॥ अजामिल के उपाख्यान में यमदूत और विष्णु दूत ॥

राजा परीक्षित ने कहा- हे मुने ! जिस उपाय से मनुष्य इन पीड़ा वाले नरकों में न जाये, ऐसा उपाय वर्णन करो। श्रीशुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! जो मनुष्य इस लोक में पापों का प्रायश्चित नहीं करता, वो अवश्य ही इन नरकों में पड़ता है। 

एक वैद्य था उसने औषधालय खोलकर यह विज्ञापन लगाया कि हमारे यहाँ प्रत्येक रोग की चिकित्सा होती है। विज्ञापन को पढ़कर एक जिज्ञासु वैद्य के पास आकर कहने लगा कि पाप रोग की औषधि क्या है ? यह सुन वैद्य मौन हो रहा परन्तु एक अवधूत ने उत्तर दिया- सुनो ! पहले तू वैराग्य बीज ले, और सन्तोष रूप पत्ते इकट्ठे कर, उनसे विनय रूप हर्र तैयार कर, उसमें धर्म का बहेड़ा और आदर का आंवला मिला, श्रद्धा रूप इमामदस्ते में कूट, विचार की हांड़ी में भर, उसमें प्रेमजल डाल, उत्सव की आंच दे, जब उफान आवे तब छानकर ईर्षा, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, रूप मल निकाल कर फेंक दे। 

फिर उसे अज्ञान रूप प्याले में भरकर भगवद्‌ गुणानुवाद रूप शहद मिलाले, फिर पाप रूप रोग के कंठ में पी जा। ऐसा करने से तेरा पाष रोग दूर हो जायेगा।

राजा परीक्षित ने प्रश्न किया- हे ब्रह्मन् ! जब मनुष्य देखता है कि पाप किया और इस को राजदण्ड मिला इसको देखकर भी उसी कर्म को करता है। तब पाप का प्रायश्चित किस प्रकार हो सकता है ? राजा परीक्षित की शंका सुन श्रीशुकदेवजी बोले- प्रायश्चित कर्म करने से पाप निवृत्त होता है, परन्तु यह पाप से मूल निवृत्त नहीं होता क्योंकि उसका अधिकारी विद्वान नहीं है, इससे विचार करना ही प्रायश्चित है। 

तप, ब्रह्मचर्य, शम, दम, दान, सत्य, शौच, यम नियम से धीर और धर्म ज्ञाता जन किये हुए पापों को भी इस इस प्रकार नष्ट कर देते हैं जैसे दावानल वृक्षों को भस्म कर देता है। नारायण से विमुख रहकर जो चाहे कि मैं प्रायश्चित कर पवित्र हो जाऊँगा तो उसको प्रायश्चित पवित्र नहीं कर सकते। 

जिन मनुष्यों ने एक बार भी भगवान चरणों में मन लगाया है, वे स्वप्न में भी यमदूतों को नहीं देखते । इस पुरातन इतिहास में विष्णु दूत और यमदूतों का सम्वाद है सो तुम श्रवण करो।

कान्यकुब्ज देश में अजामिल नामक ब्राह्मण था। परन्तु वैश्या की संगति से दूषित होने से उसके सदाचार नष्ट हो गये। उसके दस पुत्र थे। उनमें सबसे छोटे का नाम नारायण था। वह माता पिता को बहुत प्यारा था। वृद्ध अजामिल उस बालक पर आसक्त हो उसका खेल देख अति आनन्दित होता था। 

जब आपने भोजन करता तब स्नेह से कहता- अरे नारायण ! आ खाले. पानी पीता तो कहता - अरे नारायण! आ पानी पी ले, सोता तो कहता-नारायण ! आ सो जा। इस प्रकार छोटे पुत्र में मन लगे रहने से काल आगमन को वह न जान सका। 

उसे लेने को आये हुए यम दूतों को देख व्याकुल हो नारायण पुत्र को उसने दबी वाणी से पुकारा-अरे बेटा नारायण! यहां आना। अजामिल के मुख से अपने स्वामी नारायण के नाम को श्रवण करते ही भगवान् के पार्षद तुरन्त उसके समीप आ पहुँचे और दासी पति अजामिल की आत्मा यम दूतों से निवारण करके बोले - तुम लोग इसे मत छूना । 

तब विष्णु दूतों से धर्मराज के दूत बोले- कि तुम कौन हो, जो हमको इस दुराचारी, पापी को यमपुरी ले जाने से रोक सकते हो ! विष्णुदूत बोले- यदि तुम धर्मराज के आज्ञाकारी हो तो धर्म का लक्षण कहो ? पशु तो कर्म करते ही नहीं, करने वाले मनुष्यों में से किस- किस को दण्ड मिलता है और जितने कर्म करने वाले हैं वे सभी दण्ड पाने लायक हैं या अन्य कोई भी दण्ड पाने लायक हैं, वो कहो । 

यह सुन यमदूत बोले - हे देवगणो! कर्म करने वालों से शुभ व अशुभ कर्म बनते ही रहते हैं, इसलिए वह कर्म के किये बिना नहीं रहता । 'नाहिकश्चत् क्षणमपि जातु तिष्ठेत्यकर्म कृत'। जिसने लोक में जितना धर्म व अधर्म किया हो वह परलोक में उतना ही फल भोगता है। 

यह जन्म वर्तमान, भूत, भविष्य दोनों जन्म का बोधक होता है। जैसे निद्रा से युक्त हुआ पुरुष स्वप्न देह को ही जानता है, परन्तु जागृत शरीर को स्वप्न के मध्य नहीं जानता, वैसे ही जन्म होने से नष्टस्मृति जीव, अपने पूर्वोत्तर जन्म को नहीं जानता। 

वह जीव जिसने काम, क्रोध, मोह, मद, ईर्षा नहीं छोड़े, वो यद्यपि इच्छा नहीं करता है। जैसे रेशम का कीड़ा अपने पूरे हुए रेशम में लिपट कर मर जाता है, वैसे ही यह जीव अपने किए कर्मों से ग्रसकर मोह को प्राप्त होता है। 

यह अजामिल वेदपाठी ब्राह्मण था और शील स्वभाव वाले गुणों से युक्त था, अहंकार रहित हो गुरु, अग्नि, अभ्यागत तथा वृद्धों का सेवक, साधु, सत्य बोलने वाला और किसी की निन्दा नहीं करने वाला था। एक समय वह पिता की आज्ञा से वन में गया, वहाँ से फल, फूल, समिधा, कुशा लेकर लौटा। 

मार्ग में एक कामी पुरुष को दासी के साथ रमण करते देखा, मद से उन्मत वह वेश्या बेसुध थी। उसकी कमर का वस्त्र ढीला था, उसके साथ वह कामी क्रीड़ा करता हुआ गाता नाचता चलता था। 

उसकी भुजाओं से लिपटी स्त्री को देख मोहित हो अजामिल काम के वश हो गया। ब्राह्मण में जितना धीरज और ज्ञान था, उसके बल से काफी देर तक उसने अपने चित्त को रोका परन्तु कामदेव से कम्पायमान मन को न रोक सका। 

वैश्या निमित्त काम के कारण इसका अनिष्ट प्रारब्ध उदय हुआ, सो उस काम से ग्रसित हो बेसुध हो गया। न्याय अन्याय से वह विविध पदार्थों को ला-लाकर वैश्या को प्रसन्न करने लगा और मूढ़-बुद्धि हो उस कुटुम्बिनी वैश्या के कुटुम्ब को पालने लगा। 

इस कारण हम इसको यमराज के समीप ले जायेंगे, क्योंकि इसने अपने पापों का कोई प्रायश्चित नहीं किया, अब दण्ड पाने से शुद्ध हो जायेगा।

॥ दूतों का अजामिल को विष्णु लोक में ले जाना ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं - राजन् ! इस प्रकार वे विष्णु के पार्षद यमदूतों के वचन सुनकर विस्मय को प्राप्त हो उससे बोले कि बड़े दुःख की बात है कि यमराज आदिकों की सभा में भी अधर्म का स्पर्श होता है। 

जहाँ पापरहित पुरुषों को वृथा दण्ड दिया जाता है। हे यमदूतों ! यह अजामिल करोड़ों जन्मों के पापों का प्रायश्चित कर चुका, जो कि हमने भगवान् का नाम उच्चारण किया है। अजामिल पापों का प्रायश्चित कर चुका है, इस कारण तुम इसको पाप करने वाले के लोक में न ले जाओ। 

यदि कहो कि इसने पुत्र का नाम लिया है, तुम्हारे स्वामी का नहीं जो कि पुत्रादिकों के संकेत से या उपहास्य से, गीत पूर्ति में निन्दा से विष्णु का नाम लिया जाय तो भी पाप दूर होते हैं। 

