॥ मन्वन्तर वर्णन ॥
परीक्षित बोले- हे गुरो ! जिस-जिस मन्वन्तर में हरि के जन्म और कर्मों का वर्णन है उनका वर्णन हमारे सामने कीजिए। शुकदेवजी बोले- इस कल्प में स्वायम्भुव से लेकर छःमनु हो गये हैं, इनमें से पहले मनु का वर्णन तो मैंने सुना दिया। उसी स्वायम्भुव मनु का अकूती और देवहूति पुत्रियों में धर्म और ज्ञान के उपदेश के लिए उनके घर में यज्ञ तथा कपिल नामक पुत्र रूप धारण किया था।
भगवान कपिल देव का चरित्र हम पहले वर्णन कर चुके हैं, अब यज्ञ भगवान का चरित्र वर्णन करेंगे। शतरूपा के पति स्वायम्भुव मनु सांसारिक भोगों से विरक्त हो तप के लिए स्त्री सहित वन चले। वहाँ इन्होंने सुनन्दा के किनारे एक पाँव से पृथ्वी पर सौ वर्ष तक खड़े रहकर घोर तप किया।
स्वायम्भुव मनु मंत्ररूप उपनिषद को जब कह रहे थे उस समय असुर और यातुधान उनको भक्षण करने को दौड़े। यह देखकर वह हरियाम नामक देवताओं को साथ लेकर राक्षसों को मार स्वर्ग का राज्य करने लगे। अब दूसरे मनु को कहते हैं। स्वारोचिष मनु अग्नि का पुत्र, इसके द्युमान, सुषेण तथा रोचिष्मान् आदि दस पुत्र उत्पन्न हुए।
उस मन्वंतर में रोचन नाम से तो इन्द्र था, तुषितादिक देवता थे और ऊर्जस्तम्भादिक ब्रह्मवेत्ता सप्तऋषि हुए थे। वेदशिराऋषि की तुषिता नामक स्त्री से विभु भगवान ने जन्म लिया था। इस बाल ब्रह्मचारी विभु से अट्ठासी हजार मुनियों ने व्रत सीखा था। प्रियव्रत पुत्र उत्तम मनु हुआ इसके पवनसृजंन और यज्ञहोत्रादिक पुत्र हुए।
इस मन्वन्तर से प्रमादादिक वसिष्ठ के पुत्र सप्तऋषि तथा सत्यादेव श्रुता और भद्र देवता हुए और इन्द्र सत्यजित के नाम से हुआ। धर्म की सुनूता नामक स्त्री से भगवान ने सत्यव्रतों के साथ सत्यसेन का अवतार लिया। सत्यजीत के मित्र सत्यसेन ने दुष्टों का नाश किया।
उत्तम का भ्राता तामस चौथा मनु हुआ। इसके पृथु, ख्याति, नर और केतु आदि दस पुत्र हुए। इस मन्वन्तर में सत्यक, हरि, वीर देवता हुए त्रिशिख इन्द्र हुआ और ज्योतिर्धा-मादिक सात ऋषि हुए। वैधृति के पुत्र वैधृति नाम देवता हुए उन्होंने नष्ट हुए वेदों का अपने तेज से उद्धार किया था।
इस मन्वन्तर में हरिधाम की हिरणी नाम रानी से भगवान ने हरिरूप धारण कर अवतार लिया और ग्राह से जग को छुड़ाया किया। परीक्षित बोले- हे बादरायण! जिस प्रकार भगवान ने गज को ग्रह से छुड़ाया था, कृपया वह कथा कहिए ।
॥ गजेन्द्र का उपाख्यान ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगे- हे राजन् ! त्रिकूट नामक बहुत बड़ा पर्वत है इसके चारों और क्षीरोदधि है। इसमें लोहे और सोने के तीन शिखर हैं। इनमें समुद्र, दिशा और आकाश प्रकाशित होते हैं। उनकी गुफा में किन्नर, अप्सरा क्रीड़ा किया करते हैं। उनमें अनेक वृक्ष हैं। वहाँ सरोवर में सुवर्ण-कमल फूल रहे हैं।
उन पर भौरे गुंजार कर रहे हैं। एक दिन एक हाथी बहुत सी हथिनियों को संग लिए कांटेदार बाँस और बेंतों की झाड़ी तोड़ता हुआ, उसके तीर पर आ गया। निर्मल जल वाले उस सरोवर में स्नान कर जल छिड़कने लगा ।
हे राजन् ! उसी में एक ग्राह रहता था, अचानक उसने हाथी का पांव पकड़ लिया। गजपति को ग्राह द्वारा दुःखी देख हथिनियाँ भी चिंघाड़ मारने लगीं। हे राजन् ! इस तरह गजेन्द्र और ग्राह को लड़ते-लड़ते एक सहस्त्र वर्ष व्यतीत हो गये। यह देख देव भी आश्चर्य करने लगे।
तदनन्तर बहुत दिन जल में खींचा- खांची से हाथी की शक्ति नष्ट हो गई और जल में रहने वाले ग्राह की शक्ति बढ़ गई। जब गजेन्द्र के प्राणसंकट में फँस गये, तब बहुत काल तक सोचते-सोचते उसको बुद्धि सूझी कि मेरे साथी ये बड़े-बड़े हाथी मुझे नहीं छुड़ा सके तो ये हथिनियाँ क्या कर सकेंगी ? सो अब मैं परमेश्वर की शरण जाऊँगा।
॥ गजेन्द्र मोक्ष ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! इस तरह राजेन्द्र विचार कर पूर्व जन्म में सीखे हुए जप को करने लगा। जिससे यह विश्व अचेतन भी चैतन्य रूप से जब समय पाकर सम्पूर्ण लोक महत्वादि नष्ट हो जाते हैं और अन्धकार ही रह जाता है उस समय उस अन्धकार से परे विराजमान रहता है उस विभु को मैं प्रणाम करता हूँ।
हे भगवन्! आप ज्ञानग्नि रूप हो, आपका मन सृष्टि काल में उन गुणों के क्षोभ से विस्थूर्जित होता है। आप निष्कर्म भाव से विधि निषेध को दूर करने वाला प्रकाश रूप हो, इससे आपको नमस्कार है। आप मुझ सरीखे शरणागतों का बन्धन छुड़ाने वाले स्वयं मुक्त रूप हैं, आप अपने अंशों से सम्पूर्ण देहधारियों के मन में प्रतीत होते हो, आप सर्वान्तर्यामी सर्वद्रष्टा और बड़े हैं।
हे नाथ! अब मुझको बन्धन से छुड़ाइये। मैं विश्व के जानने वाले, अजन्मा, परमपद रूप उस ब्रह्म को नमस्कार करता हूँ।
हे राजन्! इस प्रकार जब गजेन्द्र ने नाम भेद बिना ही स्तुति की तब भिन्न-भिन्न रूपाभामिनी देवता तमाशा देखते रहे । तब सकल देव, गज को दुःखी जान और उसकी स्तुतियों को सुन श्रीहरि गरुड़ पर सवार होकर वहाँ आये।
सरोवर के भीतर ग्राह से पकड़े हुए गजराज ने जब गरुड़ पर बैठे चक्रधारी को देखा तब एक कमल के फूल को सूँड में ले भगवान को निवेदन कर बोला- हे नारायण आपको नमस्कार है। तब गज को दुःखी देख श्रीहरि ने गरुड़ से उतर कर ग्राह मुख चीरकर हाथी को छुड़ा लिया।
श्रीशुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! जब भगवान ने गज का उद्धार किया उस समय देवता, ऋषि, गन्धर्व, ब्रह्मा, महादेवादि भगवान की स्तुति करके फूलों की वर्षा करने लगे। ग्राह ने उसी समय देवल के शाप से छूट पूर्व रूप धारण किया। यह हूहू गन्धर्व लोक को चला गया और ये हाथी भगवान के स्पर्श से अज्ञान बन्धन से छूट पीताम्बर और चार भुजा धार करके भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो गया।
यह गजराज पूर्व जन्म में द्रविड़ प्रान्तस्य पांड्य देश का इन्द्रद्युम्न नामक राजा था और निरन्तर विष्णु भगवान के व्रत में परायण था। सो एक समय यह राजा मलयाचल में आश्रम बनाकर तप कर रहा था। एक दिन वहाँ शिष्यों को संग लिए ऋषि अगस्त्यजी चले आये।
राजा का नियम था कि जब तक पूजा करें तब तक बोले नहीं। इससे राजा ने अगस्त्यजी को प्रणामादिक कुछ न किया। यह देखकर ऋषि ने क्रोधित हो शाप दिया कि तू ब्राह्मणों की अवज्ञा करता है, तू हाथी होकर अन्धतामिस्त्र में प्रविष्ट हो जायेगा।
हे राजन् ! इस तरह अगस्त्यजी शाप दे शिष्यों को साथ ले चले गये और इन्द्रद्युम्न ने हाथी की योनि पाई। भगवान ने इसी गजेन्द्र को विपदा से छुड़ाकर उसे पार्षद बनाया और अपने साथ लेकर चले गये।
