सूतजी और शौनकजी का संवाद शौनक जी की प्रार्थना पर सूतजी के द्वारा पुराणों के नाम तथा उनकी श्लोक संख्या का कथन एवं उपपुराणों तथा अट्ठाईस न्यासों के नाम भागवत की महिमा ।
ॐ सर्व चैतन्य रूपां तामाद्यां विद्यां च धीमहि बुद्धिं या नः प्रचोदयात् ।
जो सर्व चेतन स्वरूपा आदि अन्त से रहित एवं ब्रह्मविद्या स्वरूपिणी भगवती जगदम्बिका हैं, उनका हम ध्यान करते हैं वे हमारी बुद्धि को तीक्ष्ण बनाने की कृपा करें ।
शौनकजी ने कहा — महाभाग सूतजी! आप महाभाग एवं पुरुष श्रेष्ठ हैं; क्योंकि आपने परम पावन पुराण संहिताओंका भलीभाँति अध्ययन कर लिया है। अनघ मुनिवर व्यासजी ने अठारहों पुराणोका प्रणयन किया और आप अध्ययन करते रहे । वे सभी पुराण बड़े ही अद्भुत हैं ।
मानद सत्यवतीनन्दन व्यासजी के मुखारविन्द से पाँच लक्षणों एवं रहस्यों सहित उन सम्पूर्ण पुराणों को आप अच्छी प्रकार जान गये हैं । आज हमारा पुण्य फल दानोन्मुख हो गया जिससे आप इस पावन क्षेत्र में पधारे । मुनियों को विश्राम देनेवाला यह क्षेत्र बड़ा ही उत्तम एवं कलिके दोष से रहित है ।
सूत जी यह मुनिमण्डली पुण्यदायी पुराण सम्बन्धी कथा सुनने के लिये उत्सुक है आप सावधान होकर हमें सुनाने की कृपा करें । महाभाग! आप सम्पूर्ण शास्त्रों के वेत्ता एवं त्रिविध तापों से रहित हैं।
आपकी आयु कभी क्षीण न हो। भगवन्! अब आप वेदसे सम्बन्ध रखनेवाला पुराण कहने की कृपा 'कीजिये। सूतजी! जिन्हें कान हैं और जो सुननेके स्वादसे भी परिचित हैं, वे मनुष्य यदि पुराण नहीं सुनते तो वे हतभाग्य हैं। जिस प्रकार षड्ररसके स्वादसे जीभ तृप्त हो जाती है, वैसे ही विद्वान् पुरुषके वचनोंसे कर्णेन्द्रियोंको महान् आनन्द होता है ।
यह सभी जानते हैं। सर्पोके कान नहीं होते, तब भी मधुर स्वरोंको सुनकर वे अपनी सुधि-बुध खो बैठते हैं। फिर कानवाले मनुष्य यदि सद्वाणी नहीं सुनते तो उन्हें बहरा ही क्यों न कहा जाय। अतएव सौम्य! ये सभी विप्रगण कथा सुननेकी अभिलाषासे सावधान होकर नैमिषारण्य क्षेत्रमें बैठे हैं।
कलिके भयसे इन्हें महान् दुःख हो रहा है। जिस किसी प्रकारसे समय तो बीत ही जाता है। अज्ञानी जनोंका समय विषयचिन्तनमें और विद्वानोंका समय शास्त्रावलोकनमें बीत जाता है—यह अनुभव सिद्ध बात है।
अपने सिद्धान्तको परिपुष्ट करनेवाले अनेकों अद्भुत शास्त्र हैं, उनमें भाँति-भाँतिके सिद्धान्तोंका विवेचन किया गया है तथा उनकी पुष्टिमें प्रबल प्रमाण दिये गये हैं। वेदान्तको सात्त्विक, मीमांसाको राजस और न्यायको तामस शास्त्र कहा जाता है।
