श्रीमद् देवी भागवत पुराण की श्रवण विधि, श्रवण के महान् फल तथा माहात्म्य का वर्णन
ऋषिगण बोले- महाभाग सूतजी! हम देवीभागवतके उत्तम महात्म्यको सुन चुके हैं। अब पुराणश्रवणकी विधि सुनना चाहते हैं।
सूतजी कहते हैं— मुनिगणो! विद्वान पुरुष को चाहिए कि सर्वप्रथम ज्योतिष को बुलाकर उससे मुहूर्त प्रश्न पूछे । ज्येष्ठ मास लेकर छह महीने पुराणश्रवण के लिए उत्तम हैं। हस्त, अश्विनी, मूल, पुष्य, रोहिणी, श्रवण एवं मृगशिरा तथा अनुराधा नक्षत्र, पुण्यतिथियाँ और शुभग्रह वार इनमें- कथा आरम्भ करने से उत्तम फल प्राप्त होता है। जिस नक्षत्र में बृहस्पति हों, उससे चन्द्रमातक गिने । क्रमशः फल यों समक्षणा चाहिए - चारतक धर्मप्राप्ति, फिर चारतक लक्ष्मीप्राप्ति, इसके बाद एक नक्षत्र कथा में सिद्धि देनेवाला, फिर पांच नक्षत्र सुखकर, बाद में छः नक्षत्र पीड़ा देनेवाले, इसके बाद चार नक्षत्र राजभय उपस्थिति करनेवाले, तदनन्तर तीन नक्षत्र ज्ञानप्राप्तिमें सहायक होते हैं। हैं। पुराणश्रवणके आरम्भ में इस चक्र पर अवश्य विचार कर लेना चाहिये,
यह भगवान् शंकरका कथन है। अथवा भगवती जगदम्बिकाको प्रसन्न करनेके लिये चार नवरात्रोंमें इसका श्रवण करना चाहिये। इसके सिवा अन्य महीनेमें भी इसे सुना जा सकता है; परंतु तब भी तिथि, नक्षत्र और दिनके सम्बन्धमें विचार करना परम आवश्यक है। विवेकशील पुरुषका कर्तव्य होता है कि विवाह आदि यज्ञोंमें जैसी सामग्री आवश्यक होती है, वैसी ही सामग्री इस नवाहयज्ञमें भी एकत्रित करनेका प्रयत्न करे! दम्भ और लोभसे रहित अनेकों सहायक विद्वान् रहने चाहिये। भगवती जगदम्बिकामें भक्ति रखनेवाले चार अन्य पुरुष कथावाचकके अतिरिक्त बैठकर पाठ करें। प्रत्येक दिशामें यों समाचार भेजना चाहिये- 'आपलोग यहाँ अवश्य पधारें, श्रीमद्देवीभागवतकी कथा आरम्भ हो रही है। सूर्य, गणेश, शिव, शक्ति अथवा विष्णु - किन्हीं भी देवताओंमें भक्ति रखनेवाले क्यों न हों, वे सभी इस कथा श्रवण के अधिकारी हैं; क्योंकि सभी देवता भगवती आद्यशक्ति की पूजा तो करते ही हैं।
श्रीमद्देवीभागवत की कथा अमृतमयी है। इसमें अटूट प्रेम रखने वाले सज्जान इस रसको पीने की उत्कट इच्छा से यहाँ अवश्य पधारनेकी कृपा करें। ब्राह्मण आदि चारों वर्ण, स्त्रियाँ, अश्रमवासी, चाहे सकाम हों या निष्काम- सभी इस कथारूपी अमृतका पान करने के अधिकारी हैं।
यदि नौ दिनों तक कथा सुनने का अवकाश न मिले तो इस पुण्यमय यज्ञ में यथावसर कुछ समय के लिए तो अवश्य ही आना चाहिये। अत्यन्त नम्रता के साथ जनसमाज में निमन्त्रण भेजना चाहये। आये हुए सज्जनो को ठहराने के लिए समुचित स्थान का प्रबन्ध करें! धरती को झाड़-बुहारकर कथाका स्थान सजावे । वहाँ की भूमि विस्तृत हो। उसे गोबर से लीप देना चाहिए। वहाँ सुन्दर मण्डप बनावे । केलेके खम्भ लगाये जायँ। ऊपर चाँदनी लगा दी जाय। ध्वजा और पताकाओं से मण्डप की सजावट होनी चाहिये। कथावाचक के लिए दिव्य आसन लगावे। उस आसन पर सुखप्रद बिछौना होना चाहिए। यत्नपूर्वक ऐसा आसन बनावे वक्ता पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके कथा बाँच सके। कथा सुनने के लिए स्त्री-पुरुष सभी आवें और उनके लिए समुचित आसनों की व्यवस्था हो । सुन्दर ढंग से प्रवचन करनेवाले, इन्द्रिय-विजयी, शास्त्रज्ञानी, देवी के उपासक, दयाशील, निःस्पृह, उदार और सत-असत्का ज्ञान रखनेवाले विद्वान पुरुष उत्तम वक्ता माने जाते हैं।
श्रोता वह उत्तम है, जो ब्रह्म में आस्था रखता है, जिसकी देवताओं में भक्ति हो तथा जो कथारूपी रसका पान करना चाहता हो। साथ ही उदार, निर्लोभी और नम्र तथा हिंसादिसे वर्जित भी हो।
पाखण्ड रचनेवाला, लोभी, स्त्री- लम्पट, धर्मध्वजी, कदुभाषी और क्रोधी स्वभाववाला वक्ता देवीयज्ञमें श्रेष्ठ नहीं माना गया है। श्रोताओंको समझानेमें तत्पर रहनेवाले एक प्रकाण्ड विद्वान् संदेह - निवारण करनेके लिये सहायकरूपमें कथावाचकके पास बैठाये जायँ। कथा आरम्भ होनेके पहले ही दिन वक्ता और श्रोतागण क्षौरकर्म करा लें। इसके बाद नियमपालन करनेमें लग जायें। शौच आदिसे निवृत्त होकर अरुणोदय वेलामें ही स्नान कर लें। संध्या, तर्पण आदि नित्यकर्म संक्षेपसे करें। श्रीमद्देवीभागवतकी कथा सुननेका अधिकारी बननेके लिये गोदान करना चाहिये।
श्रीमद्देवीभागवतकी पुस्तक सुन्दर अक्षरोंसे सम्पन्न भगवतीकी वाङ्मयी मूर्ति है। सम्पूर्ण उपचारोंसे इसकी पूजा परम आवश्यक है। कथाकी निर्विघ्न समाप्तिके लिये पाँच ब्राह्मणोंका वरण करे। वे ब्राह्मण 'नवार्णमन्त्र' का जप और 'दुर्गासप्तशती' का पाठ करें। प्रदक्षिणा और नमस्कार करनेके पश्चात् भगवतीकी यों स्तुति करनी चाहिये-
'कात्यायनी! आप महामाया एवं जगत्की अधीश्वरी हैं। भवानी! आपकी मूर्ति कृपामयी है। मैं संसाररूपी सागरमें डूब रहा हूँ, मेरा उद्धार कीजिये। ब्रह्मा, विष्णु एवं शिवसे सुपूजित होनेवाली जगदम्बिके! आप मुझपर प्रसन्न हों। देवी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मुझे अभिलषित वर देनेकी कृपा करें।'
इस प्रकार प्रार्थना करने के पश्चात् मनको एकाग्र करके कथा सुने। व्यासस्वरूप मानकर समाहित चित्तसे कथावाचककी पूजा करे। माला, अलंकार एवं वस्त्र आदि से स्वागत करके व्यासदेव की यो प्रार्थना करें' भगवन्! आप व्यासस्वरूप हैं। सम्पूर्ण शास्त्रों एवं इतिहासों का रहस्य आपको विदित है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। कथारूपी चंद्रमाको उदय करके मेरे अंतःकरण के अन्धकार को दूर करने की 'कृपा करें।' नौ दिनों तक सभी नियम प्रथम दिन की तरह करने चाहिये ।
