॥ युधिष्ठिर और नारद का कथोप कथन ॥

श्रीशुकदेवजी बोले- हे राजन् ! यद्यपि भगवान प्रकृति से परे निर्गुण हैं और राग द्वेष आदि के कारण सब प्रकार से पृथक हैं, तो भी वे माया के सत्वादि गुणों में प्रवेश कर मित्र शत्रु भाव से देवता और असुर के मरण-मारण के हेतु हुए हैं। देखो राजन् ! सतोगुण, तमोगुण, रजोगुण ये तीनों माया के गुण हैं, आत्मा के नहीं। 

जब सत्वगुण की जय का समय होता है तब भगवान देवताओं और ऋषियों को बढ़ाता है। जब रजोगुण की जय का होता है, तब असुरों की वृद्धि करता है और जब तमोगुण के जय का होता है तब यक्ष-राक्षसों को बढ़ाता है। 

इस प्रकार से उस समय भगवान उसी के अनुसार हो जाते हैं। जैसे आकाश एक ही है, परन्तु घट आदिक में उसका भेद प्रतीत होता है, वैसे ही भगवान एक होने पर देवता, असुर, यक्ष आदिकों में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। 

जब जीवात्मा को भोग देने को परमेश्वर को शरीरों के रचने की इच्छा होती है तब माया से रजोगुण को पृथक सृजता है, फिर वह जब क्रीड़ा करने की इच्छा करता है तब तमोगुण को बढ़ाता है। 

हे नरदेव! जब प्रकृति व पुरुषों को निमित्त बना ईश्वर काल को रचते हैं तब वह सतोगुण को बढ़ाता है। तब ईश्वर भी देव समूह को बढ़ाते हैं, और दैत्य दानवों को नष्ट करते हैं। हे राजन्। जब इस विषय में प्रश्न युधिष्ठिर ने नारद से किया था तब नारद ने इस पर इतिहास सुनाया था।

युधिष्ठिर ने अपने राजसूय यज्ञ में शिशुपाल की सायुज्य मुक्ति देख नारद मुनि से यह प्रश्न किया- यह गति तो योगियों को भी दुर्लभ है फिर इस अधम की ज्योति श्रीकृष्ण में कैसे प्रवेश कर गई ? 

नारदजी बोले- हे राजन् ! निन्दा, स्तुति, सम्मान और अपमान के अर्थ जो यह शरीर से कल्पना की है यह देव के अभिमान से प्राणियों में भी विषम बुद्धि बनी रहती है और दण्ड देना, कठोर वचन आदि से देहधारियों को जैसे पीड़ा होती है वैसे ईश्वर को नहीं होती। क्योंकि परमेश्वर कैवल्यरूप सबका आत्मा है, भगवान असुरों को दण्ड देते हैं, यह उनके ऊपर दया करके, शत्रुभाव से नहीं मारते। 

इस कारण बैर से, भक्ति से, ईश्वर में तन्मय हो जाता है। हे युधिष्ठिर! शिशुपाल और दन्तवक्र विष्णु के पार्षदों में से थे, वह सनकादिकों के शाप से अपने स्थान से भ्रष्ट थे। युधिष्ठिर ने पूछा - भगवान ने भक्तों को वह शाप किस प्रकार और क्यों दिया गया ? 

नारदजी बोले-एक समय सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार त्रिलोकी में विचरते बैकुण्ठ लोक गये। वे देखने में पाँच छः वर्ष के बालक से थे, परन्तु अवस्था में मरीचि आदि ऋषियों से बड़े थे, उनको बालक जान जय विजय नाम पार्षदों ने द्वार पर रोक लिया। तब सनकादिक ऋषियों ने क्रोध कर द्वारपालों को शाप दिया कि तुम दोनों आसुरी योनि में जाओ। 

इस प्रकार शाप से जब ये बैकुण्ठ से गिरने लगे, उस समय दयालु हो सनकादिकों ने कहा कि तुम तीन जन्म पर्यन्त असुर हो फिर बैकुण्ठ-लोक में आ जाओगे। तब वही पृथ्वी पर आकर कश्यप स्त्री दिति के पुत्र हुए। बड़ा हिरण्यकशिपु और छोटा हिरण्याक्ष । इनकी अनीति देख भगवान ने नृसिंह रूप होकर हिरण्याक्ष को मारा। 

हिरण्यकशिपु ने पुत्र प्रहलाद को मारने को अनेक यातनायें देकर दुःखी किया था। दूसरे जन्म में उन्हीं द्वारपालों ने विश्श्रवा की स्त्री केशिनी ने राक्षस हो जन्म लिया और रावण, कुम्भकर्ण नाम से विख्यात हुए उस जन्म में रामचन्द्र ने दोनों का वध किया। 

अब बही तीसरे जन्म में शिशुपाल और दन्तवक्र नाम से जन्मे हैं। श्रीकृष्णचन्द्र ने सुदर्शन से मारकर सनकादिकों को शाप से मुक्त कर दिया। बैर भाव करने से रात- दिन भगवान का ध्यान कर दोनों फिर पार्षद हो बैकुण्ठ में हरि के समीप पहुँचे हैं। 

धर्मराज बोले- अपने प्यारे प्रहलाद पर हिरणकशिपु का बैर कैसे हुआ और प्रहलाद को हरि भक्ति कैसे हुई, सो कहिए।

॥ हिरण्यकशिपु द्वारा भ्रत पुत्रगण का शोक दूर करना ॥

नारदजी कहने लगे - हे राजन् ! वाराह भगवान ने जब हिरण्याक्ष को मार डाला, तब हिरण्यकशिपु रोष, शोक से दुःखी हो सभासदों से बोला- हे दानवों! यद्यपि भगवान सबको समान मानते हैं, तथापि मेरे शत्रु देवताओं ने उनको भक्ति करके सहायक बनाया। उस विष्णु ने 'शंकर रूप धर' मेरे भाई को मार मुझसे बैर किया है। सो जब तक मैं उसके गले को काट उसके रुधिर से भाई को तर्पण कर तृप्ति न कर लूँगा तब तक मेरी व्यथा दूर न होगी। 

विष्णु के नाश होने से देवता अपने आप ही नाश हो जायेंगे। हे दानवो ! तुम ब्राह्मणों का नाश करो। क्योंकि द्विजों की क्रिया ही विष्णु की जड़ है। और देवता, ऋषि, पितृ, भूत व धर्म का बड़ा आश्रय विष्णु ही है। इस प्रकार अपने स्वामी की आज्ञा सिर पर धारण कर दैत्यगण प्रजा का विनाश करने लगे। 

हिरण्यकशिपु समझाने लगा - हे भौजाई तथा पुत्रों! तुमको उसके मरने का शोक नहीं करना चाहिए, क्योंकि शरवीरों का मरना सराहना करने योग्य होता है। यह जीव कभी नहीं मरता। उसी नरदेश में सुयज्ञ नाम एक राजा था उसको शत्रुओं ने मार डाला। तब उसके सम्बन्धी विलाप करने लगे। राजा को देख उसकी रानियाँ दुखिता हो, 'हे नाथ! हम सब मर गईं' ऐसे कह अपनी छाती को पीटती उसके चरणों में गिर पड़ीं। 'हे नाथ! आप बिना हम कैसे जीये, इसलिए हमें भी संग चलने की आज्ञा दो।' रानियाँ इस प्रकार रो रही थीं और दाह क्रिया नहीं करने देती थीं। 

तब तक सूर्य अस्त हो गया। उस समय श्री यमराज बालक रूप धार वहाँ आये और उनसे कहने लगे - बड़ा आश्चर्य है कि ये मनुष्य अवस्था में मुझसे बड़े हैं और संसार में जन्म-मरण आदि देखते हैं तो भी इतना मोह क्यों है ? क्योंकि यह मनुष्य जहाँ से आया था वहीं चला गया और अपने को भी एक दिन मरना है, ऐसा जानकर भी तुम शोक करते हो। 

