श्री शुकदेव जी का जन्म और व्यास जी के द्वारा विवाह के लिए कहे जाने पर शुकदेव जी का अस्वीकार करना, वट पत्र पर स्थित बालकरूप भगवान् विष्णु की कथा 



सूतजी कहते हैं — घृताची नामकी उस सुन्दरी अप्सरा को सामने देखकर व्यास जी अपार चिन्ता में पड़ गये , सोचा मैं क्या करूँ ? यह देवकन्या अप्सरा मेरे अनुरूप नहीं है, उस समय विचार सागर में निमग्न मुनि को देखकर अप्सरा के मन में आतंक छा गया। सोचा मुनि कहीं मुझे शाप न दे दें । उसने अपना रूप सुग्गी का बना लिया और डरती हुई वह मुनि के आगे से निकली, अब उसे पक्षीके रूपमें देखकर व्यासजी बड़े आश्चर्यमे पड़ गये। अप्सराको देखनेके साथ ही मुनिके शरीरमें कामका संचार हो गया था। उस समय अग्नि प्रकट करनेके विचारसे व्यासजी काष्ठ- मन्थन कर रहे थे। अकस्मात् उस लकड़ीपर ही उनका वीर्य गिर पड़ा। पर वे काष्ठ-मन्थन करते ही रहे। मुनिके उसी अमोघ वीर्यसे शुकदेवजीका आविर्भाव हो गया। 


व्यासजीके समान ही शुकदेवजीकी बड़ी भव्य आकृति थी। काष्ठसे उत्पन्न हुए उस बालकने व्यासजी के मनको आश्चर्यचकित कर दिया। जिस प्रकार यज्ञमें हवि पानेपर अग्नि प्रदीप्त हो उठती है, वैसे ही शुकदेवजीकी आकृति चमचमा रही थी। पुत्रको देखकर मुनिके आश्चर्यकी सीमा न रही। मनमें आया-यह कैसी घटना घट गयी ? उन्होंने यो विचार किया कि हो न हो, यह भगवान् शंकरके वरका ही प्रभाव है। काष्ठसे प्रकट हुए शुकदेवजी तेजके मूर्तिमान् विग्रह ही जान पड़ते थे।


अपने तेजसे एक दूसरे अग्निकी भाँति उनकी आभा चमक रही थी। दिव्य तेजसे सम्पन्न एक दूसरे गार्हपत्य अग्निकी तुलना करनेवाले एवं परम प्रसन्न पुत्रको जब मुनिने देखा, तब उन्होंने तुरंत गंगामें गोता लगाया और फिर वे पर्वतके शिखरपर आ गये। तपस्वीलोग आकाशसे बालक शुकदेवजीपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। व्यासजीने महात्मा शुकदेवके जातकर्म आदि सभी संस्कार सम्पन्न किये। विश्वावसु. नारद और तुम्बुरु आदि प्रधान गन्धर्वोके मनमें अपार हर्ष हुआ। वे सब शुकदेवजीके दर्शनार्थ आये और गान करने लगे। काष्ठसे प्रकट इस दिव्य बालक शुकदेवजीके दर्शन पाकर सम्पूर्ण महाभाग विद्याधरोंको असीम आनन्द हुआ।


उन्होंने स्तुति आरम्भ कर दी। द्विजवरो! शुकदेवजीके धारण करनेके लिये दण्ड, सुन्दर कृष्णमृगचर्म और दिव्य कमण्डलु स्वयं आकाश से पृथ्वीपर आ गये। शुकदेवजी बहुत शीघ्र बड़े हो गये, प्रकाश तो उनका जन्मका ही साथी था।। विविध विद्याओंके विशेषज्ञ व्यासजीने उनके यज्ञोपवीतकी विधि पूरी की। जन्मके समय है रहस्य और संग्रहसहित सभी वेद शुकदेवजी के पास उसी प्रकार विराजमान हो गये, जैसे उन्होंने व्यासजीको सुशोभित किया था। मुनिवरो! पुत्रोत्पत्तिके समय व्यासजीने घृताची अप्सराको। सुग्गीके रूपमें देखा था, अतएव बालकका नाम शुकदेव रख दिया। शुकदेवजीने बृहस्पतिको विद्यागुरु बनाया। ब्रह्मचर्यके व्रतमें कोई भी विधि अधूरी नहीं रही।


