मूलाधार चक्र जागरण और बीज मन्त्रों
मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी-शक्ति से युक्त ‘मूल’ आधारित अथवा स्थित है । यह चक्र शरीर के अन्तर्गत गुदा और लिंग मूल के मध्य में स्थित है जो अन्य स्थानों से कुछ उभरा सा महसूस होता है ।
शरीर के अन्तर्गत ‘मूल, शिव-लिंग आकृति का एक मांस पिण्ड होता है । जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है । चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है । इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है । वह मूलाधार-चक्र कहलाता है ।
मूलाधार-चक्र अग्नि वर्ण का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है । जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है । इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है । इसके अन्दर चार अक्षरों से युक्त अग्नि वर्ण की चार पंखुणियाँ नियत हैं । ये पंखुणियाँ अक्षरों से युक्त हैं वे – स, ष, श, व । यहाँ के अभीष्ट देवता के रूप में गणेश जी नियत किए गए हैं ।
जो साधक साधना के माध्यम से कुण्डलिनी जागृत कर लेता है । अथवा जिस साधक की स्वास-प्रस्वास रूप साधना से जागृत हो जाती है और जागृत अवस्था में उर्ध्वगति में जब तक मूलाधार में रहती है । तब तक वह साधक गणेश जी की शक्ति से युक्त व्यक्ति हो जाता है ।
मंत्र : इस चक्र का स्थान मेरु दंड के सबसे निचले स्थिति होता है । इसका मूल मंत्र ।। लं ।। है ।
व्यक्ति को पहले प्राणायाम कर के मूलाधार चक्र पर अपना ध्यान केंद्रित कर मंत्र का उच्चारण करना चाहिए । धीरे धीरे चक्र जागृत होता है ।
इससे लाभ यह मिलता है की व्यक्ति के जीवन में लालच नाम की चीज खत्म हो जाता है । और एक आत्मिक ज्ञान प्राप्त होता है । व्यक्ति अच्छा ज्ञान प्राप्त करता है और जिंदगी में बड़ी से बड़ी जिम्मेवारी लेने की क्षमता बढ़ जाता है । हौसला मजबूत होता है शारीरिक ऊर्जा बढ़ती है ।
जब साधक-सिद्ध व्यक्ति सिद्धियों के चक्कर अथवा प्रदर्शन में फँस जाता है । तो उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी से अधोमुखी होकर पुनः शयन-मुद्रा में चली जाती है । जिसका परिणाम यह होता है की वह सिद्ध-साधक सिद्धि का प्रदर्शन अथवा दुरुपयोग करते-करते पुनः सिद्धिहीन हो जाता है । परिणाम यह होता है कि वह उर्ध्वमुखी यानि सिद्ध योगी तो बन नहीं पाता, सामान्य सिद्धि से भी वंचित हो जाता है । परन्तु जो साधक सिद्धि की तरफ ध्यान न देकर निरन्तर मात्र अपनी साधना करता रहता है उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी के कारण ऊपर उठकर स्वास-प्रस्वास रूपी डोरी के द्वारा मूलाधार से स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँच जाती है ।
स्वाधिष्ठान चक्र जागरण और बीज मंत्र
मूलाधार चक्र से थोड़ा ऊपर और नाभि से निचे यह चक्र स्थित है । स्वाधिष्ठान-चक्र में चक्र के छः दल हैं, जो पंखुणियाँ कहलाती हैं । यह चक्र सूर्य वर्ण का होता है । जिसकी छः पंखुनियों पर स्वर्णिम वर्ण के छः अक्षर लिखे होते हैं । जैसे- य, र, य, म, भ, ब । इस चक्र के अभीष्ट देवता इन्द्र नियत हैं । जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूपी साधना में लगा रहता है । उसकी कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होने के कारण स्वाधिष्ठान में पहुँचकर विश्राम लेती है । तब इस स्थिति में वह साधक इन्द्र की सिद्धि प्राप्त कर लेता है । अर्थात सिद्ध हो जाने पर सिद्ध इन्द्र के समान शरीर में इन्द्रियों के अभिमानी देवताओं पर प्रशासन करने लगता है । इतना ही नहीं प्रशासनिक लोग भी प्रशासनिक व्यवस्था के सुचारु एवं सुदृढ़ता हेतु आशीर्वचन हेतु आने और निर्देशन में चलने लगते हैं । साथ ही सिद्ध-पुरुष में प्रबल अहंकार रूप में अभिमानी होने लगता है जो उसके लिए बहुत ही खतरनाक होता है ।
इसका मूल मंत्र ।। वं ।। है । यह चक्र जल तत्त्व से सम्बंधित है ।