जैसे अति प्रबल औषधि बिना गुण जाने खाई जावे तो भी वह अपना गुण करती है। ऐसे ज्ञान अथवा अज्ञान से लिया हुआ हरिनाम पापों को दूर करता है। 

हे यमदूतों! इस विषय में यदि तुमको संशय हो तो अपने स्वामी से पूछो ! हे राजन् ! विष्णु दूतों ने भगवद्धर्मों का निर्णय कर उस अजामिल को धर्मराज के दूतों से छुड़ा दिया। 

वे प्रत्युत्तर पाने पर यमपुरी लौटे और यमराज के समीप आकर जो बात हुई थी, सब कह सुनाई। इस प्रकार अजामिल ने यम की फाँसी से छूट सावधान होकर उन विष्णु पार्षदों को प्रणाम किया।

विष्णु दूतों ने अजामिल का भाव जान लिया, इस कारण उसके सम्मुख से उसी समय अन्तर्ध्यान हो गये। वह धर्मराज के दूतों के मुख से तीनों वेदों का सगुण धर्म सुनकर शीघ्र ही भगवान् में भक्तिमान हुआ । 

हरि भगवान् के महात्म्य को सुनने से अपने पापों का स्मरण कर वह अजामिल पछताने लगा। अहो! मन वश में नहीं रखने से मुझे कष्ट हुआ, मैंने शूद्रों के गर्भ में पुत्र रूप में आत्मा को उत्पन्न करके अपने ब्राह्मणत्व को डुबो दिया। 

माता-पिता को त्यागकर नीच के समान काम किया। हाय ! उस समय मेरे ऊपर बज्र नहीं गिरा। कुछ काल पहले यह क्या मैं स्वप्न देख रहा था, नहीं स्वप्न नहीं हो सकता, यह सब तो मैंने नेत्रों से देखा था, कई पुरुष फाँसी के लिये घसीट ले जाते थे, इस समय वह कहाँ चले गये ? और अब वे चार सिद्ध पुरुष कहाँ चले गये! जिनके दर्शनों से हमारे नेत्र तृप्त हो गये, जिन्होंने मुझे फाँसी से छुड़ा दिया। 

मुझ अभागे को उनका दर्शन होने से अनुमान होता है, कि पूर्वजन्म का मेरा पुण्य था और आगे भी कुछ मंगल होने वाला है। कहाँ मैं पापी, कृतघ्न, निर्लज्ज और कहाँ भगवान का नाम 'नारायण'। अब मैं चित, इन्द्रिय, प्राण को वशकर ऐसा यत्न करूँगा जिससे फिर आत्मा को अन्धकार नरक में न डुबाऊँ। 

अब मैं अहंकार ममता त्यागकर भगवान के कीर्तन से शुद्ध हुए मन को भगवान में लगाऊँगा। हे राजन् ! साधुजनों को क्षणमात्र संगति होने से ही जब उसके मन में वैराग्य हो गया तब वह स्त्री पुत्र आदिकों में बंधे हुए स्नेह को काट कर गंगा द्वार चला गया। 

एक मन्दिर में बैठकर योग समाधि लगा इन्द्रियों को वश में कर अपने मन को आत्मा में लगाया। तब उन्हीं चारों पार्षदों को अपने आगे खड़ा देख सिर झुका प्रणाम किया। 

उनका दर्शन कर शरीर को गंगा तट पर त्याग पार्षद स्वरूप को प्राप्त हो गया। जब पापी अजामिल हरिनाम लेकर बैकुण्ठ को प्राप्त हुआ तो फिर जो भक्ति से भगवान का नाम उच्चारण करते हैं, उनका उद्धार हो जाय तो फिर कहना क्या है।

॥ यमराज द्वारा हरिनाम की महिमा का वर्णन ॥

राजा परीक्षित कहने लगे - हे भगवन्! जब भगवान के पार्षदों ने यमदूतों को भगा दिया, तब उन्होंने अपने स्वामी से क्या कहा ? अपनी आज्ञा भंग होना सुनकर यमराजजी ने उनको क्या उत्तर दिया ? यमराज के दंड का भंग हो जाना, आज तक हमने नहीं सुना। 

इस बात से लोगों को बड़ा सन्देह हो गया, इस कारण आप समझाकर कहिये। श्री शुकदेव जी बोले- हे राजन् ! जब भगवान के पार्षदों ने धर्मराज के दूतों का उद्यम नष्ट कर दिया। तब वे स्वामी से जा कहने लगे - हे स्वामिन् ! अब हमें आपकी नौकरी नहीं करनी है। 

सब कर्म करने वालों का एक दंड देने वाला हो तो ठीक व्यवस्था रहती है। इस समस्त विश्ववर्ती जीवों के अधीश्वर आप ही हो और उनके पुण्य पाप के विवेचन कर दंड देने वाले आप ही हो। 

परन्तु हमें मालूम हो गया है कि इस समय आपका दिया हुआ दंड नहीं चलता, क्योंकि चार सिद्धों ने आज आपकी आज्ञा को भंग कर डाला। आपकी आज्ञा से हम उस अजामिल को लाते थे तो वहाँ उन सिद्धों ने उस पापी को छुड़ा दिया, ये चार सिद्ध कौन थे सो कहिये । 

यमराज बोले - वे चारों विष्णु के दूत हैं जो भक्तजनों की सर्व भाँति रक्षा करते हैं। हे पुत्रों! हरि के नामोच्चारण की महिमा देखो कि अजामिल भी मृत्युपाश से छूट गया। भगवान के गुण, कर्म और नामों का संकीर्तन करना; बस इतना ही प्रायश्चित पाप दूर करने में बहुत है। 

हरि नाम लेने वाले मेरे दंड देने योग्य नहीं है। समान दृष्टि से भगवान की शरण में प्राप्त होते हैं, पवित्र कथाओं से गाये जाते हैं, सो तुम आज के बाद ऐसे पुरुष के समीप कभी भी मत जाना। 

तब यमदूत बोले- हे महाराज ! अब ये कहो कि किस- किस को आपके पास लावें? तब यमराज बोले- जो मनुष्य श्री भगवान के चरणारविन्द से विमुख हैं उनको, और जो घर में तृष्णा बांधकर बैठे हुए हैं उन लोगों को यहाँ लाओ। 

इस प्रकार दूतों को समक्षाकर श्री भगवान की प्रार्थना करते हैं। हे भगवान! आप हमारे दूतों से तिरस्कार किये गये हैं। इसलिए हम सबको क्षमा करें, आप भक्तों के अपराध को क्षमा कर देते हैं। स्वामी से कही हुई भगवान की महिमा को सुनकर दूत उनका स्मरण करने लगे, इसके अनन्तर वे दूत भगवान भक्तों के सम्मुख कभी नहीं गए। 

॥ दक्ष की सृष्टि और नारद को शाप ॥

परीक्षित कहने लगे - हे मुनीश्वर! आपने जो स्वायम्भुव मन्वन्तर में देवता असुर, मनुष्य, नाग, मृग और पक्षी इनका तृतीय स्कन्द में संक्षेप से वर्णन किया है अब उसको विस्तार से सुनना चाहता हूँ। 

श्रीशुकदेवजी बोले - हे राजन् ! जब राजा प्राचीनबर्हि के प्रचेता नाम दस पुत्र तप करके समुद्र से निकले तब उन्होंने सब भूमि, वृक्षों से व्याप्त देखी। तब प्रचेताओं ने तप के प्रभाव से वृक्षों को भस्म करने की इच्छा से मुख में से वायु और अग्नि को उत्पन्न किया। 

उससे वृक्ष भस्म होने लगे, तब वृक्षादिकों के राजा चन्द्र प्रचेताओं का क्रोध शान्त करने को बोले- हे महाभागो ! आप हम वृक्षों को क्यों भस्म करने की इच्छा करते हो ? जिस मार्ग पर तुम्हारे पिता, पितामह और प्रपितामह चले हैं, उसी पर चलो। 

अब इन शेष वक्षों को भस्म मत करो। इनकी कन्या को तुम अपनी पत्नी बनाओ। हे राजन् ! इस प्रकार उन प्रचेताओं को शान्त कर सोम वहाँ से चला गया। तब प्रचेताओं ने धर्मपूर्वक उस कन्या से विवाह किया। 

उसके गर्भ से दक्ष हुआ, जिसकी प्रजा से तीनों लोक परिपूर्ण हो गये। दक्ष ने प्रथम तो मन ही से जल, स्थल और आकाश की उत्पत्ति की तथा देवता, दैत्य और मनुष्य उत्पन्न किये। परन्तु इस सृष्टि को बुद्धि को प्राप्त होते न देख दक्ष ने विन्धाचल पर जाकर जप किया। 

