दश महाविद्या 
क्या हैं ? हमारे जीवन में उनका क्या मह्त्व है ?

इसके लिए महाभागवत और कालिका पुराण पर आधारित एक कहानी से हम शुरू करते हैं, जो शती को अपने पिता से ही मिली अवहेलना और प्रताड़ना जिसके फलस्वरूप उसके भयानक क्रोध और निराशा की व्यथा-कथा भी है, दक्ष प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र थे। उनकी दत्तक पुत्री थी सती, जिन्होने तपस्या करके शिव को अपना पति बनाया, लेकिन शिव की जीवन-शैली दक्ष को बिल्कुल ही नापसंद था, शिव और सती का अत्यंत सुखद दांपत्य जीवन था। पाँच हज़ार वर्षों तक वे आनंदपूर्वक रहे। पर शिव को अपमान करने का ख्याल दक्ष के दिल से नहीं गया था। इसी मंशा से उन्होंने एक यज्ञ का आयोजन किया, जिसमे शिव और सती को छोड़ कर सभी देवी-देवताओं को निमंत्रित किया।

जब सती को इसकी सूचना मिली तो उन्होंने उस यज्ञ में जाने की ठान ली। शिव से अनुमति माँगी, तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया। ऐसा कई बार हुआ, तब सती को ग़ुस्सा आ गया। उन्होंने शिव को अपना मन्तव्य सुना दिया, मैं दक्ष यज्ञ में जाऊंगी। या तो उसमें अपना हिस्सा लूँगी या उसका विध्वंस कर दूँगी। इस उपेक्षा से वे इतनी आहत हुईं की क्रोध से उनकी आँखें लाल हो गयीं, वे उग्र-दृष्टि से शिव को देखने लगीं। उनके होंठ फड़फड़ाने लगे। फिर उन्होंने भयानक अट्टहास किया। शिव भयभीत हो गये। वे इधर-उधर भागने लगे। उधर क्रोध से सती का शरीर जल कर काला पड़ गया।

उनके इस विकराल रूप को देख कर शिव तो भाग चले लेकिन जिस दिशा मैं भी वे जाते वहाँ एक न एक भयानक देवी उनका रास्ता रोक देती। वे दसों दिशाओं में भागे और दस देवियों ने उनका रास्ता रोका। और अंत में सभी काली में मिल गयी। हार कर शिव सती के सामने आ खड़े हुए । उन्होंने सती से पूछा- कौन हैं ये ?

सती ने बताया-ये मेरे दस रूप हैं. आपके सामने खड़ी कृष्ण रंग की काली हैं, आपके ऊपर नीले रंग की तारा हैं। पश्चिम में छिन्नमस्ता, बायें भुवनेश्वरी, पीठ के पीछे बगलामुखी, पूर्वदक्षिण में धूमावती, दक्षिण-पश्चिम में त्रिपुर सुंदरी, पश्चिम-उत्तर में मातंगी तथा उत्तर-पूर्व में षोड़शी हैं और मैं खुद भैरवी रूप में अभयदान देने के लिए आपके सामने खड़ी हूँ। इनकी उपासना से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है,शिव ब्रह्म का ही अंश हैं। उनके भी दस तत्व-रूप हैं पृथ्वी, जल,तेज,वायु,आकाश,चन्द्र,सूर्य,दिशा,काल तथा जीवात्मा। रुद्र दस हैं, और ग्यारहवीं आत्मा है।

शिव भागे यानी उनका स्पंदनआत्मक गुण, जो जड़ और चेतना का विभाजक है। तंत्रालोक के अनुसार स्थिति और गति के नियंत्रक तत्व को रुद्र कहते हैं। सती पदार्थों के समूह का और रुद्र का धावमान होना उन्हें गति प्रदान करने का सूचक है। स्थिति और गति मिल कर ही सृष्टि का निर्माण करते हैं। रुद्र और सती की यह कहानी सृष्टि-निर्माण के प्रमुख दो तत्त्वों की ओर प्रकाश करते हैं। दस रूप धारण करना यानी पदार्थों की शक्ति का सक्रिय हो जाना। शिव और सती की कथा आगे बढ़ती है। शिव को आखिरकार सती को दक्ष यज्ञ में जाने देने की अनुमती देनी पड़ी। उसी वक्त तारा सती में समा गयीं। शिव के वाहन नंदी पद सवार होकर वे अपने पिता के यज्ञ में शामिल होने गयी। वहाँ दक्ष ने उनका अपमान किया तो वे योगशक्तियों से अपने आप को जलाकर भस्म कर दिये। दक्ष यज्ञ का विध्वंस हो गया।