इस चक्र के जागृत होने पर शारीरिक समस्या समाप्त हो जाती है । शरीर में कोई भी विकार जल तत्त्व के ठीक न होने से होता है । इसके जाग्रत होने से जल तत्व का पूर्ण ज्ञान होता है । शारीरिक विकार का नाश हो जाता है । जल सीधी की प्राप्ति हो जाती है । इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है ।
यदि साधना बन्द हो गयी तो आगे का मार्ग तो रुक ही जाएगा, वर्तमान सिद्धि भी समाप्त हो जाएगी ।
मणिपुर चक्र जागरण और बीज मंत्र
मणिकपुर चक्र नाभि मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अन्तर्गत मणिपूरक नामक तीसरा चक्र है । जो दस दल कमल पंखुनियों से युक्त है । जिस पर स्वर्णिम वर्ण के दस अक्षर बराबर कायम रहते हैं । वे अक्षर – फ, प, न, ध, द, थ, त, ण, ढ एवं ड हैं । इस चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी हैं । जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूप साधना में लगा रहता है । उसी की कुण्डलिनी-शक्ति मणिपूरक-चक्र तक पहुँच पाती है । आलसियों एवं प्रमादियों की नहीं । मणिपूरक-चक्र एक ऐसा विचित्र-चक्र होता है । जो तेज से युक्त एक ऐसी मणि है, जो शरीर के सभी अंगों-उपांगों के लिए यह एक आपूर्ति-अधिकारी के रूप में कार्य करता रहता है । यही कारण है कि यह मणिपूरक-चक्र कहलाता है ।
नाभि कमल पर ही ब्रह्मा का वास है । सहयोगार्थ-समान वायु – मणिपूरक-चक्र पर सभी अंगों और उपांगों की यथोचित पूर्ति का भार होता है । इसके कार्य भार को देखते हुये सहयोगार्थ समान वायु नियत की गयी, ताकि बिना किसी परेशानी और असुविधा के ही अतिसुगमता पूर्वक सर्वत्र पहुँच जाऐ । यही कारण है कि हर प्रकार की भोग्य वस्तु इन्ही के क्षेत्र के अन्तर्गत पहुँच जाने की व्यवस्था नियत हुई है । ताकि काफी सुविधा-पूर्वक आसानी से लक्ष्य पूर्ति होती रहे ।
मणिपूरक-चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी पर ही सृष्टि का भी भार होता है । अर्थात गर्भाशय स्थित शरीर रचना करना, उसकी सामग्रियों की पूर्ति तथा साथ ही उस शरीर की सारी व्यवस्था का भार जन्म तक ही इसी चक्र पर रहता है । जिसकी पूर्ति ब्रह्मनाल (ब्रह्म-नाड़ी) के माध्यम से होती रहती है । जब शरीर गर्भाशय से बाहर आ जाता है तब इनकी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है ।
मणिपूरक-चक्र ही शरीर का केंद्र बिन्दु होता है । यहीं से शरीर में सब तरफ नाड़ियों का जाल बिछा होता है । समस्त अंगों-उपांगों की आपूर्ति व्यवस्था भी यहीं से होती है । यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जाते है ।
यह नाभि में स्थित होता है और इसके जागृत करने का मूल मंत्र ।। रं ।। है । इस चक्र को जागृत करने के लिए बहुत ज्यादा साधना की जरूरत होती है ।
यह चक्र जागृत होते है, तब व्यक्ति सर्व शक्ति संपन्न हो जाता है । प्रकृति के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है । जीवो की उत्पत्ति कैसे हुई इसका ज्ञान होता है । यहाँ तक की यह चक्र पूर्व जन्म का ज्ञान भी देता है । भाषा का ज्ञान देता है, अग्नि तत्त्व की सिद्धि देता है ।
अनाहत चक्र जागरण और बीज मंत्र
हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही अनाहत्-चक्र है । जिन द्वादश(१२) अक्षरों की बात काही जा रही है वे – ठ, ट, ञ, झ, ज, छ, च, ड़, घ, ग, ख और क हैं । इस के अभीष्ट देवता श्री विष्णु जी हैं । अनाहत्-चक्र ही वेदान्त आदि में हृदय-गुफा भी कहलाता है । जिसमें ईश्वर स्थित रहते हैं । ऐसा वर्णन मिलता है । ईश्वर ही ब्रह्म और आत्मा भी है ।
यथार्थ बात यह है कि जो कर्मकांडियों का क्षीर-सागर है, वही वेदान्तियों का हृदय गुफा है और वही ध्यान-साधना वाले साधकों का अनाहत्-चक्र है । जब कुण्डलिनी अनाहत्-चक्र में प्रवेश कर उर्ध्वमुखी रूप में विश्राम लेते हुये जब तक इस चक्र में वास करती है । तब तक साधन-रत सिद्ध-साधक श्री विष्णु जी की सिद्धि को प्राप्त कर के उसी के प्रभाव के समान प्रभावी होने लगता है ।
इसका मूल मंत्र ।। यं ।। है । व्यक्ति को यह चक्र जागृत करने के लिए हृदय पर ध्यान केंद्रित कर के इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए ।
