सृष्टौ या सर्गरूपा जगदवनविधौ पालिनी या च रौद्री ।
संभाले चापि यस्या जगदिद मखिलं क्रीडनं या पराख्या ।।
पश्यन्ती मध्यमाथो तदनु भगवती वैखरी वर्णरूपा ।
सास्मद् वाचं प्रसन्ना विधिहरि गिरिशाराधि तालङ्करोतु ।।
नारायनं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।
ऋषिगण तथा सूतजी का संवाद
देवी भागवत महिमा
जो सृष्टिकालमें सर्गशक्ति, स्थितिकालमें पालनशक्ति तथा संहारकालमें रुद्रशक्तिके रूपमें रहती हैं, चराचर जगत् जिनके मनोरंजनकी सामग्री है; परा, पश्यन्ती, मध्यमा एवं वैखरी वाणीके रूपमें जो विराजमान रहती हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकरके द्वारा जो आराधित हैं, वे भगवती आद्याशक्ति हमारी वाणीको सुशोभित करें। भगवान् नारायण, नरश्रेष्ठ अर्जुन, भगवती सरस्वती एवं महाभाग व्यासजीको प्रणाम करके इस देवीभागवत नामक विजयगाथाका उच्चारण करना चाहिये।
ऋषिगण बोले- सूतजी! आप बड़े बुद्धिमान् हैं। व्यासजीसे आपने शिक्षा प्राप्तकी है। आप बहुत वर्षोंतक जीवित रहें। भगवन्! अब आप हमें मनको प्रसन्न करनेवाली पवित्र कथाएँ सुनानेकी कृपा कीजिये। भगवान् विष्णु के अवतारकी पावन कथा सम्पूर्ण पापोंका संहार करनेवाली एवं अत्यन्त अद्भुत है। हम भक्तिपूर्वक उसका श्रवण कर चुके । भगवान् शंकरका दिव्य चरित्र, भस्म और रुद्राक्ष धारण करनेकी महिमा तथा इसका इतिहास भी आपके मुखारविन्दसे सुननेका सुअवसर हमें मिल चुका।
अब हमें वह कथा सुननेकी इच्छा है, जो परम पवित्र हो तथा जिसके प्रभावसे मनुष्य सुगमतापूर्वक भुक्ति और मुक्तिके सम्यक् अधिकारी बन जायें। महाभाग ! आपसे बढ़कर संदेह-निवारण करनेवाले अन्य किसीको हमने नहीं देखते। आप हमें मुख्य-मुख्य कथाएँ कहनेकी कृपा कीजिये, जिससे कलियुगी मनुष्योंको भी सिद्धि मिल सके।
सूतजी कहते हैं- ऋषियो! तुम बड़े भाग्यशाली हो । जगत्के कल्याण होनेकी इच्छासे तुमने यह बहुत उत्तम बात पूछी। अतः सम्पूर्ण शास्त्रोंका जो साररूप है, वह प्रसंग विशदरूपसे तुम्हारे सामने मैं उपस्थित करता हूँ।
ऋषियोंने कहा—महाभाग सूतजी! आप वक्ताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। वह पुराण कैसा है और उसके सुननेकी कौन-सी विधि है, कितने दिनों में यह कथा सम्पन्न होती है, इस कथामें किस देवताका पूजन होना चाहिये तथा कितने मनुष्य पहले इसे सुन चुके हैं और उनकी कौन-कौन-सी अभिलाषाएँ पूर्ण हो चुकी हैं? यह सब हमें सुनानेकी कृपा कीजिये ।
सूतजी कहते हैं- व्यासजी भगवान् विष्णुके अंश हैं। पराशरजी उनके पिता और सत्यवती माता हैं। व्यासजीने वेदोंको चार भागों में विभाजन करके उन्हें अपने शिष्योंको पढ़ाया, किंतु जो संस्कारहीन, नीच कुलमें उत्पन्न, वेद पढ़नेके अनधिकारी एवं स्त्रियाँ और मूर्खजन हैं, उन्हें धर्मका ज्ञान कैसे हो यह चिन्ता उनके मनमें जाग उठी। तब स्वयं मनमें विचार करके उन्होंने उक्त प्राणियोंके धर्मज्ञानार्थ पुराण-संहिताका सम्पादन किया। अठारह पुराणोंकी रचना करके उनको मुझे पढ़ाया। महाभारतकी कथा भी सुनायी। उसी समय भुक्ति और मुक्ति देनेवाला देवीभागवत नामक पुराण रचा। स्वयं उसके वक्ता बने और राजा जनमेजयको श्रोता होनेका सुअवसर प्राप्त हुआ।
पूर्व समयकी बात है— जनमेजयके पिता राजा परीक्षित् थे, उन्हें तक्षक सर्पने डँस लिया था। उनकी दुर्गति-निवारणके लिये जनमेजयने देवीभागवत सुना। वेदव्यासजीके मुखारविन्द से नौ दिनोंमें इसकी श्रवण- विधि सम्पन्न की। वे त्रिलोकजननी भगवती आद्या शक्तिका विधिपूर्वक पूजन करते थे। नवाह यज्ञ समाप्त होनेपर उसी क्षण महाराज परीक्षित्को भगवतीका परमधाम प्राप्त हो गया। दिव्य रूप धारण करके वे वहाँ पधार गये। पिताको परमधाम प्राप्त हो गया यह देखकर राजा जनमेजयको अपार हर्ष हुआ। उन्होंने मुनिवर व्यासजीकी भलीभांति पूजा की।