ब्राह्मणोंको बैठाकर उनकी पूजा करने के पश्चात् स्वयं बैठे। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थ -प्राप्त करने के लिये खूब सावधानी से कथाश्रवण करना चाहिए। उस समय घर, स्त्री, पुत्र और धन-सम्बन्धी चिन्ता बिल्कुल दूर कर दे। पण्डितजी सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त होने के कुछ समय पहले कथा बाँचें। दोपहर में केवल दो घड़ी विश्राम करना चाहिए। लघुशंका और शौच पर नियंत्रणण रहे अर्थात् बारंबर न जाना पड़े इसके लिये थोड़ा भोजन करना उत्तम है। वास्तव में तो कथार्थी एक समय केवल हविष्यान्न खायें यही ठीक है या वे फल, दूध एवं घृतके आधारपर रह सकते हैं। विचारशील पुरुष को चाहिये कि जिससे कथा में विघ्न न पड़े, वैसे ही भोजन की व्यवस्था, कर ले।
द्विजवारो! अब कथा-श्रवण में निष्ठा रखनेवालों के नियम बताता हूँ। जो ब्रह्मा, विष्णु और शंकर में भेद दृष्टि रखते हैं, भगवती जगदम्बिका में जिनकी भक्ति नहीं होती तथा जो पाखंडी, हिंसक, कपटी, ब्राह्मणद्रोही और नास्तिक हैं, उन्हें श्रीमद्देवीभागवत की कथा सुनने का अधिकार नहीं है। ब्राह्मणका धन अपहरण करनेवाले, दूसरेकी स्त्रीपर दृष्टि डालनेवाले तथा देवताके धनपर अधिकार जमानेवाले लोभी मनुष्य कथा श्रवणके अनधिकारी हैं।
व्रती पुरुष ब्रह्मचर्यका पालन करे, जमीनपर सोवे, सत्य बोले, इन्द्रियोंपर काबू रखे और कथा समाप्त होनेपर रातमें संयमपूर्वक पत्रावलीमें भोजन करे। बैंगन, तेल, दाल, मधु एवं जला हुआ, बासी तथा भावदूषित अन्न त्याग दे। मांस, मसूर, ऋतुमती स्त्रीका देखा हुआ अन्न, मूली, हींग, प्याज, लहसुन, गाजर, कोहड़ा और नालिका नामक साग न खाय।
काम, क्रोध, लोभ, मद, दम्भ एवं अभिमानको पास न आने दे। ब्राह्मण-द्रोही, 'पतित, संस्कारहीन, चाण्डाल, यवन, ऋतुमती स्त्री और वेदविहीन मनुष्योंके साथ कथाके व्रतमें संलग्न पुरुष बातचीततक न करे। वेद, गौ, ब्राह्मण, गुरु, स्त्री, राजा, महान् पुरुष, देवता तथा देवताके भक्त इनकी निन्दा कानसे भी न सुने। जो कथाव्रती पुरुष हैं, उन्हें चाहिये कि सदा नम्र रहें, निष्कपट व्यवहार करें, पवित्रता रखें, दयालु बनें, थोड़ा बोलें और मन-ही-मन उदारता प्रकट करते रहें। श्वेतकुष्ठी, कुष्ठी, क्षय रोगवाला, भाग्यहीन, पापी, दरिद्र और संतानहीन जन भी भक्तिपूर्वक इस कथाको सुन सकते हैं। जो स्त्री वन्ध्या है, भाग्यहीना है। तथा जिसे एक संतानके बाद पुनः संतान नहीं हुई हो अथवा जिसके बच्चे मर जाते या गर्भ ही गिर जाता हो—ये स्त्रियाँ श्रीमद्देवीभागवतकी कथा सुनें। जो पुरुष बिना परिश्रम ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पानेकी अभिलाषा रखता है, वह यत्नपूर्वक श्रीमद्देवीभागवतकी कथा सुने। कथाके ये नौ दिन नौ यज्ञोंके समान हैं। इनमें किया हुआ दान, हवन, जप अनन्त फल देनेवाला होता है।