अनाहत चक्र जागृत होते ही व्यक्ति को बहुत सारी सिद्धियाँ मिलती है ।
व्यक्ति को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से शक्ति प्राप्त होती है । यहाँ तक की यह चक्र जागृत हो जाये तो व्यक्ति सूक्षम रूप ले सकता है और शरीर त्यागने की शक्ति प्राप्त हो जाती है । आनद प्राप्त होता है । श्रद्धा प्रेम जागृत होता है । वायु तत्त्व से सम्बंधित सिद्धियाँ प्राप्त होती है । योग शक्ति प्राप्त होती है ।
विशुद्ध चक्र जागरण और बीज मंत्र
कण्ठ स्थित चन्द्र वर्ण का षोडसाक्षर अः, अं, औ, ओ, ऐ, ए, ऊ, उ, लृ, ऋ, ई, इ, आ, अ वर्णों से युक्त षोडसदल कमल की पंखुड़ियों वाला यह चक्र विशुद्ध-चक्र है । यहाँ के अभीष्ट देवता शंकर जी हैं । कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यहाँ सोलह कलाएँ सोलह विभतियाँ विद्यमान है ।
जब कुण्डलिनी-शक्ति विशुद्ध-चक्र में प्रवेश कर विश्राम करने लगती है । तब उस सिद्ध-साधक के अन्दर संसार त्याग का भाव प्रबल होने लगता है और उसके स्थान पर सन्यास भाव अच्छा लगने लगता है । संसार मिथ्या, भ्रम-जाल, स्वप्नवत् आदि के रूप में लगने लगता है । उस सिद्ध व्यक्ति में शंकर जी की शक्ति आ जाती है ।
व्यक्ति को कंठ पर अपना ध्यान एकत्रित कर ।। हं ।। मूल मंत्र का उच्चारण करना चाहिए ।
विशुद्ध चक्र बहुत ही महत्वपूर्ण चक्र होता है । यह जागृत होते ही व्यक्ति को वाणी की सिद्धि प्राप्त होता है ।
इस चक्र के जागृत होने से आयु वृद्धि होती है । संगीत विद्या की सिद्धि प्राप्त होती है । शब्द का ज्ञान होता है । व्यक्ति विद्वान होता है ।
आज्ञा चक्र जागरण और बीज मंत्र
भू-मध्य स्थित लाल वर्ण दो अक्षरों हं, सः से युक्त दो पंखुड़ियों वाला यह चक्र ही आज्ञा-चक्र है । इसका अभीष्ट प्रधान आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति अथवा ईश्वर या नूरे-इलाही या चाँदना अथवा दिव्य-ज्योति अथवा भर्गो-ज्योति अथवा सहज-प्रकाश अथवा परमप्रकाश अथवा आत्म ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि अनेक नामों वाला परन्तु एक ही रूप वाला ही नियत है ।
यह वह चक्र है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति अथवा शब्द-शक्ति से और अप्रत्यक्ष रूप अर्थात् शब्द-शक्ति के माध्यम से शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर से भी होता है । दूसरे शब्दों में आत्मा का उत्पत्ति स्रोत तो परमेश्वर होता है और गन्तव्य-स्थल आज्ञा-चक्र होता है ।
व्यक्ति को इस चक्र को जागृत करने के लिए मूल मंत्र ।। ॐ ।। का उच्चारण करना चाहिए ।
इसके जागृत होते ही देव शक्ति प्राप्त होती है । दिव्य दृष्टि की सिद्धि होती है । दूर दृष्टि प्राप्त होता है । त्रिकाल ज्ञान मिलता है । आत्मा ज्ञान मिलता है । देव दर्शन होता है । व्यक्ति अलौकिक हो जाता है ।
सहस्त्र दल चक्र जागरण और बीज मंत्र
यह चक्र मस्तिष्क में स्थित होता है । मस्तिष्क में भी जिसको हम ब्रह्म स्थान बोलते है ।
इसका मूल मंत्र ।। ॐ ।। है ।
शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता है ।
वे धाराएँ मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं । इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं । उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हैं हजारों ।
इसलिए हजार या हजारों का उद्बोधक ‘सहस्रार’ शब्द प्रयोग में लाया जाता है । सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है । सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना का यही आधार है ।
यह चक्र जागृत होते ही अनंत सिद्धियाँ मिलती है । व्यक्ति इतना सक्षम हो जाता है कि वह अपने आप को एक स्थान से दूसरे स्थान पर सूक्षम रूप से ले जा सकता है । वह अपने इस शरीर से मोक्ष प्राप्त कर सकता है । यही नहीं उसको अनंत लोक का ज्ञान होता है । वह पूर्ण होता है । वह देव तुल्य होता है ।
कुण्डलिनी शक्ति जागरण और मंत्र....
