भारतीय दार्शनिकों ने विश्व के मूल में अवस्थित परमतत्व को निर्गुण एवं निराकार ब्रह्म के रूप में पहचान कर – 
' अथातो ब्रह्मजिज्ञासा
के द्वारा उस निर्गुण - निराकार तत्त्व की जिज्ञासा तो की किन्तु वह निर्गुण - निराकार ब्रह्म शक्ति के बिना इतना अशक्त था कि वह उसके बिना हिल भी नहीं सकता था ---


शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं ।
न  चेदेवं  देवो न  खलु   कुशल  स्पन्दितुमपि । ।


अतः उन्हें ब्रह्म जिज्ञासा छोड़कर ब्रह्म के हृदय में निवास करने वाली उसकी शक्ति की जिज्ञासा करनी पड़ी । यह शक्ति कहीं तो उस ब्रह्म की आत्मगता पराशक्ति के रूप में तो कहीं परमाराध्य ब्रह्म के रूप में भावित हुई । इसी भावित स्वरूप की जिज्ञासा आचार्य हयग्रीव एवं ऋषि अगस्त्य के शब्दों में– अथातः शक्तिजिज्ञासा ' के रूप में प्रकट हुई । ऋषियों को इसी जिज्ञासा में --- 
' किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता ? 
जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठाः । अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्  के प्रश्न का उत्तर मिल सका प्राचीनतम उपनिषदों में से एक उपनिषद् श्वेताश्वतरोपनिषद् में इसी शक्ति का उल्लेख इस रूप में किया गया है - 
' परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते , स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ।
 यही आद्या परमा शक्ति कभी स्वातन्त्र्य शक्ति के रूप में तो कभी विमर्श शक्ति के रूप में ; कभी भुवनेश्वरी के रूप में तो कभी महात्रिपुरसुन्दरी के रूप में , कहीं कालिका के रूप में तो कहीं भगवती बगलामुखी के रूप में प्रकट हुई । यह पुस्तक उन्हीं परा , जगदम्बिका , सर्वेश्वरी , सर्वदेवाराध्या एवं परात्पर पराशक्ति भगवती बगलामुखी महाविद्या को केन्द्र में रखकर लिखी गई है । उनका स्वरूप इस प्रकार है -
' जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं वामेन शत्रून् परिपीडयन्तीम् ।
 गदाभिघातेन च दक्षिणेन पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।
 चतुर्भुजां त्रिनयनां पीतवस्त्रधरां शिवाम् । 
 वन्देऽहं बगलां देवीं शत्रुस्तम्भनकारिणीम् ॥ 
 योगिनीकोटिसहितां पीताहारोऽपि चञ्चलाम् । 
 कमला परमा वन्दे परब्रह्मस्वरूपिणीम् ॥ 
वे सच्चिदानन्द ब्रह्म हैं । 
इन्हीं भगवती बगलामुखी की विद्या ब्रह्मास्त्रविद्या है । इस ब्रह्मास्त्रविद्या का प्रयोग एवं उपयोग अनेक महत्त्वपूर्ण प्रयोजनों के पूर्त्यर्थ किया जाता है । 
यथा -
' अमात्यानां च दुष्टानां दूषकानां दुरात्मनाम् । 
दुष्टग्रहादिजातीनां सैन्यानामपि पुत्रक ।। 
क्रूरग्रहविनाशाय सर्वशान्त्यर्थमेव  च । 
पराभिचारशान्त्यर्थं  रक्षार्थं च विशेषतः ॥ 
अपमृत्युविनाशार्थं रोगशान्त्यर्थमेव च । 
परसेनाविनाशाय स्वसेनारक्षणाय च ॥ 
आत्मार्थं च परार्थं च विजयार्थं च षण्मुख । 
वेतालादिविनाशार्थं भैरवादिप्रशान्तये ॥
समस्तविषनिर्नाशमुष्टिकुक्षिविधावपि  । 
