ॐ श्रीपरमात्मने नमः


सत्रहवाँ अध्याय

इस प्रकार भगवान्‌के वचन सुनकर अर्जुन बोले, हे कृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्रविधिको त्यागकर केवल श्रद्धासे युक्त हुए देवादिकोंका पूजन करते हैं उनकी स्थिति फिर कौन-सी है ? क्या सात्त्विकी है ? अथवा राजसी किंवा तामसी है ? 


इस प्रकार अर्जुनके पूछनेपर श्रीकृष्णभगवान् बोले, हे अर्जुन ! मनुष्योंकी वह बिना शास्त्रीय संस्कारोंके केवल स्वभावसे उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्त्विकी और राजसी तथा तामसी ऐसे तीनों प्रकारकी ही होती है, उसको तू मेरेसे सुन। 


हे भारत ! सभी मनुष्योंकी श्रद्धा उनके अन्तःकरणके अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा है, वैसा ही उसका स्वरूप है।


उनमें सात्त्विक पुरुष तो देवोंको पूजते हैं और राजस पुरुष यक्ष और राक्षसोंको पूजते हैं तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूतगणोंको पूजते हैं। 



हे अर्जुन ! जो मनुष्य शास्त्रविधिसे रहित केवल मनःकल्पित घोर तपको तपते हैं तथा दम्भ और अहंकारसे युक्त एवं कामना, आसक्ति और बलके अभिमानसे भी युक्त हैं । 


तथा जो शरीररूपसे स्थित भूतसमुदायको अर्थात् शरीर, मन और इन्द्रियादिकोंके रूपमें परिणत हुए आकाशादि पाँच भूतोंको और अन्तःकरणमें स्थित मुझ अन्तर्यामीको भी कृश करनेवाले हैं, उन अज्ञानियोंको तू आसुरी स्वभाववाले जान।


हे अर्जुन ! जैसे श्रद्धा तीन प्रकारकी होती है, वैसे ही भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार तीन प्रकारका प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन तीन प्रकारके होते हैं; उनके इस न्यारे न्यारे भेदको तू मेरेसे सुन । 


आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीतिको बढ़ानेवाले एवं रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहनेवाले तथा स्वभावसे ही मनको प्रिय ऐसे आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ तो सात्त्विक पुरुषको प्रिय होते हैं। 


कड़ुवे खट्टे, लवणयुक्त और अति गरम तथा तीक्ष्ण, रूखे और दाहकारक एवं दुःख चिन्ता और रोगोंको उत्पन्न करनेवाले आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ राजस पुरुषको प्रिय होते हैं । 


तथा जो भोजन अधपका, रसरहित और दुर्गन्धयुक्त एवं बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुषको प्रिय होता है। 


हे अर्जुन ! जो यज्ञ शास्त्रविधिसे नियत किया हुआ है तथा करना ही कर्तव्य है ऐसे मनको समाधान करके फलको न चाहनेवाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह यज्ञ तो सात्त्विक है । 


और हे अर्जुन ! जो यज्ञ केवल दम्भाचरणके ही लिये अथवा फलको भी उद्देश्य रखकर किया जाता है, उस यज्ञको तू राजस जान।


तथा शास्त्रविधिसे हीन और अन्नदानसे रहित एवं बिना मन्त्रोंके, बिना दक्षिणाके और बिना श्रद्धाके किये हुए यज्ञको तामस यज्ञ कहते हैं 


हे अर्जुन! देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनोंका पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीरसम्बन्धी तप कहा जाता है। 


तथा जो उद्वेगको न करनेवाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है और जो वेदशास्त्रोंके पढ़नेका एवं परमेश्वरके नाम जपनेका अभ्यास है, वह निःसन्देह वाणीसम्बन्धी तप कहा जाता है। 


तथा मनकी प्रसन्नता और शान्तभाव एवं भगवत्-चिन्तन करनेका स्वभाव, मनका निग्रह और अन्तःकरणकी पवित्रता ऐसे यह मनसम्बन्धी तप कहा जाता है। 


परंतु हे अर्जुन! फलको न चाहनेवाले निष्कामी योगी पुरुषोंद्वारा परम श्रद्धासे किये हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकारके तपको सात्त्विक कहते हैं ।


और जो तप सत्कार, मान और पूजाके लिये अथवा केवल पाखण्डसे ही किया जाता है, वह अनिश्चित और क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है। 


जो तप मूढ़तापूर्वक हठसे मन, वाणी और शरीरकी पीड़ाके सहित अथवा दूसरेका अनिष्ट करनेके लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है। 


और हे अर्जुन ! दान देना ही कर्तव्य है, ऐसे भावसे जो दान देश, काल और पात्रको प्राप्त होनेपर प्रत्युपकार न करनेवालेके लिये दिया जाता है, वह दान तो सात्त्विक कहा गया है । 


और जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकारके प्रयोजनसे अर्थात् बदलेमें अपना सांसारिक कार्य सिद्ध करनेकी आशासे अथवा फलको उद्देश्य रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है । 


और जो दान बिना सत्कार किये अथवा तिरस्कारपूर्वक, अयोग्य देश कालमें, कुपात्रोंके लिये अर्थात् मद्य, मांसादि अभक्ष्य वस्तुओंके खानेवालों एवं चोरी, जारी आदि नीच कर्म करनेवालोंके लिये दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है। 


हे अर्जुन ! ॐ, तत्, सत्-ऐसे यह तीन प्रकारका सच्चिदानन्दघन ब्रह्मका नाम कहा है, उसीसे सृष्टिके आदिकालमें ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गये हैं। 


इसलिये वेदको कथन करनेवाले श्रेष्ठ पुरुषोंकी शास्त्रविधिसे नियत की हुई यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा 'ॐ' ऐसे इस परमात्माके नामको उच्चारण करके आरम्भ होती हैं ।


तत् अर्थात् तत् नामसे कहे जानेवाले परमात्माका ही यह सब है, ऐसे इस भावसे फलको न चाहकर, नाना प्रकारकी यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याणकी इच्छावाले पुरुषोंद्वारा की जाती हैं।


सत् ऐसे यह परमात्माका नाम सत्यभावमें और श्रेष्ठ  भावमें प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ ! उत्तम कर्ममें भी सत्य शब्द प्रयोग किया जाता है। 


तथा यज्ञ, तप और दानमें जो स्थिति है, वह भी सत् है, ऐसे कही जाती है और उस परमात्माके अर्थ किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् है, ऐसे कहा जाता है। 


हे अर्जुन ! बिना श्रद्धाके होमा हुआ हवन तथा दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है, वह समस्त असत् ऐसे कहा जाता है, इसलिये वह न तो इस लोकमें लाभदायक है और न मरनेके पीछे ही लाभदायक है, इसलिये मनुष्यको चाहिये कि सच्चिदानन्दघन परमात्माके नामका निरन्तर चिन्तन करता हुआ निष्कामभावसे, केवल परमेश्वरके लिये, शास्त्रविधिसे नियत किये हुए कर्मोका परम श्रद्धा और उत्साहके सहित आचरण करे। 


इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादमें " श्रद्धात्रयविभागयोग" नामक सत्रहवाँ अध्याय ॥ १७ ॥