अहंकार का त्याग जब मन में अहंकार ने डेरा जमा रखा है और दूसरे को रहने का स्थान ही नहीं छोड़ा है तो भगवती रहेगी कहाँ ? 
भगवती की कृपा प्राप्त करने के लिए तन्निष्ठता , तद्गत प्रेम , तद्रूपता एवं भगवती के पास मन की पहुँच आवश्यक है ।
सन्त बसवेश्वर कहते हैं -
वेदों को रटने से क्या ? 
शास्रो को सुनने से क्या ? 
जप करने से क्या ? 
तप करने से क्या ? 
यदि हमारे कुडलसंग पास तक हमारा मन ही न पहुँच सके तो क्या फल मिलेगा ? 

अद्वैत की स्थिति भक्ति में भी आती है । इसी स्थिति में कबीर कहते हैं- 
' मैं तै ते मैं ए द्वै नाहीं । 
आपै अकल सकल घट माही ' । 
साधना की यथार्थ स्थिति में पूजा के अंग - प्रत्यङ्ग — आसन , जप , तप , अनाहत नाद , शृङ्गी आदि — सभी मन के भीतर मन के ही स्वतः अङ्ग बन जाते हैं अत : बाहर से उन्हें ग्रहण करना निरर्थक हो जाता है—
सो जोगी जाकै मन मै मुद्रा । 
मन मै आसण , मन मैं रहणां , 
मन का जप तप मन सूं कहणा । 
मन मैं खपरा मन मैं सीङ्गी , 
अनहद वे न बजावै रङ्गी  ।। 
भक्ति क्षेत्र में कबीरदास नारदीया भक्ति के अनुवर्ती थे — 
भगति नारदी मगनसरीरा । 
इहि विधि भवतिरि कहै कबीरा'– 
वे भावभगति और प्रेमभगति के अनुवर्ती थे । भक्ति के इस स्वरूप में योग , ध्यान , तप आदि सब विकार दिखाई पड़ते हैं। इस समय साधना का आधार केवल परमात्मा ( राम ) मात्र रह जाता है—
जोग ध्यान तप सबै विकार
कहे कबीर मेरे राम अधार  । 
लोगों ने राम ( परमात्मा ) को खिलौना समझ रखा है । वे समझते हैं कि यदि मैं माला एवं तिलक धारण कर लूँगा तो राम मिल जायेंगे । ऐसे भ्रमित भक्तों की संख्या अपार है— 
माला तिलक पहिरि मनमानां
लोगनि राम खिलौना जाना 
थोरी भगति बहुत अहंकारा 
ऐसे भगता मिलै अपारा ।। 
साधक के जीवन में एक स्थिति यह भी आती है जब वह एक ऋषि की भाँति पूछने लगता है कि 
' कस्मै देवाय हविषा विधेम ' ?
ठीक भी है , जब मन परमेश्वर के साथ एकाकार हो जाय और परमेश्वर मन के साथ एकाकार हो जाय तब साधक अपनी पूजा किसे समर्पित करे ? 
यही विचिकित्सा तो जैनी मुनि रामसिंह को भी है । 
वे पूछते हैं —
मणु मिलिया परमेसर हो , परमेसरु जिमणस्स । 
विणि वि समरसि हुइ रहिय पुज्ज जडावउँ किस्स ' ? 
जब पूजक और पूज्य सर्वत्र अभिन्न हैं तब पूजा कैसे की जाय ? 
जप कैसे किया जाय ? 
हवन कैसे किया जाय ? 
लिङ्ग परिग्रह कैसे किया जाय ? 