शस्त्रास्त्रशरसन्धाने  संहारास्त्रादिनाशने ॥ 
शस्त्रास्त्रस्तम्भनेषु तद्वत्सूचीविधावपि । 
स्तब्धीकरणनाशार्थं मृतकोत्थापनेऽपि च ।
देशोपद्रवनाशार्थे राष्ट्रभङ्गसमागमे ।
कोटिकृत्याविनाशार्थं स्वेटरक्षणकर्मणि ।।
महाविषे तैजसे तु विण्मूत्रबीजरक्तते ।
उद्भ्रान्तघूरिनाशार्थे घटकृत्यविनाशने ॥ 
जलकृत्याविनाशार्थे स्थलकृत्याविनाशने । 
वातकृत्याविनाशार्थे गन्धकृत्याविनाशने ॥
महेन्द्रपदनिर्माशे विरुण्डानाशनेऽपि च । 
भेरुण्डानाशनाद्यर्थे रक्तपावेशभैरवे ।। 
शैलस्तम्भे दारुनाशे मन्त्रमण्डलरोगहत् । 
सत्यब्रह्मास्त्रयोगोऽयं सर्वथा चलति ध्रुवम् ॥ 
अमोघमृत्युनाशाय समाश्चर्यरमा यदि । 
 तं       प्रयोगमहायोगं शृणु सार्वहितो भव ' ।। 
भगवती की महाविद्या का प्रयोग अभिचारषट्क के लिए भी किया जाता है जो निम्नांकित हैं 
' शान्तिवश्यस्तम्भनानि विद्वेषोच्चाटने तथा । 
मारणानि प्रशंसन्ति षट्कर्माणि मनीषिणः ॥ 
शान्ति का स्वरूप इस प्रकार है 
' नानारोगे : कृत्रिमैश्च नानाचेष्टाक्रमेण च । 
विषभूतप्रयोगेषु निरास : शान्तिरीरिता ॥ 
वश्य का स्वरूप 
' वश्यं जनानां सर्वेषां वात्सल्यं हृद्गतं स्मृतम् ' ।।
स्तम्भन का स्वरूप
स्तम्भनं रोधनं पुत्र सर्वकर्मसुनिश्चितम् ।
विद्वेषण का स्वरूप 
मिश्रस्य   कलहोत्पत्तिर्विद्वेषणमुदाहृतम् ' ।
उच्चाटन का स्वरूप
बलं बुद्धिभ्रमेणोक्तमुच्चाटनमिदं भुवि ।
मारण का स्वरूप 
प्राणिनां प्राणहरणं मारणं समुदाहृतम् ॥ 
किन्तु इन षट् कर्मों का प्रयोग आपदाएँ आने पर भी ( सामान्यतः ) नहीं करना चाहिए 
क्योंकि अन्यथा देवता शाप दे देते हैं 
 न कर्तव्यं प्रयोगादि आपद्यपि कदाचन ।
 यः करोति प्रयोगान् सो देवता शापमाप्नुयात् ॥ 
( सांख्यायनतन्त्र ) 
यदि प्राणसङ्कट ही आ जाय तब तो - ' 
ॐ ह्न्लीं ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा  
के जप के साथ भगवती
मातर्भञ्जय मे विपक्षवदनं , जिह्वाञ्चलं कीलय 
ब्राह्मीं मुद्रय मुद्रयाशु धिषणामङ्घ्र्योर्गतिं स्तम्भय । 
शत्रूंचूर्णय चूर्णयाशु गदया गौराङ्गि पीताम्बरे 
विघ्नौघं बगले हर प्रणमतां कारुण्यपूर्णेक्षणे ॥ 
यह प्रार्थना करते हुए यन्त्र पूजन के सहित पुरश्चरण एवं अग्रोक्त विधान सहित भगवती की षोडशोपचार पूजा करनी चाहिए । 
यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक आध्यात्मिक साधना का मूल उद्देश्य आत्मोन्नति , निःश्रेयस् एवं विश्वकल्याण है । 
अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए जगन्माता एवं उनकी ब्रह्मास्त्रविद्या का प्रयोग करना प्रत्येक दृष्टि से अनौचित्यपूर्ण है । 
अन्य विद्याओं की भाँति इस विद्या का भी अन्तिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है -  
मोक्षार्थी च गुरुं यत्नाच्छुश्रूषेणैव तोषयेत् । 
इसीलिए इस महाविद्या की साधना की दिशा में योग की 
' षट्चक्रभेदन ' प्रक्रिया द्वारा - १. स्वात्मैक्य - स्थापन एवं २. विद्या - सामरस्य को लक्ष्य बनाकर अन्तर्यात्रा करने का निर्देश दिया गया है '
