पूजा या जप के पूर्व भगवती का ध्यान करना परमावश्यक है क्योंकि ---
संसारक्षय कृत्त्राण धर्मतो मन्त्र उच्यते ।।
सारे आगमों का मुख्य भाग मन्त्रात्मक हैं
मन्त्र है क्या ???
"मन्त्रा श्र्चिन्म रीचय:"
बुद्धिमान ससंयोग मन्त्र इत्यभि नीयतें ।।
'मकार' का अर्थ है मनन करना । 'त्रकार' का अर्थ है बुद्धि । अतः बुद्धिपूर्वक मानसिक व्यापार ही मन्त्र है।
'मकार' जीव एवं 'त्रकार' आत्मा का ऐक्य निष्पादन ही मन्त्र है इन दोनों का ऐक्य निष्पादन या इनकी एकता का अनुसन्धान ही अध्यात्म शास्त्र का चरम लक्ष्य है ।
'मननात् त्रायते इति मन्त्र:'
कहकर शास्त्रकारो ने मन्त्र की दैहिक, दैविक एवं भौतिक समस्त आघातों से रक्षा करने की उसकी अभ्दुत क्षमता की ओर संकेत किया है
"मन्त्र परत लघु जासु वश विधि हरि हर सुरसर्व"
यह भी ध्यातव्य है कि मन्त्र एवं विद्या में भेद हैं
भैरव, गणेश, शिव, आदि पुरुषाकार देवों को मन्त्र किन्तु शक्ति के मन्त्रों को विद्या कहते हैं
मन्त्र के सप्ताङ्ग
प्रत्येक मन्त्र के सात अङ्ग होते हैं
अङ्गन्यासस्तथा ध्यानं मन्त्राङ्गानां च सप्तकम् ।।
ऋषि ---
'ऋ' का अर्थ है सृष्टि, 'षि' का अर्थ है स्थिति ।
ऋषि ही स्त्रष्टा एवं पालक ( अधिष्ठाता ) हैं
छन्द ---
छन्द देवों के आच्छादक हैं मन्त्रों का वर्ण-मात्रा आदि से नियन्त्रित या नियमित रूप ही छन्द है ।
इसका न्यास मुख में इसलिए किया जाता है क्योंकि इसकी अभिव्यक्ति मुख द्वारा ही होती हैं ।
'छकार' का अर्थ है पद, 'दकार' का अर्थ है अभिलाषा । अभिलषित पद की प्राप्ति ही छन्द का प्रतीकार्थ हैं ।
बीज ---
यह जगन्निर्माण की शक्ति है । इसको अत्यन्त गुप्त रखना चाहिए, शायद इसीलिए इसका न्यास गुह्यस्थान पर किया जाता है ।
शक्ति ---
मन्त्र का सम्पूर्ण सामर्थ्य, ओज, तेज एवं वर्चस्व ही शक्ति है । साधना निरन्तर चलती रहे - आगे बढती रहे शायद इसीलिए चरणों ( गति के साधन चरणों ) में शक्ति का न्यास किया जाता है। धुरी पर ही पूरा चक्र घूमता है अतः कील ( धुरी ) का न्यास सर्वाङ्गात्मक सम्पूर्ण शरीर हैं ।
अशुद्ध शरीर भगवान् की पूजा के योग्य है ही नहीं ।
अतः न्यास का विधान हैं ---
ध्यानं विना भवेन्मूकः सिद्धमन्त्रोअ्पि साधकः
मन्त्र चैतन्य क्या है ?
शब्द और मन्त्र ---
मंत्र चेतन शब्दों की समष्टि है शब्द के अनेक प्रकार हैं
०१. शब्दतन्मात्रा
०२. आकाश रूप शब्द
०३. आकाश के गुण के रूप में शब्द
०४ वायु के गुण में रूप के शब्द
01.आहत शब्द
02. आनाहत शब्द
आध्यात्मिक जगत् में शब्द के दो प्रकार हैं
०१. किसी अर्थ के ज्ञात या हो जाने पर उसे व्यक्त करने हेतु मन:प्रेरित वायु के आधात से कण्ठ, तालु आदि विशेष स्थानों से उच्चारित शब्द ।
०२. अन्तःकरण में अर्थ को उद्भासित करने चैतन्य रूप शब्द ( स्फोट,शब्दब्रह्म )
स्फोट क्या है?
