जैसे प्रकाश के जलते ही अंधकार स्वत: नष्ट होने लगता है। वैसे ही सदगुरु की संगत से अंधकार खत्म होने लगता है और मनुष्य की दृष्टि बदल जाती है। गुरु के आशीर्वाद से गलत मार्ग के प्रति अरुचि होने लगती है और सद पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती है। जिससे परमात्मा का साक्षात्कार सुलभ हो जाता है। इसलिए मनुष्य के लिए जीवन में सच्चे गुरु का चुनाव बहुत ही आवश्यक है।
हमारे सनातन हिन्दु आस्था जगत में गुरु की तुलना भगवान से की गई है। गुरु के बिना ज्ञान की कल्पना नहीं की जा सकती। हमारा देश प्राचीन काल में गुरुओं का देश रहा है। हमारे देश के ऋषि मुनियों ने रामायण, महाभारत व गीता जैसे कितने ही महान ग्रंथों की रचना की है ।
सदगुरु अपनी शरण में आने वाले के मन में व्याप्त अज्ञानता रूपी अंधकार को दूर करके ज्ञान का दीपक जला देते हैं । गुरु की संगत से प्रकाश का मार्ग प्रशस्त होता है और प्रभु की प्राप्ति का रास्ता सुगम हो जाता हैं।
भगवान को पाने के लिए पहले मनुष्य को अपना मन निर्मल करते हुए अहम व लोभ का त्याग करना होता है। जो मनुष्य जीवन भर मोह जाल में फंस कर प्रभु का नाम लेना भी भूल जाते है उन्हें कभी सच्ची मानसिक शांति नहीं मिलती और जीवन में हर खुशी अधूरी ही रह जाती हैं।
सच्चा गुरु वही है जो अपने शिष्य को सही मार्ग दिखलाए और उसे प्रभु प्राप्ति व मानसिक शांति पाने का रास्ता बताते हुए उसका उद्धार करते है।
जो मनुष्य अहंकार का त्याग नहीं करता और मैं की भावना में ही उलझा रहता है वह कभी प्रभु का प्रिय पात्र नहीं बन सकता। हर प्राणी को समान समझते हुए उससे ऐसा व्यवहार करना चाहिए जैसा आप उससे अपेक्षा रखते हैं।
जैसे प्रकाश के जलते ही अंधकार स्वत: नष्ट होने लगता है वैसे ही सदगुरु की संगत से अंधकार खत्म होने लगता है और मनुष्य की दृष्टि ही बदल जाती है।
गुरु के आशीर्वाद से नाशवान पदार्थों के प्रति अरुचि होने लगती हैं और सद पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती है।
जिससे परमात्मा का साक्षात्कार सुलभ हो जाता है इसलिए मनुष्य के लिए जीवन में सच्चे गुरु का चुनाव बहुत ही आवश्यक है। हर मनुष्य में परोपकार की भावना होनी चाहिये। साथ ही नेकी कर दरिया में डाल वाली मानसिकता भी होनी चाहिए।
मनुष्य को कभी भी किसी पर उपकार करके उसका श्रेय नहीं जताना चाहिए। किसी पर श्रेय करके जताने से अच्छा है कि एहसान किया ही न जाए। गुरुओं के सही दिशा निर्देश के अभाव में हमारी अज्ञानता बढती जाती है।
हमारे ऋषि मुनियों द्वारा रचे गए ग्रंथ तो ज्ञान के भंडार से भरे हैं। जैसे रामायण से हमें आदर्श चरित्र पालन की प्रेरणा मिलती है तो गीता से हमें कर्म की महत्ता का भान होता है। गीता में ही भगवान श्री कृष्ण ने हमे अपने आपको जानना सिखाया है।
हमारे धार्मिक ग्रंथों में सिखाया है कि हर घट में भगवान का बास है। अर्थात हर जगह, हर मानव में भगवान बसे हैं। इसी धारणा के अन्तर्गत गीता हमें खुद को जानने को प्रेरित करती है। जब हम अपने आप को जान जाएंगे तो अपने अंदर छुपे भगवान के ब्रह्म ज्ञान को भी जान जाएंगे। ज्ञानी व संत पुरुष आज भी यही कार्य कर रहे हैं।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि हमारे जागने के बाद सूर्य व चंद्रमा सोते नहीं है और हमारे जागने से जागते नहीं है। इसी प्रकार आत्मा सदैव चैतन्य रहती है और निरंतर कार्य करती रहती है। सोता है तो केवल शरीर। चूंकि आत्मा सोते हुए भी जागती रहती है।
इसलिए ज्ञानी व संत महात्मा सोते हुए भी जागते रहते हैं। गीता से हमें ज्ञान मिलता है कि यदि हमारा ध्यान परमात्मा की तरफ नहीं गया तो हम जागृत अवस्था में भी सोए हुए के समान ही हैं। मृतक के बरावर ही है। हमारे संत महात्माओं को प्राचीन समय में ही वर्तमान स्थिति का भान हो गया था।