हे राजन् ! दक्ष की भक्ति के फलस्वरूप दर्शन देने को भगवान 'त्रैलोक्य मोहन' रूप धारण कर प्रकट हुए। इस प्रकार का रूप देख दक्ष ने भगवान को दण्डवत् किया, परन्तु गद्गद् होने के कारण बोलने की सामर्थ नहीं रहा। 

भगवान बोले- हे दक्ष तुम तप के प्रभाव से सिद्ध हो, मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। हे दक्ष! पञ्चजन की कन्या असिक्नी को अपनी स्त्री बनाओ। फिर तुम मैथुन योग से प्रजा को बढ़ाओ, तुमसे होने वाली प्रजा मेरी माया करके मैथुन धर्म से ही प्रजा को उत्पन्न करेगी। 

हे राजन् ! भगवान इस प्रकार कहकर अन्तर्ध्यान हो गये। उस असिक्नी भार्या से दक्ष ने हर्यश्व नाम दस हजार पुत्र उत्पन्न किये। उन पुत्रों को दक्ष ने सृष्टि उत्पन्न करने की आज्ञा दी तो पिता की आज्ञा से तपस्या करने को उद्यंत हुए हर्यश्चों को नारदजी ने देखा। 

उनसे नारदजी कहने लगे है हर्यश्वों! तुम प्रजा कैसे रचोगे, तुमने अब तक पृथ्वी का अन्त भी नहीं देखा है। भला इसको जाने बिना कैसे सृष्टि रच सकोगे ? उन हर्यश्वगणों ने नारदजी के कहे वचनों का ध्यान कहते हुए परस्पर विचार किया। 

नारदजी ने जो वचन कहे, इनसे यही जान पड़ता है कि भूमि क्षेत्र का नाम है और क्षेत्र शरीर है। जो एक ही पुरुष का देश कहा, वह भगवान है। उनके अर्थ समर्पण किये बिना असत् कर्मों से क्या होता है और जो 'बिल' कहा जिसका निकलने का मार्ग नहीं, वही 'मोक्ष' है और अनेक रूपों को बदलने वाली स्त्री अनेक प्रकार के रूप और गुण वाली अपनी बुद्धि ही है। 

उसके विवेक को पाये बिना अशान्त कर्म से क्या होता है। उस बुद्धि के संग ऐश्वर्यभ्रष्ट ही जीव जन्म लेता है, इसी से व्यभिचारिणी स्त्री का पति है, दोनों तरफ बहने वाली 'नदी' कही वह 'माया' जानो, जो पच्चीस का बनाया घर कहा सो पच्चीस तत्वों का बना शरीर ही घर है इसमें अन्तर्यामी पुरुष है, जो ईश्वर को प्रतिपादन करने वाला शास्त्र है वह हंस है। 

काल को चक्र जानो जिसका वेग तीक्ष्ण, और शास्त्र ही हमारा पिता है, क्योंकि वह द्वितीय जन्म का कारण है। निवर्तक होना जानता है कि वह गुणयुक्त प्रवृत्तिमार्ग में विश्वासवान् हो सृष्टि इत्यादि कार्यों में किस प्रकार लग सकता है। 

हे राजन् ! इस प्रकार विचार कर वह नारदजी से बोले - हे महाराज! आपका कहा समझ लिया, अब हम जाते हैं, आपको हमारा प्रणाम है। इस प्रकार वे हर्यश्व नारद को प्रणाम कर मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्त हो सके और ऐसे-मार्ग को गये जहाँ से लौटकर नहीं आये। 

कुछ काल व्यतीत होने पर दक्ष ने नारद से सुना कि सब पुत्र अदृश्य हो गये हैं। यह जान दक्ष दुःखित हो पुत्रों के निमित्त शोक करने लगे। ब्रह्माजी दक्ष के समीप आये और विविध वचनों से समझा कर गए। तब दक्ष ने फिर प्रजा रचने की इच्छा से अपनी पाँचजनी स्त्री से शबलाश्व नाम एक हजार पुत्र उत्पन्न किये। वे सब पिता की आज्ञा मान प्रजा रचने को नियम धारण कर जहाँ अपने बड़े भाई सिद्ध हुए थे, उसी तीर्थ के समीप जाकर प्राप्त हुए। 

वहाँ वे ओंकार मंत्र का जप करने लगे। "ॐ नमो नारायण पुरुषाय महात्मने, विशुद्ध-सत्वधिष्णयाय महाहंसाय धीमहि" इस प्रकार तप करते शबलाश्वों के समीप आ नारद ने पहले की नांई उन्हीं कूट वचनों को कह उनसे इतना कहा कि हे दक्ष पुत्रों! तुम अपने भाइयों पर प्रीति रखने वाले हो तो भाइयों के मार्ग का अनुसरण करो।

नारदजी केवल इतना ही कह चले गये। उनके आदेशानुसार शबलाश्व भी विनाश को प्राप्त हुए। तब पुत्रों के शोक से विह्वल दक्ष क्रोधित हो नारदजी से बोला-ओ असाधु ! हमारे पुत्र धर्म में प्रवृत थे, तूने उनको भिक्षुकों के मार्ग का उपदेश दिया। वे तो अभी देवऋण पितृऋण, ऋषिऋण, किसी से भी नहीं छूटे और उन्होंने कर्म सम्बन्धी विचार भी नहीं किया था। 

हे पापी! तूने हमारे पुत्रों के दोनों लोक बिगाड़ दिये। विष्णु भक्तों में दुष्ट तू ही है। तेरा यह विचार कि वैराग्य से उपशम और उपशम से स्नेह की फाँसी टूट जाती है, ये मिथ्या है। क्योंकि ज्ञान बिना तेरे द्वारा मति चलायमान करने से पुरुषों को वैराग्य नहीं हो सकता। 

जब तक गृहस्थाश्रम के दुःखों को नहीं भोग लेता है तब तक मनुष्य दुःख के हेतु को नहीं जानता। तुम्हारे इस अपराध को एक बार तो हमने सह लिया है, परन्तु तूने दूसरी बार पुत्रों को पथभ्रष्ट कर अमंगल किया इसलिए तेरा जन्म भटकते ही बीतेगा। नारद मुनि ने दक्ष के शाप को मौन हो अंगीकार कर लिया।

॥ दक्ष की कन्याओं का वंश वर्णन ॥

श्रीशुकदेवजी कहने लगे- फिर दक्ष ने ब्रह्माजी की आज्ञा से असिक्नी नामा स्त्री से साठ कन्यायें उत्पन्न कीं. दस धर्म को, तेरह कश्यप को, सत्ताईस चन्द्रमा को और भूत नाम के ऋषि अंगिरा व कृशाश्व को दो-दो कन्यायें दीं, शेष छः कन्यायें तक्ष्य ऋषि की दान कर दीं। भानु, लम्बा, कुकुभ, जामी, विश्वा, साध्य, मारुत्वती, वसु, मुहूर्ता, संकल्पा ये धर्म की स्त्री हुई। 

भानु के देवऋषभ से इंद्रसेन पुत्र हुआ। लम्बा के विद्योत और विद्योत के सत्ययित्नु हुआ। कुकुभ के संकट, संकट के कीकट के दुर्ग हुए और जामि का स्वर्ग फिर स्वर्ग का नन्दी हुआ। विश्वा के विश्वेदेवता पुत्र हुए, इनके संतान नहीं हुई, इससे ये प्रजा रहित रहे। 

साध्य के साध्य नाम देव उत्पन्न हुए। मेरुत्वति के मरुत्वान्, जयन्त को दो पुत्र हुए। मुहूर्ता से मौहुर्तिक देवगण हुए। संकल्प के कामना हुआ, वसु के पुत्र द्रोण, प्राण, ध्रुव, कर्क, अग्नि, दोष, वसु, विभावसु ये आठ वसु हैं। 

द्रोण के ऊर्जस्वती से सहआयु, पुरोजन ये पुत्र हुए, ध्रुव की धरणी स्त्री से अभिमानी देवता हुए। अर्क की वासना पत्नी से तर्ष, भय आदि अनेक पुत्र हुए। और अग्नि की वसोर्धारानामा स्त्री से द्रविणक हुआ। स्कन्ध के विशाखा आदि हुए, दोष के आन्गरिसी नाम का स्त्री विश्वकर्मा हुआ। 

विश्वकर्मा के चाक्षुष मनु हुआ, मनु के विश्वेदेव और साध्यगण हुए। विभावसु के उषा नाम स्त्री से व्युष्ट, रोचिष, आतप हुए। आतप के पंचयाम नाम पुत्र हुए। भूत के सरूपा से करोड़ों रुद्र हुए। रैवत, अज, भव, भीम, वाम, उग्र, वृषाकपी, अजैकपाद, अहिर्वधन्य, बहुरूप, महान् ये ग्यारह रुद्र प्रधान हैं, जो दूसरी स्त्री से प्रकट हुए। 