तान्त्रिक दार्शनिक भी यही पूछ बैठता है कि—
विदिते तू परे तत्त्वे सर्वाकारे निरामये । 
क्व पूजा क्व जपो होमः क्व च लिङ्गपरिग्रहः ' ? ।।
विज्ञानभैरवकार भगवान् शिव से भी यही पूछते हैं— 
यैरेव पूज्यते द्रव्यैस्तर्प्यते वा परापरः । 
यश्चैव पूजकः सर्वः स एवैकः क्व पूजनम् ' ? ।।
इसीलिए अभिनवगुप्तपादाचार्य ने कहा कि पूजा बाह्य सामग्रियों से अनुष्ठित कोई क्रिया नहीं है प्रत्युत परसंवित् बोध भैरव से अभेद रूप में प्रतिष्ठा ही पूजा है— 
पूजा नाम विभिन्नस्य भावौघस्यापि सङ्गतिः । स्वतन्त्रविमलानन्तभैरवीयचिदात्मना  ।।
संकेतपद्धतिकार ने भी यथार्थ पूजा का स्वरूप यही बताया—
स्वे महिम्न्यद्वये धाग्नि सा पूजा या परा स्थितिः । 
महात्मा कबीरदास के पूर्ववर्ती महाराष्ट्र के सन्त नामदेव जी को यही प्रतीत हुआ कि— देवालय , देवता , देवता की पूजा , देवता का नाम संकीर्तन , उसके प्रेम में किया गया नर्तन , उसके प्रेम में वाद्य वादन सब कुछ ' ठाकुर ' ( परमात्मा ) ही तो है । मैं तो कहीं नहीं हूँ '
आपन देव , देहुरा आपन आप लगावै पूजा । 
आपहि गावै आपहिं नाचै , आप बजावै तूरा । 
कहत नामदेव तूं मेरो ठाकुर जन ऊरा तूं पूरा ॥ 
कबीरदास भावतत्त्व को प्राधान्य देते हुए और बाह्य जप , तप , व्रत , पूजा को निरर्थक मानते हुए पूछते हैं —  
क्या जप ? क्या तप ? क्या व्रत - पूजा ? जाकै रिदै भाव है दूजा ? 
क्या जप ? क्या तप ? संयमो , क्या व्रत ? क्या इस्नानु । 
जब लगि जुक्ति न जानियै , भाव भक्ति भगवान् । 
कबीरदास की दृष्टि में आँखों का मूँदना , कानों को बन्द करना , काया को कष्ट देना आदि सारे कार्य अध्यात्म साधना में व्यर्थ हैं , क्योंकि वे अपनी साधना में इन्हें स्थान ही नहीं देते । 
वे कहते हैं
आँख न मूँदूँ , कान न रूँधूँ, काया कष्ट न धारूँ । 
खुले नैन मैं हँस हँस देखूँ सुन्दर रूप निहारू ' ।। 
यदि कोई पूछे कि कबीरदासजी ! आप भगवन्नाम कैसे लेते हैं ? सुमिरन कैसे करते हैं ? पूजा कैसे करते हैं ? आप भगवान् की परिक्रमा कैसे करते हैं ? आप भगवान् की सेवा कैसे करते हैं ? आप भगवान् को दण्डवत् कैसे करते हैं ? बिना कुछ किये हुए ही भगवान् की पूजा कैसे करते हैं ? 
तो कबीरदास जी अपनी पूजा की पद्धति बताते हुए कहते हैं कि - 
कहूँ सो नाम , सुणूं सो सुमिरन , जो कुछ करूँ सो पूजा ।
गिरह उद्यान एक सम देखूँ , भाव मिटाऊँ दूजा ॥ 
जहँ जहँ जाउँ सोई परिकरमा , जो कुछ करूँ सो सेवा । 
जब सोऊँ तव करूँ दण्डवत् पूँजूँ और न देवा ।। 
सब्द निरन्तर मनुआ राता , मलिन वचन को त्यागी । 
ऊठत बैठत कबहुँ न बिसेरे , ऐही बारी लागी ' ।। 
कबीरदास जी यह भी कहते हैं कि व्यक्ति जब तक जीते हुए ही मर नहीं जाता तब तक परमात्मा को नहीं पाता —
आप मेट जीवत मरै तौ पावै करतार ' । 
वे कहते हैं—
कर के मनका को फेरने से क्या ? 