सौम्य ! वैसे ही आपके कहे हुए पाँच लक्षणवाले पुराण भी सात्त्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारके हैं। आपके मुखारविन्दसे निकल चुका है, परमपावन देवी भागवत पाँचवाँ पुराण है। यह वेदके समान आदरणीय है। पुराणके सभी लक्षणोंसे यह ओतप्रोत है। उस समय इसका संक्षेपमें ही वर्णन किया गया था। इसके श्रवणसे मुमुक्षुजन मुक्त हो जाते हैं। यह परम अद्भुत पुराण धर्ममें रुचि उत्पन्न करनेवाला एवं अभिलाषा पूर्ण करनेवाला है।
अब आप इस दिव्य एवं मंगलमय भागवत पुराणको विस्तारपूर्वक कहनेकी कृपा कीजिये। सभी ब्राह्मण बड़े आदर के साथ सुननेके लिये उत्सुक हैं। धर्मज्ञ ! आप व्यासजीके मुखारविन्दसे इस प्राचीन संहिताका भलीभाँति ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं; क्योंकि उन गुरुदेवमें आपकी अटूट श्रद्धा थी और आपमें सभी सद्गुण विद्यमान हैं।
सर्वज्ञ! आपके कहे हुए अन्य भी बहुत-से पुराण हमने सुने हैं। किंतु उनके सुननेसे अब भी हमारी उसी प्रकार तृप्ति नहीं हो रही है जैसे देवता अमृतपानसे कभी नहीं अघाते। सूतजी! धिक्कार है इस अमृतको, जिसे पीनेवाले कभी मुक्त नहीं हो सकते। किंतु धन्य है यह पुराण, जो सुननेसे ही मनुष्यको मुक्त कर देता है।
सूतजी ! अमृत पान करनेके लिये हमने हजारों यज्ञ किये, किंतु फिर भी हमें शान्ति न मिल सकी; क्योंकि यज्ञोंका फल स्वर्ग है। स्वर्ग भोगनेके पश्चात् वहाँसे गिरना ही पड़ता है। इस प्रकार इस संसारचक्रमें आने-जानेकी क्रिया सदा चलती ही रहती है। सर्वज्ञ सूतजी। इस त्रिगुणात्मक जगत्में काल-चक्रकी प्रेरणाये। सदा चक्कर काटनेवाले मनुष्योंको ज्ञान हुए बिना मुक्ति मिलनी कभी सम्भव नहीं। अतएव आप परम पावन देवीभागवतको कहने की कृपा कीजिये। यह पुराण सम्पूर्ण रसोंसे परिपूर्ण, अत्यन्त पवित्र, गोपनीय तथा मुक्तिकामी जनोंको सदा अभिलषित मुक्ति प्रदान करनेवाला है।
सूतजी कहते हैं- श्रीमद्देवीभागवत अत्यन्त पवित्र एवं वेदप्रसिद्ध पुराण है। इसके सम्बन्धमें आप महानुभावोंके प्रश्न करनेसे मैं धन्य, बड़भागी और परम पावन बन गया। अब में इसे कहता हूँ। यह पुराण सम्पूर्ण श्रुतियोंके अर्थसे अनुमोदित, अखिल शास्त्रोंका रहस्य एवं आगमोंमें अपना अनुपम स्थान रखनेवाला है।
जो योगियोंको मुक्ति प्रदान करनेवाले एवं ब्रह्मा आदि देवताओंद्वारा सुसेवित हैं तथा । प्रधान मुनिगण उत्तम स्तोत्रोंके द्वारा जिनका सदा चिन्तन किया करते हैं, भगवती जगदम्बिकाके उन सुकोमल चरणकमलोंको प्रणाम करके आज मैं विस्तारपूर्वक यह पुराण कहनेके लिये प्रस्तुत हो रहा हूँ। द्विजवरो! यह रसोंका भण्डार है ! इसमें जहाँ देखिये, भगवतीकी भक्ति निहित है। अतएव भगवतीके नामसे ही अर्थात् श्रीमद्देवीभागवत नामसे यह पुराण