 षट्चक्रभेदनं कृत्वा स्वात्मैक्यं च विभाव्य च ।
 विद्यारूपो भवेत्पुत्र साम्राज्यपरमेष्ठिता ' ।
इसीलिए स्पष्ट रूप में कहा गया है कि इस महाविद्या का प्रयोग परपीड़ा के लिए नहीं किया जाना चाहिए 
मुमुक्षुभिर्न कर्तव्या परपीडा कदाचन । 
इस अन्यतमा ब्रह्मास्त्रमहाविद्या का प्रयोग करने से तो अनन्त ब्रह्माण्डों का भी महाध्वंस हो सकता है , किन्तु इसके प्रयोग की मर्यादाएँ भी हैं और इसका प्रयोगानुशासन भी है । 
यह महाविद्या आभिचारिक कर्मों की सिद्धियों एवं उनके प्रयोगों को केन्द्र में रखकर प्रवर्तित नहीं हुई , क्योंकि इसके द्वारा ज्ञान , शक्ति एवं वैराग्य तथा मोक्ष भी प्राप्त होता है- 
ज्ञानं शक्तिं च वैराग्यं लभते च सुनिश्चितम् । 
क्योंकि भगवती मोक्षप्रदा हैं । अतः अपने भक्तों के लिए महामोक्षप्रदायिनी है- 
महाभोगवती देवी महामोक्षप्रदायिनी । 
भगवती की पूजा बिन्दु में स्वर्णसिंहासन पर आसीन , सर्वसिद्धिप्रदायिका , चिन्मयी पराशक्ति के रूप में करनी चाहिए - 
बिन्दुमध्ये च सम्पूज्य स्वर्णसिंहासनोपरि । 
चिन्मयी बगला देवीं  सर्वसिद्धिप्रदायिकाम् ।। 
चतुर्भुजां वा द्विभुजां गदाजिह्वाञ्च बिभ्रतीम् 
पीतवर्णा मदाघूर्णामर्चयेन्मूलविद्यया ॥  
यह महाविद्या समस्त विद्याओं का प्रभाव नष्ट करके अपना प्रभाव दिखाती है -
ग्रसनी सर्वविद्यानां बगलैकैव  भूतले ॥ 
इसीलिए कहा गया है कि- 
' बगलायास्तु वै मन्त्रं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् । 
भगवती विश्वरूपा है अतः विश्व के सारे रूप उन्हीं के हैं - 
' भजेऽहं स्तम्भनार्थं च चिन्मयीं विश्वरूपिणीम् । 
इसीलिए किसी भी रूप को कष्ट पहुंचाना भगवती को ही कष्ट पहुँचाना होगा अतः यह वर्ज्य है । 
मोक्ष काम्य है- 
' तारादि प्रजपेन्मन्त्रं मोक्षार्थी च कुमारक ' । 
विश्व शक्तिमय है और यह शक्ति ही बगलामुखी हैं - 
' विश्वमेतच्छक्तिमयं सा शक्तिर्बगलामयी । 
अतः महाविद्योपासना का लक्ष्य देवी का साक्षात्कार होना चाहिए 
' एवं कृत्वा तत्त्वलक्षं देवी प्रत्यक्षमाप्नुयात् । 
साधक का लक्ष्य है ' जीवन्मुक्ति ' इस साधना द्वारा वह जीवन्मुक्त भी हो जाता - 
' जीवन्मुक्तः स एवात्र स सिद्धो नात्र संशयः ' ॥ 
यह महाविद्या नरनारायणप्रिया , ब्रह्मा , विष्णु , महेश , नारद आदि द्वारा उपासिता ' परब्रह्माधिदैवता ' के स्वरूप में अवस्थित है - 
नानालङ्कारशोभाढ्यांनर - नारायणप्रियाम् ।
वन्देऽहं बगला देवीं परब्रह्माधिदैवताम् ॥
' देवीरूपो न संशयः ' की बात को बार - बार कहे जाने का उद्देश्य यही है कि इस ब्रह्मास्त्रविद्या की उपासना का परम लक्ष्य - 
भगवती बगलामुखी के साथ ऐकात्म्य प्राप्त करना है--
 तन्मयीभाव द्वारा तादात्म्याप्ति है और -
' अहं देवी न चान्योऽस्मि ' की अद्वैत सिद्धि है । 
इस साधना क्रम में सबसे प्रथम कवच का और फिर स्तोत्र का पाठ करना चाहिए -
' कवचं प्रपठेदादी स्तोत्रं पुनश्चरेत् '। 
इसमें अनुलोम - विलोम योग भी प्रयोज्य है — ' अनुलोम  विलोमेन द्वितीयो योग ईरितः ' 
   
