व्यासजी तपस्या और भगवान् शंकर का वरदान, राजा सुद्युम्न की इला नामक स्त्री रूप में परिणति, पुरूरवाकी उत्पत्ति, सुद्युम्न की देवी उपासना तथा भगवती की कृपासे सुद्युम्न को परम्न को परमधाम की प्राप्ति, राजा पुरूरवाको उर्वशी की प्राप्ति और प्रतिज्ञाभंग के कारण उर्वशी का राजा को छोड़कर चले जाना ।

ऋषिगण बोले-सूतजी! आप पहले कह चुके हैं कि व्यासजी बड़े तेजस्वी थे। उन्होंने सम्पूर्ण पावन पुराणोंकी रचना करके शुकदेवजीको पढ़ा दिया। किस प्रकारकी तपस्या करनेके प्रभावसे उन्हें शुकदेवजी पुत्ररूपमें प्राप्त हुए थे – इस विषयमें व्यासजीके मुखारविन्दसे आपने जो कुछ सुना हो, वह सब वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कहनेकी कृपा कीजिये। 


सूतजी कहते हैं-शुकदेवजी उच्चकोटिके साक्षात् योगी थे। सत्यवतीनन्दन व्यासजीसे जैसे उनका जन्म हुआ, वह कहता हूँ। एक समयकी बात है-महाभाग व्यासजी 'मुझे पुत्र हो'- यह निश्चित विचार करके मेरुगिरिके रमणीय शिखरपर गये और उन्होंने कठिन तपस्या आरम्भ कर दी। उनके मनमें बार-बार विचार उठता था कि 'शक्तिकी उपासना अवश्य होनी चाहिये। जो शक्तिका पूजन नहीं करता, जगत्में उसकी निन्दा होती है। शक्तिका उपासक आदर पाता है।' सत्यवतीनन्दन व्यासजी सुमेरुगिरिके जिस शिखरपर तपस्या करते थे, वहाँ एक बड़ा अद्भुत कनेरका उपवन था। 


सभी देवता और महान् तपस्वी मुनि वहाँ कीड़ा करते थे । आदित्य, वसु, रुद्र, मरुत् और अश्विनीकुमार तथा अन्य भी ब्रह्मको साक्षात्कार किये हुए मुनिगण वहाँ ठहरे हुए थे। निरन्तर संगीत- ध्वनि होती थी। फिर तो चराचर सम्पूर्ण जगत्में व्यासजीका तेज फैल गया। उनकी जटाएँ अग्निके समान चमकने लगीं। उस समय उनके तेजको देखकर शचीपति इन्द्र डर गये। देवराजके मनमें व्यथा उत्पन्न हो गयी। वे भगवान् शंकरके पास जाकर खड़े हो गये। उनकी स्थिति देखकर भगवान् शंकरने कहा।


शंकरजी बोले- 'इन्द्र ! तुम देवताओंके राजा हो। आज कैसे भयभीत हो गये ? तुमपर कौन-सा दुःख टूट पड़ा। तुम्हें कभी भी तपस्वियोंके प्रति अमर्ष नहीं करना चाहिये शक्तिसहित मैं उपास्य हूँ-यों जानकर मुनिगण तपस्यामें लगे रहते हैं। वे किसी प्रकार भी दूसरेका अहित नहीं करना चाहते।' जब शंकरने इन्द्रसे यों कहा, तब वे उनसे पूछने लगे- 'व्यासजी क्यों तपस्या करते हैं और उनके मनमें क्या अभिलाषा है ?'


