भारतीय योग-साधन का मुख्य उद्देश्य जीवन में मोक्ष प्राप्त करना है । अभी तक प्राणियों के विकास को देखते हुए सबसे ऊँची श्रेणी मनुष्य की है । क्योंकि उसको विवेक और ज्ञान के रूप में ऐसी शक्तियाँ प्रदान की गई है । जिनसे वह जितना चाहे, ऊँचा उठ सकता है और कैसा भी कठिन कार्य हो उसे अपनी अंतरंग शक्ति से पूरा कर सकता है ।

संसार के अधिकाँश मनुष्य बाह्य जीवन में ही रहते हैं और प्रत्येक कार्य के लिये धन-बल शरीर-बल और बुद्धि-बल का प्रयोग करने के मार्ग को ही आवश्यक मानते हैं । इन तीन बलों के अतिरिक्त संसार के महान कार्यों को सिद्ध करने के लिये जिस चौथे ‘आत्म-बल’ की आवश्यकता होती है । उसके विषय में शायद ही कोई कुछ जानता है । पर वास्तविकता यही है कि संसार में आत्म-बल ही सर्वोपरि है और उसके सामने और कोई बल नहीं टिक सकता ।

यह ‘आत्म-बल’ या ‘आत्म-शक्ति’ प्रत्येक व्यक्ति में न्यूनाधिक परिणाम में उपस्थित रहती है । उसके बिना मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं है । पर जिन मनुष्यों में किसी प्रकार उसका विशेष रूप से प्रादुर्भाव हो जाता है, वे ही संसार में महान् अथवा प्रमुख पद को प्राप्त कर सकते हैं । यह शक्ति कुछ लोगों में जन्मजात रूप से ही होती है और वे बिना किसी विशेष साधन के, अभाव और कठिनाइयों की परिस्थितियों में रहते हुए भी, अंतरंग शक्ति के प्रभाव से ही अपने आस-पास के लोगों से ऊपर पहुंच जाते हैं । कुछ व्यक्तियों में यह धीरे-धीरे विद्या, बुद्धि संयम, नियम पूर्ण जीवन के साथ साथ बढ़ती जाती है । इस प्रकार वे बहुत ऊँचा चढ़ जाते हैं । पर यह वृद्धि क्रमशः होने के कारण उनको इसका अनुभव नहीं होता, और लोग इसके कारण पूरी तरह ध्यान नही दे पाते ।

हमारे शास्त्रों में कहा गया है ‘निर्बल-आत्मा’ कोई महान् कार्य नहीं कर सकती वरन् अनिश्चय, अनुत्साह और अविश्वास के कारण वह अपना जीवन नगण्य अथवा पदावनत स्थिति में ही बिता कर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर लेता है । पर जो लोग अपनी निर्बलता अथवा त्रुटियों को समझ कर उनको दूर करने के लिये योग-मार्ग का आश्रय ग्रहण करते हैं । वे धीरे-धीरे अपनी निर्बलता को सबलता में बदल देते हैं और साँसारिक नियमों में ही सफल मनोरथ नहीं होते वरन् आध्यात्मिक क्षेत्र में भी वे ऊँचे उठते हैं । वे स्वयं अपना कल्याण साध नहीं करते वरन् अन्य सैकड़ों व्यक्तियों को हीनावस्था से छुटकारा पाकर उद्धार का मार्ग प्राप्त करने के योग्य बना देते हैं ।

यैसे तो योग-साधन द्वारा क्रमशः आत्मोत्कर्ष का सरल और अनुभव गम्य विधान वही है । जो पातंजलि के ‘योग दर्शन’ में बतलाया गया है । अर्थात् मन, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि । इसको जो कोई भी सामान्य रीति से करता रहेगा, वह शारीरिक, मानसिक और आत्मिक दृष्टि से अवश्य उन्नति करता जायेगा । यह ठीक है कि प्रत्येक व्यक्ति की प्रगति एक समान नहीं हो सकती । कुछ लोग थोड़े ही प्रयत्न और समय में महत्वपूर्ण शक्तियाँ प्राप्त कर लेते हैं । और अन्य वर्षों तक लगे रहकर शारीरिक निरोगिता, मानसिक एकाग्रता, आत्मिक प्रसन्नता की दृष्टि से थोड़ा ही अग्रसर हो पाते हैं । इस अन्तर का एक कारण जहाँ वर्तमान जीवन में साधनों की श्रेष्ठता और संकल्प की दृढ़ता होता है । वहाँ दूसरा कारण पूर्व जन्म के संस्कारों का इस महान् उद्देश्य के अनुकूल होना भी होता है । इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए गीता में कहा गया है-