इस पूरे प्रकरण का प्रतीकात्मक अर्थ है। तारा ऊर्ध्वमुखी अग्नि है। सती शिव के सम्मुख भैरवी रूप में खड़ी थी। अधोमुखी अग्नि को भैरवी कहते हैं जो विध्वंसकारी है। निर्माण और विध्वंस तारा और भैरवी की कृपा हैं। दक्ष यज्ञ को भी जान लें। दक्ष प्राण है, सती बुद्धि है, शिव ज्ञान है। जब प्राण या इच्छा शक्ति क्रिया या बुद्धिशक्ति को तो अपना मानती है पर ज्ञान शक्ति की अवहेलना करती है,तो सृष्टि यज्ञ विफल हो जाता है । इच्छा, ज्ञान और क्रिया के संतुलन से ही कोई भी निर्माण सफल होता है ।

इसी प्रकार योनि-पूजन, लिंगार्चन, भैरवी-साधना, चक्र-पूजा आदि गुप्त साधनाओं के द्वारा तन्त्र-मार्ग में मुक्ति के आनन्द का अनुभव प्राप्त करने की अन्यान्य विधियाँ भी वर्णित हैं। परन्तु, ये सभी विद्या योग्य व अनुभवी गुरु के सानिध्य में ही सम्पन्न हों,तभी फलदायी होती हैं। यहाँ हम तन्त्र-मार्ग की गुह्य साधनाओं में से केवल भैरवी-साधना पर थोड़ा-सा प्रकाश डालना चाहते हैं। दुर्गा सप्तशती में कहा गया है– ‘स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु’ । अर्थात्, जगत् में जो कुछ है वह स्त्री-रूप ही है, अन्यथा निर्जीव है। तांत्रिक साधना में स्त्री को शक्ति का प्रतीक माना गया है। बिना स्त्री के यह साधना सिद्धिदायक नहीं मानी गयी। तंत्र-मार्ग में नारी का सम्मान सर्वोच्च है, पूजनीय है । ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’– इस मान्यता को तंत्र-मार्ग में वास्तविक प्रतिष्ठा प्राप्त है। रूढ़िवादी सोच के लोग जहाँ नारी को ‘नरक का द्वार’कहते आये हैं, वहीं तंत्र-मार्ग में उसे देवी का स्वरूप मानते हुए, पुरुष के बराबर का अधिकार दिया गया है। तंत्र-मार्ग में किसी भी कुल की नारी हो भेद-भाव नहीं माना गया है।

भैरवी-चक्र-पूजा में सम्मिलित साधक एवं साधिका की योग्यता के विषय में ‘निर्वाण-तंत्र’में उल्लेख है–
नात्राधिकार: सर्वेषां ब्रह्मज्ञान् साधकान् बिना।
परब्रह्मोपासका: ये ब्रह्मज्ञा: ब्रह्मतत्परा:॥
शुद्धन्तकरणा: शान्ता: सर्व प्राणिहते रता:।
निर्विकारा: निर्विकल्पा: दयाशीला: दृढ़व्रता:॥
सत्यसंकल्पका: ब्रह्मास्त एवात्राधिकारिण:॥

अर्थात्, चक्र-पूजा में सम्मिलित होने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को नहीं है। जो ब्रह्म को जानने वाला साधक है, उसके सिवाय इसमें कोई शामिल नहीं हो सकता। जो ब्रह्म के उपासक हैं, जो ब्रह्म को जानते हैं, जो ब्रह्म को पाने के लिए तत्पर हैं, जिनके मन शुद्ध हैं, जो शान्त चित्त हैं, जो सब प्राणियों की भलाई में लगे रहते हैं, जो विकार से रहित हैं, जो दुविधा से रहित हैं, जो दयावान् हैं, जो प्रन पर दृढ़ रहने वाले हैं, जो सच्चे संकल्प वाले हैं, जो अपने को ब्रह्ममय मानते हैं, वे ही भैरवी-चक्र-पूजा के अधिकारी हैं।

भैरवी-साधना का उद्देश्य मानव-देह में स्थित काम-ऊर्जा की आण्विक शक्ति के माध्यम से संसार की विस्मृति और ब्रह्मानन्द की अनुभूति प्राप्त करना है। भैरवी-साधना कई चरणों में सम्पन्न होती है। प्रारम्भिक चरण में इस साधना के साधक स्त्री-पुरुष एकान्त और सुुगन्धित वातावरण में निर्वस्त्र होकर एक दूसरे के सामने बिना एक दूसरे को स्पर्श किए दो-तीन पुट की दूरी पर सुखासन या पद्मासन में बैठकर एक दूसरे की आँखों में टकटकी लगाते हुए गुरु-मन्त्र का जप करते हैं। निरन्तर ऐसा करते रहने से साधकों के अन्दर का काम-भाव ऊध्र्वगामी होकर दिव्य ऊर्जा के रूप में सहस्र दल का भेदन करता है।

