श्रीमद्भागवत महापुराण
चौथा स्कन्द प्रारम्भ
।। मनु कन्याओं का वर्णन ।।
मैत्रेयजी कहने लगे - स्वायम्भुवमनु ने शतरूपा से तीन कन्यायें उत्पन्न कीं - आकूति, देवहूति, प्रसूति । मनु ने आकूति का रुचि ऋषि के साथ इस शर्त पर विवाह कर दिया कि इस कन्या के जो प्रथम पुत्र होगा उसको मैं लूँगा। रुचि प्रजापति ने उस आकूति से एक जो पहला जोड़ा उत्पन्न किया, उनमें जो पुरुष थे सो यज्ञ स्वरूप धारी विष्णु थे, इसी से उनका नाम यज्ञ हुआ और जो कन्या थी वह लक्ष्मी जी के अंश से उत्पन्न दक्षिणा थी।
अपनी पुत्री आकूति के परम तेजस्वी यज्ञरूप पुत्र को स्वायम्भुवमनु अपने घर लाये और उस दक्षिणा कन्या को रुचि ऋषि ने रखा। जब दक्षिणा विवाह योग्य हुई तब उसके साथ यज्ञ भगवान ने विवाह किया।
यज्ञ भगवान ने उस दक्षिणा रानी से तोष, प्रतोष, भद्र, शान्ति, वृहस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वन्ह, सुदेव, रोचन बारह पुत्र उत्पन्न किये। यह सब तुषिन नाम वाले देवता हुए। मरीचि आदि सप्त ऋषि हुए और यज्ञ भगवान देवताओं के स्वामी इन्द्र हुए।
मनु के प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र हुए। स्वायम्भुवमनु ने अपनी देवहूति नामक कन्या कर्दम ऋषि को दे दी थी, उसका चरित्र तो तुमने सुना ही है। मनु ने प्रसूति नामक कन्या दक्षप्रजापति को दी, जिसके वंश से तीनों लोक भर गये।
मैत्रेयजी कहते हैं- हे विदुर ! कर्दम ऋषि की नौ कन्यायें जो मरीचि आदि ऋषियों की स्त्रियाँ हुईं उनकी सन्तान का विस्तार मैं कहता हूँ सो सुनिए। कला जो मरीचि की स्त्री थी उससे कश्यप और पूर्णिमान दो पुत्र हुए। पूर्णिमान के विरज, विश्वग दो पुत्र और देवकुल्या कन्या हुई। देवकुल्या हरि के चरण धोने से जन्मान्तर में आकाश गंगा हुई है।
अत्रि ऋषि की स्त्री अनसूया ने ब्रह्मा, विष्णु और शिव के अंश चन्द्रमा, दत्तात्रेय और दुर्वासा नाम वाले तीन पुत्र उत्पन्न किये जो महातेजस्वी हुए।
विदुरजी पूछने लगे - हे गुरो ! स्थिति, रचना, संहार करने वाले ये तीनों कैसे उत्पन्न हुए ? यह मुझसे कहिये।
मैत्रेयजी बोले- जब ब्रह्मा ने अत्रि ऋषि को सृष्टि रचने की आज्ञा दी तब वह ऋषिकुल पर्वत पर तप करने लगे। इस तप से ऋषीश्वर के शीर्ष में से अग्नि प्रकट हुई उसमें तीनों लोक तपने लगे। यह देखकर ब्रह्माजी, महादेव और भगवान हरि, ऋषि के आश्रम में पहुँचे। इन तीनों के प्रकट होने से अत्रि मुनि चकित हो गये ।
पुष्पादिक अञ्जलि में लेके तीनों देवताओं का मुनि ने पूजन किया और बोले- जिन्होंने सृष्टि के उत्पत्ति, पालन व संहार के निमित्त देह धारण किए हैं ऐसे आप तीनों को मैं बारम्बार प्रणाम करता हूँ। अत्रि मुनि के वचन सुनकर वे तीनों हंसकर कहने लगे - हे ब्रह्मन् ! जिस प्रकार तुमने संकल्प किया है उसके अनुसार होना चाहिए।
सत्य संकल्प वाले मन में जिसका ध्यान किया है, वे तीनों देवता हम एक ही हैं। हे मुने ! इसी से अब हम तीनों के अंश से तुम्हारे घर उत्पन्न होकर पुत्र जगत में प्रसिद्ध होंगे। उसी से आपका कल्याण होगा। वे तीनों देवेश्वर मनोवांछित वरदान देकर अपने स्थान को चले गये। तदनन्तर ब्रह्मा जी के अंश से चन्द्रमा, विष्णु के अंश से दत्तात्रेय तथा शिवजी के अंश से दुर्वासा प्रकटे ।
अंगिरा ऋषि की श्रद्धा स्त्री से चार कन्यायें प्रकट हुई। सिनीवाली, कुहू, राजा और चौथी अनुमति। उनके दो पुत्र, एक तो उतथ्यजी, दूसरे देवगुरु बृहस्पति जी हुए। पुलस्त्यजी ने हविर्भू नाम वाली कन्या से अगस्त्य नामक पुत्र उत्पन्न किया। पुलस्त्यजी के दूसरा पुत्र महातपस्वी विश्रवा प्रकट हुआ। विश्रवाजी की इड़विड़ा स्त्री से कुबेर नामक पुत्र हुआ। तथा दूसरी स्त्री से रावण, कुम्भकर्ण, और विभीषण तीन पुत्र उत्पन्न हुए।
हे महामुनि ! पुलह ऋषि की गति स्त्री से कर्मश्रेष्ठ, वरियान, सविष्णु तीन पुत्र उत्पन्न हुए। ऋतु ऋषि की क्रिया स्त्री से साठ हजार बाल-खिल्य ऋषिपुत्र उत्पन्न हुए। हे परन्तप ! वसिष्ठजी की ऊर्जा स्त्री से चित्रकेतु, सरोचि, गिरज, मित्र, उल्वण, वसुभृद्यान, द्युमान ये सप्तर्षि हुए। अथर्वण की चिति स्त्री से धृतव्रत, अश्वशिरा और दग्घ पुत्र हुए।
मैत्रेयजी कहते हैं कि अब तुम भृगुऋषि के वंश का वृत्तान्त सुनो। हे महाभाग ! भृगुजी ने ख्याति नामक स्त्री से धाता, विधाता के दो पुत्र और एक कन्या लक्ष्मी का प्रकट किया। धाता की सायति स्त्री से मृकण्डु पुत्र उत्पन्न हुआ। मृकण्डुजी के श्री मार्कण्डेयजी हुए । प्राण के वेदशिरा मुनि हुए।
हे विदुरजी ! शुक्राचार्य के भगवान उशना नामक सुत हुए। इस प्रकार मुनिश्वरों ने सृष्टि द्वारा लोकों की वृद्धि की, जिससे सब लोक भर गये। दक्ष प्रजापति ने स्वायम्भुवमनु की कन्या प्रसूति से विवाह किया। उस प्रसूति से दक्ष ले सोलह कन्याओं को उत्पन्न कीं जिनमें से तेरह तो धर्म को विवाह दी और एक अग्नि को, एक पितरों को, और एक शिवजी को विवाह दी । श्रद्धा, मैत्री, शांति, तुष्टि, पुष्टि, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, मूर्ति, धर्म की स्त्री हुई।
धर्म की पत्नी श्रद्धा के शुभ उत्पन्न हुआ। मैत्री के प्रसाद, दया के अभय, शांति के सुख, सृष्टि के मुद, पुष्टि के गर्व, क्रिया के योग, उन्नति के दर्प, बुद्धि के अर्थ, मेधा के स्मृति, तितिक्षा के क्षेम, हृदि के प्रश्रय नाम के पुत्र उत्पन्न हुए। सम्पूर्ण गुणों की उत्पत्ति रूप मूर्ति में नर और नारायण नाम के सुत उत्पन्न हुए।
नर नारायण के जन्म समय सर्वत्र - परम मंगल होने लगे। तब सब देवता स्तुति वाक्य कहने लगे कि जो भगवान अपनी माया से आज धर्म के घर में ऋषि उत्पन्न हुए हैं, उन नारायण को हम नमस्कार करते हैं।
हे विदुर ! जब कृपादृष्टि से देखे गये देवताओं ने प्रार्थना की, तब नारायण देवताओं की पूजा को अंगीकार कर गन्धमादन पर्वत को पधारे। ये दोनों ऋषि हरि भगवान के अंग से यहाँ पृथ्वी पर आये। तब पृथ्वी का भार उतारने को नरक अंश से गुरु कुल में अर्जुन नाम से और नारायण ने यदुकुल में श्रीकृष्ण नाम से जन्म लिया है।
अग्नि के तीन पुत्र उत्पन्न हुए। इन तीनों अग्नि पुत्रों के पन्द्रह-पन्द्रह पुत्र हुए। सब पिता, पुत्र मिलकर उनञ्चास अग्नि प्रकट हुए। यज्ञ में वेदपाठी लोग जिनका नाम से यज्ञ में आग्नेय इष्टि निरूपण की जाती हैं। अग्निष्वात, महर्षिद, सोपम, आज्यप, ये पितृगण हैं,
इनमें कोई साग्नि हैं, कोई अनाग्नि हैं। इन पितरों के स्वधा पत्नी से यमुना और धारिणी दो कन्यायें उत्पन्न हुईं। इन कन्याओं ने विवाह ही नहीं किया, अवधूतनी हो गईं और जो महादेवजी की स्त्री सती थी वह शिवजी की सेवा करने पर भी पुत्र को प्राप्त न कर सकी।
।। शिवजी और दक्ष का परस्पर विद्वेष ।।
विदुर जी ने कहा - दक्ष प्रजापति ने शिवजी से वैर किस कारण किया ! हे ब्राह्मण ! यह सुन मैत्रेयजी कहने लगे कि हे विदुर ! प्रथम विश्वस्त्रष्टाओं के यज्ञ में ऋषिश्वर, देवगण अपने-अपने अनुचरों सहित, सिद्ध और अग्नि सब इकट्ठे हुए। उस बड़ी सभा के अन्धकार को अपने तेज से दूर करते हुए दक्ष प्रजापति को आये हुए देखकर सब ऋषि, सब सभासद अग्नि सहित अपने-अपने आसनों से उठ खड़े हुए।
वहाँ ब्रह्मा जी और महादेवजी अपने आसन से नहीं उठे। उनको दक्ष ने देखकर विचारा कि शिव ने मेरा अनादर किया है। ऐसा विचार अपमान न सह, कोपदृष्टि से शिवजी की तरफ देख ये वचन बोला कि हे देवताओं! यह महादेव लोकपालों के यश को नष्ट करने वाला निर्लज्ज है।
जिसे इसने मूर्खता से, सज्जनों से चलाये मार्ग को दूषित कर दिया। वास्तव में यह मेरे शिष्यभाव को प्राप्त नहीं हुआ है। क्योंकि इसने हमारी कन्या का पाणिग्रहण किया है। देखो मुझे आया देख इसने मेरा वाणी से भी सत्कार नहीं किया। इस क्रिया के लोप करने वाले, अभिमानी, मर्यादा के तोड़ने वाले महादेव को मैं कन्या दान करना नहीं चाहता था, परन्तु मैंने मूर्खता से कन्या दे दी।
देखो यह शमशान में रहने बाला है और भूत, प्रेत, पिशाचों के साथ नग्न शरीर, खुले केश, हंसता रोता फिरा करता है। चिता भस्म से स्नान करने वाला, भभूती रमाने वाला तथा हड्डियों के आभूषण धारण करने वाला और प्रमथ गण और भूतों का पति है। ऐसे इस भूतनाथ को मैंने ब्रह्मा जी के कहने से अपनी कन्या विवाह दी, यह मुझे बड़ा खेद है।
मैत्रेयजी बोले कि हे विदुर ? इतने पर भी क्रोध रहित बैठे हुए शिवजी की निन्दा करके वह दक्ष शिवजी को शाप देने लगा कि यह सब देवताओं में अधर्मी है, इसलिए यज्ञ में भाग देने से समय ये देवपंक्ति में भाग पाने योग्य नहीं है। तब शिव जी के अनुचर नन्दिकेश्वरजी ने महादेवजी को शापित हुआ जानकर क्रोध में भर दक्ष को और अनुमोदन करने वाले ब्राह्मणों को शाप दिया।
नन्दीश्वरजी ने शाप दिया कि यह दक्ष देहाभिमान वाला, बुद्धि से आत्मा को भूलकर पशु समान होकर निरन्तर स्त्री की कामना वाला होकर फिर थोड़े ही दिनों में इसका मुख बकरा सा हो जाये। जो लोग यहाँ शिवजी की निंदा सुनने वाले हैं, वह शिवजी के द्वेषी सदा मोह को प्राप्त हो जायें और आज से सब ब्राह्मण मात्र भक्ष्य अक्ष्य विचार शून्य होकर सबके घरों में भोजन करने वाले होकर उदर पोषण के ही अर्थ विद्या, तप और व्रतों के धारण करने वाले इस संसार में याचक बनकर घर-घर में निर्धन होकर मांगते फिरें।
।। सती का दक्षालय जाने की प्रार्थना करना ।।
मैत्रेयजी बोले- इस प्रकार बैर भाव करते हुए शिव जी और दक्ष को बहुत समय बीत गया । दक्ष ने बाजपेय यज्ञ कर, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, पित्रगण, देवता सब बुलाये और उनकी स्त्रियाँ भी अपने पतियों के साथ आईं। वार्तालाप करते, आकाश मार्ग से देवताओं को जाते देख सती अपने पिता के घर यज्ञ सुनकर युवतियों को देखकर उत्कंठित हो सती ने अपने पति से कहा कि, आपके श्वसुर के यहाँ यज्ञ हो रहा है, हे वामेश्वर! ये सब देव देवांगनाओं को लिये जा रहे हैं। हे शिव ! निश्चय है कि अपने-अपने पतियों सहित हमारी बहिनें, पिता की बहिनें, माता की बहिनें, और अपनी माता, सबों को देखूँगी। सुरोत्तम ! पिता के घर उत्सव सुन कन्या चलायमान हुए बिना कैसे रहे ? यदि कहो कि तुमको बुलावा तक तो पिता ने दिया नहीं है, फिर बिना बुलाये कैसे जाना चाहती हो ?
