देवी भागवत्





देवी भागवत माहात्म्य प्रसंगमें राजा सुद्युम्न के स्त्री बनने और श्रीमद् देवी भागवत श्रवण के फलस्वरूप सदा के लिये पुरुष बनकर राज्य लाभ और परमपद प्राप्त करने की कथा

सूतजी कहते हैं- मुनिवरो! अब दूसरा। इतिहास सुनो, जिसमें इस देवीभागवतका माहात्म्य कहा गया है। एक समयकी बात है। मुनिवर अगस्त्यजी, जिनकी पत्नी लोपामुद्रा हैं, स्वामी कार्तिकेयके पास गये और वन्दना करके उनसे अनेक कथाएँ पूछी। कार्तिकेयने तीर्थ, व्रत और दानके माहात्म्यसे सम्बन्ध रखनेवाली बहुत-सी कथाएँ सुनायीं। वे काशी, मणिकर्णिका, गंगा आदि तीर्थोका माहात्म्य विशदरूपसे वर्णन कर गये। इन कथाओंको सुनकर मुनिवर अगस्त्यजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। जगत्के कल्याणके लिये परम तेजस्वी कार्तिकेयजीसे उन्होंने फिर पूछा।


अगस्त्यजी बोले-  तारकासुरका संहार करनेवाले भगवन्! आप सर्वशक्तिसम्पन्न हैं। अब देवीभागवतका माहात्म्य और उसके सुनने की विधि भी बतानेकी कृपा कीजिये। जिसमें त्रिलोकजननी नित्यस्वरूपा भगवती दुर्गाके चरित्र गाये गये हैं, उस देवीभागवत नामक पुराणसे बढ़कर दूसरा कोई पुराण नहीं है।


स्वामी कार्तिकेयने कहा - ब्रह्मन्! श्रीमद्देवीभागवतके माहात्म्यको विस्तारसे कौन कह सकता है? फिर भी मैं संक्षेपसे कहता हूँ, सुनो। जो नित्यस्वरूपा हैं, सत्-चित्-आनन्दमय जिनका श्रीविग्रह है तथा भुक्ति-मुक्ति देना जिनका स्वभाव ही है, वे भगवती जगदम्बिका देवीभागवतमें स्वयं विराजमान रहती हैं। अतएव मुने! इसे देवीकी वाङ् मयी मूर्ति कहते हैं।


इसके पढ़ने और सुनने से जगत् के कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं रह सकते। सुना है, विवस्वान | मनुके पुत्र श्राद्धदेव थे। उन्हें कोई संतान न थी । वसिष्ठजी की सम्मति से उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ किया। विवस्वान् मनुकी स्त्रीका नाम श्रद्धा था। श्रद्धाने होतासे प्रार्थना की 'ब्रह्मन्! आप 'ऐसा उपाय कीजिए कि मेरे गर्भ से कन्या उत्पन्न हो।' तब होता है मन-ही-मन 'कन्या उत्पन्न हो यो संकल्प करते हुए हवन करने लगे।


 

इस विपरीत भावनाके फलस्वरूप इला नामकी कन्या उत्पन्न हुई। राजा विवस्वान् कन्याको देखकर उदास हो गये। उन्होंने गुरुदेवसे पूछा- 'यहाँ आपका संकल्प उलटा फल देनेवाला कैसे हो गया ?' राजाकी बात सुनकर मुनिवर वसिष्ठ ध्यानस्थ हो गये। उन्हें मालूम हो गया कि होता इस व्यतिक्रमके कारण हैं। 


तब इलाको पुरुष बनानेके लिये मुनिने भगवान् श्रीहरिकी शरण ली। मुनिके। तप एवं भगवान्‌के अनुग्रहसे वह इला सबके देखते ही पुरुषरूपमें परिणत हो गयी। उस समय गुरुदेवने संस्कार करके इलाका नाम सुद्युम्न रखा। 


वे मनुपुत्र सुद्युम्न ऐसे प्रकाण्ड विद्वान् हुए, मानो विद्याके अथाह सागर हों। कुछ समयके बाद जब सुद्युम्न युवा हुए तब वे घोड़ेपर चढ़कर शिकार खेलनेके लिये जंगलमें चले गये।


किसी समयकी बात है, देवाधिदेव भगवान्। शंकर अपनी प्राणप्रिया पार्वतीके साथ प्रसन्नतापूर्वक विहार कर रहे थे। उसी समय उनके दर्शनकी अभिलाषासे मुनिगण वहाँ पधारे।


