अदीक्षित या अपूर्ण दीक्षित को प्रेरणा मिले और दीक्षित को ज्ञान शिव का निवास सहस्त्रार में है ।
शक्ति मूलाधार की त्रिकोण योनि में जिसे शास्त्र कुल कुण्ड या मातृ योनि भी कहते हैं ।
"कुल" का अर्थ शक्ति और "कुण्ड" से योनि का बोध होता है।
कुण्डलिनी जो अणु से भी सूक्ष्म है साढे तीन फेरे मार कर जीव के कारण शरीर मे सोई हुई है ।
सहस्त्रार ही शिव का निवास है जहाँ शिव और शक्ति का पूर्ण योग होता है यहीं पर अमृत का सागर लहराता है जिसके ठीक ऊपर है विन्दू विसर्ग यहीं पर जीव प्राप्त काम आप्त काम और अन्त में अकाल बनता है यही पर परम् शिव ज्योति को के रूप में विराज मान है जो अविद्या के आवरण के हट जाने पर तीनों लोकों में जग उठते है ।
यही जन्म जन्मान्तर के कर्मो से उत्पन्न वासनाये संचित रहती है यहीं मनो वांछित फल को देनी वाला कल्प तरू है यही पर पीठ है जहाँ शक्ति शिव से योग करती है कुल कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार में शरीर चेतना स्वाधिष्ठान में स्थुल रूप मणिपुर मे स्थूल गन्ध अनाहात मे स्थुल स्पर्श विशुद्ध मे स्थुल शब्द और आज्ञा में अन्तः करण की वृक्ति का एक एक कर अति कमण करती हुई अन्त में अपने परम शिव से सहस्त्रार मे एक हो जाती है ।
जब कुल कुण्डलिनी कुद्ध सपिणी की तरह फुफकारती हुई मूलाधार मे जागती है तब इन्द्रिया अनुभूति चित संवेदन और अहं भाव का लोप हो जाता है तब योग शक्तियां उस साधक के पीछे वैसे ही दौर परती है ।
जैसे किसी वृद्ध के पीछे दिगम्बर बालाये गुरु शिष्य को सचेत करता है क्योंकि सिद्धियाँ निम्न कोटि का प्रलोभन है ।
उसे त्रिपुर सुन्दरी कहते है क्योंकि वह स्थुल सुक्ष्म और कारण मे व्याप्त रहती है जो उसकी इस सत्यता को जानता है वह स्वयं तीनों पुरों का अति कमण कर लेता है जैसे ही वह अनाहत चक्र का स्पर्श करती है वैसे ही हृदय कमल खिल जाता है ।
कुल कुण्डलिनी पर सोलह वर्ण युक्त पञ्च दशाक्षरी मन्त्र है
ॐ क ए इ ल हीं ह स क ए इ ल ह्रीं सकल ह्रीं
के मन्त्र के अनुसार गुरु से सीख कर ध्यान करो तो सर्व रक्षाकार चक्र का अष्टार में उल्लिखित वशिनी, कामेश्वरि, मोहिनी, विमला, अरूणा, जयिनी, सर्वेशी, और कालिनी की शक्तियाँ प्राप्त होती है ।
कुल कुण्डलिनी जीवन भाव को हरणे वाले हर की शक्ति है योगी के जीव भाव का नाश वह उन्ही के द्वारा करते है और तीन बिन्दु तीन त्रिकोन तीन समानान्तर रेखाएँ तीन अक्षर वाले मत्रं तीन रूप तीन योनिया तीन मुख्य शक्तियाँ ऐसी ही है त्रिपुर सुन्दरी ।
यह तीन बिन्दु लाल श्वेत और अवर्ण रंगों के द्वारा जीव निरोध जीव भाव और जीव सता का बोध कराते है पहला बिन्दु लाल रंग का जीव की अहंकार चेतना का बोधक है दुसरा विन्दु सफेद रंग का जीव की मगेकय चेतना का बोधक है तीसरा बिन्दु निर्गुण का बोधक है इसीलिए उसका कुछ भी रंग नहीं ।