हे प्रभो! मित्र, पति, गुरु और पिता इनके घरों में बिना बुलाये जाने में भी कुछ दोष नहीं होता। हे देव ! इसलिए प्रसन्न हो हमारी मनोकामना पूर्ण करें। हे दिव्य दृष्टि बाले ! मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि मुझ पर दया कर मुझे जाने की आज्ञा दें ।
मैत्रेयजी बोले- इस प्रकार जब सतीजी ने महादेवजी से प्रार्थना की, तब दक्ष के दुर्वचनों का स्मरण करके महादेवजी ने सती से हंसकर कहा - हे शोभने ! तुमने जो कहा कि बिना बुलाये भी बन्धुजनों के यहाँ जाना चाहिए वह ठीक है परन्तु जिनको जानें कि हमारे देखने से उनके हृदय में आनन्द होगा उनके घर तो बिना बुलाये जाना दूषित नहीं और जो अपने को देखकर प्रसन्न न होते हों, वह चाहे भले ही पिता ही क्यों न हो उनके घर कभी न जावे क्योंकि देखो सतीजी ! युद्ध में शत्रुओं के बाण से भी इतनी पीड़ा नहीं होती जितनी कि सम्बन्धियों के दुर्वचनों से पीड़ा होती है। जो महात्मा अपने से बड़े को देखकर उठ खड़े होते हैं, यथायोग्य प्रणामादि करते हैं, यह रीति परमोत्तम है, परन्तु वे लोग सर्वान्तर्यामी परमेश्वर को ही मन से प्रणाम करते हैं, देहाभिमानियों को नहीं करते हैं।
हे वरारोहे! यद्यपि दक्ष तुम्हारा पिता है, तथापि हमारा शत्रु है। तुमको उसे और उनके पक्ष वालों की ओर देखना भी नहीं चाहिए। जो तुम हमारा वचन उल्लंघन करके दक्ष के घर को जाओगी, तो तुम्हारा भला नहीं होगा। क्योंकि जब पुरुष का सम्बन्धियों द्वारा जो अपमान हो जाता है तो शीघ्र मृत्यु का कारण होता है।
।। सती का देह त्याग ।।
सती कभी तो पिता के यज्ञ को देखने की इच्छा से और कभी महादेवजी के भय से, कभी भीतर जाती कभी बाहर निकलती। जब पिता के घर जाने की इच्छा हो तब बाहर निकले और शिवजी का भय हो तब भीतर चली जावे। फिर स्त्री स्वभाव से सती शोक व क्रोध से विकल हो पिता के घर चल दी। जल्दी- जल्दी अकेली जाती हुई देखकर सती के पीछे महादेवजी के हजारों अनुचर चले, मणिमान तथा मद आदि पार्षद, यज्ञ, नन्दीश्वर वृषभ पर सतीजी को चढ़ाकर आगे चले ।
सती जी को शिवजी के गण नन्दीश्वर पर बैठाकर गाते और दुन्दुभी आदि बजाते हुए प्रसन्न होकर चले और यज्ञ में सतीजी जा पहुँची। सती जी को आया हुआ देख करके भी यज्ञ करने वालों में से माता और बहिन के अतिरिक्त दक्ष के भय ने किसी ने सती का सत्कार नहीं किया। दक्ष ने कुछ भी आदर नहीं किया केवल माता और बहिनें प्रेम से गद् गद् होकर मिलीं।
आदर से माता और मौसियों की दी हुई पूजा और आसन को सती ने ग्रहण नहीं किया। जब सती ने शिवजी के भाग से हीन उस यज्ञ को देखा तब यज्ञ सभा में क्रोध से अभिमानी दक्ष को गम्भीर वाणी से धिक्कारती यह वचन कहने लगी - सम्पूर्ण देहधारियों के प्रिय आत्मा शिवजी से तेरे बिना और कौन शत्रुता करे ? हे द्विज! तुझ सरीखे निंदक पुरुष दुसरों के गुणों में से केवल दोष ही लेते हैं।
किन्तु जो महाउत्तम मनुष्य होते हैं, थोड़े से गुणों को अधिक करके मानते हैं, ऐसे महात्माओं का तूने अपराध किया है।'शिव' ये दो अक्षर के नाम को जो मनुष्य एक बार का उच्चारण करता है, उसके पापों का नाश हो जाता है ऐसे शिव से तुम बैर करते हो, इस कारण तुम महा अमंगल रूप हो । धर्मरक्षक स्वामी की लोग जहाँ निन्दा करते हों, वहाँ उस मनुष्य को मार डाले।
यदि मारने की सामर्थ्य हो तो कान बन्द करके उठ जावे। समर्थ हो तो निंदक की जिह्वा को काट डाले, फिर प्राणों का त्याग कर दे, यही सनातन धर्म है। हे पिताजी ! अणिमादिक सिद्धियाँ हमारी इच्छा मात्र से उत्पन्न हो सकती हैं। तुम्हारी पदवियाँ तो यज्ञ शालाओं में रहती हैं और यज्ञ के अन्न से तुम तृप्त हुए लोग ही उनकी प्रशंसा करते हैं। अब जो कि महादेवजी का अपराधी तू है, उससे उत्पन्न हुए उस देह को रखना नहीं चाहती हूँ।
मैत्रेयजी बोले - हे विदुर! सती जी इस प्रकार दक्ष से कह मौन होकर उत्तर की ओर मुख की बैठ गई और हाथ में जल से आचमन कर रेशमी पीत वस्त्र पहने नेत्र को बंदकर योग मार्ग का साधन कर पालथी मारकर बैठ गईं। सती जी ने आसन जीतकर प्राण और अपान दोनों पवनों को रोक समान को नाभि चक्र में ला उदान वायु को नाभि से उठा उसी वायु को हृदय में लगाकर फिर हृदय में स्थित उदान वायु को हृदय में लगाकर फिर हृदय में स्थित उदान वायु को कण्ठ मार्ग से भृकुटि के बीच में तिरोहित कर दिया।
सतीजी ने विचारा कि ये शिवजी का द्वेषी है। यदि मेरा अंग यज्ञ में पड़ा रहा तब ये न जाने इसकी क्या दशा करें इससे मैं ऐसा करूँ कि जो इसे मेरे अंग की भस्म प्राप्त न हो। फिर अपने पति के चरण कमल का स्मरण किया। उस समय सती की समाधि-अग्नि से शरीर आप ही भस्म हो गया।
यह देखकर देखने वालों को महान आश्चर्य हुआ और वहाँ हा-हाकार शब्द हुआ, कि अहो महादेवजी की पत्नी सती जी ने दक्ष के अपमान से अपने प्राणों को छोड़ दिया। यह कठोर हृदय शिवजी से बैर करने वाला दक्ष बड़ी निंदा को प्राप्त होगा। क्योंकि जिसने अपने अपराध से मरती हुई अपनी पुत्री को निवारण नहीं किया।
इस प्रकार वहाँ लोग कह रहे थे कि महादेव जी के पार्षद गण शस्त्र लेकर दक्ष को मारने को उठे तब पार्षदों को आते देख भृगुजी ने उनके विनाश करने वाली ऋचाओं को पढ़ दक्षिणाग्नि में एक आहुति दी। जब उस अध्वर्यु ने वह होम किया, तब ऋभुनामक हजारों देवता प्रकट हुए। वे हवन की अधजली लकड़ी लिए दौड़े और शिवजी के गणों को मारकर चारों दिशाओं में भगा दिया।
।। वीरभद्र द्वारा दक्ष का वध ।।
मैत्रयजी कहने लगे - दक्ष की निरादर की हुई सती का मरण और ऋभुनाम देवताओं से अपनी सेना का भगाना, नारद मुनि के मुख से सुन शिवजी ने क्रोध में भरकर दाँतों से होठों को दबा भयानक रूप से अट्टाहास के साथ अग्नि के समान तेज वाली अपनी एक जटा को उखाड़ कर पृथ्वी पर दे पटका। जटा को पटकते ही बहुत बड़ी देह व हजार जिसके भुजा व मेघ से समान जिसका वर्ण, जिसके तीन नेत्र, महा विकराल जिसकी दाढ़ें, कपाल-माला धारण किये एक वीरभद्र नाम का पुरुष प्रकट हुआ और महादेव जी के हाथ जोड़कर बोला- मैं आपका किंकर हूँ, आज्ञा दीजिए क्या करूँ ? शिवजी बोले-कि हे भट ! तू मेरे पार्षदों में मुख्य है, जाकर मेरी आज्ञा से दक्ष का नाश कर।
हे विदुर ! इस प्रकार क्रोधित शिवजी से आज्ञा पा महादेवजी की परिक्रमा कर वीरभद्र पार्षदों को साथ ले, मृत्युनाशक त्रिशूल हाथ में लेकर दक्ष की ओर आया। उस समय दक्ष और सभासद सब उत्तर दिशा में उड़ती हुई धूल को देख विचारने लगे कि यह धूल कहाँ से आती है। दक्ष की रानी आदि स्त्रियाँ सब उद्विग्न हो कहने लगीं कि प्रजापति दक्ष ने बिना अपराध वाली अपनी पुत्री का अपमान किया उसी पाप का फल है जो शिवजी प्रलय में जटा को बिखेर कर, त्रिशूल की नोक से दिग्गजों को छेद देते हैं और अस्त्र शस्त्र उठाए ऊँचे अट्टाहास से दिग्गजों को विदीर्ण करते हैं, भयंकर दाढ़ों से तारागणों को नष्ट करते हैं, वैसे तेजयुक्त शिवजी को कोपायमान करके क्या ब्रह्मा भी सुख पा सकता है ? इस प्रकार यज्ञ में महात्मा लोग उदास हो बातचीत कर रहे थे कि हजारों उत्पात होने लगे।
हे विदुर ! उसी क्षण अस्त्र शस्त्र लिये काले-पीले स्वरूप किये अनेक प्रकार के शरीर वाले शिव गणों ने दक्ष प्रजापति के यज्ञ को घेर लिया। किसी ने तो यज्ञस्तम्भ उखाड़ डाला और किसी ने पत्नीशिला को नष्ट कर दिया, किसी ने क्रीड़ा स्थान, किसी ने भोजन शाला को विध्वंस कर दिया। कितनों ने यज्ञपात्र तोड़ डाले, कितनों ने अग्नि को बुझा दिया, बहुतों ने कुण्डों में मूत्र कर दिया और कितनों वेदी और मेखला को तोड़ डाला। भृगु को मणिमान ने बांध लिया, दक्ष को वीरभद्र ने, पूषादेव को चण्डीश्वर ने, भगदेव को नन्दीश्वर ने पकड़ लिया।
महादेवजी के गण और पार्षदों ने पत्थरों से ऋत्विज, सभासद सबको मारा जिससे वे भाग गये। स्स्रुवा हाथ में लिये पूर्ववत यज्ञनाशकों को निवारण करते भृगु ऋषि की मूँछ दाढ़ी को वीरभद्र ने उखाड़ लिया, क्योंकि शिव शाप के समय भृगु दाढ़ी दिखाकर हंसे थे। वीरभद्र ने क्रोध से भृगु को पृथ्वी पर पटक कर नेत्र निकाल लिये क्योंकि उसने शिवजी की निन्दा करते हुए दक्ष को नेत्रों से इशारा किया था। जो निन्दा करते हुए दक्ष के सम्मुख दाँत दिखाकर हँसे थे उनके दाँत उखाड़ लिए।
अनन्तर दक्ष की छाती पर चढ़ शस्त्रों से वीरभद्र उसका सिर काट न सके । जब शस्त्रों से दक्ष का शिर न कट सका तब वीरभद्र को विस्मय हुआ। फिर वीरभद्र ने देखा कि यज्ञ में जो पशु मारा जाता है उसे गला घोंटकर मारते हैं, यह विचार कर कण्ठ मोड़कर दक्ष का सिर देह से पृथक कर दिया। फिर दक्ष सिर को नारियल की तरह स्वाहा किया। फिर वीरभद्र क्रोधित होकर उस यज्ञ स्थान को तोड़-फोड़ अग्नि से जलाकर अपनी सेना साथ ले कैलाश पर्वत को चले गये।
।। देवताओं का शिवजी के पास जाना और यज्ञ सम्पूर्ण करना ।।
मैत्रेयजी बोले कि - हे विदुर ! जब देवगण शिवजी के गणों से पराजित हुए, तब भय से व्याकुल होकर ऋत्विज और सभासदों को साथ ले ब्रह्माजी के समीप जा सब वृतान्त कहकर सुनाया। देवताओं के कहे हुए वृतान्त को सुन ब्रह्माजी कहने लगे कि हे देवताओं ! जो तेजस्वी पुरुष किसी का बिगाड़ करे तो उचित है कि उससे बदला लेने की इच्छा न करे। तुमने यज्ञ में भाग लेने वाले शिवजी को भाग से दूर किया है इससे तुम अपराधी हो।
यदि यज्ञ सन्धान करने की इच्छा होतो अब भी शुद्ध चित्त होकर शिवजी को शीघ्र प्रसन्न करो। उन शिवजी के तत्व को न तो मैं जानता हूँ, न तुम लोग जानते हो । ब्रह्माजी इस प्रकार देवताओं को आज्ञा देकर उनको और प्रजापतियों को साथ लेकर महादेव जी के निवास स्थान पर्वतराज कैलाश को चले।
वहाँ उन्होंने देखा कि निर्मल झरने झर रहे चे, कन्दरायें और शिखर शोभा दे रहे थे, सिद्धजनों की स्त्रियाँ अपने पतियों के साथ विहार कर रही थीं और पवित्र जल वाली नन्दनाम गंगा चारों ओर बह रही थी। श्रीशिवजी के कैलाश पर्वत को देख देवता लोग आश्चर्य को प्राप्त हुए। उसके समीप कुबेर की अलकापुरी को देखा और कमलों के वन को देखा जिस वन में सौगन्धिक नाम के कमल खिल रहे थे।
उस वन से आगे चलकर एक वट-वृक्ष को देखा। वह वृक्ष सौ योजन ऊँचा और तीन सौ कोस के विस्तार बाला था उसकी सघन छाया सूर्य के उदय और अन्त के समय तक कभी हटती नहीं थी और जिसमें किसी पक्षी का घोंसला नहीं था। वट के नीचे शिवजी को देवताओं ने देखा।
वहाँ सनन्दन आदिकगण शिवजी की सेवा कर रहे थे और कुबेर सिर झुकाये उपासना कर रहा था। ब्रह्मादिक देवताओं ने महादेवजी का दर्शन कर हाथ जोड़कर नमस्कार किया। ब्रह्माजी को आये देखकर शीघ्र उठकर शिवजी के जो समीप बैठे थे उन्होंने उठकर ब्रह्माजी को प्रणाम किया।
तदनन्तर ब्रह्माजी महादेवजी से हँसते हुए बोले - ईश्वर ! आपको मैं जानता हूँ कि शुभ करने वाले को नरक देने वाले आप ही हो, फिर किस कारण किसी पुरुष को विपरीत फल मिल जाता है। जो आपके ही चरणों में मन को अर्पण करते हैं, ऐसे महात्माजनों का भी अज्ञानियों को भी पराभव नहीं हो सकता, तब आपकी तो बात ही क्या है।
जिस समय भगवान की माया से मोहित जन महात्मा पुरुषों का अपराध भी करते हैं तो वे महात्मा उस अपराध को प्रारब्ध का फल समझ उनके ऊपर दया ही रखते हैं। हे रुद्र ! यज्ञ कराने वाले मूखों ने आपको यज्ञ में भाग नहीं दिया, इसलिए दक्ष का यज्ञ समाप्त नहीं हुआ। अब आप मेरे उस दक्ष के यज्ञ का उद्धार करो ।
तब शिवजी ने कहा- हे ब्रह्माजी मैं क्या करूँ ? तब ब्रह्माजी ने कहा कि हे शिव ! प्रथम तो दक्ष जी जावे और भृगु के नेत्र हो जावें, भृगु के दाढ़ी हो जावे, पूषा के दाँत पहले की नांई हो जावें। हे मनु ! छिन्न-भिन्न अंग वाले देवता तथा ऋत्विजों के दुःख आपकी कृपा से दूर हो जावें । तब शिवजी ने कहा कि हे पितामह ! कुछ मेरा भी ध्यान है।
तब ब्रह्माजी कहने लगे - हे रुद्र ! इस यज्ञ में जो शेष भाग बचेगा, वह आपका होगा ये सब स्वीकार करते हैं । इस समय यह यज्ञ पूर्ण होना चाहिए ।
तब महादेवजी ने प्रसन्न होकर कहा- हे ब्रह्माजी, सुनिए । जो दक्ष का सिर भस्म हो गया है अब वो सिर तो कहाँ से आवेगा ? दक्ष का सिर बकरे का लगाया जावे और भृगु के जो नेत्र निकाले गए हैं सो भृगु अपने भाग को मित्र देवता के नेत्रों से देखे और पूषा यजमानों के दाँतों से पिसा हुआ अन्न भोजन किया करे, और जिन देवताओं ने हमें शेष भाग दिया है उनके अंग पूर्ण हो जायेंगे। और जिनके सब अंग नष्ट हो गए थे, उनकी बाहु का काम अश्विनीकुमार की भुजाओं से और हाथ का पूषा देवता के हाथों से हुआ करेगा और अर्घ्य और ऋत्विज जैसे प्रथम थे वैसे ही हो जायेंगे और भृगुजी की अब वो दाढ़ी तो होने से रही परन्तु बकरे की दाढ़ी होवेगी।
मैत्रेय जी बोले कि हे तात ! शिवजी के वचन सुन सब प्रसन्न हो धन्यवाद देने लगे। फिर देवता और मुनियों ने शिवजी की प्रार्थना की, कि आप चलिये और यज्ञ पूर्ण कीजिए। तब शिवजी ब्रह्मा जी को साथ ले यज्ञशाला में आ पहुँचे और यज्ञ को पूरा किया। यज्ञ में बकरे का सिर काटकर दक्ष के धड़ से जोड़ दिया गया। सिर रखते ही शिवजी ने दक्ष की ओर देखा तो देखते ही प्रजापति उठ बैठा और निष्कपट अन्तःकरण से महादेव की स्तुति करने लगा।
दक्ष बोले- हे भगवान ! मैंने आपका अपमान किया था, तो भी आपने कृपा की जो मुझको दंड दिया। विद्या, तप और व्रतधारी ब्राह्मणों को आपने अपने मुख से उत्पन्न किया है। इसलिए हे विभो ! आप विपत्तियों में ब्राह्मणों की रक्षा करते हो। मैंने जो देव सभा में दुर्वचनों से आपको दुःखित किया था, तो भी आपने उस दुःख को नहीं माना मुझको दया दृष्टि से बचाया।
हे भगवान ! अपने अनुग्रह से स्वमेव सन्तुष्ट हो। दक्ष ने अपने अपराधों को क्षमा कराने को शिवजी से प्रार्थना की और ब्रह्माजी की सम्मति से फिर यज्ञ कर्म का प्रारम्भ किया । और भगवान के समीप जा दक्ष ने सब पूजन की सामग्री, स्वप्न, सुषुप्ति, तीनों अवस्थाओं से रहित हो अपने स्वरूप में स्थिर, अद्वितीय, एक आप ही हो, माया का तिरस्कार कर स्वाधीन होने पर भी मनुष्य देहधर मायारूपी नाटक रचते हो, परन्तु आप निर्विकार तथा निर्लेप हो ।
सब ऋत्विज स्तुति करने लगे - हे भगवान! नन्दीश्वर के शाप से दुराग्रह रखने वाले हम आपके तत्व को नहीं जानते, ये इन्द्रादि देवता सब आपके ही रूप हैं परन्तु आपके तत्व को फिर भी नहीं जानते हैं।
फिर सभासद स्तुति करने लगे कि - हे शरणागत रक्षक ! यह संसार महाकठिन पंथ है जिसमें अनेक क्लेश हैं। शिवजी बोले- हे मुनियों ! आदरपूर्वक पूजन करने योग्य मुझको यद्यपि मूर्ख लोग आचार भ्रष्ट कहते हैं, तथापि आपकी कृपा से उस कहने को मैं नहीं गिनता। श्री भृगुजी स्तुति करने लगे - हे भगवान ! आत्मज्ञान वाले ब्रह्मादिक देहधारी भी अपनी आत्मा में स्थिर हुए आपके स्वरूप को अब भी नहीं जानते, सो कृपा करो।
ब्रह्माजी बोले- पदार्थों के भेद को जानने वाली इन्द्रियों से जो कुछ ग्रहण किया जाता है वह आपको सत्य स्वरूप नहीं है। इन्द्रजी बोले- हे अच्युत ! विश्वपालक ! असुर वंश के नाश करने वाले अस्त्रों सहित आपका अष्ट भुजा रूप जगत का उत्पादन तथा पालन करने बाला है।