प्रसिद्ध है। उपनिषद्में जो विद्या नामसे प्रसिद्ध है; आद्या, परा, सर्वज्ञा जिनके नामान्तर हैं, जो संसारके आवागमनरूपी बन्धनको काटनेमें कुशल हैं, सर्वत्र ही जिनकी सत्ता बनी रहती है, दुष्टजन जिन्हें किसी प्रकार भी नहीं जान सकते तथा मुनियोंके ध्यान करनेपर जो स्वयं अपनी झाँकी दिखाया करती हैं, वे भगवती जगदम्बिका इस कार्यमें सफलता प्रदान करनेकी कृपा करें।
जो अपनी त्रिगुणात्मिका शक्तिके द्वारा इस सत्-असत्स्वरूप सम्पूर्ण जगत्की रचना करके उसकी रक्षामें तत्पर हो जाती हैं तथा प्रलय-कालमें सबका संहार करके स्वयं अकेले ही रमण करना जिनका स्वाभाविक गुण है, उन चराचर जगत्की सृष्टि करनेवाली भगवती जगदम्बिकाका मैं मनसे ध्यान करता हूँ। पौराणिकों एवं वैदिकोंका कथन है तथा यह भलीभाँति विदित भी है कि ब्रह्माजी इस अखिल जगत्के स्रष्टा हैं। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि ब्रह्माजीका जन्म भगवान् विष्णुके नाभिकमलसे हुआ है। फिर ऐसी स्थितिमें ब्रह्माजी स्वतन्त्र स्रष्टा कैसे ठहरे ?
भगवान् विष्णुको भी स्वतन्त्र स्रष्टा नहीं कह सकते। वे शेषनागकी शय्यापर सोये हुए थे। नाभिसे कमल निकला और उसपर ब्रह्माजी प्रकट हुए। किंतु वे श्रीहरि भी तो किसी आधारपर अवलम्बित थे। उनके आधारभूत क्षीरसमुद्रको भी स्वतन्त्र स्रष्टा नहीं माना जा सकता; क्योंकि वह रस है, रस बिना पात्रके ठहरता नहीं। कोई-न-कोई रसका आधार रहना ही चाहिये। अतएव चराचर जगत्की आधारभूता भगवती जगदम्बिका ही स्रष्टारूपमें निश्चित हुईं। मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ ।
कमलस्थित ब्रह्माजीको दर्शन मिले। भगवान् विष्णु योगनिद्राके अधीन होकर शयन कर रहे थे, तब उन प्रभुको जगानेके लिये पितामहने जिनकी स्तुति की थी, उन भगवती जगदम्बिकाकी मैं शरण लेता हूँ। वे भगवती सगुण, निर्गुण, मुक्ति प्रदान करनेवाली और मायास्वरूपिणी हैं, अब मैं उनका ध्यान करके सम्पूर्ण पुराणोंका कथन करता हूँ। मुनिगण सुननेकी कृपा करें।
श्रीमद्देवीभागवत सबसे उत्तम एवं पावन पुराण माना जाता है। इसमें अठारह हजार श्लोक हैं। संस्कृत भाषामें इसकी रचना हुई है। | वेदव्यासजीने सुन्दर बारह स्कन्धोंसे इसे सजाया है। पूरे पुराणमें तीन सौ अठारह अध्याय हैं। प्रथम स्कन्धमें बीस, द्वितीयमें बारह, तृतीयमें बीस, चतुर्थमें पचीस, पंचममें पैंतीस, षष्ठमें इकतीस, सप्तममें चालीस, अष्टममें चौबीस, नवममें पचास, दशममें तेरह, एकादशमें चौबीस और द्वादश स्कन्धमें चौदह अध्याय हैं।