कुण्डलिनी शक्ति जागरण करने का मतलव है की अन्धकार को जीवन से दूर करने का एक सशक्त माध्यम है । स्यंव को जानने, दूसरे को पहचानने एवं घर परिवार समाज और ब्रहमांड को समझने का मार्ग है । कुण्डलिनी शक्ति जागरण चारों ओर परम शांति प्रेम और आनंद स्थापना का सच्चा मार्ग है । परमानन्द प्राप्ति के बाद क्या और कैसे करना चाहिए यही बताने का मूल ज्ञान है । अपने शरीर मन बुद्धि व् सब कर्मेन्द्रियों व् ज्ञानेन्द्रियों को विकिसित कर उनका प्रयोग सम्पूर्णता से सर्जन करके पूर्णता की ओर ले जाने और अपूर्णता के संहार में लगाना ही इस का मुल उद्देश्य है । कुण्डलिनी शक्ति जैसे जैसे आगे बढती जाती है वैसे ही अनेक रंग इन्द्रधनुष की तरह से देखने को मिलते हैं । कभी हम बहुत शांत होते हैं कभी संतुष्ट दिखाई देते हैं । कभी हम दूसरों पर हंस रहे होते हैं ।
कुण्डलिनी जागरण की यात्रा तरह तरह के रंगों से भरी हुई है । इस जीवन में कुछ भी एक जैसा तो होता नहीं है । लेकिन कुण्डलिनी जागरण यात्रा को एकरस कहा गया है । इस दुनियां में जब हम कुण्डलिनी जागरण की ओर अग्रसर होते हैं तो मन और माया रुपी शत्रु हमारे मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न करते हैं । इसलिए अनहोनियों से न घबराकर लगन व् निष्ठा पूर्वक हमें अपने मार्ग की ओर अग्रसर रहना चाहिए । गुरु के प्रति हमारा प्रेम जितना गहरा होगा उतना ही कुण्डलिनी जागरण के प्रति हमारा प्रयास अधिक होता चला जायेगा । कुण्डलिनी शक्ति साधना दो प्रकार की होती है । एक प्राणायाम और योग वाली जिसमें शक्ति चालिनी मुद्रा उड्या न बंध तथा कुम्भक प्राणायाम और ओज का महत्व प्रतिपादित किया गया है ।
ऐसी साधना प्रक्रिया अविवाहित विधुर अथवा सन्यासियों के लिए महत्वपूर्ण है । यह साधना उन लोगों के लिए उपयूक्त नहीं रही जो गृहस्थाश्रम में रहकर साधना करना चाहते हैं । गृहस्थ बिना स्त्री के नहीं चलता है और संन्यास स्त्री के रहते कभी नहीं चलता है । परन्तु जहाँ तक साधना का प्रश्न है तो क्या गृहस्थ और क्या सन्यासी क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी सामान अधिकार रखते हैं । ऐसे प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थों के लिए स्त्री के साथ ही साधनारत होने का मार्ग भी ऋषियों ने खोज निकाला । निवृत्ति मार्ग में जो कार्य शक्ति चालिनी मुद्रा ने किया वह कार्य प्रवृत्ति मार्ग में सम्भोग मुद्रा से संपन्न किया गया शेष बंध और कुम्भक समान रहे । सम्भोग मुद्रा को अधिक टिकाऊ बनाने के लिए आचार्यों ने विभिन्न की काम मुद्राएँ बाजीकरण विधियाँ तथा तान्त्रिंक औषधियां खोज डालीं ।