मन का मनका फेरने से ही सब कुछ होगा । 
वह सुमिरन ' सुमिरन ' नहीं जिसमें मन का मनका न घुमाया जा सके —
माला फेरत जुग भया , फिरा न मन का फेर ‌।
कर का मनका डारि दे , मन का मनका फेर ।।
माला तो कर में फिर जीभ फिर मुख माहिं । 
मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै यह तो सुमिरन नाहिं ।। 
साधक अन्त में गूँगा हो जाता है — 
वह यह अनुभव करने लगता है कि अब उस ' अकथ्य ' को कथ्य नहीं बनाया जा सकता- अब कुछ कहा ही नहीं जा सकता , 
क्योंकि 
पाणीं ही तै हिम भया , हिम ह्वै गया बिलाइ । 
जो कुछ था सोई भया , अब कछु कह्या न जाइ ।। 
सन्त रैदास ने भी कबीर के पहले कहा था कि सभी लोग शरीर के योगी हैं किन्तु मैं मन का योगी हूँ । मन का योग लगाते ही मैं कुछ - का - कुछ हो गया— 
हम तो जोगी मनहि के , तन के हैं ते और । 
मन का जोग लगावते , दसा भई कछु और ॥ 
सन्त रैदास को भी अपनी अद्वैतभावापन्नावस्था में एक समस्या खड़ी हो गयी और उन्होंने अपने पूज्य राम से पूछ डाला—  
राम मैं पूजा कहाँ चढ़ाऊँ । 
फल अरु फूल अनूप न पाऊँ ' ।।
अतः उन्होंने निश्चय किया कि- ' मन ही पूजा मन ही धूप । मन ही से ॐ सहज सरूप ॥
देवर्षि नारद ने कहा था कि भक्ति अमृतस्वरूपा होती है और भगवन्नाम ' रसो वै सः ' ( रसरूप परमात्मा ) का अमृतात्मक रस है , अतः उस नाम का रस पाने पर साधक एक ऐसी मदहोशी और आनन्दातिरेक की अवस्था में पहुँच जाता है कि उसे लगने लगता है कि भगवान् के नाम से अमृत की वर्षा हो रही है । 
तब वह गुरु नानकदेव के शब्दों में कह उठता है कि —
यदि एक जीभ के स्थान पर लाख जीभे हो जायें एवं एक लाख से बीस लाख जीभें हो जायें तो भी एक एक जीभ से मैं लाख - लाख बार एक ही परमात्मा का नाम जपूँगा 
इक दू जीभौ लख होहि लख होवहि लख बीस । 
लखु - लखु गेड़ा आखीअहि एक नामु जगदीस ।। 
वे कहते हैं कि यदि मैं नाम का जप करूँ तभी जिऊँ । यदि उसका नाम भूल जाऊँ तो मर जाऊँ ? 
साधना प्रारम्भ करते समय साधना के प्राथमिक सोपानों पर पहले साधक को कुछ अनुभव ही नहीं होता । साधना के ऊँचे सोपानों पर पहुँचने पर उसे यह विश्वास होने लगता है कि शास्त्रों में ' उसके ' विषय में जो कुछ कहा गया है उसका वह स्थूल स्वरूप सत्य है और तब वह शास्त्रों की बातें अपने शब्दों में इस प्रकार कहता है — 
सुधासिन्धोर्मध्ये  सुरविटपिवाटीपरिवृते । 
मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणिगृहे ।
शिवाकारे मञ्चे परमशिवपर्यङ्कनिलयां ।
भजन्ति त्वां धन्याः कतिचन चिदानन्दलहरीम् ॥ 
आगे वह ' उसकी ' और सूक्ष्मतर अनुभूति करता हुआ पाता है कि ' वह ' तो सारे तत्त्वों एवं सारे चक्रों में भी सूक्ष्मात्मना अवस्थित है और तब उसके सूक्ष्म स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कह उठता है— 
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि । 
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कुलपथं 
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसि ।। 
और उस समय ' वह ' उसे केवल ' कुलकुण्ड ' की शक्ति मात्र के रूप में अपने में भी दृष्टिगत होने लगती है— 
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणी । 
उसे अनुभूति एवं साधना के और सूक्ष्म धरातल पर पहुँचने पर यह अनुभव होता है कि वह केवल पञ्चतत्त्वों एवं तदात्मक चक्रों में ही नहीं रहती प्रत्युत वह तो स्वयं पञ्चतत्त्व भी है—
मनस्त्वं व्योमस्त्वं मरुदसि मरुत्सारथिरसि 
त्वमापस्त्वं भूमिस्त्वयि परिणतायां नहि परम् । 
त्वमेव स्वात्मानं परिणमयितुं विश्ववपुषा 
चिदानन्दाकारैः शिवयुवतिभावेन विभूषे ।। 