प्रजापति अंगिरा की स्वधा स्त्री ने पितृगणों को और सती स्त्री अधर्वाविरस वेदजी को पुत्र मान लिया। कृशाश्व के अर्चिस से धूम्रकेश और नामवेद शिरा, देवल, वयुन, मनु, प्रकट हुए। आर्क्ष्य ने भी बिनता, कद्रू, पतंगी, यामिनी नामक स्त्रियों से गरुड़, नाना, पक्षी और शालध उत्पन्न किये। 

चन्द्रमा की कृतिका आदि सत्ताईस स्त्रियाँ थीं, परन्तु चन्द्रमा रोहिणी से प्रेम रखता था, इस कारण अन्य कन्याओं को दुःखी देख दक्ष ने चन्द्रमा को शाप दिया कि तुझे क्षय रोग हो जावे। शाप के कारण उन पत्नियों से कोई पुत्र नहीं हुआ। बाद में चन्द्रमा की प्रार्थना से प्रसन्न हो दक्ष ने कहा कि कृष्ण पक्ष में उसकी कला पूर्ण हो जाया करेगी। कला तो मिल गई परन्तु सन्तान नहीं हुई। 

हे राजन् ! कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्ठा, सुरमा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरमा और तिमि ये स्त्रियाँ हुईं। इनमें तिमि से जल-जन्तु, सरमा में चर हुए। ताम्रा से विहंगम गण मुनि से अप्सरायें, क्रोधवंशा से दंदशूक सर्प आदि, इला से वृक्ष, सुरमा से राक्षस, अरिष्ठा से गन्धर्व, काष्ठा से एक खुर वाले पशु हुए। दनु से इकसठ पुत्र हुए। उनमें स्वभानु की सुप्रभ कन्या का नमुचि दैत्य ने पाणिग्रहण किया और और बृषपर्वा की शर्मिष्ठा के साथ ययाति ने विवाह किया। 

वैश्वानर नाम दनु पुत्र की चार कन्यायें हुई। उनमें उपदानवों के साथ हिरण्याक्ष ने, हयशिरा के साथ क्रतु ने और पुलोमा व कालिमा के साथ कदूयप ने विवाह किया। उनके पौलोम कालकेय नाम साठ हजार दानव उत्पन्न हुए। हे राजन् ! तुम्हारे पितामह अर्जुन जब स्वर्ग आये तब उन दानवों को अर्जुन ने इन्द्र को खुश करने को अकेले ही मार डाला। 

दिति के हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु हुए और सिंहकी नाम कन्या हुई। विप्रचित्त के सिंहकी से पुत्र हुए। उनमें राहु सबसे बड़ा था। अदिति के बारह आदित्य हुए। उनमें विवस्वान् के संज्ञा स्त्री से श्रद्धादेव, मनु, यम और यमुना का जन्म हुआ। 

वही संज्ञा घोड़ी बनी, तब अश्विनी कुमार हुए। विवस्वान् के छाया से शनैश्चर और सावर्णि मनु दो पुत्र और तपसी नाम कन्या हुई। कन्या ने सम्बरण राजा को पति किया। अर्यमा के मात्रका स्त्री से चर्षणी पुत्र हुए, पूषा के संतान नहीं हुई, क्योंकि यह दक्ष द्वारा क्रोध करते महादेवजी को दांत दिखा कर हंसा था, तब इसके दांत तोड़े गये थे। 

त्वष्टा के साथ दैत्यों की छोटी बहिन रचना विवाही गई। इससे सन्निवेश और विश्वरूप की उत्पत्ति हुई यद्यपि विश्वरूप शत्रु कन्या का पुत्र था तथापि जब बृहस्पति जी ने देवताओं को त्याग दिया तब देवताओं ने विश्वरूप को पुरोहित बनाया।

॥ विश्वरुप का पौरोहित्य में वरण करना ॥

परीक्षित ने कहा - वृहस्पति ने देवताओं का परित्याग क्यों किया ? देवताओं ने ऐसा क्या अपराध किया ? शुकदेवजी बोले- हे राजन् ! एक समय इन्द्र मदोन्मत्त हो गुरु को सभा में आया देख आसन से नहीं उठा। तब बृहस्पति तो चले आये लेकिन इन्द्र गुरु का अपमान हुआ जान अपने को धिक्कारने लगा। 

इन्द्र के बहुत खोजने पर भी बृहस्पति का पता नहीं लगा। तब इन्द्र को दुःख हुआ। उधर असुर गुरु शुक्राचार्य की सम्मति से देवताओं से संग्राम करने आये और युद्ध होने लगा। दैत्यों के चलाये वाणों से देवताओं के अंग छिन्न-भिन्न हो गए। 

तब देवता नीची ग्रीवाकर इन्द्र को साथ लेकर ब्रह्मा की शरण गये। देवताओं को देखकर दयायुक्त हो धैर्य देकर ब्रह्माजी कहने लगे- हे देवताओं! तुमने बहुत बुरा किया, जो ऐश्वर्य मद से गुरु का सत्कार नहीं किया। 

यह उसी का फल है। हे इन्द्र! तुम शीघ्र त्वष्टा पुत्र विश्वरूप की सेवा करो। यदि तुम उसका सत्कार करोगे तो वह तुम्हारे मनोरथों को पूर्ण करेगा। ब्रह्मा के आदेशानुसार देवता शान्त चित्त हो विश्वरूप के समीप गये और सत्कार पूर्वक बोले- हे तात! हम आपके आश्रम में अभ्यागत बन आये हैं, तप के प्रभाव से हमारे दुःख दूर करने को आप समर्थ हो, आप ब्रह्मनिष्ठ हो, इस कारण हम आपको गुरु बनाने की इच्छा करते हैं। 

विश्वरूप उनसे बोले - हे देवगण ! यद्यपि धर्मशील इस पुरोहित की निन्दा करते हैं, क्योंकि यह कर्म तेज क्षय करने वाला है तथापि आपकी प्रार्थना से यह कर्म हमको अंगीकार है। विश्वरूप देवताओं को वचन देकर पुरोहिताई करने लगे। दैत्यों की लक्ष्मी यद्यपि शुक्राचार्य जी की विद्या से रक्षित थी, तथापि उसको विश्वरूप ने विष्णुजी की नारायण कवच रूप विद्या के प्रभाव से दैत्यों से छीन इन्द्र द्वारा विजय प्राप्त की। इन्द्र दैत्यों की सेना को जीत विजय को प्राप्त हुआ।

॥ नारायण कवच ॥

परीक्षित कहने लगे - हे ब्रह्मन् ! नारायण कवच किस प्रकार का है, उसकी विद्या क्या है ? शुकदेवजी बोले- विश्वरूप का पुरोहिताई में वरण कर इन्द्र ने कहा- हे महेन्द्र ! हाथ, पाँव, प्रक्षालन कर आचमन कर पवित्री पहन, उत्तर की ओर मुख कर बैठ आठ अक्षर वाला 'ॐ नमोनारायण', और बारह अक्षर वाला, 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इन मन्त्रों से अंगन्यास और करन्यास कर पवित्र हो वाणी को जीते। जो ऐश्वर्य आदि शक्तियों से युक्त है तथा विद्या, तेज, तप की मूर्ति है उस आत्मा का मैं ध्यान करता हूँ। 

इस प्रकार ध्यान कर नारायण कवच रूप मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। कवच का अर्थ है-ओंकार स्वरूप गरुड़ की पीठ पर चरण धरे और आठ भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, ढाल, खंग, वाण, धनुष और पाश धारण किये श्रीहरि हमारी रक्षा करें। मत्स्यरूप भगवान जल जीवों से और वरुण पाश से मेरी रक्षा करें। 

वामन भगवान स्थल में मेरी रक्षा करें, विश्वरूप भगवान आकाश में रक्षा करें। श्रीनृसिंह दुर्ग, वन, संग्राम आदि स्थलों में मेरी रक्षा करें, वाराहजी मार्ग में मेरी रक्षा करें और पर्वतों के शिखरों पर परशुराम जी तथा पद्मदेश में लक्ष्मण सहित रामचन्द्रजी हमारी रक्षा करें। 

नारायण अभिचारी आदि दारुण कर्म और सम्पूर्ण प्रमादों से तथा गर्व से हमारी रक्षा करें। सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव मार्ग में देवताओं को नमस्कार न करने रूप अपराध से हमारी रक्षा करें। धन्वन्तरि कुपथ्य से, ऋषभदेव सुख दुःखादि झगड़ों से हमारी रक्षा करें। 