॥ ब्रह्मा द्वारा भगवान का स्तवन ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगे - हे राजन! अब पञ्चम रैवत मन्वन्तर का वर्णन करता हूँ। रैवत मनु, तमस मनु का सहोदर था। अर्जुन और गलि विंध्यादिक इसके दस पुत्र थे। इसमें विभु नाम का इन्द्र हुआ था, भूतयादिक देवता थे तथा हिरण्यरोमा, वेदशिरा और ऊर्ध्वबाहु आदिक सप्तऋषि थे।
इस मन्वन्तर में शुभ्र वैकुण्ठा से वैकुण्ठ भगवान ने जन्म लिया। इन्हीं वैकुण्ठ ने लक्ष्मी की प्रार्थना से वैकुण्ठ-लोक रचा है। चक्षुष का पुत्र छठा चाक्षुष मनु हुआ। इसके पुरु, पुरुष और सुम्नादि दस पुत्र हुए। मन्त्रद्रम और आप्यादिक देवता हुए, हिवष्मत् और बिरकायिक सप्तऋषि हुए। इसी मन्वन्तर में वैराज की पत्नी समभूति से अजित नाम अवतार हुआ। जो समुद्र को मथकर देवताओं को अमृत पान कराया और कच्छप रूप धारण कर मन्दराचल को अपनी पीठ कर धारण किया।
परीक्षित ने पूछा- हे ब्रह्मन् ! जैसे भगवान ने समुद्र मन्थन किया और जिस तरह देवताओं को अमृत पान कराया उस अद्भुत भगवत चरित्र को मुझे सुनाइये। श्रीशुकदेवजी बोले- हे राजन्! जब संग्राम में असुरों ने देवताओं को मारा तब वे मरकर गिर पड़े और फिर न उठे।
जब दुर्वासा ऋषि के शाप से इन्द्र श्रीहत हो गये और सब यज्ञादिक क्रिया भी नष्ट हो गई, तब इन्द्र, वरुण आदि देवगण समेत सुमेरु पर ब्रह्मा की सभा में गये और अपना सब वृतान्त उन्होंने ब्रह्मा से कहा। उनको हतश्री देख ब्रह्मा देवताओं से बोले- हे देवो! मैं महादेव, सुर और असुर, जिस भगवान के अंश से रचे हैं हमको उनकी शरण में चलना चाहिए।
यह कहकर देवताओं के साथ ब्रह्माजी अजित भगवान के स्थान पर गये। वहाँ सावधान हो दैवी वाणी से उनकी स्तुति करने लगे जो विकार रहित, सत्य, स्वरूप, अनन्त, आद्य, सर्वान्तर्यामी उपाधिरहित, अग्रतर्क्य मनवाणी से अगम्य और अवरेण्य है।
उसी परमात्मा को हम सब प्रणाम करते हैं। आप में अर्पण किये हुए कर्म निष्फल नहीं होते हैं। हे नाथ! आप अनन्त हैं, निर्गुण हैं, गुणेश हैं और सदा सत्वगुण में स्थित हैं आपको हम सब प्रणाम करते हैं।
॥ अमृतोत्पादन के लिए देवासुर का उद्योग ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा- हे राजन्! जब देवताओं ने भगवान की स्तुति की तब भगवान की दृष्टि मन्द पड़ गई। तब महादेव व ब्रह्माजी इस रूप को देख स्तुति करने लगे - आप जन्म, स्थिति और संघाम से रहित हैं। निर्गुण मोक्षरूप सुख के समुद्र हैं, आप सूक्ष्म हैं।
मोक्ष की इच्छा से आपके रूप का पूजन करते हैं सो आज आनन्द प्राप्त हुआ है। जिस कारण हम सब आपके चरणों में उपस्थित हुए हैं उस हमारे मनोरथ को आप पूर्ण कीजिए । ब्रह्मादिकों से स्तुति किये जाने पर भगवान उनका अभिप्राय जानकर गम्भीर वाणी से बोले - हे ब्रह्मा ! शम्भो ! तुम जाओ जब तक तुम्हारा समय अनुकूल न आवे तब तक दैत्यों से मेल कर लो क्योंकि उन पर काल का अनुग्रह है।
अमृत के उत्पन्न करने का प्रयत्न करो, जिसके पीने से जीव अमर हो जाते हैं। क्षीर समुद्र में सब प्रकार की जड़ी बूटी डालो, मन्दराचल पर्वत की रुई और वासुकी सर्प की नेती बनाओ। तदनन्तर तुम निरालस्य हो समुद्र को मथो। इसमें दैत्य केवल क्लेश के भागी होंगे और अमृत को तुम ही पीओगे। देखो समुद्र से कालकूर स्वच्छन्द विष उत्पन्न होगा, उससे डरना मत, किसी बात का लोभ मत करना।
हे राजन् ! इस तरह देवताओं को समझा उन्हीं के बीच में उनके देखते-देखते स्वच्छन्द गति से ईश्वर और ब्रह्मा परमात्मा को नमस्कार करके चले गये। फिर सब देवता बलि के पास गए। तब इन्द्र ने बलि से समझाकर कहा - देखो भाई! हम तुम एक ही पिता के पुत्र हैं, लड़ाई तो होती ही रहती है अब यदि हम एकत्र हो जावें तो समुद्र को मथकर अमृत निकाल उसे पीकर अजर अमर हो जायेंगे।
इन्द्र की यह बात राजा बलि और शम्बर, अरिष्टनेमि त्रिपुरवासी असुरों को अच्छी लगी । देवता और असुर आपस में बड़ा मेल और सलाह कर अमृत के लिए उद्योग करने लगे। तब देवता और असुर मन्दराचल को उखाड़ कर क्षीरसागर की ओर ले चले।
जब मन्दराचल किसी से न चला, तब भगवान गरुड़ पर सवार होकर आए। पर्वत के गिरने से पिसे हुए देवता और दानवों को देखकर अपनी दृष्टि से उनको ऐसा कर दिया कि न घाव रहा, न दुःख रहा। तब फिर सहज ही में भगवान एक हाथ से ही उस पर्वत को गरुड़ पर रखकर समुद्र तट पर पहुँचे।
तब भगवान ने गरुड़ से कहा कि अब तुम चले जाओ यहाँ नाग वासुकी आयेगा, अमृत पीने के समय तुमको बुला लेंगे।
॥ समुद्र मंथन से कालकूट की उत्पत्ति ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगे - तदनन्तर सब देवता जासुकी को अमृत का भाग देने की प्रतिज्ञा कर बुला लायें और उसे पर्वत से लपेट कर प्रसन्न हो सावधानी से समुद्र मंथन करने लगे। हरि ने प्रथम वासुकी का मुख पकड़ा और सब देवता भी उसी ओर हो गये।
भगवान का यह कार्य दानवों को अच्छा न लगा और कहने लगे कि हम पूँछ को ग्रहण न करेंगे। तब भगवान दैत्यों को देख हँसते हुए अग्रभाग को छोड़ पूँछ की ओर से सावधानी से अमृत के लिये समुद्र को मथने लगे। परन्तु वह पर्वत बड़ा भारी था। निराधार होने के कारण मथते समय में नीचे को धसकने लगा।
नारायण ने कछुए का रूप धार जल में घुसकर पर्वत पीठ पर उठा लिया। तब देव दानव मथने के लिए फिर तैयार हुए। इस तरह असुर देवताओं को उत्तेजित करने लगे और अबोध रूप से वासुकी नाग में भी प्रविष्ट हो गये और हजार भुजाओं का रूप धार दूसरे पर्वत की तरह ऊपर से भी उस पर्वत को पकड़ कर स्थित हुए। उस समय आकाश से ब्रह्मा और इन्द्रादि सब स्तुति कर फूल वर्षाने लगे।
जब सुरासुर समुद्र मथने लगे तब वासुकी के सहस्त्रों नेत्र मुख और श्वास से निकली हुई ज्वाला के धुएँ से तेजहीन हुए पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुर दावाग्नि से दग्ध हुए सरेरों के वृक्षों की तरह काले हो गए। देवता भी जब वासुकी के श्वासों की शिखा से प्रभाहीन हुए तब भगवद्वशवर्ती मेघ बरसने लगे और समुद्र की तरंगों का स्पर्श करती हुई पवनें चलने लगीं।
इस तरह देव और दानव के मथने से समुद्र से हलाहल कालकूट विष उत्पन्न हुआ। उस असह्य विष की तरंगों को ऊपर नीचे चारों ओर फैलती हुई देखकर प्रजा भयभीत हो शिव की शरण में गई। प्रजापति से सब लोग प्रणाम कर बोले-हे भूतभावन! त्रिलोकी के जलाने वाले विष के भय से भयभीत हो आपकी शरण आये हैं सो इस विष से हमारी रक्षा कीजिए।
