श्री जगदम्बिकायै नमः

श्रीमद् देवी भागवत 

पहला स्कन्ध



भगवान् विष्णु के हयग्रीव अवतार का कारण तथा 'हयग्रिव' स्वरूप से 'हयग्रीव' दानव का वध 



ऋषिगण बोले- सूतजी! आपने बड़े आश्चर्यकी बात कही। अरे, जो भगवान् विष्णु सबके कर्ता-धर्ता हैं, उनका भी मस्तक कटकर धड़से अलग हो गया। फिर उस धड़पर घोड़ेका सिर रखा गया और वे 'हयग्रीव' कहलाने लगे। वेद भी जिनकी स्तुति करते हैं, सम्पूर्ण देवताओंको आश्रय देना जिनका स्वाभाविक गुण है तथा जो समस्त कारणोंके भी परम कारण हैं, उन आदिदेव जगत्प्रभु भगवान् श्रीहरिको भी छिन्नमस्तक हो जाना पड़ा यह दैवकी ही करामात है; परंतु महामते ! ऐसी घटना कैसे घट गयी - इसे शीघ्र विस्तारपूर्वक कहनेकी कृपा कीजिये ।


सूतजी कहते हैं- मुनिगणो! भगवान् विष्णु | परम तेजस्वी एवं देवताओंके भी देवता हैं। उनकी लीला बड़ी विचित्र है। तुम सब लोग अत्यन्त सावधान होकर उनकी अद्भुत कथा सुनो। एक समयकी बात है सनातन परम प्रभु भगवान् श्रीहरिको घोर युद्ध करना पड़ा। दस हजार वर्षोंतक वे युद्धभूमिमें डटे रहे। फिर तो उन्हें थकान-सी हो गयी। तब वे अपने पुण्यप्रदेश वैकुण्ठमें गये। पद्मासन लगाकर बैठे। धनुषपर डोरी चढ़ी हुई थी, इसी अवस्थायें धनुषको भूमिपर टेककर उसीके सहारे वे कुछ झुक से गये। फिर उसीपर भार देकर अलसाने भी लगे। श्रमके कारण अथवा लीलासंयोगमे उन्हें घोर निद्रा आ गयी। उसी अवसरपर कुछ दिनोंसे देवताओंके यहाँ यज्ञ करने की योजना चल रही थी। इन्द्र, ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवता यज्ञ करनेमें तत्पर होकर भगवान् श्रीहरिसे मिलने वैकुण्ठमें गये। देवताओंका कार्य निर्विघ्न चलता रहे ।


यही उस यज्ञका उद्देश्य था। वहाँ उन्हें यज्ञेश्वर भगवान् विष्णुका दर्शन नहीं मिला। फिर तो ध्यानद्वारा पता लगाकर वे जहाँ भगवान् विराजमान थे, वहाँ पहुँच गये। देखा, परमप्रभु भगवान् श्रीहरि योगनिद्रा के अधीन होकर अचेत से पड़े हैं। तब वे देवतालोग वहीं ठहर गये। जब भगवानकी निद्रा भंग न हुई, तब वे देवता अत्यन्त चिन्तित हो गये। ऐसी स्थितिमें इन्द्रने प्रधान देवताओंको सम्बोधित करके कहा' अब क्या करना चाहिये? देवताओ! आप स्वयं विचार करें, भगवान् विष्णुको कैसे जगाया जाय?