यक्ष लोकापवाद से, बलभद्र उपघात से रक्षा करें तथा शेष सर्पों के समूह से हमारी रक्षा करें। वेदव्यास अज्ञान से, बौद्ध पाखंडों से, कल्किजी कलियुग के मल से रक्षा करें। केशव गदा से प्रातःकाल रक्षा करें, नारायण दोपहर से पहले, चक्रधारी मध्याह्न समय, मधुसूदन दोपहर पीछे, माधव सायंकल में, श्रीवत्स चिन्ह वाले अद्ध रात्रि पीछे, खंग धारण वाले जनार्दन चार घड़ी के पीछे, दामोदर प्रभात समय और विश्वेश्वर संध्या हमारी रक्षा करें। 

हे भगवत्चक्र ! तू तीक्ष्ण धार वाला चारों ओर घूमता हुआ भगवान की प्रेरणा से शीघ्र ही शत्रुओं की सेना को दग्ध कर दे। हरि के नाम, रूप, वाहन और शस्त्र सभी विपत्तियों से हमारी रक्षा करें। 

भगवान के पार्षद हमारी बुद्धि, इंद्रियाँ और मन और प्राण की रक्षा करें। हे इन्द्र ! इस नारायण कवच हमने तुमसे वर्णन किया है। इनको पहन तुम बड़े-बड़े दैत्यों को अनायास जीत लोगे। तब इन्द्र ने विश्वरूप से वह सब विद्या सीखकर दैत्यों को हराया।

॥ वृत्रासुर की उत्पत्ति ॥

श्रीशुकदेवजी कहने लगे - हे भारत ! विश्वरूप के तीन सिर थे, एक सोमपान करने का, दूसरा मदिरा पीने का, तीसरा अन्न खाने का। विश्वरूप जब यज्ञ करता तब पितृकुल सम्बन्ध को बड़ा समझ, यक्ष देवताओं को साकल्य का भाग देता और माता दैत्य कन्या थी, इसलिए स्नेह से यज्ञ करते समय असुरों को छिपाकर यज्ञ भाग करता था। यह अनुचित आचरण एक दिन इन्द्र ने देख लिया तब क्रोधित हो खंग से विश्वरूप को मार दिया। मारने से ब्रह्महत्या हुई। 

उसको एक वर्ष धारण कर इन्द्र ने चार भाग कर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियों को बांट दिया। विश्वरूप के मारे जाने के कारण, हे इन्द्र "शत्रु को शीघ्र मारो" इस अर्थ वाले मन्त्र का हवन किया। तब दक्षिणाग्नि में से भयंकर रूप वाला एक पुरुष निकला, पुरुष प्रतिदिन चारों ओर से बढ़ता था। उसके मुख में भयानक दाढ़ों को देख लोग भयभीत होकर भाग गये। 

इस त्वष्टा के पुत्र वृत्रासुर ने लोकों को घेर लिया इसी कारण इसका नाम 'वृत्त' पड़ा। उसको देखते ही मारने को सेना ले देवता चढ़ आये और उसे मारने लगे, परन्तु उसे मार न सके। वह सब देवताओं के अस्त्र-शस्त्र निगल गया। यह देख देवता विस्मय को प्राप्त हो गये और शोक से अधीर हो, भगवान की स्तुति करने लगे। स्तुति करते-करते भगवान प्रकट हुए। 

विष्णु के दर्शन कर देवतागण दण्डवत् कर स्तुति करने लगे। हे राजन् ! अपनी स्तुति सुन भगवान बोले- मैं अपनी स्तुति सहित ब्रह्म-विद्या सुन बहुत प्रसन्न हुआ। हे इन्द्र ! जाओ, तुम दधीचि ऋषि से विद्या, व्रत, तप से दृढ़ उनके शरीर को मांगो । उनकी हड्डियों का वज्र बनाओ। उससे वृत्रासुर का शिरछेदन करो, तो तुम्हारा कल्याण होगा।

॥ वृत्रासुर के साथ इन्द्र का युद्ध ॥

श्रीशुकदेवजी कहने लगे - हे परीक्षित! इन्द्र को आज्ञा देकर भगवान् अन्तर्ध्यान हो गये। देवताओं ने दधीचि ऋषि से प्रार्थना की कि आप हमें अपना शरीर देवें। तब धर्म की अभिलाषा वाले मुनि बोले- हे देवताओं! प्राणियों को मरण समय में जो असह्य क्लेश होता है, उसको तुम नहीं जानते । जीवित रहने की इच्छा वाले को अपना शरीर प्यारा होता है। फिर भी विष्णु के मांगने पर भी ऐसा कौन है जो शरीर न दे सकता हो। 

यह देह हमको छोड़ अवश्य चला जायेगा, इस कारण इसको तुमको प्रसन्न रखने को अवश्य परित्याग करूँगा। इस प्रकार निश्चय कर दधीचि मुनि ने परब्रह्म में अपनी आत्मा को एक कर शरीर त्याग दिया। तदनन्तर उसको देवता उठा लाये। उसकी अस्थि  लेकर विश्वकर्मा ने बज्र बना दिया। उसको धारण कर ऐरावत पर चढ़कर वृत्रासुर के मारने को चढ़ाई की। फिर देवताओं का असुरों से महादारुण युद्ध नर्बदा के तट पर हुआ। 

देवताओं का ऐश्वर्य असुर सहन न कर सके, और क्रोध से आवेग में देवसेना पर टूट पड़े और देवताओं के चारों ओर शस्त्र बरसाने लगे। परन्तु देवों ने उनके हजारों टुकड़े कर डाले। तब असुरों ने देवसेना पर चट्टाने फेंकी परन्तु देवताओं ने उनको भी खण्ड- खण्ड कर दिया। यह देख वृत्रासुर की सेना भयभीत हुई। 

हे राजन् ! उन असुरों का अहंकार नाश हो गया और वे वृत्रासुर को छोड़ भागने लगे। यह देख वृत्रासुर हंसने लगा और कहने लगा- हे शूरवीरों ! इस जगत में जो जन्मा है उसकी मृत्यु अवश्य होगी परन्तु जिससे लोक में यश और परलोक में स्वर्ग मिले ऐसी मृत्यु को कौन नहीं चाहेगा ?

श्रीशुकदेवजी ने कहा- हे राजन् ! उन मूर्ख असुरों ने फिर भी वृत्रासुर का वचन नहीं माना। भागी हुई सेना देख व सेना द्वारा नष्ट होते देख, वृत्रासुर को महासन्ताप हुआ। फिर क्रोध में भरकर देवताओं से कहने लगा- हे देवताओं! तुम इन भागते हुओं को क्यों वृथा मारने को दौड़ रहे हो। जो तुमको युद्ध की अभिलाषा हो तो मेरे सामने आओ। ऐसे कहकर देवताओं को भयभीत करता हुआ वृत्रासुर गरजने लगा। 

उस सिंहनाद से देवता मुछित हो गिर पड़े। पृथ्वी को कंपाता त्रिशूल उठा वह मदोन्मत्त वृत्रासुर नेत्रों को बंद कर देवसेना का मर्दन करने लगा। तब कुपित हो इन्द्र ने गदा चलाई, गदा को उसने बांये हाथ में पकड़ लिया और क्रोध कर ऐरावत के मस्तक में गदा को मारा, जिससे हाथी मुख से रुधिर वमन करते-करते इन्द्र सहित अट्ठाईस हाथ पीछे हट गया। घबराये हुए पर प्रहार करना धर्म नहीं है, ऐसा जान उसने इन्द्र पर अस्त्र नहीं चलाया। 

तदन्तर इन्द्र अमृत वर्षाने वाले अपने हाथ के स्पर्श से हाथी की पीड़ा दूर कर फिर युद्ध को तैयार हो गये और वज्र को हाथ में उठाया। यह देख वृत्रासुर बोला- हे देवराज! मैं सम्मुख खड़ा हूँ तू इस अमोध वज्र को क्यों नहीं चलाता। यह तेरा वज्र व्यर्थ चला जायेगा ऐसी शंका मत कर। 

क्योंकि यह श्रीहरि के तेज और दधीचि मुनि की तपस्या से तीक्ष्ण है। तुमको पराजित होने की शंका नहीं, क्योंकि जहाँ भगवान हैं वहीं विजय है। मैं तो शंकर के चरणों में मन लगा तुम्हारे वज्र से शरीर छोड़कर योगी लोगों की गति को प्राप्त होऊँगा। इन्द्र से इस प्रकार कहकर वृत्रासुर हरि की प्रार्थना करने लगा। हे भगवान! मैं आपके दासों का दास हूँ, हमारा मन और वाणी आपका गुण वर्णन करे। 

जैसे बिना पर के बच्चे अपनी माता की इच्छा करते हैं और भूखे बछड़े दुग्ध पीने की, तथा परदेस गये हुए पति की स्त्री पति को देखने की इच्छा करती है वैसे ही तीनों ताप से पीड़ित हुआ मेरा मन आपके दर्शन की अभिलाषा करता है।