हे राजन् ! इस तरह उनको दुःखी देख महादेव ने उस विष को हथेली पर रखकर पी लिया। विष के प्रभाव से महादेवजी का कण्ठ नीलवर्ण हो गया। उसी दिन से वह नीलकण्ठ कहलाने लगे। विषपान करने के समय जो हाथ में से कई बूँद टपक पड़ी थीं उनको बिच्छू, सर्प, आदिकों ने ग्रहण कर लिया, जिससे ये सब विषधर हो गए।
॥ भगवान का मोहिनी रुप धारण करना ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगे - हे राजन्! महादेव के विष पान कर लेने पर देव दानवों के गण बड़े वेग से समुद्र मथने लगे तब उसमें पीछे श्वेत वर्ण का उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला इसके लिए राजा बलि ने इच्छा की, फिर ऐरावत हाथी निकला इसके चार दाँत थे। तदनन्तर कौस्तुभ पद्मराग मणि निकली, इसे भगवान ने ग्रहण कर लिया, फिर कल्प वृक्ष और अप्सरायें उत्पन्न हुईं।
तदनन्तर लक्ष्मी हुई ये भगवान में अत्यन्त तत्पर थीं, उन्होंने सद्गुणों से युक्त और माया रहित भगवान को पति बनाया। मत्त-भ्रमरों के गुञ्जार से कूजित पद्ममाला को कण्ठ में डाल, लज्जा और हास्ययुत नेत्रों से वक्ष- स्थल को देखती हुए लक्ष्मी भगवान को हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई तब भगवान ने उस त्रिलोकी जननी को अपने वक्षःस्थल में निवास दिया।
उस समय ब्रह्मा, रुद्र और अंगदादि विश्व के सृजन वाले भगवान की स्तुति करते हुए फूलों की वर्षा करने लगे। तदन्तर जब फिर दैत्यों ने समुद्र को मथा तब वारुणी उत्पन्न हुई उसे दैत्यों ने ग्रहण किया, तदन्तर फिर समुद्र को मथने लगे तब एक पुरुष हुआ इसका नाम धन्वन्तरि था,
यह आयुर्वेद का प्रवर्तक और यज्ञ के भाग को भोगने वाला था, इसको और अमृत कलश को देख असुर देवों के हाथ से अमृत कलश को छीनकर ले गये और कहने लगे कि तुम कामधेनु कल्पवृक्ष, ऐरावत, उच्चैःश्रवा आदि चीजें ले चुके हो इसको हम पीयेंगे।
इस प्रकार कह, जब वे अमृत कलश ले गये, तब देवता दुःखित हो भगवान की शरण में गये। तब भगवान बोले हे देवो! तुम दुःखी मत होओ मैं अभी तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करूँगा। इसी अवसर पर भगवान ने अद्भुत स्त्री का वेष धारण किया वह रति के समान सौंदर्य बनाकर कटाक्षों से दानवों के चित्त में कामोद्दीपन करने लगी।
॥ अमृत परिवेशन ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! वे परस्पर एक दूसरे से सुधा कलश को छीनते झपटते लड़ते हुए उस आती मोहिनी को विस्मय से देखने लगे। तब नवयौवना के कटाक्षों से मदोन्मत्त हो उसके रूप की प्रशंसा कर बोले- हे वामोरु ! आप कौन तथा कहाँ से किस लिए इधर पधारी हैं! हे भामिनी! हम सबों का एक वस्तु पर झगड़ा हो रहा है। आप हमारे बैर को शान्त कीजिए। हम सब कश्यप के भाई-भाई हैं और मंथन से ये अमृत घड़ा निकाला है। सो आप हमको बाँट दो।
हे राजन् ! स्त्री वेषधारी भगवान से दैत्यों ने ये प्रार्थना की तब मोहिनी मुस्कराकर बोली- अरे तुम कश्यप के पुत्र हो, मुझ कुलटा में विश्वास करते हो ? उस स्त्री के वचनों से दैत्यों के मन में विश्वास आ गया और अमृत कलश उसे दे दिया तब हरि उस अमृतघट को लेकर बोले - हे दैत्यगणों! जो फैसला मैं करूँ उसे तुम स्वीकार करो तो मैं तुम्हारे झगड़े को निबटाने में कुछ करूँ।
उसकी बात सुन सब दैत्य बिना परिणाम सोचे, पुकारने लगे कि हमें स्वीकार है। तब मोहिनी बोली- यह ऐसे नहीं पिया जाता। सब दैत्य उपवास रख, स्नान कर, अग्नि में आहुति दे, ब्राह्मणों से स्वास्ति वाचन करा, नये वस्त्रों को पहिन पूर्व दिशा में आगे की ओर बिछे हुए कुश के आसनों पर बैठो, फिर उस सभा में मोहिनी ने अमृत कलश लिये प्रवेश किया।
उस समय मोहिनी रूप को देख, देव-दानव अपनी सुध भूल गये, भगवान ने सोचा कि इन दैत्यों को अमृत देना सर्प को दूध पिलाने के समान है। इसलिए उनको अमृत न दिया और उनकी अलग पंक्ति कर दी। देवता अलग बैठे और दैत्य अलग। फिर कलश ले बातों से दैत्यों को ठगते हुए दूर बैठे देवताओं को जरा और मृत्यु को दूर करने वाला अमृत पान करा दिया।
तब राहु बोला- मुझे तो कुछ संका दीखता है, मैं तो जाता हूँ। ऐसे कह देवताओं का वेष बना देवताओं की पंक्ति में घुस गया, और सूर्य चन्द्रमा के बीच बैठ गया, जब मोहिनी सबको अमृत पिलाती हुई आयी तब चन्द्रमा और सूर्य ने उसकी सूचना दी तब भगवान ने अमृत पान करते हुए राहु का सिर चक्र से काट डाला।
उसका सिर अमर हो गया ब्रह्माजी ने उसे ग्रह बनाया उसी बैर से राहु सूर्य चन्द्र पर अब तक दौड़ता है इसी को ग्रहण कहते हैं। जब सब देवता अमृत पी चुके तब भगवान ने अपना रूप धारण कर लिया।
इस तरह यद्यपि सुर और असुर समान थे परन्तु अमृत के प्राप्ति रूप फल में विपरीत रहे। इससे समझना चाहिए कि प्राण, धन, मन, कर्म, वचन से देह और पुत्रादिकों के लिए जो किया जाता है वही फल देने वाला होता है।
॥ देवासुर संग्राम ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! इस तरह यद्यपि दैत्यों ने समान परिश्रम किया था परन्तु भगवान से विमुख होने के कारण उनको अमृत नहीं मिला। अमृत देवताओं को पान कराके भगवान गरुड़ पर चढ़कर चले गये। असुरगण देवताओं की इस वृत्ति को न सह सके और लड़ने के लिए चढ़ दौड़े।
तब देवता भी अमृत पीने से नि:शंक हो लड़ने लगे। समुद्र किनारे दोनों का घोर युद्ध हुआ जिसका नाम देवासुर संग्राम पड़ा। हे परीक्षित! सेनापति बलि यथेच्छगामी विमान पर चढ़कर आया। विमान के चारों ओर बड़े- बड़े सेनापति थे। तदन्तर बलि के योद्धागण गरजने लगे उनको उत्तेजित देख इन्द्र को क्रोध आया, तब वह भी ऐरावत पर चढ़कर दैत्य दानव एक-एक को पहचान कर द्वन्द युद्ध करने लगे।
राजा बलि इन्द्र के संग, तारक स्वामिकार्तिक के संग हेति वरुण के संग, प्रहेतिमित्र के संग, कालनाग, यम के संग मय, विश्वकर्मा के संग शम्बर, त्वष्टा के संग विरोचन, सूर्य के संग अपराजित नमुचि, वृषपर्वा के संग अश्विनीकुमार, बलि के वाणार्दिक सौ पुत्रों के संग सूर्य देव, राहु के साथ चन्द्रमा, पुलोम के साथ अग्नि, शुम्भ निशुम्भ के साथ भद्रकाली का युद्ध होने लगा।
इस तरह दैत्य दानव एक दूसरे को जीतने की इच्छा से एक दूसरे को मारने लगे। बलि ने दस बाण इन्द्र के और तीन ऐरावत के, चार पाद रक्षकों के और एक महावत के मारे । इन्द्र ने उनको बीच में ही काट गिराया।
बलि ने अद्भुत चमत्कार को देखकर एक शक्ति उठाई उसको इन्द्र ने उसके ही हाथ में काट गिराई। फिर शूल, पाश, तोमर, परिघ आदि जो-जो अस्त्र बलि ने उठाये सब इन्द्र ने काट गिराये। तब दैत्य देवताओं की सेना पर पर्वत वर्षाने लगे तदनन्तर समुद्र मर्यादा छोड़ उछला, पवन के वेग से उठी लहरों से भूमि को डुबाता हुआ दिखाई पड़ा।