इस प्रकार वीर्य को उर्ध्व गति देने के लिए जहाँ सन्यासी लोग भस्त्रिका प्राणायाम का प्रयोग करते थे । वहां प्रवृत्ति मार्ग तांत्रिक दीर्घ सम्भोग का उपयोग करने लगे । इस प्रकार कुण्डलिनी साधना का दूसरा प्रकार काम मुद्राओं वाला बन गया । सम्भोग के कारण इस साधना में पुरुष व् स्त्री दोनों का बराबर का योगदान रहा । रमण एक तकनिकी प्रक्रिया है इस कारण सम्भोग साधना तांत्रिक क्रिया कहलाई । साधक को यम व् नियम का तथा आसन प्राणायाम आदि बहिरंग साधना की उतनी ही तैयारी करनी पड़ती है जितनी निवृति मार्ग अपनाने वाले साधक को करनी पड़ती है ।
मनुष्य में कार्य करने के लिए ऊर्जा व् आभा तथा ज्योति का मिश्रण ही काम में लाना पड़ता है । मनुष्य में इन तीनों तत्वों का उदगम है । उसका खानपान और उसके विचार । जैसा उसका खानपान होगा वैसी उसके शरीर की ऊर्जा होगी । सात्विक जीवन सात्विक ऊर्जा तथा तामसिक भोजन तो तामसिक ऊर्जा । कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए सात्विक ऊर्जा अति आवश्यक है । कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए उत्तम उम्र 25 वर्ष से 45 वर्ष तक मानी गई है ।
कुंडलिनी चक्र जागरण मंत्र
मूलाधार चक्र – ।। ॐ लं परम तत्वाय गं ॐ फट ।।
स्वाधिष्ठान चक्र – ।। ॐ वं वं स्वाधिष्ठान जाग्रय जाग्रय वं वं ॐ फट ।।
मणिपुर चक्र – ।। ॐ रं जाग्रनय ह्रीम मणिपुर रं ॐ फट ।।
अनाहत चक्र – ।। ॐ यं अनाहत जाग्रय जाग्रय श्रीं ॐ फट ।।
विशुद्ध चक्र – ।। ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विशुद्धय फट ।।
आज्ञा चक्र – ।। ॐ हं क्षं चक्र जगरनाए कलिकाए फट ।।
सहस्त्रार चक्र – ।। ॐ ह्रीं सहस्त्रार चक्र जाग्रय जाग्रय ऐं फट ।।
कुंडलिनी शक्ति बिज मंत्र
मूलाधार – ।। लं ।।
स्वाधिष्ठान – ।। वं ।।
मणिपुर – ।। रं ।।
अनाहत – ।। यं ।।
विशुद्ध – ।। हं ।।
आज्ञा – ।। ॐ ।।
सहस्त्रार – ।। ॐ ।।
संगित से................ कुंडलिनी जागरण
प्राचीन काल से ही मनुष्यों का सबंध संगीत से जुडा रहा हैं । उस दौर में संगीत को मनुष्य ने अपने भाव को व्यक्त करने का एक उत्तम माध्यम बनाया था । प्राचीन काल में यह केवल एक मनोरंजन का स्त्रोत ही नहीं था । हमारे कई ऋषि मुनि संगीत शाश्त्र में निपूर्ण भी थे । और आज भी कई उच्च कोटि के योगीजन संगीत में पूर्ण दखल रखते है । उनको इस का पूर्ण ज्ञान भी है । जो भक्ती भाव में डूवे हुवे थे उन को भी संगित का रंग चढ चुका था । क्या हमने कभी सोचा था की जो हमेशा इष्ट के आनंद में रमे रहते थे । उन्हें यह बाहरी मनोरंजन के माध्यम संगीत की क्या जरुरत हैं ? कैसी कौन सी शक्ति थी की इन को भी मंत्रमुग्ध कर गयी ?
