ॐ श्रीपरमात्मने नमः
तेरहवाँ अध्याय

उसके उपरान्त श्रीकृष्णभगवान् फिर बोले, हे अर्जुन ! यह शरीर क्षेत्र  है, ऐसे कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ, ऐसा उनके तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानीजन कहते हैं 



और हे अर्जुन ! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा भी मेरेको ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका अर्थात् विकारसहित प्रकृतिका और पुरुषका जो तत्त्वसे जानना है । वह ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है 


इसलिये वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारोंवाला है और जिस कारणसे जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाववाला है, वह सब संक्षेपसे मेरेसे सुन,


यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका तत्त्व ऋषियोंद्वारा बहुत प्रकारसे कहा गया है अर्थात् समझाया गया है और नाना प्रकारके वेदमन्त्रोंसे विभागपूर्वक कहा गया है तथा अच्छी प्रकार निश्चय किये हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्रके पदोंद्वारा भी वैसे ही कहा गया है। 


हे अर्जुन ! वही मैं तेरे लिये कहता हूँ कि पाँच महाभूत अर्थात् आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वीका सूक्ष्म भाव, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी माया भी तथा दस इन्द्रियाँ अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण एवं वाक्, हस्त , पाद, उपस्थ और गुदा, एक मन और पाँच इन्द्रियोंके विषय अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध । 


तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और स्थूल देहका पिण्ड एवं चेतनता और धृति इस प्रकार यह क्षेत्र विकारोंके सहित संक्षेपसे कहा गया ।  


हे अर्जुन ! श्रेष्ठताके अभिमानका अभाव, दम्भाचरणका अभाव प्राणिमात्रको किसी प्रकार भी न सताना और क्षमाभाव तथ मन वाणीकी सरलता, श्रद्धा-भक्तिसहित गुरुकी सेवा, बाहर-भीतरक शुद्धि, अन्तःकरणकी स्थिरता, मन और इन्द्रियोंसहित शरीरक निग्रह।


इस लोक और परलोकके सम्पूर्ण भोगोंमें आसक्तिक अभाव और अहंकारका भी अभाव एवं जन्म-मृत्यु-जरा और रोग आदिमें दुःख दोषोंका बारंबार विचार करना ।


पुत्र, स्त्री, घर और धनादिमें आसक्तिका अभाव और ममताका न होना तथा प्रिय अप्रियकी प्राप्तिमें सदा ही चित्तका सम रहना अर्थात् मनके अनुकूल तथा प्रतिकूलके प्राप्त होनेपर हर्ष शोकादि विकारोंका न होना । 


मुझ परमेश्वरमें एकीभावसे स्थितिरूप ध्यानयोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देशमें रहनेका स्वभाव और विषयासक्त मनुष्योंके समुदायमें प्रेमका न होना । 


तथा अध्यात्मज्ञानमें नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्माको सर्वत्र देखना, यह सब तो ज्ञान है और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है ऐसे कहा है ।


हे अर्जुन ! जो जाननेके योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्दको प्राप्त होता है, उसको अच्छी प्रकार कहूँगा, वह आदि  रहित, परम ब्रह्म अकथनीय होनेसे न सत् कहा जाता है और न असत् ही कहा जाता है। 


परंतु वह सब ओरसे हाथ पैरवाला एवं सब ओरसे नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब ओरसे श्रोत्रवाला है; क्योंकि वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है । 


और सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाला है, परंतु वास्तवमें सब इन्द्रियोंसे रहित है तथा आसक्तिरहित और गुणोंसे अतीत हुआ भी अपनी योगमायासे सबको धारण-पोषण करनेवाला और गुणोंको भोगनेवाला है।  

तथा वह परमात्मा चराचर सब भूतोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर अचररूप भी वही है और वह सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय है तथा अति समीपमें और दूरमें भी स्थित वही है। 


और वह विभागरहित एकरूपसे आकाशके सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर सम्पूर्ण भूतोंमें पृथक् पृथक्के सदृश स्थित प्रतीत होता है तथा वह जाननेयोग्य परमात्मा, विष्णुरूपसे भूतोंको धारण-पोषण करनेवाला और रुद्ररूपसे संहार करनेवाला तथा ब्रह्मारूपसे सबका उत्पन्न करनेवाला है।


वह ब्रह्म ज्योतियोंका भी ज्योति एवं मायासे अति परे कहा जाता है तथा वह परमात्मा बोधस्वरूप और जाननेके योग्य है एवं तत्त्वज्ञानसे प्राप्त होनेवाला और सबके हृदयमें स्थित है। 