जिससे अर्थ स्फुटित हो । अर्थ का स्फुरण स्पन्दन ( कम्पन ) से होता है कम्पन नदयुक्त होता है । अतः कम्पन "शब्दब्रह्म" चैतन्य स्पन्दन से ही सूक्ष्म अर्थ, शब्दतन्मात्रा, आकाश, स्थूल शब्द, स्थूल सृष्टि आदि सभी का आविर्भाव हुआ है शब्दब्रह्म ही सगुण ब्रह्म है । यही मंत्र का मूल है । मन्त्र, देवता एवं गुरु एकाकार हैं । मन्त्र समस्त सृष्टि का मूल है और चैतन्य स्वरूप परमात्मा है । मन्त्र के प्रति सामान्य शब्दभाव नहीं रखना चाहिए प्रत्युत ब्रह्मभाव रहना चाहिए मन्त्र चैतन्य रूप से स्फुरित होने लगे तभी मन्त्र की सार्थकता है
मन्त्र चैतन्य और उसका महत्व
जब तक मन्त्राक्षर जागते नहीं - उनमें अवस्थित शक्ति उनमें निद्रित रहती है
तब तक सारे मन्त्र जड़ वर्णों की समष्टि मात्र है । इसीलिए तान्त्रिकों ने इन्हें पशुभाव में अवस्थित माना है ।
मन्त्र आपने तत्विक स्थिति में ---
०१. शक्त्यात्मक
०२. शिवात्मक हैं
सर्वे वर्णात्मका मन्त्रास्ते च शक्त्यात्मका: प्रिये ।
शक्तिस्तु मातृका ज्ञेया सा च ज्ञेया शिवात्मिका ।।
तथापि यह अपनी सामान्य अवस्था में मन्त्र कहलाने के योग्य भी नहीं है ---
"उच्चार्यमाणा ये मन्त्रा न मन्त्राश्र्चापि तान्विदु:" क्योंकि इनमें मन्त्रों का प्राण शक्तितत्व नहीं रहता और शक्ति ही मन्त्रों का प्राण है---
"मन्त्राणां जीवभूता तु या स्मृता शक्तिरव्यया"
अतः
'पशुभावे स्थिरा मन्त्रा: केवला वर्णरूपिका:'
यदि हमें अपने को इस प्रकार भावना करनी है कि ---
(०१.) आत्मनं चिन्तयेद् देवीं शक्तिमाधद्या स्वरूपिणीम् ।
(०२.) आत्मानां चिन्तयेद् देवीं परमानन्द रूपिणीम् ।
और मंत्र के वर्ण यदि शक्ति हैं ---
'वर्णरूपेण सा देवी जगदाधार रूपिणीम्'
तथा यह भी कल्पना करनी है कि ---
अहं देवि ! न चान्यो अस्मि ब्रह्मैवाहं न शोकभाक् ।
सच्चिदानन्द रूपो अहम नित्यमुक्त: स्वभाववान् ।।
तब तो मन्त्र में भी अपने मन्त्रवाच्या का दर्शन होना चाहिए , क्योंकि वह मन्त्रस्वरूपा है ।।
मन्त्ररूपा परा देवी तथैव गुरुरूपिणी ।
क्लीं क्लीं क्लीं रूपिका देवि क्रीं क्रीं क्रीं नामधारिणी ।।
ॐ ऐं क्लीं ह्लीं श्रीं परा च क्लीङ्कारी परमा कला ।।
श्रीं श्रींङ्कारा महाविद्या श्रद्धा श्रद्धावती तथा ।।
ह्रींकार रूपा ह्रींकारी वाग्बीजाक्षर भूषणा।
बीजाख्या नेत्रहृदया ह्रीं बीजा भुवनेश्वरी ।।
अत: मन्त्र तभी जपनीय है जब वह चेतन हो जाय । क्योंकि---
'चैतन्यरहितं मन्त्रं तो जपेत् से च पापकृत्' क्योंकि---
मन्त्राश्र्चैतन्य संहिता: सर्वसिद्धि करा: स्मृता:
# मन्त्र - चैतन्यीकरण की पद्धतियां
मन्त्र चैतन्य का प्रथम स्वरूप
षट्चक्रों के कमल वर्णरूप हैं ये वर्ण सृष्टिक्रम से कमलदलों पर आते हैं और ये संहारक्रम से कुण्डलिनी शक्ति द्वारा अपने मूलस्थान में विलीन कर दिये जाते हैं
इसी प्रकार उनकी दिव्यसृष्टि होती है
इसी पद्धति से अपने मन्त्र को चिच्छक्ति या कुण्डलिनी शक्ति से ध्वनित अनुभव करते हुए ---
(०१) वर्णाभाव परे चैतन्य रूप में स्थिर अनुभव करना ।
(०२) षट्चक्रों का भेदन करके सनातन शब्द रूप में अर्थात नादबिन्व्दात्मक चैतन्य से एकी भूत कर देना और फिर ---
(०३) उन्हीं ज्वलन्त, जाग्रत एवं देदीप्यान चैतन्य वर्णों की समष्टि से निर्मित मन्त्र का साक्षात्कार करना मन्त्र चैतन्य है
मंत्र चैतन्य का द्वितीय स्वरूप ----
यह कल्पना करनी चाहिए कि मेरे हृदय में अनाहत चक्र पर मेरे मन्त्र के समस्त वर्ण स्थित हैं मूलाधार चक्र से कुण्डलिनी जाग्रत् होकर सुषुम्णा मार्ग से आती हुई मेरे मन्त्र को कण्ठस्थित विशुद्धि चक्र का भेदन करके के सहस्रार में ले जा रही है और वहां सहस्त्रदल कमल की कर्णिका पर नादबिन्व्दात्मक मन्त्र के सारे अक्षर स्थिर है और चैतन्य रूपा मन्त्रशक्ति स्फुरित हो रही है !