तब भगवान् शंकरने कहा- 'देवताओ! यद्यपि किसीकी निद्रा भंग करना निषिद्ध आचरण है, फिर भी यज्ञका कार्य सम्पन्न करनेके लिये तो इन्हें जगा ही देना चाहिये।' तब ब्रह्माजीने वम्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया। सोचा- धनुष पृथ्वीपर है ही, यह कीड़ा उस धनुषकी ताँतको काट देगा। तदनन्तर आगेकी रस्सीको काटते ही झुका हुआ धनुष ऊपरको तन उठेगा; फिर तो देवाधिदेव श्रीहरिकी निद्रा टूट ही जायगी। तब देवताओंका कार्य सिद्ध होनेमें कोई संदेह न रहेगा। इस प्रकार मनमें विचार करके प्रधान देवता अविनाशी ब्रह्माजीने वैसा करनेके लिये वम्रीको आज्ञा दे दी। तब वह वम्री नामक कीड़ा ब्रह्माजीसे कहने लगा- 'अरे! लक्ष्मीकान्त भगवान् नारायण देवताओंके भी आराध्यदेव हैं। भला, उन जगद्गुरुकी निद्रा मैं कैसे भंग कर सकूँगा। भगवन्! इस धनुषकी डोरीको काटनेसे मुझे कौन-सा लाभ है, जिसके कारण ऐसा घृणित कार्य किया जा सके। सभी प्राणी किसी-न-किसी स्वार्थको लेकर ही नीच कर्ममें प्रवृत्त होते हैं - यह बिलकुल निश्चित बात है। इसलिये यदि मेरा कोई निजी काम बननेवाला हो, तभी इसे काटनेमें मैं तत्पर हो सकूँगा।'


ब्रह्माजीने कहा-सुनो! हमलोग तुम्हें यज्ञमें भाग दिया करेंगे। यह निजी लाभ मानकर अब तुम शीघ्र हमारा काम करो अर्थात् भगवान् श्रीहरिको जगा दो। देखो, यज्ञमें हवन करते समय अगल-बगल जो भी हविष्य गिर जायगा, वह तुम्हारा भाग है- यह समझ लो। अच्छा, अब हमारा काम बहुत जल्दी हो जाना चाहिये ।


सूतजी कहते हैं- इस प्रकार ब्रह्माजीके कहनेपर उसी क्षण वम्रीने प्रत्यंचाको, जो नीचे भूमिपर थी, खा लिया। फिर तो धनुष बन्धन- मुक्त हो गया। प्रत्यंचा कटते ही दूसरी ओरकी डोरी भी वैसे ही ढीली पड़ गयी। उस समय बड़े जोरसे भयंकर शब्द हुआ, जिससे देवता भयभीत हो उठे। चारों ओर अन्धकार छा गया। सूर्यकी प्रभा क्षीण हो गयी। फिर तो सभी देवता घबराकर सोचने लगे- 'अहो, ऐसे भयंकर समयमें पता नहीं क्या होनेवाला है। ऋषियो! समस्त देवता यों सोच रहे थे; इतनेमें पता नहीं, भगवान् विष्णुका मस्तक कुण्डल और मुकुटसहित कहाँ उड़कर चला गया। कुछ समयके बाद जब घोर अन्धकार शान्त हुआ, तब भगवान् शंकर और ब्रह्माजीने देखा श्रीहरिका श्रीविग्रह बिना मस्तकका पड़ा हुआ है। यह बड़े आश्चर्यकी बात सामने आ गयी। भगवान् विष्णुके केवल धड़को देखकर उन श्रेष्ठ देवताओंके आश्चर्यकी सीमा न रही। अब वे चिन्ताके उमड़े हुए समुद्रमें डूबने- उतराने लगे। अत्यन्त दुःखी होकर उनकी आँखें जल बरसाने लगीं। वे विलाप करने लगे- 'हा नाथ! आप तो देवताओंके भी आराध्यदेव एवं सनातन प्रभु हैं। फिर भगवन्! सम्पूर्ण देवताओंको निष्प्राण करनेवाली यह कैसी दैवी विचित्र घटना घट गयी।'


ब्रह्माजीने कहा- कालभगवान्ने जैसा विधान रच रखा है, वैसा अवश्य ही होता है- यह बिलकुल असंदिग्ध बात है। जैसे बहुत पहले कालकी प्रेरणासे भगवान् शंकरने मेरा ही मस्तक काट दिया था, उसी तरह आज भगवान् विष्णुका भी मस्तक धड़से अलग होकर समुद्रमें जा गिरा है। शचीपति देवराज इन्द्रके हजारों भग हो गये। उन्हें दुःखी होकर स्वर्गसे गिर जाना पड़ा और मानसरोवरमें जाकर वे कमलपर रहने लगे। अतएव तुम्हें बिलकुल शोक नहीं करना चाहिये। तुम सभी उन सनातनमयी विद्या स्वरूपिणी महामायाका चिन्तन करो। वे प्रकृतिमयी भगवती निर्गुणस्वरूपिणी एवं सर्वोपरि विराजमान हैं। अब वे ही हमारा कार्य सिद्ध करेंगी। वे जगत्‌को धारण करती हैं। उनका नाम 'ब्रह्मविद्या' भी है। सब प्राणी उन्हींकी संतान हैं। त्रिलोकीमें चर और अचर जितने प्राणी हैं, सबमें वे विराजमान हैं।