इस साधना के दूसरे चरण में स्त्री-पुरुष साधक एक-दूसरे के अंग-प्रत्यंग का स्पर्श करते हुए ऊध्र्वगामी काम-भाव को स्थिर बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं। इस बीच गुरु-मन्त्र का जप निरन्तर होते रहना चाहिए। कामोद्दीपन की बाहरी क्रियाओं को करते हुए स्खलन से बचने के लिए भरपूर आत्मसंयम रखना चाहिए। गुरु कृपा और गुरु निर्देशन में साधना करने से संयम के सूत्र आसानी से समझे जा सकते हैं। भैरवी-साधना के अन्तिम चरण में स्त्री-पुरुष साधकों द्वारा परस्पर सम-भोग (संभोग) की क्रिया सम्पन्न की जाती है। समान भाव, समान श्रद्धा, समान उत्साह और समान संयम की रीति से शारीरिक भोग की इस साधना को ही सम-भोग अथवा संभोग कहा गया है। यह क्रिया निरापद, निर्भीक, नि:संकोच, निद्र्वन्द्व और निर्लज्ज भाव से मंत्र-जप करते हुए सम्पन्न की जानी चाहिए। युगल-साधकों को पूर्ण आत्मसंयम बरतते हुए भरपूर प्रयास इस बात का करना चाहिए कि दोनों का स्खलन यथासंभव विलम्ब से और एकसाथ सम्पन्न हो। अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में भैरवी-चक्र-पूजा के दौरान यह आसानी से संभव हो पाता है।

भैरवी-चक्र की अनेक विधियाँ बतायी गई हैं, राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र, पशुचक्र आदि। चक्र-भेद के अनुसार इस साधना में स्त्री के जाति-वर्ण, पूजा-उपचार, देशकाल, तथा फलप्राप्ति में अन्तर आ जाता है। भैरवी चक्रपूजा में सम्मिलित सभी उपासक एवं उपासिकाएँ भैरव और भैरवी स्वरूप हो जाते हैं, क्योंकि उनका देहाभिमान गल जाता है और वे देह भेद या जाति-भेद से ऊपर उठ जाते हैं। किंतु, चक्रार्चन के बाहर वर्णाश्रम-कर्म का पालन अवश्य करना चाहिए । भैरवीचक्र पूजा की सफलता पर एक अलौकिक अनुभव प्राप्त होता है। जैसे बिजली के दो तारों फेस और न्यूटल के टकराने से चिंगारी निकलती है, वैसे ही स्त्री-पुरुष दोनों के एकसाथ स्खलित होने से जो चरम ऊर्जा उत्पन्न होती है, वह एक ही झटके में सहस्रदल का भेदन कर ब्रह्मानंद का साक्षात्कार करवा देने में सक्षम है। तंत्र-मार्ग में इसी को ‘ब्रह्म-सुख’कहा गया है।
शक्ति-संगम संक्षोभात् शत्तयावेशावसानिकम् ।
यत्सुखं ब्रह्मतत्त्वस्य तत्सुखं ब्रह्ममुच्यते ॥

अर्थात्, शक्ति-संगम के आरम्भ से लेकर शक्ति-आवेश के अन्त तक जो ब्रह्मतत्व का सुख प्राप्त होता है, उसे ‘ब्रह्म-सुख’ कहा जाता है। सहस्र-दल-भेदन करने के लिए आज तक जितने भी प्रयोग हुए हैं, उन सभी प्रयोगों में यह प्रयोग सबसे अनूठा है। तंत्र साधना शक्ति साधना है। शक्ति प्राप्त करके उससे मोक्ष की अवधारणा तंत्र की मूल अवधारणा है। स्त्रियों को शक्ति का रूप माना जाता है, कारण प्रकृति की ऋणात्मक ऊर्जा जिसे शक्ति कहते हैं स्त्रियों में शीघ्रता से अवतरित होती है, और तंत्र शक्ति को शीघ्र और अत्यधिक पाने का मार्ग है अतः तंत्र के क्षेत्र में प्रविष्ट होने के उपरांत साधक को किसी न किसी चरण में भैरवी का साहचर्य ग्रहण करना पड़ता ही है। तंत्र की एक निश्चित मर्यादा होती है। प्रत्येक साधक, चाहे वह युवा हो या वृद्ध, इसका उल्लंघन कर ही नहीं सकता, क्योंकि भैरवी ‘शक्ति’ का ही एक रूप होती है, तथा तंत्र की तो सम्पूर्ण भावभूमि ही, ‘शक्ति’ पर आधारित है।भैरवी, स्त्री होती है और स्त्री शरीर रचना की दृष्टि से और मानसिक संरचना की दृष्टि से कोमल और भावुकता प्रधान होती है। यह उसका नैसर्गिक प्राकृतिक गुण है। उसमे ऋण ध्रुव अधिक शक्तिशाली होता है और शक्ति साधना प्रकृति के ऋण शक्ति की साधना ही है। इसलिए भैरवी में ऋण शक्ति का अवतरण अतिशीघ्र और सुगमता से होता है जबकि पुरुष अथवा भैरव में इसका वितरण और प्राप्ति कठिनता से होती है। इस कारण भैरव को भैरवी से शीघ्रता और सुगमता से शक्ति प्राप्त हो जाती है। भैरवी साधना या भैरवी पूजा का रहस्य यही है, कि साधक को इस बात का साक्षात् करना होता है, कि स्त्री केवल वासनापूर्ति का एक माध्यम ही नहीं, वरन शक्ति का उदगम भी होती है और यह क्रिया केवल सदगुरुदेव ही अपने निर्देशन में संपन्न करा सकते है, क्योंकि उन्हें ही अपने किसी शिष्य की भावनाओं और संवेदनाओं का ज्ञान होता है। इसी कारणवश तंत्र के क्षेत्र में तो पग-पग पर गुरु साहचर्य की आवश्यकता पड़ती है, अन्य मार्गों की अपेक्षा कहीं अधिक। किन्तु यह भी सत्य है, कि समाज जब तक भैरवी साधना या श्यामा साधना जैसी उच्चतम साधनाओं की वास्तविकता नहीं समझेगा, तब तक वह तंत्र को भी नहीं समझ सकेगा तथा केवल कुछ धर्मग्रंथों पर प्रवचन सुनकर अपने आपको बहलाता ही रहेगा ।