महात्मा पुरुषोंका कथन है कि इस पुराणमें इस प्रकार तो अध्याय हैं और अठारह हजार श्लोक हैं। सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, वंशानुकीर्तन और मन्वन्तर- वर्णन आदि पुराणविषयक पाँचों लक्षण इसमें विद्यमान हैं। जो निर्गुण हैं, सदा विराजमान रहनेवाली हैं, सर्वव्यापी हैं, जिनमें कभी विकार नहीं होता, जो कल्याणमय विग्रह हैं, योगसे जानी जा सकती हैं तथा सबको धारण करनेवाली, तुरीयावस्थापन्ना हैं; उन्हीं भगवतीकी सात्त्विकी, राजसी और तामसी शक्तियाँ स्त्रीकी आकृतिमें महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकालीके रूपसे प्रकट होती हैं।
संसारकी अव्यवस्था दूर करनेके लिये इनका अवतार होता है। इन तीनों शक्तियोंका जो शरीर धारण करना है, इसे ही शास्त्रज्ञ पुरुष 'सर्ग' कहते हैं। सृष्टि, स्थिति और संहारका कार्य सँभालनेके लिये ब्रह्मा, विष्णु और रुद्ररूपसे उन आद्याशक्तिका प्रकट होना 'प्रतिसर्ग' माना गया है। चन्द्रवंशी और सूर्यवंशी राजाओंके उपाख्यान तथा हिरण्यकशिपु प्रभृति दैत्योंके प्रसंगका वर्णन 'वंश' कहा गया है।
स्वायम्भुव आदि प्रधान मनुओंका वर्णन और उनके समयका जो निर्णय हुआ है, वह 'मन्वन्तर' नामसे विख्यात है। फिर उन मनुओंकी वंशावलीका विशदरूपसे वर्णन किया गया है- यह 'वंशानुचरित' हो गया। इन पाँच लक्षणोंसे यह पुराण सुशोभित है। महाभाग व्यासजीने सवा लाख श्लोकोंमें जिस महाभारतकी रचना की है, वह इतिहास कहलाता है। महाभारतमें भी ये पाँचों लक्षण हैं। चार वेद हैं और पाँचवाँ श्रीमहाभारत है, जो वेदतुल्य माना गया है।
शौनकजीने पूछा- सूतजी ! आप सर्वज्ञान सम्पन्न हैं। अब हम यह सुनना चाहते हैं कि पुराण कितने हैं और उनमें कितने श्लोक हैं। विस्तारपूर्वक बताने की कृपा कीजिये। हमलोग कलियुगकी कुचालसे डरकर नैमिषारण्यमें ठहरे हैं ब्रह्माजीने अपने मनसे चक्र निर्माण करके हमें दिया और कहा कि 'तुमलोग इसीके आश्रयमें रहो।' साथ ही हम सब लोगोंसे यह भी कहा कि 'इस चक्रके पीछे- पीछे जाओ। जहाँ इसका हाल गिर जाय, वह स्थान परम पावन है। वहाँ कभी कलियुगका प्रभाव नहीं पड़ सकता। अतः जबतक फिर सत्ययुग नहीं आ जाता, तबतक तुम्हें वहाँ ही रहना चाहिये।' तब हमने बह्याजीकी आज्ञा शिरोधार्य करके वहाँ की बातें सुनीं और सम्पूर्ण देशोंको देखनेकी इच्छासे तुरंत चल पड़े। यहाँ आकर सबके सामने इस चक्रको घुमाया। इसके अरें चारों ओर घूमने लगे। जहाँ इसकी नेमि (हाल ) गिर गयी, वह परमपावन स्थान नैमिषारण्य कहलाने लगा। कलिकी दाल यहाँ नहीं गलने पाती। अतएव कलिकालसे डरे हुए मुनियों, सिद्धों और महात्माओंको साथ लेकर मैं यहाँ ठहरा हूँ। सत्ययुग न आनेतक किसी तरह कालक्षेप हो रहा है। सूतजी! इस समय भाग्यवश आपका दर्शन हो गया।