माता- पिता ने हमको बाल्यावस्था में अकेला छोड़ दिया तो भी हम चिन्ता नहीं करते। हम स्त्रियाँ, जो परमेश्वर इस जगत को रचता है और पालन व संहार करता है, उसी का यह जगत खिलौना है। देखो, एक व्याध बन में जाल बिछाये पक्षियों को लुभाता हुआ विचर रहा था। वहाँ एक कुलिंगनी का जोड़ा उड़ता हुआ दिखाई पड़ा, उनमें से कुलिंगनी को उसने शीघ्र ही लुभा पड़ा, कालवश कुलिंगनी जाल में फँस गई। उस देख कुलिंग व्याकुल हुआ तथा उसको छुड़ाने में असमर्थ हो अपनी स्त्री को देख स्नेह से वह कुलिंग शोक करता हुआ बोला- विधाता निर्दयी है, अब आधे शरीर वाले मुझ रंडुवे को भी ईश्वर उठाले, क्योंकि स्त्री बिना मेरे जीने पर धिक्कार है, अब बच्चों को मैं कैसे पालूँगा ? वे माता की बाट देख रहे होंगे । 

इस प्रकार स्त्री के विरह में विलाप करता हुआ वह जाल के समीप गया, तब व्याघ्र ने उसको बेधकर गिरा दिया। तब सब सम्बन्धियों व रानियों ने मान लिया कि यह जगत मिथ्या है। यमराज यह कहकर अन्तर्ध्यान हो गये। तब कुटुम्बी लोगों ने उसकी पारलौकिक क्रिया की। हिरण्यकशिपु कहता है- हे माँ! इस कारण तुम शोक न करो। हे राजन्! हिरण्यकशिपु का वचन सुन पुत्रवधू सहित दिति ने शोक का त्याग कर दिया।

॥ हिरण्यकशिपु को ब्रह्मा का वरदान ॥

नारद जी कहने लागे - हे राजन् ! हिरण्यकशिपु ने अजय, अमर, शत्रु रहित और चक्रवती बनने की इच्छा की और मन्दराचल पर्वत की कन्दरा में दोनों भुजा उठा, आकाश की ओर दृष्टि कर, एक पाँव का अंगूठा टेक खड़ा हो, तप करने लगा। तप के प्रभाव से हिरण्यकशिपु के सिर में से अग्नि की ज्वाला प्रकट हो तीनों लोकों को तपाने लगी। नदी और समुद्र क्षुभित हो गया, सातों द्वीप पर्वतों सहित पृथ्वी कम्पायमान होने लगी और दशों दिशायें जलने लगीं। 

तब उससे तपायमान हो देवता स्वर्ग छोड़ ब्रह्मा लोक में जा ब्रह्माजी से बोले - हे जगत्पते! हम हिरण्यकशिपु के तप से सन्तप्त हो रहे हैं, इस कारण लोकों का कल्याण चाहो तो तप शान्त करो। तब ब्रह्माजी ने देखा कि दैत्येन्द्र को बांबी और घास ने ढक लिया है तथा चीटें व कीड़ों ने उसकी देह को खा मिट्टी बना दिया है। 

तप से तपायमान करते हुए उस दैत्य को देख विस्मित हो ब्रह्माजी बोले - हे कश्यप पुत्र ! उठो, तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारी तपस्या पूर्ण हुई, तुम वर मांग लो। ब्रह्माजी इतनी बात कह हिरण्यकशिपु की ओर देखकर जल हाथ में भरकर उसके शरीर पर छिड़क दिया, उस जल को छिड़कते ही उस कीच के बाल्मीक के भीतर से तेज बल सहित दृढ़ अंग वाला वह दैत्य उठ खड़ा हुआ तथा ब्रह्मा का दर्शन कर स्तुति करने लगा- 'आद्य व कारणरूप, प्राण, इन्द्रिय, मन, बुद्धि को धारण करने वाले, अपको मेरा प्रणाम है! मैं आपसे यह वर माँगता हूँ कि किसी प्राणी से मेरी मृत्यु न हो। न भीतर, न बाहर, न दिन में, न रात में, न भूमि में, न आकाश में, देवता, दैत्य, महासर्प इत्यादिक, इनमें से कहीं भी किसी से मेरी मृत्यु न हो, न युद्ध में मुझसे कोई जीते, तथा जगत में मेरा ही राज्य हो। जिस प्रकार आपकी महिमा है, वैसे ही मेरा राज्य हो और अणिमा आदिक सिद्धियाँ भी मुझको प्राप्त होवें।

नारदजी कहने लगे- जब हिरण्यकशिपु ने वर मांगे, तब ब्रह्मा उसको वांछित वर दे और हिरण्यकशिपु से पूजित होकर ब्रह्मलोक को चले गये। इधर हिरण्यकशिपु अपने भाई के मरण का स्मरण कर विष्णु से वैर करने लगा। तप के प्रभाव से उसने तीनों लोकों को जीत लिया। स्वर्ग में भी उसने विजय पताका फहरा दी। इन्द्र के सिंहासन पर स्थित हो वह सम्पूर्ण आनन्दों को भोगने लगा। ऐश्वर्य मद से अन्धा, अभिमानी, शास्त्र को उल्लंघन करने वाला हिरण्यकशिपु इकहत्तर युगों तक राज्य करता रहा। 

उसके दण्ड से पीड़ित हो देवता भयभीत हो विष्णु की शरण में जा ध्यान करने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई- 'देवताओं! भय मत करो इस दैत्य की कुटिलता मैंने जान ली है। यह अपने पुत्र प्रहलाद से जब द्रोह करेगा तब इसका नाश करूँगा।

भगवान की वाणी सुनकर देवता उनको प्रणाम कर अपने स्थान को लौट आये। हिरण्यकशिपु के चार पुत्र हुए, प्रहलाद सब से छोटा था परन्तु गुणों में सब बड़ा और भगवान का भक्त और सबका प्यारा था। 

हे राजन्! प्रहलाद न बालपन से कोई खेल नहीं खेला और बैठते, चलते, खाते, पीते, सोते और बोलते केवल गोविन्द में एक रूप हो गया था। हे राजन्! ऐसे पुत्र से हिरण्यकशिपु बैर करने लगा। 

युधिष्ठिर ने पूछा- हे देवर्षि! ऐसे पुत्र से हिरण्यकशिपु ने द्रोह क्यों किया ? पिता क्रुद्ध भी हो जाय तो भी शत्रु समान दण्ड नहीं देता। कृपया मेरा भ्रम दूर कीजिये।

॥ प्रहलाद के प्राण नाश के लिए हिरण्यकशिपु की चेष्टा ॥

नारदजी कहने लगे - राजा ने प्रहलाद को पाठशाला में पढ़ने बैठा दिया, असुर बालकों के साथ प्रहलाद भी पढ़ने लगे किन्तु गुरु का बताया दुराग्रह उनको न भाता था। एक दिन हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को गोद मे लेकर लाड़ प्यार से कहा- हे वत्स! तुमको क्या अच्छा लगता है ? और तुमने गुरु के यहाँ क्या सीखा है ? प्रहलाद ने उत्तर दिया - पिताजी नरक में डालने वाला अन्धे कुऐं के समान घर त्याग, वन जाये, हरि का भजन करे, मैं इसी को सच्ची बात मानता हूँ। अपने पुत्र की ऐसी वाणी सुन दैत्य हंसकर कहने लगे - बालकों की बुद्धि दूसरों की बुद्धि से बिगड़ जाती है। तब शंडामर्कों ने प्रहलाद से पूछा- हे पुत्र ! सत्य कहना, तुम्हारी बुद्धि सबसे उत्तम है, फिर असुरों से भेद रखने वाली बुद्धि क्यों हो गई? दूसरों ने तुम्हारी बुद्धि पलट दी है अथवा अपने आप ही ऐसी हो गई है ? 