प्रारम्भिक काल से ही शक्ति साधना तंत्र का अंग रहा है। इसके अपने सूत्र रहे हैं। बाद में इसमें दो धाराएं चलने लगी वाम मार्गी और दक्षिण मार्गी। दक्षिण मार्गी साधना वैदिक मार्ग से प्रेरित रही और समाज का वह वर्ग इससे जुड़ा रहा जो सात्विक विचारधारा का था। दूसरा मार्ग वाम मार्ग शक्ति साधना को तामसिकता से करने की और बढ़ा और उसके एकाग्रता आदि बढाने के लिए शराब आदि का सेवन शुरू किया। इस प्रकार शक्ति उपासकों का जो दुसरा वाम मार्गी मत था, उसमें शराब को जगह दी गई। उसके बाद बलि प्रथा आई और माँस का सेवन होने लगा। इसी प्रकार इसके भी दो हिस्से हो गये, जो शराब और माँस का सेवन करते थे, उन्हे साधारण-तान्त्रिक कहा जाने लगा। लेकिन जिन्होनें माँस और मदिरा के साथ-साथ मीन(मछली), मुद्रा(विशेष क्रियाँऐं), मैथुन(स्त्री का संग) आदि पाँच मकारों का सेवन करने वालों को सिद्ध-तान्त्रिक कहाँ जाने लगा। आम व्यक्ति इन सिद्ध-तान्त्रिकों से डरने लगा। किन्तु आरम्भ में चाहें वह साधारण-तान्त्रिक हो या सिद्ध-तान्त्रिक, दोनों ही अपनी-अपनी साधनाओं के द्वारा उस ब्रह्म को पाने की कोशिश करते थे। जहाँ आरम्भ में पाँच मकारों के द्वार ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा बनाई जाती थी और उस ऊर्जा को कुन्डलिनी जागरण में प्रयोग किया जाता था। ताकि कुन्डलिनी जागरण करके सहस्त्र-दल का भेदन किया जा सके और दसवें द्वार को खोल कर सृष्टि के रहस्यों को समझा जा सके। कोई माने या न माने लेकिन यदि काम-भाव का सही इस्तेमाल किया जा सके तो इससे ब्रह्म की प्राप्ति सम्भव है।