भगवान् शंकरने कहा- पराशरनन्दन व्यास पुत्र पानेके लिये कठिन तपस्या कर रहे हैं। अभी सौ वर्ष पूरे हो जाते हैं, तब मैं उन्हें सुन्दर पुत्र दूँगा ।


सूतजी कहते हैं- इस प्रकार भगवा शंकरने इन्द्रसे कहा। तत्पश्चात् वे जगद्गुरु शंकर व्यासजीके पास गये और कहने लगे- वासवीनन्दन व्यास! उठो। तुम्हें अभी सुन्दर पुत्र प्राप्त होगा। अनघ! तुम्हें सम्पूर्ण तेजोंका साकार विग्रह, ज्ञानी, यशका विस्तार करने- वाला तथा अखिलजनोंका प्रिय पुत्र प्राप्त होनेवाला है। उसमें सभी सात्त्विक गुण उपस्थित रहेंगे। साथ ही वह सत्यपराक्रमी भी होगा।


सूतजी कहते हैं- भगवान् शंकरकी मधुमयी सुनकर महाभाग व्यासजीने उनके चरणों में वाणी मस्तक झुकाया और वे अपने आश्रमको चले गये। बहुत वर्षोंके परिश्रमसे वे थक गये थे। 'पुत्र उत्पन्न करनेके लिये जो अरणि (अर्थात् कामिनी)' विख्यात है, वह तो आज मेरे पास है नहीं। परंतु मैं किसी स्त्रीको स्वीकार भी कैसे करूँ; क्योंकि स्त्री तो पैरोंको जकड़नेवाली श्रृंखला ही है। स्त्री चाहे पुत्र उत्पन्न करनेमें कुशल, पातिव्रत धर्मके पालनमें निपुण और रूपवती भी क्यों न हो, है तो वह बन्धन- स्वरूप ही। वह अपनी इच्छाके अनुसार सुख भोगना पसंद करती है। गृहस्थका जीवन बड़ा ही संकटमय है; फिर, अब मैं उसे कैसे स्वीकार करूँ।' मुनिवर व्यासजी याँ सोच रहे थे- इतनेमें ही घृताची नामकी अप्सरा दिव्य रूप धारण किये हुए उन्हें दृष्टिगोचर हुई। उस समय वह मुनिके समीप ही आकाशमें खड़ी थी। अप्सराओंमें उसका सर्वोच्च पद था। 'अब मुझे क्या करना चाहिये ? यदि मैं इसे स्वीकार कर लेता हूँ तो अनेकों तप करनेवाले महात्मा मेरी हँसी उड़ायेंगे। जो कुछ भी हो, उत्तम सुख देनेवाला तो गृहस्थाश्रम ही है। कहा जाता है—यह आश्रम पुत्र देता है, स्वर्ग पहुँचाता है और ज्ञान हो जानेपर मोक्ष भी दे देता है। बहुत पहले नारदजीसे मैं एक प्रसंग सुन चुका हूँ। उर्वशी नामक अप्सरा थी। राजा पुरूरवा उसके वशमें हो गये थे। अन्तमें उस अप्सराने राजाका तिरस्कार कर दिया था। 


मुनियोंके पूछने पर सूतजी कहने लगे- मुनिवरो! इलाके गर्भसे पुरूरवाकी उत्पत्ति हुई थी - यह प्रसंग अब तुम्हें सुनाता हूँ। पुरूरवा यज्ञ और दानमें संलग्न रहनेवाले एक धार्मिक पुरुष हो गये हैं। सुद्युम्न नामक एक राजा थे। उनके मुखसे कभी असत्य वाणी नहीं निकलती थी। इन्द्रियोंपर उनका अधिकार था। एक बार ये घोडेपर सवार होकर शिकार खेलनेके लिये जंगलमें गये । साथमें बहुत से मन्त्री भी थे। आजगव नामक धनुष और बाणोंसे भरा हुआ अद्भुत तरकस उन्होंने ले रखा था। शिकार करते हुए वे राजा सुद्युम्न एक विचित्र वनमें जा पहुँचे। वह दिव्य वन मेरुगिरिके निचले भागमें था। पारिजातके वृक्षोंसे उसकी अनुपम शोभा हो रही थी। अशोक, बकुल तथा सुन्दर लताओंसे वह महक रहा था। साखू, तरकुल, तमाल, चम्पा, कटहल, आम, नीम, महुआ और वासन्ती लताएँ चारों ओरसे उस वनको घेरे हुए थीं। अनार, नारियल और केलेके वृक्ष उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। जूही, मालती और कई आदि फूलवाली लताओंसे वह भरा था। वहाँ अनेकों हंस और बगुले विचरते थे। निरन्तर बाँसोंकी ध्वनि होती रहती थी। भँवरे गुनगुनाते थे। वह वन सम्यक् प्रकारसे सुखदायी था। राजा सुद्युम्न उस वनको देखकर बड़े हर्षित हुए। वृक्ष फूलोंसे लदे थे और कोयलें कूक रही थीं। यह देखकर राजा और उनके सेवकोंके मन मुग्ध हो गये। फिर तो महाराज सुद्युम्न उस वनमें घुसे। जाते। ही उनका रूप स्त्रीका हो गया और घोड़ा भी घोड़ीके रूपमें परिणत हो गया। अब तो वे घोर चिन्तामें पड़ गये। सोचा- 'यह क्या हो गया ?' वे अत्यन्त चिन्तित हो उठे। बार-बार चिन्ताकी लहरें उठने लगीं। उन्हें असीम कष्ट हुआ। वे लज्जित हो गये। विचारने लगे-'मेरी आकृति स्त्रीकी हो गयी। अब मैं क्या करूँ, कैसे घर जाऊँ! अब मैं किस प्रकार राज्यका शासन सँभालूँगा ? अरे, मुझे किसने ठग लिया ?'