प्रहलाद बोले- अपना, पराया भेद मनुष्य चित्त में परमेश्वर की माया ने कर रखा है। परन्तु वह मोह उन्हीं के चित्त को मोहित करता है जिनकी बुद्धि उनकी माया से मोहित है। जब वह परमात्मा पुरुषों के अनुकूल होता है तब भेद बुद्धि दूर हो जाती है। प्रहलाद के वचन सुनते ही गुरु बोले- अरे बालकों! बेंत लाओ, इस प्रकार अनेक उपायों से प्रहलाद को भय देकर गुरुजी धर्म, अर्थ, काम, प्रतिपादन करने वाला शास्त्र पढ़ाने लगे। 

तदनन्तर कुछ काल में गुरु, चारों प्रकार की नीति प्रहलाद पढ़ चुका है, ऐसा जान प्रहलाद को हिरण्यकशिपु के चरणों में लाकर गिर पड़ा। तब दैत्य ने प्रसन्न हो आशीर्वाद दे गोद में बैठाया। सिर सूँघ, प्रेम के आसुओं से मस्तक सींच कहने लगा- हे पुत्र ! तुमने जो अपने गुरु से पढ़ा हो सो मुझे सुनाओ। 

प्रहलाद बोले- विष्णु की कथा सुनना, कथा कहना, स्मरण करना, उनके चरणों की सेवा करना, पूजा करना, वन्दना करना, भगवान का दास बनना, सखाभाव रखना और आत्मा को भगवान में समर्पण करना, यह नव लक्षणों वाली भक्ति सबको पढ़ना उत्तम है। हिरण्यकशिपु पुत्र के मुख से यह सुनकर क्रोध से गुरु से बोला - हे अधर्मी ! तुमने यह क्या किया ? तुमने तो इस बालक को शत्रु के पक्ष की बातें सिखा करके बिगाड़ दिया है। 

गुरु बोले- हे इन्द्र शत्रो! यह तुम्हारा पुत्र न तो मेरे सिखाने से कहता है, न दूसरे के सिखाने से कहता है, इसकी यह स्वाभाविक बुद्धि ही ऐसी है। इस प्रकार जब गुरु ने उत्तर दिया, तब वह पुत्र से कहने लगा- हे अमंगल! ऐसी कुमति तुझमें कहाँ से आ गई ? 

प्रहलाद को पृथ्वी पर पटक बोला- हे दैत्यों इसको मेरे सामने से ले जाओ और शीघ्र ही मार डालो। इस एक पुत्र के मरने से और सब परिवार को तो सुख होगा। यदि एक का मोह करता हूँ तो सारे कुनबे का नाश हो जायेगा। इस प्रकार जब स्वामी जी ने आज्ञा की तब राक्षस हाथ में त्रिशूल उठाये हुए 'मारो-मारो, पकड़ो-पकड़ो' ऐसे कहते हुए प्रहलाद के मर्मस्थलों में त्रिशूलों को भेदने लगे।

भगवान प्रहलाद के हृदय में वास कर रहे थे, इस कारण दैत्यों के प्रहार निष्फल हो गये। तब हिरयण्यकशिपु ने शंका मानी और बडे दुराग्रह से प्रहलाद के मारने का उपाय किया। हाथियों के पाँव तले दबाया, सापों से डसवाया, पर्वतों के ऊपर से गिराया, विष दिया, खाने को नहीं दिया। इस प्रकार भी जब वह असुर अपने पुत्र को न मार सका तब चिन्तायुक्त हो वह विचारने लगा कि मैंने प्रहलाद से कठोर वचन कहे, मारने के अनेक उपाय किये तथापि यह सब मरणादि प्रयोगों से छूट गया इसी के कारण मेरी मृत्यु अवश्य है।

ऐसे  कान्तिहीन, हिरण्यकशिपु को देख शुक्राचार्य के पुत्र शंड, अमर्क दोनों बोले- हे नाथ! आपने किसी की सहायता बिना, त्रिलोकी को जीत लिया, फिर आपको चिन्ता नहीं करनी चाहिए और इस बालक के गुण दोषों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं। जब तक शुक्राचार्यजी न आ जावें तब तक इसको वरुण की फाँसी से बांधकर रखना चाहिए जिससे कहीं भाग न जावे। 

गुरु पुत्रों का उपदेश मान हिरण्यकशिपु ने उनसे कहा तुम ही इसको अपने घर ले जाओ और गृहस्थाश्रम में रहने वाले राजाओं के धर्म सिखाओ। इस प्रकार प्रबन्ध कर वे दोनों ब्राह्मण प्रहलाद को अपने घर ले गये और धर्म, अर्थ, काम का विषय पढ़ाने लगे।

एक दिन गुरु अपने किसी काम में लग गये, उस समय अवकाश पाकर सब बालकों ने प्रहलाद बुला लिया तब प्रहलाद उनके पास जा हंस कर उपदेश करने लगे।

॥ बालकों के प्रति प्रहलाद का उपदेश ॥

प्रहलाद कहले लगा - दैत्य बालकों! बुद्धिमान बाल्यवस्था ही से वैष्णव धर्म की उपासना करे, क्योंकि मनुष्य का जन्म दुर्लभ है, इस कारण मनुष्य को भगवान का भजन करने से कल्याण प्राप्त होता है। यदि कहो कि जब सौ वर्ष पुरुष की आयु है तब बालकपन से ही इसकी क्या जरूरत है, सो हे मित्रो ! सौ वर्ष की आयु में आधी आयु तो निष्फल जानना क्योंकि इतने वर्ष तक तो मनुष्य निद्रा रूप अन्धकार में पड़ शयन करता है। 

शेष पचास वर्ष में से बालकपन के समय भोलेपन में और कुमार अवस्था में खेलने में बीस वर्ष हो जाते हैं, बीस वर्ष बुढ़ापे और असमर्थता में व्यर्थ जाते हैं। शेष दस वर्ष का, मोह, क्रोध आदि से दुःख पाये, गृहस्थी से आसक्त रह बेसुध दशा में नष्ट हो जाते हैं। कुटुम्ब की पालना के निमित्त क्षीण होती हुई आयु को और नष्ट हुए पुरुषार्थ को यह चित्त के निर्वेद को नहीं प्राप्त होओ। 

इस कारण हे दैत्य-पुत्रों! विषयों लगे इन दैत्यों के संग को दूर से ही त्याग कर नारायण की शरण प्राप्त करो। जब भगवान प्रसन्न हो जाते हैं तब कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं रहता। पूर्व समय में मैंने यह ज्ञान नारदजी के मुख से सुने थे। 

दैत्यपुत्र बोले- हे प्रहलाद! शंडामर्क गुरु से हमने और तुमने साथ ही पढ़ा है, फिर यह ज्ञान तुमको कैसे मिला ? बाल्यवस्था में तब तुम रनिवास में रहते थे, उस समय महात्माओं का रनिवास में जाना कठिन था, इससे हमारे चित्त में बड़ा सन्देह है।

नारद ने कहा- हे राजन् ! प्रहलादजी ज्ञान का स्मरण कर बोले - हे दैत्य बालकों ! हमारा पिता जब मन्दराचल पर तप करने चला गया तब देवताओं ने दानवों के प्रति युद्ध करने को बड़ा उद्यम किया। उस समय इन्द्रादि देवता कहने लगे कि इस हिरण्यकशिपु को उसके पाप ने ही खा लिया। ऐसे में इसके घर को चलकर लूट लो। 

इस प्रकार कहकर देवों ने चढ़ाई की तब उनका उद्यम देखकर दैत्य सेनापति भाग गए। तब देवताओं ने राज मन्दिर की लूट की और हमारी माता कयाधू को पकड़कर इन्द्र ले चला। तब मार्ग में नारद आते हुए दीख पड़े। नारदजी बोले- हे सुरपते! इस अबला को क्यों लिए जाता है ? इसको छोड़ दो। 

इन्द्र बोले- इससे जो बालक उत्पन्न होगा वो देवताओं का द्रोही होगा। इस कारण तब तक मैं इसे अपने यहाँ रखूँगा, जब बालक होगा तो उसे मार कर छोड़ दूँगा। नारद कहने लगे - हे देवराज ! यह विपरीत विचार है, तुम नहीं जानते कि यह गर्भ निष्पाप है। इस गर्भ में महात्मा बालक है, जो भगवद्भक्तों का अनुचर और बलवान होगा। घट मिट्टी से जुदा नहीं है परन्तु मिट्टी घट से जुदा है, ऐसे ही देह आत्मा से जुदा नहीं, परन्तु आत्मा देहादिकों से जुदा है। 

जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति वृत्तियाँ बुद्धि की हैं। कर्म उत्पन्न हुए और आत्मधर्म से निरस्त हुए इन तीन वृत्तियों के जाग्रतादि भेदों से आत्मा का स्वरूप जान लेना चाहिए। भगवान के कर्मों को और वत्सलता आदि गुणों को तथा अनेक अवतार से किए चरित्रों को सुनकर जब रोमावली खड़ी हो जाये और नेत्रों से आँसू बहने लगें, कभी रोने लगे, कभी नाचने लगे और जब इस प्रकार कभी प्रेम लक्षण भक्ति हो जावे। भूत लगे की तरह कभी हँसे, कभी पुकारे, कभी परमेश्वर का ध्यान करे और बारम्बार प्रत्येक श्वास में कहे - हे हरे! जगत्पते! जब इस प्रकार आत्मा की निर्लज्ज गति हो तब भक्ति गिनी जाती है। देवता असुर, मनुष्य व यज्ञादि सभी भगवान का भजन करने से कल्याण पाते हैं। यह नहीं समझना कि हम असुर हैं। 

हमको भगवद् भजन करने का अधिकार नहीं, यदि तुम भजन करोगे तो तुम्हारा कल्याण होगा। हरि भगवान में निष्कपट भक्ति करो।

॥ भगवान नृसिंह के हाथ से हिरण्यकशिपु का विनाश ॥

नारदजी बोले- उन असुर बालकों ने प्रहलादजी के वचनों को स्वीकार किया और गुरु शिक्षा अंगीकार नहीं की। हे युधिष्ठिर! जब उन बालकों की बुद्धि नारायण में लगी हुई देखी तब शुक्राचार्य के पुत्र ने भयभीत होकर यह हाल हिरण्यकशिपु से कहा। वे प्रहलाद के अप्रिय चरित्र को सुनकर क्रोध में भर हाथ जोड़ सम्मुख खड़े प्रहलाद से कहने लगे ।

हे दुर्विनीत! मेरी शिक्षा के विरुद्ध चलने वाले ! मैं अब यमराज के लोक में तुझे पहुँचाऊँगा। हे मूढ़ ! मेरी आज्ञा का उल्लंघन करता है और किसके बल से तू नि:शंक है ? 

प्रहलाद बोले- हे राजन्! जिस परमेश्वर ने जगत को वश में कर रखा है, उसी का मुझे ही नहीं आपको तथा अन्य बलवानों का भी वही बल है। 

हिरण्यकशिपु बोला- हे मन्दमति! अब निश्चय कर लिया कि तू अवश्य मरना चाहता है। तू परमेश्वर बतलाता है सो मुझसे अतिरिक्त दूसरा जगदीश्वर कौन है ? और जो तूने कहा कि वह सर्वत्र है तो इस खम्बे में क्यों नहीं है ? हिरण्यकशिपु खम्भ में परमेश्वर को न देख कहने लगा- मैं तेरा धड़ सिर से जुदा किये देता हूँ, तेरा परमेश्वर तेरी रक्षा करे। 

इस प्रकार क्रोध कर दैत्येन्द्र ने खंग से सिंहासन से कूदकर खम्भ के बीच जाकर एक घूँसा मारा। हे राजन्! मुष्टिका लगते ही उस खम्भ से महा भयंकर शब्द निकला, जिससे सारा ब्रह्माण्ड हिल गया। तब पुत्र के मारने में तत्पर असुर उस शब्द को सुन शब्द के उद्गम स्थान को देखने लगा। 

इतने में प्रहलाद के वचन को सत्य करने अथवा सनकादिकों का शाप सत्य करने या हिरण्यकशिपु ने जो ब्रह्मा से वरदान मांगा कि मेरी मृत्यु कहीं पुत्र विरोध से न हो जाय इसको सत्य करने अथवा नारद ने इन्द्र से कहा कि इस कयाधू के गर्भ से भक्त बालक होगा जो तुमसे नहीं मरेगा, और इसको किसी से भय नहीं है, इसको सत्य करने अथवा भगवान ने कहा मैं अपने भक्तों की रक्षा करता हूँ इत्यादि वाक्यों को सिद्ध करने अथवा अपने भक्तों की वाणी कि 'परमात्मा' जगत में परिपूर्ण है, इसको सत्य दर्शाने । 

जो न मनुष्य है, न सिंह, ऐसा नृसिंह रूप धार भगवान ने खम्भ फाड़ सबको दर्शन दिया। 

दैत्येन्द्र खम्भ के सी बीच से निकला नृसिंह स्वरूप देखते ही विचार करने लगा - अहो! यह न तो पशु है, न मनुष्य, वह इस प्रकार विचार करता ही था कि भयानक नृसिंह स्वरूप प्रत्यक्ष दीख पड़ा।

ऐसे स्वरूप को देख हिरण्यकशिप ने विचारा, माया करने वाले हरि ने क्या मेरे मारने का विचार किया है, इस प्रकार कह हिरण्यकशिपु गदा ले नृसिंह पर झपटा, तब वह असुर नृसिंहजी के तेज में छिप गया। फिर हिरण्यकशिपु ने क्रोध कर गदा नृसिंह की छाती पर मारी तब नृसिंह ने गदा समेत उसको पकड़ लिया। 

फिर दैत्य भगवान के हाथ से छूट गया। हिरण्यकशिपु भगवान को अपने पराक्रम से भयभीत जान, निर्भय हो, ढाल-तलवार से भगवान से भिड़ गया और ढाल तलवार लिये दांव लगा रहा था। तदनन्तर असुर को नृसिंहजी ने भय दिखा अपने तेज से उसकी आँख मीचकर पकड़ लिया। पकड़ लेने पर वह असुर आतुरता से तड़फने लगा। 

भगवान ने नि:शंक हो घर की देहली पर बैठ हिरण्यकशिपु को अपनी जंघाओं पर पटक नखों से उसका पेट फाड़ डाला। सम्पूर्ण ग्रह उनकी दृष्टि की कांति से तेजहीन हो गये तथा नृसिंहजी की श्वास से समुद्रों में तूफान आने लगा। स्वर्ग में विमान नृसिंहजी की जटाओं की लपेट से जहाँ के तहाँ रह गये, चरणों के भार से पृथ्वी डगमगाने लगी, वेग से पर्वत गिरने लगे। 

इसके उपरान्त भगवान राज्य सिंहासन पर जा विराजे। उस समय देवांगनायें फूल वर्षाने लगीं। तदनन्तर ब्रह्मा, इन्द्र महादेव आदि देवगण और ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, नाग, सब दर्शन को आये। सब पृथक- पृथक भाव से भगवान की स्तुति करने लगे। 

ब्रह्मा बोले- अनन्त शक्तिमान, पवित्र कर्मों वाले, तम, रज, तम, से लीला करके जगत को उत्पन्न, पालने वाले व संहार करने वाले, अविनाशी परमात्मा को हमारा प्रणाम है। 

महादेवजी बोले - आपके कोप करने का समय तो युगान्तर है, इस समय यह एक तुच्छ असुर था सो मार डाला, भला इस समय आपके क्रोध का क्या काम है ? इस कारण अब आप शान्ति करो और प्रहलाद की रक्षा करो। 

इन्द्र बोले- हे नृसिंहजी ! आपने असुर को मार मुझे अभय किया है आपको मेरा प्रणाम है। ऋषि लोग स्तुति करने लगे हे शरणागत रक्षक! हमारा ध्यान और तप इस दैत्य ने लुप्त कर दिया था सो आज आपने फिर उसी तप करने की हमें आज्ञा दी है, ऐसे परमेश्वर को नमस्कार है। 

विष्णु के पार्षद बोले- हे भगवान! सबको सुख देने वाला यह नृसिंह रूप आज हम लोगों ने देखा है। आपने दास हिरण्यकशिपु को ब्रह्मशाप से छुड़ाने को व इसके मारने को नृसिंह अवतार धारण किया है, आपने इसे मारकर इस पर अनुग्रह ही किया है।

॥ प्रहलाद द्वारा भगवान का स्तवन ॥

नारदजी कहने लगे - जब रुद्र आदि देवता स्तुति करने पर भी श्री नृसिंह को शान्त न कर सके, तब देवताओं ने लक्ष्मी के समीप जाकर कहा- हे माता! नृसिंह के तेजरूप कोप से सब भस्म होना चाहते हैं सो आप उसको शान्त करवाइये। यह कह उनको नृसिंह भगवान के निकट भेजा। लक्ष्मी जी ने ऐसा रूप न कभी देखा था, न सुना था इस कारण भय से निकट नहीं गईं। 