इसी वक्त एक और मत सामने आया जिसमें की भैरवी साधना या भैरवी चक्र को प्राथमिकता दी गई। इस मत के साधक वैसे तो पाँचों मकारों को मानते थे, किन्तु उनका मुख्य ध्येय काम के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति था। इसमें कुंडलिनी जागरण हेतु काम भाव का सहारा लिया गया जिसकी तीब्रता से मूलाधार की शक्ति बढाकर उसे जागृत किये जाने का सूत्र अपनाया गया। यह सूत्र प्राकृतिक होने पर भी अति कठिन था, और अधिकतर साधकों के भटकने, नष्ट होने, पथभ्रष्ट होने का खतरा था, अतः इसे अति गोपनीय रखा गया और इस पर कोई भी प्रामाणिक और पूर्ण जानकारी देने वाले ग्रन्थ की रचना नहीं की गयी, केवल इसे गुरु परंपरा से ही चलाया गया। यही कारण है की इस विद्या के सांकेतिक विवरण ही मिलते हैं, पूर्ण ज्ञान केवल गुरु द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।मूल भैरवी साधना कुंडलिनी जागरण की साधना है, जिसमे काम भाव को तीब्र से तीब्रतर करके मूलाधार का जागरण और तदुपरांत ऊर्जा को उर्ध्वमुखी करते हुए अन्य चक्रों का भेदन किया जाता है। इसकी अपनी गोपनीय विधियाँ हैं। इस मार्ग में बाद में अपने अनुसार परिवर्तन किये गए। कुछ मार्ग पंचमकार का सेवन करते हुए मैथुनोपरांत वीर्य और रज को शक्ति को समर्पित करने लगे। यह अति भावुकता का मार्ग था जिसमे देवी को सब समर्पित किया जाने लगा। कुछ में अन्य विधियाँ भी अपनाई जाने लगी। सात्विक मार्ग में कन्याओं का पूजन, किसी मार्ग में योनी पूजन मात्र आदि अनेक मार्ग विकसित हुए। जबकि मूल भैरवी साधना काम शक्ति को तीब्रतर करके शक्ति प्राप्त करने की थी और उसमे स्खलन की सख्त मनाही है, क्योकि स्खलन होने ही शक्ति का क्षय हो जाता है जबकि वह सम्बंधित चक्र को न भेद पाया हो। अतः एक निश्चित लक्ष्य तक इसमें स्खलन की सख्त मनाही है। इसी तरह इसमें कुछ ऐसी बातें भी सामने आने लगी की इसका नाम और स्वरुप बदनाम हो गया। भैरवी साधना के नाम पर कुछ शोषण की घटनाएँ भी दिखी। जबकि मूल साधना परम पवित्र और शिव-शक्ति की प्राप्ति का मार्ग है और उसका उद्देश्य मोक्ष है।

॥ कालभैरव की उत्पत्ति ॥

तंत्राचार्यों का मानना है कि वेदों में जिस परम पुरुष का चित्रण रुद्र में हुआ, वह तंत्र शास्त्र के ग्रंथों में उस स्वरूप का वर्णन ‘भैरव’ के नाम से किया गया, जिसके भय से सूर्य एवं अग्नि तपते हैं। इंद्र-वायु और मृत्यु देवता अपने-अपने कामों में तत्पर हैं, वे परम शक्तिमान ‘भैरव’ ही हैं । भगवान शंकर के अवतारों में भैरव का अपना एक विशिष्ट महत्व है। तांत्रिक पद्धति में भैरव शब्द की निरूक्ति उनका विराट रूप प्रतिबिम्बित करती हैं। वामकेश्वर तंत्र की योगिनीहदयदीपिका टीका में अमृतानंद नाथ कहते हैं- 
विश्वस्य भरणाद् रमणाद् वमनात्‌।
सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवो भैरवः॥

भ से विश्व का भरण, र से रमश, व से वमन अर्थात सृष्टि को उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले शिव ही भैरव हैं। तंत्रालोक की विवेक-टीका में भगवान शंकर के भैरव रूप को ही सृष्टि का संचालक बताया गया है । श्री तंत्वनिधि नाम तंत्र-मंत्र में भैरव शब्द के तीन अक्षरों के ध्यान के उनके त्रिगुणात्मक स्वरूप को सुस्पष्ट परिचय मिलता है, क्योंकि ये तीनों शक्तियां उनके समाविष्ट हैं- ‘भ’ अक्षरवाली जो भैरव मूर्ति है वह श्यामला है, भद्रासन पर विराजमान है तथा उदय कालिक सूर्य के समान सिंदूरवर्णी उसकी कांति है। वह एक मुखी विग्रह अपने चारों हाथों में धनुष, बाण वर तथा अभय धारण किए हुए हैं। ‘र’ अक्षरवाली भैरव मूर्ति श्याम वर्ण हैं। उनके वस्त्र लाल हैं। सिंह पर आरूढ़ वह पंचमुखी देवी अपने आठ हाथों में खड्ग, खेट (मूसल), अंकुश, गदा, पाश, शूल, वर तथा अभय धारण किए हुए हैं। ‘व’ अक्षरवाली भैरवी शक्ति के आभूषण और नरवरफाटक के सामान श्वेत हैं। वह देवी समस्त लोकों का एकमात्र आश्रय है। विकसित कमल पुष्प उनका आसन है। वे चारों हाथों में क्रमशः दो कमल, वर एवं अभय धारण करती हैं ।

स्कंदपुराण के काशी- खंड के 31वें अध्याय में उनके प्राकट्य की कथा है। गर्व से उन्मत ब्रह्माजी के पांचवें मस्तक को अपने बाएं हाथ के नखाग्र से काट देने पर जब भैरव ब्रह्म हत्या के भागी हो गए, तबसे भगवान शिव की प्रिय पुरी ‘काशी’ में आकर दोष मुक्त हुए। ब्रह्मवैवत पुराण के प्रकृति खंडान्तर्गत दुर्गोपाख्यान में आठ पूज्य निर्दिष्ट हैं-1. महाभैरव,2. संहार भैरव,3. असितांग भैरव,4. रूरू भैरव,5. काल भैरव,6. क्रोध भैरव,7. ताम्रचूड भैरव,8. चंद्रचूड भैरव।