सूतजी कहते हैं- फिर ब्रह्माजीने वेदोंको, जो सामने देह धारण करके उपस्थित थे, आज्ञा दी


ब्रह्माजीने कहा- ब्रह्मविद्यास्वरूपिणी भगवती जगदम्बिका परम आराध्या हैं। उन सनातनी देवीके अंगोंका साक्षात्कार होना कठिन है। वे भगवती महामाया सम्पूर्ण कर्मोंको सिद्ध कर देती हैं। अतः तुमलोग उनकी स्तुति करो। तदनन्तर सुन्दर शरीर धारण करनेवाले वेद ब्रह्माजीका कथन सुनकर उन भगवतीका, जो ज्ञानगम्या हैं - महामाया नामसे प्रसिद्ध हैं तथा जिनपर सम्पूर्ण जगत्। अवलम्बित है, स्तवन करने लगे।


वेद बोले- देवी! आप महामाया हैं, जगत्की सृष्टि करना आपका स्वभाव है, आप कल्याणमय विग्रह धारण करनेवाली एवं प्राकृतिक गुणोंसे रहित हैं, अखिल जगत् आपका शासन मानता है तथा भगवान् शंकरके आप मनोरथ पूर्ण किया करती हैं। माता! आपके लिये नमस्कार है। सम्पूर्ण प्राणियोंको आश्रय देनेके लिये आप पृथ्वीस्वरूपा हैं । प्राणधारियोंके प्राण भी आप ही हैं। धी, श्री, कान्ति, क्षमा, शान्ति, श्रद्धा, मेधा, धृति और स्मृति - ये सभी आपके नाम हैं। 'ॐकारमें जो अर्द्धमात्रा है, वह आपका रूप है। गायत्रीमें आप प्रणव हैं। जया, विजया, धात्री, लज्जा, कीर्ति, स्पृहा और दया - इन नामोंसे आप प्रसिद्ध हैं। माता! हम आपको नमस्कार करते हैं। 



आप त्रिलोकीको उत्पन्न करनेमें बड़ी कुशल हैं। आपका विग्रह दयासे परिपूर्ण है। आप माताओंकी भी माता हैं। आप विद्यामयी एवं कल्याणस्वरूपिणी हैं। आपका सारा प्रयत्न अखिल जगत्के हितार्थ होता है। आप परम पूज्या हैं। वाग्बीज आपका स्थान है। ज्ञानद्वारा संसारजनित अन्धकारको आप नष्ट कर देती हैं- ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, अग्नि और सरस्वती, सूर्य- ये जो भूमण्डलके स्वामी कहे जाते हैं, उन्हें भी आपने ही नियुक्त किया है। इसलिये आपके समक्ष उनकी कुछ भी प्रधानता न रही! आप चराचर जगत्की जननी जो ठहरीं। जगदम्बिके! आपको जब अखिल भूमण्डलको उत्पन्न करनेकी इच्छा होती है, तब आप ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि मुख्य देवताओंको प्रकट करती और उनके द्वारा सृष्टि, स्थिति और संहार-कार्य आरम्भ कर देती हैं। देवी! वस्तुतः तो आपका एक ही रूप है। आपमें संसारकी लेशमात्र भी सत्ता नहीं है। सम्पूर्ण संसारमें कोई भी ऐसा पुरुष नहीं है, जिसे आपके रूपोंको जानने एवं नामोंको गिननेकी योग्यता प्राप्त हो सकी हो । भला, वापीके थोड़े जलको तैरकर पार करनेमें असमर्थ सिद्ध हुआ मानव समुद्रके अथाह जलको कैसे कुशलतापूर्वक पार कर सकता है? 