तब ब्रह्मा ने प्रहलाद से कहा- हे तात! अपने पिता पर कुपित हुए नृसिंह को शान्त करने को तुम ही समीप जाओ, तब प्रहलाद ब्रह्मा की आज्ञा मान समीप गए और चरणों में गिरकर स्तुति करने लगे। 

तब भगवान ने उस बालक को उठा उसके सिर पर अपना हाथ रखा। उनके हाथ रखने से पापों से रहित प्रहलाद जी ब्रह्मज्ञान को प्राप्त हो, आँखों से आँसू बहाने लगे और एकाग्र मन से हरि की स्तुति करने लगे। 

ब्रह्मा आदि देवगण स्तुति करते-करते भी जिस भगवान की आराधना को समर्थ नहीं हुए उनकी स्तुति मैं दैत्य जाति का बालक किस प्रकार कर सकता हूँ क्योंकि भगवान, ग्राह से पीड़ित हुए गजेन्द्र पर केवल भक्ति से ही प्रसन्न हुए थे। 

हे भगवान! आपकी आज्ञा में रहने वाले ये सब देवता सरीखे असुरों की नांई बैर कर आपको नहीं भजते किन्तु भक्ति से भजन करने वाले हैं सो अब ये आपके स्वरूप को देख भयभीत हो रहे हैं, इस कारण आप कोप का शमन करो। 

हे नृसिंह भगवान! सब लोक इस असुर के मरने से प्रसन्न हूँ, आपके इस स्वरूप को देख मुझे भय नहीं है परन्तु हे दीनवत्सल! मैं इस संसार से क्लेशित हूँ, असुरों के बीच पड़ा हुआ मैं बन्धन में बंध रहा हूँ इससे मेरा मन भयभीत होता है, आप कृपालु हो, आप अपने चरण कमलों की शरण में कब बुलाओगे ? 

बन्धनों से मुक्त हो आपके चरणों में रहने वाले ज्ञानियों का साथ कर आपकी कथाओं का गान करता सहज ही तर जाऊँगा। हे विभो ! दुःखी पुरुषों के दुःख मिटाने को आप ही समर्थ हो। हे भगवान! आपने जिस प्रकार इस समय मुझे अपना मानकर रक्षा की इसी प्रकार मैं अपने भक्तों की सेवा को कैसे त्याग सकता हूँ ? 

नारदजी मुझे गर्भ में ही भगवद्भक्ति उपदेश गये थे। हे पूज्यतम ! नमस्कार, स्तुति, पूजन, समर्पण, स्मरण, कथा श्रवण, ऐसे छ:अंग वाली सेवा के बिना मनुष्य को भक्ति कैसे प्राप्त हो ? और इसके बिना मोक्ष नहीं होता। इसलिए कृपाकर मुझे अपना दास बनाइये।

नृसिंह बोले- हे प्रहलाद! मंगल हो, मैं परम प्रसन्न हूँ, जो तुम्हारी इच्छा हो, वर मांग लो। शरीरधारी मेरा दर्शन कर फिर किसी सन्ताप सहने योग्य नहीं होता। हे युधिष्ठिर! इस प्रकार श्री नृसिंह भगवान ने प्रहलाद को बुलाया तो भी निष्काम होने के कारण प्रहलाद ने वरदान की इच्छा नहीं की।

॥ भगवान नृसिंह का अन्तर्ध्यान होना ॥

प्रहलाद कहने लगे - हे भगवान ! स्वभाव से ही कामनाओं में आसक्त हुए मुझे वरदानों का लोभ दिखाकर मत लुभाओ, मैं तो विषय वासना के संग से भयभीत हो वैराग्य धारण कर शरण आया हूँ। इन्द्रिय, मन, प्राण, आत्मा, देह, धर्म धारण, बृद्धि, लज्जा, लक्ष्मी, तेज, स्मृति, सत्य ये सब मांगने की इच्छा से उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाते हैं। 

नृसिंह भगवान बोले- मुझमें निष्काम भक्ति रखने वाले जो भक्त हैं वे कभी इस लोक तथा परलोक के आषीशों को नहीं चाहते तो भी तुम मेरी आज्ञा से इस लोक में एक मनु के राज्य तक सुखों को भोगो । तुम मेरी कथा को सुनते हुए, व मुझमें आत्म समर्पण करके एक यज्ञेय भगवान का पूजन कर्म करते रहना, और कर्मों के फल की इच्छा न करना, सुख भोग कर पुण्य का आचरण कर, पाप का त्याग करना। फिर काल आने पर शरीर त्याग, मुझको प्राप्त होना। जो मनुष्य तुम्हारी की हुई स्तुति का पाठ करेगा वह कर्म बन्धन से छूट जायेगा। 

प्रहलाद जी बोले- हे महेश्वर! आपकी आज्ञा से मैं दूसरा वर माँगता हूँ कि ईश्वर सम्बन्धी तेज को जान आपकी निन्दा करने वाला मेरा पिता पवित्र हो जाये। श्री भगवान बोले- हे प्रहलाद! तुम्हारा पिता इक्कीस पीढ़ियों सहित पवित्र हो गया। तुम जैसे पुत्र के जन्म लेने से ही उसका कुल पवित्र हो चुका है। 

इस लोक में जो तुम्हारे अनुवर्ती होवेंगे, वे भी मेरे भक्त होंगे। निश्चिन्त रहो, तुम्हारा पिता उत्तम लोक को प्राप्त होवेगा। तुम पिता के राजसिंहासन पर बैठो और ये पण्डितजन किस प्रकार आज्ञा करें वैसे ही मुझमें मन लगाकर सब कर्म करो। 

हे राजन् ! भगवान के आदेशानुसार प्रहलाद ने अपने पिता की क्रिया की, तदनन्तर ब्राह्मणों ने प्रहलाद को सिंहासन पर बैठाकर तिलक कर दिया। नृसिंह भगवान का प्रसन्नता से प्रफुल्लित मुख देखकर ब्रह्माजी देवताओं सहित स्तुति करने लगे - हे भूत भावन! यह दैत्य मुझसे वरदान पाकर मेरी सृष्टि से नहीं मर सकता।

इसलिए इसको मार आपने त्रिलोकी को अभय किया है। नृसिंहजी कहने लगे - हे राजन् ! श्रीनृसिंह भगवान यह कहकर अन्तर्ध्यान हो गये, तब प्रहलाद ने ब्रह्मा, महादेव और सब देवताओं का पूजन किया। इस प्रकार वे दोनों विष्णु पार्षद शिवि के पुत्र हुये। उसने बैर से हरि को अपने हृदय में धारण किया, इससे भगवान ने उनको मारा। 

फिर वे ही दोनों कुम्भकरण, रावण नामक दो राक्षस हुए तब रामचन्द्रावतार धारण कर, उनको मारा। अनन्तर वे शिशुपाल और दन्तवक्र हुए तो श्रीकृष्ण ने ही सहायता कर महादेव के यश का विस्तार किया। 

युधिष्ठिर पूछने लगे - हे मुनिश्वर ! महादेव की कीर्ति को मय ने किस कर्म से कैसे नष्ट किया और श्रीकृष्ण ने शिव कीर्ति को कैसे बढ़ाया, सो कहिए। नारद जी कहते हैं - देवताओं ने सब असुर जीत लिये तब वे असुर मय दैत्य की शरण में गये। तब मय ने सोने, चाँदी और लोहे के तीन पुर रचे, जिनके आने का मार्ग कोई नहीं जान सकता था। उन्हीं में असुर रहते थे। 

हे राजन्! पहले वैर को स्मरण कर सब लोगों को नष्ट करने लगे क्योंकि वे क्षण में आकर कहने लगे - विभु! त्रिपुर निवासी दैत्यों से हमारी रक्षा करो। तब शिवजी ने धनुष बाण चढ़ाया और तीनों पुरों पर बाण छोड़े। शिवजी तीक्ष्ण बाण चलाने लगे। उन बाणों के समूहों से तीनों पुर दीखने बन्द हो गये। दैत्य प्राणहीन हो गिर पड़े। 