>ऋषि जों की स्त्रियाँ स्तुति करने लगीं - हे यज्ञयात्मन ! यज्ञ केवल आप ही के पूजन के अर्थ प्रजापति ने रचा था, सो दक्ष पर कोप करके इस समय विध्वंस कर दिया है, इसलिए आप अपनी पावन दृष्टि से पवित्र करें।ऋषि तथा सब सिद्ध लोग स्तुति करने लगे - दुःख से दग्ध हुआ और तृष्णा से पीड़ित हमारा मन आपकी कथा में प्रवेश होकर शान्त होकर सायुज्य मुक्ति होने के समान प्रतीत होता है। दक्ष की स्त्री प्रसूति स्तुति कहने लगी - हे ईश्वर ! मैं आपको प्रणाम करती हूँ, आप मेरी रक्षा करें। आपके बिना यह यज्ञ शोभा नहीं देता था।
सब योगेश्वर बोले- हे प्रभो ! हे विश्वात्मन जो पुरुष अपनी आत्मा से आपको पृथक नहीं देखता है, उससे प्यारा आपको कोई नहीं है तो भी हे भक्तवत्सल ! अनन्य भक्ति से भजन करने वाले हम पर कृपा करो।
अग्निदेव बोले- हे प्रभो ! जिस तेज से अति समृद्धि से यज्ञ में टपकते हुए घृत को धारण कर सब देवताओं को उनके भागों को पहुँचाया करता हूँ, उन यज्ञों के रक्षक भगवान को मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ।
देवता बोले - पूर्व कल्प के अन्त में रचे हुए जगत को उदर में धारण कर आप आद्य पुरुष प्रलय के जल में शेष-शय्या पर सोये सो भगवान हमारे नेत्रों के आगे आये हो, यह हम पर बड़ा अनुग्रह किया। हे देव ! ये मरीचि आदि ऋषि, ब्राह्मण, रुद्र, शिवा इत्यादि देव आपके अंश हैं। हे नाथ ! आपको हम प्रणाम करते हैं।
तदनन्तर सब ब्राह्मण स्तुति करने लगे कि प्रभो! यज्ञ, हवि, अग्नि, मंत्र, समिधा, दर्भ, पात्र, सभासद, ऋत्विज, यजमान, यजमान की स्त्री, देवता, अग्निहोत्र, स्वधा, सोमघृत, यज्ञ पशु यह सब आप ही हो, ऐसे आपको नमस्कार है।
मैत्रेयजी कहने लगे - हे विदुर ! भगवान की जब इस प्रकार स्तुति की गई तब दक्ष प्रजापति ने फिर यज्ञ प्रारम्भ किया और भगवान अपने भोग से प्रसन्न हो दक्ष से बोले - हे दक्ष ! मैं ही अपनी माया को धरकर इस जगत को रचता, पालता, संहार करता हूँ।
हे ब्रह्मन् ! हम तीनों देवों के जो पुरुष भेद नहीं समझता है वह शान्ति को प्राप्त होता है । मैत्रेयजी बोले, जब भगवान ने दक्ष को उपदेश किया तब प्रजापति ने अपने यज्ञ में प्रथम भगवान का पूजन कर फिर सब देवताओं का भी पूजन किया। फिर यज्ञ के अवशेष भाग से महादेवजी का पूजन किया। फिर समाप्ति करके सोमपान करने बाले देवताओं का पूजन कर ऋषि जों सहित देवताओं को विदा किया। दक्ष को धर्म में बुद्धि रहने का वरदान देकर सब देवता अपने लोकों को चले गये।
दक्ष कन्या सती जी अपने शरीर को छोड़कर फिर हिमालय की स्त्री मैना के उदर से प्रकट हुई, ऐसा हमने सुना है। फिर भी वह अम्बिका महादेव पति को प्राप्त हुई। दक्ष यज्ञ को विध्वंस करने वाले महादेवजी का यह चरित्र मैंने श्री उद्धव के मुख से श्रवण किया था।
हे विदुर ! जो पुरुष यह नित्यप्रति भक्तिभाव से सुनकर दूसरों को सुनाता है, वह शिवजी की भक्ति के प्रभाव से तब पापों से छूट जाता है।
।। ध्रुव चरित्र ।।
दक्ष कन्याओं के वंश कहने के प्रसंग से दक्ष की कथा कही । अब पुत्रियों के वंश के प्रसंग में होने वाली ध्रुवजी की कथा वर्णन करते हैं।
मैत्रेयजी बोले- शौनकादि ऋषि श्री नारदजी, ऋभु, हंस, आरुणि और यति इन ब्रह्माजी के पुत्रों ने नैष्ठिक ब्रह्मचारी होने से गृहस्थाश्रम नहीं किया, अतएव इनसे वंश नहीं चला। ब्रह्माजी का पुत्र अधर्म भी था उसकी मृषा नामक स्त्री से दम्भ नामक पुत्र और माया नाम की कन्या हुई। उन बहन भाई को पति पत्नी बना कर मृत्यु ने गोद ले लिया।
उसके कोई सुत और निकृति नामक कन्या हुई। लोभ की निकृति नाम स्त्री से क्रोध नाम सुत और हिंसा नाम कन्या हुई । क्रोध से हिंसा नाम स्त्री से कलिनाम सुत और दुरुक्ति नामक कन्या हुई । कलि की दुरुक्ति नामक स्त्री से भय नाम सुत और मृत्यु नाम पुत्री हुई। भय की मृत्युनाम स्त्री से निरय नाम पुत्र और यातना नामी पुत्री हुई।
हे अनघ ! संक्षेप में यह प्रतिसर्ग वर्णन किया है, जो कोई पुरुष तीन बार इस अधर्म वंशावली को सुने उसके शरीर के सब मैल दूर हो जाते हैं।
हे कुरुकुल नन्दन ! अब ब्रह्माजी के अंश से उत्पन्न हुए स्वायम्भुवमनु के प्रियव्रत और उत्तानपाद नाम दो पुत्र हुए। राजा उत्तानपाद को सुनीति प्यारी नहीं थीं। सुरुचि राजा को बहुत प्यारी थी। सुनीति का पुत्र ध्रुव था। एक समय राजा सुरुचि के पुत्र को पिता की गोदी में चढ़ते देख अभिमानयुक्त होकर सुरुचि ईर्षा भरे वचन कहने लगी।
सुरुचि बोली- हे वत्स ! तुम राजसिंहासन पर बैठने योग्य नहीं हो, क्योंकि हमारी कुक्षि से तुमने जन्म नहीं लिया है। अपनी सौतेली माता के इन दुर्वचनों से बिंधा हुआ, मौन साधे अपने पिता को छोड़ रोता हुआ ध्रुव माता सुनीति के समीप गया। अपने पुत्र को दुःखी देख कर माता सुनीति ने दौड़कर गोद में उठा लिया और सौत के कहे पुरवासियों के मुख से वचन सुनकर वह अबला दुःखित हो नेत्रों से आँसुओं की धारा बहाने लगी।
अबला सुनीति पुत्र से कहने लगी- हे बेटा ! जो औरों को दुःख पहुँचाता है उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है। हे पुत्र ! हमारी सौत ने जो कहा है सो सत्य है, उसे तुम त्यागकर धैर्य धारण करो। जो तुम उत्तर की नांई राज्य सिंहासन की इच्छा करते हो तो भगवान की आराधना करो। इस प्रकार माता के वचनों को सुन वहाँ ध्रुव जी पुर से बाहर चल दिये।
नारद जी यह बात सुनकर आए और उसकी अभिलाषा को जान उसके सिर पर अपना हाथ धरकर आश्चर्यपूर्वक बोले- हे राजकुमार अभी तुम माता के कहने से अपमान का मानना अज्ञान ही से है। तुम माता के कहने से परमात्मा को प्रसन्न करने जाते हो जिसे मुनि लोग ढूँढ़ते हैं। इस कारण हठ छोड़ो, वृद्धावस्था में तप के लिए यत्न करोगे तो सफल होगा।
जिसके भाग्य में जो दिया है उसी प्रारब्ध से मिले हुए सुख दुःख से प्रसन्न रहकर मनुष्य मोक्षफल को प्राप्त होता है। यह सुनकर ध्रुवजी बोले कि आपने यह शान्ति मार्ग दिखाया है जो हम सरीखे को देखना कठिन है। तो भी क्षत्रिय स्वभाव वाले के हृदय में यह ठहर नहीं सकता, क्योंकि मेरा हृदय सुरुचि के दुर्वचनों सेबिंधा पड़ा है। हे ब्रह्मन् ! जहाँ हमारे पितर और अन्य कोई आज तक न गये हों ऐसे त्रिभुवन पद को जीतने का मेरा मनोरथ है, सो मुझे वह मार्ग बताइये। निश्चय ही आप ब्रह्मा जी के पुत्र हो और संसार के हित के हेतु विचरते रहते हो। फिर मेरे ही लिए आप संसार में क्यों फाँसते हो ?
मैत्रेयजी बोले - ध्रुव जी के वचन सुनकर नारदजी प्रसन्न हुए और उनसे स्नेहमय वचन कहे। तुम्हारी माता ने जो मार्ग बताया है, वह निश्चय ही मोक्ष देने वाला और भगवान से मिलाने वाला मार्ग है। हे पुत्र ! यमुना जी के किनारे पवित्र मधुवन क्षेत्र है, वहाँ जाकर स्नान कर निवास करो और पूरक, कुम्भक, रेचक वृत्ति वाले प्राणायाम से शनैः-शनैः प्राण, इन्द्रिय और मन के मैल को दूर करके श्रीकृष्ण भगवान का ध्यान करो।
इस प्रकार भगवान के स्वरूप को ध्यान करते हुए मन परमानन्द को प्राप्त कर और विषयों से निवृत्त होकर भगवान के चरणों में लग जाता है। हे राजपुत्र ! परम गुप्त मंत्र मुझसे सुनो, जिसको मनुष्य सात रात्रि जपने से आकाश में विचरते हुए देवताओं को देखता है - 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इस मंत्र को जपकर भगवान की पूजा करे।
इस प्रकार काया, वाणी, मन से भगवान की भक्ति करो। निष्कपट भाव से भजन करने वाले पुरुष को सम्यक भक्ति को बढ़ाने वाले भगवान उसी समय फल देते हैं। ये वचन सुनकर ध्रुव नारदजी की परिक्रमा और प्रणाम करके भगवान के चरणों से शोभित मधुवन को चल दिये।
ध्रुवजी के चले जाने पर नारद मुनि राजा उत्तानपाद के अन्तःपुर में प्रविष्ट हुए। राजा ने मुनि का सत्कार किया। विराजमान होकर नारदजी बोले- हे राजन्! आपको क्या सोच है। तब यह सुनकर कि पाँच वर्ष के अपने बालक को माता सहित घर से निकाल दिया है।
हे ब्रह्मन् ! उस अनाथ बालक को वन में कहीं भेड़िये तो नहीं खा जायेंगे ? यह सुनकर नारद जी बोले- हे राजन् ! पुत्र का सोच मत करो। भगवान उसके रक्षक हैं। उसका यश सम्पूर्ण जगत में फैलेगा। मैत्रेयजी बोले- इस प्रकार सुनकर राजा उत्तानपाद पुत्र की चिन्ता करने लगा।
ध्रुव जी मधुवन में पहुँचकर यमुना में स्नान कर शुद्ध हुए। जिस रात्रि वहाँ पहुँचे थे, उसी रात्रि में व्रत धारण कर भगवान की सेवा करने लगे। अब ध्रुवजी के तप करने की विधि कहते हैं - प्रथम मास में तीन-तीन रात्रि के बीते एक समय कैथ या बेर का भोजन करते हुए भगवान की पूजा करते हुए महीना व्यतीत किया।
दूसरे महीने में ध्रुव, छटे-छटे दिन टूटकर गिरे तृण व पत्तों को खाकर भगवान का पूजन करने लगे। तीसरे मास में नवें-नवें दिन जल- पान मात्र करके भगवान का पूजन करते रहे। चौथे महीने में बारहवें-बारहवें दिन केवल पवन भक्षण करके ध्रुवजी ने हृदय में भगवान को धारण किया।
फिर जब पाँचवे महीने ध्रुवजी श्वांस को रोककर एक पाँव से अचल हो परमेश्वर का ध्यान करने लगे तथा सब ओर से मन को खींचकर हृदय में भगवान का स्मरण करने लगे तो ध्रुवजी परमेश्वर में लीन हो गये। प्रकृति और पुरुष के ईश्वर की जब ध्रुवजी ने धारणा की तब तीनों लोक कांपने लगे।
देवता भगवान विष्णु से बोले - हे भगवान! प्राणियों का श्वांस रुकना हमने नहीं देखा, इसका कारण नहीं जाना, हे शरणागत वत्सल! इस कलेश से हमें छुड़ाओ । श्री भगवान बोले- हे देवताओं! भय मत करो, तुम्हारे प्राण रुकने का कारण ध्रुव है सो उस बालक के मारने से तुम्हारा कल्याण होगा।
।। नारायण से बर पाकर ध्रुव का अपने देश में जाना और पिता से प्राप्त राज्य का पालन करना ।।
मैत्रेयजी कहने लगे - हे विदुर ! भगवान के वचन से निर्भय होकर देवता प्रणाम कर स्वर्ग चले गए और भगवान भी उसी समय ध्रुव को देखने को मधुवन पधारे। ध्रुवजी नेत्र मूँदे ध्यानमग्न थे। ध्रुव की समाधि को तोड़ने के लिए भगवान ध्रुव के हृदय से अन्तर्ध्यान हो गये। ध्रुव ने भगवद् रूप को न देखा तब नेत्र खोले, तब साक्षात् चतुर्भुज भगवान को देखा। दर्शन करते ध्रुव ने अपने शरीर को पृथ्वी की ओर झुककर दण्डवत प्रणाम किया।
प्रेम में गद्गद् बालक भगवान की स्तुति करने लगा। शक्तियों को धारण करने वाले भगवान मेरे अन्तःकरण में अपनी चैतन्य शक्ति से मेरी बाणी चेतन करते हैं और प्राणों को चेतन करते हैं। ऐसे भगवान को मेरा नमस्कार है। हे प्रभो! मैं इतना चाहता हूँ कि आपकी भक्ति बनी रहे और इस भवसागर को मैं बिना परिश्रम ही पार कर सकूँ।
तब भगवान ध्रुवजी की प्रशंसा करके बोले - हे राजकुमार ! तुम्हारे मनोरथ को मैं जानता हूँ। हे ध्रुवजी ! जो आज तक किसी को न मिला हो वह मंगल पद तुम्हें देता हूँ। त्रिलोकी के नाश होने से भी नाश नहीं होता, ऐसे स्थान की धर्म, अग्नि, कश्यप, इन्द्र, सप्तऋषि सब तारा रूप से प्रदक्षिणा करते हैं।
अब तुम अपने नगर को जाओ, तुम्हारा पिता तुमको राज्य देकर वन को चला जायेंगे। तब धर्म के अनुसार छत्तीस हजार वर्ष भू-मण्डल का राज्य करोगे । तुम्हारा भाई उत्तम मृगया खेलने में मारा जायेगा, उसकी माता ढूँढ़ने को वन में जायेगी, वहाँ अक्समात लगे दावानल में भस्म होकर प्राण त्याग देगी।
तुम बहुत दक्षिणा से युक्त यज्ञों में मुझे पूजकर संसार भोग को भोगकर अन्त में हमारा स्मरण करोगे। इस प्रकार भगवान अपना पद दिखा अपने धाम को चले गए। ध्रुव भगवत दर्शन के वियोग से दुःखी हो अपने नगर को चला।
विदुरजी पूछने लगे कि हे मैत्रेयजी! मुझको आश्चर्य है कि जो कठिन है। उस विष्णु पद को एक ही जन्म में प्राप्त होकर ध्रुव ने अपने को मनोरथ सहित क्यों माना ? यह सुनकर मैत्रेयजी बोले - सौतेली माता की बातों से बिंधे हुए ध्रुवजी ने भगवान से मुक्ति की इच्छा नहीं की थी इसलिए ध्रुवजी सन्तान को प्राप्त हुए।
ध्रुवजी बोले- जो कि सनक आदिक ब्रह्मचारी समाधि लगा अनेक जन्मों में जिस परमेश्वर के पद को जान सकते हैं, सो छः महीने के तप से उन भगवान को प्राप्त होकर मैं फिर संसार में रहा। अहो! यह बड़े कष्ट की बात है। भगवान तो मुझको अपना परमधाम देते थे, परन्तु मुझ भाग्यहीन ने अपनी मूर्खता से मान याचना की।
मैत्रेयजी बोले- हे विदुर! आप सरीखे भी भगवान के सेवक हैं, वे मनुष्य श्री भगवान से किसी पदार्थ की इच्छा नहीं करते क्योंकि बिना मांगे ही उनको मनोभिलाषित पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं। मधुवन से चलकर जब ध्रुवजी अपने नगर में पहुँचे तो दूत द्वारा राजा उतानपाद को समाचार मिला कि आपका पुत्र आया है।
ब्राह्मणों द्वारा वेद ध्वनि कराते राजा की दोनों रानियाँ और राजा, पुत्र ध्रुव को देखने नगर से बाहर निकले। राजा की दोनों पटरानी पालकी में बैठ उत्तम को साथ लिए ध्रुव को लेने गईं। ध्रुव को देखकर राजा रथ से उतर प्रेम से पुलकायमान हो ध्रुव के पास पहुँचा। मन में अत्यन्त उत्कण्ठा से राजा ध्रुव को भुजा पसार कर मिला।
फिर पुत्र के सिर को बारम्बार सूंघकर राजा ने अपने नेत्रों के जल से पुत्र को स्नान कराया। ध्रुव जी ने पिता के चरणों में सिर झुका प्रणाम किया कि माता ये सब तेरा ही प्रताप है। सुरुचि ने चरणों में पड़े ध्रुव को उठा हृदय से लगाकर नेत्रों से आँसू बहा गद्गद् वाणी से कहा कि हे बेटा ! सन्देह नहीं करना कि सुरुचि ने ये आशीर्वाद कैसे दिया।
कारण यह है कि जिसके ऊपर भगवान प्रसन्न हो जाते हैं उसको सब नमस्कार करते हैं। उत्तम और ध्रुव प्रेम में विह्वल हो अंग स्पर्श से रोमांचित हो नेत्रों से आँसुओं की धारा बहाने लगे। ध्रुव की माता सुनीति ने अपने प्यारे पुत्र से मिलकर हृदय के ताप को शान्त किया। ध्रुव की माता के स्तनों से दूध टपकने लगा और नेत्रों से जल बहने लगा। उस समय सुनीति की सब सराहना करने लगे, कि अहो! तुम्हारा अब कहो भाग्य है जो गुप्त हुआ तुम्हारा पुत्र आ गया।
अब यह सम्पूर्ण भू-मण्डल की रक्षा करेगा। इस प्रकार ध्रुव को उत्तम के साथ हथिनी पर बिठाकर राजा उत्तादनपाद ने अपने नगर में प्रवेश किया। महाराज ध्रुव को मार्ग में नगर की स्त्रियाँ सरसों, अक्षत, दूध, फूल को थाल में रखकर भेंटने को आती थीं। पितृ भवन में ध्रुव जी सुखपूर्वक रहने लगे। उत्तादनपाद अपने सुत के अद्भुत प्रभाव को कानों से सुन और आँखों से देख परम आश्चर्य को प्राप्त हुआ और ध्रुवजी को राज्यतिलक दे अपने को वृद्ध जान वन को तप करने के निमित्त चल दिया।
।। यक्षगणों के साथ ध्रुव का युद्ध ।।
प्रजापति शिशुकुमार की कन्या से ध्रुवजी ने विवाह किया। उसके कल्प और वत्सर दो पुत्र हुए। दूसरी स्त्री इलावायु से कन्या के उत्कल पुत्र हुआ, अन्य स्त्रियों से रत्न रूप एक कन्या उत्पन्न हुई। ध्रुव के भाई उत्तम ने विवाह नहीं किया। एक दिन वह हिमालय के भीतर आखेट को गया। वहाँ एक यक्ष ने उसे मार डाला और उसकी माता उसी के समान गति को पाकर मर गई।