भगवती! देवताओंमें भी कोई ऐसा सिद्ध न हो सका, जो आपकी विभूतिको जान सके। आप संसारकी एकमात्र जननी हैं। आप अकेले ही इस मिथ्याभूत समस्त जगत्की रचना कर डालती हैं। देवी! इस जगत्के मिथ्यात्वमें श्रुतिवचन ही प्रमाण है। देवी! आश्चर्य तो यह है कि इच्छारहित होते हुए भी आप अखिल जगत्की उत्पत्तिमें कारण हैं। आपका यह अद्भुत चरित्र हमारे मनको मोहमें डाल रहा है। जब सारी श्रुतियाँ आपके गुणों एवं प्रभावको जाननेमें असमर्थ रहीं, तब हम उन्हें कैसे जान सकते हैं। अधिक क्या कहें, अपने परम प्रभावको आप स्वयं भी नहीं जानतीं। कल्याणमयी जगदम्बिके! भगवान् श्रीविष्णुका मस्तक धड़से अलग हो गया है— क्या आप इसे नहीं जानतीं ? अथवा जानकर भी उनके प्रभावकी परीक्षा करना चाहती हैं।


इस समय श्रीहरि मस्तकहीन हो गये हैं- यह बात महान् आश्चर्यजनक एवं साथ ही असीम दुःखप्रद भी सिद्ध हो रही है। अब हम यह नहीं जान सकते कि आप जन्म-मरणके बन्धनको काटनेमें कुशल होते हुए भी श्रीविष्णुके मस्तकको जोड़नेमें विलम्ब क्यों कर रही हैं? जगदम्बिके! आपका यह लीला-वैभव अब हमारी समझसे बाहर है, अथवा युद्धभूमिमें देवताओंसे हार जानेपर दैत्योंने पावन तीर्थोंमें जाकर कोई घोर तप किया है और आप उन्हें वर दे चुकी हैं, जिसके फलस्वरूप भगवान् विष्णुका मस्तक अलक्षित हो गया या अब आप श्रीहरिको मस्तकहीन देखनेका ही आनन्द लूटना चाहती हैं। जगदम्बिके! आप लक्ष्मीपर कुपित तो नहीं हो गयीं? क्योंकि उनको आप भगवान् विष्णुसे रहित देखना चाहती हैं। माना, यदि लक्ष्मीने अपराध ही कर दिया हो, तब भी तो आपको क्षमा कर देना चाहिये; क्योंकि वे भी आपसे ही प्रकट हुई हैं। अतः श्रीहरिको पुनः मस्तक प्रदान करके लक्ष्मीको प्रसन्न । करनेकी कृपा कीजिये। देवी! ये सुरगण आपको निरन्तर नमस्कार कर रहे हैं। 


आपके जगत्सृजनमय कार्यकी व्यवस्थाके ये प्रधान सदस्य हैं। आपकी कृपासे इन्हें प्रतिष्ठा भी प्राप्त हो चुकी है। अब आप अखिल लोकनायक भगवान् विष्णुको प्राणदान करके शोकरूपी समुद्रसे इन देवताओंका उद्धार करनेकी कृपा कीजिये । माता! पहले तो हम यही नहीं जानते कि श्रीहरिका मस्तक चला कहाँ गया है। यह तो बिलकुल निश्चित है कि आपकी कृपाके बिना और कोई उपाय नहीं है। देवी! आप जैसे अमृत पिलाकर देवताओंको जीवित करनेमें निपुण हैं, वैसे ही अब जगत्को भी जीवित रखना आपका कर्तव्य है।


सूतजी कहते हैं - इस प्रकार जब अंगों- उपांगों सहित वेदोंने भगवती जगदम्बिकाका स्तवन किया, तब वे गुणातीता मायामयी देवी अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं। फिर तो देवताओंको लक्ष्य करके आकाशवाणी होने लगी। प्रत्येक वाणी कल्याणमयी थी। सभी शब्दोंमें सुख भरा था। वह वाणी इस प्रकार थीं-