हे अर्जुन! इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और जाननेयोग्य परमात्माका स्वरूप संक्षेपसे कहा गया, इसको तत्त्वसे जानकर मेरा भक्त मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है। 


हे अर्जुन! प्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी मेरी माया और जीवात्मा अर्थात् क्षेत्रज्ञ, इन दोनोंको ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थो को भी प्रकृति से उत्पन्न हुए जान ।


क्योंकि कार्य और करण के उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख दुःखोंके भोक्तापनमें अर्थात् भोगनेमें हेतु कहा जाता है। 


परंतु प्रकृतिमें स्थित हुआ ही पुरुष प्रकृतिसे उत्पन्न हुए त्रिगुणात्मक सब पदार्थोंको भोगता है और इन गुणोंका सङ्ग ही इस जीवात्माके अच्छी, बुरी योनियोंमें जन्म लेनेमें कारण है ।


वास्तवमें तो यह पुरुष इस देहमें स्थित हुआ भी पर अर्थात् त्रिगुणमयी मायासे सर्वथा अतीत ही है, केवल साक्षी होनेसे उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देनेवाला होनेसे अनुमन्ता एवं सबको धारण करनेवाला होनेसे भर्ता, जीवरूपसे भोक्ता तथा ब्रह्मादिकोंका भी स्वामी होनेसे महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होनेसे परमात्मा, ऐसा कहा गया है । 


इस प्रकार पुरुषको और गुणोंके सहित प्रकृतिको जो मनुष्य तत्त्वसे जानता है वह सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी फिर नहीं जन्मता है अर्थात् पुनर्जन्मको नहीं प्राप्त होता है। 


हे अर्जुन ! उस परम पुरुष परमात्माको कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिसे ध्यानके द्वारा हृदयमें देखते हैं तथा अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा देखते हैं और अपर कितने ही निष्काम कर्मयोगके द्वारा देखते हैं । 


परंतु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्दबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही उपासना करते हैं , अर्थात् उन पुरुषोंके कहनेके अनुसार ही श्रद्धासहित तत्पर हुए साधन करते हैं और वे सुननेके परायण हुए पुरुष भी मृत्युरूप संसारसागरको निःसंदेह तर जाते हैं। 


हे अर्जुन ! यावन्मात्र जो कुछ भी स्थावर, जङ्गम वस्तु उत्पन्न होती है, उस सम्पूर्णको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगसे ही उत्पन्न हुई जान अर्थात् प्रकृति और पुरुषके परस्परके सम्बन्धसे ही सम्पूर्ण जगत्की स्थिति है, वास्तवमें तो सम्पूर्ण जगत् नाशवान् और क्षणभङ्गुर होनेसे अनित्य है।


इस प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतोंमें नाशरहित परमेश्वरको समभावसे स्थित देखता है, वही देखता है। 


क्योंकि वह पुरुष सबमें समभावसे स्थित हुए परमेश्वरको समान देखता हुआ अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है अर्थात् शरीरका नाश होनेसे अपने आत्माका नाश नहीं मानता है, इससे वह परमगतिको प्राप्त होता है ।


और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मोंको सब प्रकारसे प्रकृतिसे ही किये हुए देखता है अर्थात् इस बातको तत्त्वसे समझ लेता है कि प्रकृतिसे उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें वर्तते हैं तथा आत्माको अकर्ता देखता है, वही देखता है। 


और यह पुरुष जिस कालमें भूतोंके न्यारे-न्यारे भावको एक परमात्माके संकल्पके आधार स्थित देखता है तथा उस परमात्माके संकल्पसे ही सम्पूर्ण भूतोंका विस्तार देखता है, उस कालमें सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होता है। 


हे अर्जुन ! अनादि होनेसे और गुणातीत होनेसे यह अविनाशी परमात्मा, शरीरमें स्थित हुआ भी वास्तवमें न करता है और न लिपायमान होता है। 


जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश सूक्ष्म होनेके कारण लिपायमान नहीं होता है, वैसे ही सर्वत्र देहमें स्थित हुआ भी आत्मा गुणातीत होनेके कारण देहके गुणोंसे लिपायमान नहीं होता है। 


हे अर्जुन ! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्रको प्रकाशित करता है अर्थात् नित्यबोधस्वरूप एक आत्माकी ही सत्तासे सम्पूर्ण जडवर्ग प्रकाशित होता है। 


इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके भेदको तथा विकारसहित प्रकृतिसे छूटनेके उपायको जो पुरुष ज्ञाननेत्रद्वारा तत्त्वसे जानते हैं, वे महात्माजन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं। 


इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादमें "क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग" नामक तेरहवाँ अध्याय ॥ १३ ॥