भगवान् नारायण कहते हैं :-

नारद! धर्मध्वज की पत्नी का नाम माधवी था, वह राजा के साथ गन्धमादन पर्वतपर सुन्दर उपवन में आनन्द करती थी, यों दीर्घकाल बीत गया, किन्तु उन्हें इसका ज्ञान न रहा कि कब दिन बीता,कब रात, तदनन्तर राजा धर्मध्वज के हृदय में ज्ञानका प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने हास-विलास से विलग होना चाहा; परंतु माधवी अभी तृप्त नहीं हो सकी थी, अतएव उसे गर्भ रह गया, उसका गर्भ प्रतिदिन क्रमशः शोभा बढ़ाता रहा। 

नारद! कार्तिककी पूर्णिमाके दिन उसके गर्भसे एक कन्या प्रकट हुई। उस समय शुभ दिन, शुभ योग, शुभ क्षण, शुभ लग्न और शुभ ग्रहका संयोग था। यों शुक्रवारके दिन देवी माधवी लक्ष्मीके अंशसे प्रादुर्भूत उस कन्याकी जननी हुई। उस कन्याका मुख ऐसा था मानो शरत्पूर्णिमाका चन्द्रमा हो । नेत्र शरत्कालीन कमल के समान थे। अधर पके हुए बिम्बाफलकी तुलना कर रहे थे। मन को मुग्ध करनेवाली उस कन्याके हाथ और पैरके तलवे लाल थे। उसकी नाभि गहरी थी। शीत काल में सुख देनेके लिये उसके सम्पूर्ण अंग गरम रहते थे और उष्णकाल में वह शीतलांगी बनी रहती थी। उसके शरीरका वर्ण श्याम था। उसके सुन्दर केश ऐसे थे मानो वटवृक्षको घेरकर शोभा पानेवाले बरोह हों। उसकी कान्ति पीले चम्पक की तुलना कर रही थी। वह सभी सुन्दरियों में एक थी। स्त्री और पुरुष उसे देखकर किसीके साथ तुलना करने में असमर्थ हो जाते थे; अतएव विद्वान् पुरुषोंने उसका नाम 'तुलसी' रखा। भूमिपर पधारते ही वह ऐसी सुयोग्या बन गयी मानो साक्षात् प्रकृति देवी ही हो।

सब लोगोंके रोकनेपर भी उसने तपस्या करनेके विचारसे बदरीवनको प्रस्थान किया। वहाँ रहकर वह दीर्घकालतक कठिन तपस्या करती रही। उसके मनका निश्चित उद्देश्य यह था कि स्वयं भगवान् नारायण मेरे स्वामी हों । ग्रीष्मकालमें वह पंचाग्नि तपती और जाड़ेके दिनोंमें जलमें रहकर तपस्या करती ।। वर्षा ऋतुमें वह आसन लगाकर बैठी रहती। जलकी धाराओंको निरन्तर सहन करना तो उसके लिये सहज काम हो गया था। हजारों वर्षोंतक वह फल और जलपर रही; फिर हजारों वर्षोंतक वह केवल पत्ते चबाकर रही और हजारों वर्षोंतक केवल वायुके आधारपर उसने प्राणोंको टिकाकर रखा। इससे उसका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया था। तदनन्तर वह बिलकुल निराहार रही। निर्लक्ष्य होकर एक पैरपर खड़ी हो वह तपस्या करती रही। उसे देखकर ब्रह्मा उत्तम वर देनेके विचारसे बदरिकाश्रममें पधारे। हंसपर बैठे हुए चतुर्मुख ब्रह्माको देखकर तुलसीने प्रणाम किया। तब जगत्की सृष्टि करनेमें निपुण विधाताने उससे कहा।

ब्रह्माजी बोले- तुलसी ! तुम मनोऽभिलषित वर माँग सकती हो। भगवान् श्रीहरिकी भक्ति, उनकी दासी बनना अथवा अजर एवं अमर होना- जो भी तुम्हारी इच्छा हो, मैं देनेके लिये तैयार हूँ।

तुलसीने कहा - पितामह! आप सर्वज्ञ हैं; तथापि मेरे मनमें जो अभिलाषा है, उसे मैं कह देती हूँ। अब आपके सामने मुझे लज्जा ही क्या है। पूर्वजन्ममें मैं तुलसी नामकी गोपी थी। गोलोक मेरा निवास स्थान था। भगवान् श्रीकृष्णकी प्रिया, उनकी अनुचरी, उनकी अर्द्धांगिनी तथा उनकी प्रेयसी सखी - सब कुछ होनेका सौभाग्य मुझे प्राप्त था। गोविन्द नामसे सुशोभित उन प्रभुके साथ मैं हास- विलासमें रत थी, उस परम सुखसे अभी मैं तृप्त नहीं थी। इतने में एक दिन रासकी अधिष्ठात्री देवी भगवती राधाने रासमण्डल में पधारकर रोषसे मुझे यह शाप दे दिया कि 'तुम मानव- योनिमें उत्पन्न होओ।' उसी समय भगवान् गोविन्दने मुझसे कहा – 'देवी! तुम भारतवर्ष में रहकर तपस्या करो। ब्रह्मा वर देंगे, जिससे मेरे स्वरूपभूत अंश चतुर्भुज श्रीविष्णुको तुम पतिरूपसे प्राप्त कर लोगी।' इस प्रकार कहकर देवेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण भी अन्तर्धान हो गये। गुरो ! मैंने अपना वह शरीर त्याग दिया और अब इस भूमण्डलपर उत्पन्न हुई हूँ। सुन्दर विग्रहवाले शान्तस्वरूप भगवान् नारायण जो उस समय मेरे पति थे, उन्हींको अब भी मैं पतिरूपसे प्राप्त करनेके लिये वर माँग रही हूँ। आप मेरी अभिलाषा पूर्ण करने की कृपा करें।