इस प्रकार नवाहव्रत करके कथाका उद्यापन करना चाहिये। फलकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुष महाष्टमीव्रतके समान इसका भी उद्यापन करें। निष्काम पुरुष कथा- श्रवणमात्रसे ही पवित्र होकर आवागमनसे रहित हो जाते हैं; क्योंकि निजजनोंको भोग और मोक्ष प्रदान कर देना भगवती जगदम्बिकाका स्वभाव ही है। पुस्तक और कथावाचककी प्रतिदिन पूजा करनी चाहिये। वक्ताके दिये हुए प्रसादको भक्तिपूर्वक स्वीकार कर लें । जो पुरुष प्रतिदिन कुमारी कन्याओंकी पूजा करता, उन्हें जिमाता और प्रार्थना करता है, साथ ही सुवासिनी स्त्रियों और ब्राह्मणोंको भी भोजन कराता है, उसकी कार्यसिद्धिमें कुछ भी संदेह नहीं रहता। कथासमाप्तिके दिन सम्पूर्ण दोषोंके शमनार्थ गायत्री सहस्त्रनाम अथवा विष्णुसहस्त्रनामका पाठ करना चाहिये। जिनके स्मरण और नामोच्चारणसे तप, यज्ञ एवं क्रियाओंमें न्यूनता नहीं रह जाती, उन भगवान् विष्णुका कीर्तन अवश्य करना चाहिये। समाप्तिके दिन दुर्गासप्तशती - मन्त्रोंसे या देवीभागवतके मूल पाठसे अथवा नवार्णमन्त्रसे हवन करनेका विधान है। अथवा गायत्री- मन्त्रका उच्चारण करके घृतसहित खीरका हवन करना चाहिये; क्योंकि इस श्रीमद्देवीभागवतको गायत्रीका स्वरूप ही कहा गया है। वस्त्र, भूषण और धनसे कथा- वाचकको संतुष्ट करना चाहिये। कथावाचकके प्रसन्न हो जानेपर सम्पूर्ण देवताओंकी प्रसन्नता उपलब्ध हो जाती है। भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको
भोजन कराकर उन्हें दक्षिणासे संतुष्ट करे; क्योंकि ब्राह्मण पृथ्वीपर देवताके स्वरूप हैं। उनके प्रसन्न होनेपर अपनी अभिलाषा पूर्ण हो जाती है। देवीमें भक्ति रखनेवाला पुरुष सुहागिनी स्त्रियोंको और कुमारी कन्याओंको भोजन करावे और उन्हें दक्षिणा देकर अपने कार्यकी सिद्धि होनेके लिये उनसे प्रार्थना करे। सुवर्ण, दूध देनेवाली गाय, हाथी, घोड़े तथा पृथ्वी आदिका भी दान देना चाहिये। इस दानका अक्षय फल होता है। यह श्रीमद्देवीभागवत सुन्दर अक्षरोंमें लिखा जाय। इसे रेशमी वस्त्रके वेष्टनमें लपेटकर सुवर्णके सिंहासनपर रखे और अष्टमी अथवा नवमीके दिन कथा वाचककी पूजा करके उन्हें दे दे। ऐसा करनेसे वह पुरुष इस लोकमें भोगोंको भोगकर अन्तमें दुर्लभ मुक्ति पा जाता है।
पुराणकी जानकारी रखनेवाला दरिद्र, दुर्बल, बालक, तरुण अथवा बूढ़ा पुरुष भी नमस्कार करानेका अधिकारी, पूज्य एवं सर्वदा आदरणीय माना जाता है। गुण एवं जन्म देनेवाले जगत्में अनेकों गुरु हैं; किंतु उन सबकी अपेक्षा पुराणका ज्ञाता गुरु ही सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। पुराणकी जानकारी रखनेवाला ब्राह्मण यदि व्यासगद्दीपर बैठकर कथा बाँच रहा हो तो प्रसंग समाप्त होनेके पूर्व किसीको प्रणाम न करे। पुराणकी कथा परम पवित्र है। जो इसे उपेक्षाबुद्धिसे सुनते हैं, उन्हें फल तो मिलता ही नहीं, उलटे 'दुःख और दारिद्र्य भोगने पड़ते हैं। पुराणके जाननेवाले पुरुषको आसन, पात्र, द्रव्य, फल, वस्त्र और कम्बल देनेवाले बड़भागीजन भगवद्धामके अधिकारी होते हैं। जो पुस्तकको रेशमी वस्त्र और सूत्रसे वेष्टित करके दान करते हैं, उन पुरुषोंको अनेक सुख भोगनेका अवसर मिलता है।