मुनियोंको देखकर पार्वतीजी लज्जित हो गयीं।। संयमशील मुनियोंने देखा, भगवान् शंकर और पार्वतीजी हास-विलास कर रहे हैं; तब वे तुरंत लौटकर वैकुण्ठको चले गये। फिर भी अपनी प्रेयसी भार्या पार्वतीको प्रसन्न रखनेकी इच्छासे भगवान् शंकरने यह शाप दे दिया- 'आजसे जो पुरुष इस वनमें प्रवेश करेगा, उसकी आकृति | स्त्रीकी बन जायगी।' 


उसी समयसे पुरुष उस स्थानपर नहीं जाते । सुद्युम्न वहाँ सहसा चले गये और जाते ही उनकी आकृति स्त्रीकी हो गयी। साथके सब लोग भी स्त्री बन गये। जो घोड़ा था, वह भी घोड़ीके रूपमें परिणत हो गया। यह देखकर उस सुन्दरी स्त्रीको बड़ा आश्चर्य हुआ। 


अब वह वनमें इधर-उधर घूमने लगी। एक समयकी बात है, वह स्त्री बुधके। आश्रमके सन्निकट पहुँच गयी। उसे देखकर बुधके मनमें विकार उत्पन्न हो गया—उसे पानेकी इच्छा जाग उठी। वह स्त्री भी सोमनन्दन बुधको पति बनानेकी इच्छा प्रकट करने लगी। 


तब वह स्त्री बुधके साथ हास-विलास करती हुई उन्हींके आश्रमपर रहने लगी। कुछ समय व्यतीत होनेपर बुधने उस स्त्रीके गर्भसे पुरूरवाको उत्पन्न किया। बुधके आश्रमपर रहते हुए उसे वर्षों बीत गये। 


एक दिन उसे अपना पहला वृत्तान्त याद आ गया। स्मरण आते ही उसके मनपर दुःखकी घटा छा गयी। फिर तो वह निकली और तुरंत गुरुदेव वसिष्ठके आश्रमपर चली गयी। उन्हें प्रणाम करके अपना सारा समाचार कह सुनाया और पुनः पुरुष होनेकी इच्छा प्रकट करती हुई उनके शरणापन्न हो गयी। सब बातें विदित हो जानेपर वसिष्ठजी कैलासपर गये। उन्होंने भगवान् शंकरकी भलीभाँति पूजा'की और उत्तम भक्तिके साथ वे उनके आराधन में लग गए।


वसिष्ठजीने कहा- भगवन्! आप कल्याण-स्वरूप, मंगलकर्ता और जटा धारण करनेवाले है। पार्वतीजी आपकी अद्धांगिनी हैं। चन्द्रमा आपके ललाटकी शोभा बढ़ते रहते हैं। आपके प्रति मेरा बारम्बार नमस्कार है।


सुख प्रदान करनेवाले कैलासवासी भगवान् शंकर आपको नमस्कार है। आप भक्तोंको भक्ति और मुक्ति देनेवाले भगवान् नीलकण्ठ हैं। जो कल्याण मयविग्रह हैं, शरणागतोंका भय दूर करना जिनका स्वभाव ही बन गया है, 


वृषभ जिनका वाहन है और शरण देनेमें जो बड़े कुशल हैं, उन परमप्रभु शिवको मेरा नमस्कार है। जो सृष्टि, स्थिति और संहारके समय ब्रह्मा, विष्णु और रुद्ररूप धारण किया करते हैं, जो वर देनेमें सदा तत्पर रहते हैं, उन देवाधिदेव त्रिपुरान्तक भगवान् शंकरको नमस्कार है। 


यज्ञ करनेवालोंको यज्ञफल प्रदान करनेवाले यज्ञस्वरूप भगवान् शंकरको बारम्बार नमस्कार है। सूर्य, चन्द्रमा और अग्निको ही अपने तीनों नेत्रोंमें स्थापित करनेवाले गंगाधर भगवान् शंकर! आपको नमस्कार है।


इस प्रकार वसिष्ठजीके स्तुति करने पर भगवान शंकर प्रकट हो गये। वे नंदीपर सवार थे। जगज्जनी पार्वती साथ विराजमान थे। शंकर का दिव्य विग्रह करोड़ों सूर्योके समान जगमगा रहा था। रजत गिरिके सदृश उनकी स्वच्छ कांति थी। तिन नेत्र थे। ललाटपर चन्द्रमा सुशोभित था। वे अत्यन्त प्रसन्न होकर शरण में आये हुए मुनिवर वसिष्ठजी से कहने लगे।