गुरुकुलमें रहकर रहस्यों और संग्रहोंसहित सम्पूर्ण वेदों एवं अखिल धर्मशास्त्रोंका उन्होंने भलीभाँति अध्ययन कर लिया। गुरुको दक्षिणा दे दी। समावर्तन हो जानेपर वे अपने पिता व्यासजीके पास आ गये। पास आये हुए पुत्रको देखकर व्यासजी प्रसन्नतापूर्वक उठे और शुकदेवजीको बारम्बार उन्होंने हृदयसे लगाया। वे उनका मस्तक सूँघने लगे। कुशल पूछने के पश्चात् उत्तम विद्याध्ययनके प्रसंगमें बातचीत की। 'तुमने भलीभाँति विद्या पढ़ ली।' यो आश्वासन देकर व्यासजीने शुकदेवजीको आश्रमपर रख लिया।


तदनन्तर व्यासजी शुकदेवजीका विवाह करनेकी बात सोचने लगे। उन्होंने शुकदेवजी से भी कहा- 'अनघ! तुम बड़े बुद्धिमान् हो। बेटा! तुमने सभी वेद और धर्मशास्त्र पढ़ लिये। अब अपना विवाह कर लो। गृहस्थ बनकर देवताओं और पितरोंका यजन करो। पुत्र! विवाह । करके मुझे पितृ ऋणसे मुक्त करना तुम्हारा परम कर्तव्य है। शुकदेव! तुम बड़े बुद्धिमान्। हो। तुम्हें गृहस्थाश्रममें रहनेपर मुझे महान् सुख होगा। बेटा! तुमसे मुझे बड़ी आशा है, उसे तुम्हें पूर्ण करना चाहिये। महाप्राज्ञ! अत्यन्त कठिन तपस्या करनेके पश्चात् तुम अयोनिजका मैंने। मुख देखा है। शुकदेव! तुम दिव्य रूप हो। मैं तुम्हारा पिता हूँ। मेरी रक्षा करो।'


सूतजी कहते हैं-इस प्रकार कहनेपर पूर्ण वैरागी शुकदेवजीने अपने पिता व्यासजीसे यों कहना आरम्भ किया।


शुकदेवजीने कहा-पिताजी! भला, बताइये। तो मर्त्यलोकमें ऐसा कौन-सा सुख है, जिसमें दुःख न भरे हों ? पण्डितजन ऐसे सुखको सुख ही नहीं कहते। महाभाग! विवाह कर लेनेपर मैं। स्त्रीके वशमें हो जाऊँगा। पराधीन हो जानेपर- विशेषतः जब स्त्री मुझे अपने काबूमें कर लेगी, तब मेरे लिये कौन-सा सुख रह जायगा ? सम्भव है, लोहे और काष्ठके यन्त्रसे जकड़ा हुआ मनुष्य कभी छूट भी जाय; किंतु स्त्री- पुत्रमयी श्रृंखलासे बंध जानेपर तो वह किसी प्रकार भी मुक्त नहीं हो सकता।


द्विजवर! विष्ठा और मूत्रसे शरीरकी रचना होती है। स्त्रियोंका भी तो वही शरीर है। फिर सदसत् का विचार रखनेवाला कौन ऐसा पुरुष है, जिसमें ऐसे शरीरसे प्रीति जोड़नेकी इच्छा जाग्रत् हो ? विप्रर्षे! मैं अयोनिज हूँ; फिर योनिमें फँसानेवाली मेरी बुद्धि हो भी कैसे। भविष्यमें भी मुझे किसी योनिमें जन्म लेना पड़े—यह मैं नहीं चाहता। परमात्मा-विषयक अद्भुत सुखका त्याग करके विष्ठामय घृणित सुख भोगनेकी इच्छा ही मैं क्यों करूँ । 


