ॐ श्रीपरमात्मने नमः

आठवाँ अध्याय

इस प्रकार भगवान्‌के वचनोंको न समझकर अर्जुन बोले, हैं पुरुषोत्तम ! जिसका आपने वर्णन किया वह ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है ? कर्म क्या है और अधिभूत नामसे क्या कहा गया है? अधिदैव नामसे क्या कहा जाता है ? हे मधुसूदन ! यहाँ अधियज्ञ कौन है ? और वह इस शरीरमें कैसे है ? और युक्त चित्तवाले पुरुषोंद्वारा अन्त समयमें आप किस प्रकार जाननेमें आते हो ? इस प्रकार अर्जुनके प्रश्न करनेपर श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन ! परम अक्षर अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं हो, ऐसा सच्चिदानन्दघन परमात्मा तो ब्रह्म है और अपना स्वरूप अर्थात् जीवात्मा अध्यात्म नामसे कहा जाता है तथा भूतोंके भावको उत्पन्न करनेवाला शास्त्रविहित यज्ञ, दान और होम आदिके निमित्त जो द्रव्यादिकों का त्याग है , वह कर्म नामसे कहा गया है उत्पत्ति विनाश धर्मवाले सब पदार्थ अधिभूत हैं और हिरण्यमय पुरुष अधिदैव है और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन इस शरीर में मैं वासुदेव ही विष्णु रूप से अधियज्ञ हूँ ,

और जो पुरुष अन्तकाल में मेरे को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता हैं वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है इसमें कुछ भी संशय नहीं है , कारण कि हे कुन्ती पुत्र अर्जुन यह मनुष्य अन्तकाल में जिस जिस भी भावको स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, उस उसको ही प्राप्त होता है; परन्तु सदा उस ही भावको चिन्तन करता हुआ क्योंकि सदा जिस भावका चिन्तन करता है, अन्तकाल में भी प्रायः उसी का स्मरण होता है, इसलिये हे अर्जुन तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर इस प्रकार मेरे में अर्पण किये हुए मन , सिद्धि से युक्त हुआ निःसन्देह मेरे को ही प्राप्त होगा ,


हे पार्थ यह नियम है कि परमेश्वर के ध्यान के अभ्यास रूप योग से युक्त अन्य तरफ न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ पुरुष परम प्रकाश रूप दिव्य पुरुष को अर्थात् परमेश्वर को ही प्राप्त होता है, इससे जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियन्ता सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म सबके धारण पोषण करने वाले अचिन्त्य स्वरूप सूर्यके सदृश नित्य चेतन प्रकाश रूप अविद्या से अति परे शुद्ध सच्चिदानन्द घन परमात्मा को स्मरण करता है वह भक्ति युक्त पुरुष अन्तकाल में भी योग बल से भृकुटी के मध्य में प्राण के अच्छी प्रकार स्थापन करके फिर निश्चल मनसे स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है ,

हे अर्जुन वेदके जानने वाले विद्वान् जिस सच्चिदानन्द घन रूप परमपद को ओंकार नाम से कहते हैं और आसक्ति रहित यत्न शील महात्मा जन जिस में प्रवेश करते हैं तथा जिस परमपद को चाहने वाले ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परमपद को तेरे लिये संक्षेप से कहूँगा , हे अर्जुन सब इन्द्रियों के द्वारों को रोक कर अर्थात् इन्द्रियों को विषयों से हटाकर तथा मन को हृदय में स्थिर करके और अपने प्राण को मस्तक में स्थापन करके योग धारणा में स्थित हुआ , जो पुरुष ॐ ऐसे इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थ स्वरूप मेरे को चिन्तन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता है, हे अर्जुन जो पुरुष मेरे में अनन्य चित्त से स्थिर हुआ सदा ही निरन्तर मेरे को स्मरण करता है उस निरन्तर मेरे में युक्त हुए योगी के लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ , वे परम सिद्धि को प्राप्त हुए महात्मा जन मेरेको प्राप्त होकर दुःखके स्थानरूप क्षणभङ्गुर पुनर्जन्मको नहीं प्राप्त होते हैं क्योंकि हे अर्जुन ! ब्रह्मलोकसे लेकर सब लोक पुनरावर्ती स्वभाववाले अर्थात् जिनको प्राप्त होकर पीछा संसारमें आना पड़े ऐसे हैं, परंतु हे कुन्तीपुत्र ! मेरेको प्राप्त होकर उसका पुनर्जन्म नहीं होता है; क्योंकि मैं कालातीत हूँ और यह सब ब्रह्मादिकोंके लोक काल करके अवधिवाले होनेसे अनित्य हैं,