दैत्यों ने जब ऐसी माया रची तब देवसेना दुःखी हो गई। तब उनके द्वारा नारायण का ध्यान करते ही भगवान प्रकट हो गए। भगवान के आने पर माया दूर हो गई। संग्राम में भगवान को देख कालनेमि ने एक त्रिशूल मारा, भगवान ने उसे पकड़ कर उसके सिंह और कालनेमि दोनों को मार डाला।
तदन्तर माली-सुमाली लड़ने के लिए आए। तब भगवान ने अपने चक्र से उनके सिर काट लिए। इतने में माल्यवान् गदा लेकर गरुड़ को मारने दौड़ा तब भगवान ने चक्र से उसका सिर काट दिया।
शुकदेवजी कहने लगे - इन्द्र ने बलि के मारने को जब वज्र उठाया तब प्रजा हाहाकार करने लगी। इन्द्र ने बलि पर वज्र प्रहार किया तब वह रथ सहित गिरकर मर गया। तब जम्भासुर मित्र को गिरा देख इन्द्र के कण्ठ पर गदा के प्रहार से व्यथित हो हाथी ने घोंटू टेक दिये। मातलि सहस्त्र घोड़ों के रथ को ले आया और इन्द्र उसमें बैठ गया। तब जम्भ ने सारथी की प्रशंसा की और मातलि को उस त्रिशूल से मारा।
मातलि ने त्रिशूल की वेदना को सह लिया। यह देख इन्द्र ने वज्र से जम्भ का सिर काट डाला। जम्भ का मरण सुन नमुचि, बलि और पाक उसके सजातीय वहाँ आ इन्द्र के मारने को उपस्थित हो गए। बलि ने सहस्त्र बाणों से घोड़ों को मार डाला। पाक ने मातलि के दो सौ बाण मारे और रथ तोड़ डाला, नमुचि पन्द्रह बाण मार गरजने लगा।
उन असुरों ने इन्द्र को रथ और सारथी सहित बाणों से ढक दिया। तदनन्तर इन्द्र ने वज्र उठाया और उससे बलि और पाक दोनों का सिर काट डाला। तब नमुचि शोक से आतुर इन्द्र के मारने को त्रिशूल लेकर यह कहता हुआ दौड़ा- इन्द्र ! अब इस त्रिशूल से तुमको मार लिया। उस त्रिशूल को आता देख इन्द्र ने उसके टुकड़े कर दिये और फिर उसका सिर काटने को वज्र फेंका।
लेकिन उससे नमुचि की त्वचा भी नहीं कटी यह देख इन्द्र दुःखित हो बोला - आश्चर्य है कि जिस वज्र ने वृत्रासुर को मारा उसी वज्र का नमुचि की त्वचा ने तिरस्कार कर दिया। अब मैं इसको नहीं उठाऊँगा। जब इन्द्र दुःखित हो रहा था तब आकाशवाणी ने कहा- हे इन्द्र! सोच मत कर मेरे वर से यह न गीले में मरेगा और न सूखे में। इससे इसके मारने का दूसरा उपाय सोचो। तदन्तर समुद्र का झाग इन्द्र की निगाह में आया उसने सोचा कि ये न सूखा है न गीला । ऐसा विचार झाग को लेकर इन्द्र ने उससे नमुचि का सिर काट डाला। वायु, अग्नि और वरुणादिक ने अनेक दैत्य मार डाले।
हे राजन् ! दानवों का नाश देख ब्रह्मा ने नारद को देवताओं के पास भेजा तब नारद देवताओं के पास जा कहने लगे - हे देवताओं! नारायण की कृपा से आपको अमृत मिल गया, कीर्ति और लक्ष्मी की वृद्धि हुई अब युद्ध से निवृत्त हो जाओ। तब देवता नारद का वचन मान क्रोध त्याग स्वर्ग को चले गये तथा नारद के कहने पर दैत्य भी बलि के शरीर को ले अस्ताचल को चले गए।
वहाँ जिन दैत्यों के हाथ पाँव नष्ट नहीं हुए थे और सिर विद्यमान थे उनको शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से जिला दिया। फिर शुक्राचार्य ने बलि की देह पर हाथ फेरा इससे वह जी उठा।
हे राजन् ! बलि पराजित होने पर भी खेदित नहीं हुआ क्योंकि वह तत्ववेत्ता था।
॥ मोहिनी रुप देखकर महादेव को मोह प्राप्त होना ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगे - जब महादेव ने सुना कि भगवान ने मोहिनी रूप धारकर दानवों को मोहकर देवताओं को अमृत पान कराया है, तब वे दर्शन के लिए भगवान के समीप पहुँचे । तब भगवान ने महादेव का बहुत आदर किया।
महादेव जी भगवान का पूजन कर हंसते हुए कहने लगे - मैंने अनेक अवतार देखे परन्तु अब तो स्त्री रूप धारण किया है उसको देखना चाहता हूँ।
हे राजन् ! जब महादेव ने इस तरह प्रार्थना की तब वे बोले - हे शिवजी ! अमृत के घड़े को छीन दैत्यों के छलने के लिए मैंने स्त्री वेष धारण किया था, यदि आपको उस रूप को देखने की इच्छा है, तो दिखलाऊँगा। यह कामोत्पत्ति करने वाला है।
यह कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये और महादेव-पार्वती खड़े देखते रह गये। थोड़ी देर में रमणीक उपवन में एक स्त्री देखी, वह गेंद से क्रीड़ा कर रही थी, उसकी कमर पर अति सूक्ष्म पीला रेशमी वस्त्र शोभा दे रहा था उसके ऊपर रत्नमय करधनी शोभा दे रही थी।
गेंद को पृथ्वी से उठाने में बारम्बार नीचे ऊपर उठने में हारों के भार से ऐसा मालूम होता था मानो कुचों के बोझ से उसकी क्षीण कटि लचककर दो टुकड़े हो जायेगी। दशों दिशाओं में लुढ़कती हुई गेंद को देखने के लिए जब अपने नेत्रों को घुमाती तो ऐसा दीखता मानो चारों ओर मोती छिटक रहे हैं।
मनोहारी बांये हाथ से खिसकते हुए दामन को और खुली वेणी को संभालती गेंद को उछालती संसार को मोहित कर रही थी। उसके कटाक्षों से बिद्ध होकर टकटकी लगा महादेवजी को तन मन की सुधि न रही। हाथ के धक्के से जब गेंद दूर चली गई तब वह उसके लेने को दौड़ी, उस समय दौड़ने के वेग से पवन ने उसकी अति सूक्ष्म साड़ी उड़ा दी। इस प्रकार से उस स्त्री को देख महादेवजी का मन उसी में जा लगा।
काम से विह्वल हो लज्जा त्याग पार्वती के देखते ही महादेव उसके पीछे दौड़े। वह भी उनको आता देख वस्त्र गिर जाने से लज्जिज हुई वृक्षों की आड़ में छिपती और हंसती हुई आगे चल दी। तब महादेवजी भी उसी के पीछे हो लिए।
महादेवजी ने उसकी वेणी को पकड़ दोनों हाथों से खींचकर अपनी छाती से लगा लिया। तब पृथु नितम्ब वाली वह माया जैसे तैसे अपने को छुड़ाकर भागी। महादेव भी उसी के पीछे दौड़े। उस समय मालूम होता था मानो कामदेव ने आज बदला लिया है।
हे राजन्! जहाँ-जहाँ महादेवजी का वीर्य गिरा वहीं चाँदी, पारा और सोने की खानें हो गईं। वीर्य स्खलित होने पर महादेवजी ने अपने को जड़ हुआ देखा, तब वे उस खेद से निवृत्त हो गये। तदन्तर भगवान अपने शरीर को धारण कर बोले-हे महादेवजी ! बड़े ही सौभाग्य की बात है कि यद्यपि मेरे स्त्री रूप ने आपको छल लिया तथापि आप फिर आत्मनिष्ठ हो गये।
आपके सिवाय ऐसा कौन है जो मेरी माया के फन्दे से निकल सके।" हे राजन् ! भगवान से सत्कार किये जाने पर शिवजी अपने गण सहित अपने स्थान को चले गये। महादेवजी प्रसन्न हो पार्वती से बोले - हे भवानी! आपने भगवान की माया को देखा ? मैं भी उनकी माया में मुग्ध हो गया था। संसारी जीव उस माया के वशीभूत मोहित हो जाये तो क्या आश्चर्य है।
॥ वैवस्वतादि मन्वन्तर का वर्णन ॥