ध्रुव जी ने अपने भाई उत्तम का मारा जाना सुनकर शोक से संतप्त हो यक्ष को जीतने के हेतु अलकापुरी पर चढ़ाई की। ध्रुवजी ने अपना शंख बजाया जिससे यक्षों की स्त्रियाँ भयभीत हो गईं। तदनन्तर ध्रुवजी के शंख का शब्द सुन कुबेरजी के बलवान, उपदेश, महाभट, गुह्यक, राक्षस और गन्धर्व अपने-अपने शस्त्र उठाकर निकले।
तब ध्रुव ने धनुष हाथ में लेकर एक-एक यक्ष के तीन तीन बाण मारे। सब यक्ष बाण लगने से अपने को पराजित हुआ मान ध्रुवजी के युद्ध कर्म की प्रशंसा करने लगे। फिर एक लाख तीस हजार यक्षों ने ध्रुवजी पर बाणों की झड़ी लगा दी। उस समय विमानों पर बैठे सिद्ध लोगों ने बड़ा हा-हाकार किया कि हाय! यह राजा यक्षों से मर रहा है। तदनन्तर युद्ध में जब लोग जय-जय उच्चारण करने लगे, उस समय ध्रुवजी का रथ शस्त्रों से ऊपर आकर प्रकाशमान हुआ।
तब अपने धनुष को टंकारते हुए ध्रुवजी ने अपने बाणों से उनके शस्त्रों को चूर्ण कर दिया। ध्रुवजी के बाण यक्षों के कवच को काटकर शरीर में छिद गये। आहत मनुष्यों से आच्छादित रणभूमि अत्यन्त शोभा देने लगी। ध्रुवजी ने जब उस संग्राम में किसी शस्त्रधारी को न देखा तब अलकापुरी को देखने की इच्छा की।
सारथी से पूछा, तेरी क्या इच्छा है ? सारथी ने कहा हे नाथ! भूल न कीजिए, यह यक्ष लोग बड़े मायावी हैं। ध्रुवजी इस प्रकार अपने सारथी से कह रहे थे कि अनायास समुद्र के समान शब्द सुनाई देने लगा और सब दिशाओं में आँधी की सी धूल उड़ने लगी फिर क्षणमात्र में आकाश मेघों से आच्छादित हो गया, बिजली चमकने लगी, बादल गरजने लगा। कुछ देर उपरान्त रुधिर, खखार, पीव, विष्ठा, मूत्र, चर्बी, माँसादिक की वर्षा होने लगी।
तदनन्तर आकाश में बड़ा भारी पर्वत दिखाई दिया, फिर उससे गदा, परिघ, खङ्ग, मूसल सहित पत्थरों की वर्षा होने लगी। सहस्त्रों सर्प, मतवाले हाथी, सिंह, व्याघ्र ये दौड़ते ध्रुवजी के सम्मुख आने लगे। तदनन्तर समुद्र पृथ्वी को डुबाता हुआ आता दीखा। कायर पुरुषों को त्रास देने वाली इस माया को यक्षों ने रचा। तब उस मायाओं को देख कर सप्त ऋर्षि वहाँ आये। वे आकर ध्रुवजी से बोले कि हे ध्रुव ! जिन भगवान का नाम उच्चारण करने से मनुष्य भवसागर पार हो जाता है उन्हीं भगवान का स्मरण करो वही दुःख दूर करेंगे।
सप्तर्षियों का वचन सुनकर ध्रुवजी ने नारायण अस्त्र का सन्धान किया । नारायण अस्त्र का संधान करते ही सम्पूर्ण माया नष्ट हो गई। उस नारायण अस्त्र में से सुवर्णमय पंखों वाले बाण निकल कर यक्षों की सेना में प्रवेश करने लगे। तब मनुजी सप्तर्षियों सहित ध्रुवजी के समीप आकर बोले- हे पुत्र ! बस करो इस क्रोध को त्याग कर दो, हे पुत्र ! यह हमारे कुल योग्य कर्म नहीं है।
हे भ्रातृ-वत्सल ध्रुव! एक यक्ष के अपराध से भाई के मारे जाने से दुःखी होकर तुमने सहस्त्रों यक्ष मार डाले यह भगवान के भक्तों का यह मार्ग नहीं है। भगवान के भक्त तो सब प्राणियों में क्षमा, दया, मित्रता रखने से प्रसन्न होते हैं। भगवान के प्रसन्न होने पर पुरुष माया के गुणों से छूट जीवन्मुक्त हो ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। पंच महाभूतों से ही यह सब स्त्री पुरुषों की उत्पत्ति होती है।
हे पुत्र! ये यक्ष तुम्हारे भाई को मारने वाले नहीं हैं। तात! इस पुरुष की मृत्यु और जन्म का कारण परमेश्वर है। पुत्र ! जब तुम पांच वर्ष के थे तब अपनी सौतेली माता के वाक्यों से विचलित हो माता को त्याग वन में जाकर भगवान का आराधन कर दर्शन किया और सर्वोच्च पद को प्राप्त हुए। हे पुत्र ! विरोध त्यागकर परमात्मा को सम्यक दृष्टि से ढूंढो। देखो अब तुम दिव्य दृष्टि से भगवान में परम भक्ति करके 'मेरा है' 'मैं हूँ' ऐसे अहंकार को धीरे- धीरे काटो ।
हे ध्रुव ! तुमने अपराध किया है। अतः कुबेर जी को प्रणाम करके अपने मधुर वचनों से प्रसन्न करो। इस प्रकार स्वायम्भुमनु अपने पौत्र को उपदेश देकर सातों ऋषियों के साथ अपने पुर को चले गए।
।। ध्रुव का विष्णु धाम में आरोहण ।।
ध्रुवजी की वृत्ति जानकर कुबेरजी वहाँ आये और हाथ जोड़े ध्रुवजी को देखा। कुबेर बोले - हे क्षत्रिय पुत्र तुमने आज्ञा से बैर को त्याग दिया अब तुम मुझसे वरदान मांगो । कुबेर ने ध्रुवजी को जब वरदान देने को कहा तो ध्रुवजी ने वर माँगा कि भगवान में हमारी स्मृति बनी रहे। श्री कुबेर और ध्रुवजी भी नगर को लौट आए।
फिर ध्रुवजी ने यज्ञों से यज्ञपति भगवान का पूजन किया। भगवान में भक्तिरत हुए ध्रुवजी अपनी आत्मा में विराजमान परमात्मा को देखने लगे। छत्तीस हजार वर्ष पर्यन्त ध्रुवजी ने राज किया। संसार अनित्य है, ऐसा जानकर ध्रुव बद्रिकाश्रम को चले गये। वहाँ हरि के विराट स्वरूप में मन लगाया और समाधि में स्थित हो शरीर को छोड़ दिया। उस समय ध्रुवजी ने एक उत्तम विमान देखा, उस विमान के पीछे पार्षद नन्द-सुनंद देखे। ध्रुवजी झट उठ खड़े हुए और पूजा का क्रम भूलकर केवल भगवान के नामों का उच्चारण कर उनको पार्षद जान हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगे।
ग्रीवा नीचे किये, ध्रुव जी के निकट जाकर सुनन्द और नन्द दोनों ने कहा हे राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो हमारा वचन सुनो, हम भगवान के पार्षद हैं, तुमको परमधाम ले जाने को हम आये हैं । उस सर्वोच्चपद पर चलकर तुम विराजमान होओ । ध्रुवजी ने पार्षदों की वाणी सुन, स्नान कर, कृत्य से निश्चिन्त हो, मांगलीक अलंकार धारण कर मुनियों से आशीर्वाद ले, उस विमान की पूजा और प्रदक्षिणा कर, पार्षदों को प्रणाम कर उस विमान पर चढ़ने की इच्छा की।
उसी समय मृत्यु उपस्थित हुआ और ध्रुव जी को नमस्कार कर बोला कि महाराज मुझे अंगीकार करो। तब ध्रुवजी मृत्यु के मस्तक पर चरण टेक, उस विमान पर बैठे। जब ध्रुव जी स्वर्ग को जाने लगे तब उन्होंने अपनी माता का स्मरण किया। उन दोनों पार्षदों ने ध्रुव जी के अभिप्राय को समझ विमान में बैठी आगे जाती हुई सुनीति को दिखा दिया।
श्री ध्रुवजी भगवान के प्रिय होने से तीनों लोकों के मुकुटमणि होकर आज तक विराजमान हैं। नारद ऋषि ने प्रचेताओं के यज्ञ में जाकर तीन लोकों में ध्रुवजी की महिमा गाई। ध्रुव का चरित्र, धन, यश और आयु का देने वाला तथा स्वर्ग व ध्रुवपद का दाता और पापनाशक है।
॥ वेन के पिता अंग का वृतान्त ॥
सूतजी कहने लगे - मैत्रयजी के मुख से ध्रुव जी को विष्णुपद मिलने की कथा सुन विदुरजी ने मैत्रयजी से प्रश्न किया कि जिन प्रचेताओं के यज्ञ में जाकर ध्रुव की प्रशंसा की थी तो वे प्रचेता किसके पुत्र थे और उन्होंने यज्ञ कहाँ किया था ? यह सुन मैत्रेयजी बोले कि जब ध्रुवजी के पुत्र उत्कल के राज्य सिंहासन की इच्छा नहीं की क्योंकि वह जन्म से ही शांत चित्त था।
वह आत्मज्ञानी मार्ग में जाता हुआ अपने पुर से निकल पड़ा । राजमंत्री सहित कुल के वृद्धों ने उसके छोटे भाई भ्रमि के पुत्र वत्सर को राजा बनाया। वत्सर की स्वर्वीथि स्त्री के पुष्पर्ण, तिम्मकेतु, ईश, उर्ज, वसु और जय छः पुत्र हुए। पुष्पर्ण के प्रभा और दोषा दो स्त्रियाँ थीं। प्रभा के प्रातः, मध्याह्न, सायं ये तीन पुत्र हुए। व्युष्ट के पुष्पकरिणी स्त्री से सर्वतेज नाम पुत्र हुआ और सर्वतेज आकृति से चक्षु हुआ।
उस मनु के नडवेला स्त्री से बारह पुत्र हुए - १. पुत्र, २. कुत्स, ३. चित्र, ४. अम्न, ५. सत्यवान, ६. ऋतु, ७. ब्रत, ८. अग्निष्टोम, ९. अतीरात्र, १०. प्रद्युम्न, ११. शिवि, १२. उल्मुक । पुष्पकरिणी स्त्री से छः सुत हुए जिनके - १. अंग, २. सुमनस, ३. ख्याति, ४. ऋतु, ५. अंगिरस, ६. गाय, ये नाम थे। अंग के सुनीता से वेन उत्पन्न हुआ जिसकी दुष्टता से अंग दुःखी होकर नगर से चले गए। राजा मर गया तब मुनियों ने उसकी दाहिनी भुजा को मथा। तब वेन के हाथों के मथने से पृथु उत्पन्न हुए।
विदुरजी पूछने लगे - उस पवित्र आत्मा अंग के घर में ऐसी दुष्ट संतान कैसी हुई? वेन का क्या अपराध देख मुनिजनों ने शाप दिया और वेन का सम्पूर्ण चरित्र मुझसे कहिये ।
मैत्रेयजी बोले- हे विदुर ! एक समय अंग ने अश्वमेध यज्ञ किया । ब्राह्मणों ने देवताओं का आवाहन किया परन्तु देवता नहीं आये । तब ब्राह्मणों ने राजा से कहा- हे महाराज! देवता तुम्हारे शाकल्य को ग्रहण नहीं करते हैं। आपसे देवताओं का कुछ अपराध बन पड़ा होगा कि जिससे देवता अपने-अपने भाग को नहीं लेते हैं।
राजा अंग उदास हो ब्राह्मणों की आज्ञा से पूछने लगा - हे सभासद गण! मैंने ऐसा क्या अपराध किया है ? यह तुम्हारा पाप है कि तुम पुत्रहीन हो। इससे तुम पुत्र उत्पन्न होने की कामना से यज्ञ-भगवान का भजन करो। भगवान तुम्हें पुत्र दें। सभासदों का वचन सुन ब्राह्मण सन्तान उत्पन्न होने के अर्थ विष्णु के हेतु पुरोडस भाग का हवन करने लगे। हवन करते ही एक पुरुष सवर्ण के पात्र में पकी हुई खीर लिए कुण्ड से निकला।
ब्राह्मणों की आज्ञा से राजा ने खीर अपने हाथ में ले ली और सूंघकर रानी को दे दी। फिर वह रानी उस खीर को खाकर पति के सकाश से गर्भवती हुई। समय पूर्ण होने पर रानी के पुत्र हुआ। वह बालक बाल्यवस्था ही से अपने नाना की चाल पर चलने लगा। वह अधर्मी हुआ। वह बालक वन में मृगया को विचरता हुआ पशुओं की निरापराध मारता फिरता था।
राजा अंग ने दुष्ट पुत्र को समझाया। राजा दुःखी हो विचारने लगा जिन गृहस्थियों के पुत्र नहीं होते हैं या पापी सन्तान से निन्दा, अधर्म और मनुष्यों से बैर उत्पन्न होता है। फिर राजा ने विचारा कि शोक़ देने वाले पुत्र से कुपुत्र ही अच्छा है। ऐसे विचारकर वैराग्य युक्त हो आधी रात के समय राजा अंग नींद त्यागकर और अपनी प्यारी सुनीता को सोती छोड़ वन को चल दिया।
प्रातःकाल राजा को महल में न देखकर मंत्री तथा अन्य प्रजादिक अपने स्वामी को गया जानकर शोक में विह्वल हो ढूंढ़ने लगे। जब राजा अंग का कहीं पता नहीं मिला तो नगर में आकर सबने मुनि लोगों की सभा में जाकर आंसू बहाते हुए कहा कि महाराज हमको राजा का पता नहीं लगता।
।। वेन का राज्याभिषेक ।।
तब ब्राह्मणों ने माता सुनीता को बुलाकर वेन को राज्य दे दिया। मदान्धवेन अभिमान से भरा हुआ, महात्माओं का अपमान करने लगा। वेन के दुष्टाचरण को देख प्रजा को दुःखी जानकर सब मुनि विचार करने लगे कि बड़े खेद की बात है, प्रजा को दोनों और से कष्ट हो रहा है एक ओर तो चोरों का और इधर राजा का भय है।
हमने विचारा था कि संगति पायेगा तो अच्छा हो जायेगा, सो अब यही प्रजा का नाश करना चाहता है। चलो समझा दें, जो समझाने पर भी बह कहना नहीं मानेगा, तो तेज के प्रभाव से जला देवेंगे, इस प्रकार विचार कर क्रोध को छिपाकर लोग राजा वेन को नीति भरे वचनों से समझाने लगे।
हे नृपवर्य! हम आपसे वह बात करते हैं कि जिससे आपकी कीर्ति बढ़े। प्रजा का कल्याणरूप नाश होने से राज्य भ्रष्ट हो जाता है। दुष्ट मन्त्री व चोरादिकों से प्रजा की रक्षा करता हुआ राजा लोक परलोक में सुखी रहता है। देवताओं का अपमान नहीं करना चाहिए। यह सुन बेन कहने लगा कि तुम मूर्ख हो जो आजीविका देने बाले मुझ पति को छोड़कर अन्य देवों की पति की तरह उपासना करते हो।
हे ब्राह्मणो! तुम यज्ञादि कर्मों से हमारा पूजन करो। राजा वेन ने जब मुनियों का निरादर किया, तब वे बहुत क्रोधित हुए और कहने लगे कि पापी को मारो, यह सिंहासन पर बैठने योग्य नहीं है क्योंकि यह निर्लज्ज यज्ञेश्वर की निन्दा करता है। क्रोधित लोगों ने वेन को हुंकार से मार दिया। जब ऋषि लोग वेन को मार अपने-अपने आश्रम को चले गए तब सोच करती हुई सुनीता ने अपने पुत्र के शरीर को मंत्र और औषधियों के योग से तेल में रख छोड़ा क्योंकि सुनीता ऋषियों की विद्या जानती थी।
एक समय वे मुनि सरस्वती में स्नान कर अग्निहोत्र कर्म से निश्चिन्त होकर नदी पर बैठे सत्यकथा वर्णन कर रहे थे, इतने में भय देने वाले उत्पात दीख पड़े। उनको देख मुनियों ने विचार किया कि राजा के न होने से चोरों द्वारा उपद्रव तो नहीं हो जायेगा।
ऋषि लोग विचार कर आये और मरे हुए वेन की जंघा को मथने लगे तब उसमें से एक पुरुष प्रकट हुआ। वह कौआ सा काला और बहुत अंगों वाला था। वह पुरुष सिर झुकाए हाथ जोड़कर मुनियों से कहने लगा-क्या आज्ञा है ? मुनि लोग कहने लगे कि निषाद अर्थात् बैठ जा।
हे विदुर ! ऋषियों के इस प्रकार कहने से उसकी निषाद जाति हुई। उसी के वंशी निषाद, पर्वतों पर वनों में रहा करते हैं। वेन के शरीर का पाप इसी निषाद के रूप से निकल गया और शरीर निष्कलंक हो गया।
।। पृथु की उत्पत्ति और राज्याभिषेक ।।
अनन्तर ब्राह्मणों ने राजा वेन की भुजा मथीं तब स्त्री-पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ। उसको देख ऋषि उसको भगवान की कला जान प्रसन्न होकर कहने लगे-यह पुरुष का जोडा उत्पन्न हुआ। यह पुरुष भगवान की कला से उत्पन्न हुआ, और यह कन्या लक्ष्मी की कला से हुई है। यह पुरुष आदि राजा पृथु नाम से प्रसिद्ध होगा और यह देवी वरोरहा अर्चि पृथु राजा की पत्नी होगी। ब्राह्मण उनकी प्रशंसा करने लगे, गन्धर्व गान करने लगे।
सिद्ध फूल बरसाने लगे और अप्सराएं नाचने लगीं, आकाश में बाजे बजने लगे। वहाँ देवता, ऋषि, पितृगण, लोकपाल व महादेवजी को साथ लिए ब्रह्माजी भी आये, और पृथु के दाहिने हाथ में गदाधारी तथा दोनों चरणों में कगल का चिह्न देखकर ब्रह्माजी ने प्रभु को हरि की कला मान लिया। राज-तिलक देने को सब अभिषेक की सामग्री लाने लगे।
नदी, समुद्र, पर्वत, नाग, गौ, पक्षी, मृग, स्वर्ग, पृथ्वी सब भेंट लेकर उपस्थित हुए। महाराज पृथु अभिषिक्त हो अपनी अर्चि नाम पटरानी के साथ अति शोभा को प्राप्त हुआ। महाराज कुबेर ने स्वर्ण सिंहासन भेंट दिया और वरुण ने शीतल जल टपकाने वाला छत्र, वायु ने चमर, धर्म ने ताला, इन्द्र ने मुकुट, यमराजजी ने संयमन नाम दण्ड दिया। ब्रह्माजी ने ब्रह्ममय कवच, सरस्वती ने उत्तम हार, हरि ने सुदर्शनं चक्र, और लक्ष्मीजी ने अखण्ड सम्पत्ति दी। महादेव ने खड्ग, पार्वतीजी ने सौचन्द्रनामा ढाल, चन्द्र ने घोड़े, त्वष्टा ने सुन्दर रथ, अग्नि ने सींगों से बना हुआ धनुष दिया, सूर्य और पृथ्वी ने बाण, यथेच्छ पहुँचाने वाली पादुका, स्वर्ग ने पुष्पाञ्जलि, खेचरा ने नाट्य, सुन्दर गीत, बाजे और अन्तर्धान होने की विद्या दी, मुनियों ने सत्य आशीर्वाद, समुद्र ने शंख समर्पण किया और समुद्र, पर्वत, नदी सबने पृथु को मार्ग दिया।
तब सूत मागध बन्दीजन पृथु की स्तुति करने को उपस्थित हुए। तब वेनपुत्र पृथु ने गम्भीर वाणी से कहा- हे बन्दीजनो ! जिसके गुण संसार में विदित होते हैं, जिसकी स्तुति करना योग्य है, मेरे लिए तुम्हारी वाणी मिथ्या नहीं होनी चाहिए, इस कारण जब मेरे गुण प्रकट हों, तब तुम मेरे यश की प्रशंसा करना । हे सुत! हम तो अभी लोक में प्रसिद्ध नहीं हुए हैं। फिर अपनी स्तुति कैसे करावें।