हे अर्जुन ! ब्रह्माका जो एक दिन है, उसको हजार चौकड़ी युगतक अवधिवाला और रात्रिको भी हजार चौकड़ी युगतक अवधिवाली जो पुरुष तत्त्वसे जानते हैं, अर्थात् काल करके अवधिवाला होनेसे ब्रह्मलोकको भी अनित्य जानते हैं, वे योगीजन कालके तत्त्वको जाननेवाले हैं इसलिये वे यह भी जानते हैं कि सम्पूर्ण दृश्यमात्र भूतगण ब्रह्माके दिनके प्रवेशकालमें अव्यक्तसे अर्थात् ब्रह्माके सूक्ष्म शरीरसे उत्पन्न होते हैं और ब्रह्माकी रात्रिके प्रवेशकालमें उस अव्यक्त नामक ब्रह्माके सूक्ष्म शरीरमें ही लय होते हैं वह ही यह भूतसमुदाय उत्पन्न हो-होकर, प्रकृतिके वशमें हुआ रात्रिके प्रवेशकालमें लय होता है और दिनके प्रवेशकालमें फिर उत्पन्न होता है, हे अर्जुन ! इस प्रकार ब्रह्माके एक सौ वर्ष पूर्ण होनेसे अपने लोकसहित ब्रह्मा भी शान्त हो जाता है परंतु उस अव्यक्तसे भी अति परे दूसरा अर्थात् विलक्षण जो सनातन अव्यक्तभाव है, वह सच्चिदानन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्मा, सब भूतोंके नष्ट होनेपर भी नहीं नष्ट होता है जो वह अव्यक्त, अक्षर ऐसे कहा गया है, उस ही अक्षर नामक अव्यक्तभावको परमगति कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्तभावको प्राप्त होकर मनुष्य पीछे नहीं आते हैं, वह मेरा परम धाम है  और हे पार्थ ! जिस परमात्माके अन्तर्गत सर्वभूत हैं और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मासे यह सब जगत् परिपूर्ण है वह सनातन अव्यक्त परमपुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है,

और हे अर्जुन जिस काल में शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन पीछा न आने वाली गतिको और पीछा आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं उस काल को अर्थात् मार्ग को कहूँगा उन दो प्रकार के मार्गो में से जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि अभिमानी देवता है और दिन का अभिमानी देवता है तथा शुक्लपक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता हैं उस मार्ग में मरकर गये हुए ब्रह्म वेत्ता अर्थात परमेश्वर की उपासना से परमेश्वर को परोक्षभाव से जानने वाले योगीजन उपरोक्त देवताओंद्वारा क्रमसे ले गये हुए ब्रह्मको प्राप्त हुए हैं जिस मार्गमें धूमाभिमानी देवता है और रात्रि अभिमानी देवता है तथा कृष्णपक्षका अभिमानी देवता है और दक्षिणायनके छः महीनोंका अभिमानी देवता है, उस मार्गमें मरकर गया हुआ सकाम कर्मयोगी उपरोक्त देवताओंद्वारा क्रमसे ले गया हुआ चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर स्वर्गमें अपने शुभ कर्मोंका फल भोगकर पीछा आता है क्योंकि जगत्के यह दो प्रकारके शुक्ल और कृष्ण अर्थात् देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गये हैं, इनमें एकके द्वारा गया हुआ पीछा न आनेवाली परमगतिको प्राप्त होता है और दूसरे द्वारा गया हुआ पीछा आता है अर्थात् जन्म-मृत्युको प्राप्त होता है 

हे पार्थ! इस प्रकार इन दोनों मार्गोको तत्त्वसे जानता हुआ कोई भी योगी मोहित नहीं होता है अर्थात् फिर वह निष्कामभावसे ही साधन करता है, कामनाओं में नहीं फँसता, इस कारण हे अर्जुन ! तू सब कालमें समत्वबुद्धिरूप योगसे युक्त हो अर्थात् निरन्तर मेरी प्राप्तिके लिये साधन करनेवाला हो क्योंकि योगी पुरुष इस रहस्यको तत्त्वसे जानकर वेदोंके पढ़नेमें तथा यज्ञ, तप और दानादिकोंके करनेमें जो पुण्यफल कहा है, उस सबको निःसन्देह उल्लङ्घन कर जाता है और सनातन परमपदको प्राप्त होता है,

 इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादमें " अक्षरब्रह्मयोग" नामक आठवाँ अध्याय