ब्रह्माजी बोले- भगवान् श्रीकृष्णके अंगसे प्रकट सुदामा नामक एक गोप भी इस समय राधिकाके शापसे भारतवर्षमें उत्पन्न है। उस परमतेजस्वी गोपको श्रीकृष्णका साक्षात् अंश कहते हैं। शापवश उसे दनुके कुलमें उत्पन्न होना पड़ा है। 'शंखचूड़' नामसे वह प्रसिद्ध है। त्रिलोकीमें कोई भी ऐसा नहीं है, जो उसकी समता कर सके। वह सुदामा इस समय समुद्रमें विराजमान है। भगवान् श्रीकृष्णका अंश होनेसे उसे पूर्वजन्मकी सभी बातें स्मरण हैं। सुन्दरी! शोभने! तुम भी पूर्वजन्मके सभी प्रसंगोंसे परिचित हो। इस जन्ममें वह श्रीकृष्णका अंश तुम्हारा पति होगा। इसके बाद शान्तस्वरूप भगवान् नारायण तुम्हें पतिरूपसे प्राप्त होंगे। लीलावश वे ही नारायण तुमको शाप दे देंगे। अतः अपनी कलासे तुम्हें वृक्ष बनकर भारतमें रहना पड़ेगा और समस्त जगत्को पवित्र करनेकी योग्यता तुम्हें प्राप्त होगी। सम्पूर्ण पुष्पोंमें तुम प्रधान मानी जाओगी। भगवान् विष्णु तुम्हें प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मानेंगे। तुम्हारे बिना पूजा निष्फल समझी जायगी। वृन्दावनमें वृक्षरूपसे रहते समय लोग तुम्हें वृन्दावनी कहेंगे। तुमसे उत्पन्न पत्तोंसे गोपी और गोपोंद्वारा भगवान् माधवकी पूजा सम्पन्न होगी। तुम मेरे वरके प्रभावसे वृक्षोंकी अधिष्ठात्री देवी बनकर गोपरूपसे विराजनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके साथ स्वेच्छापूर्वक निरन्तर आनन्द भोगोगी। 

नारद! ब्रह्माकी यह अमरवाणी सुनकर तुलसीके मुखपर हँसी छा गयी। उसके मनमें अपार हर्ष हुआ। उसने महाभाग ब्रह्माको प्रणाम किया और वह कहने लगी।

तुलसी ने कहा- पितामह! मैं बिलकुल सच्ची बातें कहती हूँ-दो भुजासे शोभा पानेवाले श्यामसुन्दर भगवान् श्रीकृष्णको पानेके लिये मेरी जैसी अभिलाषा है, वैसी चतुर्भुज श्रीविष्णुके लिये नहीं है; परंतु उन गोविन्दकी आज्ञासे ही मैं चतुर्भुज श्रीहरिके लिये प्रार्थना करती हूँ। ओह, वे गोविन्द मेरे लिये परम दुर्लभ हो गये हैं। भगवन्! आप ऐसी कृपा करें कि उन्हीं गोविन्दको मैं पुनः निश्चय ही प्राप्त कर सकूँ। साथ ही मुझे राधाके भयसे भी मुक्त कर दीजिये।

ब्रह्माजी बोले- देवी! मैं तुम्हारे प्रति भगवती राधाके षोडशाक्षर मन्त्रका उपदेश करता हूँ। तुम इसे हृदयमें धारण कर लो। मेरे वरके प्रभावसे अब तुम राधाको प्राणके समान प्रिय बन जाओगी, सुभगे! भगवान् गोविन्द के लिए तुम वैसी ही प्रेयसी बन जाओगी जैसी राधा हैं ।

मुने ! इस प्रकार कहकर जगद्धाता ब्रह्मा ने तुलसी को भगवती राधा का षोडशाक्षर मन्त्र बता दिया। साथ ही स्तोत्र, कवच,पूजाकी सम्पूर्ण विधियाँ तथा किस क्रमसे अनुष्ठान करना चाहिए -यए सभी बातें बतला दीं। तब तुलसी ने भगवती राधाकी उपासना की और उनके कृपा प्रसाद से वह देवि राधा के समान ही सिद्ध हो गयी । मन्त्र के प्रभाव से ब्रह्मा जी ने जैसा कहा था, ठीक वैसा ही फल तुलसी को प्राप्त हो गया। तपस्या सम्बन्धी जो भी क्लेश थे, वे मनमें प्रसन्नता उत्पन्न होने के कारण दूर हो गये; क्योंकि फल सिद्ध हो जानेपर मनुष्यों का दुःख ही उत्तम सुख के रूप में परिणत हो जाता है ।


( संक्षिप्त देवी भागवत भगवती तुलसी के प्रादुर्भाव प्रसंग )