अब आप वेदसे सम्बन्ध रखनेवाले पावन पुराणोंकी कथा कहनेकी कृपा कीजिये। सूतजी! आपकी बुद्धि बड़ी विलक्षण है। सभी लोग आपके मुखारविन्दसे कथा सुननेके लिये उत्सुक हैं। अब हमारे कोई (दूसरा) धंधा नहीं है। हमने मनको एकाग्र कर लिया है। सूतजी! आप दीर्घकालतक वर्तमान रहें। कभी भी दुःख और संताप आपके पास न आ सकें। अब आप पुण्यमय एवं कल्याणकारी देवीभागवत सुनानेकी कृपा कीजिये। इसमें धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों पुरुषार्थोंका विस्तारपूर्वक वर्णन है। ब्रह्मविद्या भी कही गयी है। फिर उसकी जानकारी हो जानेपर तो मोक्ष भी सुलभ हो जाता है। सूतजी! मुनिवर व्यासजीके मुखारविन्दसे निकली हुई यह परम पावन कथा मनको मुग्ध कर देती है। इसे सुनकर हमारे कान अतृप्त ही बने रहते हैं। जिसमें सभी गुण हैं, सम्पूर्ण जगत्को रचनेवाली भगवती जगदम्बिकाकी नाट्य सरीखी लीलाओंसे जो ओतप्रोत है तथा जिसके प्रभावसे सारे पाप विलीन हो जाते हैं, उस परम पावन एवं अद्भुत तथा भगवतीके नामसे शोभा पानेवाले श्रीमद्देवीभागवत नामक पुराणको प्रकट करनेकी कृपा कीजिये ।
सूतजी कहते हैं- मुनिवरो! सुनो, सत्यवतीनन्दन व्यासजीके मुखारविन्दसे मैंने जितने पुराण सुने हैं, उनका आनुपूर्वी तुम्हारे सामने उल्लेख कर रहा हूँ मत्स्य, मार्कण्डेय, भविष्य, भागवत, ब्रह्म ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, वामन, वायु, विष्णु, वाराह, अग्नि, नारद, पद्म, लिंग, गरुड़, कूर्म और स्कन्द - इन नामोंके अठारह पुराण हैं। पहला मत्स्य पुराण है, इसमें चौदह हजार श्लोक हैं। अत्यन्त अद्भुत मार्कण्डेयपुराणकी श्लोक संख्या नौ हजार है। तत्त्वदर्शी मुनिगणोंने भविष्य पुराणकी श्लोक- संख्या साढ़े चौदह हजार गिनी है। पुण्यमय श्रीभागवतमें अठारह हजार श्लोक हैं। ब्रह्म- पुराणकी श्लोक संख्या दस हजार है। ब्रह्माण्ड- पुराणमें बारह हजार एक सौ श्लोक हैं। अठारह हजार श्लोकोंमें ब्रह्मवैवर्तपुराण पूरा हुआ है।
शौनकजी! वामनपुराणमें दस हजार तथा वायुपुराणमें चौबीस हजार छः सौ श्लोक हैं। विष्णुपुराण और वाराहपुराण बड़े ही विचित्र ग्रन्थ हैं। पहलेकी श्लोक संख्या तेईस हजार और दूसरेकी चौबीस हजार है। अग्निपुराणमें। सोलह हजार श्लोक हैं। नारदपुराण पचीस हजार श्लोकोंसे सम्पन्न हुआ है। पद्मपुराणका विशद वर्णन पचपन हजार श्लोकोंमें समाप्त हुआ है। लिंगपुराणमें ग्यारह हजार श्लोक हैं। गरुड़पुराणके वक्ता भगवान् विष्णु हैं। उसकी। श्लोक संख्या उन्नीस हजार है। कूर्मपुराणमें सत्रह हजार श्लोक कहे गये हैं। परम अद्भुत स्कन्दपुराणकी श्लोक संख्या इक्यासी हजार है। निष्पाप मुनिवरो! इस प्रकार पुराणों और उनकी संख्याओंका विशद वर्णन में कर चुका।