लेकिन इसी पुराण के गणपति खंड के 41वें अध्याय में अष्टभैरव के नामों में सात और आठ क्रमांक पर क्रमशः कपालभैरव तथा रूद्र भैरव का नामोल्लेख मिलता है। तंत्रसार में वर्णित आठ भैरव असितांग, रूरू, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण संहार नाम वाले हैं। भैरव कलियुग के जागृत देवता हैं। शिव पुराण में भैरव को महादेव शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। इनकी आराधना में कठोर नियमों का विधान भी नहीं है। ऐसे परम कृपालु एवं शीघ्र फल देने वाले भैरवनाथ की शरण में जाने पर जीव का निश्चय ही उद्धार हो जाता है ।

॥ अघोर पंथ परम्परा ॥ 


इस पंथ के जनक महेश यानी शिव हैं। उसके बाद दत्तात्रेय व कानाराम से होते हुए यह परंपरा आज तक चली आ रही है। दत्तात्रेय, कीनाराम व गोरखनाथ के बारे में एक कहानी प्रसिद्ध है। कहते हैं कि गिरिनार पर्वत, जूनागढ़, गुजरात की चोटी पर दत्तात्रेय रहते थे और सबसे नीचे गोरखनाथ रहते थे। दत्तात्रेय चिलम पीकर आकाश मार्ग से गोरखनाथ के पास भेजते थे और गोरखनाथ चिलम पीकर पुन: आकाश मार्ग से दत्तात्रेय के पास भेज देते थे। एक बार दत्तात्रेय ने चिलम भेजी लेकिन गोरखनाथ के पास पहुंची नहीं, गोरखनाथ ने आत्मिक रूप से दत्तात्रेय से पूछा कि चिलम नहीं आई। दत्तात्रेय ने कहा कि बीच में औघड़ आकर बैठ गया है। बीच में बाबा कीनाराम पहुंच गए थे। जब दत्तात्रेय चिलम भेजते थे तो बीच में ही अघोराचार्य बाबा कीनाराम उसे खींच लेते थे और पीकर वापस कर देते थे। इस बारे में एक दोहा प्रसिद्ध हुआ- दत्त गोरख की अद्भुत माया, बीच में औघड़ आय समाया । आज भी इस पर्वत पर तीनों लोगों की टीकरी मौजूद है । पूर्वी उत्‍तर प्रदेश में कीनाराम का विशेष प्रभाव है। इनकी मुख्‍य पीठ वाराणसी में क्रीं कुंड के नाम से जानी जाती है। इनकी परंपरा में अवधूत भगवान राम हुए थे जिनकी प्रसिद्धि देश-विदेश में थी। अपना शरीर छोड़ते समय बाबा कीनाराम ने भक्‍तों को आश्‍वस्‍त किया था कि वे अपनी ग्‍यारहवीं गद्दी पर पुन: आएंगे। इस समय ग्‍यारहवीं गद्दी चल रही है। अघोराचार्य बाबा गौतमराम जी महाराज गद्दी संभाल रहे हैं। इन्‍हें पांच वर्ष की अवस्‍था में अवधूत भगवान राम ने गद्दी पर बिठाया था