मन्त्र का प्रत्येक अक्षर चैतन्य शक्ति से निर्मित एवं ग्रंथित है
ऐसी भावना करके के मंत्र गुणों को नाभि के मणिपुर चक्र में लाना चाहिए फिर यह कल्पना करनी चाहिए कि वे वहां से वाणी में से आते हैं
अतः उनका वहां चिद्रूप से ही जब करना चाहिए
मन्त्र चैतन्य का तृतीय स्वरूप
प्रथमत: मन्त्र के पूर्व कामबीज, श्रीबीज एवं शक्तिबीज का तथा आकार से क्षकार पर्यन्त समस्त स्वरवर्णों का उच्चारण करना चाहिए
जिसके बाद मन्त्रोच्चारण करके पीछे भी उन्हीं बीजों और अक्षरों का उच्चारण करना चाहिए
इस प्रकार मूलविद्या का 108 बार जाप करना चाहिए इसी क्रिया से भी मंत्र- चैतन्य निष्पादित किया जा सकता है
यदि "ऐं" मंत्र का चैतन्य- निष्पादन करना है तो उक्त बीजत्रय वक्त का उच्चारण कीजिए
ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं फिर " कं खं गं घं ङं चं छं जंग से क्षं " पर्यन्त मातृकाओं का उच्चारण करना चाहिए उसके अनन्तर उसी जप्य मन्त्र यथा "ऐं" एवं पुन: उन्हीं बीज मन्त्रों एवं अक्षरों का 108 ( एक सौ आठ ) बार जाप करना चाहिए इससे मंत्र का चैतन्यीकरण हो जाता है ।
मन्त्र चैतन्य का चतुर्थ स्वरूप ---
बाहर अवस्थित या अन्य:स्थित द्वादश कलात्मक सूर्य में अपने मन्त्र का चिन्तन करके उसका 108 बार जप करना चाहिए । सूर्यमण्डल में अपने सनातन शिवस्वरूप गुरु एवं ब्रह्मरूपा उनकी शक्ति का भी ध्यान करना चाहिए।
इस प्रकार गुरु, उनकी शक्ति एवं मन्त्र का चिन्तन करते हुए 108 बार अपने मन्त्र का जाप करने से भी मन्त्र का चैतन्यीकरण हो जाता है
मन्त्र चैतन्य का पञ्चम स्वरूप ---
यदि मन्त्र को 'ई' से सम्पुटित करके जपा जाय तो मन्त्र स्वयमेव चैतन्यीकरण ( मन्त्र-चैतन्य ) हो जाता है ।
बिना मन्त्रचैतन्य मन्त्र सिद्धि सम्भव नहीं है ।
अतः मन्त्र का जाप करने के पूर्व मन्त्र-चैतन्य अवश्य कर लेना चाहिए ।
मन्त्रार्थ - चिन्तन
ध्यानेन परमेशानि यद्रूपं समुपस्थितम् ।
तदेव परमेशानि मन्त्रार्थं विद्धि पार्वति ।।
सहस्त्रार में पहुंचकर ब्रह्मा का ध्यान करना चाहिए और इस ध्यान के समय वे स्वयं प्रकट हो जाते हैं ।
वे ही मन्त्र के अर्थ है
उसे ही मन्त्रार्थं समझना चाहिए
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