ॐ श्री परमात्मने नमः

पंद्रहवाँ अध्याय 


उसके उपरान्त श्रीकृष्णभगवान् फिर बोले कि हे अर्जुन आदि पुरुष परमेश्वर रूप मूलवाले और ब्रह्मारूप मुख्य शाखावाले जिस संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं तथा जिसके वेद पत्ते कहे गये हैं, उस संसार रूप वृक्षको जो पुरुष मूल सहित तत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है ।


हे अर्जुन उस संसार वृक्षकी तीनों गुणरूप जल के द्वारा बढ़ी हुई एवं विषय भोगरूप कोंपलों वाली देव मनुष्य और तिर्यक् आदि योनिरूप शाखाएँ नीचे और ऊपर सर्वत्र फैली हुई हैं तथा मनुष्य योनि में कर्मों के अनुसार बाँधने वाली अहंता ममता और वासनारूप जड़ें भी नीचे और ऊपर सभी लोकोंमें व्याप्त हो रही हैं । 


परंतु इस संसारवृक्षका स्वरूप जैसा कहा है, वैसा यहाँ विचारकालमें नहीं पाया जाता है; क्योंकि न तो इसका आदि है और न अन्त है तथा न अच्छी प्रकारसे स्थिति ही है; इसलिये इस अहंता, ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलोंवाले संसाररूप पीपलके वृक्षको दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्रद्वारा काटकर । 











उसके उपरान्त उस परमपदरूप परमेश्वरको अच्छी प्रकार खोजना चाहिये  कि जिसमें गये हुए पुरुष फिर पीछे संसारमें नहीं आते हैं और जिस परमेश्वरसे यह पुरातन संसारवृक्षकी प्रवृत्ति विस्तारको प्राप्त हुई है, उस ही आदिपुरुष नारायणके मैं शरण हूँ, इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके ।


नष्ट हो गया है मान और मोह जिनका तथा जीत लिया है आसक्तिरूप दोष जिनने और परमात्माके स्वरूपमें है निरन्तर स्थिति जिनकी तथा अच्छी प्रकारसे नष्ट हो गयी है कामना जिनकी, ऐसे वे सुख दुःख नामक द्वन्द्वोंसे विमुक्त हुए ज्ञानीजन, उस अविनाशी परमपदको प्राप्त होते हैं । 


उस स्वयं प्रकाशमय परमपदको न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है तथा जिस परमपदको प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसारमें नहीं आते हैं, वही मेरा परमधाम है ।


हे अर्जुन ! इस देहमें यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है* और वही इन त्रिगुणमयी मायामें स्थित हुई मनसहित पाँचों इन्द्रियोंको आकर्षण करता है। 


कैसे कि वायु गन्धके स्थानसे गन्धको जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिकोंका स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीरको त्यागता है, उससे इन मनसहित इन्द्रियोंको ग्रहण करके फिर जिस शरीरको प्राप्त होता है, उसमें जाता है।


उस शरीरमें स्थित हुआ यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचाको तथा रसना, घ्राण और मनको आश्रय करके अर्थात् इन सबके सहारेसे ही विषयोंको सेवन करता है। 


परंतु शरीर छोड़कर जाते हुएको अथवा शरीरमें स्थित हुएको और विषयोंको भोगते हुएको अथवा तीनों गुणोंसे युक्त हुएको भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं, केवल ज्ञानरूप नेत्रोंवाले ज्ञानीजन ही तत्त्वसे जानते हैं ।


क्योंकि योगीजन भी अपने हृदयमें स्थित हुए इस आत्माको यत्न करते हुए ही तत्त्वसे जानते हैं और जिन्होंने अपने अन्तःकरणको शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानीजन तो यत्न करते हुए भी इस आत्माको नहीं जानते हैं ।


हे अर्जुन ! जो तेज सूर्यमें स्थित हुआ सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमामें स्थित है और जो तेज अग्निमें स्थित है उसको तू मेरा ही तेज जान। 


और मैं ही पृथ्वीमें प्रवेश करके अपनी शक्तिसे सब भूतोंको धारण करता हूँ और रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण ओषधियोंको अर्थात् वनस्पतियोंको पुष्ट करता हूँ ।


तथा मैं ही सब प्राणियोंके शरीरमें स्थित हुआ वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपानसे युक्त हुआ चार प्रकारके अन्नको पचाता हूँ।  


और मैं ही सब प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित हूँ तथा मेरेसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन होता है और सब वेदोंद्वारा मैं ही जाननेके योग्य हैं तथा वेदान्तका कर्ता और वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ।


हे अर्जुन! इस संसारमें नाशवान् और अविनाशी भी यह दो प्रकारके  पुरुष हैं। उनमें सम्पूर्ण भूतप्राणियोंके शरीर तो नाशवान् और जीवात्मा अविनाशी कहा जाता है। 


तथा उन दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है कि जो तीनों लोकोंमें प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा ऐसे कहा गया है। 


क्योंकि मैं नाशवान्, जडवर्ग क्षेत्रसे तो सर्वथा अतीत हूँ और मायामें स्थित अविनाशी जीवात्मासे भी उत्तम हूँ, इसलिये लोकमें और वेदमें भी पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ । 


हे भारत ! इस प्रकार तत्त्वसे जो ज्ञानी पुरुष मेरेको पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकारसे निरन्तर मुझ वासुदेव परमेश्वरको ही भजता है।


हे निष्पाप अर्जुन ! ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरेद्वारा कहा गया, इसको तत्त्वसे जानकर मनुष्य ज्ञानवान् और कृतार्थ हो जाता है अर्थात् उसको और कुछ भी करना शेष नहीं रहता । 


इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादमें "पुरुषोत्तमयोग" नामक पंद्रहवाँ अध्याय ॥ १५ ॥