मैत्रेयजी कहने लगे - राजा पृथु निषेध करता तो रहा परन्तु गायक-गण मुनियों की प्रेरणा से स्तुति करने लगे। हे माया अवतार ! आप साक्षात् नारायण हैं। हे महाराज ! आप धर्म धारण करने वाले, लोकों को धर्म में चलाने वाले और मर्यादा की रक्षार्थ, अपराधी को दण्ड देने वाले होंगे। सबको समान भाव से बर्तकर दुःखीजन जो ऊपर आ पड़ेंगे, उनके अपराध के भार को सहन करोगे।
आप अमृतमयी मूर्ति से व अनुराग भरी चितवन से मन्द मुस्कान से जगत को तृप्त करेंगे। सबके भीतर और बाहर कार्यों को गुप्त दूतों द्वारा देखता हुआ महाराज पृथु उदासी रहेगा। पृथु दृढ़व्रत, सत्यवादी वृद्धजनों का सेवक, सबको शरण देने बाला होगा। पृथु जहाँ सरस्वती प्रगट हुई वहाँ सौ अश्वमेध यज्ञ करेगा।
जब पिछला यज्ञ समाप्त होने पर होगा तब इनके घोड़े को इन्द्र हर ले जायेगा। तब राजा पृथु अपने उपवन में सनत्कुमार को अकेले पाकर उनका आराधन करके ज्ञान को प्राप्त होगा। जहाँ-तहाँ प्रजाजन महिमा गाकर प्रसिद्ध करेंगे। तब राजा पृथु अपनी कथा सुनेंगे।
।। पृथ्वी को मारने के लिए पृथु का उद्योग ।।
मैत्रेयजी कहते हैं - हे विदुर ! जब बन्दीजनों ने पृथु को विख्यात किया, तब उन बन्दीगणों को पृथु ने प्रणाम कर सत्कार सहित मनोकामना पूर्ण प्रसन्न किया और ब्राह्मण आदि सब प्रजा का पृथु ने सत्कार किया। तब विदुर बोले - हे मैत्रेयजी! पृथ्वी ने गौ का रूप क्यों धारण किया और पृथु ने उसको दुहा तब बछड़ा कौन हुआ और दुहने का पात्र क्या था ? ऊँची नीची पृथ्वी को पृथु ने बराबर कैसे किया ? राजा के पवित्र घोड़े को इन्द्र किस कारण चुरा कर ले ब्रह्मन ! सनत्कुमार से पृथु किस ज्ञान को प्राप्त हो किस गति को प्राप्त हुआ ? तथा और भी पृथु शरीर का जो पवित्र यश है वह कृपा करके मुझसे वर्णन करो।
सूतजी ने कहा- जब ब्राह्मणों ने पृथु को राज्य दिया, तब ऐसा हुआ कि एक साथ भू-मण्डल अन्न रहित हो गया और प्रजा ने क्षुधा से दुर्बल शरीर हो पृथु के समीप जाकर कहा- हे राजन् ! हम सब जठराग्नि से दग्ध हो रहे हैं। हे शरणागत रक्षक ! अन्न बिना हम लोग मर न जावें । दुःखित हुई, सम्पूर्ण प्रजा का दीन वचन सुन पृथुजी ने विचार किया और भली भाँति जान लिया कि इस समय सम्पूर्ण औषधियों के बीजों को पृथ्वी निगल गई है।
इसी से अन्न उत्पन्न नहीं कर सकती। यह निश्चय कर धनुष पर बाण चढ़ाया। पृथु को क्रोधपूर्वक शस्त्र उठाए देख पृथ्वी गौ का रूप धारण कर भयभीत होकर भागी और पृथुजी क्रोध से धनुष बाण चढ़ाए दौड़े और जब पृथ्वी पीछे लौटी और पृथुजी के सम्मुख मस्तक नवाकर बोली- हे शरणागत वत्सल! मेरा पालन करो। आप मुझ निरपराधिनी को किस कारण मारना चाहते हो ? जिस पर यह सम्पूर्ण जगत स्थिर है, ऐसी मुझे मार कर अपने शरीर को और इस प्रजा को जल पर कैसे धारण करोगे।
यह सुन पृथु जी बोले- हे वसुधे ! तुझे मैं मार ही डालूँगा, क्योंकि यज्ञ में तू अपना भाग तो ले लेती है लेकिन अन्न नहीं उपजाया करती। तुम मन्द बुद्धि ने मुझे कुछ न समझ ब्रह्माजी की प्रथम रची हुई औषधियों के बीज रोक लिए हैं, उनको तू उत्पन्न नहीं करती है। इसलिए क्षुधा पीड़ित प्रजा को तुझे मारकर तेरे मांस से शांत करूँगा। क्योंकि जो प्राणी आप ही अपनी बड़ाई करने वाला हो, दया न रखता हो, उसके वध करने वाले को कुछ दोष नहीं। अरी हठीली! माया से गौ-रूप धारण करने वाली, तुझे तिल-तिल काटकर मैं अपने योगबल से प्रजा को जल के ही ऊपर धारण करूँगा।
इस प्रकार क्रोधमूर्ति धारण किये पृथु को देख हाथ जोड़कर पृथ्वी बोली - आपको मैं बारम्बार प्रणाम करती हूँ। जिस विधाता ने जीवों के रहने के निमित्त मुझको रचा है, वही स्वाधीन परमेश्वर आज मेरे मारने को उद्यत हुए हैं, तब मैं किसकी शरण में जाऊँ।
हे विभो ! आपने अपनी आत्मा से रचे जगत को भली भाँति से स्थापित करने हेतु वाराह अवतार धारण कर हिरण्याक्ष को मारकर रसातल से मेरा उद्धार किया था और मुझ पर हुई प्रजाओं की रक्षा हेतु पृथु रूप धार करके प्रकट हुए हो, फिर मुझे क्यों मारना चाहते हो, बड़े अचम्भे की बात है।
।। कामधेनु रूपिणि पृथ्वी दोहन ।।
पृथ्वी क्रोधित पृथु की स्तुति कर फिर बोली- है प्रभो! आप क्रोध शान्त मत करो, और मेरी विनय सुनो, जो बुद्धिमान होते हैं वे सब वस्तुओं से सार ग्रहण कर लेते हैं। हे राजन् ! पूर्व में ब्रह्माजी ने जो औषधियाँ रची थीं उनको वेन आदि कुकर्मी राजाओं को भोगते देखा तो मैंने यज्ञ के अर्थ उन औषधियों को निगल लिया सो निश्चय है कि अब सब औषधियाँ मेरे शरीर में पच गई हैं सो महात्माओं के उपाय से और अपने योगबल से आप ले लेने योग्य हो।
हे वीर! प्रथम तो मेरे अनुसार एक बछड़े की कल्पना करो, फिर वैसा ही योग्य पात्र, जिससे मैं आपकी दुग्धमय कामनाओं को पूर्ण करूँ । हे भूतभावन! आप सबके अर्थ मनवांछित फल देने वाले अन्न की इच्छा करते हो तो एक दुहने वाले को भी नियत करो। मुझको समतल कर दो जिससे वर्षा का जल ढलकर नहीं जा सके। इस प्रकार पृथ्वी का वचन सुनकर पृथु ने स्वायम्भुवमनु को बछड़ा बनाया और अपने दोनों हाथों रूप दोहिनी में औषधियाँ रूप दूध दुहा।
ऋषि-मुनि आदिक पन्द्रह जनों ने बृहस्पति को बछड़ा बनाकर इन्द्रियरूप पात्र में वेदमय दुग्ध पृथ्वी से दुहने लगे। सब देवताओं ने सुवर्ण पात्र में कीर्ति ओज बलरूप वत्स बनकर कमल पात्र में सुन्दरता मान-विद्या मधुरतारूप दूध दुहा। पितरों ने अर्यमा को वत्स बना मिट्टी के पात्र में पितरों के योग्य अन्न को दुहा।
विद्याधरों ने कपिलजी को वत्स बनाकर आकाश में विचरने वाली विद्यारूप दूध को दुहा। असुरों ने मय को वत्स बनाकर गुप्त हो जाने के संकल्प मात्र से सिद्ध होने वाली मायारूप दुग्ध को दुहा। यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच सबों ने रुद्र वत्स बना कपाल पात्र रुधिररूप आसव का दोहन किया।
पशुओं ने नन्दीश्वर को बछड़ा बनाकर वनरूप दोहिनी तृणरूप दुग्ध का दोहन किया और मांसाहारी जीवों ने सिंह को वत्स बना शरीररूप पात्र में मांसरूप दूध दुहा। पक्षियों ने गरुड़ को वत्स बना शरीररूप पात्र में वनस्पतिरूप दूध दुहा। पर्वतों में हिमालय को वत्स बना शिखररूप पात्र में धातुओं को दुहा।
इस प्रकार सबों ने पात्र वत्स आदि बदल कर अपने मनमाने अन्न को पृथ्वी से दुहा। फिर पृथु ने प्रसन्न हो पृथ्वी को समतल कर दिया। पृथु पृथ्वी पर उत्तमोत्तम निवास स्थानों की कल्पना करने लगे। ग्राम, दुर्ग, गौशाला, ग्वालों के निवास स्थान, सेना के रहने योग्य स्थान, किसानों को गांव, सबको बनाया।
महाराज पृथु से पहले गांव आदि की रचना कहीं नहीं थी, तदनन्तर पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञ करने के संकल्प से मनु दीक्षा नियम धारण किया। इन्द्र ने समझा कि उनके यज्ञ पूर्ण हो जायेंगे तो इन्द्रासन छिन जायेगा। दुःखी होकर वह विघ्न करने लगा। सौवां यज्ञ करके पृथु जी भगवान का पूजन करने लगे, तब इन्द्र ने अन्तर्ध्यान हो घोड़ा हरण किया। वह दौड़ते हुए इन्द्र को मारने दौड़ा।
उसी समय जटा रखाये भस्म धारण किए योगी के स्वरूप इन्द्र को देख विजिताश्व ने उसके मारने को बाण नहीं छोड़ा। जब पुत्र लौट आया, तब उसको अत्रिजी ने फिर भेजा और कहा- हे तात! यही इन्द्र है। तुम्हारे पिता के यज्ञ विध्वंस करने वाला यही है, यह योगी नहीं है।
विजिताश्व तब फिर शीघ्र ही पीछे लौटा और क्रोध करके इन्द्र पर झपटा। तब इन्द्र घोड़े को छोड़कर अन्तर्ध्यान हो गया। राजकुमार अपना घोड़ा लेकर यज्ञशाला में आया, महर्षियों ने राजकुमार के अद्भुत कर्म को देख उसका नाम विजिताश्व रख दिया। इन्द्र फिर वहाँ आया, और अन्धकार फैलाकर सांकल में बंधे हुए यज्ञाश्व को सांकल सहित खोलकर चुरा ले गया, फिर विजिताश्व इन्द्र के पीछे गया और कपाल धारण किए कहा, अरे पुत्र! मारता क्यों नहीं यही इन्द्र है।
यह सुन राजकुमार बाण सन्धान कर इन्द्र के पीछे दौड़ा, तब इन्द्र घोड़ा त्याग वहीं अन्तर्ध्यान हो गया। तब वह वीर घोड़े को लेकर यज्ञ में आया। पराक्रमी महाराज पृथु ने इस बात को जान सुरेन्द्र पर क्रोध करके धनुष बाण हाथ में लिया तब मुनियों ने कहा- हे महाबाहो ! यज्ञ में यज्ञाश्व के अतिरिक्त किसी दूसरे का वध करना उचित नहीं है।
हे ऋत्विज! इन्द्र के साथ मित्रता करो नहीं तो यह अनेक माया रचकर यज्ञ विध्वंस करने की चेष्टा करेगा। हे राजन्! आपने जो निन्यानवें यज्ञ किये हैं ये ही बहुत हैं। इस जगत का जिस प्रकार कल्याण हो ऐसा ही उपाय करके प्रजापतियों के मनोरथ को पूर्ण करो। इस प्रकार राजा पृथु को ब्रह्माजी ने समझाया, तब यज्ञ परित्याग कर राजा पृथु ने इन्द्र के साथ मिलाप कर लिया। फिर पृथु यज्ञ के अन्त में जब अवभृत स्नान कर चुका, तब उस यज्ञ में तृप्त हुए वर देने वालों ने वरदान दिए।
ब्राह्मण सन्तुष्ट होकर पृथु को आशीर्वाद देते हुए बोले- हे महाबाहो! आपके बुलाने से हम सब यहाँ आए, सो आपने यथोचित सत्कार किया। इस प्रकार पृथु से पूजा सत्कार पाकर आशीर्वाद देकर यज्ञ की प्रशंसा करते हुए देव ऋषि अपने स्थानों को चले गये।
।। भगवान विष्णु का पृथु को उपदेश ।।
मैत्रेयजी ने कहा- श्री नारायण इन्द्र को साथ ले वहाँ आये और प्रसन्न हो पृथु से बोले - हे राजन! इस इन्द्र ने तुम्हारे सौवें यज्ञ में विघ्न किया इस कारण यह अपराध क्षमा कराना चाहता है। हे नरदेव! साधुजन प्राणियों से द्रोह नहीं करते हैं। हे वीर ! तुम सम, उत्तम, मध्यम, अधम, सुख और दुःख में समान भाव रखो और इन्द्रियों को जीतो । प्रजा का पालन ही राजा का धर्म है।
इस प्रकार उस धर्म को प्रधान मानकर उसी को करते हुए प्रजा की रक्षा करोगे तो तुम सबके प्रिय होगे और अपने घर सनकादिक सिद्धजनों के दर्शन करोगे। हे मानवेन्द्र ! मुझसे वर मांगो। मैत्रेयजी बोले- भगवान ने जब इस प्रकार आज्ञा की तब पृथु ने प्रेमपूर्वक दोनों चरणों का स्पर्श कर, कर्म से लज्जित हुए इन्द्र से मिल बैर भाव का परित्याग कर दिया।
अनन्तर भगवान के चरण कमल ग्रहण किये। पृथु ने भगवान का दर्शन किया। पृथु बोले- हे विभो ! आपसे कैसे वर माँगू ? जो वर नारकीय लोगों का भी मिल सकते हैं उनको मैं नहीं मांगना चाहता हूँ। हे नाथ! मैं तो मोक्ष की भी इच्छा नहीं करता हूँ, जहाँ आपके चरणारविन्द का श्रवणादिक आनन्द नहीं है। अतः आप अपनी कथा सुनने को मुझे दस हजार कान दीजिए, यह मैं मांगता हूँ।
हे भगवान! लक्ष्मीजी की नांई लालसा मैं भी करता हूँ, सो एक ही स्वामी और एक ही प्रकार सेवा करने से लक्ष्मीजी का और मेरा द्वेष भाव होगा ही, परन्तु हे जगदीश ! जगत माता लक्ष्मी के काम में यदि हमारा विरोध भी हो जायेगा तो मेरी सेवा को बहुत मानेंगे। आप समदर्शी होने के कारण लक्ष्मीजी का पक्ष नहीं करोगे, हे भगवान! भजन करते हुए पुरुष को जो आप 'वर मांगो' कहते हो, इसको मैं जगतमोहिनी वाणी मानता हूँ।
इस प्रकार पृथु ने स्तुति की, तब भगवान ने कहा- हे राजन् ! जाओ तुम हमारी भक्ति को प्राप्त होगे। जो प्राणी हमारी आज्ञा के अनुसार चलता है वह आनन्द को प्राप्त होता है।
।। यज्ञ सभा में पृथु द्वारा प्रजावर्ग के प्रति कृतज्ञता ।।
राजा पृथु ने अनेक श्रेष्ठ कर्म करके जगत् की रक्षा की और अपने प्रताप को भू-मण्डल में फैलाया और अन्त समय मोक्ष को प्राप्त हुए। पृथु का सुयश सुनकर उसको वर्णन करने वाले मैत्रेयजी का सत्कार करके विदुर बोले- जिस पृथु का ब्राह्मणों ने राज्याभिषेक किया था और देवताओं ने पदार्थ भेंट में दिए और जिसने विष्णु के तेज को अपनी भुजाओं में धारण कर पृथ्वी को दुहा उस पृथु की कीर्ति को ऐसा कौन है जो न सुने।
मैत्रेयजी बोले- गंगा और यमुना के बीच के क्षेत्र में निवास करते हुए महाराज पृथु जी अपने किये हुए पुण्य को त्याग करने की अभिलाषा से अपने कर्मों के सुखों को भोगने लगे, परन्तु उनमें आसा नहीं हुए। हे विदुर! एक समय पृथु ने महायज्ञ में दीक्षा ली वहाँ देवता, ब्रह्मर्षि और राजर्षि लोगों का समाज हुआ।
राजा पृथु ने कहा - सभासदो ! मैं दण्ड धारण करने वाला राजा, प्रजा की रक्षा करने, आजीविका देने, चोर आदि अपराधियों को दंड देने, सबको धर्म मर्यादा में स्थापना करने को परमात्मा की ओर से नियत किया गया हूँ। सो मुझे इन कर्मों के करने में सब लोक प्राप्त हो गए हैं। जो राजा, प्रजा को धर्म उपदेश नहीं करता है और उससे कर लेता है, वह राजा अपनी प्रजा के पाप को भोगता है।
हे पितर, देवता और ऋषियों! आप भी इस बात का अनुमोदन करो। क्योंकि कर्म करने वाले, शिक्षा देने वाले, अनुमोदन करने वाले को, परलोक में बराबर फल मिलता है। हे महात्माओं ! परमेश्वर को नहीं मानने वाले राजा वेन आदिक मनुष्यों में सोच करने योग्य थे।
धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की प्राप्ति केवल आत्मा से ही होती है। परमेश्वर के चरणों में उत्पन्न हुई रुचि तपस्वीजनों के पापों को नष्ट कर देती है। अहो! मेरी प्रजा के लोग नियम धारण करके भगवान का भक्ति से पूजन करते हैं, और मैं प्रार्थना करता हूँ कि समृद्धि न होने पर भी तप व विद्या में प्रकाशवान ब्राह्मणों का बड़ी समृद्धियों से बढ़ा हुआ राजकुल तिरस्कार न करे। ये ब्राह्मण दोषरहित, श्रद्धा, तप, मंगल, मौन, संयम, समाधि धारण करने वाले हैं।
मैं उन ब्राह्मणों की चरणरज को अपने मुकुट पर धारण करूँ यही मेरी प्रार्थना है। यह सुन पितर, देवता व ब्राह्मण धन्यवाद देकर प्रशंसा करते हुए बोले, इस संसार में पुत्र के सुकर्म से पिता का परलोक सुधर जाता है। क्योंकि ब्राह्मणों के शाप से मरा हुआ वेन अपने पुत्र पृथु के प्रभाव से तर गया।
हे पवित्र कीर्ति वाले! आपके स्वामी होने से हम जानते हैं कि भगवान हमारे स्वामी हैं। हे नाथ! आप हमको शिक्षा देते हो इसमें आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि दयावान महात्मा प्रजा पर स्नेह रखते हैं। हे प्रभो! प्रारब्ध कर्म से भटकते हुए हम लोगों को आज आपने अज्ञान अन्धकार से पार कर दिया।
॥ गीतासार ॥
क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है।
जो हुआ, वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है, जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है।
तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाये थे, जो तुमने रखो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया, यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान्) से लिया। जो दिया इसी को दिया। खाली हाथआए, खाली हाथ चले। जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर मग्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता ही तुम्हारे दुखों का कारण है।
परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो, दूसरे ही क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। तेरा-मेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया, मन से मिटा दो, विचार से हटा दो, फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।
न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा। परन्तु आत्मा स्थिर है, फिर तुम क्या हो?