ऋषिगण बोले- सूतजी ! आपने बड़े ही आश्चर्यकी बात कही कि राजा सुद्युम्न स्त्री हो गये। उनमें तो देवताके समान पराक्रम था, फिर क्यों उन्हें स्त्री हो जाना पड़ा ? उस अत्यन्त रमणीय वनमें राजाने कौन-सा ऐसा कार्य किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें यह दशा प्राप्त हुई ? सुव्रत! इसे विस्तारपूर्वक कहनेकी कृपा कीजिये ।


सूतजी कहते हैं- एक समयकी बात है- भगवान् शंकरका दर्शन करनेके लिये सनक प्रभृति ऋषिगण वहाँ पधारे थे। उस समय भगवान् शिव भगवती उमाके साथ क्रीड़ामें मग्न थे। ऋषियोंको देखकर उमा अत्यन्त लज्जित हो गयीं। वे पतिदेवके पाससे उठीं और लज्जित होकर अलग बैठ गयीं। उनका शरीर बड़े जोरसे काँपने लगा। उन दोनोंके आनन्दका अवसर देख ऋषिगण यत्र-तत्र बिखरकर शीघ्र ही भगवान् नारायणके आश्रमको चले गये। अपनी प्रिया पार्वतीको अत्यन्त लज्जित देखकर भगवान् शंकरने उनसे कहा- 'तुम क्यों इतनी लज्जित हो रही हो, मैं अभी तुम्हें सुखी किये देता हूँ। वरानने! देखो, आजसे कोई भी पुरुष मोहवश इस वनमें पैर रखेगा तो तुरंत ही वह स्त्री हो जायगा।' इस प्रकार भगवान् शंकरने उस वनको शाप दे दिया, तबसे वह वन दोषका खजाना बन गया। जहाँ कहींके जो लोग इस बातको जानते हैं, वे उस कामवनमें कभी भूलकर भी पैर नहीं रखते। महाराज सुद्युम्न इस बातसे अनभिज्ञ थे, अतएव मन्त्रियोंसहित वहाँ चले गये। इसलिये सबके साथ ही उन्हें शापके अनुसार स्त्रीत्व स्वीकार करना पड़ा। अब उन राजर्षि सुद्युम्नपर चिन्ताके मेघ उमड़ पड़े। लज्जाके कारण वे घर न जा सके। उस वनसे निकलकर बाहर ही इधर-उधर घूमने लगे। स्त्री होनेके कारण उस समय उनका नाम 'इला' पड़ गया। वे चारों ओर घूम रहे थे, इतनेमें चन्द्रमाके नवयुवक पुत्र बुधसे उनकी भेंट हो गयी। इलाका रूप बड़ा ही मनोहर था। अनेकों स्त्रियाँ उसके साथ थीं। महाभाग बुधने उसे अपनी पत्नी बनानेकी इच्छा प्रकट की। इलाके मनमें भी बुधको पति बनानेकी बात जँच गयी। फिर तो प्रेमपूर्वक दोनोंका परस्पर सम्बन्ध हो गया। उसी इलाके गर्भसे बुधने पुरूरवा नामक पुत्र उत्पन्न किया।