शुकदेवजी कहने लगे - हे राजन ! सप्तम् वर्तमान श्राद्धदेव विवस्वत् सूर्य का पुत्र हुआ, अब मैं इसके पुत्रादिकों का वर्णन करता हूँ। इक्ष्वाकु, नाभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्ति, नाभाग, दिष्ट, करूष, पृष्ठ और वसुमान ये दस पुत्र वैवस्वतमनु के हैं, और आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मेरुद्गण और अश्विनी कुमार ये इस मनु के देवता और इंद्र का नाम पुरंदर है।
कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भारद्वाज ये सात ऋषि हैं। कश्यप के घर में आदिति से भगवान ने जन्म लिया। आदित्यों से छोटा रूप वामन नामक धारण किया है।
अब सात मन्वन्तर का वर्णन किया जाता है। विवस्वत् की दोनों स्त्रियाँ विश्वकर्मा की पुत्री थीं इनके नाम संज्ञा और छाया थे। संज्ञा के यम और श्राद्धदेव हुए और छाया के सावर्णि पुत्र, तपती कन्या जो सम्बरण राजा को ब्याही थी और इसी छाया के शनैश्चर हुआ तथा बढ़वा नाम सूर्य पत्नी से अश्वनीकुमार हुए।
सूर्य का पुत्र आठवाँ सावर्णिमनु होगा और निर्मोक तथा विरजस्कादि उसके दस पुत्र होंगे और सुतपा, विरजा तथा अमृत-प्रभादेवता होंगे और विरोचन का पुत्र बलि, इनका इन्द्र होगा।
यह बलि तीन पग मांगने वाले विष्णु को सब पृथ्वी देकर, इन्द्रपद त्याग सिद्धि प्राप्त करेगा। मालव, दीप्तिमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, श्रृंगी ऋषि और वेदव्यास सात ऋषि होंगे। इस प्रकार मन्वन्तर के सारस्वत गर्भ से भगवान जन्म लेंगे और इन्द्रासन को पुरन्दर से छीन बलि को देंगे।
तदन्तर वरुण पुत्र दक्ष सावर्णि नाम से नवाँ मन्वन्तर होगा। धूमकेतु और दीप्तकेतु आदि इसके दस पुत्र होंगे। पारा और मरीचि गर्भादिक देवता होंगे, अद्भुतनाम इन्द्र होगा, द्युतिमानदि ऋषि होंगे। आयुष्मान की अम्बुधारा स्त्री से ऋषभदेव भगवान होंगे।
जिसकी बढ़ाई हुई त्रिलोकी को अद्भुत इन्द्र भोगेगा। इसके पीछे उपश्लोक का बेटा ब्रह्मसावर्णि दसवाँ मनु होगा। भूरिषेणादि इसके पुत्र होंगे और हविष्मानोदि ऋषि होंगे। सुहावन और विरुद्धादिक देवता होंगे, इन्द्र का नाम शम्भु होगा। भगवान विश्वक्सेन विश्व सृष्टाओं के घर विषूची से जन्म लेकर शंभु से मैत्री करेंगे।
उसके पीछे धर्मसावर्णि ग्यारहवाँ मनु होगा इसके अनागत और सत्य धर्मादिक दस पुत्र होंगे। विहंगम, काम, गण और निर्वाण रुचि देवता होंगे, वैधृति इन्द्र अरुणादिक ऋषि होंगे। इस मन्वन्तर में भगवान आर्यक की स्त्री वैधृता से धर्मकेतु अवतार धारकर त्रिलोकी को धारण करेंगे।
तदन्तर रुद्र सावर्णि नामक बारहवाँ मनु होगा। देववान, उपदेव और देव श्रेष्ठादिक इसके दस पुत्र होंगे। तपोमूर्ति, तपस्वी और आग्निध्रादिक सप्तऋषि होंगे। सत्यसहा की सूनृतानाम्नी स्त्री से भगवान सुधामा नाम अवतार धारकर रुद्रसावर्णि का पालन करेंगे।
तदन्तर देवसावर्णि नाम तेरहवाँ मनु होगा, चित्रसेन और विचित्रादि दस पुत्र होंगे। सुकर्म और सुत्रामादि, देवता, दिवस्पति नाम इन्द्र तथा निर्मोक और सत्वदर्शादि सप्तऋषि होंगे। देवहोत्र वृहति स्त्री से भगवान योगेश्वर अवतार धारण करेंगे।
फिर इन्द्र सावर्णि नामक चौदहवाँ मनु होगा उसके उरु और गम्भीर बुद्ध आदि पुत्र होंगे। पवित्र और क्षुप देवता शुचिनाम इन्द्र तथा अग्निबाहु, शुचि, शुद्ध और मायवादि सप्तऋषि होंगे।
सत्रायण की स्त्री से बृहद्भानु अवतार लेकर क्रियाओं का विस्तार करेंगे। हे राजन् ! इस तरह भूत भविष्यत्, वर्तमान तीनों काल में होने वाले चौदह मन्वन्तरों का वर्णन है, हजार चौकड़ी में ये चौदह मनु बीतते हैं। तब एक कल्प कहलाता है।
॥ बलि द्वारा स्वर्ग-विजय ॥
परीक्षित ने कहा- महाराज ! भगवान ने बलि से तीन पैर पृथ्वी क्यों मांगी और मिल जाने पर भी क्यों बांध लिया ? शुकदेवजी बोले, देवासुर संग्राम में जब इन्द्र ने राजा बलि की स्त्री और प्राण हर लिये तब शुक्राचार्य ने प्रसन्न होकर बलि से विश्वजित यज्ञ कराया और अभिषेक कराया। तदन्तर अग्नि से सुवर्ण रथ निकला जिसमें इन्द्र के घोड़ों के समान घोड़े थे, और सिंह चिह्न की ध्वजा थी तथा दिव्य धनुष तरकस और कवच निकले, प्रहलाद ने एक माला दी जिसके फूल कुम्हलाते न थे और शुक्राचार्य ने शंख दिया। इस तरह ब्राह्मणों ने युद्ध की सामग्री तैयार कर दी और फिर स्वस्तिवाचन किया।
तब ब्राह्मणों को नमस्कार कर प्रहलाद की आज्ञा लेकर भृगु के दिये रथ पर चढ़कर, माला पहन ली, कवच धारणकर खंग धनुष और तरकस बांध लिया, तदन्तर सेना को लेकर इन्द्रपुरी पर चढ़ाई की और देवपुरी को घेरकर बलि शुक्राचार्य के शंख को बजाकर इन्द्र की स्त्रियों में भय उत्पन्न करने लगा।
तब इन्द्र देवताओं को साथ लेकर बृहस्पति के पास जाकर बोले- हे भगवान! बलि ने बड़ा उद्योग किया है। इस तरह से तो यह मुख से जगत को पान कर जायेंगे।
बृहस्पति बोले- हे इन्द्र! मैं तेरे इस बैरी की उन्नति का कारण जानता हूँ। भृगु ने शिष्य का तेज बढ़ाया है। भगवान के सिवाय कोई आज उसके सामने खड़ा न हो सकेगा। तुम स्वर्ग को छोड़कर जा छिपो और काल की प्रतीक्षा करो। जब ये ब्राह्मणों का अपमान करेगा तब बान्धवों सहित नष्ट होवेगा।
गुरु की बातों को सुनकर देवगण स्वर्ग को छोड़ भाग गये। देवताओं के भाग जाने पर बलि ने राज्य ले लिया और त्रिलोकी पर शासन करने लगा। भृगुओं ने अपने शिष्य से सौ अश्वमेध यज्ञ कराये। तब यज्ञों के प्रभाव से बलि अपनी कीर्ति का दिशाओं में विस्तार करने लगा।
॥ कश्यप द्वारा पयोव्रत कथन ॥
शुकदेवजी कहन लगे - हे राजन्! जब दैत्यों ने स्वर्ग छीन लिया तब देवगण बड़े दुःखी हुए और उनकी माता अदिति को घोर क्लेश हुआ। समाधि त्याग एक दिन कश्यप, अदिति के आश्रम में पधारे, स्वागत होने पर बैठकर अपनी पत्नी से बोले- भद्रे ! तुम्हारा मन उदास है इसका क्या कारण है? अदिति बोली- हे ब्रह्मन् ! मेरे क्लेश को दूर कीजिए, सौतेले असुरों ने मेरे पुत्रों की राजलक्ष्मी और घर-बार सब छीन लिया है, उनकी रक्षा कीजिए। शत्रुओं ने मुझे निकाल दिया है, इससे मैं दुःख में डूब रही हूँ।
कश्यपजी हंसकर कहने लगे - हे प्रिये, तुम भगवान का ध्यान करो, वे तेरा मनोरथ पूर्ण करेंगे। अदिति बोली- हे ब्रह्मन् ! मैं परमेश्वर की उपासना किस रीति से करूँ ? तब कश्यपजी बोले एक समय पुत्र की चाहना से यही प्रश्न मैंने ब्रह्मा से किया था तब भगवान के प्रसन्न करने वाला व्रत उन्होंने मुझे बताया कि फाल्गुन सुदी प्रतिपदा से द्वादशी पर्यन्त बारह दिवस वह व्रत होता है इसका पयोव्रत नाम है।