तुम अपने आप को भगवान के अर्पित करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है वह भय, चिन्ता, शोक से सर्वदा मुक्त है।
जो कुछ भी तू करता है, उसे भगवान् को अर्पण करता चल । ऐसा करने से तू सदा जीवन-मुक्त का आनन्द अनुभव करेगा।
।। पृथु को महर्षि सनत्कुमार का ज्ञानोपदेश ।।
मैत्रेयजी कहते हैं - हे विदुर! इस प्रकार समाज मैं सब पृथु की प्रशंसा कर ही रहे थे कि वहाँ सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार आ उपस्थित हुए। उनका दर्शन होते ही पृथु सभासद और अनुचरों सहित उठ खड़ा हुआ, मुनियों का पूजन किया।
सनकादिक मुनियों से पृथु ने हाथ जोड़कर कहा- हे कल्याणमूर्ति ! आपके दर्शन योगीजन को भी दुर्लभ हैं। फिर मुझसे ऐसा कौन सा शुभ कर्म बन पड़ा जिससे आपके दर्शन हुए ? आप बालक होते हुए भी बड़ों के व्रतों को धारण करते हैं।
हे स्वामियों! आप तपस्वीजनों के सुहृद हो, इसलिए मैं पूछता हूँ कि इस संसार में बिना परिश्रम किस साधन से कल्याण होता है ? सनत्कुमारों ने कहा- महाराज! सम्पूर्ण प्राणियों के हित के लिए आपने बहुत अच्छा प्रश्न किया। हे राजन् ! आपकी भगवान के गुणानुवाद में जो प्रीति है वह दुर्लभ है।
वह प्रीति अन्तःकारण से विषय वासना को दूर कर देती है। सम्यक शास्त्रों में मनुष्य के कल्याण के निमित्त यही साधन निश्चय किया गया है कि आत्मा जो निर्गुण है उसमें प्रीति होना ही सार है। उस प्रीति का सार साधन श्रद्धा, भगवद्भम का आचरण, आत्म ज्ञानी होना, आत्मयोग में निष्ठा रखना, योगेश्वर की उपासना और भगवान की कथा सुनना है।
इन साधनों से भगवदचरणों में प्रीति हो जाती है। जब ब्रह्म में अत्यन्त प्रीति हो जाती है तब ज्ञान और वैराग्य से हृदय में ज्ञान की अग्नि बढ़ती है और विज्ञानी होने से पुरुष आचारवान, वासना रहित हो स्थूल देह को भस्म कर देता है। फिर अहंकार उत्पन्न नहीं होता। विचारशक्ति के नाश से स्मृति नष्ट होती है। स्मृति के नाश से ज्ञान नाश होता है, ज्ञान के नाश को ही आत्मा का नाश होना कहा है।
इससे बढ़कर मनुष्य के किसी स्वार्थ का नाश नहीं। धन और इन्द्रियों का ध्यान करना और विषय वासना का विचार रखना यही पुरुष के पुरुषार्थों का नाश करने वाला है। जो मनुष्य इस अंधकार रूप नरक से पार होने की इच्छा करे, वह पुरुष कभी किसी का संग नहीं करे। नरेन्द्र ! स्थावर जंगम जगत को प्रकाशित करने वाले महात्मा जिनके चरणारविंद की भक्ति से अहंकार को तोड़ देते हैं।
इस प्रकार इन्द्रियों को रोकने वाले व मन से विषय वासना को त्यागने वाले योगी भी उस ग्रन्थि को तोड़ नहीं सकते हैं। उन भगवान वासुदेव की शरण में प्राप्त होओ। महा गम्भीर संसार सागर को हरिनाम रूपी नाव बिना जो पार उतरने की इच्छा करते हैं उनको बड़ा कष्ट होता है। अतः भगवान की चरणों की नौका से संसार- सागर से पार हो जाओ।
सनत्कुमार से आत्मज्ञान प्राप्ति का साधन सुनकर पृथु बोले- हे दीनदयालु ! आप धर्मात्मा हो, इसलिए आपने पूर्ण आत्म-ज्ञान सुनाया। अब आपको गुरु दक्षिणा क्या दूँ ? हे ब्रह्मन्! मेरे प्राण, स्त्री, पुत्र, घर, राज्य, बल, पृथ्वी, कोष सब मैंने साधुओं को समर्पण कर दिया है।
वेदशास्त्र को जानने वाला ब्राह्मण ही सेनापति और राज्य व दण्ड देने में अधिपति होने योग्य है। जो कुछ जगत में वैभव है सब ब्राह्मणों का ही है, हम आपको क्या दें। केवल नियम अथवा जलपात्र देने के अतिरिक्त मैं क्या दूँ। इसलिए महादयालु आप अपने किए हुए उपकार ही से मुझ पर प्रसन्न होवो।
इस प्रकार पृथु द्वारा अभिनन्दित सनत्कुमार राजा की प्रशंसा कर ब्रह्मलोक को पधारे। महाराज पृथु एकाग्रता से अध्यात्म विद्या में स्थित हो अपनी आत्मा को कृतार्थ मानने लगा। पृथु अखण्ड राज्य और ऐश्वर्य से युक्त हो, घर रहने पर भी इन्द्रियों में आसक्त न हुआ। इस प्रकार अध्यात्म कर्मों को करते हुए पृथु ने अपनी अर्चिषि से विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्षक्ष, द्रविण, बृक नाम पांच पुत्र उत्पन्न किये।
राजा पृथु जी समयानुसार जगत की रक्षार्थ सुन्दर गुणों से प्रजा को प्रसन्न रखते थे। पृथु तेज में अग्नि के समान, महेन्द्र के समान दुर्जय, पृथ्वी की नांई क्षमावान, स्वर्ग के समान मनुष्य की कामना पूर्ण करने वाले, मेघ के समान कामनाओं को वर्षाने वाले, समुद्र के समान अगाध, सुमेरु पर्वत के समान धैर्यधारी, धर्मराज के समान शिक्षा देने वाले, कुबेर के समान धनवान, वरुण के समान गुप्त पदार्थ रखने वाले, बल विक्रम में पवन के समान, क्षमा में महादेव के समान, रूप में कामदेव, हिम्मत में सिंह, मनुष्य स्नेह में मनु के समान, प्रभुता में ब्रह्मा के समान, ज्ञान में बृहस्पति के सदृश, जितेन्द्रियत्व में विष्णु के तुल्य थे और गौ ब्राह्मण, गुरु तथा भगवद्भक्तों की भक्ति करने में तथा उपकार करने में पृथु अपने समान आप ही हुए। श्रीरामचन्द्रजी के समान पृथु ने कीर्ति प्राप्त की।
।। पृथु का बैकुंठ गमन ।।
मैत्रेयजी कहते हैं - आत्मज्ञानी, सम्पूर्ण जीवों की जीविका दाता, सत्पुरुषों का धर्म धारण करने वाले और जितेन्द्रिय राजा पृथु ने परमेश्वर की आज्ञा से प्रजा पालनादिक सब कार्य पूर्ण किये। अपने को वृद्ध जानकर पृथुजी ने राज्य को पुत्रों को सौंप अपनी स्त्री से प्रजा पालनादिक सब कार्य पूर्ण किये और अपनी स्त्री को साथ ले तप करने को तपोवन गमन किया।
वहाँ भी दृढ़ता से सम्पूर्ण नियमों को धारण कर बानप्रस्थ में चित्त लगाकर तप करने में प्रवृत्त हुए। प्रथम कन्द, मूल, फल का आहार किया। फिर सूखे पत्तों का, तदनन्तर जल पान किया, फिर पवन का भक्षण करने लगे। वह वीर पृथु ग्रीष्म काल में पंचाग्नि तापते, वर्षाकाल में वर्षा सहते, शीतकाल में गले तक जल में खड़े हो तप करते और पृथ्वी पर सोते थे।
इस प्रकार पृथु पवन को जीतकर भगवान की आराधना के अर्थ तप करने लगे। सनत्कुमारों ने जो अध्यात्म ज्ञान वर्णन किया था उसी के अनुसार पृथु भगवान का भजन करने लगे। पृथु जी की ब्रह्म में निष्ठा वाली अनन्य भक्ति हो गई, तब राजा ने शुद्ध सत्य होने के कारण ज्ञान को प्राप्त कर लिया। देह अभिमान कट जाने से पृथु अपने आत्म स्वरूप को प्राप्त हुआ।
इस प्रकार उस वीरोत्तम पृथु राजा ने मन को आत्मा से लगाकर ब्रह्म स्वरूप हो पांव की ऐड़ियों से गुदा को दबा, अपनी वायु को ऊपर को चढ़ाये नाभि की कोठी में स्थापित कर, हृदय में, फिर छाती में, कण्ठ में प्राप्त कर, उसी वायु को योग मार्ग से सिर में चढ़ाया, फिर प्राणों को भी मस्तक में चढ़ाकर अपने शरीर में रहने वाली वायु को वायु में, पृथ्वी रूप शरीर को पृथ्वी में मिला, जो तेज अंश था, उसे तेज में लय कर दिया।
इन्द्रियों को आकाश में और रस को जल में लीन कर, अपने-अपने स्थान के अनुसार यथायोग्य देह का लय कर पांचों तत्वों में मिलाया। फिर आकाश को अहंकार में, अहंकार को महातत्व में लीन किया। फिर माया का परित्याग कर, कैवल्य मोक्ष को प्राप्त हुआ। पृथुराज की महारानी अपने पति के समान धर्मानुष्ठान करती हुई, ऋषियों की सी वृत्ति करके कन्द-मूल फल आदि खाते हुए स्वामी की सुश्रुषा सेवा के परिश्रम से दुबली हो गई थी।
पृथुजी के शरीर में से जब चैतन्यता जाती रही तब पति का देह मृतक देख उसने कुछ विलाप किया। फिर धैर्य धारकर पर्वत के शिखर पर ईंधन चुन, चिता बनाकर उस पर स्वामी के शरीर को रखा। स्नान कर उस समय के अनुसार क्रिया कर स्वामी को जलांजलि दे, देवताओं को प्रणाम कर अग्नि की तीन परिक्रमा दे, पति के चरणों का ध्यान कर, अग्नि में प्रवेश किया।
।। पृथु का वंश वर्णन ।।
राजा पृथु के स्वर्गवास के उपरान्त पृथु का पुत्र विजिताश्व महाराज हुआ। उसने अपने छोटे भाइयों को बड़े प्रेम से दिशाओं का राज्य दिया। हर्यश्क्ष को पूर्व दिशा का, धूम्रकेश को दक्षिण दिशा का, वृक को पश्चिम दिशा का और द्रविण को उत्तर दिशा का राज्य दिया। विजिताश्व जब अश्वमेध का घोड़ा इन्द्र से छीनने गया था, उस समय इन्द्र से अन्तर्ध्यान होने की विद्या सीखी, इस कारण विजिताश्व का दूसरा नाम अन्तर्ध्यान कहा जाता था।
इसके शिखण्डनी स्त्री से तीन पुत्र उत्पन्न हुए - पावक, पवमान और शुचि। ये तीनों पहले अग्नि गति को प्राप्त हुए। अन्तर्ध्यान नाम वाले विजिताश्व के नभस्वती रानी से हविर्धान पुत्र हुआ। कर लेना, दण्ड देना, इत्यादि सब राज वृत्तियों को दूसरों को दुःख देने वाली मानकर विजिताश्व ने इनका परित्याग कर दिया।
यज्ञ में वह आत्मज्ञानी परमात्मा का पूजन करता हुआ समाधि लगाकर परमेश्वर के लोक को प्राप्त हुआ। हविर्धान के हविर्धानी पत्नी से वर्हिषद, गय, शुक्ल, कृष्ण, सत्य, जितब्रत ये छः पुत्र हुए। हविर्धान का पुत्र प्रजापति बर्हिषद विलक्षण था। इस राजा ने पृथ्वी में किसी स्थान को यज्ञ किये बिना नहीं छोड़ा।
इसी से राजा का प्राचीनबर्हि नाम हुआ। इस प्राचीनबर्हि ने ब्रह्मा की आज्ञा से सप्रद कन्या शतद्रुति से विवाह किया। इसके दस पुत्र हुए, वे सब समान नाम व आचरण वाले, धर्म परायण, प्रचेता नाम से प्रसिद्ध हुए। उन सबको प्राचीनबर्हि में सृष्टि रचने की आज्ञा दी तब प्रचेता की आज्ञा से तप करने को समुद्र के समीप गये।
वहाँ जल में दस हजार वर्ष तप करके भगवान का पूजन किया। तप करने को जाते समय मार्ग में श्रीशिवजी ने प्रसन्नता पूर्वक जिस मंत्र का उपदेश किया था, उसी उपदेश के अनुसार भगवान का ध्यान करते हुए ये दशों प्रचेता पूजन करने लगे।
यह सुन विदुरजी ने पूछा ब्रह्मन् ! प्रचेताओं का महादेवजी से मार्ग में समागम हुआ और शिवजी ने उनको जो उपदेश किया, वह आप हमसे वर्णन कीजिए।
मैत्रेयजी बोले- ये प्रचेता जब समुद्र तट पर पहुँचे, वहाँ उन्होंने एक जल से भरा हुआ सरोवर देखा। वह सरोवर नील, रक्त कमल, उत्पल, अम्भोज, अल्हार, इन्दीवर की खान था और वहाँ हंस, सारस, चकवा, चकवी, जलमुर्ग आदि पक्षी शब्द कर रहे थे। वहाँ मृदंग और प्रणव आदि बाजों का स्वर भेद सहित गान सबके मन को हरने वाला था।
उसको सुनकर प्रचेता विस्मय को प्राप्त हो गये। उसी समय सरोवर में से अपने अनुचरों सहित श्री महादेव जी निकले। महादेवजी को प्रसन्न मुख देखकर राजकुमारों ने प्रणाम किया, तब शिवजी प्रचेताओं से बोले- हे राजकुमारो! तुम लोग प्राचीनवर्हि के पुत्र भगवान की आराधना करना चाहते हो, वह मैं जानता हूँ, तुम्हारा कल्याण हो।
भगवान वासुदेव की शरण मैं जो जाता है, वह मेरा परम प्रिय है। इसलिए मोक्षदायक एवं सर्व विघ्न-नाशक स्तोत्र को मैं वर्णन करता हूँ उसको तुम सुनो। हे भगवान! आत्म-वेत्ताओं की स्वस्ति के अर्थ तुम्हारा उत्कर्ष है। आपके चरित्र आत्म ज्ञानियों को स्वरूपानन्द देने वाले हैं, हे ईश! आप कर्मों के फल देने वाले, सर्वज्ञ और मंत्ररूप एवं धर्मात्मा, पुराण पुरुष, सांख्य योग के ईश्वर, बैकुण्ठ के दाता हो। हे ब्रह्म! आप को मेरा प्रणाम है।
इस प्रकार के श्रीमद्भागवत में वर्णित रुद्रगीत नामक स्तोत्र को पूर्ण करते हुए शिवजी बोले- हे राजपुत्रो ! विशुद्ध चित्त हो इस रुद्र-गीत स्तोत्र का पाठ करो, तुम्हारा कल्याण होगा। यह स्तोत्र सुनने का सौभाग्य मुझे ब्रह्मा जी से प्राप्त हुआ इस स्तोत्र के प्रभाव से मैंने तमोगुण को नष्ट कर अनेक प्रकार की प्रजा रची है।
।। पुरंजन की कथा ।।
महादेवजी उपदेश देकर उन प्रचेताओं से पूजित हो अन्तर्ध्यान हो गये। श्री शिवजी के कहे हुए रुद्र- गीत नामक स्तोत्र को सब प्रचेताओं ने जपते हुए जल में दस हजार वर्ष पर्यन्त तप किया।
हे विदुर ! महाराज प्राचीनबर्हि का मन कर्मों में आसक्त था, इसलिए श्रीनारदजी ने महाराज को ज्ञान उपदेश किया। है राजन् ! आप कौन से कर्म से किस फल की इच्छा करते हो ? यह सुन राजा ने कहा- हे महाभाग ! मेरी बुद्धि कर्मों में ही रही है, सो आप ज्ञान उपदेश दीजिए, जिससे मैं कर्मों के बन्धन से छूट जाऊँ।
यह सुन नारदजी बोले- हे प्रजापते ! तुमने यज्ञ में हजारों पशुओं का वध किया है, ये पशु पीड़ा को स्मरण करते हुए तुम्हारी मरने की बाट देख रहे हैं, जब तुम मरोगे तो ये तुमको शृगों से मारेंगे। इस विषय की पुष्टि के लिए मैं राजा पुरञ्जन का हाल कहता हूँ ।