इसमें लघुषोढ़ा , महापोढा , पञ्जरन्यास , कुल्लुका , सेतु , महासेतु , मृत्युञ्जय का जप आदि भी प्रयोज्य है -
' लघुषोढां महाषोढां पञ्जरन्यासमेव हि । 
बगला मातृकां न्यस्य कुल्लुकां च विचिन्त्य वै ।
 सेत्वादिकामराजान्तं न्यस्य मृत्युञ्जयं जपेत् ॥
 
इसमें कुण्ड - निर्माण , कलश स्थापन , गणपति - पूजन , मण्डल निर्माण , तर्पण , मार्जन , अभिषेक , दक्षिणा , विप्रभोजन , हवन , यन्त्रप्रोक्षण आदि सभी कर्मकाण्डीय एवं उपासनोपयोगी अङ्ग स्वीकृत हैं ।
१. आदौ गणपतिं पूज्यं द्वारपूजादिसंयुतम् । 
२. निवेदयेद् द्रव्यशुद्धी तत्रैव जपमाचरेत् । 
३. बाह्याभ्यन्तरयोः पुत्र अभेदज्ञानयोर्विना । 
४. अभिषेको विप्रभोज्यं साङ्गयोगः प्रसिद्ध्यति । 
५. इति संक्षेपतः प्रोक्तं तोषयेदक्षिणादिना ।
६. मण्डले बगलादीपो कवचे मूलदीपकः । 
७. एवं यन्त्रं समालिख्य प्राणस्थापनपूर्वकम् । 
८. वृषभं चास्त्रमन्त्रेण प्रोक्षयित्वा विधानतः । 
९ . एवं च मार्जनं कृत्वा नवीनैर्वस्त्रभूषणैः । 
१०. अलंकृत्वा तु शिष्यं तमानीय मण्डपान्तरे । 
११. मन्त्राभिषेक कर्तव्यः सद्य सिद्धिकरो भवेत् । 
१२. अयुतं प्रजपेन्मन्त्रं गायत्रीं वेदमातरम् । 
१३. श्रीसूक्त लक्ष्मीसूक्त - पुरुषसूक्त- नारायणानुवाक - पञ्चब्रहामन्त्र-पञ्चब्रह्ममन्त्र-ब्रह्मवल्ली-भृगुवल्ली
आदि सभी प्रयोज्य है 
लक्ष्मी श्रीसूक्तकाभ्याञ्च द्वितीयकलशार्च नम् । 
पौरुषेणैव सूक्तेन तृतीयं कलश तथा ॥ 
नारायणानुवाकेन चतुर्थं कलश तथा । 
पञ्चब्रह्ममयैर्मन्त्रः पञ्चमं कलश   तथा ॥
षष्ठं चाम्भस्य पारेण ब्रह्मवल्ल्या तु सप्तमम् । 
अष्टमं भृगुवल्ल्या तु मार्जयेन्मन्त्रकोविदः । 
षोडशैरुपचारैश्च धूपाद्येनैव विन्यसेत् ॥ 
१४. आवाहनस्थापनानि सन्निधापनमेव च । 
१५. सन्निवेशनमुद्रा च सम्मुखी प्रार्थनी तथा ।
१६. नित्यकर्म समाप्यन्ते मन्त्रसन्ध्यां समाचरेत् । 
१७. उपस्थानं विना सन्ध्या निष्फला नात्र संशयः ।
१८. अर्धत्रयं च निक्षिप्य हृदि सम्भाव्य देवताम् ।
१९ . पूजनञ्च प्रयोगश्च वक्ष्येऽहं तव पुत्रक  ।
२०. न्यासविद्यां प्रवक्ष्यामि मन्त्रसिद्धिकरी नृणाम् । 
२१. भूतशुद्धिं भूतशुद्धिं मातृकाद्वितयं न्यसेत् । 
२२. कीर्तिकामस्तु जुहुयात् त्रिकोणाकारकुण्डके ।
२३. तिलतैलेन सम्मिश्रं माषहोमं गुणायुतम् । 
२४. प्रेताग्नौ प्रेतकाष्ठेन नग्नः सन् प्रेतदिङ्मुखः ।
२५. तत्र नग्नो जपं कुर्यादयुतं मूलविद्यया । 
२६. यन्त्रं प्रयोगं मम शासनं कलौ यन्त्रप्रयोगं यमिनां सुदुर्लभम् 
२७. गायत्री च विना मन्त्रो न सिद्ध्यति कलौ युगे ।
पुरशरणकाले तु गायत्री प्रजपेन्नरः । 
२८. सिद्धिमार्गमिदं पुत्र नास्ति सिद्धिं गुणैर्विना । 
२९ . कुर्यात्सौभाग्यपूजां च नोचेद् भ्रष्टो भवेन्नरः । 
३०. ध्यानं विना भवेन्मूको मन्त्रसिद्धोऽपि पुत्रक । 
३१. ब्राह्मणान् भोजयेत्पश्चात्तद्दशांशं कुमारक । 
३२. नग्नः श्मशानभूमौ तु जपेद्दक्षिणदिङ्मुखः । 
३३. श्रीसूक्तैर्मार्जनेनैव तं मन्त्रेणाभिमन्त्रितः । 
३४. चतुरङ्गुलमानं च पुत्तलीं कारयेत्सुधीः ।। 
३५. प्राणप्रतिष्ठां कृत्वा तु संहारक्रमतोऽर्चयेत् । 
प्राणप्रतिष्ठां पुत्तल्यां कृत्वा मन्त्रेण मन्त्रयेत् ॥ 
३६. मन्त्रितं तोयं जुहुयात् क्षीरं वापि तथैव च ।। 