इसमें भक्ति से भगवान का पूजन करे। शूकर की खोदी हुई मिट्टी अमावस के दिन लाकर तब शरीर में मृतिका को लगाकर स्नान करे। "हे धरणी, रसातल में जाकर जल के ऊपर स्थापना की इच्छा से वाराहजी ने रसातल से तुम्हें निकाला है, आप मेरे पापों को दूर कीजिए। मैं नमस्कार करती हूँ।" इस तरह आह्निक कर्म से निवृत्त हो एकाग्रचित से मूर्ति, सूर्य, जल, अग्नि, व गुरु में इन अधिष्ठानों में से कही भगवान का पूजन करने को प्रवृत्त होवे।
पूजा करते समय निम्नलिखित मन्त्रों का उच्चारण करे - हे भगवान! आप घट-घट वासी सर्वद्रष्टा हैं, आप अव्यक्त, सूक्ष्म और प्रधान पुरुष हैं और चौबीस तत्वों के ज्ञाता और सांख्यवेत्ता हो। आपको नमस्कार है। इन मन्त्रों से भगवान का आवाहन कर गन्धमाला चढ़ा दूध से स्नान करावे। फिर 'ओ३म् नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्र से पूजन करे और जो विभव हो तो दूध में पके हुए चावलों से मिष्ठान मिला खीर का भोग धरकर और द्वादशाक्षर मन्त्र से गुड़ और घृत मिला हवन करे।
इस प्रसाद को देवे या स्वयं लेवे फिर आचमन कराके रोली अक्षत से पूजन कर ताम्बूल निवेदन करे। उक्त मन्त्र को एक सौ आठ बार जपे और स्तुति कर फिर प्रदक्षिणा करे। अत्यन्त प्रसन्नता से दण्डवत् करे।
तदनन्तर प्रसाद को मस्तक पर चढ़ाकर देव को विसर्जन करे और दो से अधिक ब्राह्मणों को यथेष्ट भोजन करावे, तब शेष प्रसाद को कुटुम्ब सहित भोजन करे, रात्रि में ब्रह्मचर्य से रहे। फिर प्रातःकाल स्नान कर भगवान को दूध से स्नान कराकर पूजन करे।
इसी से ईश्वर प्रसन्न होता है। तू यत्नपूर्वक इस व्रत को कर, भगवान प्रसन्न होकर तेरी मनोभिलाषा पूर्ण करेंगे।
॥ अदिति के गर्भ से भगवान का जन्म ॥
शुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! स्वामी के आदेशानुसार अदिति ने इन्द्रियों को बुद्धि के वश में करके भगवान का ध्यान करते हुए उनको देख अदिति दण्डवत कर प्रेम से विह्वल हो गई और स्तुति करने लगी - हे अच्युत, हे दुःख विनाशक ! मेरा कल्याण कीजिए। अदिति की विनती सुनकर भगवान बोले- हे देवमाता ! आपकी अभिलाषा मैंने जान ली है। किन्तु हे देवी! यद्यपि अभी असुरों को जीतना कठिन है क्योंकि देव और ब्राह्मण उन पर अनुकूल हैं तथापि मैं कोई न कोई उपाय ढूँढूगा। मैं तेरा पुत्र बन तेरे पुत्रों की रक्षा करूँगा।
आप अपने पति की सेवा करो, जैसा इस समय तेरा रूप है वैसा ही तुम पति का ध्यान करती रहना। इस बात को कोई पूछे तो भी किसी को मत कहना क्योंकि देवताओं के गुरु-मन्त्र गुप्त रहने से ही सिद्ध होते हैं।
हे राजन्! यह कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये और अदिति हरि का दुर्लभ जन्म अपने में पाकर कश्यपजी की सेवा करने लगी। कश्यपजी ने समाधि योग से जान लिया कि भगवान मुझमें प्रविष्ट हुए हैं, यह सोच बहुत दिन का संचित वीर्य अदिति में स्थापन किया।
अदिति के गर्भ से भगवान को आये देखकर ब्रह्माजी कश्यपजी के आश्रम में स्तुति करने लगे। हे उरुगाय! हे त्रिगुणात्मन्, हे पृश्निगर्भ, हे वेद गर्भ! आपको नमस्कार है, आप जीव के उत्पन्न करने वाले हैं, देवताओं के आप आश्रय हैं।
॥ बलि के यज्ञ में भगवान का आगमन ॥
शुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! ब्रह्मा के स्तुति करने पर भगवान अदिति से प्रकट हुए। भाद्रपद शुक्ल पक्ष में द्वादशी के दिन श्रवण नक्षत्र और अभिजित् मुहूर्त में मध्याह्न के समय भगवान शस्त्र आभूषणादि धारण किये जिस रूप से प्रकट हुए सो माता-पिता के देखते-देखते उस स्वरूप को बदल वामन रूप हो गये।
उस वामन रूप को देख सब प्रसन्नता से कश्यप को आगे कर जाति कर्मादि संस्कार करने लगे। यज्ञोपवीत के समय सूर्य ने गायत्री का उपदेश किया, तदनन्तर वामन जी ने सुना कि शुक्राचार्य ने बलि को बहुत से अश्वमेघ यज्ञ कराये हैं इससे सम्पूर्ण बलों से युक्त ही वामन जी यज्ञशाला में पधारे। यह यज्ञ नर्मदा के उत्तर तट पर भृगुकच्छ तीर्थ पर हो रहा था। वहाँ शुक्राचार्यादि सब वामनजी को देख तर्क वितर्क करने लगे कि यह सूर्य का सा प्रकाश क्या चला आता है।
इतने ही में वामनजी दण्ड, छत्र कमण्डलु लिए आ ही पहुँचे। जटाधारी वामन ब्रह्मचारी को आते देख उनके तेज से आहत हो अग्नि और शिष्यों सहित भृगुजी से उनको अभ्युस्थान दिया। बलि ने उनका स्वागत कर चरणों को धोकर वामनजी का पूजन किया।
फिर बलि बोले- हे ब्रह्मन! आपके आने से बड़ा आनन्द हुआ। आज हमारा यज्ञ भी सफल हो गया है। आप किसी याचना के लिए यहाँ आए हैं अतः जो इच्छा हो सो मांगिए। यदि आप कहें तो किसी ब्राह्मण की बौनी कन्या से आपका विवाह करा दूँ।
॥ वामन द्वारा बलि से तीन पैर भूमि की प्रार्थना ॥
शुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! बलि के वचनों को सुनकर वामनजी बोले- हे बलि! तुम्हारे वाक्य सत्य और तुम्हारे कुल योग्य हैं। क्योंकि लौकिक कर्मों के उपदेश शुक्राचार्य और पारलौकिक उपदेश पितामह प्रहलादजी करने वाले हैं। तुम्हारे कुल में सब दानी हुए हैं, तुम्हारे ही कुल में हिरण्याक्ष वीररस का अवतार प्रकट हुआ। प्रहलाद पुत्र, तेरा पिता विरोचन ऐसा प्रिय-भक्त था कि देवता ब्राह्मणों का भेष धरकर आए और उसको मालूम हो गया तब भी उनके मांगने से अपनी आयु दे दी।
इसलिए हे श्रेष्ठ! मैं तीन पैर पृथ्वी माँगता हूँ, मैं ही स्वयं उसको अपने पाँवों से नापूँगा। बलि बोले- हे ब्राह्मण कुमार, आपका वचन वुद्धों के समान है, परन्तु बुद्धि मूर्ख बालकों के समान है। हे ब्राह्मण! चाहो तो मैं एक द्वीप दे सकता हूँ। इसलिए वामनजी बोले- हे नृप ! जो तीन पैर पृथ्वी से सन्तुष्ट नहीं हुआ है वह वन खण्ड मिलने से भी सन्तुष्ट नहीं हो सकता। अतः जो मिल जाये उसी पर सन्तोष करना मुक्ति का हेतु होता है। इसलिए हे वरदर्षभ ! मैं तीन ही पैर पृथ्वी माँगता हूँ।
हे राजन्! तब बलि वामनजी के वचनों को सुन हँसकर बोला- अच्छा जितनी इच्छा है उतनी भूमि ले लीजिए। यह कहकर शुक्राचार्य ने कहा- हे असुरधीष ! ये विष्णु भगवान हैं, कश्यप के घर में अदिति से उत्पन्न हुए हैं। तुमने इनको भूमि देने की प्रतिज्ञा कर ली, यह अच्छा नहीं किया।
यह मायावी हरि वामनरूप धरकर, तेरे स्थान, ऐश्वर्य, लक्ष्मी, तेज और यज्ञ को तुझसे छुड़ाकर इन्द्र को देगा। यह विश्वकाय तीन ही पैर मैं तीनों लोक नाप लेगा। जिस दान से जीविका नष्ट होती है वह दान प्रशंसा योग्य नहीं है।
हे दैत्येन्द्र ! आत्मा रूपी वृक्ष का फल और फूल सत्य है जो यह देह नष्ट हो जायेगी तो फल फूल कहाँ से लगेंगे। शरीर रूपी वृक्षों की मिथ्या भाषण ही जड़ है।