हे राजन ! एक पुरंजन नाम का राजा था, उसका अविज्ञाता नामक सखा था। पुरंजन अपनी राजधानी के लिए योग्य नगर के ढूँढ़ने को सब पृथ्वी पर फिरा । राजा पुरंजन एक समय विचरता हिमवान पर्वत के दक्षिण की ओर चला गया । यहाँ एक नगर नवद्वारों वाला देखा, उस नगर के बाहर एक उपवन था। इस उपवन में एक स्त्री ग्यारह सेवकों सहित विचरती हुई दीख पड़ी, एक-एक सेवक के साथ सैकड़ों स्त्रियाँ थीं।
पांच सिर वाला साँप उस स्त्री की रक्षा करता था और वह षोडष वर्ष की अवस्था बाली सुन्दरी उस उपवन में योग्य पति की खोज में विचर रही थीं। उसकी लज्जा भरी मुस्कान से, चंचल नयनों वाली की घूमती हुई भृकुटी रूप धनुष से, नेत्रों की बनी रूप पंख वाले कटाक्ष रूप वाणी से, राजा पुरंजन बन्ध गया, मोहित होके राजा उससे पूछने लगा- हे कमलनयनी ! तुम कौन हो ? इस उपवन में क्या करना चाहती हो ? सो मुझसे कहो ?। ये ग्यारह भट तुम्हारे कौन हैं, इनमें ग्यारहवाँ बड़ा बली जान पड़ता है, इसका क्या नाम है ? यह सैंकड़ों स्त्रियाँ कौन हैं और यह पांच सिर वाला सर्प कौन है ? तुम मुनि के युक्त दीख पड़ती हो, इस वन में किसकी खोज में विचर रही हो ? जो प्रीतम होगा, उसके मनोरथ तुम्हारे चरणारविन्द के प्रभाव से परिपूर्ण हो जाते होंगे ।
तुम देवांगना स्त्रियों में से नहीं हो ? क्योंकि देवागंना पृथ्वी का स्पर्श नहीं करती हैं, और तुम पांवों से भूमि का स्पर्श कर रही हो इसलिए तुम मुझ शूर के साथ रहकर इस नगर को सुशोभित करो।
श्री नारदजी कहते हैं - हे वीर ! इस प्रकार पुरंजन उस नारी के सम्मुख प्रार्थना कर रहा था, तब वह सुन्दरी भी राजा को देख मोहित हो गई और आदरपूर्वक उसकी प्रार्थना स्वीकार कर बोली - हे पुरुषोत्तम ! मैं अपने उत्पन्नकर्त्ता को अच्छी तरह नहीं जानती कि हम सबको किसने उत्पन्न किया है ? मैंने जब से होश संभाला है उस दिन से इस पुरी को ही जानती हूँ । मैं यह भी नहीं जानती कि ये मेरे मित्र हैं और यह स्त्रियाँ मेरी सखियाँ हैं।
जब मैं सो जाती हूँ तब यह पांच सिर वाला नाग इस नगर की रक्षा करता है । आपका आगमन बहुत अच्छा हो तो मैं अपने बन्धुओं और इन स्त्रियों को साथ ले तुम्हारे स्नेह को पूरा करूंगी। हे विभो ! मेरे दिये विषय भोगों को भोगते हुए सौ वर्ष तक मेरी रमणीक नगरी में वास करो।
हे राजन् ! आप जैसे पति को पाकर ऐसी कौन स्त्री है जो आपको न वरे । नारद जी कहते हैं - हे राजन् ! इस प्रकार वे दोनों परस्पर प्रेममयी बातें कर रहे थे । तदनन्तर सुन्दरी का हाथ पकड़ पुरंजन उस नगर में प्रवेश कर आनन्द करने लगा । उस नगर में सात द्वार ऊपर और दो द्वार नीचे हैं । वहाँ पाँच द्वार पूर्व को, एक दक्षिण को, एक उत्तर को, दो पश्चिम को थे।
हे राजन् ! अब इनके नाम कहता हूँ। पूर्व की ओर खद्योता और अविरमुखि दो (नेत्र) हैं। इनसे पुरंजन राज विभ्राजित नाम देश (रूप), में ह्युमान नाम ( चक्षु- इन्द्रिय) मित्र के साथ सैर को जाता है। नलिनी और नलिनी नाम (नाक) दो द्वार पूर्व की ओर हैं, इन द्वारों से पुरञ्जन, अवधून (घ्राण) नाम सखा के साथ सौरभ ( गन्ध) नाम देश में सैर को जाता है। उसी ओर मुख्या (मुख) नाम पांचवा द्वार है इससे परंजन आपण (( सम्भाषण) और बहूदन (अन्न) देशों में अपने रसज (जिह्वा) नाम मित्र के साथ सैर करने को जाता है।
हे नृप ! दक्षिण की ओर पितृहू नाम (कर्ण) द्वार है, इससे राजा पांचालदेश (कर्म-काण्ड विषयक शास्त्र) मैं श्रुतधर नाम ( कर्ण इन्द्रिय ) मित्र के साथ हवाखोरी को जाता है तथा देवहू ( वाम कर्ण) उत्तर का द्वार है जिससे राजा (निवृत्त शास्त्र) देश में उसी श्रुवधार नाम मित्र के साथ सैर को जाता है और आसुरी (शिशन) नाम पश्चिम द्वार से पुरंजन (मैथुन सुख) नाम देश में दुर्मद ( उपस्थइन्द्रिय) नाम मित्र के साथ वैशस ( मल त्याग ) नाम देश में सैर को जाता है। इन नवद्वार के अतिरिक्त विर्बाक (पाँव) और पेशस्कृत द्वार से काम करता है। वह निषूचीन (मन) नाम मंत्री के साथ जब अन्तःपुर (हृदय) में आता है, तब स्त्री (बुद्धि) और पुत्रों (इन्द्रियों के परिणाम) मोह (तमोगुण का) कार्य प्रसाद (सत्व गुण का कार्य ) और हर्ष ( रजोगुण का कार्य ) को प्राप्त होता है, इस प्रकार कामी और ठगाया हुआ पुरंजन (जीव ) स्त्री (बुद्धि) की आज्ञानुसार कार्य करने लगता है।
इसकी स्त्री जब मदिरा पीती हैं, तब आप भी पीकर मद में विह्वल हो जाता है। जब खाती है तब आप भी खाते है। गाती है तो गाने लगता है, रोती है तो पुरंजन भी रोने लगता है और जब हंसती है तो हंसने लगता है, बोलती होतो बोलने लगता है।
नारद जी कहते हैं कि- राजन ! स्त्री ने उसे ठगकर अपने बस में कर लिया तो अज्ञानी पुरंजन को मधुर वचन और सुन्दर कटाक्षों से मोहित करके वश में कर लिया। हे राजेन्द्र ! उत्तम शय्या पर स्त्री के हाथ को पुरुषार्थ रूप मानता हुआ परमात्मा को भूल गया ।
हे राजेन्द्र ! इस प्रकार कामातुर हो स्त्री के साथ रमण करते हुए राजा बेसुध हो गया। इन दिनों में पुरंजन की स्त्री से ११०० पुत्र उत्पन्न हुए और ११० कन्यायें हुईं । वे कन्यायें माता-पिता के यश को बढ़ाने वाली गुणयुक्त थीं। फिर पुरंजन ने पुत्रों और पुत्रियों के विवाह कर दिये।
अनन्तर एक-एक पुत्र के सौ-सौ पुत्र हुए, उससे पुरंजन का वंश बहुत बढ़ गया। घर में धन, पुत्र, पौत्रों के वशीभूत हो, मोहजाल में फंसकर यह राजा बन्धन में फँस गया। फिर पुरंजन ने दीक्षा लेकर यज्ञों से देवता, पितर आदि सबों का भजन किया।
पुरंजन की वृद्धावस्था आ पहुँची, जो यौवनमत्त स्त्रियों को अप्रिय है। उस समय गन्धर्वों के राजा चण्डवेग के पास तीन सौ साठ गन्धर्व निवास करते थे और उन गन्धर्वों की तीन सौ साठ स्त्रियाँ थीं। जिनमें आधी काली और आधी श्वेता थीं। उन्होंने पुरंजन की नगरी को घेर लिया। उन्होंने नगरी को लूटना चाहा परन्तु पाँच सिर वाले सर्प ने नगरी को लूटने नहीं दिया। वह बलवान नाग सौ वर्ष तक पर्यन्त युद्ध करता रहा। जब युद्ध करने पर वह थक गया, तब उसने चिन्तायुक्त हो पुरंजन को चेतावनी दी।
हे राजन् ! वो गन्धर्व नगर लूटना चाहते ही थे कि काल- कन्या अपने लिये वर ढूंढ़ती हुई विचर रही थी, परन्तु किसी ने उसको अंगीकार न किया था। पहले उससे राजा पुरुष ने पिता के कहने से विवाह किया था, तब उसने राजर्षि पुरुष को राज्य दिया। एक समय फिरती हुई यह कालकन्या मार्ग में मुझे मिली। वो यद्यपि मुझे जानती थी तथापि कामदेव से मोहित हो मेरे समीप आई और बोली- तू मेरे साथ विवाह कर ले।
मेरे मना करने पर उसने मुझे शाप दिया। हे मुने ! तुम सर्वदा विचरते ही रहोगे। तब मैंने उपदेश किया कि तुम यवनपति भय को जाकर वरो। यह सुन वह राजा भय के पास गई और बोली- हे वीर! मैं तुमको अपना पति बनाना चाहती हूँ। हे मंगलस्वरूप, तुम मुझे अंगीकार करो। काल-कन्या का वचन सुनकर राजा कहने लगा- हे कन्ये ! अपनी ज्ञान दृष्टि से मैंने तेरे लिये पति नियत कर दिया है । तू श्रेष्ठ पुरुषों के अयोग्य है, तू गुप्त रीति से सब संसार को भोग। किसी को न जान पड़े कि यह कहाँ से आ गई ? अब तू हमारी सेक साथ लेकर चली जा।
यह कालज्वर मेरा भाई है और तुम मेरी बहिन होकर जगत में विचरो। मैं भी अपनी सैना साथ लिये तुम दोनों के पीछे गुप्त रीति से इस लोक में विचरता रहूँगा। नारद जी कहने लगे- -तब भय की आज्ञा को सुनकर उसकी सेना के योद्धा और प्रज्वर कालकन्या के साथ पृथ्वी पर विचरने लगे। उन सबों ने एक दिन पुरंजन की नगरी को घेर लिया।
काल-कन्या पुरंजन के पुर को बल से भोगने लगी। कन्या ने भीतर जाते ही फाटकों को खोल दिया, द्वारों में होकर यवन सैनिक पुरी में प्रवेश करके प्रजा को पीड़ा देने लगे। इस अपनी नगरी को क्लेशित देख पुरंजन व्याकुल हो तापों से पीड़ित होने लगा। काल- कन्या के संसर्ग से पुरंजन कान्तिहीन, बुद्धि रहित हो गया। जब काल-कन्या ने पुरवासियों का मर्दन किया, गन्धर्व तथा यवनों ने पुरी में उपद्रव मचाया, तब दुःखित हो पुरंजन नगरी छोड़ने लगा।
इतने में प्रज्वर आ उपस्थित हुआ, उसने सब नगरी जला दी। पुर के लोग और कुटुम्बियों व स्त्री पुत्रों सहित पुरंजन विलाप करने लगा। काल-कन्या ने घिरी हुई नगरी में आग लगा दी, तब वह नाग भी जलने लगा और निकलने की इच्छा करने लगा। पुरंजन के अंग शिथिल हो गये, तब वह रोने लगा। कुमति से बंधा हुआ पुरंजन का जब स्त्री से वियोग का समय आया तब वह विचारने लगा कि जब मैं इस लोक को त्याग कर चला जाऊँगा तो यह मेरी स्त्री छोटे-छोटे बालकों का किस प्रकार निर्वाह करेगी ? इतने में पुरंजन को बवनराज की आज्ञा से बांधकर यवन लोग अपने घर की ओर ले चले, तब शोकाकुल हो हा-हाकार करते हुए कुटुम्बी उसके पीछे दौड़े ।
जब यवनों ने नाग को तंग कर दिया तब वह भी नगरी त्याग कर चला गया। तब उसके निकलते ही वह नगरी नष्ट होकर पंच तत्वमय हो गई । जिस समय बलवान यवनराज इसको पकड़ कर ले जाने लगा तो भी उस अज्ञानी को अपना पूर्व मित्र स्मरण नहीं आया। उस पुरंजन ने जिन पशुओं को मारा था वे सब क्रोधित हो उसके शरीर को कुल्हाड़ी से काटने लगे।
पत्नी के प्रसंग से दूषित राजा अनेक वर्षों तक नरक भोगकर मन में उसी स्त्री का चिंतन रखने से दूसरे जन्म में स्त्री हुआ। विदर्भराजसिंह के घर में जाकर इसने कन्या का जन्म पाया। इस विदर्भ कन्या के स्वयंवर में दक्षिण देश में प्रसिद्ध पाण्ड्य राजा आकर सब राजाओं को युद्ध में जीतकर कन्या को विवाह करके ले गया।
अनन्तर पाण्ड्य राजा ने उस विदर्भी नामी स्त्री से मनोहर कन्या उत्पन्न की और फिर सात पुत्र हुए। इन सात पत्रों में से एक- एक के अनेकानेक सुत हुए। पाण्ड्य राजा की कन्या श्यामा नाम की थी उसका विवाह अगस्त्य मुनि के साथ हुआ। उससे दृढ़च्युत पुत्र हुआ। उसके ईमवार नाम पुत्र हुआ, फिर वह पाण्ड्य राजा पृथ्वी को अपने बेटों को बाँटकर भगवान की आराधना करने की इच्छा से कुचालन पर्वत पर जाने लगा, तब वह वेदभी घर, सुत और अपने पति के साथ चलने लगी।
वहीं चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी, वटोदका नाम की नदियाँ बह रही थीं, उनके पवित्र जल से मज्जन कर दोनों अन्तःकरण के मल को धो डाला। कन्द बीज, मूल, फल, पत्र, घास तथा जल से निर्वाह करता हुआ राजा तप करने लगा । जप, तप, विद्या, यम, नियम से वासनायें भस्म हो गईं ।
तब राजा इन्द्रियाँ, पवन, अन्तःकरण को वश में कर आत्मा को ब्रह्म समझने लगा और सौ वर्ष तक एक स्थान पर खड़ा रहा। उसको भगवान् में प्रीति रखने से देह आदिक वस्तुओं का कुछ भी ज्ञान न रहा।
हे राजन् ! तब आत्मा को ब्रह्म मानता हुआ, अन्त में इस अन्तःकरण की वृत्तिरूप ज्ञान को भी त्यागकर जीवनमुक्त हो गया। वेदर्भी पति की सेवा में प्रवृत्त हुई थी। यह पति के समीप रहने से शान्त स्वरूप हो गई । एक दिन जब पति के चरण स्पर्श किये तो चरणों में गर्मी नहीं जान पड़ी।
तब वह अबला सोच करती, विलाप करने लगी - हे राजर्षि ! उठो-उठो! इस प्रकार विलाप करती हुई वेदर्थी पति के चरणों में गिरी । फिर चिता बनाकर उस पर पति के शरीर को रख आग लगा दी, और आप भी उसमें बैठने को उद्यत हुई। हे राजन् ! उस समय इसका पूर्व मित्र ईश्वर ब्राह्मण का रूप धर वहाँ आया और कहने लगा कि चिता में कौन है ? तू मुझको जानती है, मैं तेरा सखा हूँ,
सृष्टि के समय मुझमें स्थिर होकर तूने सुख विहार किये थे । हे आर्य ! हम और तुम मानसरोवर बासी हंस हैं, और हजारों वर्षों बिना स्थान रहे थे। फिर एक नगर में पाँच उपवन और नवद्वार थे, एक उसका रक्षक, तीन कोट, छः व्यापारी और पाँच हाटें थीं। ऐसी नगरी में जा तू उस स्वामिनी का दास बन गया, और उसके साथ स्मरण करने लगा,
हे मित्र! स्त्री के प्रसंग से तेरी दुर्दशा हुई। तू पूर्वजन्म में अपने को पुरुष मानता था और इस जन्म में स्त्री मानता है। हम दोनों हंस हैं, तू अपनी उड़ान को भूल गया है। हे मित्र ! जो मैं हूँ वही नारदजी कहते हैं कि उस ईश्वर ने इस हृदय में रहने वाले जीव को जब समझाया, तब जीव स्वस्थ हो अपने स्वरूप का विचार कर 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसी स्मृति को प्राप्त हो गया। हे प्राचीनबर्हि ! मैंने पुरंजन के बहाने यह आत्मज्ञान तुझको दिखाया है।