आत्मामें आनन्दका अनुभव करनेवाले पुरुष लौकिक सुखके लिये लालायित नहीं होते। मैंने सर्वप्रथम वेदोंका अध्ययन करके उनपर विचार किया, किंतु शान्ति न मिली; क्योंकि कर्मयोगमें प्रवृत्ति करानेके लिये वे वेद भी हिंसाके ही समर्थक सिद्ध हुए। मैंने बृहस्पतिजीको गुरु बनाया; परंतु उनपर भी गार्हस्थ्यमय समुद्रकी लहरें निरन्तर लहराती रहीं। तब वे कैसे मेरा उद्धार कर सकते थे। जिस प्रकार किसी वैद्यको स्वयं रोग सता रहा हो और वह दूसरेकी चिकित्सा करने लगे-ठीक यही हालत मेरे गुरुजीकी है। 


वे स्वयं मुक्तिकी बाट देखते रहते हैं। अहो, यह गार्हस्थ्य-जीवन कितना अन्धकारमय है! गुरुदेवके चरणोंमें मस्तक झुकाकर मैं आपकी शरणमें आ गया। कालरूपी विषैले व्यालसे मेरा कलेजा काँप रहा है। आप तत्त्वका ज्ञान देकर मेरी रक्षा कीजिये। इस अन्धकारपूर्ण संसारमें मैं नक्षत्रमण्डलके समान निरन्तर चक्कर काटता रहा। जैसे भुवनभास्कर दिन-रात कहीं भी नहीं ठहरते, वैसे ही मेरे विश्रामका कोई स्थान नहीं था। पिताजी स्वयं वस्तुस्थितियर विचार किया जाय तो संसार में कौन-सा है? 


अज्ञानीजन भाले ही सुख मानें । वे तो जैसे ही हैं. जैसे विष्ठा के कीड़े विष्ठा में ही सुख मानते हैं। जो वेद-शास्त्रोका अध्ययन करके भी संसार में रचे पचे रहते हैं, उनमें बढ़कर दूसरा कोई मूर्ख है ही नहीं। कुते, गदहे और घोड़ के समान उनका जन्म व्यर्थ है। जिसे दुर्लभ मानवजीवन मिल गया और वेद- शास्त्र के अध्ययनकी सुविधा प्राप्त हो गयी, तब भी वह मानव संसारमें बँधा ही रहा तो दूसरा कौन मुक्त हो सकेगा। स्त्री त्रिगुणमयी माया है। जगत् में विद्वान्, विवेकी और शास्त्र का पारगामी कहलानेवाला अधिकारी वही है. 


जिसके पैर इस नारीमयी श्रृंखला से मुक्त हैं। बन्धनको मुदड़ करनेवाला अध्ययन व्यर्थ है, उस पड़ने से क्या लाभ अतः अब मुझे वही पढ़ना चाहिये, जो मुझे इस भवपाश से मुक्त कर सके। पुरुषको सदा फँसाये रहतेके कारण ही तो गृहको ग्रह कहते हैं। पिताजी! बन्धनकी सामग्रीसे ओत-प्रोत गृहमें सुख कहाँ है? गार्हस्थ्य जीवनसे मेरा मन भयभीत हो गया है। जिनकी बुद्धि मारी गयी है तथा जो भाग्यसे वंचित हैं, वे ही अविवेकीजन मानव-जन्म पाकर भी फिर इस बन्धनमें पड़ते हैं।