उस सुन्दरी स्त्री इलाने वनमें रहकर पुत्र तो उत्पन्न कर दिया; किंतु उसके मनमें चिन्ताकी लहरें उठती ही रहीं। वहीं उसने अपने कुलके आचार्य मुनिवर वसिष्ठजीको याद किया। वसिष्ठजी बड़े दयालु थे। उन्होंने सुद्युम्नकी दशा देखकर जगत् के कल्याण करनेवाले देवाधिदेव भगवान् शंकरकी स्तुति की। भगवान् शिव मुनिवरपर प्रसन्न हो गये। वसिष्ठजीने अपने प्रियपात्र राजाके पुनः पुरुष होनेकी प्रार्थना की 'तब अपनी बात भी सत्य रहे'- यह सोचकर भगवान् शंकरने कहा- 'राजा एक मास पुरुष रहेगा और एक मास तो इसे स्त्री ही रहना पड़ेगा।' इस प्रकार वर पाकर धर्मात्मा सुद्युम्न पुनः अपने घर चले आये। वसिष्ठजीकी कृपासे उन्होंने राज्यकी व्यवस्था आरम्भ कर दी। स्वी होनेपर वे महलमें रहते थे और पुरुष रहते समय उनके द्वारा राज्यका अनुशासन होता था। उस समय प्रजामण्डलमें अशान्ति फैल गयी। ऐसे राजा उन्हें अप्रिय से जान पड़ते थे।


समयानुसार पुरूरवाकी युवा अवस्था है गवी, तब राजा सुद्युम्न उन्हें राजगद्दीपर बैठाकर स्वयं वनको चले गये। अनेक वृक्षोंसे सम्पन उस सुन्दर वनमें जाकर उन्होंने मुनिवर नारदजीसे उत्तम नवाक्षर मन्त्रकी दीक्षा ग्रहण की और अत्यन्त प्रेमपूर्वक उस मन्त्रका जप आरम्भ कर दिया। फिर तो सबका उद्धार करनेवाली गुणमयी भगवती योगमाया राजापर प्रसन्न हो । गयीं। सिंहपर बैठकर वे राजाके सामने पधारी। उनका दिव्य रूप बड़ा ही मनोहर था। दिव्य रूप धारण करनेवाली उन देवीके दर्शन पाकर स्त्री बने हुए राजा सुद्युम्नकी आँखें आनद उत्फुल्ल हो उठीं, उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ सिर झुकाकर भगवती जगदम्बिकाको प्रणाम किया और स्तुति आरम्भ कर दी।