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरु नन्दन ॥
पूर्वाभ्यासे न तेनैव ह्रियते ह्मवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्माति वर्तते ॥
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विषः ।
अनेक जन्म संसिद्धस्ततो याति परांगतिम् ॥

अर्थात, जो व्यक्ति किसी एक जन्म में योग-भ्रष्ट हो जाता है । वह अन्य जन्म में उस पहिले शरीर में साधन किये हुये योग-संस्कारों को प्राप्त हो जाता है और उसके प्रभाव से फिर भगवत्प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है । यद्यपि पिछले जन्म में वह विषयों से आकर्षित हो जाने के कारण योग-सिद्धि के लक्ष्य में असफल हो जाता है । पर पूर्व संस्कारों के प्रभाव से इस जन्म में फिर बहुत ऊँचा उठ सकता है । जब ऐसे मन्द प्रयत्न करने वाले योगी भी उच्च-गति को प्राप्त हो सकते हैं । तो जो अनेक जन्मों से योग मार्ग पर चलते आये हैं । उनके सम्बन्ध में क्या कहना ? वे तो संपूर्ण पापों से छुटकारा पाकर अवश्य ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं ।

योग-शास्त्र में साधना के जो सर्वमान्य नियम दिये गये हैं । उनके सिवाय अध्यात्म-विद्या के ज्ञाताओं ने, इस मार्ग में शीघ्र प्रगति करके कुछ बहुत महत्वपूर्ण शक्तियाँ प्राप्त कर लेने की जो विधियाँ अथवा योग-शाखायें निकाली हैं । उनमें ‘कुण्डलिनी-योग’ का विशेष स्थान है । इससे शरीर में एक ऐसी शक्ति का आविर्भाव होता है । जिससे मनुष्य की चैतन्यता बहुत अधिक बढ़ जाती है और वह जब चाहे तब स्थूल-संसार के बजाय सूक्ष्म-जगत की स्थिति का अनुभव कर सकता है और एक संकीर्ण क्षेत्र में रहने के बजाय विशाल-विश्व की गतिविधि को देखने लगता है । ‘हठ-योग में कुण्डलिनी शक्ति’ के महत्व का वर्णन करते हुए कहा है-

सशैलवनधात्रीणां यथाधारोऽहिनायकः ।
सर्वेषां योगतंत्रणां तथाधारो हि कुंडली ॥
सुप्ता गुरुप्रसादेन यदा जांगति कुंडली ।
तदा सर्वाणि पद्यानि भिद्यंते प्रंययोऽपि च ॥
प्राणस्य शून्यपदवी तथा राजपथापते ।
तदा चित्तं निरालंबं तदा कालस्य वंचनस् ॥

अर्थात, जिस प्रकार सम्पूर्ण वनों सहित जितनी भूमि है । उसका आधार सर्पों का नायक (शेषनाग) है । उसी प्रकार समस्त योग साधनाओं का आधार भी कुण्डली ही है । जब गुरु की कृपा से सोयी हुई कुण्डली जागती है, तब सम्पूर्ण पद्य (षट्चक्र) और ग्रन्थियाँ खुल जाते हैं । और उसी समय प्राण की शून्य पदवी (सुषुम्ना), राजपथ (सड़क) के समान हो जाती है, चित्त विषयों से रहित हो जाता है और मृत्यु का भय मिट जाता है ।