॥ इन्द्र द्वारा वृत्रासुर का वध ॥

श्रीशुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! इस प्रकार मृत्यु को श्रेष्ठ मानने वाला वृत्रासुर त्रिशूल उठाकर इन्द्र पर झपटा। त्रिशूल को आता देखकर इन्द्र ने अपने वज्र से सरलतापूर्वक दैत्य वृत्रासुर की एक भुजा काट गिराई। तब वृत्रासुर ने इन्द्र की ठोड़ी और ऐरावत पर परिघ से प्रहार किया जिससे इन्द्र के हाथ से वज्र छूट कर गिर पड़ा। वज्र के गिरते ही देवपक्ष में हाहाकार मच गया। 

वृत्रासुर कहने लगा- हे इन्द्र! वज्र ले, मुझे मार। यह खिन्न होने का अवसर नहीं है। जय-विजय भगवान के आधीन है। हे इन्द्र ! देखो मेरा अस्त्र टूट गया और भुजा कट गई तो भी तुम्हारे प्राण हरने की यथाशक्ति चेष्टा किये जाता हूँ। यह युद्ध रूप जुवाँ है, इसमें प्राण तो दाँव है, और समर भूमि चौपड़ा है सो इस जुवे में मेरे तथा तुम्हारे प्राणों का दाँव लगा है। 

इस प्रकार वार्ता करते हुए दोनों में घोर युद्ध होने लगा। वृत्रासुर ने लोहे की परिघ बांये हाथ में लेकर घुमाकर इन्द्र पर प्रहार किया। तब इन्द्र ने वज्र से परिघास्त्र और दूसरी भुजा को एक ही बार में काट गिराया। तदनन्तर वृत्रासुर अपने नीचे के होठ को पृथ्वी से लगा और ऊपर के होठ को आकाश में उठाकर सर्प के समान जीभ निकाल ऐरावत सहित इन्द्र को निगल गया। 

परन्तु इन्द्र नारायण कवच के प्रताप से उसके पेट में भी नहीं मरा और वज्र से उसकी कोख फाड़ बाहर निकल आया। फिर वृत्रासुर को काटने के लिए वज्र प्रहार किया। इन्द्र का वज्र शीघ्र ही वृत्रासुर के शिर के चारों ओर फिरता हुआ उसकी ग्रीवा को काटने लगा। 

जब एक वर्ष तक वज्र इसकी गर्दन को रगड़ता रहा तब जाकर इसका सिर कटा। हे राजन् ! वृत्रासुर के शरीर से जो भी आत्मरूप ज्योति निकली वह विष्णुलोक में जाकर भगवान में लीन हो गई।

॥ ब्रह्म-हत्या के भय से इन्द्र का भागना ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं - हे परीक्षित! वृत्रासुर के मरने के उपरान्त इन्द्र के सिवाय तीनों लोक सन्ताप रहित हो गये। परीक्षित ने पूछा, हे मुनि! इन्द्र को शान्ति न प्राप्त होने का कारण सुनने की इच्छा करता हूँ। 

शुकदेवजी बोले- जब ऋषियों ने वृत्रासुर को मारने की प्रार्थना की तब इन्द्र ने कहा विश्वरूप को मारने की ब्रह्महत्या को स्त्री, जल, वृक्ष, भूमि को बांट अपना पिण्ड छुड़ाया था, अब वृत्रासुर को मार ब्रह्म हत्या कहाँ उतारूँगा ? इसको सुन ऋषि बोले कि हम अश्वमेघ यज्ञ से तुम्हारा सब पाप दूर करा देंगे। 

नारायण का नाम लेने से हजारों पाप नाश हो जाते हैं। यद्यपि ऋषियों के समझाने से इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा तथापि ब्रह्महत्या पीछे लगी रही। इससे इन्द्र को बड़ा सन्ताप सहना पड़ा। चाण्डाली के रूप वाली, वृद्धावस्था से कांपती हुई, रुधिर से भीगे वस्त्र पहिन अपने पीछे दौड़ती हुई ब्रह्महत्या को इन्द्र ने देखा। 

इन्द्र इसे देखकर भागा और मानसरोवर में एक कमल की नाल में छिपकर बैठ गया। जल में अग्नि का प्रवेश असम्भव था। इस कारण यज्ञ का भाग अग्नि द्वारा इन्द्र को न पहुँच सका। इससे इन्द्र को भी भोजन नहीं मिला। जब तक इन्द्र यहाँ पर छिपे रहे तब तक नहुष ने स्वर्ग का राज्य किया। 

परन्तु अन्त में मदान्ध हो इन्द्राणी से भोग करना चाहा तब इन्द्राणी ने उसे अजगर योनि में पहुँचा दिया। तदनन्तर ब्रह्महत्या का पाप भगवान के ध्यान से विध्वंस हो गया। इन्द्र ब्राह्मणों के बुलाने से स्वर्ग गए। ब्रह्मऋषियों ने अश्वमेघ यज्ञ की इन्द्र को दीक्षा दी। 

वह हत्या भगवान के पूजन के प्रभाव से नाश हो गई। हे राजन् ! इस प्रकार ऋषियों के कराये अश्वमेघ से इन्द्र पहले के समान अपने उसी बड़प्पन को प्राप्त हुए।

॥ चित्रकेतु का शोक ॥

परीक्षित पूछने लगे - रजोगुण व तमोगुण स्वभाव बाले वृत्रासुर की भावना में ऐसी भक्ति कैसे हुई? शुकदेवजी बोले- हे राजन्! पूर्व समय में शूरसेन देश में चित्रकेतु राजा हुआ, उसके प्रताप से पृथ्वी उसको मनवांछित पदार्थ देने वाली थी। चित्रकेतु को सन्तान न होने कारण सम्पूर्ण सम्पदा, समस्त पृथ्वी की कोई भी वस्तु और चक्रवर्ती राज्य भी प्रीति का हेतु न हुआ। 

एक समय राजमहल में महर्षि अंगिरा अपनी इच्छा अनुसार विचरते हुए आये। अंगिरा को आया देख राजा ने आतिथ्य सत्कार किया और समीप बैठ गया। महर्षि अंगिरा चित्रकेतु को प्रणाम कर बैठा देख बोले- हे राजन् ! तुम्हारे राज्य, अंग और शरीर का मंगल तो है ? तुम्हारा मुख चिन्ता से मलीन हो रहा है। 

चित्रकेतु बोले- हे ब्रह्मन् ! आप सब जानते हुए मुझसे पूछते हैं तो मैं अपने मन की बात कहता हूँ। पुत्र बिना मुझे ये सब राजलक्ष्मी प्यारी नहीं लगती है। 

जिस प्रकार मैं सन्तान उत्पन्न कर संसार सागर से पार उतर जाऊँ, ऐसा उपाय कीजिए। उसकी विनय से सन्तुष्ट हो अंगिरा उसी समय त्वष्टा देवता का शाकल्य तैयार कर पूजन कराने लगे। राजा की बड़ी कृतद्युति नाम रानी थी, अंगिरा जी ने कहा कि यज्ञ का शेष अन्न उस रानी के भोजन करने से तुम्हारे एक पुत्र होगा। परन्तु वह हर्ष और शोक दोनों को देने वाला होगा। 

उसके जन्म से हर्ष और मरण से विषाद होगा। यह कहकर अंगिरा अपने स्थान को चले गये। चित्रकेत के पुत्र हुआ। पुत्र का जन्म सुन चित्रकेतु आनन्द मग्न हो गया। ब्राह्मणों से आशीर्वाद पाकर पुत्र का जातकर्म आदि संस्कार कराया। 

बहुत दिनों में पुत्र प्राप्त होने से राजा का स्नेह प्रतिदिन बढ़ने लगा। कृतद्युति की सौतें पुत्र कामना से सन्तापित होकर सौतिया डाह करने लगीं। क्योंकि राजा चित्रकेतु की प्रीति जैसे पुत्र वाली रानी में थी, वैसी दूसरी रानियों में न थी। 

इस कारण उन दुष्टाओं ने पुत्र को विष खिला दिया। वह बालक विष के खाते ही सो गया। उसकी माता यह समझ कि राजकुमार सो रहा है उसने धाई से पुकार कर कहा हे - कल्याणकारी ! पुत्र को लाओ। यह सुनते ही धाई उस जगह गई जहाँ राजकुमार शयन कर रहा था। वहाँ देखा कि बालक की आँखों की पुतली ऊपर चढ़ गई है। 