इलाने कहा- भगवती! मैंने आपके सुप्रसिद्ध दिव्य रूपकी झाँकी पा ली। इस रूपसे अखिल जगत्‌का कल्याण हो जाता है। माता! देवगण जिसकी उपासना करते हैं तथा मुक्ति देना और मनोरथ पूर्ण करना जिसका स्वभाव ही है उस आपके चरणकमलमें मैं मस्तक झुकाती है। जगदम्बिके! जब देवता और मुनिगण – ये सब भी आपके स्वरूपके सम्बन्धमें सम्यक् प्रकारसे निर्णय नहीं कर पाते, तब पृथ्वीपर रहनेवाला साधारण मनुष्य उसे कैसे जान सकता है। दयामयी! आपकी दयापूर्ण दृष्टि पड़नेपर ही आपके सम्पूर्ण प्रभाव समझमें आते हैं। देवी! आपके वैभवको देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। जब ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वरुण, पवन, कुबेर तथा वसुगणतक आपके सम्पूर्ण गुणोंसे अपरिचित हैं, तब गुणहीन मनुष्य क्योंकर उन्हें समझ सकता है? माता! भगवान् विष्णु महान् तेजस्वी हैं, तब भी सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रदान। करनेवाला लक्ष्मीके रूपमें आपका जो सात्त्विक स्वरूप है, उसे ही वे जानते हैं। ब्रह्माजी आपके राजस रूपसे और शंकर तामस रूपसे परिचित हैं। कहाँ तो मैं प्रचण्ड मूर्ख और कहाँ आपका यह अत्यन्त प्रभावशाली परम प्रसाद- मेरे लिये यह कितना असम्भव है। भवानी! आपका कृपापूर्ण चरित्र समझमें आ गया। अनन्य भक्तिसे उपासना करनेवाले सेवकोंपर दया करना आपका स्वभाव ही है। जब आपने लक्ष्मीरूपसे विराजमान होकर इनसे सम्बन्ध स्थापति किया, तभी ये विष्णु मधु दैत्यको मारनेमें समर्थ हुए। फिर भी ये प्रसन्नतापूर्वक आपसे व्यवहार नहीं कर पाते, अपितु चरण दबवाते हैं-इसका रहस्य तो यह है कि आपका हाथ अग्निके सदृश तेजस्वी है। उससे स्पर्श कराकर वे अपने पैरोंको पवित्र बनाते हैं ताकि पृथ्वीका भार संभाल सकें । पुराणपुरुष भगवान् विष्णुकी छाती में भृगुजीने लात मारी; किंतु आप श्रीदेवीकी अभिलाषासे वे अप्रसन्न न हुए, जैसे काटे जानेपर भी अशोक वृक्ष भविष्यमें अच्छा सज जानेकी आशासे अप्रसन्न नहीं होता। सभी देवता भगवान् विष्णुको प्रणाम करते हैं और उन श्रीहरिका मन आपमें लगा रहता है। देवी! आप भगवान् विष्णुके अत्यन्त विस्तृत, शान्त एवं भूषणोंसे भूषित वक्षःस्थलपर शय्याकी भाँति सदा उसी प्रकार विराजमान रहती हैं, जैसे बिजली मेघमालामें शोभा पाती है। तो फिर क्या वे जगत्प्रभु विष्णु आपके वाहन नहीं हुए ? माता! यदि आप नाराज होकर उन्हें छोड़ दें तो निश्चित है कि उनकी पूजा असम्भव हो जायगी। प्रत्यक्ष देखा जाता है कि कोई पुरुष शान्त, सुशील और गुणी भले ही हो; किंतु उसके पास आपका (शक्तिका) वास न हो तो अपने कहलानेवाले भाई-बन्धु भी उसे छोड़ देते हैं। अमितप्रभावशालिनी देवी! सदा तुम्हारे चरणकमलोंकी उपासनामें उद्यत रहनेवाले जो ब्रह्मा आदि देवता हैं, क्या ये कभी स्त्री नहीं थे। मैं तो मानती हूँ कि ये भी स्त्री थे और तुमने ही इन्हें पुरुष बनाया है। माता! तुम्हारी शक्तिका कितना वर्णन करूँ ? माता! तुम जब पुरुषको स्त्री और स्त्रीको पुरुष बनानेकी शक्ति रखती हो, तब मुझे भी पुरुष बना देनेकी कृपा करो। तब देवीने प्रसन्न होकर इलाको पुरुष बना दिया। तदनन्तर सुद्युम्नने कहा- 'देवी! मेरे मनमें तो ऐसी कल्पना उठती है कि तुम न स्त्री हो। न पुरुष हो; न निर्गुण हो और न सगुण । अथवा तुम जो कोई भी हो, मैं भक्तिभावके साथ अनवरत तुम्हें प्रणाम करता हूँ। माता! यही अभिलाषा है कि तुम्हारे प्रति मेरी भक्ति सदा बनी रहे।'