आदि उदाहरणों के द्वारा यह प्रमाणित है कि महाविद्या बगलामुखी की साधना में सारे कर्मकाण्डीय विधान सम्मिलित हैं किन्तु ' योगाभ्यासी योगसिद्धिस्तपस्वी च ततोऽधिकः ' आदि प्रमाणों द्वारा इसमें योगसाधना भी सम्मिलित हैं । 


( क ) भगवती सर्वमन्त्रमयी है
' सर्वमन्त्रमयी देवी सर्वाकर्षणकारिणीम् । 
अतः मन्त्रों की सारी साधनाएँ एवं सिद्धियाँ भी इस महाविद्या में सम्मिलित हैं । 


( ख ) भगवती बगला जगद्व्यापिनी एवं चिन्मयी है- 
' देवता बगला नाम्नी जगद्व्यापकरूपिणी । '
 चिच्छक्तिर्ज्ञानरूपा च ब्रह्मानन्दप्रदायिनी ॥


 ( ग ) वे विष्णु , ब्रह्मा एवं रुद्रशक्ति भी हैं
विष्णुरूपा जगन्मोहा ब्रह्मरूपा हरिप्रिया । 
रुद्ररूपा रुद्रशक्तिश्चिन्मयी  भक्तवत्सला ' । 


( घ ) वे मन्त्ररूपा परादेवी भी है और गुरु भी हैं - 
' मन्त्ररूपा परादेवी तथैव गुरुरूपिणी '॥ 


( ङ ) वे विश्वेश्वरी , निष्कला , परमाकला , विश्वमाता और ललिता भी हैं 
' मङ्गला शोभना शुद्धा निष्कला परमा कला । 
  विश्वेश्वरी विश्वमाता ललिता हसितानना ' ॥


ऐसी सर्वरूपा , सर्वमन्त्रमयी , सर्वशक्तिमयी , सर्वत्रिदेवमयी , सर्वाकृतिमयी , सर्वदेवमयी , सच्चिदानन्दमयी और परब्रह्मस्वरूपिणी भगवती बगलामुखी के विषय ज्ञान प्रदान करता श्री गुरुदेव कर चरणों में प्रणाम एवं मित्रों को साधुवाद देते हुए उनके प्रति हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ ।


यदि इस कृति से पाठकों को रञ्चमात्र भी सन्तोष मिला तो मैं उसे ही अपने इस परिश्रम का सर्वोच्च मानूँगा । 


अन्त में मैं उन्हीं भगवती के पादपंकजों में नमन करता हुआ कहना चाहूँगा कि वे इस सत्य को साक्षात्कृत करायें कि - 
' देवी दात्री च भोक्त्री च देवी सर्वमिदं जगत् । 
देवी    जयति  सर्वत्र  या  देवी  साऽहमेव च ॥ 
    
पाठकों के लिये सर्वतोभावेन ध्यातव्य है कि सुयोग्य गुरु की अनुज्ञा एवं निर्देश प्राप्त किये विना मात्र स्वविवेक से ग्रन्थ का अध्ययन कर किसी भी मन्त्र का प्रयोगात्मक अनुष्ठान न करें । स्वयम्भू प्रयोगों से होने वाले किसी भी दुष्परिणाम का उत्तरदायित्व स्वयं अनुष्ठाता का ही होगा, इसके लिये लेखक, प्रकाशक अथवा तत्सम्बन्धी किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं होगा ।