उनको मय ने एक माया से बनाये अमृत कूप में गिरा दिया। अमृत का स्पर्श होते ही दैत्य जीवन पाकर फिर लड़ने लगे, यह देख शिवजी को बछड़ा बनाया और आप गौ बन गये। फिर मध्याह्न समय उस त्रिपुर में प्रवेश कर अमृत कूप के रस को पीने लगे। तब मय दानव रस कूप के राक्षसों से बोला - वृथा शोक क्यों करते हो ? देवगति का स्मरण करो, तदन्तर श्रीकृष्ण ने धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऋद्धि, तप, विद्या, क्रिया आदि शक्तियों द्वारा शिवजी के रथ, घोड़ा, सारथी, धनुष, कवच, बाण आदि सब सामग्री तैयार की, फिर शिव कटिबद्ध हुए और धनुष बाण लेकर रथ पर जा बैठे। तब महादेव ने बाण छोड़ा। 

हे राजन् ! उस एक बाण से तीनों पुर दग्ध कर दिये, स्वर्ग में नगाड़े बजने लगे, विमानों की भीड़ हो गई और देवता, ऋषि, पितर, सिद्धेश्वर सब जय-जय बोलते हुए फूलों की वर्षा करने लगे। महादेवजी तीनों पुरों को दग्ध कर ब्रह्मादि देवताओं की स्तुति करते-करते अपने धाम को सिधारे ।

॥ मनुष्य-धर्म और स्त्री-धर्म वर्णन ॥

प्रहलाद के चरित्र को सुनकर प्रसन्न होकर युधिष्ठिर बोले- हे मुनीश्वर! मैं मनुष्यों का धर्म सुनना चाहता हूँ, उनके वर्ण आश्रम का आचार सहित धर्म वर्णन कीजिए। 

नारद जी बोले-हे राजन् ! धर्म के मूल भगवान हैं, वेद के जानने वालों में स्मृतियाँ भी वेद की प्रमाण रूप मानी गई हैं, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो जाते, वह भी धर्म है। सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, इच्छा, शम, दम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, दान, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, महात्माजनों की सेवा, मौन, आत्मज्ञान, अन्नादिक भोजन में से दूसरे प्राणियों को यथायोग्य बाँटकर देना, प्राणियों में और आत्मा में देवता बुद्धि रखना, श्रीकृष्ण की नवधा भक्ति करना, आत्म समर्पण करना इस प्रकार तीस लक्षणों वाला मनुष्यों का धर्म कहा है जिसके करने से भगवान प्रसन्न होते हैं। 

यज्ञ करना, वेद पढ़ना, दान देना और वेद पढ़ाना, यज्ञ कराना, दान लेना, ये छः कर्म ब्राह्मणों के हैं और ब्राह्मणों की सेवा करना वैश्य का धर्म है, और ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य की सेवा द्वारा आजीविका कर खेती करना, बिना मांगे मिला हुआ अन्न लाना, भिक्षा मांगना ब्राह्मण की आजीविका है। 

खेत हाट में स्वामी जो अपने इच्छा से अन्नादि छोड़ दे, उसका ले आना ऋतु है, भिक्षा लाने को मृत कहते हैं, खेती को अमृत कहते हैं। वाणिज्य व्यवहार को सत्वामृत कहते हैं और नीचे वर्ण की सेवा को श्ववृत्ति कहते हैं। शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, शान्ति, आर्जव, ज्ञान, दया, भगवान में तत्पर रहना, सत्य बोलना ये ब्राह्मण के लक्षण हैं। 

देवता, गुरु. और ईश्वर में भक्ति करना, त्रिवर्ग धन विषय सुख की वृद्धि करना, आस्तिक्य बुद्धि रखना, उद्यम करना, और निपुणता ये वैश्य के लक्षण हैं। अपने से उत्तम वर्ण को प्रणाम करना, निष्कपट भाव से स्वामी की सेवा करना, नमस्कार मात्र से पञ्चयज्ञ करना, चोरी न करना, सत्य बोलना, गौ ब्राह्मण की सेवा करना ये शूद्र के लक्षण हैं। पति की सेवा कर पति की आज्ञानुसार रहना, पति के बन्धुओं के अनुकूल रहना, सर्वदा पति के नियम धारण करना, ये धर्म स्त्रियों के हैं। जो स्त्री पति को परमेश्वर समझ सेवा करती है वह पति के साथ बैकुण्ठ लोक में लक्ष्मी की नांई आनन्द भोगती है।

हे राजन्! मनुष्य का जो धर्म सत्वादि गुणों के अनुसार कहा गया है वही धर्म लोकों में सुख देने वाला है। जो खेत जल्दी- जल्दी बोया जावे तो वह तो निर्वीर्य हो जाता है, इससे किसान जहाँ अन्न अच्छी तरह नहीं उपजता वहाँ खाद डाला करते हैं। 

इसी प्रकार मन जब कानामाओं से परिपूर्ण हो जाता है, तब विषयों के कारण उसका चित्त शान्त हो वैरागी हो जाता है। जिस मनुष्य के वर्ण का जो कर्म है, वही लक्षण दूसरे वर्ण में दीख पड़े तो उसकी भी उसी वर्ण से उत्पत्ति समझना उचित है जैसे ब्राह्मण हो शूद्र कर्म करे तो शूद्र से ही हुआ जानना चाहिए। धर्म के कर्म ही निमित्त हैं।

॥ ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और चारों आश्रमों के धर्मों का वर्णन ॥

नारदजी कहने लगे - ब्रह्मचारी गुरु के घर में जितेन्द्रिय होकर निवास करे और गुरु में दृढ़ भक्ति रखे । सायं-प्रात: गुरु, अग्नि, सूर्य और देवताओं की उपासना करे और दोनों संध्याओं को ब्रह्मगायत्री का जप कर मौन रखें। कमंडल, यज्ञोपवीत धारण किये रहे। दोनों समय जो भिक्षा लावे सो गुरु आज्ञा हो तब भोजन करे। गुरु आज्ञा न करे तो उपवास करे। 

ब्रह्मचारी, स्त्रियों की बात को न सुने। बालों को धोना, उबटन, तेल लगाना इनको कभी न करें। स्त्री अग्नि है, और पुरुष घी, अतएव एकान्त में अपनी कन्या के साथ न बैठे, अपने स्वरूप का ज्ञान होने से जब तक इन्द्रियादिक को मिथ्या जानने में जीव समर्थ नहीं होता तब तक द्वैत बुद्धि नहीं मिटती। 

ब्रह्मचारी के धर्मों को गृहस्थ और सन्यासी को भी करना चाहिए, यदि गुरु की सेवा बन सके तो करे। ब्रह्मचारी इस प्रकार गुरुकुल में निवास कर वेद के अर्थ को विचारे । फिर सामर्थ्य हो तो गुरुदक्षिणा दे गुरु से आज्ञा मांग, गृहस्थाश्रम में जावे, या सन्यासी हो अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी हो गुरुकुल में बसता रहे । 

अग्नि, गुरु, आत्मा और प्राणिमात्र में अप्रविष्ट रहे। इस प्रकार रहने वाला ब्रह्मचारी है। अब वानप्रस्थ के धर्म कहते हैं। जोती हुई खेती द्वारा पके अन्न को नहीं खाये, अग्नि में भुने अन्न को खाये और फलादि का आहार करें। 

जिस समय शास्त्र ने यज्ञ करना कहा है, उस समय अन्नादि से चरु, पुरोडास आदि होमों को करे। कन्दरा का आश्रम ले, जाड़ा, वायु, अग्नि, वर्षा, घास सबको शरीर पर सहे। सिर पर बाल, रोम, नख, दाढ़ी, मूँछ, जटा और कमण्डल सब पदार्थ अपने पास रखे, इस प्रकार वन में बारह, आठ, चार, दो अथवा एक वर्ष पर्यन्त आचरण करे। 

जब बुढ़ापे से पीड़ित हो नैमित्तिक क्रिया करने की समर्थ न रहे, तब अनशन व्रत करे। तदन्तर देह को उनके कारणों में लय करे। जैसे सब जल जाने के उपरान्त अग्नि अपने आप बुझ जाती है, इसी प्रकार आप ही शान्त हो जाये, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाये।

॥ सिद्धावस्था का वर्णन ॥

नारदजी ने कहा- वानप्रस्थ के धर्मों को समाप्त करे पीछे यदि शरीर में सामर्थ्य रहे तो सन्यास धारण करे, वहाँ शरीर मात्र को शेष रख कर और वस्तु मात्र का परित्याग कर देवे । एक गांव में केवल एक रात्रि ठहरे, निदान सर्व प्रकार की लालसा से निरपेक्ष होकर पृथ्वी पर विचरता रहे। यदि सन्यासी वस्त्र धारण करे तो केवल एक कोपीन और एक आच्छादन मात्र रखे। जो कुछ सन्यास लेते समय त्याग दिया है, फिर ग्रहण न करे। 