संगीत का मतलब आज क्या लिया जाता है ? ये कहा नहीं जा सकता लेकिन प्राचीन काल में ये एक आध्यात्मिक माध्यम का ही हिस्सा था । संगीत के माध्यम से ही कई लोगो ने पूर्णता प्राप्त की हैं । मीराबाई या फिर नरसिंह जैसे कई उदाहरण हमारे सामने ही हैं । तो फिर यह भेद क्यों ?
वास्तव में हमने संगीत को कभी समझा ही नहीं । भंवरे की गुंजन भी एक प्रकार से संगीत ही हैं । जिसे रोज सुना जाये तो आदमी धीरे धीरे विचार शून्य हो जाता हैं । सामान्य मनुष्यों को संगीत मनोरंजन का माध्यम लगता है । समय काटने का प्रबन्ध लगे लेकिन योगीजन के लिए संगीत बहुत गहरी परिभाषा लिए हुए हैं ।
ध्वनि की महत्ता निर्विवाद रूप से मानी जाती हैं और एक विशेष ध्वनि कोई न कोई विशेष उर्जा प्रसारित करती ही हैं । संगीत के सप्तक या सात सूर सा रे ग म प् ध नि आदि शब्द कोई सामान्य शब्द समूह नहीं हैं । देने को तो इन ध्वनियों को कुछ भी उच्चारण दे दिया जाता है । लेकिन सा रे ग म प ध नि का गहन अर्थ हैं । जब एक विशेष लय के साथ एक मूल ध्वनि सम्मिलित होती हे तो वह शरीर में किसी एक विशेष चक्र को स्पंदित करती हैं ।
सभी सुर अपने आप में तत्वों के प्रतिनिधि करये हैं । और हर सुर एक विशेष तत्व के ऊपर अपना प्रभुत्व रखता हैं । जिसमे सा- पृथ्वी, रे, ग – जल तत्व म, प – अग्नि तत्व ध- वायु और नि- आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करता हैं ।
अब जिस तरह से ये सप्त सुर हैं । उसी तरह शरीर में सप्त सुरिकाए हैं । जहाँ से सुर का या ध्वनि की रचना होती हैं । यह हे सर, नासिका, मुख-कंठ, ह्रदय (फेफड़े), नाभि, पेडू और ऊसन्धि । ध्यान से देखा जाए तो ये सारी जगह शरीर के सप्त चक्रों के अत्यंत ही नजदीक हैं । अब इस तरह संगीत तंत्र में कुण्डलिनी सबंध में सप्त सुर एक एक चक्र को स्पंदित करने में सहयोगी हैं ।
सा – मूलाधार ( पृथ्वी तत्व, सुरिका- ऊसन्धि)
रे – स्वाधिष्ठान( जल तत्व , सुरिका – पेडू )
ग – मणिपुर (जल तत्व , सुरिका – नाभि )
म – अनाहत ( अग्नि तत्व, सुरिका – ह्रदय)
प – विशुद्ध ( अग्नि तत्व, सुरिका – कंठ)
ध – आज्ञा ( वायु तत्व, सुरिका – नासिका)
नि – सहस्त्रार ( आकाश तत्व, सुरिका – मस्तक)
इन स्वरों का, उपरोक्त स्वरिकाओ से सबंधित चक्र का ध्यान करने से चक्र जागरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती हैं । और उस से कई विशेष अनुभव होने लगते हैं । मगर ये चक्र जागरण होता हैं । भेदन नहीं होता ।
इसी लिए विभ्भिन रागों की रचना हुयी हैं । जिसमे ध्वनिओ के संयोग से कोई विशेष राग निर्मित किया जाता हैं जो की वह विशेष चक्र को भेदन कर सकता हैं ।
जैसे मालकोष राग के माध्यम से विशुद्ध चक्र को जाग्रत किया जा सकता है । इसी प्रकार कल्याण राग के निरंतर अभ्यास से भी विशुद्ध चक्र को स्पंदन प्राप्त होता है और वो जाग्रत हो जाता है । और एक बार जब ये चक्र जाग्रत हो जाता है तो साधक वायुमंडल में व्याप्त तरंगों को महसूस कर सकता है । उन्हें ध्वनियों में परिवर्तित कर सकता है । पर कल्याण राग जैसा राग सांयकाल के समय ही गाना उचित होता है । अर्थात सूर्य अस्त के तुरंत उपरांत । नन्द राग के द्वारा मूलाधार चक्र जाग्रत हो जाता है, और वेदों का सही अर्थ व्यक्ति तभी समझ सकता है जब उसका मूलाधार पूरी तरह जाग्रत हो जाता है । इस राग को रात्रि के दुसरे प्रहार में गाना चाहिए । ठाट बिलाबल राग देवगिरी के प्रयोग से अनाहत चक्र की जाग्रति होती है । व्यक्ति अनहद नाद को सुनने में और उसकी शक्तियों की प्राप्ति में सक्षम हो जाता है । इसी प्रकार सभी राग किसी न किसी चक्र को स्पंदित करते ही हैं ।