व्यासजीने कहा- पुत्र! गृह न तो बन्धनागार है और न वन्धनमें कारण ही। जिसका मन गृहस्थाश्रममें आसक्त नहीं हुआ, वह गृहस्थ होते हुए भी मुक्त हो जाता है। न्यायपूर्वक आये हुए पैसोंसे वेदकी आज्ञा के अनुसार सत्कार्यमें लगा रहे। श्राद्ध करे, सत्य बोले और पवित्रता रखे, तो घरमें रहता हुआ भी यह मुक्त है। ब्रह्मचारी, संन्यासी और वानप्रस्थ नियम पालन करके सदा गृहस्थके घर मध्याह्नके बाद भिक्षाके लिये आते हैं; उन्हें श्रद्धापूर्वक अन्न देने और उनके साथ मधुर सम्भाषण करनेसे गृहस्थोंको महान् धर्म होता है। वे कृतार्थ हो जाते हैं। गृहस्थाश्रमसे श्रेष्ठ अन्य किसी धर्मको मैंने न देखा है और न सुना ही है। विज्ञ वसिष्ठ आदि आचार्य भी इसी आश्रममें रह चुके हैं। महाभाग ! वेदकी आज्ञाके अनुसार कार्य करनेवाले गृहस्थको क्या नहीं मिल सकता ? 


स्वर्ग, मोक्ष और उत्तम कुलमें जन्म - उसे सभी सुलभ रहते हैं। जिस-जिस बातकी अभिलाषा होती, उसीको - वह पा जाता है। धर्मके जानकार पुरुष कहते हैं। कि एक आश्रमके नियमका पालन करके दूसरे आश्रममें जाना चाहिये। अतएव तुम अग्निस्थापन करके यत्नपूर्वक कर्म करनेमें तत्पर हो जाओ। पुत्र! धर्मका रहस्य तुमसे छिपा नहीं है। अब तुम गृहस्थाश्रम स्वीकार करके पुत्र उत्पन्न करो और देवताओं, पितरों एवं मनुष्योंको सम्यक् प्रकारसे संतुष्ट करनेमें लग जाओ। इसके पश्चात् गृहका परित्याग करके वनमें जाकर वहाँका उत्तम व्रत पालन करना। वानप्रस्थ रहकर, फिर उससे भी श्रेष्ठ संन्यासाश्रममें चले जाना। बेटा! तुम मेरी हितभरी बात मान जाओ। तुम्हें अच्छे कुलकी कन्याके साथ विवाह करके वैदिक मार्गका आश्रय लेना चाहिये।


शुकदेवजीने कहा-पिताजी! गृहस्थाश्रम सदा कष्ट देनेवाला है। मैं इसे स्वीकार नहीं करूँगा। शिकारमें जानवरोंको फँसानेवाली फाँसीकी तुलना करनेवाले इस आश्रम से सम्पूर्ण प्राणी निरन्तर बंधे रहते हैं। पिताजी! धनकी चिन्ताएँ आतुर मनुष्योंको सुख कहाँ दिखायी देता है? 


निर्धन प्राणी अत्यन्त लोभमें आकर अपनेमें ही मार-काट मचाया करते हैं। इन्द्रको भी वैसा सुख नहीं मिलता, जैसा एक निःस्पृह भिक्षुकको प्राप्त होता है। त्रिलोकीकी सम्पत्ति मिल जानेपर भी इस जगत् में दूसरा कोई वैसे आनन्दका अनुभव नहीं कर सकता। इन्द्र स्वर्गके राजा हैं, किंतु तप करते हुए तपस्वीको देखकर उनका हृदय दहल उठता है। वे अनेकों प्रकार के विघ्न उसके सामने उपस्थित करनेकी चेष्टामें लग जाते हैं।