॥ अघोर पंथ की दीक्षा ॥

अघोर पंथ की साधना पहले बहुत कठिन हुआ करती थी। दीक्षा लेने के बाद साधक बारह वर्ष तक रूद्राचार में व्‍यतीत करता था। रूद्राचार के समय उसे जंगल, पहाड़, श्‍मशान आदि में ही रहना होता था, पूरे बारह वर्ष नहाना नहीं होता था। यदि भूख लगे तो पास के गांव में जाकर पांच घरों से भोजन मांगना होता था, यदि उन पांच घरों से कुछ न मिले तो छठवें घर से कुछ मांगने की अनुमति नहीं थी। समाज पर नाम मात्र की निर्भरता होती थी। ताकि औघड़ समाज के ऊपर बोझ न बने। इसलिए औघड़ वस्‍त्र के रूप में कफन व भोजन पकाने के लिए श्‍मशान की लकड़ी का उपयोग करता था, यानी वे चीजें अपने उपयोग में लाता जो समाज से उपेक्षित हैं और समाज के काम नहीं आ सकती हैं। इस परंपरा में पंचमकार का प्रयोग होता है- मांस, मदिरा, मीन, मुद्रा व मैथुन। इन्‍हें मुक्ति प्रदाता माना गया है। इनके साथ रहकर इनसे अप्रभावित रहने की साधना है अघोर। क्‍योंकि संसार में सर्वाधिक बांधने वाले यही चीजें हैं, यदि इनकी गोद में बैठकर साधक इनसे ऊपर उठ गया तो फिर उसे संसार की कोई शक्ति बांध नहीं सकती। यह पंथ किसी भी प्रकार का दमन नहीं सिखाता है, भोग के बीच से योग का रास्‍ता सुझाता है ।
रूद्राचार की परंपरा का अंत पंचमकार की परंपरा तो आज भी है लेकिन अवधूत भगवान राम ने रूद्राचार की परंपरा को खत्‍म कर दिया और गुरु भक्ति को इस पंथ की मुख्‍य साधना बना दिया। आज औघड़ गुरुभक्ति की ही साधना करते हैं। अवधूत भगवान राम ने कहा था- कि रत्‍ती भर विश्‍वाश करो तो हिमालय इधर से उधर हो जाएगा। उनके साधक इसका प्रत्‍यक्ष अनुभव भी करते हैं। रूद्राचार समाप्‍त करने के साथ ही अवधूत भगवान राम ने सभी श्‍मशानों को कीलित कर दिया था, इसलिए अब इस पंथ में श्‍मशान साधना का कोई महत्‍व नहीं है। कुल मिलाकर गुरु भक्ति ही प्रमुख है। उन्‍होंने औघड़ों को वस्‍त्रों की बाध्‍यता से भी मुक्‍त किया और कहा कि कोई भी वस्त्र धारण कर सकते हो। इस पंथ को समाज से जोड़ने का श्रेय अवधूत भगवान राम को ही जाता है। इनके पूर्व यह पंथ समाज से कटा हुआ था ।