भगवान् शंकर बोले- विप्रवर! तुम्हारे मनमें| जो इच्छा हो, वर माँग लो। भगवान्‌के यों कहनेपर वसिष्ठजीने उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया और इलाके पुरुष हो जानेकी प्रार्थना की। तब प्रसन्न होकर भगवान् शंकरने मुनिवरसे कहा-'यह एक महीने पुरुष रहेगा और एक महीने स्त्री ।' यो शंकरसे वर पा लेनेपर वसिष्ठजीने जगज्जननी भगवती पार्वतीको प्रणाम किया। वे देवी वर देनेमें सदा उत्सुक रहती हैं। करोड़ों चन्द्रमाके समान उनकी सुन्दर कान्ति है। उनका मुखमण्डल मुसकानसे भरा रहता है। इला सदाके लिये। पुरुष बन जाय, इस कामनासे मुनि भक्तिपूर्वक पार्वतीकी पूजा करके उनकी स्तुति करने लगे-


भक्तों पर कृपा करनेवाली देवेश्वरी! आपकी जय हो। अखिल देवताओं से सुपूजित होने वाली देवी! आपकी जय हो। अनन्त गुणों की आश्रय भूता देवी! आपकी जय हो। शरणागतों पर अनुग्रह करनेवाली देवेश्वरी! आपको बारम्बार नमस्कार है। दुःख दूर करनेवाली एवं दुष्ट दैत्यों की संहारिणी भगवती दुर्गे! आपकी जय हो। भक्ति से प्रसन्न् होकर दर्शन देनेवाली जगदम्बिका! आपको प्रणाम है। महामाये! आपके चरणकमल संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए नौका हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने वाली देवेश्वरी! आप प्रसन्न हो जायँ। देवी! कौन है, जो आपकी स्तुति कर सके। मैं केवल आपको प्रणाम कर रहा हूँ !


भगवती दुर्गा साक्षात् नारायणी हैं।


वसिष्ठजीके यों भक्तिपूर्वक स्तुति करने पर वे तुरंत प्रसन्न हो गएं। तदनन्तर शरणागतों का दुःख दूर करनेवाली उन महादेवीने मुनिसे कहा- 'तुम सुद्युम्नके घर जाकर भक्तिभाव से मेरी आराधना करो।


द्विजवर! तुम प्रसन्नता-पूर्वक नौ दिनों में सुद्युम्नको श्रीमद्देवीभागवत सुनाओ। वह पुराण मुझे बहुत प्रिय है। उसके सुनते ही वह उसी क्षण पुरुष हो जाएंगे।' इस प्रकार कहकर भगवान् शंकर और पार्वती अन्तर्धान हो गए। 


अब वसिष्ठजी उस दिशा को प्रणाम करके अपने आश्रम पर चले आये। उन्होंने सुद्युम्नको बुलाया और देवी की आराधना करने की बात कह सुनायी एवं अश्विनमास के शुक्लपक्ष में नवरात्र विधिका पालन करते हुए मुनिने भगवती जगदम्बिका की पूजा की और राजा सुद्युम्न को श्रीमद्देवीभागवत पुराण सुनाना आरम्भ कर दिया। 


राजा भी वह अमृतमयी कथा भक्तिभाव से सुनने में संलग्न हो गये। कथा समाप्त होने पर उन्होंने गुरुदेवको प्रणाम करके उनकी पूजा की और वे सदा के लिये पुरुष हो गए। तब मुनिवर वसिष्ठने सुद्युम्नको राज्य पर अभिषिक्त किया! सुद्युम्न प्रजाजनको प्रसन्न रखते हुए भूमण्डलपर राज्य करने लगे।


उन्होंने भाँति भाँति के यज्ञ जिनमें प्रचुर दक्षिणा दी जाती है करके देवी की पूजा की। फिर पुत्रों को राज्य सौंपकर स्वयं भगवती के परमधाम को चले गये। विप्रो मैं विशदरूप से यह इतिहास कह चुका।


जो मनुष्य परम अमृत स्वरूप इस प्रसंग को प्रेमपूर्वक पढता अथवा सुनता है संसार में भगवती की कृपा से उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं और अन्तमें वह भगवती परम धामको चला जाता है ।



जय देवि महादेवि भक्तानुग्रह कारिणि ।
जय सर्व सुराराध्ये जयानन्त गुणालये ।।

नमो नमस्ते देवेशि शरणागत वत्सले  ।
जय दुर्गे दुःख हन्त्रि दुष्ट दैत्यनिषूदिनी ।।

भक्तिगम्ये महामाये नमस्ते जगदम्बिके ।
संसार सागरोत्तार पोतीभूत पदाम्बुजे  ।।

ब्रह्मा दयो ऽपि बिबुधास्त्वत् पदाम्बुज सेवया।
विश्व सर्ग स्थिति लय प्रभुत्वं समावाप्नुयुः ।।

प्रसन्ना भव देवेशि चतुर्वर्ग प्रदायिनि  ।
कस्त्वां स्तोतुं क्षमो देवि केवलं प्रणतो ऽस्म्यहम् ।।


अध्याय 03