लेकिन क्या, संगीत सिर्फ कुण्डलिनी जागरण के लिए ही हैं ? ये गहन बिचार मानसपटल में अंकुरित होना लाजमी है । पर संगीत केवल कुंडलिनी जागरण के लिये नहीं होता । संगीत की शक्ति से तानसेन ने दीपक राग का प्रयोग कर जहां दीपकों को प्रज्वलित कर दिया था वही बैजू बावरे ने संगीत के एक विशेष राग का प्रयोग कर पत्थर को पिघलाकर उसमे अपना तानपुरा दाल दिया था । और राग बंद कर दिया था । जिससे की वो तानपुरा उस पिघले हुए पत्थर में ही जम गया था । ये सब तो कुछ उदाहरण मात्र हैं । संगीत भी अपने आप में एक पूर्ण तंत्र है । ब्रम्हांड के सभी पदार्थ ५ तत्व से ही निर्मित हैं । संगीत के सप्त सुर इन ५ तत्वों का प्रतिनिधित्व भी करते हैं । संगीत से किसी विशेष सुर या राग के माध्यम से हम अपना वायु तत्व बढ़ाले और भूमि एवं जल तत्व को कम करदे तो मनुष्य अद्रश्य एवं वायुगमन सिद्धि प्राप्त कर लेता हैं । यदि साधक सही तरीके से संगीत का प्रयोग करे तो बाह्य चीजों पर भी यही प्रयोग करके उसे भी अद्रश्य कर सकता है । या फिर उसके तत्वों के साथ संयोग करके तत्वों को बदल ने पर उसका परिवर्तन भी संभव हैं । या फिर संगीत के माध्यम से हवा में ही सबंधित कोई भी वस्तु के तत्वों को संयोजित कर के उसे कुछ ही क्षणों में प्राप्त किया जा सकता हैं । वास्तव में ही संगीत मात्र मनोरंजन नहीं हैं । हमारे ऋषि मुनि अत्यंत ही उच्चकोटि के वैज्ञानिक थे मगर हमने उने कभी भी समझने की कोशिश नहीं की हैं । हमने जभी भी उनको देखा तो केवल तिरस्कार की दृष्टि से ही देखा । हम ने कभी उने और उनकी विशेषता को नही पहचाना । जीस की बहूत बडी कीमत हमे आज बर्तमान में चुकानी पढ रही है । आज उनकी आवश्यकता महसुस हो रही है ।
कुंडलिनी चक्र जागरण ............. के भेद
कुंडलिनी जागरण के साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं । प्राय कुछ साधकों को ध्यान के समय बहूत से किसिम से अनुभव होते ही है । ये अनुभव की बात इस लिये बता रहे है की नये साधक अपनी साधना में यदि उन अनुभवों को अनुभव करते है तो वे अपनी साधना की प्रगति, स्थिति व बाधाओं को ठीक प्रकार से जान सकते है और स्थिति व परिस्थिति के अनुरूप निर्णय ले सकते है ।
भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर पहले काला और फिर नीला रंग दिखाई देता है । फिर पीले रंग की परिधि वाले नीला रंग भरे हुए गोले एक के अन्दर एक विलीन होते हुए दिखाई देता हैं । एक पीली परिधि वाला नीला गोला घूमता हुआ धीरे-धीरे छोटा होता हुआ अदृश्य हो जाता है और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है । इस प्रकार यह क्रम बहुत देर तक चलता रहता है । साधक यह सोचता है इक यह क्या है, इसका अर्थ क्या है ? इस प्रकार दिखने वाला नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है । नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है । पीला रंग आत्मा का प्रकाश है जो जीवात्मा के आत्मा के भीतर होने का संकेत है ।
इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण है । इससे भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्षा दीखने लगते है और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं । साथ ही हमारे मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है जिससे हम असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेते हैं ।
कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है । जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिर परमात्मा में लीन हो जाते हैं । अर्थात यह ईश्वर की साक्षात् शक्ति है । यह कुदालिनी शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शारीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है । जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक हम सांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं । परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुदा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमता हुआ ऊपर उठ रहा है । यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है । यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है ।
जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है । यह स्पंदन लगभग वैसा ही होता है जैसे हमारा कोई अंग फड़कता है । फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुक जाती है । जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है उसको व उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है । यानि उनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है । इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर हम सांसारिक विषय भोगों से विरक्त हो जाते हैं और ईश्वर प्राप्ति की ओर हमारा मन लग जाता है । इसके अतिरिक्त हमारी कार्यक्षमता कई गुना बढ जाती है । कठिन कार्य भी हम शीघ्रता से कर लेते हैं ।
कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षण हैं । ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं या गर्जना के शब्द करना, गेंद की तरह एक ही स्थान पर फुदकना, गर्दन का भाग ऊंचा उठ जाना, सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र पर चींटियाँ चलने जैसा लगना, कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है । ऐसा लगना, मुंह का पूरा खुलना और चेहरे की मांसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है ।
कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है । यानि एक तो यह स्थूल शरीर है और उस शरीर से निकलते हुए २ अन्य शरीर का भी अनुभव होता है । तब साधक कई बार घबरा जाता है । वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़ भी देता है । परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है ।
एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है । दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है । तीसरा शरीर कारण शारीर कहलाता है । सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शरीर की तरह ही है । यानि यह भी सब कुछ देख सकता है । सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि । परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है यह सब जगह आ जा सकता है । क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है । तीसरा शरीर कारण शरीर है । इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं । मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है । अर्थात नया जन्म होता है । इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं । कुंडलिनी शक्ति को जगाने का सबसे अच्छा तरीका है साधना या शक्तिपात होता है ।
अगर आप साधना के जरिये अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करना चाहते है तो उसके लिये आपको योग के मार्ग का अनुसरण करते हुये कर्मयोग, भक्तियोग, हठयोग और गुरुकृपायोग को साधना पड़ता है । साथ ही आपको प्राणायाम, यौगिक क्रियाओं और ब्रह्मचर्य का पालन भी करना होता है । इन सब नियमों के पालन के अलावा आपमें अनुशासन, धैर्य और सहनशीलता का होना भी अति आवश्यक है ।
कुण्डलिनी जागरण शक्तिपात एक योग है । जिस से आपको एक व्यक्ति के द्वारा दुसरे व्यक्ति को आध्यात्मिक शक्ति दी जाती है । सीधे शब्दों में कहें तो एक गुरु अपने शिष्य को अपनी आध्यात्मिक शक्ति देकर उसकी कुंडलिनी शक्ति के जागरण में सहायक होता है । शक्ति को शिष्य तक पहुँचाने के लिए गुरु कुछ मन्त्रों का या पवित्र शब्दों का इस्तेमाल करता है । इस दौरान वो अपने नेत्रों को बंद रखता है और शिष्य को स्पर्श कर उसके आज्ञाचक्र में अपनी शक्ति को डालता है । इस प्रकार गुरु अपने योग्य शिष्य पर अपनी कृपा दीखता है । गुरु द्वारा दी गई इस शक्ति का प्रयोग कर शिष्य आसानी से अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करने में सफल हो पाता है ।
कुंडलिनी शक्ति का जागरण मात्र आध्यात्मिक प्रगति से ही संभव है । जिसके सरल और सही मार्ग साधना है । आप साधना से ही अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर सकते हो । जिसके लिए आपको साधना के 6 मूलभूत तत्वों को ध्यान में रखना होगा । ये 6 तत्व आपके मार्ग को सरल बनाते है । किन्तु जब गुरु द्वारा शक्तिपात किया जाता है तो इससे शिष्य के पास एकदम से अचानक आध्यात्मिक शक्ति आ जाती है और वो इस आनंदमयी अनुभव को जीने लगता है । इसके अलावा अब उसे सिर्फ गुणात्मक और संख्यात्मक स्तर में इजाफा कर उसे कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने की दिशा में अग्रसर होना होता है । इससे साधक का विश्वास भी मजबूत होता है ।
यदि कोई साधक भक्तिमार्ग के जरिये अपनी कुंडलिनी शक्ति को जागृत करता है तो उसका भाव जागृत होता है और यदि वो ज्ञानमार्ग से कुंडलिनी शक्ति को जागृत करता है तो उससे उसे दिव्या ज्ञान की अनुभूति होती है ।
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