयमें युद्ध करनेवाले बहुतेरे दानव मेरे सामने आये; किंतु मैंने तुम्हारे समान न तो किसीको देखा और न सुना ही। तुम बड़े अनुपम बलवान् हो । अतएव मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। अपार बलशाली दानवो! तुम दोनों भाइयोंकी अभिलाषा मैं अवश्य पूर्ण करूँगा।
सूतजी कहते हैं-उस समय मधु और कैटभ कामसे आतुर थे। उन्हें अपने बलका अभिमान तो था ही। उनकी आँखें कमलके समान थीं। जगत्को आह्लादित करनेवाली भगवती महामाया सामने विराजमान थीं। भगवान् विष्णुका वचन सुनकर भी दानवोंकी आँखें देवीकी ओर लगी रहीं। अभिमानी वे भगवान् श्रीहरिसे कहने लगे- 'विष्णो! हम माँगने नहीं आये हैं, तुम हमें क्या दे सकोगे ? देवेश ! तुम्हें ही हम देने को तैयार हैं। हम याचक नहीं, हम तो उदार दाता हैं । हृषीकेश! तुम्हें जिस वरकी अभिलाषा हो, हमसे प्रार्थना करो। वासुदेव! तुम्हारे इस अद्भुत युद्धसे हम बड़े प्रसन्न हैं।
मधु और कैटभकी बात सुनकर भगवान् विष्णुने कहा- 'यदि तुमलोग अब मुझपर प्रसन्न हो और वर देना चाहते हो तो बस, दोनों मेरे हाथसे मौत स्वीकार कर लो।
सूतजी कहते हैं - तदनन्तर भगवान् श्रीहरिकी बात सुनकर मधु और कैटभ महान् आश्चर्यमें पड़ गये। वे 'हम ठगे गये' – मानकर खड़े रहे। उनके मुखपर शोककी घटा घिर आयी। सर्वत्र जल भरा था। कहीं भी प्राकृतिक भूमि नहीं दीखती, यह मनमें विचारकर वे भगवान्से कहने लगे-'जनार्दन! तुम देवताओंके स्वामी हो। तुमने भी पहले वर देनेकी बात कही है, तुम कभी झूठ नहीं बोलते। अतः हमारा भी अभिलषित वर दो। माधव! हमारा वर यही है कि जलशून्य विस्तारवाले स्थानपर हमारा वध करो। हमने तुमसे मौत स्वीकार कर ली, किंतु तुम भी वचनका पालन करना।' तब भगवान्ने सुदर्शन चक्रको याद किया। साथ ही वे हँसकर कहने लगे-'महाभाग ! जलशून्य विस्तृत स्थानपर ही तुम्हें मार रहा हूँ।' यों कहकर देवाधिदेव भगवान् विष्णुने अपनी विशाल जाँघें फैलाकर जलपर ही जलरहित स्थान मधु और कैटभको दिखा दिया। साथ ही कहा- 'इस स्थानपर जल नहीं है, अब तुम अपना मस्तक दे दो। आजसे मैं भी सत्यवादी रहूँगा और तुम भी।' भगवान्का यह कथन सुनकर उसकी सत्यतापर वे विचार करते रहे। पश्चात् अपने चार हजार कोसवाले विशाल शरीरको उन्होंने स्वयं मृत्यु के मुख में डाल दिया उस समय भगवान् ने अपनी जाँघें सटा लीं, यह देखकर मधु और कैटभ को बड़ा आश्चर्य हुआ उन विचित्र जाँघोपर मस्तक रखने के लिये भगवान् ने दैत्यों से कहा उन्होंने मस्तक रख दिये तब भगवान् ने उनके मस्तकों को चक्र से काट डाला। तदनन्तर मधु और कैटभ के प्राणपखेरू उड़ गये उस समय सारा समुद्र उन दैत्यों के रक्त और मज्जा से व्याप्त हो गया ।
मुनीश्वरो तभी से पृथ्वी का नाम मेदिनी पड़ गया इसीलिये मिट्टी खाना निषेध माना जाता है तुमलोगों ने जो पूछा था वह सारा प्रसंग भलीभाँति विचार कर मैं कह चुका अतः विज्ञपुरुषों को उचित है कि विद्या स्वरूपिणी महामाया की ही सदा आराधना करें । सभी देवता और दानव भी उस परम शक्ति की ही उपासना करते हैं त्रिलोकी में भगवती से बढ़कर कोई भी देवता नहीं है, यह बात सत्य है । वेद और शास्त्र इसके प्रमाण हैं । अतः वे चाहे निर्गुण हों अथवा सगुण उन परा शक्ति की उपासना करनी ही चाहिये ।
अध्याय 09
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