कुल कुण्डलिनी पर मूलाधार में इस तरह ध्यान करें ।
जैसे तीन बिन्दु उल्लासित मुखाकृति और स्तन युगल हो और ह कार से निम्नांगों का स्वरूप वनता हो तव मन्मथ कला का चिन्तन करो इससे तुम्हे वशित्व की प्राप्ति होगी गुरु शिष्य को चेतावनी देता है कि यह सव नाशवान है और त्रिपुर सुन्दरी की कृपा ही केवल मात्र अविनाशी है ।
कुल कुण्डलिनी पर अनाहत चक्र में ध्यान करो कि वह अमृत की धारा बहा रही है ऐसा करने से पाप रूपो का नाश हो जाता है गुरु के साथ चलो इस धरती से और वरुण लोक अग्नि लोक वायु लोक और आकाश से होते हुए शुद्ध चिदाकाश मे स्थित हो जाओ हठ मत्रं और भावना से जीव भाव की तीब्रता समाप्त हो ही जाती है ।
गुरु के साथ चलो तो तीन लोक सात भूमि चौदह भुवन पार कर नाम और रूपो को छोड़ते जाओ रास्ते मे ब्रह्म, इन्द्र, यम, कुबेर, आदि को मार कर उनके राज्यो की सीमा को पार जाना होगा ।
कुल कुण्डलिनी को जिसका मूल योनि है और जिस पथ सुषुम्ना है और जो ब्रह्मरन्ध्र मे परम शिव से मिलती है शान्त करना चाहिए पहले तब अखण्डव ( अहोरात्र जप ) ( अविचिलित ध्यान ) अद्वैत इष्ट भाव प्रसाद रूप फलाहार पूर्ण निवेदन काष्ठ मौन और कठोर ब्रह्मचर्य के द्वारा उसका उत्थान करो ।
कुल कुण्डलिनी के उत्थान के लिए दुर्गासप्तशती अथवा आनन्द लहरी का पाठ करो ।
कुल कुण्डलिनी को उपर की ओर अवाध गति से बढने देने के लिए आसन बन्ध, मुद्रा और प्राणायाम की मदद से ब्रह्म ग्रन्धि विष्णु ग्रन्थि और रूद्र ग्रन्धि को अच्छी तरह वश मे कर तीनों गुणों को जीतना चाहिए ।
क्योकि तीनो के मुर्दों पर यह महा शक्ति महा कोध और अवधूत वेश में खड़ी रहती है इस प्रकार स्टेज में सच्चा गुरु ही शिष्य को थाम सकता है ।
वामकेश्वर या ज्ञानवर्णव तंत्र राज का जिसे अनुभव नहीं ऐसा गुरु कुण्डलिनी योग के साधक का रिक्स न ले, तब सबसे पहले एक कुण्ड हवन के लिए तैयार कर सुगन्धिक घी से सौ आहुतियाँ गुरु ने देनी चाहिए अथवा कुल कुण्डलिनी मे स्थित ज्योतिर्मय स्वयं भू लिंग पर शिष्य सौ आहुतियाँ अर्पित करें ।
तो गुरु को अपर अरणि व उतर का निर्मथन कर कुण्ड मे शिष्य के सहयोग से स्वयं भू अग्नि दीप्त करनी चाहिए तो जब अग्नि से कुण्ड दीप्त हो उठे तब समिधा पूरि की जाय और मन्मथ कला तथा वशिनी कला का चिन्तन कर दिनो दिन सौ सौ आहुतियाँ प्रदान की जाये, जब आहुतियाँ दी जा रही हो तब स्मर योनि और लक्ष्मी के तीन बीज क , ए , ई को पंच दशाक्षरी से युता कर और शिष्य से उनका उच्चारण करोत हुए गुरु स्वयं भी उनका उच्चारण करते हुए सावधानी से आहुतियाँ प्रदान करें ।
गुरु आहुति प्रदान करता है शिष्य कुण्ड का निर्माण पुनः गुरु अरीणयो के निर्मथन से अग्नि पैदा करता है अब शिष्य दीप्त कुण्ड मे मन्थन कला को प्रकर करते हुए इष्टदेवता पर संयम कर ।