सन्यासी अकेला ही विचरे और अकेला ही भिक्षा मांगे। आत्म अनुभव में प्रसन्न रहे। किसी के आश्रम में न रहे। सब प्राणियों से मित्र भाव बर्ते, स्वभाव शान्त और नारायण में तत्पर रहे। आत्मा में जगत देखे, मृत्यु अवश्य होगी ऐसा जान, मरने की इच्छा न करे। 

यहाँ उदाहरणार्थ इतिहास वर्णन करते हैं। एक समय श्री प्रहलाद मन्त्रियों के साथ लोगों की रीति देखने को देशों में विचरते दक्षिण दिशा में कावेरी पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने पृथ्वी पर सोये धूल धूसरित दत्तात्रेय को देखा। 

तब उनको नमस्कार कर प्रहलाद बोले - आप पृथ्वी पर सोते रहते हो, उद्यम कोई करते नहीं हो, इसी से आपके पास धन नहीं दीख पड़ता है और धन के बिना तुम्हारा शरीर कैसे पुष्ट है ? तब दत्तात्रेय बोले- हे प्रहलाद! मैं आपको जानता हूँ कि आप माननीय हो, प्रवृत्ति व निवृत्ति-मार्ग में प्रवृत्त हुए जनों को कैसे फल मिलता है, इसको आप जानते हो ।

मैं इस संसार में कामनाओं से तृप्त होने वाली तृष्णा से अनेकों योनियों में डाला गया। अपने कर्मों से भ्रमण करता हुआ इस लोक में मनुष्य देह को प्राप्त हो गया हूँ। मनुष्य जन्म पाकर नर-नारी सुख प्राप्त होने और दुःख दूर करने को नाना कर्म करते हैं, परन्तु इच्छानुसार फल नहीं मिलता, इस वैपरीत्य को देख सब त्याग यहाँ बैठ गया हूँ। 

सुख इस आत्मा का रूप है, जो सब क्रियाओं से निवृत्त होने पर आप ही प्रकाशमान होता है, सो मैं सबको मन की कल्पना जान उद्यमों को छोड़कर शयन करता हूँ। जो कुछ प्रारब्ध वश प्राप्त हो जाता है उसी में सन्तोष करता हूँ। मनुष्य आत्मानुभव सुख को त्याग विषयादि सुखों की खोज करता फिरता है। 

संसार में शहद की मक्खी, अजगर ये हमारे परम गुरु हैं, जिनकी शिक्षा से हमको वैराग्य और सन्तोष प्राप्त हुए हैं, जैसे कि मधुमक्खी बहुत कष्ट से शहद इकट्ठा करती है और उसको दूसरा हर ले जाता है ऐसे ही लोभी पुरुष धन इकट्ठा करता है, उसको मार अन्य ही उस धन को हर ले जाता है। 

अजगर से यह शिक्षा मिली कि जैसे अजगर कभी उद्यम नहीं करता, जो मिल जाता है उसी से निर्वाह करता है। कभी रेशमी वस्त्र, कभी मृगचर्म, कभी वल्कल या भोजपत्र, या जैसा मिल जाता है, पहिन लेता हूँ। कभी घास पत्तों को बिछाकर, कभी चट्टान पर, कभी राख में और कभी दूसरे की इच्छा से महल में कोमल शय्या, बिछौना, तकिया सहित शयन करता हूँ। कभी हाथी घोड़े पर विचरता हूँ और कभी कभी दिगम्बर होकर फिरता हूँ। 

मैं किसी जन की निन्दा नहीं करता और न स्तुति करता हूँ। किन्तु विष्णु में प्रीति चाहता हूँ। मन की वृत्तियों में जाति भेद को होम देवे फिर भेदग्राहक वृत्तियों को मन में देख फिर मन को सात्विक अहंकार में होम देवे और अहंकार के महतत्व में हवन करे। 

फिर उस माया को आत्मानुभव में होमे तब वह सत्य रूप को देखने वाला मुनि आत्मस्वरूप के आनन्द में स्थित हो शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे राजन् ! दत्तात्रेय के मुख से इस धर्म को सुनकर प्रसन्न हुए प्रहलादजी मुनि की पूजा कर अपने घर चले गये।

युधिष्ठिर ने कहा- हे देवऋषि ! मुझ सरीखे गृहस्थी जन जिस विधि से बिना परिश्रम सन्यास धर्म को प्राप्त हो सकें सो कहिये। नारदजी बोले- हे राजन् ! गृहस्थी पुरुष यथायोग्य कर्म करता रहे, परन्तु उन कर्मों को भगवान को समर्पण कर दे और श्रद्धापूर्वक विष्णु के अवतारों की कथा सुनता रहे। गृहस्थी पुरुष धर्म, अर्थ काम की अभिलाषा नहीं रखे किन्तु देशकाल के अनुसार जितना मिल जाये उतने ही में सन्तोष रखे। 

अतिथि सेवा करे, स्त्री से अपना प्रेम और ममता जिसने त्याग दिया है, वह भगवान को जीत लेता है। देव इच्छा से जो अन्नादि मिल जाये, उससे पञ्च महायज्ञ करे, उस यज्ञ में शेष पदार्थ का भोजन करे उपरान्त शेष अन्नादि में अपनी ममता नहीं रखे। साधु-सन्तों को समर्पण करे और अपनी आजीविका से जो धन प्राप्त हो उससे देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य, प्राणिमात्र का प्रतिदिन पूजन पोषण करता रहे। 

हे राजन् ! ब्राह्मणों में, देवों में तथा मनुष्यों में परमेश्वर विराजमान हैं ऐसा समझकर भगवान का पूजन करे। द्विज अपनी द्रव्य शक्ति के अनुसार भाद्र मास के शुक्ल पक्ष को पूर्णमासी से आश्विन कृष्ण अमावस्या पर्यन्त यानी कन्यागती में माता-पिता का श्राद्ध करना चाहिए। 

पुंसवान आदि संस्कार व जातकर्म आदि में पुत्र का संस्कार, यज्ञ की दीक्षा आदि अपना संस्कार, प्रेत के दाह आदि कर्म समय, क्षयादिक श्राद्ध तथा अन्य मांगलिक कार्य के समय पुण्यकर्म करना योग्य है। जहाँ भगवान का स्वरूप हो तथा जहाँ ब्राह्मण विद्या दया से युक्त निवास करते हों, हरि का पूजन होता हो, वह देश कल्याणों का स्थान है। गंगाजी, मथुरा, काशी, आदि तीर्थ तथा पुष्कर आदि क्षेत्र, महेन्द्र, मलयागिरि आदि पर्वत, अत्यन्त पवित्र देश हैं। 

यदि नारायण सामर्थ्य दे तो तीर्थों की यात्रा करे, क्योंकि इन देशों में जो पुण्य कर्म किया है उसका हजार गुना फल होता है। हे युधिष्ठिर! आपके यज्ञ में देवता, ऋषियों के तथा ब्रह्मा के पुत्र आदि ये सब बैठे हैं। सम्पूर्ण प्राणियों से भरा यह ब्रह्माण्ड वृक्ष है, उसका मूल रूप का पूजन होने से सबकी आत्मा तृप्त हो जाती है। 

सब प्राणियों में विष्णु तारतम्य से विराजमान हैं। हे राजेन्द्र ! पुरुषों में भी उस ब्राह्मण को सुपात्र समझो, जो तप, विद्या, संतोष करके हरि शरीररूप वेद को धारण करता है।

॥ मोक्ष-लक्षण वर्णन ॥

नारदजी कहने लगे - हे राजन् ! कोई ब्राह्मण कर्मनिष्ठ, कोई तपोनिष्ठ, कोई वेद पढ़ने और पढ़ाने में तथा ज्ञान व योगभ्यास में निष्ठा रखने वाले होते हैं। मोक्ष की इच्छा रखने वाले गृहस्थी को उचित है कि देव पितृ सम्बन्धी कर्मों में ज्ञाननिष्ठ ब्राह्मण को भोजन करावे व दान देवे यदि वह न मिले तो अन्य को भोजनादि कराना उचित है। 