अब ऐसे ही उपपुराण भी हैं उन्हें कहता हूँ, सुनो। उपपुराणोंके नाम हैं- सनत्कुमार- पुराण, नृसिंहपुराण, नारदपुराण, शिवपुराण, दुर्वासापुराण, कपिलपुराण, मनुपुराण, उशनः पुराण, वरुणपुराण, कालिकापुराण, साम्बपुराण, नन्दिपुराण, सौरपुराण, पराशरपुराण, आदित्यपुराण, माहेश्वरपुराण, भागवतपुराण और वसिष्ठपुराण। उच्चकोटिके अनुभवी पुरुषोंने इन्हें ही उपपुराण कहा है।
इन पुराणों और उपपुराणोंकी रचना करनेके पश्चात् महाभाग व्यासजीने महाभारत नामक इतिहासका प्रणयन किया। सभी मन्वन्तरोंके प्रत्येक द्वापर युगमें धर्मकी स्थापना करनेके लिये व्यासजी विधिपूर्वक पुराणोंकी रचना करते हैं। प्रत्येक द्वापरमें भगवान् विष्णु ही व्यासरूपसे प्रकट होते हैं और जगत्के कल्याणार्थ एक वेदको ही अनेक भागों में विभाजित करते हैं। फिर यह जानकर कलियुगके ब्राह्मण अल्पायु और मन्दबुद्धि होंगे, वे ही प्रभु प्रत्येक युगमें पुण्यमय पुराण-संहिताओंकी रचना किया करते हैं। स्त्री, शूद्र और अपने कर्मसे च्युत ब्राह्मण वेद सुननेके अनधिकारी माने जाते हैं। उनका भी कल्याण हो जाय, इसलिये पुराणोंकी रचना हुई है। मुनिवरो! इस समय अट्ठाईसवें द्वापरका सातवाँ मन्वन्तर बीत रहा है। इस मन्वन्तरके अधिष्ठाता वैवस्वत मनु हैं। सत्यवतीनन्दन व्यासजी मेरे गुरुदेव हैं। इनके समान धर्मका ज्ञान किसीको नहीं है। वे ही इस मन्वन्तरके वेदव्यास हैं। फिर उनतीसवें मन्वन्तरमें द्रौणि नामक व्यास होंगे। आजतक सत्ताईस व्यास हो चुके हैं। प्रत्येक युगमें उनके द्वारा पुराण- संहिता कही गयी है।
ऋषियोंने पूछा- महाभाग सूतजी ! अबतकके द्वापर युगोंमें पुराणोंकी रचना करनेवाले जो व्यासदेव हो चुके हैं, उनका परिचय बतानेकी कृपा करें।
सूतजी कहते हैं-प्रथम द्वापरमें वेदोंका विभाग स्वयं ब्रह्माजीने किया। अतः उस युगके व्यास ब्रह्माजी हुए। दूसरे द्वापरमें प्रजापतिने व्यासका कार्य सम्पन्न किया। तीसरेमें उशना, चौथेमें बृहस्पति, पाँचवेंमें सविता और छठे में मृत्युदेव व्यासकी गद्दीपर थे। सातवें द्वापरमें मघवाने, आठवेंमें वसिष्ठने, नवेंमें सारस्वतने, दसवेंमें त्रिधामाने, ग्यारहवेंमें त्रिवृषने, बारहवेंमें भारद्वाजने, तेरहवेंमें अन्तरिक्षने, चौदहवेंमें धर्मने, पंद्रहवें में त्रय्यारुणिने, सोलहवेंमें धनंजयने, सत्रहवेंमें मेधातिथिने, अठारहवेंमें व्रतीने, उन्नीसवें में अत्रिने, बीसवेंमें गौतमने और इक्कीसवें में हर्यात्मा उत्तमने व्यासका कार्य सम्पादन किया। वाजश्रवा वेन, आमुष्यायण सोम, तृणबिन्दु, भार्गव, शक्ति, जातूकर्ण्य और कृष्णद्वैपायन भी व्यासोंमें परिगणित हैं। ये ही अट्ठाईस व्यास हैं। मैंने जिनके नाम सुने थे, उन्हें गिना दिया। इन कृष्णद्वैपायन व्यासजीके मुखारविन्दसे श्रीमद्देवीभागवत सुननेका सुअवसर मुझे मिल चुका है। यह पुराण बड़ा ही पवित्र एवं सम्पूर्ण दुःखोंका नाश करनेवाला है।