ढोंगी औघाड़ औघड़ों के नाम पर कुछ लोग वेश बदल कर समाज को ठगने का कार्य करते हैं। औघड़ों के बारे में भ्रम फैलाने वाली पत्रिकाएं उनका ऐसा रूप प्रस्‍तुत करती हैं जो भयभीत करने वाला है। उसी का लाभ उठाकर कुछ लोग काले वस्‍त्र धारण कर लेते हैं, मदिरा पान करते हैं, अपना चेहरा क्रोधी बना लेते हैं, समाज को विभिन्‍न उपायों से भयभीत करते हैं और उनसे धन ऐंठते हैं । जबकि असली औघड़ न तो क्रोधी होता है और न ही उसे किसी प्रकार की पूजा या उपासना में रुचि होती है और न ही वह किसी को इसकी सलाह देता है। उसे जो भला करना होता है बिन बोले व बिन कुछ कहे भला कर देता है, वह ढिंढोरा नहीं पीटता है। इसलिए नकली औघड़ों से सावधान रहने की जरूरत है। औघड़ की मूल बात यह जान लें कि वह किसी का नुकसान नहीं करता, केवल लोक मंगल की कामना ही करता है, वह शिव का साक्षात स्‍वरूप होता है और शिव मंगलकारी हैं । औघड़ के इस रूप को ध्‍यान में रखेंगे तो न तो उससे भयभीत होंगे और न ही कोई नकली औघड़ आपको ठग पाएगा । क्रीं कुंड वाराणसी के अलावा पश्चिम बंगाल की तारा पीठ प्रमुख मानी जाती है । यहां वामा क्षेपा हुआ करते थे। इसी तरह कुछ और पीठें हैं जो अघोर साधना के लिए जानी जाती हैं, जिसमें कामाख्या पीठ, त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग नासिक,महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग उज्‍जैन आदि हैं । अघोर हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है। इसका पालन करने वालों को अघोरी कहते हैं। ये भारत के पूराने धर्म “शैव” (शिव साधक) से संबधित है। अघोरियों को इस पृथ्वी पर भगवान शिव का जीवित रूप भी माना जाता है । शिवजी के पांच रूपों में से एक रूप अघोर रूप है।अघोरियों का जीवन जितना कठिन है, उतना ही रहस्यमयी भी। अघोरियों की साधना विधि सबसे ज्यादा रहस्यमयी है। उनकी अपनी शैली, अपना विधान है, अपनी अलग विधियां हैं। अघोरी उसे कहते हैं जो घोर नहीं हो। यानी बहुत सरल और सहज हो। जिसके मन में कोई भेदभाव नहीं हो । अघोरी हर चीज में समान भाव रखते हैं । वे सड़ते जीव के मांस को भी उतना ही स्वाद लेकर खाते हैं, जितना स्वादिष्ट पकवानों को स्वाद लेकर खाया जाता है ।अघोरियों की दुनिया ही नहीं, उनकी हर बात निराली है । वे जिस पर प्रसन्न हो जाएं उसे सब कुछ दे देते हैं । अघोरियों की कई बातें ऐसी हैं जो सुनकर आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे । हम आपको अघोरियों की दुनिया की कुछ ऐसी ही बातें बता रहे हैं, जिनको पढ़कर आपको एहसास होगा कि वे कितनी कठिन साधना करते हैं । साथ ही उन श्मशानों के बारे में भी आज आप जानेंगे, जहां अघोरी मुख्य रूप से अपनी साधना करते हैं । जानिए अघोरियों के बारे में रोचक बातें -
अघोरी मूलत: तीन तरह की साधनाएं करते हैं। शिव साधना, शव साधना और श्मशान साधना। शिव साधना में शिव के ऊपर पैर रखकर, खड़े रहकर साधना की जाती है। बाकी तरीके शव साधना की ही तरह होते हैं। इस साधना का मूल शिव की छाती पर पार्वती द्वारा रखा हुआ पैर है। ऐसी साधनाओं में मुर्दे को प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा चढ़ाई जाती है। शव और शिव साधना के अतिरिक्त तीसरी साधना होती है श्मशान साधना, जिसमें आम परिवारजनों को भी शामिल किया जा सकता है । इस साधना में मुर्दे की जगह शवपीठ (जिस स्थान पर शवों का दाह संस्कार किया जाता है) की पूजा की जाती है । उस पर गंगा जल चढ़ाया जाता है । यहां प्रसाद के रूप में मांस-मदिरा की जगह मावा चढ़ाया जाता है। अघोरी शव साधना के लिए शव कहाँ से लाते है?  हिन्दू धर्म में आज भी किसी 5 साल से कम उम्र के बच्चे, सांप काटने से मरे हुए लोगों, आत्महत्या किए लोगों का शव जलाया नहीं जाता बल्कि दफनाया या गंगा में प्रवाहित कर कर दिया जाता है। पानी में प्रवाहित ये शव डूबने के बाद हल्के होकर पानी में तैरने लगते हैं। अक्सर अघोरी तांत्रिक इन्हीं शवों को पानी से ढूंढ़कर निकालते और अपनी तंत्र सिद्धि के लिए प्रयोग करते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि अघोरियों की साधना में इतना बल होता है कि वो मुर्दे से भी बात कर सकते हैं। ये बातें पढऩे-सुनने में भले ही अजीब लगें, लेकिन इन्हें पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता । उनकी साधना को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती ।अघोरियों के बारे में कई बातें प्रसिद्ध हैं जैसे कि वे बहुत ही हठी होते हैं, अगर किसी बात पर अड़ जाएं तो उसे पूरा किए बगैर नहीं छोड़ते । गुस्सा हो जाएं तो किसी भी हद तक जा सकते हैं । अधिकतर अघोरियों की आंखें लाल होती हैं, जैसे वो बहुत गुस्सा हों, लेकिन उनका मन उतना ही शांत भी होता है । काले वस्त्रों में लिपटे अघोरी गले में धातु की बनी नरमुंड की माला पहनते हैं । अघोर अक्सर श्मशानों में ही अपनी कुटिया बनाते हैं । जहां एक छोटी-सी धूनी जलती रहती है । जानवरों में वो सिर्फ कुत्ते पालना पसंद करते हैं । उनके साथ उनके शिष्य रहते हैं, जो उनकी सेवा करते हैं । अघोरी अपनी बात के बहुत पक्के होते हैं, वे अगर किसी से कोई बात कह दें तो उसे पूरा करते हैं। अघोरी गाय का मांस छोड़ कर बाकी सभी चीजों को खाते हैं । मानव मल से लेकर मुर्दे का मांस तक । अघोरपंथ में श्मशान साधना का विशेष महत्व है । इसलिए वे श्मशान में रहना ही ज्यादा पंसद करते हैं । श्मशान में साधना करना शीघ्र ही फलदायक होता है । अघोरी में साधारण मानव जाता ही नहीं । इसीलिए साधना में विध्न पडऩे का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । उनके मन से अच्छे बुरे का भाव निकल जाता है, इसलिए वे प्यास लगने पर खुद का मूत्र भी पी लेते है। अमूमन आम दुनिया से कटे हुए होते हैं । वे अपने आप में मस्त रहने वाले, अधिकांश समय दिन में सोने और रात को श्मशान में साधना करने वाले होते हैं । वे आम लोगों से कोई संपर्क नहीं रखते । न ही ज्यादा बातें करते हैं । वे अधिकांश समय अपना सिद्ध मंत्र ही जाप करते रहते हैं ।आज भी ऐसे अघोरी और तंत्र साधक हैं जो पराशक्तियों को अपने वश में कर सकते हैं । ये साधनाएं श्मशान में होती हैं और दुनिया में सिर्फ चार श्मशान घाट ही ऐसे हैं जहां तंत्र क्रियाओं का परिणाम बहुत जल्दी मिलता है । ये हैं तारापीठ का श्मशान (पश्चिम बंगाल), कामाख्या पीठ (असम) का श्मशान, त्र्र्यम्बकेश्वर (नासिक) और उज्जैन (मध्य प्रदेश) का श्मशान है ।