यदि कोई पुरुष जिस किसी प्रकारसे भी देवीभागवतकी नौ आवृत्तियाँ सुन चुका हो, उसके फलका कहाँतक वर्णन किया जाय- वह तो जीवन्मुक्त ही हो जाता है। राजासे शत्रुता हो जाय, हैजा आदि महामारीका प्रकोप हो, अकाल पड़ जाय अथवा राष्ट्रविप्लव हो तो इन सबके भयकी शान्तिके लिये यह देवीभागवत सुनना चाहिये। द्विजगणो भूत- प्रेत-सम्बन्धी बाधा शान्त करने, शत्रुसे राज्य पाने तथा पुत्रोत्सव होनेके लिये इस देवीभागवतका श्रवण परम आवश्यक है।
श्रीमद्देवीभागवतके आधे श्लोक अथवा आधे पादका भी श्रवण, पठन करनेवाला पुरुष परमपदका अधिकारी हो जाता है। स्वयं भगवती जगदम्बिकाके श्रीमुखसे आधा श्लोक ही निकला। तत्पश्चात् शिष्यपरम्परासे उसीका इतना विस्तृत देवीभागवत तैयार हो गया।
गायत्री से बढ़कर न कोई धर्म है न तपस्या है, न देवता है और न भजने योग्य ही है। गायत्री शरीर की रक्षा करती है, अतएव इसे 'गायत्री' कहते हैं। वही गायत्री इस देवीभागवत में, अपने रहस्यों सहित विद्यामान है। यह देवीभागवतपुराण जगदम्बिका को प्रसन्न करने का अचूक साधन है। श्रीमद्देवीभागवत परम पावन पुराण है। ब्राह्मणों का यह एकमात्र धन है। नारायणस्वरूप धर्मनन्दन युधिष्ठिरने इसमें धर्म की पर्याप्त व्याख्या की गई है। गायत्रीका रहस्य, निवासभूत भगवती के मणिद्वीपका वर्णन एवं स्वयं भगवती द्वारा हिमालय से कही गई गीता का वर्णन भी इसमें है। जिसके संपूर्ण प्रभाव को महान् देवतागण भी नहीं जान पाते उन भगवती जगदम्बिका के चरणों में निरन्तर प्रणाम है। जिनके चरणकमलों की धूल के प्रभाव से ब्रह्माजी इस जगत्की सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और रुद्र संहार करने में सफल होते हैं, उन भगवती जगदम्बिका के चरणों में निरन्तर प्रणाम है।
मणिद्वीप पर भगवती जगदम्बिकाका भव्य भवन विराजमान है। यह भवन चिन्तामणि आदि रत्नों से बना है। अमृतसे भरे कूप और दिव्य वृक्ष उसकी शोभा बढ़ाते हैं। भगवान् शंकरके हृदय में स्थान पानेवाली प्रसन्नवदना भगवती जगदम्बिका वहाँ विराजती हैं। बड़ेभागी पुरुष उनका ध्यान करके भोग भोगनेके पश्चात् निश्चय ही परमपद भी पा जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर एवं इन्द्र आदि देवता जिनकी उपासना करते हैं, वे मणिद्वीप की अधिष्ठात्री देवी भगवती जगदम्बिका जगत्का कल्याण सम्पादन करें।
अध्याय 05
श्रीमद् देवी भागवत माहात्म्य समाप्त
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