इसके प्रभावसे मनोरथ पूर्ण होते और मुक्ति भी सुलभ हो जाती है। इसके सभी विषय वेदके अभिप्रायसे युक्त हैं। सम्पूर्ण वेदोंका सारभूत यह पुराण मुक्तिकामी जनोंको सदा प्रिय है। इस पुराणकी रचना करनेके पश्चात् व्यासजीने सर्वप्रथम अपने अयोनिज एवं विरक्त पुत्र महाभाग शुकदेवजीको अधिकारी समझकर उन्हें ही सुनाया। मुनिवरो! मैं वहीं था । वेदव्यासजी प्रवचन कर रहे थे। इसीसे यथार्थ बातें मैंने भी सुन लीं। गुरुदेव बड़े कृपालु थे। उन्हींकी कृपासे यह अत्यन्त गुप्त पुराण प्रकट हुआ है। व्यासनन्दन शुकदेवजीकी बुद्धि बड़ी विलक्षण थी। उनके पूछनेपर इस गुप्त पुराणकी सभी बातें व्यासजी व्यक्त किया करते थे। वहाँ रहनेके कारण इस पुराणकी अमित महिमाका मैं भी जानकार हो गया। मुनिवरो! श्रीमद्देवी- भागवत स्वर्गीय कल्पवृक्षका सुन्दर पका हुआ फल है।
इस संसाररूपी समुद्रके अथाह जलको पार करनेकी इच्छा रखनेवाले शुकदेवजी उस फलको आदरपूर्वक चखनेवाले पक्षी हैं। उन्होंने इस विविध कथारूपी अमृतको अपने कानरूपी पुटकोंमें भर-भरकर खूब पान किया। जगत्में कौन ऐसा पुरुष है, जो इस अद्भुत कथाको सुनकर कलिके भयसे मुक्त न हो जाय। जो पापी वैदिक धर्मोसे विमुख एवं अपने चरित्रसे भ्रष्ट है, उसे भी यदि जिस किसी प्रकारसे भी श्रीमद्देवीभागवत सुननेका अवसर मिल जाय तो संसारके विविध भोगोंको भोगकर अन्तमें भगवतीके उस नित्य परमधामको वह चला जाता है,
जहाँ योगीलोग जाया करते हैं। जो निर्गुणस्वरूपा हैं, जो संतजनोंकी प्रेमपात्री एवं ध्यानमें दर्शन देनेवाली हैं। वे विद्यामयी भगवती जगदम्बिका उस बड़भागी पुरुषके हृदयरूपी गुफामें निवास कर लेती हैं, जो निरन्तर इस देवीभागवतकी कथा सुननेमें तत्पर रहता है। संसाररूपी अगाध समुद्रको पार करनेके लिये यह सर्वांगपूर्ण मानवदेह सुन्दर जहाज है। जिसे ऐसा शरीर मिल गया और कथावाचककी भी कमी न रही, तब भी जो मूर्ख इस कल्याणमय देवीभागवतको नहीं सुन पाता, निश्चित ही वह अत्यन्त भाग्यहीन है। जिसे विचारशील मानव-तन मिल गया, दोनों कान विद्यमान हैं, तब भी मनोरथ पूर्ण करनेवाली, रसके भंडार एवं परम पावन इस भागवत पुराण को न सुनकर जो प्रेमपूर्वक परनिन्दा और परचर्चा सुनने में मस्त रहता है, वह मूर्ख ही हैं - उसके जीवन से लाभ ही क्या है
अध्याय 01-03
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