ॐ श्रीपरमात्मने नमः 

सोलहवाँ अध्याय











उसके उपरान्त श्रीकृष्ण भगवान् फिर बोले, हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा जिन पुरुषोंको प्राप्त है तथा जिनको आसुरी सम्पदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक्-पृथक् कहता हूँ, 


उनमेंसे सर्वथा भयका अभाव, अन्तःकरणकी अच्छी प्रकारसे स्वच्छता, तत्त्वज्ञानके लिये ध्यानयोगमें निरन्तर दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान तथा इन्द्रियोंका दमन, भगवत्पूजा और अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मोंका आचरण एवं वेद-शास्त्रोंके पठन-पाठनपूर्वक भगवान्‌के नाम और गुणोंका कीर्तन तथा स्वधर्म पालनके लिये कष्ट सहन करना एवं शरीर और इन्द्रियोंके सहित अन्तःकरणकी सरलता । 


तथा मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकार भी किसीको कष्ट न देना तथा यथार्थ और प्रिय भाषण , अपना अपकार करनेवालेपर भी क्रोधका न होना, कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानका त्याग एवं अन्तःकरणकी उपरामता अर्थात् चित्तकी चञ्चलताका अभाव और किसीकी भी निन्दादि न करना तथा सब भूत-प्राणियों में हेतुरहित दया; इन्द्रियोंका विषयोंके साथ संयोग होनेपर भी आसक्तिका न होना और कोमलता तथा लोक और शास्त्रसे विरुद्ध आचरणमें लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओंका अभाव। 


तथा तेज, क्षमा, धैर्य और बाहर-भीतरकी शुद्धि एवं किसीमें भी शत्रुभावका न होना और अपनेमें पूज्यताके अभिमानका अभाव, यह सब तो हे अर्जुन ! दैवी सम्पदाको प्राप्त हुए पुरुषके लक्षण हैं।


हे पार्थ! पाखण्ड, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध और कठोर वाणी एवं अज्ञान भी, यह सब आसुरी सम्पदाको प्राप्त हुए पुरुषके लक्षण हैं । 

उन दोनों प्रकारकी सम्पदाओंमें दैवी सम्पदा तो मुक्तिके लिये और आसुरी सम्पदा बाँधनेके लिये मानी गयी है, इसलिये हे अर्जुन ! तू शोक मत कर; क्योंकि तू दैवी सम्पदाको प्राप्त हुआ है।


हे अर्जुन ! इस लोकमें भूतोंके स्वभाव दो प्रकारके माने गये हैं। एक तो देवोंके जैसा और दूसरा असुरोंके जैसा, उनमें देवोंका स्वभाव ही विस्तारपूर्वक कहा गया है, इसलिये अब असुरोंके स्वभावको भी विस्तारपूर्वक मेरेसे सुन।  


हे अर्जुन ! आसुरी स्वभाववाले मनुष्य कर्तव्यकार्यमें प्रवृत्त होनेको और अकर्तव्यकार्यसे निवृत्त होनेको भी नहीं जानते हैं, इसलिये उनमें न तो बाहर-भीतरकी शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण और न सत्यभाषण ही है । 


वे आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य कहते हैं कि जगत् आश्रयरहित और सर्वथा झूठा एवं बिना ईश्वरके अपने-आप स्त्री-पुरुषके संयोगसे उत्पन्न हुआ है; इसलिये केवल भोगोंको भोगनेके लिये ही है, इसके सिवा और क्या है। 


इस प्रकार इस मिथ्या ज्ञानको अवलम्बन करके नष्ट हो गया है स्वभाव जिनका तथा मन्द है बुद्धि जिनकी, ऐसे वे सबका अपकार करनेवाले क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत्का नाश करनेके लिये ही उत्पन्न होते हैं ।


वे मनुष्य दम्भ, मान और मदसे युक्त हुए किसी प्रकार भी न पूर्ण होनेवाली कामनाओंका आसरा लेकर तथा अज्ञानसे मिथ्या सिद्धान्तोंको ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणोंसे युक्त हुए संसारमें बर्तते हैं।


वे मरणपर्यन्त रहनेवाली अनन्त चिन्ताओंको आश्रय किये हुए और विषयभोगोंके भोगनेमें तत्पर हुए एवं इतनामात्र ही आनन्द है, ऐसे माननेवाले हैं । 


इसलिये आशारूप सैकड़ों फाँसियोंसे बँधे हुए और काम-क्रोधके परायण हुए विषय-भोगोंकी पूर्ति के लिये अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत-से पदार्थोको संग्रह करनेकी चेष्टा करते हैं। 


उन पुरुषोंके विचार इस प्रकारके होते हैं कि मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथको प्राप्त होऊँगा तथा मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह होवेगा । 


वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे शत्रुओंको भी मैं मारूंगा तथा मैं ईश्वर और ऐश्वर्यको भोगनेवाला हूँ और मैं सब सिद्धियोंसे युक्त एवं बलवान् और सुखी हूँ।


मैं बड़ा धनवान् और बड़े कुटुम्बवाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है, मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा, हर्षको प्राप्त होऊँगा, इस प्रकारके अज्ञानसे मोहित हैं। 


इसलिये वे अनेक प्रकारसे भ्रमित हुए चित्तवाले अज्ञानीजन मोहरूप जालमें फँसे हुए एवं विषयभोगोंमें अत्यन्त आसक्त हुए महान् अपवित्र नरकमें गिरते हैं । 


वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ माननेवाले घमण्डी पुरुष धन और मानके मदसे युक्त हुए, शास्त्रविधिसे रहित केवल नाममात्रके यज्ञोंद्वारा पाखण्डसे यजन करते हैं। 


वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादिके परायण हुए एवं दूसरोंकी निन्दा करनेवाले पुरुष अपने और दूसरोंके शरीरमें स्थित मुझ अन्तर्यामीसे द्वेष करनेवाले हैं ।


ऐसे उन द्वेष करनेवाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमोंको मैं संसारमें बारंबार आसुरी योनियोंमें ही गिराता हूँ अर्थात् शूकर, कूकर आदि नीच योनियोंमें ही उत्पन्न करता हूँ। 


इसलिये हे अर्जुन ! वे मूढ़ पुरुष जन्म-जन्ममें आसुरीयोनिको प्राप्त हुए मेरेको न प्राप्त होकर उससे भी अति नीच गतिको ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकोंमें पड़ते हैं। 


हे अर्जुन ! काम, क्रोध तथा लोभ यह तीन प्रकारके नरकके द्वार  आत्माका नाश करनेवाले हैं अर्थात् अधोगतिमें ले जानेवाले हैं, इससे इन तीनोंको त्याग देना चाहिये। 


क्योंकि हे अर्जुन ! इन तीनों नरकके द्वारोंसे मुक्त हुआ अर्थात् काम, क्रोध और लोभादि विकारोंसे छूटा हुआ पुरुष अपने कल्याणका आचरण करता है इससे वह परम गतिको जाता है अर्थात् मेरेको प्राप्त होता है। 


जो पुरुष शास्त्रकी विधिको त्यागकर अपनी इच्छासे बर्तता है, वह न तो सिद्धिको प्राप्त होता है और न परमगतिको तथा न सुखको ही प्राप्त होता है। 


इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है, ऐसा जानकर तू शास्त्रविधिसे नियत किये हुए कर्मको ही करनेके लिये योग्य है। 


इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादमें "दैवासुरसम्पद्विभागयोग" नामक सोलहवाँ अध्याय ॥ १६ ॥