देवताओ ! अब तुम्हें चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं है। शान्तचित्त होकर अपने स्थानपर विराजमान हो जाओ। वेदोंने भली- भाँति मेरी स्तुति की है। अतः मेरी प्रसन्नतामें किंचित् भी संदेह नहीं रहा। जो पुरुष मर्त्यलोकमें मेरे इस स्तोत्रको भक्तिपूर्वक पढ़ता है अथवा पढ़ेगा, उसे सभी अभीष्ट वस्तुएँ सुलभ हो जायँगी! अथवा जो श्रद्धालु मानव तीनों कालमें सदा इसका श्रवण करता है, उसके सभी शोक शान्त हो जाते हैं और वह सुखी हो जाता है। मेरा यह वेदप्रणीत स्तोत्र निश्चय ही वेदतुल्य है। अब तुमलोग श्रीहरिके छिन्नमस्तक होनेका कारण सुनो। 


इस जगत् में कोई भी कार्य अकारण कैसे होगा। एक समयकी बात है, भगवान् श्रीविष्णु लक्ष्मीके साथ एकान्तमें विराजमान थे । लक्ष्मीके मनोहर मुखको देखकर उन्हें हँसी आ गयी। लक्ष्मीने समझा 'हो न हो भगवान् विष्णुकी दृष्टिमें मेरा मुख कुरूप सिद्ध हो चुका है, अतएव मुझे देखकर इन्हें हँसी आ गयी; क्योंकि बिना कारण उनका यों हँसना बिलकुल असम्भव है।' फिर तो महालक्ष्मीको क्रोध आ गया। सात्त्विक स्वभाववाली होनेपर भी वे तमोगुणसे आविष्ट हो गयीं। श्रीमहालक्ष्मीके शरीरमें भयंकर तामसी शक्तिका जो प्रवेश हुआ, उसका भी भावी परिणाम वस्तुतः देवताओंका कार्य सिद्ध करना था। वे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं। तब झट उनके मुखसे निकल गया- 'तुम्हारा यह मस्तक गिर जाय' । इसीसे इस समय इनका सिर क्षारसमुद्रमें लहरा रहा है। देवताओ! इसमें कुछ कारण दूसरा भी है- वह यही कि तुमलोगोंका एक महान् कार्य सिद्ध होनेवाला है, यह बिलकुल निश्चित बात है। हयग्रीव नामक एक दैत्य हो चुका है। उसकी विशाल भुजाएँ हैं और वह बड़ी ख्याति पा चुका है। सरस्वती नदीके तटपर जाकर उसने महान् तप किया। वह मेरे एकाक्षरमन्त्र मायाबीजका जप करता रहा। बिना कुछ खाये ही जप करता था। उसकी इन्द्रियाँ वशमें हो चुकी थीं। सभी भोगोंका उसने त्याग कर दिया था। 


सम्पूर्ण भूषणोंसे भूषित जो मेरी तामसी शक्ति है, उसी शक्तिकी उसने आराधना की। वह दैत्य एक हजार वर्षतक ऐसा कठिन तप करता रहा। तब मैं ही तामसी शक्तिके रूपमें सजकर उसके पास गयी और जैसे रूपका वह ध्यान कर रहा था, ठीक उसी रूपमें मैंने उसे दर्शन दिये। मैं सिंहपर बैठी थी। सर्वांग दयासे ओतप्रोत थे। मैंने कहा-'महाभाग ! वर माँगो! सुव्रत! तुम्हें जो इच्छा हो, उसे देनेको मैं तैयार हूँ।' मुझ देवीकी बात सुनकर वह दानव प्रेमसे विभोर हो उठा। उसने तुरंत मेरी प्रदक्षिणा की और चरणोंमें मस्तक झुकाया। मेरे इस रूपको देखकर उसके नेत्र प्रेमसे पुलकित हो उठे और आनन्दके आँसुओंसे भर गये। फिर तो वह मेरी स्तुति करने लगा।


हयग्रीव बोला- कल्याणमयी देवी! आपको नमस्कार है। आप महामाया हैं। सृष्टि, स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है। भक्तोंपर कृपा करनेमें आप बड़ी कुशल हैं। मनोरथ पूर्ण करना और मुक्ति देना आपका मनोरंजन है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा इनके गुण गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द - इन सबका कारण आप ही हैं। महेश्वरी! नासिका, त्वचा, जिह्वा, नेत्र और कान आदि इन्द्रियाँ तथा इनके अतिरिक्त भी जितनी कर्मेन्द्रियाँ हैं, वे सब आपसे ही उत्पन्न हुई हैं।