अन्य शास्त्रों तथा विशेषकर तन्त्र ग्रन्थों में कुण्डलिनी के स्वरूप तथा उसके उत्थान का विवेचन करते हुए कहा है कि कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार में शक्ति रूप में स्थित होकर मनुष्य को सब प्रकार की शक्तियाँ, विद्या और अन्त में मुक्ति प्राप्त कराने का साधन होती हैं । गुदा स्थान से दो अँगुल ऊपर और लिंग मूल से दो अँगुल नीचे की तरफ बहुत छोटे आकार वाला मूलाधार पद्य है । उसके बीच में तेजोमय लाल वर्ण का ‘क्लीं’ बीज रूप से स्थित है । उसके ठीक बीच में ब्रह्म-नाड़ी के मुख पर स्वयम्भूलिंग है । उसके दाहिने और साढ़े तीन फेरा खाकर कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई है । इस कुण्डलिनी को ‘परमा-प्रकृति’ कहा गया है । देव, दानव, मानव, पशु-पक्षी, कीट-पतंग सभी प्राणियों के शरीर में कुण्डलिनी शक्ति विराजमान रहती है ।

कमल-पुष्प में जिस प्रकार भ्रमर अवस्थित होता है, उसी प्रकार यह भी देह में रहती है । इसी कुण्डलिनी में चित्-शक्ति (चैतन्यता) निहित रहती है । इतनी महत्वपूर्ण होने पर भी लोग उसकी तरफ ध्यान नहीं देते । यह आश्चर्य का विषय है । यह अत्यन्त सूक्ष्म शक्ति है । इसकी सूक्ष्मता की कल्पना करके योग-शास्त्र में कहा है-

योगिनां हृदयाम्बुजे नृत्यन्ती नृत्यमंजसा ।
आधारे सर्वभूतानां स्फुरन्ती विद्युताकृति ॥

अर्थात्-योगियों के हृदय देश में वह नृत्य करती रहती है । यही सर्वदा प्रस्फुटित होने वाली विद्युत रूप महाशक्ति सब प्राणियों का आधार है । इसका आशय यही है कि कुण्डलिनी शक्ति के न्यूनाधिक परिणाम में चैतन्य हुये बिना मनुष्य की प्रतिभा का विकास नहीं होता ।

पिछले पचास-साठ वर्षों से देश विदेश के बहूत से विद्वान इस तरफ ध्यान देने लगे हैं और उन्होंने स्वयम् कुण्डलिनी साधन करके उसकी शक्ति का अनुभव किया है । उनकी सम्मति में कुण्डलिनी शक्ति विश्व-व्यापी है । एक दृष्टि से हम अपने शरीरों में स्थित कुण्डलिनी को चैतन्य-शक्ति का आधार कह सकते हैं । इस शक्ति की एक धारा समस्त विश्व में सूर्य, चन्द्र आदि प्राकृतिक पिंडों में भी बहती रहती है । इस प्रकार उसे सर्व-शक्तिमान कह सकते हैं । अगर साधक कुण्डलिनी-योग में पूर्ण सफलता प्राप्त करके उस पर पूरा अधिकार और नियन्त्रण कर सके तो फिर संसार में उसके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है । वह सृष्टि का संचालन अपनी इच्छानुसार कर सकते है ।

पर यह कार्य सामान्य मनुष्य नहीं कर सकते । इस कार्य को वही व्यक्ति कर सकते हैं । जिन्होंने अपना रहन-सहन आरम्भ से ही पूर्ण संयम-युक्त और सात्विक रखा है और अपने शरीर तथा मन को नियमित अभ्यास द्वारा सुदृढ़ और सहनशील बनाया है । क्योंकि यह जो महाशक्ति है ये सूर्य की शक्ति है । जब ये शक्ति जागृत की जाती है, तब समस्त शरीर, विशेषकर स्नायु-संस्थान में बहुत उष्णता उत्पन्न करती है । जिससे साधक को कष्ट प्रतीत होने लगता है । कभी-कभी ऐसा भी होता है कि उत्तम श्रेणी के साधकों में ध्यान और उपासना करते-करते यह स्वयम् ही जागृत हो जाती है ।

श्री रामकृष्ण परमहंस के जीवन-चरित्र से विदित होता है कि जिस समय दक्षिणेश्वर के मन्दिर में महीनों तक काली का ध्यान करते हुए उनकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो गई थी तब उनको भी ऐसा ही कष्ट सहन करना पड़ा था । उस अवस्था का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा था-