महाभाग ! आपका मैं औरस पुत्र हूँ, यह बात जानते हुए भी सदा दुःख देनेवाले अत्यन्त अन्धकारपूर्ण इस संसारमें मुझे आप क्यों ढकेल रहे हैं? पिताजी! जन्मके समय, बुढ़ापेमें, मृत्युकाल उपस्थित होनेपर तथा विष्ठा एवं मूत्रसे व्याप्त गर्भमें रहनेपर बारम्बार दुःख-ही- दुःख तो भोगने पड़ते हैं। तृष्णा और लालचसे होनेवाला दुःख इससे भी अधिक कष्टप्रद है। मानद! मरणसे भी बढ़कर दुःख वह है, जो किसीसे याचना की जाय। पिताजी! बड़ा परिवार हो जानेपर स्त्री, पुत्र और पौत्र आदि सभी परिजन दुःखकी पूर्तिके ही साधन होते हैं फिर अद्भुत सुख कहाँ है? पिताजी! सुखी बनानेवाले योगशास्त्र एवं ज्ञानशास्त्र हैं। उन्हींकी व्याख्या मुझे सुनाइये। अनेकों कर्मकाण्ड हैं; परंतु उनमें मेरा मन कभी नहीं लगता। प्रारब्ध, संचित और वर्तमान- ये तीन प्रकारके अविद्याजन्य कर्म हैं। जिससे इन सबका अभाव हो जाय, वही उपाय बतानेकी कृपा कीजिये। 


सूतजी कहते हैं-इस प्रकारके विविध वचन शुकदेवजीके मुखसे निकले, उन्हें सुनकर । व्यासजीका मन चिन्ताकी लहरोंमें डूबने लगा । अब किस निश्चित मार्गपर चलूँ - वे यो सोचने लगे। पिताजी शोकाकुल हैं, इनकी दशा दयनीय हो चुकी है-यो देखकर शुकदेवजीकी आँखों में आश्चर्य भर गया। 


वे कहने लगे-'अहो! मायाका बल सर्वोपरि है। तभी तो वेदान्तकी रचना करनेवाले, सर्वज्ञ एवं वेदके समान प्रमाणित वचन कहनेवाले पण्डित भी इसके प्रभावसे अपनी सत्ता खो बैठते हैं। समझमें नहीं आता, वह कौन-सी माया है। अहो, वह बहुत दुस्तर प्रतीत होती है, जिनके चंगुल में सत्यवतीनन्दन व्यासजी इतने विद्वान् होते हुए भी फँस गये हैं। जो पुराणोंके वक्ता हैं, जिन्होंने महाभारतकी रचना की है। तथा जिनके द्वारा वेद विभाजित हुए हैं, वे भी मोहित हो गये। अतः जगत्‌को मोहित करनेवाली उन मायादेवीकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ। धाता, विधाता और रुद्रादि देवता भी जब मायादेवीके फंदे में फंस चुके हैं, तब त्रिलोकीमें कौन ऐसा है, जो उसके प्रभावसे मुक्त रह जाय। निश्चय ही भगवती मायाका बल और पराक्रम महान् आश्चर्यजनक है, तभी तो सर्वज्ञानसम्पन्न एवं अपार शक्तिशाली श्रीविष्णु भी योगमायासे अलग नहीं रहते। व्यासजीको भगवान् विष्णुका अंशावतार माना जाता है। फिर भी मोहके उमड़े समुद्रमें वे इस प्रकार गोता खा रहे हैं, जैसे नाव फट जानेपर व्यापारी डूब रहा हो। अपनी सत्ता खोये हुए साधारण मनुष्यकी भाँति आज इनके नेत्रोंसे जल गिर रहा है। योगमायाकी शक्ति बड़ी विलक्षण है; क्योंकि सदसद्विवेकी जन भी इसे नहीं हटा सकते। ये कौन हैं, मैं कौन हूँ और यहाँ कैसे आया? यह कैसा विचित्र भ्रम है।


यह शरीर पाँच तत्त्वोंसे बना है। इसमें पिता- पुत्र आदिका व्यवहार ही तो वासना है। मायावियोंको भी मोहमें डालनेवाली यह माया निश्चय ही असीम शक्तिसम्पन्न है, जिसके प्रभावसे प्रभावित हो जानेके कारण इन ब्राह्मण देवता व्यासजीके नेत्रोंसे भी आँसू झर रहे हैं!