ॐ ह स क ल हीं ह स क ह ल हीं सकल हीं का उच्चारण करे यह बाद में बतला ऊगा कि किस प्रकार इस मंत्र की एक सहस्त्र आवृति कर शक्तिशाली गुरु शिष्य पूर्णाहुति प्रदान करते है ।
क्योकि होता के हाथ मे जो स्त्रुवा आहुति के लिए सूगन्धित
घी से भरा है वह प्रायः उपरोक्त मत्रं की एक सहस्त्र आवृतियों तक स्थिर नहीं रह जाता दोनो मे से किसी का भी संतुलन भंग हुआ तो आहुति असमय में खण्डित हो जायगी ।
तो जब आम दीप्त हो और दोनो आहुति के लिए तत्पर हो तब तक कुम्भक करना करना और हठ पूर्वक प्राणों कों हवन पात्र में भरना और अग्नि की ज्वालाओ पर पुनः हठ पूर्वक प्राणों को जगना जव तक गुरु पूर्णा हुत प्रदान नहीं करता तव तक तुम यह किया अन्तिम हठ के साथ करते जाओ उसके बाद गुरु और शिष्य एक साथ स्वाधिष्ठान में इष्ट का ध्यान करते हुए शान्त हो जाये ।
यदि तुम कुशल अनुभवी शक्तिशाली और संयमी शिष्य होओगे तो यह यज्ञ अकेले भी संपन्न कर सकते हो इस तंत्र का अभ्यास गुरु अकेले नहीं कर सकते इस गुप्त तंत्र का अभ्यास केवल शक्तिशाली और संयमी गुरु शिष्य करे अन्यथा बार बार आहुतियाँ निष्फल हो जाती है ।
योगीजन की इस तंत्र का विधान का सकते है अन्यथा खण्डन का भय निश्चित है इसलिए तुम्हें अपनी आत्मा को निष्पाप निर्भीक और निर्मल बनाना चाहिए अब्रह्मचर्य शील साधक कभी भी इस मे सफल नहीं बन सकता शक्ति जागरण चक्र भेदन और शिव शक्ति योग इन तीनों को हठ मंत्र और भावना से सिद्ध किया जाता है ।
गुरु वह शिष्य को शाम्भवी मुद्रा अगोचरी मुद्रा और भूचरी मुद्रा का अखंड अभ्यास होना चाहिए अन्यथा औषधियो का सेवन करें कुण्डलिनी अविनाशी है, छहो चक्रों में इसकी कलाये डाकिनी राकिनी लाकिनी काकिनी शाकिनी और हाकिनी के रुप मे रहकर उन चक्रो का नियंत्रण करती है ये चक्रों की अधिष्ठात्री शक्तियाँ हैं ।
तुम कुण्डलिनी के शाकार वाली शक्ति का त्रिकोणस्थ योनि में मूलाधार चक्र पर सावित्री और वहन की आसन करो यह मातृ शक्ति का कामाख्या पीठ है, यह कौल सिद्धान्त है ।
स्वाधिष्ठान सहित इसे तमाम चक्र भी कहते हैं अतः संयम सिद्धकर एक सौ पूर्णाहुति से ही सन्तोष न करना वल्कि अग्नि पर आहुतियाँ देते जाना जब तक शक्ति अपने पीठ को छोड़कर आरोहन न करने लगो ।
तुम स्वाधिष्ठान मे रुद्रा व रुद्राणी की आसना करो इष्ट पर ध्यान भी जब तक इष्ट वरुण के लोक नाभि कमल वाले मणिपुर चक्र में विष्णु और नारायण की उपासना करो यहाँ से सावधान क्योंकि अनादि वासन काम का आश्रय लेकर यहाँ जग पड़ती है , गुरु तुम्हारी रक्षा करेंगे ।
गुरु शुश्रुषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा ।
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते ।।
भावार्थ -- विद्या गुरु की सेवा से , प्रर्याप्त धन से तथा विद्या के आदान प्रदान से प्राप्त होती है , इसके अतिरिक्त विद्या प्राप्त करने का चौथा तरीका नहीं है
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