॥ पुरंजन-पुर की व्याख्या ॥
राजा प्राचीनब्रर्हिजी कहने लगे कि हे भगवान! आपके वचनों को ज्ञानी ही समझ सकते हैं, मैं उन्हें कैसे समझ सकता हूँ । जो आपने कहा है इसे फिर कहिये । यह सुन नारदजी बोले - मैंने जिसे राजा पुरंजन कहा उसको जीव जानो, वह अपने प्रारब्ध शरीर को प्रकट करता है। जो अविज्ञात नाम मित्र कहा था, वह ईश्वर है।
जब इस जीव को विषयों को भोगने की इच्छा हुई, तब नव-छिद्र वाले मनुष्य शरीर को अच्छा माना, और जो पुरंजनी मिली थी, उसको बुद्धि जानो। जिस बुद्धि के आश्रित हो जीव इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता है, और जो पुरंजनी के मित्र थे, उनको इन्द्रियाँ जानो और जो सखियाँ थीं उनको बुद्धि की वृत्तियाँ जानो, पाँच सिर वाले सर्प को पाँच प्रकार का प्राण जानो, जो सेनापति था वह मन जानना चाहिए।
पाँचों विषयों को पांचाल देश जानो, जिसमें नव-द्वार वाला पुर, यह शरीर है। पुरंजन की सेना वह ग्यारह इन्द्रियाँ हैं, आखेट करना, सो पाँच हत्या हैं, चण्डवेग गन्धर्व कहे सो वर्ष के दिन हैं, तीन सौ साठ काली और गोरी गन्धर्विनी, वे शुक्ल और कृष्णपक्ष की रानियाँ हैं।
काल-कन्या वृद्धावस्था है, उसको यवनों के राजा मृत्यु के जो सैनिक कहे वह आधि व्याधि हैं, और जो प्रज्वर कहा वह शीतल उष्ण दो प्रकार का ज्वर है। ऐसे नाम्ना अध्यात्मिक त्रयताप स्वयं निर्गुण होने पर भी वह जीव दुःख भोगता हुआ विषयों की तृष्णा रख अहंकार और ममता से कर्म करता हुआ सौ वर्ष तक देह में रहा। यह जीवात्मा जब परमात्मा को नहीं जानकर माया के गुणों में फंस जाता है तब यह जीव देह अभिमान से परवश होकर सात्विक, राजस, तामस कर्म किया करता है और उन कर्मों से क्लेश देने वाले लोकों में जाता है।
यह प्राणी दुःख से कभी छूट नहीं सकता । हे अनघ ! कर्मों की वासना को कर्म ही मिटा दे, ऐसा नहीं हो सकता। जैसे एक स्वप्न में दूसरा स्वप्न देखने लगता है, तो पहला स्वप्न दूसरे स्वप्न को दूर नहीं कर सकता, यद्यपि स्वप्न असत्य है तथापि जब तक मन करके लिंग शरीर की स्वप्नावस्था रहती है, तब तक वह मिट नहीं सकता, इसी प्रकार यह संसार मिथ्या है, तो भी जब तक विषयों का ध्यान रहता है, तब तक वह मिट नहीं सकता है।
हे राजर्षे ! भगवान का अत्यन्त प्रीति से भक्तियोग किया जाये तो उससे ज्ञान और वैराग्य प्राप्त हो जाता है । जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक भगवान की कथा को सुने व निरन्तर अध्ययन करा करे, ऐसे प्राणी को थोड़े ही समय में भक्तियोग प्राप्त हो जाता है। महात्माजनों के मुख से भगवान की चरित्र नदियाँ बहा करती हैं जो मनुष्य कामना से उन नदियों को कानों के द्वारा पान करते हैं उन पुरुषों को क्षुधा, तृषा, भय, शोक, मोह से स्पर्श नहीं करते और स्वभाव से उत्पन्न हुए इन विकारों से उपद्रव युक्त हुआ, यह जीवात्मा हरि की कथारूपी सुधा का पान नहीं करता है।
हे प्राचीनबर्हि! इसलिए तुम अज्ञान से यज्ञादिक कर्मों से कभी भी परमार्थ बुद्धि मत करो। जो लोग ऐसा कहते हैं कि वेद का अभिप्राय कर्म पर है, वे वेद के तात्पर्य को नहीं जानते। तूने पशुओं का वध कर अपने अभिमान का परिचय दिया। तू केवल कर्म को ही प्रधान जानता है और फल देने वाले परमेश्वर को नहीं जानता ।
तुच्छ पदार्थों का करने वाला एक मृग, मृगी के साथ आसक्त हो रहा है, और भ्रमरों की गुंजाहट उसे लुभा रही है। उसके आगे जीवों को मारने वाले भेड़िये खड़े हैं, उनसे भय न कर, आगे बढ़ता जाता है और पीठ में व्याध का बाण लग रहा है। हे राजन् ! तुम अन्वेषण करो कि ये उक्त लक्षण वाला मृग कहाँ है और कौन है ? तब राजा सब तरफ देखने लगा।
नारद जी ने कहा - कि राजा क्या देखते हो ? जो हमने मृग कहा है सो तुम हो, यह विचारो क्योंकि तुम रस सहित स्त्रियों वाले घरों में पुष्प वाटिका के फूलों की मधुर सुगन्धी के समान अत्यन्त तुच्छ जिह्वा आदि का सुख ढूंढ़ते हो और स्त्रियों में ही मन लगाते हो और भौरों की गुंजाहट के समय स्त्री मधुर सम्भाषण में तुम्हारे कान ललचाते रहते हुए जानो, इन्हें अपनी आयु को हरते हुए जानो, इन्हीं दिनों को भेड़ियों रूपी भय न मान तुम विहार कर रहे हो और परोक्ष रीति से तुम्हारे पीछे व्याध रूपी काल-बाण तुमको बींधता है।
प्राचीनबर्हि यह सुनकर कहने लगा- हे भगवान ! आपने जो कहा वह मैंने सुना और मनन भी किया, परन्तु इस ज्ञान को मेरे उपाध्याय नहीं जानते थे, नहीं तो मुझसे अवश्य कहते । हे विप्र ! उन्होंने मेरे आत्मज्ञान में सन्देह कर दिया था वह सब दूर हो गया। परन्तु एक सन्देह है कि यह पुरुष जिस शरीर से कर्म करता है उस शरीर को त्याग परलोक जाता है, वहाँ दूसरे शरीर से कर्मों के फल भोगता है।
मुझे यह पूछना है कि इस देह से किये हुए कर्म दूसरे देह से किस प्रकार भोगे जाते हैं, दूसरा सन्देह यह है कि जैसे अग्निहोत्र कर्म किसी न किसी समय किया, फिर उस समय के अनन्तर वह कर्म अदृश्य हो जाता है। ऐसा वह कर्म अपना फल कैसे देता है ? यह सुनकर नारदजी कहने लगे कि कतृत्व और भक्तृत्व यह स्थूल शरीर का कुछ नहीं है, किन अन्तःकरण का है। सो वह अन्तःकरण स्थूल शरीर के साथ नष्ट नहीं होता और जन्मांतर में जो स्थूल शरीर मिलता है, उस शरीर में यह पूर्वजन्म का अन्तःकरण बना रहता है, इसी से जो करता है सो ही भोगता है।
इस बात को स्वप्न दृष्टांत से स्पष्ट दर्शाते हैं। जब स्वप्न देखने में आता है, उस समय स्थूल शरीर में अन्तःकरण अन्य अनेक विषयों को भोगता है, परन्तु जाग्रत अवस्था के देह का और स्वप्नावस्था का अन्तःकरण एक ही है, अन्तःकरण नहीं बदल जाता है। पुत्रादि मेरे हैं और यह मैं हूँ, ऐसा कह जिस समय शरीर को ग्रहण करता है उसी देह द्वारा कर्म को ग्रहण करता है, जिससे बारम्बार जन्म होता है।
पूर्वजन्म में भी कर्म के समय चित्त की वृत्तियाँ उपस्थित थीं और भोगने के समय भी उपस्थित हैं, इसलिए पूर्वजन्मकृत कर्म नष्ट नहीं होते हैं। यह जीवात्मा कितने स्थूल शरीरों को धारण कर त्याग देता है। मरने वाले मनुष्यों को जब तक पूर्व देह के प्रारब्ध फलों से दूसरा स्थूल देह नहीं मिलता तब तक उनके पहले देह का अभिमान नहीं मिटता। हे राजन् ! सम्पूर्ण बन्धन दूर करके जगत् को भगवत्स्वरूप देखते रहो।
मैत्रेयजी विदुर जी कहते हैं कि नारद जी प्राचीनबर्हि को इस प्रकार जीव और ईश्वर की गति दिखा सिद्ध लोक को चले गये। फिर राजा मंत्रियों से बोले, जब हमारे पुत्र घर आवें तब तुम उन्हें राज्य गद्दी पर बिठा देना। फिर राजा तप करने को गंगासागर के संगम पर कपिलदेव के आश्रम पर गये।
वहाँ राजा भगवान के चरणकमल का भजन कर सायुज्य मोक्ष को प्राप्त हुआ। हे विदुर ! भगवान के प्रभाव से जगत को पवित्र करने वाला, नारदजी के मुख से निकला हुआ आत्मज्ञान सम्बन्धी आख्यान का जो मनुष्य मनन करते हैं, वे इस संसार चक्र में नहीं घूमते और सब बन्धनों से मुक्त हो ब्रह्मलोक को जाते हैं।
।। प्राचीन बर्हि के पुत्रगण को विष्णु का वरदान ।।
विदुरजी ने प्रश्न किया हे ब्रह्मन् ! वे प्रचेता रुद्रगीत स्तोत्र से भगवान को प्रसन्न कर कौनसी सिद्धि को प्राप्त हुए। मैत्रेयजी बोले- ये प्रचेता रुद्र गीत से परमेश्वर को प्रसन्न करते हुए दस हजार वर्ष तक घोर तप करते रहे। उनकी स्तुति से प्रसन्न हो भगवान ने उनको दर्शन दिया और कहा - नृपनन्दनो ! तुम वरदान मांगो, मैं प्रसन्न हूँ।
जो पुरुष सायंकाल तथा प्रातःकाल इस रुद्र गीत से मेरी स्तुति करेंगे उनको मैं मनोवांछित फल प्रदान करूँगा, सब लोकों में तुम्हारी कीर्ति होगे । ब्रह्माजी के गुणों वाला तुम्हारा एक पुत्र होगा। यह त्रिलोकी को अपनी संतानों से पूर्ण कर देगा ।
है राजपुत्रों ! प्रमलोचा अप्सरा ने काण्डू ऋषि के प्रसंग से एक कन्या जन्मी थी वह कन्या उसने वृक्षों में पटक दी । जब वह कन्या भूख से रोने लगी, उस समय कन्या को दुःखी देख वृक्षों के राजा चन्द्रमा ने दयाल हो उसके मुख में अपनी तर्जनी अंगुली दे दी।
प्रचेताओं तुम्हारे पिता ने तुमको प्रजा रचने की आज्ञा दी है, उस आज्ञा को पूरा करने को इस कन्या के साथ विवाह करो । यह कन्या दसों भाइयों की स्त्री होगी । तुम मेरे अनुग्रह से देवताओं के हजारों वर्ष पर्यन्त वैसे ही रहोगे और स्वर्ग तथा पृथ्वी के भोग भोगोगे ।
फिर मुझसे भक्ति करके विषय वासना को दग्धकर नरकरूप इस संसार से वैराग्य हो जाने पर मेरे धाम को प्राप्त होगे । प्रचेता हाथ जोड़कर गद्गद् वाणी से भगवान की स्तुति करने लगे - हे जगत्पते! अपने ज्ञान द्वारा संसार के दुःखों को नाश करने वाले, कमल समान चरणों वाले, आपको नमस्कार है।
हे जगत्पते! मोक्ष मार्ग को दिखाने वाले आप हम पर प्रसन्न हुए, यही वरदान हम चाहते थे। दूसरा वरदान यह मांगते हैं कि हमने जो वेद का अध्ययन किया है. किसी प्राणी से बैर भाव नहीं किया है, इन सबका हम फल मांगते हैं कि आप प्रसन्न हों । इस प्रकार प्रचेताओं ने जब भगवान की स्तुति की, तब भगवान प्रसन्न हो 'तथास्तु' बोले। दर्शन करते-करते प्रचेताओं के नेत्र तृप्त न हुए और यही बाहा कि भगवान न जावें, परन्तु भगवान वहाँ से अपने परमधाम को चले गये ।
तदनन्तर प्रचेता समुद्र से बाहर निकलकर चल दिये। उन्होंने ऊँचे वृक्षों को देख कोप किया, उनको दूर करने के लिए अग्नि और वायु को प्रकट किया। उसकी अग्नि से वृक्षों को जलते देख ब्रह्माजी आये और उनको नीति भरे वचनों से समझाकर शांत करने लगे।
शेष वृक्षों ने भय मान ब्रह्माजी के उपदेश से अपनी कन्या प्रचेताओं को प्रदान कर दीं, तब प्रचेताओं ने ब्रह्माजी की आज्ञा से उस कन्या को अंगीकार किया। उस स्त्री से प्रचेताओं के दक्ष प्रकट हुआ। यह दक्ष पूर्व जन्म में ब्रह्माजी का पुत्र था परन्तु शिवजी का अपमान करने से उसका दूसरा जन्म क्षत्रियों में हुआ और इस
दक्ष ने ईश्वर की प्रेरणा से जैसी चाहिए वैसी ही प्रजा उत्पन्न की। इसने जन्म लेते ही सब तेज वालों के तेज को हर लिया और कर्म करने में इसकी दक्षता देखकर सब उसे दक्ष कहने लगे। सम्पूर्ण प्रजा की रक्षा करने को ब्रह्माजी ने इसको अभिषेक कर प्रजापति नियत किया।
।। प्रचेताओं-गण का वन गमन और मुक्ति लाभ ।।
मैत्रेयजी कहते हैं - जब प्रचेताओं को राज्य करते- करते हजारों वर्ष व्यतीत हो गये तब उनको ज्ञान उत्पन्न हुआ और भगवान के स्मरण में आ जाने से वे लोग अपनी स्त्रियों को पुत्रों पर छोड़, घर त्यागकर वन को चले गये। पश्चिम दिशा में समुद्र तट पर जाकर तप करने लगे। मन, वचन, प्राण को जीत, दृष्टि को वश में कर आसन लगाकर, ब्रह्म में मन लगा बैठे थे कि नारदजी ने आकर दर्शन दिया।
प्रचेताओं ने उठकर उनको प्रणाम किया और विधिपूर्वक पूजन किया फिर बोले - हे मुने ! आज आपका पधारना बहुत अच्छा हुआ। हे प्रभो ! भगवान ने और शिव ने हम को ज्ञानोपदेश दिया था। वह ज्ञान घर में आसक्त होने के कारण हम भूल गये। इसलिए कृपाकर अध्यात्मज्ञान का उपदेश करो।
नारदजी बोले- हे राजकुमारों ! मनुष्यों के जन्म, कर्म, आयु, मन, वचन वे ही सफल हैं कि जिनसे भगवान की सेवा बन सके। जैसे वृक्ष की जड़ सींचने ने उसके शाखा, फूल, फल, पत्र सब तृप्त हो जाते हैं, ऐसे ही भगवान की पूजा से सब देवताओं की पूजा हो जाती है।
जैसे सूर्य किरणों से जल वर्षा होती है फिर ग्रीष्म ऋतु में सूर्य में ही जल लीन हो जाता है इसलिए भगवान से पृथक कुछ भी नहीं है। परमात्मा को अपनी आत्मा समझ कर उसको भजन करो। सब प्राणियों पर दया करो, जो कुछ मिल जाय उसी में सन्तोष करो, इन आचरणों से भगवान शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं।
हे विदुर ! नारदजी ने प्रचेताओं को उपदेश किया, ध्रुवजी की कथा कह भगवद् भक्ति का सच्चा आदर्श बताया। इसी प्रकार अनेक कथायें कहकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गये।
नारदजी के आदेशानुसार प्रचेतागण भी भगवान में भक्ति रखते हुए और उसके ध्यान को धरते हुए बैकुण्ठ धाम गये।
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