शरीर में चैतन्य कुछ नहीं, तब उसको मृतक देख धाई' हाय मरी' ऐसा कर विलाप करती हुई मूर्छित हो गिर पड़ी। धाई की आर्तवाणी सुन रानी कृतद्युति राजकुमार के समीप गई, अपने पुत्र को मरा देखा वह बारम्बार छाती पीटकर विलाप करने लगी और मूर्छित हो गिर पड़ी। तदनन्तर सब स्त्री पुरुष यह सुन दुःखित होकर रानी के समीप रोने लगी। 

हे राजन् ! रानी कृतद्युति की सौतें भी कपट से आकर रूदन करने लगीं। राजा चित्रकेतु दरबार में से गिरता-पड़ता ठोकरें खाता मन्त्री इ ब्राह्मणों सहित महल में आया और शोक से मूर्छित होकर गिर पड़ा। उसके बाद रानी राजा तथा सभी रोने लगे। तब अंगिरा और नारद जी वहाँ आये।

शुकदेवजी कहते हैं कि शोक से व्याकुल हुए राजा को देख उत्तम वचनों से बोध कराते हुए नारद मुनि कहने लगे - हे राजेन्द्र ! तुम जिसका शोक करते हो यह तुम्हारा कौन है ? पहले जन्म में तुम इसके कौन थे? तथा आगे इसका तुम्हारे से सम्बन्ध क्या होगा ? जब तुमको यही खबर नहीं तो शोक व्यर्थ है। 

यह सब ईश्वर की माया है। इस प्रकार दोनों मुनियों द्वारा समझाया हुआ चित्रकेतु कुछ धीरज धरकर बोला- आप दोनों कौन हो ? जो अवधूत भेष धारण किये हुए गुप्त भाव से यहाँ आये हो। 

अंगिरा बोले - हे राजन् ! तुमको पुत्र देने वाला मैं अंगिरा हूँ और यह नारद हैं। पुत्र शोक में डूबे हुए इस शोक के अयोग्य और हरि का भक्त जानकर तुम्हारे ऊपर अनुग्रह को हम दोनों आये हैं। तुम भगवद्भक्त हो, तुमको इस प्रकार व्याकुल नहीं होना चाहिए। 

हम पहले ही तुमको ज्ञानोपदेश देना चाहते थे। पुत्रवानों को कैसे संताप उत्पन्न होते हैं ये अब तुम को विदित हो गया। स्त्री, घर, धन और ऐश्वर्य यह सब ही सन्ताप देने वाले हैं। इसलिए तुम निर्मल मन से आत्मस्वरूप को विचार शान्ति का आश्रय लो। 

नारद बोले- परम कल्याण देने वाली इस मन्त्र विद्या को तुम सावधान होकर ग्रहण करो, सात रात्रि पर्यन्त इस विद्या के धारण करने से शेषशायी भगवान के दर्शन करोगे।

॥ चित्रकेतु से नारदजी का मनोपनिषद् कहना ॥

श्रीशुकदेवजी कहने लगे - हे राजन् ! नारद ने मरे हुए उस राजकुमार की जीवात्मा को अपने बल से जीवित कर उससे कहा- हे जीवात्मन् ! तुम्हारे माता, पिता और सब सुहृदय बन्धु तुम्हारे शोक से व्याकुल हो रहे हैं। इन्हें देखो और राज्य सिंहासन पर बैठो।

नारदजी का वचन सुन जीवात्मा बोला- यह हमारे पिता किस जन्म में हुए थे? मैं तो अपने कर्मों से योनियों में भ्रमण करता फिरता हूँ। यदि मेरे मर जाने से इनको शोक हुआ, तो मुझको अपना शत्रु समझ प्रसन्न क्यों नहीं होते ? जब तक हमारा सत्व इस देह में था, तब तक इनकी ममता थी, अब मेरे निमित्त शोक करना व्यर्थ है। फिर उन भाई बन्धु लोगों ने उस मृतक शरीर का दाह कर इसकी परलोक सम्बन्धी क्रिया की और शोक का त्याग कर दिया। 

हे राजन् ! बालक को मारने वाली रानियाँ ब्राह्मण के कहे अनुसार बाल- हत्या का प्रायश्चित यमुना किनारे करती हुई और श्री अंगिरा के वचन से पुत्रादिकों को ही दुःख का कारण सुन, पुत्र कामना त्याग दी। राजा चित्रकेतु भी नारद व अंगिरा के उपदेश से ज्ञान प्राप्त कर गृहकूप से बाहर निकला। 

यमुनाजी में तर्पण आदि क्रिया के अनन्तर मौन धार जितेन्द्रिय हो उसने नारद और अंगिरा को प्रणाम किया। नारद चित्रकेतु से प्रसन्न हो अध्यात्म- विद्या का उपदेश दे अंगिरा के साथ ब्रह्म-लोक को सिधारे। फिर चित्रकेतु नारद से वर्णन की हुई विद्या को सात दिन जल-पान करके धारण करता रहा। इसके तप से उसको विद्याधरों का आधिपत्य मिला। 

कुछ दिन उपरान्त शेष के समीप पहुँचा। उनके दर्शन से पाप रहित हो चित्रकेतु शेष की स्तुति करने लगा। हे भगवन्! आपका दर्शन करते ही मेरे अन्तःकरण का मल दूर हो गया। आप जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के स्वामी हैं और योगीजन भेद-दृष्टि होने से जिनके तत्व को नहीं जान सकते, ऐसे परमहंस को मेरा नमस्कार है। 

चित्रकेतु के स्तुति करने से शेष भगवान प्रसन्न हो अध्यात्म विद्या के उपदेश द्वारा चित्रकेतु के मोहान्धकार को नाश कर वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये।

॥ उमा के शाप से चित्रकेतु को वृत्रत्व प्राप्ति ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा-जिस दिशा में शेष भगवान अन्तर्ध्यान हुए उसी दिशा को नमस्कार कर चित्रकेतु विद्याधर इच्छानुसार विचरने लगा। एक समय विष्णु के दिये हुए विमान पर बैठकर वह कैलाश की तरफ चला गया जहाँ शिवजी विराजे थे। उस समय सभा के बीच पार्वती को गोद में लिये हुए भुजा से चिपटाये भोलानाथ के समीप जाकर चित्रकेतु हंसकर कहने लगा- 'जो सम्पूर्ण लोकों के गुरु, धर्मवक्ता और शरीरधारियों में मुख्य हैं, इनका आचरण तो देखो, भरी सभा में स्त्री को गोद में चिपटाये बैठे हैं।' ऐसा सुनकर महादेवजी हंसकर चुप ही रहे। परन्तु चित्रकेतु जब उसी प्रकार बारम्बार कहने लगा, तब पार्वती जी न सह सकीं और क्रोध से बोलीं- 'अहो! क्या यह चित्रकेतु ही हमारा शिक्षक नियत हुआ है। यह दण्ड के योग्य है। हे दुष्ट, तू राक्षसी योनि में जा'। 

इस प्रकार पार्वती से शापित हो चित्रकेतु बोला- हे अम्बिके! मैं तुम्हारे शाप को ग्रहण करता हूँ क्योंकि ये सब मेरे पूर्वकर्म का फल है। हे माता! मैं क्षमा माँगता हूँ, शाप से छुटकारा पाने को नहीं, बल्कि अपना अपराध क्षमा कराने को। इस प्रकार चित्रकेतु शिव पार्वती को प्रसन्न कर अपराध क्षमा कराकर वहाँ से चल दिया।

तदन्तर पार्षदगणों के सम्मुख शिवजी पार्वतीजी से बोले- 'भगवान के निरपेक्ष और श्रद्धालु भक्तों का जो महात्म्य है वो तुमने देखा। हे पार्वती, जो श्री नारायण में तत्पर भक्तजन हैं वे किसी से नहीं डरते क्योंकि वे स्वर्ग और नरक में भी समान दृष्टि रखते हैं। चित्रकेतु भगवान का दास है, इस कारण उसमें ऐसी उदारता है। 

हे राजन् ! शिवजी का सम्भाषण श्रवण कर पार्वती ने विस्मय त्याग चित्त शान्त कर लिया। चित्रकेतु पार्वती को बदले में शाप देने को समर्थ था परन्तु देवी के शाप को उसने मस्तक पर धारण कर लिया, उसकी साधुता का यह लक्षण था। चित्रकेतु पार्वती के शाप से आसुरी योनि को प्राप्त हो त्वष्टा के यज्ञ में उत्पन्न हो वृत्रासुर नाम से प्रसिद्ध हुआ । 

॥ देवगण का वंश कीर्तन ॥

श्रीशुकदेवजी कहने लगे- हे परीक्षित! आदिति के पाँचवें पुत्र की स्त्री प्रशिननाम से सावित्री, व्याहृति व वेदत्रयी तीन पुत्रियाँ और अग्निहोत्र, पशुयाग, सोमयाग, चातुर्मास्य और महामुख ये पाँच पुत्र हुए। भग आदित्य के सिद्ध से महिमा और विभु दो पुत्र उत्पन्न हुए और आशिष नाम कन्या हुई। धाता आदित्य के कुहू से संयनामा और सिनी से दशनामा हुआ। राका से प्रातः और अनुमति से पूर्णमास हुआ। 