जो मानव भक्तिपूर्वक देवीभागवतकी कथा सुनते हैं, सिद्धि सदा उनके संनिकट खेलती रहती है। अतः उन्हें निरन्तर इस पुराणका श्रवण करना चाहिये। सत्ययुग, त्रेता और द्वापरमें अनेकों धर्म थे; किंतु कलिके लिये एक पुराण श्रवण ही धर्म रह गया है। इसके सिवा मनुष्योंका उद्धार करनेवाला दूसरा कोई। धर्म ही नहीं है। कलिके मनुष्य धर्म और आचारसे हीन एवं अल्पायु होंगे। उनके कल्याणके लिये भगवान् व्यासने पुराणसंज्ञक इस अमृत रसका निर्माण किया है। इस देवी- भागवतके श्रवणमें मास और दिवसका कोई खास नियम नहीं है। मनुष्य सदा इसका श्रवण कर सकते हैं। आश्विन, चैत्र, वैशाख और जेठके महीनेमें तथा चार नवरात्रों में सुननेसे यह पुराण विशेष फल देनेवाला होता है। नवरात्रमें इसका अनुष्ठान करनेपर मनुष्य सभी पुण्य कर्मोसे अधिक फल पा लेते हैं; अतः इसे 'नवाह यज्ञ' कहा गया है।
जो कलुषित विचार- वाले, पापी, मूर्ख, मित्रद्रोही, वेदकी निन्दा करनेवाले, हिंसामें संलग्न और नास्तिक हैं, उनका भी कलिमें इस नवाह यज्ञसे निस्तार हो जाता है। महान् तप, व्रत, तीर्थ, दान, नियम, हवन और यज्ञ आदि करनेपर भी मनुष्योंको जो फल दुर्लभ रहता है, वह भी न नवाह यज्ञसे सुलभ हो जाता है। अतः देवीभागवत सर्वोत्तम पुराण माना जाता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिके लिये यह सर्वोपरि साधन है।
सूर्यके कन्याराशिमें स्थित होनेपर आश्विन मासके शुक्ल पक्षमें अष्टमी तिथिके दिन श्रीमद्देवीभागवतकी पुस्तक सोनेके सिंहासनपर स्थापित करके। भक्तिपूर्वक योग्य ब्राह्मणको दान करनी चाहिये। ऐसा करनेसे वह पुरुष देवीका प्रीतिभाजन होकर उनके परमपदका अधिकारी बन जाता है। जो पुरुष देवीभागवतके एक श्लोक अथवा आधे श्लोकका भी भक्तिभावसे नित्य पाठ करता है, उसपर देवी प्रसन्न हो जाती हैं।
महामारी, हैजा आदि भयंकर बीमारियाँ तथा अनेकों उत्पात भी देवीभागवतके श्रवणमात्रसे शमन हो जाते हैं। पूतना आदि बालग्रहकृत तथा भूतप्रेतजनित जो भय हैं, वे इस देवीभागवतके श्रवणसे पास भी नहीं फटक सकते। भक्तिपूर्वक देवीभागवतका पाठ और श्रवण करनेवाला मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके फलका अधिकारी हो जाता है।
भगवान् श्रीकृष्ण प्रसेनको खोजने के लिये चले गये। बहुत समयतक नहीं लौटे तब वसुदेवजीने यह देवीभागवत पुराण सुना । इसके प्रभावसे उन्होंने अपने प्रिय पुत्र श्रीकृष्णको शीघ्र पाकर आनन्द लाभ किया था। जो पुरुष देवीभागवतकी कथा भक्तिके साथ पढ़ता और सुनता है, भुक्ति और मुक्ति उसके करतलगत हो जाती हैं।
यह कथा अमृतस्वरूपा है, इसके श्रवणसे अपुत्र पुत्रवान्, दरिद्र धनवान् और रोगी आरोग्यवान् हो जाता है। जो स्त्री वन्ध्या, काकवन्ध्या और मृतवत्सा हो, वह भी देवीभागवतकी कथा सुननेसे दीर्घजीवी पुत्रकी जननी बन जाती है।
जिसके घरमें श्रीमद्देवीभागवतकी पुस्तकका नित्य पूजन होता है, वह घर तीर्थस्वरूप हो जाता है। वहाँ रहनेवाले लोगोंके पास पाप नहीं टिक सकते। जो अष्टमी, नवमी अथवा चतुर्दशीके दिन भक्तिके साथ यह कथा सुनता या पढ़ता है, उसे परमसिद्धि उपलब्ध हो जाती है।
इसका पाठ करनेवाला यदि ब्राह्मण हो तो प्रकाण्ड विद्वान्, क्षत्रिय हो तो महान् शूरवीर, वैश्य हो तो प्रचुर धनाढ्य और शूद्र हो तो अपने कुलमें सर्वोत्तम हो सकता है।
अध्याय 01
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