देवकार्य में दो और पितृ कार्य में तीन ब्राह्मणों को जिमाना उचित है, अथवा दोनों में एक जिमाये । योग्य देश व काल प्राप्त हो जाये तब मूँग, चावल आदि अन्न को भगवान के समर्पण कर सत्पात्र ब्राह्मण को जिमावे तो वह अन्न अक्षय फल देने वाला हो जाता है।

विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल ये पाँच अधर्म की शाखा हैं। जिस धर्म से अपने धर्म में बाधा पहुँचे वह विधर्म कहलाता है। जो धर्म अन्य जनों का हो वह परधर्म है। जो आश्रम में विधान न किया हो, अपनी रुचि के अनुसार नवीन चलाया हो उसको आभास कहते हैं, जो पाखण्ड से किया जाय उसको उपमा कहा है। शत्रु के वचनों का उलटा अर्थ माना जाये, इसको छल कहते हैं। 

हे राजन् ! संतोषी, इच्छारहित पुरुष को जो सुख होता है वह काम के लोभ से तृष्णा से कब प्राप्त हो सकता है ? संतोषी तो जलमात्र से ही निर्वाह कर सकता है और असन्तोषी कुत्ते की नांई घर-घर अपमान कराता फिरता है। मनुष्य का लोभ, भोग करके भी शान्त नहीं होता। मनोरथ को त्याग कर, काम को त्यागकर, क्रोध को जीते, धन संचय करने से अनर्थ है ऐसा चिन्तवन कर लोभ जीते और आत्मतत्व के विचार से भय को जीते। 

आत्म और अनात्म वस्तु के विचार से शोक मोह को जीते, महात्माओं का संग करके दम्भ को जीते, मौन वृत्ति को धार असत्य को जीते, और देहादिक से चेष्टा त्याग हिंसा को जीते। प्राणियों से उत्पन्न दुःख को जीते, उन्हीं पर दया कर स्नेह से जीते, प्राणयाम से देह के कष्ट को जीते और सात्विक से नींद को जीते। 

सतोगुण से रजोगुण तमोगुण को जीते, शान्ति से सतोगुण को जीते, और इन सबको गुरु में भक्ति कर अनायास जीते। हे राजेन्द्र ! इन्द्रियों को जीतना ही सफल है। जो मन जीतना चाहे वह एकान्तवास करें और भिक्षा में जो मिल जाये उतना ही सन्तोष करे। 

आसन पर बैठे ओंकार का तप करे। पूरक, कुम्भक, रेचक विधि से प्राण अपान वायु को रोके और नासिका के सामने दृष्टि रखे। इस प्रकार मन शान्ति को प्राप्त हो जाता है। काम आदिक से छूट चित्त जब ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है, तब वह कभी ईश्वर से पृथक नहीं होता। जो पुरुष सन्यासी हो गृहस्थाश्रम को ग्रहण कर ले तो वह निर्लज्ज वमन किये को चाटने वाला कुत्ता कहा जाता है। 

यदि गृहस्थ हो अपनी क्रिया को त्याग करे, ब्रह्मचारी हो व्रत का पालन न करे, वानप्रस्थ हो गांव में रहे, सन्यासी हो इन्द्रियों को चंचल रखे तो यह सब आश्रमों में अधम, और सच्चे आश्रम की विडम्बना करने वाले पाखण्डी जानने चाहिएँ। 

पण्डित लोग इस शरीर को रथ कहते हैं, दसों इन्द्रियाँ घोड़े हैं और चंचल मन घोड़ों की बागडोर है, शब्द आदिक विषय रूप मार्ग है, बुद्धि साथी है, विषय-वासना देश- देशान्तर हैं, सबका बंधन चित्त है, ऐसा यह रथ परमेश्वर का रचा हुआ है। तथा इसमें दसों इन्द्रियाँ त्राणरूपी धूरा है, धर्म अधर्म के दो पहिये हैं। 

अहंकारी इसमें बैठने वाला है, जीव का धनुष ओंकार है। शुद्ध जीव बाण है, परब्रह्म लक्ष्य है। राग, द्वेष, लोभ, शोक, मोह, भय, मद, मान, अपमान, निन्दा, माया, हिंसा, मत्सरता, रजोगुण, प्रमाद, भूख, नींद ये सब आरूढ़ वाले के शत्रु हैं। 

जब तक कि इस देह रथ के इन्द्रिय आदि अंग और रथी जीवात्मा अपने वशीभूत है, तब गुरु के चरणों की कृपा से तीक्ष्ण खंग ले परमेश्वर रूप ही बल है जिसका, ऐसा क्रोधादिक सब शत्रुओं के सिर काटकर अपने आनन्द में तुष्ट हो, रथ को छोड़ देता है। 

यदि परमेश्वर रूप बल न हो तो इस रथ के घोड़े और बुद्धि रूप सारथी प्रमत्त बल जन को मार्ग में ले जाकर रूप चोरों के समीप जाकर डालते हैं, तब वे लुटेरे घोड़ों सहित उस बल रूप सारथी को अन्धकारपूर्ण इस जगत कुएं में पटक देते हैं। 

हे राजन्! प्रवृत्ति निवृत्ति ये दो प्रकार के कर्म वेद में कहे हैं, प्रवृत्ति कर्म से मनुष्य इस जगत में जन्म-मरण पाता है और निवृत्ति कर्म से मुक्त हो जाता है। श्येनयाग आदिक हिंसा प्रधान यज्ञ, पुरोडाश आदि अत्यन्त आसक्ति- दायक काम्य, अग्निहोत्र, दसपौर्ण माश, चातुर्मास्य पशुयाग, सोमयाग, कहलाते हैं, और देवालय, बाग–बगीचा, कुवाँ गौशाला इत्यादि कर्म पूतयज्ञ कहलाते हैं, ये सब कर्म कामना सहित किये जायें तो प्रवृत्ति- मार्ग देने वाले हैं। 

हे राजन् ! जिससे जिस देश काल में जिसके पास से जिसको जो द्रव्य लेना शास्त्र में वर्जित नहीं है, वह द्रव्य, उस पुरुष को लेना चाहिए। उसी द्रव्य से अपना कार्य सिद्ध करे। वेद में कहे हुए आश्रम सम्बन्धी कर्मों को करके भगवान भक्ति रखने वाला गृहस्थ आश्रम में रहने पर भी परमात्मा की गति है। 

नारदजी बोले- मैं व्यतीत हुए पहले कल्प में कोई उपबहर्ण नाम गन्धर्व था, रूप सुकुमारता, मधुरता और सुगन्धि के कारण स्त्रियों को प्यारा, मुझसे बढ़कर लम्पट और दूसरा नहीं था। एक समय देव सभा में प्रजापतियों ने हरि की गाथा गान करने को गन्धर्व और अप्सराओं के समूह बुलवाये। 

मैं भी सुन्दर स्त्रियों को साथ लिए गाता-बजाता हुआ वहाँ पहुँचा। तब प्रजापतियों ने मुझे शाप दिया कि तुमने हमारा अपमान किया है, इस कारण तुम शूद्रभाव को प्राप्त हो जाओ। तब शाप के कारण दासी पुत्र हुआ, वहाँ ब्रह्मजनों की सेवा करने से फिर दूसरे कल्प में, मैं ब्रह्मा का पुत्र हूँ। 

हे राजन्! मनुष्य लोक में तुम बड़े भाग्य वाले हो क्योंकि श्रीकृष्ण मनुष्य रूप धारकर तुम्हारे में निवास करते हैं, ये श्रीकृष्ण आपके परमप्रिय, सुहृदय, भाई, पूजा के योग्य, आत्मा तथा आपकी आज्ञानुसार चलने बाले गुरु भी हैं। 

आओ! ऐसे श्रीकृष्ण का हम सब साक्षात् में पूजन करें। हे परीक्षित! नारदजी की आज्ञानुसार युधिष्ठिर ने प्रेम से श्रीकृष्ण का पूजन किया। तदनन्तर नारदमुनि श्रीकृष्ण भगवान और युधिष्ठिर से आज्ञा ले वहाँ से चल दिये।


॥ श्रीमद् भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्द समाप्त ॥