सो जड़ न होने से वृक्ष सूख कर गिर पड़ता है, उसी तरह झूठ न होने से शरीर का नाश हो जाता है। जिस पदार्थ को 'हाँ' कर ली जाती हैं तो देने वाला उससे शून्य हो जाता है। परन्तु सब जगह झूठ बोलना दूषित नहीं है जैसे-स्त्रियों से हास्य में, विवाह में, जीविका में, प्राण-संकट में तथा गौ ब्राह्मण के प्राण बचाने में।
॥ विश्व रुप दर्शन ॥
शुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! गुरु की बात सुनकर बलि कहने लगा- हे गुरु ! आपका कथन ठीक है, गृहस्थियों का यही धर्म है परन्तु प्रहलाद के वंश में ही धन लोभ से अपनी की हुई प्रतिज्ञा को कैसे हटा सकता हूँ। गुरुजी! असत्य से परे कोई अधर्म नहीं है क्योंकि बोझ में तो इस ब्रह्मचारी की इच्छा पूर्ण करूँगा ही।
यदि ये विष्णु हैं तो क्या डर है ? यज्ञों द्वारा जिसका पूजन करते हैं सो विष्णु मेरे यहाँ माँगने आया है, तब चाहे शत्रु हो मैं अवश्य दान दूँगा। इस पर भी यदि मुझे यह बांधेगा तो मैं इसको न मारूँगा क्योंकि इसने शत्रु होकर भी डर के ब्राह्मण का शरीर धारण किया है। जब बलि ने गुरु का कहना न माना तब गुरु ने कुपित हो श्राप दिया ।
अरे, अज्ञानी! मेरी उपेक्षा करता है, इससे तेरी सम्पत्ति शीघ्र ही नष्ट हो जायेगी। इस तरह गुरु श्राप से भी वह अपनी सत्य प्रतिज्ञा से चलायमान न हुआ और जल लेकर भूमि का संकल्प छोड़ दिया। उसी समय बलि की विन्ध्यावली रानी सोने के कलश में जल भरकर चरण धोने आई।
यजमान ने अपने हाथों वामन के चरण धोकर चरणोदक अपने सिर पर छिड़क लिया। उस समय दैत्यराज पर देवगणों ने फूलों की वर्षा की, तब वामनजी ने अपना त्रिगुणात्मक रूप ऐसा बढ़ाया कि ऐसी विराट देह में बलि की भूमि, आकाश, दिशा, स्वर्ग, समुद्र, पक्षी, नर, देवता, ऋषि, ऋत्विक, आचार्य, सभासदों सहित विश्वगत प्राणों, इन्द्रिय अर्थ तथा उनकी पगस्थली में रसातल, चरणों में भूमि, जंघाओं में पर्वत, घुटनों में पक्षी और उरुओं में पवन के गण, नेत्रों में सन्ध्या, गुह्यस्थान में प्रजापति, जंघाओं में स्वयं आप, नाभि में आकाश, कुक्षि में सातों समुद्र, वक्षस्थल में नक्षत्र मंडल, हृदय में धर्म, स्तनों में ऋतुसत्य, मन में चन्द्रमा, वक्षस्थल में कमलहस्ता लक्ष्मी और कण्ठ में सामवेद, भुजाओं में इन्द्रादि देवता, कानों में दिशा, मूर्धा में स्वर्ग, केशों में वेद, जिह्वा में वरुण, भृकुटियों में निषेध और विधि, पलकों में दिन रात, ललाट में क्रोध, ओट में लोभ, स्पर्श में काम, वीर्य में जल, पीठ में अधर्म, पाद विक्षेप में यज्ञ, छाया में मृत्यु, हास्य में माया, रोमों में औषधि, नाड़ियों में नदी, नखों में शिला, बुद्धि में ब्रह्मा, प्राणों में देव और ऋषिश्वर तथा गोत्र में सब स्थावर जंगम दिखाई दिये।
हे राजन् ! भगवान में सम्पूर्ण लोक को देख असुरगण खेद को प्राप्त हुए। तदन्तर वामनजी बोले- हे राजन्! मैं नापता हूँ। राजा ने कहा- नापो, सो एक पाँव में पृथ्वी, शरीर से आकाश और भुजाओं से दिशा तथा दूसरे पाँव से स्वर्ग नाप लिया, तीसरे पाँव के रखने से लिये कुछ भी बाकी न रहा।
॥ विष्णु द्वारा बलि का बन्धन ॥
शुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! जब वामनजी का चरण सत्य लोक में पहुँचा तब ब्रह्माजी और मरीच्यादि तथा सनकादि योगीगण वेद, यम, नियम, इतिहास शिक्षा आदि वेदांगपुराण संहिता आदि उस चरण का पूजन करने लगे, स्तुति करने लगे। हे नरेन्द्र ! ब्रह्मा के उस कमण्डल का जल वामन के चरण धोने से पवित्र हो गंगा बन गई जो तीनों लोकों को पवित्र करती है। तब भगवान ने वृहद्विराट रूप को छिपा लिया और वामन रूप हो गये, तदन्तर जामवन्त ने
तीनों लोकों में डोंडी फेर दी कि आज से बलि का हुआ। वह कहने लगे - अरे! यह तो मायावी विष्णु है। इसका वध करना हमारा धर्म है। इस हेतु वे सब शस्त्रों को लेकर क्रोध करके बलि की बिना इच्छा वामनजी को मारने के लिए उद्यत हुए, तब भगवान के पार्षदों ने उन्हें रोक लिया।
शुक्राचार्य के शाप को याद कर बलि ने भी रोक दिया और अपने सेना नायकों से बोला- हे वयवित्तराहो, हे नेमे ! मेरी बात सुनो, युद्ध मत करो, जो काल पहले तुम्हारे अनुकूल था वही अब विपरीत है।
जब हम पर देव प्रसन्न होगा तो हम इनको जीतेंगे। लड़ना छोड़ दो। अपने स्वामी की बात सुन दैत्य रसातल को चले गये। तदन्तर भगवान की इच्छा देखकर गरुड़ ने यज्ञ से सोमाभिषेक के दिन बलि को वरुणाशाप से बांध लिया।
वामन भगवान बोले- अरे असुर ! तुमने मुझे तीन पैर देने की प्रतिज्ञा की थी। दो पैर तो मैंने नाप लिये अब तीसरा पैर कहाँ नापूँ ? यदि तू तीसरा पैर न देगा तो तू नरक में पड़ेगा इसका तेरे गुरु ने अनुमोदन किया था।
॥ भगवान का द्वारपाल होना स्वीकार ॥
शुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! भगवान के धिक्कारने पर बलि बोला - हे उत्तम श्लोक! मेरे वचन भी मिथ्या न मानिये अपना तीसरा पैर मेरे सिर पर धरकर नाप लीजिए क्योंकि जब मेरे बाहुबल से अर्जित भूमि आपके लिए दो पैर हो गई तो क्या मेरा शरीर आपके एक पैर भी नहीं हो सकता है। मैं नरक जाने से नहीं डरता हूँ, मुझे केवल आपसे इस झूठे कहे का बहुत डर है।
मेरे पितामह प्रहलादजी कहते थे कि जब जीव अन्त में ये देह छोड़कर जाता है तो उस देह से क्या प्रयोजन है ? और मरने पर धन के हरने वाले भाई रूप चोरों से, तथा संसार में बन्धनरूपी स्त्री से भी क्या प्रयोजन है ? इन विचारों को दृढ़ करके मेरे पितामह को अगाध बोध हो गया और आपके पादपंकजों में भक्ति प्राप्त हुई।
मेरी भी देव ने लक्ष्मी हर मुझको आपके पास ला डाला है, यह भी अहोभाग्य है। आपने मुझको उस सम्पत्ति से हटा दिया है जिससे मदान्ध होकर प्राणी मृत्यु के समीप पहुँच अपने जीवन को अनित्य समझता है।
हे राजन् ! बलि के कहने पर प्रहलाद जी वहाँ आये। तब वरुणापाश बद्ध बलि ने प्रहलाद को नमस्कार नहीं किया, केवल सिर झुका दिया, नेत्रों में आँसू भर आये और लज्जा से मुख नीचा कर लिया, तब प्रहलाद ने भगवान को देख प्रणाम किया।
प्रहलादजी बोले- हे विभो! आप ही ने तो बलि को इन्द्र के ऊपर गौरव दिया और आप ही ने ले लिया यह बड़ा ही अनुग्रह किया क्योंकि यह मदान्ध हो आपको भूल गया था।
हे राजन् ! इस तरह प्रहलाद हाथ जोड़ खड़े थे उसी समय पति को बंधा देख बलि की स्त्री हाथ जोड़कर वामनजी से बोली- हे महाराज ! आपने क्रीड़ा के लिए यह जगत रचा था सो मूर्ख लोग अपने को इसका स्वामी कहते हैं। इसकी उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले आपको कोई क्या दे सकता है ?