कुछ झुनझुनी-सी उठकर पाँव से सर तक जाती है। सिर में पहुंचने के पूर्व तक तो चेतना रहती है, पर सिर में उसके पहुंचने पर सुध-बुध जाती रहती थी । आँख, कान अपना कार्य नहीं करते, बोली भी रुक जाती थी । बोले कौन ? उस समय ‘मैं’ और ‘तू’ का भेद ही मिट जाता था । जो शक्ति झन-झन करती ऊपर उठती थी, वह एक ही प्रकार की गति से नहीं चढ़ती थी । शास्त्रों में उस शक्ति की चढाई पाँच प्रकार की कही गई हैं-

पहला चींटी के समान धीरे-धीरे ऊपर चढ़ना,
दूसरा मेंढक के समान दो-तीन छलाँग जल्दी जल्दी कूद कर फिर ठहर जाना,
तिसरा सर्प के समान टेढ़ी गति से चलना,
चौथा पक्षी के समान उड़कर चढ़ना,
पाचवा बन्दर के समान दो-तीन छलाँग लगाकर सिर में पहुँच जाना । किसी भी गति से इसके सिर में पहुँचने पर समाधि हो जाती है ।

जीवन को उन्नत, शक्तिशाली और महान बनाने के लिये कुण्डलिनी-जागरण निस्संदेह एक अत्यन्त प्रभाव शाली मार्ग है । पर यह तभी सम्भव है, जब इस साधना को किसी अनुभवी गुरू की देख-रेख में किया जाय। इससे भी अधिक आवश्यकता यह है कि साधक के आचार-विचार और उद्देश्य पूर्णतः शुद्ध हों कुण्डलिनी जागरण एक अलौकिक शक्ति

वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर यह प्रमाणित हो चुका है कि मनुष्य का शरीर जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी तथा आकाश इन पांच तत्वों से बना हूवा है । इसमे कोई संदेह नही कि जो चीज जिस तत्व से बनी हो उसमे उस तत्व के सारे गुण समाहित होते हैं । इस लिए पंचतत्वों से निर्मित मनुष्यों के शरीर में जल की शीतलता, वायु का तीब्र वेग, अग्नि का तेज, पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण, ओर आकाश की विशालता समाहित होता है ।

मनुष्य अनंत शक्तियों का स्वामी हैै तथा इस स्थुल शरीर के अंदर अनगिन्ती अलौकिक शक्तियाँ छुपी हुई है । परंतु हमारे अज्ञानता के कारण हमारे अंदर की शक्तियाँ सुप्तावस्था में पड़ी हुई है । जो शक्ति सोई पडी है अज्ञानता के कारण । जिसे कोई भी व्यक्ति कुछ प्रयासों के द्वारा अपने अन्दर सोई हुई शक्तियों को जगाकर अनंत शक्तियों का स्वामी बन सकता है ।

मनुष्य के अन्दर की सोई शक्ति को ही कुण्डलिनी कहा गया है । कुण्डलिनी मनुष्य के शरीर की अलौकिक संरचना है । जिसके अंदर ब्रह्मंड की समस्त शक्तियाँ समाहित है । अगर सही शब्दों मे कहा जाय तो मनुष्य के अंदर ही सारा ब्रह्मंड समाया हुआ है । ईश्वर का बास ही मनुष्यों में होता है ।

आज से हजारों साल पहले गुरू शिष्य परंपरा के अनुसार गुरू अपने शिष्यों की कुण्डलिनी शक्ति को योगाभ्यास तथा शक्तिपात के माध्यम से जागृत किया करते थे । जीस के बाद शिष्य अलौकिक शक्तियों का स्वामी बन कर समाज कल्याण जथा जनहित में इन शक्तियों का सद्उपयोग किया करते थे ।

कुण्डलिनी जागरण के पश्चात मनुष्य के अन्दर अनेको अलौकिक एवं चमत्कारिक शक्तियों का प्रार्दुभाव होनेे लगता है और मनुष्य मनुष्यत्व से देवत्व की ओर अग्रसर होने लगता है । कुण्डलिनी जागरण के बाद अनेकों चमत्कारिक घटनायें घटने लगती हैं । किसी भी व्यक्ति को देखते हि उसका भुत, भविष्य, वर्तमान साधक के सामने स्पस्ट रूप से दिखाई देने लगता है । साथ ही सामने वाले व्यक्ति की मन की बातें भी स्पष्ट हो जाती हैं ।