सूतजी कहते हैं—योगमाया सम्पूर्ण कारणोंकी भी कारण हैं। सभी देवता उन्हींसे प्रकट हुए हैं। ब्रह्मा आदिपर भी उनका शासन चलता है। शुकदेवजीने उन भगवती योगमाया- को मानसिक प्रणाम किया। पिता व्यासजीकी दयनीय दशा हो गयी थी। वे शोकरूपी समुद्रमें डूब रहे थे। कारण सामने रखते हुए शुकदेवजी उनसे कल्याणकारी वचन कहने  लगे - 'महाभाग ! आप पराशरजीके औरस पुत्र हैं। स्वयं सबको ज्ञान देना आपका स्वभाव ही है। भगवन्! फिर आप साधारण अज्ञानी जनकी भाँति क्यों शोक कर रहे हैं? महाभाग ! आज मैं आपका पुत्र हूँ। पता नहीं, पूर्वजन्ममें मैं कौन था और आप कौन थे। महान् पुरुष इस भ्रमके चक्करमें क्यों पड़ें। महामते! आप धैर्यपूर्वक विवेकका अनुसरण कीजिये। विषादमें मनको  म्लान करना अनुचित है। इस पिता-पुत्र आदि व्यवहारको मोहजाल मानकर आप शोक करना छोड़ दें। मुने! आप बड़े बुद्धिमान् एवं ज्यौतिषशास्त्रके ज्ञाता हैं। अपनी विवेकशक्तिसे मेरा अज्ञान दूर कीजिये, जिससे मैं गर्भवासके भयसे सदाके लिये मुक्त हो जाऊँ। अनघ। यह जगत् कर्मभूमि है, इसमें मनुष्यका जन्म पाना सबको सुलभ नहीं रहता। फिर यदि उत्तम कुलमें ब्राह्मणके घर जन्म हो जाय-यह तो बड़ा ही दुर्लभ है। मैं अपनेको बँधा हुआ मानता हूँ। मेरी यह धारणा चित्तसे अलग नहीं हो पाती। जब बुद्धि जगत्के जालमें फँस जाती है, तब वृद्ध पुरुष ही उसके उद्धारक होते हैं।'


सूतजी कहते हैं-शुकदेवजीमें असीम बुद्धि थी। उनका वेष शान्त था। वे मानसिक संन्यासी हो चुके थे। ऐसे सुयोग्य पुत्रके उपर्युक्त बातें कहनेपर व्यासजी बोले ।


व्यासजीने कहा- पुत्र ! तुम बड़े भाग्यशाली हो। मैंने देवीभागवतकी रचना की है, इसका अध्ययन करो। वेदतुल्य इस पावन पुराणकी संक्षिप्तरूपसे रचना हुई है। पाँच लक्षणोंसे सुसम्पन्न इस पुराणमें बारह स्कन्ध हैं। मेरी समझसे यह पुराण सम्पूर्ण पुराणोंका भूषण है- अर्थात् सबसे प्रधानता इसीकी है। महामते! जिसके सुनते ही सद्-असद् वस्तुका सम्यक् ज्ञान सुलभ हो जाता है, उसी देवीभागवतका अब तुम अध्ययन करो। भगवान् विष्णु बालकरूपसे वटपत्रपर सोये हुए थे। सोचने लगे-'मैं क्यों बालक बन गया ? किस चेतन पुरुषने मेरी यह स्थिति कर दी ? किस कार्यका सम्पादन करनेके लिये मैं रचा गया हूँ ? किस द्रव्यसे मेरी यह रचना सम्पन्न हुई है? मुझे किस प्रकार ये सभी बातें ज्ञात हों ?' – महान् पुरुष भगवान् विष्णुके मनमें यों चिन्ताकी लहरें उठ रही थीं। इतनेमें भगवती योगमायाने सारी शंकाएँ शान्त कर देनेके लिये आधे श्लोकमें सम्पूर्ण पुरुषार्थोंको सिद्ध करनेवाला यह वचन कहा- 'यह सारा जगत् मैं ही हूँ, मेरे सिवा दूसरी कोई अविनाशी वस्तु है ही नहीं।'


सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम्। 


पहले तो भगवान् विष्णुने भगवतीके इस वचनको मनमें ही सम्यक् प्रकारसे समझा। तत्पश्चात् वे सोचने लगे-'किसके मुखसे यह सत्य वाणी निकली है? इसका वक्ता स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक - कौन है? किस प्रकार मुझे उसका परिचय प्राप्त होगा।' यो चिन्तित रहते हुए भी उन्होंने भागवतको हृदयमें स्थान दे दिया। बार-बार उसी आधे श्लोकका वे उच्चारण करने लगे। अब उसीमें उनका मन लग गया। फिर भी उनकी चिन्ता दूर नहीं हुई। वे वटपत्रपर सो गये। जब चित्त कुछ शान्त हुआ, तब भगवती योगमाया उनके सामने प्रकट हुईं। उनके चार भुजाएँ थीं। उनका दिव्य विग्रह शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि अनुपम आयुधों से सुशोभित था। उन्होंने अद्भुत वस्त्र पहन रखे थे। चित्र-विचित्र भूषण उन्हें भूषित कर रहे थे। उन्हींके सदृश उनकी अंशभूता अनेकों सखियाँ भी साथ विराजमान थीं, सुन्दर मुख था। मन्द हास्य करती हुई वे भगवती महालक्ष्मी अमित तेजस्वी श्रीविष्णुके ठीक सामने ही प्रकट हुईं।



सूतजी कहते हैं-उस समय सर्वत्र जल- ही-जल था। मनको मुग्ध करनेवाली महा- लक्ष्मीके अचानक दर्शन पाकर कमललोचन श्रीविष्णु महान् आश्चर्यमें पड़ गये। रति, भूति, बुद्धि, मति, कीर्ति, स्मृति, धृति, श्रद्धा, मेधा, स्वाहा, स्वधा, क्षुधा, निद्रा, दया, गति, तुष्टि, पुष्टि, क्षमा, लज्जा, जृम्भा, तन्द्रा आदि शक्तियाँ उन महादेवीके साथ चारों ओर अलग- अलग विराजमान थीं। सबके हाथोंमें श्रेष्ठ आयुध सुशोभित थे। वे अनेकों आभूषणोंसे अलंकृत थीं। पारिजात-पुष्पकी माला एवं मोतीके हार उनकी छवि बढ़ा रहे थे। उस जलार्णवमें भगवती महालक्ष्मी तथा उनकी सहचरी शक्तियोंको देखकर भगवान् विष्णुका हृदय आश्चर्यसे भर गया। वे सर्वात्मा प्रभु इस घटनाको देखते ही आश्चर्यचकित से होकर सोचने लगे- 'ये सम्पूर्ण स्त्रियाँ कौन हैं तथा वट पत्रकी शय्या पर सोनेवाला मैं ही कौन हूँ? इस जलार्णवमें यह वटका वृक्ष कैसे उत्पन्न हुआ और किस अज्ञात शक्तिने मुझे सुन्दर बालक बनाकर यहाँ स्थापित कर दिया है ? यह स्त्री कौन है? किस अनिर्वचनीय शक्तिने क्यों मेरे आगे यह अद्भुत दृश्य उपस्थित कर दिया ? अब मुझे क्या करना चाहिये? मैं कहाँ जाऊँ या कहीं न जाकर सावधानीके साथ बाल-स्वभाववश चुपचाप यहीं लेटा रहूँ ?"


 अध्याय 14-15