सूतजी कहते हैं- इस प्रकार स्तुति करके। राजा सुद्युम्न भगवतीके शरणागत हो गये। भगवतीने बहुत प्रसन्न होकर उन्हें अपने धाममें भेज दिया। इस प्रकार भगवती जगदम्बिकाके कृपाप्रसादसे राजा उस परमपदके अधिकारी हो गये, जहाँसे लौटना नहीं होता तथा देवतालोग भी जिस पदके लिये लालायित रहते हैं।


सुद्युम्नके स्वर्ग सिधारनेपर पुरूरवा राज्य करने लगे। वे महान् गुणी और प्रजाकी प्रसन्नतामें सदा प्रयत्नशील रहनेवाले थे। प्रतिष्ठानपुर बड़ा ही रमणीय नगर था। उसीमें उनकी राजधानी थी। प्रजाकी रक्षामें सदा संलग्न रहनेवाले तथा सम्पूर्ण धर्मोके ज्ञाता पुरूरवाके हाथमें अब शासन सूत्र आ गया। वे अमित उद्यमशील थे। प्रभुशक्ति तो उनमें थी ही। साम, दान, दण्ड, भेद- सब उनके अधीन रहते थे। उनके राज्यकालमें सभी वर्ण अपने-अपने आश्रम- धर्मका पालन करते थे। महाराज पुरूरवाने विविध यज्ञ किये- जिनमें प्रचुर दक्षिणाएँ बाँटी गयीं। उनके रूप, गुण, वैभव, सदाचार, स्वभाव और शक्तिकी बात सुनकर उर्वशी आसक्त हो गयी। उसने राजा पुरूरवाको पति बनाना चाहा। वह अप्सरा ब्रह्माजीके शापसे मर्त्यलोकमें आयी हुई थी। राजा पुरूरवाको गुणी समझकर उन्हें उसने वरण किया। पर उसने राजाके सामने ये शर्तें रखीं – 'राजन्! तुम्हारे पास ये दो मेंढ़े रहते हैं, इनकी तुम्हें रक्षा करनी होगी। मैं प्रतिदिन घृत ही खाऊँगी। इसके सिवा मेरा दूसरा कुछ। भी भोजन न होगा। महाराज! मैथुनके अतिरिक्त मैं तुम्हें कभी नग्न न देख सकूँगी! राजन्! यदि यह शर्त कभी भंग हुई तो तुम्हें छोड़कर मैं चली जाऊँगी। यह बिलकुल सत्य बात कहती हूँ।' राजाने उर्वशीकी शर्त स्वीकार कर ली। तब शापसे उद्धार पानेके लिये वह प्रतिज्ञापूर्वक वहाँ रहने लगी। उस समय राजाकी बुद्धि और मनका एकमात्र विषय उर्वशी ही बन गयी थी। वे उसपर इतने आसक्त हो गये कि उसके बिना क्षणभर भी रहना उनके लिये असम्भव हो गया। इस प्रकार अनेकों वर्ष व्यतीत हो गये। देवराज इन्द्र स्वर्गमें थे; उन्होंने उर्वशीको वहाँ नहीं देखा, तब वे गन्धर्वोसे कहने लगे- 'गन्धर्वो! तुम सब लोग उर्वशीको यहाँ लानेका प्रयत्न करो। राजा पुरूरवाकी आँखोंसे ओझल होकर उनके घरसे मेंढ़ोंको चुरा लिया जाय तो निश्चय ही काम बन जायगा। यहाँ मेरा स्थान उर्वशीके बिना उदास हो गया है- इसकी शोभा ही नष्ट हो गयी है। अतः जिस किसी उपायसे भी उस सुन्दरी अप्सराको यहाँ अवश्य लौटा लाओ।'