इसीलिए उन्होंने कलियुग में मोक्ष प्राप्ति का विकल्प कथा श्रवण, ध्यान, सत्संग ही बताया था। इस कलियुग में प्रत्येक परिवार को नित्य ही या तो कथा का पाठन करना चाहिए या फिर कथा का श्रवण करना चाहिए।
साथ ही कथाओं में बतायें अनुसार जीवन यापन की राह पकड़नी चाहिए । मानव जीवन में अगर किसी को सदगुरु मिल जाए तो मुक्ति का मार्ग सुलभ हो जाता है, क्योंकि गुरु के समान तो कोई दाता नहीं हो सकता। गुरू भगवान के समान होते है।
योग क्या हैं
कठोपनिषद में इस साधना - पथ का बहुत सुंदर रूपक प्रस्तुत किया गया है इसमें कहा गया है कि शरीर रूपी रथ पर आत्मा रथी हैं इस रथ का सारथी बुद्धि है सारथी के हाथ में जो लगाम है वह मन है इस रथ में जो धोड़े जुते हैं वह इन्द्रियां हैं उन घोड़ों के चलने का मार्ग इन्द्रियों के विषय है शरीर इन्द्रिय एवं मन से युक्त जीव ही भोक्ता है।
जो अविवेक से युक्त बुद्धि वाला होता है और जिसका मन अनियन्त्रित है उसका इंद्रियां असावधान सारथी से दुष्ट घोड़े की भांति अनियन्त्रित एवं स्वेच्छाचारी हो जाती हैं जो विवेकसम्पन्न बुद्धि वाला एवं संयत मन वाला व्यक्ति होता है उसकी इन्द्रियां सावधान सारथी के नियन्त्रित एवं वशीकृत घोड़े की भांति वस में रहती है
जो कोई सदैव विवेकहीन अनियंत्रित चित्त वाला एवं अपवित्र रहता है वह उस परमपद को नहीं प्राप्त कर पाता अपितु बार-बार जन्म मृत्यु वाले संसार चक्र में भटकता रहता है जो सदैव विवेकशील बुद्धि एवं नियन्त्रित मन से युक्त होता है वह परमपद प्राप्त करता है, इंद्रियों से ज्यादा उसके विषय बलवान् हैं। विषयों से ज्यादा बलवान् मन है। मन से ज्यादा बलवान् बुद्धि हैं।और बुद्धि से ज्यादा बलवान् एवं श्रेष्ठतर आत्मा हैं।जीवात्मा से अधिक बलवती माया है। माया से अधिक श्रेष्ठ परमपुरुष परमात्मा है। उस परमात्मा से श्रेष्ठतर कोई नहीं है। वही सब कि परम अवधि एवं परम गति है।
आत्मानं रथिनं विद्धि शरिरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन:प्रग्रहमेव च ॥
इन्द्रियेभ्य: परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्र्च परं मन:
मनसस्तु परं बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् पर: ॥
महत: परमव्यक्त मव्यक्तात् पुरुष: पर: ।
पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गति: ॥
यंत्र योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रिय धारणम् ।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ ॥
अर्थात आत्मा को रथी समझो और शरीर को रथ बुद्धि को सारथी समझो और मन को लगाम इंन्द्रियों को घोड़ों समझो और ऐन्द्रिय विषयों को मार्ग जीवन को भोक्ता समझो जो व्यक्ति मन रूपी लगाम से इन्द्रिय रूपी घोड़े को नियंत्रित मे रखकर ऐन्द्रिय विषय रूपी मार्ग पर चलता है वह परम पद ( जीवन के चरम लक्ष्य ) प्राप्त कर पाता है अन्य नहीं ।
इन्द्रिय, मन और बुद्धि की स्थिर धारणा का नाम ही योग है ''तां योगिमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रिय धारणम्" जब मन के सहित पांचों ज्ञानेन्द्रियां भली-भांति स्थिर हो जाती है और बुद्धि भी किसी प्रकार की चेष्टा नहीं करती उसी स्थिति को परमागति कहते हैं
यदा पञ्चाव तिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह ।
बुद्धिश्र्च न विचेष्ति तामाहु: परमां गतिम्॥
योग-इन्द्रिय मन एवं बुद्धि की स्थिरता है या उसकी स्थिर धारणा ही योग हैं परमागति-मन के साथ ज्ञानेन्द्रियों एवं बुद्धि की सम्यक् स्थिरता ही परमागति है सारांश यह कि इन्द्रिय मन एवं बुद्धि का निश्चलत्व या सम्यक् स्थिरत्व योग एवं परमागति दोनों हैं
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