समनन्तर की क्रिया नाम स्त्री से पुरीष्या नाम पाँच अग्नि हुए। वरुण की वर्षणी से भृगु फिर हुए जो प्रथम ब्रह्मा के पुत्र थे और बाल्मीकिजी को जो कि सर्पों की बांबी से उत्पन्न हुए कहलाते हैं और अगस्त्य वशिष्ठजी दोनों ऋषि वरुण और मित्र के साधारण पुत्र हुए क्योंकि वरुण और मित्र उर्वशी को देख कामनावश हो अपना स्खलित हुआ वीर्य एक घड़े में डाला, जिससे दोनों ऋषियों की उत्पत्ति हुईं। 

आदिति के दशवें पुत्र मित्र के रेवती से उत्सर्ग, अरिष्ट और पिप्पल हुए। आदित के ग्यारहवें पुत्र इंद्र के पौलोमी से जयन्त, ऋषभ और मोढुष ये तीन पुत्र हुए। वामन भगवान के कीर्तिमान, बृहत्श्लोक पुत्र हुआ, उसके सौभव हुए आदि। अब कश्यप के पुत्रों का वंश वर्णन करते हैं। 

जिस वंश में प्रहलाद और बलि हुए। दिति के हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष दो सुत दानवों से वन्दनीय हुए जिनकी कथा तीरसे स्कन्द में कह आये हैं। हिरण्यकशिप की कयाधु स्त्री से सहलाद, अनुहलाद, हलाद और प्रहलाद चार पुत्र हुए। उनकी सिंहिका बहिन थी जो विप्रचित नाम दैत्यों को ब्याही गई, जिसका पुत्र हुआ। सहला की कृति स्त्री से पंचजन दैत्य पुत्र हुआ। इल्वल के अतिथि सत्कार में अगस्त्यमुनि ने इस वातापी को पचाया था। 

अनुहलाद की पत्नी सूर्म्या के वाष्कल, महिष और प्रहलाद की स्त्री दिति से विरोचन उत्पन्न हुआ जिसका पुत्र बलि की अशना से दो पुत्र हुए उनमें बड़ा बाणासुर हुआ। उनचास वमन भी इसी दिती के पुत्र हैं, उनका नाम मारुत हुआ। ये सब प्रज्ञाहीन हैं और इन्द्र ने उन्हें भाई बना लिया । 

परीक्षित ने प्रश्न किया- हे गुरु ! ये मरुत्गण जन्म सम्बन्धी असुरभाव त्याग इन्द्र द्वारा देवभाव को कैसे प्राप्त हो गये ? शुकदेवजी बोले- जब विष्णु ने दैत्यों को मार डाला तब पुत्रों का नाश देख, शोक व क्रोध से जलती हुई दिति विचारने लगी, कि भाइयों का विध्वंश करने वाले इन्द्र का बध करा करके मैं सुख से सोऊँगी। 

इसलिए पति प्रिय आचरणों को करना ही श्रेष्ठ है, ऐसा निश्चय कर दिति ने कश्यपजी को मन को वश करने वाले मधुर भाषण मन्द मुसकान आदि उपायों से वश में कर लिया। 

कश्यप स्त्री द्वारा प्रसन्न हो बोले- हे वोमोरु ! तू वर मांग, मैं प्रसन्न हूँ। दिति ने कहा - हे ब्रह्मन् ! आप नहीं मरने वाला और इन्द्र को मारने वाला एक पुत्र दीजिए, क्योंकि मेरे दो पुत्र इन्द्र ने मार डाले हैं। दिति का वचन सुन कश्यपजी उदास हो चिन्ता करने लगे। कश्यपजी इस प्रकार सोच बोले- हे भद्रे ! तू एक वर्ष पर्यन्त व्रत कर सकेगी तो मेरे इन्द्र का वध करने वाला पुत्र उत्पन्न होगा। 

दिति ने कहा- हे ब्रह्मन् ! मैं इस व्रत को अवश्य धारण करूँगी। उस व्रत में जो कर्म करने योग्य हों और जो योग्य न हों उसे कहिये। कश्यप बोले- प्राणियों की हिंसा न करे, गाली नहीं बोले, असत्य नहीं बोले, नख न कटवावे और अमांगलिक पदार्थ का स्पर्श नहीं करे, दुर्जनों से बात न करें, बिना धोया वस्त्र न पहने, झूठा अन्न, भद्रकाली का नैवेद्य, मांस सहित शूद्र का लाया हुआ अन्न, रजस्वला को छुआ व देखा हुआ अन्न नहीं खावे और जल अंजलि से पीवे, झूठे मुख में न रहें, सन्ध्या समय बाल न खोलें, शरीर को बिना श्रृंगार किया न रखे। नंगा हो बाहर न विचरे और शयन न करें, इस व्रत करने वाले को ये बातें वर्जित हैं। 

इस व्रत में जो कार्य करने वाले हैं, वे भी कहता हूँ - धोये वस्त्र, पवित्र कर रहे मंगल पदार्थों से युक्त हो, प्रातःसमय भोजन से पहले गौ, ब्राह्मण, लक्ष्मी और नारायण का पूजन करे। चन्दन, फूल, नैवेद्य और आभूषण से सौभाग्यवती स्त्रियों का पूजन करें और पति की पूजा करें, जो तुम यह पुत्रदायक व्रत एक वर्ष खण्डित हुए बिना करोगी तो इन्द्र को मारने वाल पुत्र होगा। 

जब कश्यप ये कह चुके, तब दिति ने 'ऐसे ही करूँगी' कह अंगीकार किया और गर्भ धारण कर कश्यप के उपदेशानुसार रहने लगी। इन्द्र सौतेली माता का यह अभिप्राय जान अपना स्वार्थ विचार दिति के समीप आया और भक्ति से उसकी सेवा करने लगा। वह वध का व्रत करती हुई दिति का दोष देखता हुआ कपट भाव से विचरता था। 

जब व्रत में कुछ दोष न देखा और पूर्ण होने में दो-चार दिन रह गये तब इन्द्र चिन्ता करने लगा। एक समय कुभाग्यवश दिति भविष्यबल से सन्ध्या समय झूठे मुख हो गई। निद्रा से अचेत हो दिति के ऐसे दोषपूर्ण कृत्य हो देख इन्द्र योगमाया से दिति के गर्भ में प्रवेश कर गया। 

फिर गर्भ में जाकर इन्द्र ने अपने वज्र से उस गर्भ के सात खण्ड कर दिये, तदनन्तर रोते हुए उन सातों को 'तुम रोओ' ऐसे कह एक-एक के सात-सात टुकड़े कर दिये। इन्द्र ने जब उस गर्भ के ४९ टुकड़े कर डाले, तब भी वे मरे नहीं और हाथ जोड़ बोले- तुम हमें क्यों मारते हो ? हम मरुत तुम्हारे भाई हैं, हमें मत मारो। 

यह सुनकर इन्द्र ने मरुतगणों से कहा- तुम मत डरो, तुम लोग हमारे पार्षद भाई होंगे। इन्द्र के वज्र से खण्ड-खण्ड हो जाने पर भी वह दिति का गर्भ विष्णु की कृपा से नहीं मरा। विष्णु के साथ मिलकर इन्द्र ने ४९ मरुत् गण नाम देवता बना दिये। फिर निर्दोष हुई वह दिति उठ इन्द्र सहित उन बालकों को तेजस्वी देख प्रसन्न हुई। 

तदनन्तर दिति ने कहा- हे इन्द्र ! अदिति पुत्र देवताओं को त्रास देने वाले पुत्र की कामना से इस कठिन व्रत को मैंने किया। एक पुत्र होने के अर्थ मेरा संकल्प था, ये ४९ पुत्र कैसे हुए। हे इन्द्र! यदि तुम जानते हो तो सत्य कहो । यह सुन इन्द्र बोले- हे अम्बे ! मैंने तुम्हारे विचार को जान लिया, इस कारण तुम्हारे व्रत भंग का समय देख रहा था। आज अवसर पाकर मैंने तुम्हारे गर्भ को खण्ड-खण्ड कर डाला। 

हे माता! यह हमारी दुर्जनता है, तुम क्षमा करने योग्य हो। फिर उस दिति ने शुद्ध भाव से प्रसन्न हो इन्द्र को आज्ञा दी तब वह इन्द्र दिति को प्रणाम कर मरुतगणों को साथ लिये स्वर्गलोक को चला गया।


॥ श्रीमद् भागवत महापुराण छठा स्कन्द समाप्त ॥