भगवतीने कहा- तुमने बड़ी अद्भुत तपस्या की है। मैं तुम्हारी भक्तिसे भलीभाँति प्रसन्न हूँ। तुम अपना अभिलषित वर माँगो। तुम्हें जो भी इच्छा हो, मैं देनेको तैयार हूँ।


हयग्रीव बोला-माता! जिस किसी प्रकार भी मुझे मृत्युका मुख न देखना पड़े, वैसा ही वर देनेकी कृपा कीजिये। मैं अमर योगी बन जाऊँ। देवता और दानव कोई भी मुझे जीत न सके। 


देवीने कहा- देखो, जन्मे हुएकी मृत्यु और मरे हुएका जन्म होना बिलकुल निश्चित है। भला, ऐसी सिद्ध मर्यादा जगत्में कैसे व्यर्थ की जा सकती है। राक्षसराज ! मृत्युके विषयमें तो ऐसी ही बात पक्की समझ लेनी चाहिये। अतः मनमें सोच-विचारकर जो इच्छा हो, वर माँगो ।


हयग्रीव बोला- अच्छा तो, हयग्रीवके हाथ ही मेरी मृत्यु हो। दूसरे मुझे न मार सकें। बस, अब मेरे मनकी यही अभिलाषा है। इसे पूर्ण करनेकी कृपा करें।


देवीने कहा- महाभाग ! अब तुम घर जाओ और आनन्दपूर्वक राज्य करो। यह बिलकुल निश्चित है, हयग्रीवके सिवा दूसरा कोई तुम्हें नहीं मार सकेगा।


इस प्रकार उस दानवको वर देकर तामसी देवी अन्तर्धान हो गयीं और वह दैत्य भी असीम आनन्दका अनुभव करते हुए अपने घर चला गया। वही पापी इन दिनों मुनियों और वेदोंको अनेक प्रकारसे सता रहा है। त्रिलोकीमें कोई भी ऐसा नहीं है, जो उस दुष्टको मार सके। अतएव इस घोड़ेका सुन्दर सिर उतारकर श्रीविष्णुके धड़से जोड़ दिया जायगा। यह कार्य ब्रह्माजीके हाथ सम्पन्न होगा। तदनन्तर वे ही भगवान् हयग्रीव देवताओंके हित-साधनके लिये उस दुष्ट एवं निर्दयी दानवके प्राण हरेंगे।


सूतजी कहते हैं-देवताओंसे यों कहकर वह आकाशवाणी शान्त हो गयी। फिर तो देवता आनन्दसे विह्वल हो उठे। उन्होंने दिव्य शिल्पी ब्रह्माजीसे कहा-  



देवता बोले- भगवन्! श्रीविष्णुके मस्तकहीन शरीरपर सिर जोड़नारूप महत्कार्य सम्पन्न करनेकी कृपा करें। तभी भगवान् हयग्रीव बनकर इस दानवराजका संहार करेंगे। 


सूतजी कहते हैं-देवताओंकी बात सुनकर ब्रह्माजीने उसी क्षण सुरगणके सामने ही तलवारसे घोड़ेका मस्तक उतार लिया। साथ ही तुरंत उसे  भगवान्‌के शरीरपर जोड़नेकी व्यवस्था सम्पन्न कर दी। फिर तो भगवती जगदम्बिकाके कृपाप्रसादसे उसी क्षण भगवान् विष्णुका हयग्रीवावतार हो गया। वह दानव बड़ा ही अभिमानी था। देवताओंसे उसकी घोर शत्रुता थी। अवतार लेनेके पश्चात् कितने समयतक भगवान् उसके साथ युद्धभूमिमें डटे रहे। तब कहीं उसकी मृत्यु हुई। मर्त्यलोकमें रहनेवाले जो पुरुष यह पुण्यमयी कथा सुनते हैं, वे सम्पूर्ण दुःखोंसे मुक्त हो जाते हैं- यह बिलकुल निश्चित बात है। भगवती महामायाका चरित्र परम पवित्र एवं पापोंका संहार करनेवाला है। उसे जो पढ़ते और सुनते हैं, उन्हें सम्पूर्ण सम्पत्तियाँ सुलभ हो जाती हैं। 


अध्याय 05