तदनन्तर देवराज इन्द्रके कथनानुसार विश्वावसु प्रभृति अनेकों गन्धर्व पुरूरवाके महलमें गये। खूब अँधेरा छाया हुआ था। गन्धर्वोने मेंढ़ोंको चुरा लिया। वे जब उन्हें लेकर आकाशमार्गसे चले, तब मेंढ़े चिल्लाने लगे। उर्वशी उन मेंढ़ोंको पुत्रके समान मानती थी। | उनकी चिल्लाहट सुनकर वह कुपित हो उठी। साथ ही उसने नरेशसे कहा-'इन मेंढ़ोंको सुरक्षित रखनेकी तुमने प्रतिज्ञा की थी, किंतु राजन्! आज तुम्हारे विश्वासमें आकर मैं नष्ट हो गयी। ये मेंढ़े मुझे पुत्रके समान प्यारे थे। इन्हें चोरोंने चुरा लिया और तुम 'स्त्रीके समान आँखें मूँदे पड़े हो। तुम नपुंसक हो, केवल अपने मनमें ही वीर बने हुए हो तुम जैसे पतिके । साथ रहकर मैं चौपट हो गयी। अरे, ये दोनों मेंढ़े मुझे प्राणोंके समान प्रिय थे। किंतु आज ये मेरी आँखोंसे ओझल हो गये।' इस प्रकार उर्वशी विलाप करने लगी। उसे उदास देखकर अपनी सुधि -बुधि खोये हुआ राजा पुरूरवा नंगे ही झट चोरोंके पीछे दौड़ पड़े। ठीक उसी समय राजभवनके सामने ही गन्धर्वोकी प्रेरणासे बिजली चमक उठी। राजा जानेकी उतावलीमें थे। अप्सराने उन्हें नंगे ही देख लिया। फिर तो सभी गन्धर्व रास्तेमें ही मेड़ोंको छोड़कर भाग गये। राजाने उन मेंड़ोंको पकड़ लिया और वे थके-माँदे अपने भवनपर लौट आये। उस समय उन्हें उर्वशी दिखायी नहीं पड़ी। तब पुरूरवा अत्यन्त दुःखी होकर विलाप करने लगे। परंतु वह सुन्दरी स्त्री उर्वशी तो पतिको नग्न देखकर कभीकी जा चुकी थी। अब स्वयं राजा पुरूरवा रोते हुए देश-देशान्तरोंमें चक्कर काटने लगे। उनका मन उर्वशीमें अटका हुआ था। पागलकी- सी दशा हो गयी थी। वे सारे भूमण्डलपर घूमते रहे। उन्हें कुरुक्षेत्रमें उर्वशी दिखायी पड़ी। उसे देखकर महाराज पुरूरवाका सर्वाग पुलकित हो उठा। फिर मीठी वाणीमें वे कहने लगे- 'अरी सुन्दरी! ठहरो, ठहरो! मेरा चित्त तुममें लगा हुआ है। मैं तुम्हारे अधीन होकर रहता हूँ। मैंने कोई अपराध भी नहीं किया है। फिर मुझ पतिको इस घोर संकटमें छोड़ना तुम्हारे लिये कहाँतक उचित है ? देवी! वही यह तुम्हारा प्रिय देह है। तुम्हारे दूर होनेपर अब यह नष्ट हो रहा है। सुन्दरी! यदि तुमने इसका परित्याग कर दिया तो इसे सियार और कौए खा जायँगे - अर्थात् मैं जी नहीं सकूँगा।'


इस प्रकार राजा पुरूरवा दुःखी होकर विलाप कर रहे थे। बड़ी दयनीय दशा हो गयी थी। वे थक गये थे- अत्यन्त विवश हो गये थे। तब उनसे उर्वशीने कहा ।


उर्वशी बोली- महाराज! तुम बड़े मूर्ख हो । तुम्हारी बुद्धि कहाँ कुण्ठित हो गयी ? तुम घर जाओ । वहाँका ही आनन्द भोगो । मनमें यों विषाद करना व्यर्थ है। इस तरह समझानेपर भी महान् मोहमें डूबे हुए पुरूरवाको ज्ञान न हो सका। वे दुःखके उमड़े सागरमें गोता खाते रहे।


सूतजी कहते हैं - इस प्रकार यह कथा मैंने कह दी। उर्वशीका प्रसंग बहुत बड़ा है। मैं तो इसे थोड़ेमें ही कह गया।


अध्याय 10 - 13