कुण्डलिनी जागृत साधक हजारों कि.मी. दुर घट रही घटनााओं को भी स्पष्ट रूप से देख सकता है । और दुर बैठे हुए व्यक्ति की मन की बातें भी पढ़ सकता है । प्राचिन ग्रंथों मे ऐसे अनेकों उल्लेख मिलते है । यह सब कुण्डलिनी जागरण की शक्ति से ही संभव है । कुण्डलिनी जागरण के पश्चात कठिन से कठिन तथा असंभव से असंभव कार्य को भी संभव किया जा सकता है । आखिर क्या है ये कुण्डलिनी जागरण ?

मनुष्य के अन्दर छिपी हुई अलौकिक शक्ति को कुण्डलिनी कहा गया है । कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे जगत मे जीव की श्रृष्टि होती है । कुण्डलिनी सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर मेरूदण्ड के सबसे निचले भाग में मुलाधार चक्र में सुषुप्त अवस्था में पड़ी हुई है । मुलाधार में सुषुप्त पड़ी हुई कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर सुषुम्ना में प्रवेश करती है । तब यह शक्ति अपने स्पर्श से स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, तथा आज्ञा चक्र को जाग्रत करते हुए मस्तिष्क में स्थीत सहस्त्रार चक्र में पहुच कर पुर्णंता प्रदान करती है इसी क्रिया को पुर्ण कुण्डलिनी जागरण कहा जाता है ।

जब कुण्डलिनी जाग्रत होती है मुलाधार चक्र में स्पंदन होने लगती है । उस समय ऐसा प्रतित होता है जैसे विद्युत की तरंगे रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घुमते हुए उपर की ओर बढ़ते रहता है । साधको के लिए यह एक अनोखा अनुभव होता है ।

जब मुलाधार से कुण्डलिनी जाग्रत होती है । तब साधक को अनेको प्रकार के अलौकिक अनुभव स्वतः होने लगते हैं । जैसे अनेकों प्रकार के दृष्य दिखाई देना, अजीबोगरीब आवाजें सुनाई देना, शरीर मे विद्युत के झटके आना, एक ही स्थान पर फुदकना, इत्यादि अनेकों प्रकार की हरकतें शरीर में होने लगती है । कई बार साधक को गुरू अथवा इष्ट के दर्शन भी होते हैं ।

कुण्डलिनी शक्ति को जगाने के लिए प्रचिनतम् ग्रंथों मे अनेकों प्रकार की पद्धतियों का उल्लेख मिलता है । जिसमें हटयोग ध्यानयोग, राजयोग, मत्रंयोग तथा शक्तिपात आदि के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करने के अनेकों प्रयोग मिलते हैं । परंतु मात्र भस्रीका प्राणायाम के द्वारा भी साधक कुछ महिनों के अभ्यास के बाद कुण्डलिनी जागरण की क्रिया में पुर्ण सफलता प्राप्त कर सकता है ।

जब मनुष्य की कुण्डलीनी जाग्रत होती है तब वह उपर की ओर उठने लगती है तथा सभी चक्रों का भेदन करते हुए सहस्त्रार चक्र तक पंहुचने के लिए बेताब होने लगती है । तब मनुष्य का मन संसारिक काम वासना से विरक्त होने लगता है और परम आनंद की अनुभुति होने लगती है । और मनुष्य के अंदर छुपे हुए रहस्य उजागर होने लगते हैं ।

मनुष्यों के भीतर छुपे हुए असिम और अलौकिक शक्तियों को वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है । आज कल पश्चिमी वैज्ञानिकों के द्वारा शरीर में छुपे हुए रहस्यों को जानने के लिए अनेकों शोध किये जा रहे हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि जिस तरह पृथ्वी के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों मे अपार आश्चर्य जनक शक्तियों का भंडार है । ठीक उसी प्रकार मनुष्य के मुलाधार तथा सहस्त्रार चक्रों मे आश्चर्यजनक शक्तियों का भंडार है ।