ब्रह्माजी बोले- देव! जो कुछ इसने संचय किया था वह सर्वस्व आपको दे चुका । देते समय इसके मन में कुछ भी विचार न हुआ। जो शठ बुद्धि को छोड़कर आपके चरणों में जल और दूर्वांकुर मात्र भी समर्पण करता है वह भी उत्तम गति पाता है फिर इसने तो त्रिलोकी और अपनी देह भी समर्पण कर दी फिर यह क्लेश क्यों पावे, इस कारण इसे छोड़ दीजिए।
भगवान बोले - हे ब्रह्मा ! जिस पर मैं अनुग्रह करता हूँ उसका सर्वस्व छीन लेता हूँ। इसलिए यह देवताओं में भी दुर्लभ स्थान पावेगा और आगे होने वाले सावर्णि मन्वन्तरों में यही मेरा आश्रयभूत इन्द्र होगा। हे बलि ! अपने जाति वर्गों को ले सुतल लोक में जा निवास करो। लोकपाल भी तुमको पराजय न कर सकेंगे। मैं तेरी रक्षा करता हुआ तेरे दरवाजे पर मूसल लेकर खड़ा रहूँगा।
॥ बलि का सुतल गमन ॥
शुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! उस समय बलि हाथ जोड़ आँसू भरकर भगवान से बोला- हे भगवन्! कैसा आश्चर्य है जो देवों को भी न मिला वह अनुग्रह आज आपने अपना चरण मेरे सिर पर रखकर किया। यह कहकर भगवान ब्रह्मा और महादेव को प्रणाम कर बलि बन्धन से छूट असुरों को साथ ले सुतल- लोक चला गया।
इस तरह भगवान ने इन्द्र को राज्य दे अदिति का मनोरथ पूर्ण किया। बन्धन से छूटे नाती को देख प्रहलादजी बोले - आपने ऐसी प्रसन्नता ब्रह्मा, लक्ष्मी व महादेव पर भी नहीं की है। हमारे अहोभाग्य हैं कि जो अपने असुरों की द्वारपाली स्वीकार की।
भगवान बोले- हे वत्स प्रहलाद ! तुम्हारा कल्याण हो, अपने पौत्र को लेकर सुतल लोक जाओ। मुझे गदा लिये वहाँ नित्य देखोगे । हे राजन् ! भगवान की आज्ञा से प्रहलाद बलि को साथ लेकर सुतल लोक चला गया। तदन्तर समीप ही शुक्राचार्य से नारायण बोले- हे ब्रह्मन्! यज्ञ करने वाले तुम्हारे शिष्य के कर्म में जो छिद्र रह गया है उसे तुम पूर्ण करो।
शुक्राचार्य बोले- जिस कर्म के आप ईश्वर हैं उसमें संकीर्तन से सब काम पूर्ण हो जाते हैं। मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा, इस तरह श्रीहरि आज्ञा से शुक्राचार्य ने बलि यज्ञ की न्यूनता पूर्ण कर दी। हरि ने वामन रूप धर, बलि से पृथ्वी को मांग, स्वर्ग शत्रुओं से छीन, इन्द्र को दे दिया।
देव, ऋषि, दक्ष, भृगु, अंगिरा, सनत्कुमार तथा शिवजी को साथ ले प्रजापति ब्रह्मा ने कश्यप और अदिति की प्रसन्नता के लिए वामनजी को सब लोकों का पति उपेन्द्र बनाया। फिर ब्रह्मा की आज्ञा से वामनजी को विमान में बैठा स्वर्ग ले गया।
हे कुरुनन्दन! वामनजी का चरित्र मैंने आपके सामने वर्णन किया जिसके सुनने से मनुष्य के सब पाप नष्ट हो जाते हैं।
॥ मत्स्य चरित्र का कथन ॥
परीक्षित पूछने लगे - हे भगवान्! मैं हरि के मत्स्यावतार की कथा सुनना चाहता हूँ। ईश्वर होकर भी जीव की तरह भगवान ने मछली का रूप क्यों धारण किया ?
शुकदेवजी बोले- हे राजन् ! गौ, ब्राह्मण, देवता, वेद और धर्म, अर्थ की रक्षा करने की इच्छा से भगवान शरीर धारण करते हैं। कल्पान्त में जब ब्रह्मा की निद्रा से संसार का प्रलय हुआ था तब सब लोक समुद्र में डूब गये थे और उसी समय ब्रह्मा के मुख से निकले हुए वेदों को हयग्रीव हर ले गया।
उस असुर के मारने को भगवान ने मछली का रूप धारण किया। सत्यव्रत नामक राजऋषि जलपान कर नारायण में एकाग्रबुद्धि लगाकर तप करता था। यह सूर्य पुत्र हो श्राद्धदेव मनु के नाम से विख्यात है। एक दिन यह राजा कृतमाल नदी तट पर बैठा तर्पण कर रहा था तब उसकी अंजली में एक मछली आ गई तो उसने उसको नदी में छोड़ दिया तब मछली कहने लगी - हे दीनानाथ! मैं सजातियों के डर से आपकी शरण आई थी सो आप मुझे इस नदी में क्यों छोड़ देते हो ? राजा ने उस मछली की रक्षा का विचार किया।
तब उसे कलश के जल में रख अपने आश्रम में ले आया। वह उसमें एक रात में ही इतनी बढ़ गई कि उसके रहने को जगह न रही तब राजा से बोली- हे राजन् ! मुझको कलश में बड़ा कष्ट है, कोई बड़ा स्थान बताओ। तब राजा ने उसको किसी जल कुण्ड में डाल दिया उसमें जाते ही वह दो घड़ी में तीन हाथ हो गई। फिर वह राजा से कहने लगी- हे राजन् ! यह जलाशय भी मेरे योग्य नहीं है, तब राजा ने उसे एक सरोवर में डाल दिया और वहाँ सरोवर का भी जल उससे ढक गया। वह बोली- हे राजन् ! यह सरोवर भी ठीक नहीं है। जहाँ-जहाँ भी बड़े जलाशय मिले राजा उसे डालता रहा परन्तु वह कहीं नहीं समाई।
तब समुद्र में डालते ही वह बोली- हे राजन् ! तुम इसमें मत डालो क्योंकि इसमें मकरादिक मेरा भक्षण कर लेंगे। इस प्रकार मछली की वाणी से विमोहित राजा ने पूछा आप कौन हैं ? जो हमको मोह रही हो। हमने तो ऐसा जीव कभी नहीं देखा है। आप निश्चय ही भगवान हैं।
हे विभो ! प्राणियों के कल्याण के निमित्त ही आप लीलावतार हैं। हे राजन् ! सत्यव्रत के वचन सुनकर मत्स्य रूपधारी भगवान बोले - अरिविन्दम् ! आज के सातवें दिन ये भूभुवादिक तीनों लोक प्रलय जल में डूब जायेंगे। तब मेरी भेजी एक नाव आकर उपस्थित होगी। उसी समय तुम सब छोटी बड़ी औषधियों के बीजों को सप्तऋषि और सब प्राणियों को ले नाव में चढ़ एक निरालोक समुद्र में ऋषियों के तेज से विचरोगे।
उस नाव को वासुकी सर्प से मेरे श्रृंग में बांध देना। मैं ऋषियों और नाम सहित तुमको ब्रह्मा की रात्रि तक समुद्र में खींचता हुआ विचरूँगा। यह कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये तब राजा प्रतीक्षा करने लगा।
तदन्तर घोर वृष्टि के कारण समुद्र मर्यादा का उल्लंघन कर इतना बड़ा दिखाई दिया कि पृथ्वी डूबी हुई दिखाई देने लगी। इतने ही में एक नाव आई राजा उस पर सप्तऋषि और औषधियों के बीजों को लेकर चढ़ गया।
तब ऋषि प्रसन्न होकर राजा से कहने लगे- हे राजन्! तुम केशव का ध्यान करो वही हमारे संकट को दूर करेंगे। तदनन्तर राजा के ध्यान कारने पर उसमें एक सींग वाला सुवर्ण मत्स्य दिखाई दिया। जिसका विस्तार एक लाख योजन का था। तब राजा हरि की आज्ञा के अनुसार वासुकि सर्प से नाव को सींग में बांधकर भगवान की स्तुति करने लगा।
हे भगवान! आप हमारे गुरु हैं हमारे हृदय की ग्रन्थि को काट डालिये। आपके अनुग्रह से प्राणी अज्ञान से उत्पन्न हुए मल को त्याग देता है। हे अव्यय, हे ईश्वर, आप हमारे उपदेष्टा है । हे ईश्वर! मैं आपकी शरण आया हूँ। हम अपना स्वरूप जानने के लिए आपको अपना गुरु बनाते हैं।
ये मनुष्य को असत् उपदेश देता है जिससे ये दुरत्यय अन्धकार में फंस जाता है। आप अव्यय हैं और उस अव्यय अमोघज्ञान का उपदेश देते हो जिसके प्रताप से मनुष्य आपकी शरण में पहुँच जाता है। आप सब लोकों के सुहृद, ज्ञान और अभीष्ट सिद्ध हो तो भी विषय वासनाओं में बंधे हुए मनुष्य हृदय में विराजमान होने पर भी आपको नहीं जान सकते हैं।
राजा की प्रार्थना से प्रसन्न हो मत्स्यरूपी भगवान राजा को तत्व का उपदेश करने लगे। उनके मुख से राजा ने सांख्ययोग की क्रिया से युक्त अत्यन्त गुह्य मत्स्य पुराण सुना था। इन्हीं मत्स्य रूप भगवान ने प्रलय के अन्त में हयग्रीव को मार कर सोकर उठे हुए ब्रह्मा के लिए वेद ला दिये। वही सत्य-व्रत राजा ज्ञान-विज्ञान से युक्त विष्णु की दया से कल्प में वैवस्वत मनु हुआ।
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