आगे चलकर उसे सारा जगत् भी ' उसी की ' परिणति दिखाई पड़ने लगता है । वह उसे चिदान्दस्वरूप देखने लगता है ।
अन्य दार्शनिक तत्त्वमनीषियों को भी अपने शरीर में ही वह चक्राधिष्ठात्री , सर्वचक्रनिलया एवं सर्वग्रन्थिविभेदिनी के रूप में साक्षात्कृत हो उठती है और वह कह उठता है —
मूलाधारैकनिलया ब्रह्मप्रन्थिविभेदिनी ।
मणिपूरान्तरुदिता विष्णुग्रन्थिविभेदिनी ।।
आज्ञाचक्रान्तरालस्था रुद्रग्रन्थिविभेदिनी । 
सहस्राराम्बुजारूढा सुधासाराभिवर्षिणी । 
महाशक्तिः कुण्डलिनी बिसतन्तुतनीयसी ॥ 
इतना ही नहीं वह उन्हें वाणी के सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्तरों में भी वही दिखाई पड़ने लगती है और वही वाणीरूपा भी दृष्टिगत होने लगती है—
परा प्रत्यक् चितारूपा पश्यन्ती परदेवता । 
मध्यमा वैखरीरूपा भक्तमानससंहिका ।। 
किन्तु उसे इन सारे रूपों में उसका भक्तिवत्सला रूप ही प्रधान दिखाई पड़ता है । 
अतः वह कह उठता है— 
भक्तिप्रिया भक्तिगभ्या भक्तिवश्या भयापहा ।
साधना के उच्चतम धरातल पर शंकराचार्य जैसे दार्शनिक सन्तों को क्या अनुभव होने लगता है , उसे सुनिए —
( १ ) हे शिव ! मेरी आत्मा के रूप में तो तुम्हीं विराजमान हो । 
( २ ) हे पार्वतीजी ! मेरी बुद्धि के रूप में तो ( मेरे शरीर में ) आप ही अवस्थित हैं । 
( ३ ) उसे मित्रों के रूप में प्राण ही दिखाई पड़ते हैं । 
( ४ ) उसे बाहरी घर अपना घर नहीं प्रत्युत अपना शरीर ही अपना घर दिखाई पड़ने लगता है । 
( ५ ) उसे अपनी भोग - रचना ही पूजा दिखाई पड़ने लगती है । 
( ६ ) उसे अपनी निद्रा ही समाधि प्रतीत होने लगती है । 
( ७ ) उसे अपना चलना ही भगवान् की प्रदक्षिणा दिखाई पड़ने लगती है ।
( ८ ) उसे अपने सारे शब्द एवं वाक्य स्तोत्र प्रतीत होने लगते हैं और अन्त में उसे यह लगने लगता है कि मैं जो कुछ भी करता हूँ वह सब कुछ भगवान् की आराधना ही है— 
उसके सिवा कुछ भी नहीं है । वह कह उठता है —
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं 
पूजा ते विविधोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः । 
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो 
यद् यद् कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥ 
इसी स्थिति में वह यह भी कह उठता है कि— 
जपो जल्पः शिल्पं सकलमपि मुद्राविरचनं 
गतिः प्रादक्षिण्यं भ्रमणमशनाद्याहुतिविधिः । 
प्रणामः संवेशः सुखमखिलमात्मार्पणदशा 
सपर्यापर्यायस्तव भवतु यन्मे विलसितम् ॥ 
अर्थात् – 
( १ ) मेरा बोलना ही जप है । 
( २ ) सारा कर्मकाण्ड मुद्रा - रचना है । 
( ३ ) मेरा चलना - फिरना प्रदक्षिणा है । 
( ४ ) मेरा खाना - पीना यज्ञाहुति है । 
( ५ ) मेरा सोना ही भगवान् को प्रणाम करना है ।
( ६ ) मेरे द्वारा सारे सुखों का उपभोग ही आत्मसमर्पण है । 
( ७ ) मेरा विलास ही तेरी पूजा है । 
इसी विलक्षण आध्यात्मिक परावस्था में पहुँचकर ऐसा साधक पूछ बैठता है कि जो पूर्ण होने के कारण सर्वत्र स्थित है उसे किस जगह बुलाया जाय जहाँ वह न हो ? 
उसका आवाहन कैसे करें ? 
जो स्वयमेव सबका आधारस्वरूप आसन है उसे कौन - सा आसन दिया जाय ? 
जो स्वयं स्वच्छ है उसे पाद्य कैसे दिया जाय ? 
जो निर्मल है उसे निर्मलता के लिए जल कैसे दिया जाय ?
तथा इसी प्रकार उसे अन्य पूजन सामग्री कैसे समर्पित की जाय ?  
पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम् ? 
स्वच्छस्य पाद्यमध्यं च शुद्धस्याचमनं कुतः ? ।। 
निर्मलस्य कुतः स्नानं वस्त्रं विश्वोदरस्य च ? 
अगोत्रस्य त्ववर्णस्य कुतस्तस्योपवीतकम् ? 
निर्लेपस्य कुतो गन्धः पुष्पं निर्वासनस्य च  ? ।।
परमात्मा में संलीन साधक के शरीर में अपना कहने के लिए उसका रत कभी नहीं बचता ।